Sunday, September 19, 2010
परछाइयों की दौड़ है !
प्यार की मंजिल नहीं है तेरे शहर में
नादान कोई दिल नहीं है तेरे शहर में !
खून एक-दूजे का हर किसी के हाथ ,
कौन अब कातिल नहीं है तेरे शहर में !
नफरत की एक छोटी चिंगारी बहुत है,
बारूद कुछ मुश्किल नहीं है तेरे शहर में !
अब हवा में तैरती नहीं है बांसुरी ,
अपनों की महफ़िल नहीं है तेरे शहर में !
दूर तक परछाइयों की दौड़ है यहाँ
कुछ भी तो हासिल नहीं है तेरे शहर में !
इस शहर को गाँव की तरह बना सके ,
क्या कोई काबिल नहीं है तेरे शहर में !
स्वराज्य करुण
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बेहतरीन...सशक्त अभिव्यक्ति|
ReplyDeleteब्रह्माण्ड
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और टिपण्णी देने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और शानदार रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!
शहर उसका...मिज़ाज उसके , ख्याल अपना...अज़ाब अपने !
ReplyDeleteइस शहर को गाँव की तरह बना सके ,
ReplyDeleteक्या कोई काबिल नहीं है तेरे शहर में !
*
कबीलों को ढूंढ़ पाना आसान है ,
पर भीड़ है बहुत तेरे शहर में ;
उत्साह बढ़ाने वाली आत्मीय टिप्पणियों के लिए आप सबका हार्दिक आभार.
ReplyDeleteखून एक-दूजे का हर किसी के हाथ ,
ReplyDeleteकौन अब कातिल नहीं है तेरे शहर में !
Tikha prahar kiya hai aapne vartman vyvastha par.
bahut sundar
aabhar.
aapki shayari ka mai kaayal hun. bahut badhiya lagta hai aapki kavita padhkar. aapki kavita me kuchh nirashavaad ki jhalak milti hai, aur na mai ashavaadi hun, na nirashavaadi,bas yatharth ka maja leta hun. shahar mere liye achchha hai,bura bhi. par haan, aapki kavita sadaiv bahut achchhi,dil ko chhu lene wali hoti hai .saadar - balmukund
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