Saturday, October 30, 2021

पहाड़ियों से घिरे गाँव में इतिहास की धड़कनें

         (आलेख : स्वराज्य करुण )
राजे -रजवाड़े तो अब रहे नहीं ,लेकिन धरती के आँचल में , इतिहास के भूले -बिसरे पन्नों में  , समय की सुनामी से टूटे -बिखरे भवनों और किलों के अवशेषों में और जनश्रुतियों में उनके अतीत वैभव  की यादें आज भी जीवित हैं। दिल इतिहास का भी होता है ,  जिसकी  धड़कनों में मानव सभ्यता  की सैकड़ों हजारों साल पुरानी यादें आज भी धीमी आवाज़ में ही सही ,लेकिन गूंजती रहती हैं।  इतिहास के दिल की इन धड़कनों को छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले में हरी -भरी ऊँची पहाड़ियों से घिरे ग्राम कौड़िया में  भी  महसूस किया जा सकता है।  काल के प्रवाह में क्या  इतिहास का यह मंद पड़ता स्पंदन  एक दिन पूरी तरह बंद हो जाएगा और  इतिहास मर जाएगा ? हम प्रार्थना करें कि ऐसा दिन कभी न आए और इतिहास हमेशा जीवित रहे ,ताकि हमारा वर्तमान उससे कुछ सीख सके। 

                            

   पिथौरा विकासखंड में ग्राम पंचायत पिलवापाली का आश्रित गाँव है कौड़िया । यह  गोंड और बिंझवार जनजाति बहुल गाँव है। ऐसा माना जाता है कि  बहुत पहले रियासती राजाओं के दौर में यह  राजा करिया धुरवा की राजधानी थी। वह आमात्य गोंड समुदाय के थे।  धुरवा उनका गोत्र था।  यह  उनकी मुख्य कर्मभूमि थी। 

                
           करिया धुरवा के वंशज संतराम गोंड

संतराम गोंड जैसे उनके कुछ वंशज आज भी कौड़िया में रहते हैं ,लेकिन उन्हें अपने इस बहादुर पूर्वज के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं है ,सिवाय इसके , कि यहाँ उनका एक गढ़ (किला )था और उनका  मंदिर यहाँ से करीब 16 किलोमीटर दूर ग्राम अर्जुनी में है और जहाँ हर साल अगहन महीने की पूर्णिमा के दिन विशाल तीन दिवसीय मेले का आयोजन किया जाता है। संतराम हमें यह भी बताते हैं कि कौड़िया गाँव से लगी पहाड़ी के ऊपर राज दरबार के भी अवशेष हैं ,जहाँ पत्थरों पर ' धन ' और 'ऋण ' की आकृतियां भी बनी हुई हैं । समय की कमी थी। इसलिए हम 'राज दरबार ' तक नहीं पहुँच सके ,लेकिन पहाड़ी के एक ओर ऊँचे स्थान पत्थरों से निर्मित सिद्ध बाबा की एक अनगढ़ मूर्ति हमने जरूर देखी। 
                         
                 ग्राम कौड़िया का प्रवेश मार्ग
  कौड़िया गाँव के लोग हमें उस किले को दिखाते हैं ,जो अब समय के तेज प्रवाह में विलुप्त होने के कगार पर है। करिया धुरवा का यह गढ़ आज की स्थिति में एक -दूसरे पर बेतरतीब रखे हुए बड़े -बड़े पत्थरों से घिरा हुआ है और उसकी एक दीवार लगभग आधे किलोमीटर तक जाकर  कौड़िया डोंगरी को स्पर्श करती है।लेकिन यह दीवार भी बीच -बीच में बने मकानों और लोगों की बाड़ियों  आदि के कारण ठीक से नज़र नहीं आती। करिया धुरवा के गढ़ का यह ध्वंसावशेष उनके गौरवशाली अतीत की याद दिलाता है। 
   अंचल के प्रसिद्ध लेखक शिवशंकर पटनायक  ने करिया धुरवा की जीवन गाथा को उपन्यास के साँचे में ढाला है। उनका उपन्यास 'देवी करिया धुरवा 'के नाम से काफी चर्चित भी हुआ है। इस उपन्यास की चर्चा मैंने फेसबुक पर दो दिन पहले 27 अक्टूबर को अपनी पोस्ट में विस्तार से की है।
 बहरहाल ,उनका उपन्यास पढ़कर मैं  जिज्ञासावश अपने मित्र प्रवीण 'प्रवाह' के साथ कल कौड़िया चला गया  था।
वहाँ  स्थित  करिया धुरवा के विलुप्त हो रहे गढ़ में ग्रामीणों ने एक चबूतरा बना दिया है ,जिस पर बहुत प्राचीन शिव लिंग स्थापित है। ग्रामीण उनकी पूजा करते हैं। बाजू में काले पत्थरों से निर्मित एक प्रतिमा रखी हुई है। सूरज की रोशनी ,  हवा और बारिश की बौछारों से इसका क्षरण होता जा रहा है। ध्यान से देखने पर यह उमा -महेश्वर ,(पार्वती महादेव) या अर्ध नारीश्वर  की मूर्ति प्रतीत होती है। इसी गढ़ के परिसर में वृक्ष के नीचे पत्थर की एक लम्बी -आकृति भी शान से खड़ी है। 

                        
गाँव वाले इसे ' पाट -देवी ' मानते हैं ,जो उनके अनुसार ग्राम भुरकोनी से आयी हैं । ग्रामवासी  उमा -महेश्वर के साथ इनकी भी पूजा करते हैं।  लेकिन वनवासियों के इस गाँव के आस -पास कौड़िया डोंगरी के नाम से प्रसिद्ध इन पहाड़ियों के कुछ हिस्सों में वनों की कटाई देखकर पर्यावरण की दृष्टि से चिन्ता भी होती है।हालांकि कौड़िया से लगी पहाड़ियों में हरे -भरे वन अभी पर्याप्त बचे हुए हैं। 
    प्राचीन भारत के इतिहास को जानने समझने के लिए देश के ग्रामीण क्षेत्रों में  बिखरी पुरातात्विक सम्पदाओं को सहेजने की जरूरत है। पुरातत्व विशेषज्ञ कार्बन डेटिंग पद्धति और अन्य तकनीकों से इनका काल निर्धारण कर सकते हैं। करते भी हैं। इसके बावज़ूद व्यवहारिक कठिनाइयों के कारण  पुरातात्विक महत्व के अनेक स्थान और स्मारक अनदेखे और अनछुए रह जाते हैं ,क्योंकि पुरातत्व विभाग की अपनी सीमाएं हैं ,संसाधन भी सीमित हैं। ऐसे में अगर विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के इतिहास विभाग के अध्यापक अपने विद्यार्थियों के साथ ऐसे स्थानों का अध्ययन करें ,अनुसंधान करें तो कई नये ऐतिहासिक तथ्य सामने आ सकते हैं और पुरातत्व विभाग के मार्गदर्शन में  इन पुरावशेषों को ग्राम पंचायतों और स्थानीय निकायों के सहयोग से संरक्षित भी  किया जा सकता है।
 -- स्वराज्य करुण 

Wednesday, October 27, 2021

छत्तीसगढ़ के लोक -देवता पर पहला उपन्यास : देवी करिया धुरवा

             (आलेख : स्वराज करुण )
दुनिया के अधिकांश   ऐसे देशों में जहाँ गाँवों की बहुलता है  और खेती बहुतायत से होती है ,जहाँ नदियों ,पहाड़ों और हरे -भरे वनों का प्राकृतिक सौन्दर्य है , ग्राम देवताओं और ग्राम देवियों की पूजा -अर्चना वहाँ की एक प्रमुख सांस्कृतिक विशेषता मानी जाती है। सूर्य ,चन्द्रमा ,आकाश ,अग्नि , वायु ,जल  और वर्षा की चमत्कारिक प्राकृतिक शक्तियों ने इन्हें भी प्राचीन काल से ही लोक -मानस में देवताओं और देवियों के रूप में प्रतिष्ठित किया। चाहे नील नदी और सहारा रेगिस्तान का देश मिस्र हो या अफ्रीकी महाद्वीप के छोटे -बड़े देश , चाहे एशिया महाद्वीप का चीन हो या भारत , सभी देशों में स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय स्तर  तक उनके अपने -अपने देवी -देवता होते हैं। 
       भारतीय संस्कृति में तो प्राचीन काल से ही नदियों , पहाड़ों  और वनों को भी देवी -देवता के रूप में पूजा जाता  है और मानव समाज के प्रति उनके अमूल्य और अतुलनीय योगदान के लिए उनके प्रति आभार प्रकट किया जाता है।  राजतंत्र के जमाने में प्रत्येक राजवंश के स्वयं के कुल देवता और कुल -देवियाँ हुआ करती थी ।
   कुल -देवों और कुल -देवियों की पूजा -परम्परा
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अब तो राजतंत्र नहीं है,लेकिन कुल देवों और कुल देवियों की पूजा की परंपरा उनके यहाँ पीढ़ी दर -पीढ़ी आज भी चली आ रही है। यहाँ तक कि हम जैसे सामान्य मनुष्यों के भी अपने कुल देवता और कुल देवियाँ होती हैं।हमारे यहां  जनजातीय समाजों के भी अपने -अपने आराध्य देव और अपनी -अपनी आराध्य देवियां हैं। कई मनुष्य भी अपनी विलक्षण प्रतिभा ,अपने शौर्य ,अदम्य साहस और लोक हितैषी कार्यों की वजह से समाज में  सम्मानित होकर लोक मानस में देवी-देवता के रूप में स्थापित हो जाते हैं। उन्हें अलौकिक और अतुलनीय शक्तियों का केन्द्र मान लिया  जाता है।   आगे चलकर वे व्यापक जन -आस्था का केन्द्र बन जाते हैं। उन्हें लोक -देवता अथवा लोक -देवी के रूप में लोक -मान्यता मिल जाती है।
  हर गाँव और ग्राम समूहों के अपने देवी -देवता                    ****************
कृषि प्रधान भारत के ग्रामीण परिवेश वाले राज्य छत्तीसगढ़ में भी लगभग हर गाँव के और ग्राम समूहों के अपने देवी -देवता हैं।  हमारे अतीत में कई ऐसी महान विभूतियों ने इस धरती पर जन्म लिया ,जिन्होंने लोक -कल्याण की भावना से देश और समाज के हित में अपना सम्पूर्ण जीवन अर्पित कर दिया और लोक -देवता और लोक -देवी के रूप में जनता के दिलों पर हमेशा के लिए रच -बस गए। 
  छत्तीसगढ़ के लोक देवता करिया धुरवा और उनकी पत्नी करिया धुरविन यानी राजकुमारी देवी कुंअर  की जीवन गाथा इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण है ,जिन्हें  महासमुंद जिले की तत्कालीन कौड़िया की ज़मींदारी  रियासत में जनता के बीच और विशेष रूप से आदिवासी समाज में देवी -देवता के रूप में अपार प्रतिष्ठा मिली।  आगे चलकर एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में उन्हें कौड़िया का शासक (राजा ) बनाया गया।  

           अर्जुनी में है करिया धुरवा का मंदिर
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उनका बहुत प्राचीन और इकलौता मंदिर राजधानी रायपुर से तक़रीबन 100 किलोमीटर और तहसील मुख्यालय पिथौरा से लगभग छह किलोमीटर पर ग्राम अर्जुनी में स्थित है । मुम्बई-कोलकाता राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 53 के किनारे ग्राम मुढ़ीपार से होकर अर्जुनी की दूरी सिर्फ़ दो किलोमीटर है। हर साल अगहन पूर्णिमा के मौके पर जन -सहयोग से तीन दिवसीय भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। आम तौर पर यह करिया धुरवा के मंदिर के नाम से जाना जाता है। छत्तीसगढ़ प्रदेश अनेक आंचलिक देवी -देवताओं की जन्म भूमि और कर्म भूमि के रूप में विख्यात है ।
    अंचल के प्रसिद्ध उपन्यासकार शिवशंकर पटनायक की सशक्त लेखनी से करिया धुरवा की जीवन गाथा पहली बार उपन्यास के रूप में सामने आयी है। पिथौरा निवासी श्री पटनायक रामायण और महाभारत के पात्रों पर आधारित कई पौराणिक उपन्यासों के सिद्धहस्त लेखक हैं। जहाँ तक मुझे जानकारी है ,यह छत्तीसगढ़ के किसी लोक -देवता पर केन्द्रित पहला उपन्यास है।  करिया धुरवा इस उपन्यास के नायक हैं ,वहीं इसमें मानसाय और नोहर दस्यु जैसे अत्याचारी खलनायक भी हैं  । किसी भी अत्याचारी खलनायक की तरह उनका भी अंत बहुत बुरा होता है। उपन्यास में जन -कल्याणकारी लोकप्रिय शासकों के रूप में कोसल महाराजा और सिंहगढ़ नरेश  प्रियभान के चरित्र को भी रोचक ढंग से उभारा गया है।  करिया  धुरवा और उनकी पत्नी  देवी कुंअर के नाम पर उपन्यास का शीर्षक 'देवी करिया धुरवा ' रखा गया है।नायिका  देवी कुंअर को इसमें एक जागरूक ,सशक्त और साहसी नारी के रूप में चित्रित किया गया है।
            फ़िल्म निर्माण की संभावना 
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मुझे लगता है कि अनेक रोचक और रोमांचक घटनाओं से परिपूर्ण इस उपन्यास पर एक बेहतरीन फ़ीचर फ़िल्म भी बन सकती है ,बशर्ते छालीवुड के हमारे प्रतिभावान फ़िल्मकार इसके लिए आगे आएं और इसकी संभावनाओं पर विचार करें। 
      किंवदंतियों और कल्पनाओं का भी सहारा
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  लेखक ने उपन्यास को रोचक और प्रेरक बनाने के लिए जहाँ किंवदंतियों लोक -धारणाओं और कल्पनाओं का सहारा लिया है ,वहीं कई प्रसिद्ध लेखकों की पुस्तकों का गहन अध्ययन करके भी उन्होंने कुछ तथ्यों को इसमें अपनी शैली में प्रस्तुत किया है। उपन्यास लिखने के पहले उन्होंने तथ्य -संकलन के लिए  करिया धुरवा मेला समिति के पदाधिकारियों और अंचल के अनेक प्रबुद्ध लोगों और इतिहासकारों से भी चर्चा की थी। उपन्यास के शुरुआती साढ़े छह पन्नों के वक्तव्य में लेखक ने उन सबके प्रति आभार प्रकट किया है। उपन्यासकार का  कहना है कि लोक मान्यताओं के अनुसार यह घटना 200 वर्ष पहले की है। लेकिन इतिहास इस बारे में ख़ामोश है। किसी प्रकार का प्रामाणिक दस्तावेज नहीं था। अतः कोसल राज्य को केन्द्र बिंदु में रखना ही उन्होंने उचित माना।  उपन्यासकार के अनुसार करिया धुरवा एक आदिवासी युवा है। उसके दो भाई कचना धुरवा और सिंगा धुरवा भी हैं। करिया धुरवा एक कुशल और अप्रतिम  शिल्पकार हैं और अदम्य साहस के धनी कुशल योद्धा भी।  वह अच्छे चित्रकार और मूर्तिकार हैं  । उनके भाई कचना भी  एक साहसी और मेधावी युवा  हैं और सिंगा वनौषधियों के अच्छे जानकार और माँ कंकालिन के भक्त हैं। । उपन्यासकार ने अपनी इस कृति के सन्दर्भ में प्रारंभ में यह भी लिखा है कि   करिया धुरवा के  हाथों निर्मित मूर्तियाँ आज भी अर्जुनी सहित आस पास स्थित  सरागटोला ,छिबर्रा, कोकोभाठा ,गतवारी डिपरा और पोटापारा नामक गाँवों में आज भी मौज़ूद हैं।       
               उपन्यासकार शिवशंकर पटनायक 
          कोसल भूमि पर विस्तारित कथानक 
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यह उल्लेख करना भी उचित होगा कि तत्कालीन समय में ,सैकड़ों वर्ष पहले भारत के अन्य भू भागों की तरह छत्तीसगढ़ भी अनेक छोटी -बड़ी रियासतों में बँटा हुआ था। इन रियासतों के भी अपने -अपने पूजनीय देवी -देवता हुआ करते थे। उस समय यह सम्पूर्ण विशाल भू -भाग कोसल और दक्षिण कोसल के नाम से भी जाना जाता था  ।   उपन्यास का ताना -बाना इसी भू -भाग में रचा गया है। मानव सभ्यता का इतिहास हमें बताता है कि  विभिन्न राजनीतिक परिवर्तनों के कारण दुनिया में देशों और प्रदेशों की सीमाएं भी समय -समय पर परिवर्तित होती रहती हैं।उपन्यास का   कथानक तत्कालीन कोसल प्रदेश की छोटी -बड़ी अनेक रियासतों में  फैला हुआ है। इसमें छत्तीसगढ़ के वर्तमान पड़ोसी राज्य ओड़िशा के बूढ़ा सांवर और पाटना गढ़ का भी उल्लेख है और पाटनागढ़ के  आश्रित राज्य पिपौद का भी। बूढ़ा सांवर को राज बोड़ासाम्बर भी कहा जाता है ,जिसका वर्तमान मुख्यालय ओड़िशा के बरगढ़ जिले का पदमपुर कस्बा है ,जोकि एक तहसील मुख्यालय भी है।वहीं पाटनागढ़ भी अब ओड़िशा के बलांगीर जिले का तहसील मुख्यालय है। करिया ,कचना और सिंगा ,तीनों आदिवासी समाज के हैं। लेखक के अनुसार धुरवा उपनाम मध्यवर्ती छत्तीसगढ़ के अंचलों में अधिक प्रचलित है और तीनों  इन अंचलो के जन -मानस के नायक हैं। तीनों भाई आमात्य गोंड समुदाय के है । 
     सिंहगढ़ के  प्रजा -वत्सल राजा प्रियभान 
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  उपन्यास की शुरुआत कोसल राज्य की सिंहगढ़ रियासत के प्रजा वत्सल राजा प्रियभान के आदर्श व्यक्तित्व और न्याय प्रिय तथा लोक कल्याणकारी प्रशासन के वर्णन से होती है। प्रियभान को उनके इस करुणामय व्यक्तित्व के कारण जनता 'संत राजा ' के नाम से सम्बोधित करती है। उपन्यासकार के अनुसार कोसल राज्य की रियासतों में सिंहगढ़ आदर्श था । चित्रोत्पला महानदी के किनारे यह  रियासत सघन वनों और सोना -चाँदी  ,ताम्बा ,लोहा जैसी  बहुमूल्य खनिज सम्पदाओं से परिपूर्ण थी।  यहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य दर्शनीय था। संत राजा की कोई संतान नहीं थी । कठोर तपस्या से उन्हें ठाकुर देवता बूढ़ादेव का आशीर्वाद मिला और कन्या रत्न की प्राप्ति हुई ,जिसका नामकरण देवी कुंअर किया गया। 
              राजकुमारी का अपहरण
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रियासत में एक दिन संत राजा प्रियभान की पुत्री राजकुमारी देवी कुंअर का अपहरण हो जाता है। अपहरण की साजिश राजा के  ही पालित पुत्र चन्द्रभान द्वारा रची जाती है ,जो राजकुमारी को जहरीला प्रसाद खिलाकर बेहोश कर देता है और उसके तत्काल बाद महानदी की लहरों में डोंगी पर घात लगाकर बैठे नोहर नामक दस्यु के लोग उसे अगवा कर लेते हैं । चन्द्रभान सिंहगढ़ की रानी जोतकुंअर के भाई तेज का पुत्र है । तेज के आग्रह पर राजा प्रियभान ने चन्द्रभान को महल में रखकर उसका लालन पालन किया था। बहरहाल ,अपहृत राजकुमारी को बचाने के लिए उसकी सहेली सुकमत महानदी के किनारे किनारे दौड़ लगाती है। तभी महानदी के तट पर स्थित एक गाँव के लोग इस दृश्य को देखकर शोर मचाते हैं । 
          करिया धुरवा की धमाकेदार एंट्री                               **************
तभी उस कोलाहल भरे दृश्य में करिया धुरवा की धमाकेदार एंट्री होती है और वह नदी में छलांग लगाकर पूरी ताकत से डोंगी को रोक लेता है।यह करिया धुरवा का गाँव है। बेहोश राजकुमारी को करिया के निवास में लाया जाता है। करिया के निर्देश पर उनके छोटे भाई सिंगा वनौषधियों से राजकुमारी का उपचार करता है। वह होश में आ जाती है। इसी दरम्यान  वहाँ अचानक नोहर दस्यु के तलवारधारी  लोग आ धमकते हैं।  तीनों भाई अपने अदम्य साहस से उनका मुकाबला करके उन्हें वहाँ से भगा देते हैं। करिया धुरवा राजकुमारी को सुकमत के साथ पालकी में  सिंहगढ़ रवाना किया जाता है। सुरक्षा की दृष्टि से उनके साथ करिया प्रशिक्षित युवा लड़ाकुओं को भेजता है। क्रिया स्वयं घोड़े पर उनके साथ चल रहा होता है। रास्ते में एक बार और नोहर दस्यु के लोग राजकुमारी को अगवा करने के लिए हमला करते हैं,लेकिन करिया अपने अदम्य साहस से मुकाबला करते हुए इस हमले को विफल कर देता है।इस संघर्ष के समय  राजकुमारी भी पालकी से उतर जाती है और  करिया पर पीछे से वार करने की कोशिश कर रहे एक हमलावर को भूमि पर पटक देती है। इसके बाद करिया अपने शौर्य और पराक्रम से  हमलावरों को गाजर मूली की तरह काटने लगता है ।कई हमलावर भाग जाते हैं। राजकुमारी को करिया सुरक्षित ढंग से सिंहगढ़ पहुँचाता है।
    चिंगरोल के अत्याचारी शासक ने किया था 
        कोसल की  18 रानियों का अपहरण 
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  उपन्यास में  करिया धुरवा के शौर्य की दो और घटनाओं का भी वर्णन है ।इनमें से एक घटना उस समय की है ,जब चिंगरोल नामक जमींदारी के अत्याचारी शासक मानसाय ने अपने खुशामदी स्वभाव से कोसल महाराज के पास जाकर झूठ मूठ अपना परिचय करिया धुरवा के मित्र के रूप में दिया और महाराज का विश्वास जीतकर उनके महल में रहने लगा। मानसाय को  वशीकरण विद्या के तहत देवीधरा मंत्र की सिद्धि प्राप्त थी ।एक दिन उसने कोसल नरेश के महल की 18 रानियों पर इस मंत्र का प्रयोग करके उन्हें अपने वश में कर लिया और रात्रि में अपने मित्रों के सहयोग से उन्हें लेकर भाग निकला। रास्ते में कौड़िया रियासत के एक स्थान पर करिया धुरवा प्रकट होता है। वह कोसल नरेश की इन 18 रानियों को मान साय समेत पास के एक बड़े गाँव में ले आता है ।करिया के निर्देशों के  अनुरूप  गाँव की कुछ महिलाएं इन रानियों को सरोवर में नहलाकर  मंत्र -बाधा से मुक्त करती हैं। करिया के ही निर्देश पर गाँव के लोग मानसाय को एक वृक्ष के तने से बांध देते हैं। 
        आज भी है वह गाँव अट्ठारहगुड़ी 
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   करिया धुरवा ने कोसल नरेश की इन सभी 18 रानियों के लिए जनता के सहयोग से वहाँ रहने की व्यवस्था करवाई और उनके लिए स्वयं के खर्च से  अट्ठारह गुड़ियों ( निवासों)  का भी निर्माण करवाया।करिया ने ग्राम प्रधान से कहा कि निवास को मंदिर कहा जाता है।इसे हम आदिवासी गुड़ी कहते हैं। करिया ने यह भी कहा कि आज से कौड़िया राज्य में स्थित यह गाँव इन निर्दोष माताओं के कारण अट्ठारहगुड़ी के नाम से जाना जाएगा। कौड़िया रियासत में आज भी यह गाँव है ,जो वर्तमान पिथौरा तहसील के ग्राम नयापारा (खुर्द )से लगा हुआ है।मानसाय चिंगरोल रियासत का शासक  था। यह रियासत पाटना गढ़ राज्य के अंतर्गत आती  थी।  करिया के सुझाव पर मानसाय को कोसल की राजधानी के कारागार में बंदी बनाकर रखा गया। कोसल नरेश ने उसके अत्याचारों के बारे में चिंगरोल से प्राप्त गंभीर शिकायतों की जाँच करवाने का निर्णय लिया। सिंगा धुरवा ने चिंगरोल पहुँचकर इन शिकायतों की जाँच की ,जो सही पायी गयी।पाटनागढ़ के राजा ने चिंगरोल को अपने नियंत्रण में ले लिया। फिर शासक मानसाय को मौत की सजा दे दी गयी।उस पर कॉल नरेश से मिथ्या कथन ,कपट भाव से रानियों पर देवीधरा मंत्र का प्रयोग करके उनका अपहरण करने ,चिंगरोल की जनता के शोषण और उत्पीड़न के आरोप लगाए गए थे
    करिया ने द्वंद्व युद्ध में किया दस्यु नोहर का अंत 
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 एक अन्य घटना में सम्पूर्ण कोसल प्रदेश  को दस्यु नोहर के आतंक से मुक्त करने के लिए  करिया के सुझाव पर कोसल नरेश ने द्वंद्व युद्ध का आयोजन करने का निर्णय लिया । इसमें नोहर को विजयी होने की स्थिति में राजद्रोह के आरोप से क्षमादान की शर्त रखी गयी। करिया ने नोहर के साथ द्वंद्व युद्ध की पेशकश की। मल्ल युद्ध में तो किसी एक की जीत और किसी एक की हार होती है ,जबकि द्वंद्व युद्ध में दोनों में से किसी एक की मौत तय मानी जाती है।विजयादशमी के दिन कोसल नरेश की उपस्थिति में सिंहगढ़ में हुए  द्वंद्व युद्ध में करिया ने अपने शारीरिक  और मानसिक कौशल से पाशविक शक्ति वाले दस्यु नोहर को मौत के घाट उतार दिया।
 तीनों भाई बनाए गए   तीन रियासतों के राजा 
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इसके बाद सिंहगढ़ के राजभवन में  हुई  एक पारिवारिक बैठक में सिंहगढ़ के राजा प्रियभान ने कोसल नरेश के समक्ष प्रस्ताव रखा कि करिया को कौड़िया उसके भाई कचना को बिंद्रा और सिंगा को भाठा  राज्यों का शासक (राजा) बनाने का प्रस्ताव रखा । कोसल नरेश ने तीनों को इन राज्यों का राजा घोषित करते हुए राजाज्ञा भी जारी कर दी।दरअसल इन तीनों राज्यों में अनेक प्रशासनिक समस्याएं थीं। कोसल नरेश का कहना था कि कौड़िया राज्य (वर्तमान पिथौरा तहसील ) उत्कल राज्यों की सीमा पर होने के कारण काफी संवेदनशील है। बिंद्रा राज्य (वर्तमान जिला - बिंद्रानवागढ़ या गरियाबंद)  के राजा अत्यंत धार्मिक तथा सरल स्वभाव के हैं।अतः यह राज्य शिथिल प्रशासन से ग्रस्त है।कभी भी वाह्य आक्रमण हो सकता है।महानदी के तट से कुछ दूर स्थित भाठा राज्य (वर्तमान भाठापारा तहसील ) का शासक महत्वाकांक्षी और क्रूर है।उसका अधिकांश समय शिकार खेलने में चला जाता है। इन्हीं गंभीर कारणों से तीनों राज्यों का शासन तीनों भाइयों को सौंपा गया।इसके बाद कोसल नरेश के प्रस्ताव पर सिंहगढ़ नरेश प्रियभान ने  राजकुमारी देवी कुंअर का विवाह करिया धुरवा से  कर दिया । दोनों  कौड़िया राज्य पहुँचे। महाराज करिया ने एक महत्वपूर्ण घटना क्रम में पड़ोसी राज्य पिपौद के नशेबाज और विलासी शासक केवराती को बंदी बनाए जाने के बाद भी उसकी पत्नी की प्रार्थना स्वीकार करते हुए उसे क्षमा कर दिया।

   तुम दोनों को  मंदिर में स्थापित किया जाएगा 
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 एक दिन जब कौड़िया महाराज करिया और रानी देवी कुंअर महल में कुछ मंत्रणा कर रहे थे ,तभी वहाँ अचानक एक साधु का आगमन हुआ। साधु ने  दोनों को क्रमशः साक्षात महा काल कालेश्वर बूढा देव और शक्ति स्वरूपा भवानी का अंश बताया और कहा कि तुम दोनों की पूजा मानव करेगा और तुम दोनों को मंदिर में देव और देवी के रूप में स्थापित किया जाएगा। इसके बाद साधु  अपने विश्राम की व्यवस्था करने के लिए कहकर  अदृश्य हो गए। महाराज करिया और देवी कुंअर संशय में पड़ गए कि ये साधु कहीं स्वयं साक्षात ठाकुर देव या महादेव बूढ़ा देव तो नहीं थे ? आज भी तत्कालीन कौड़िया रियासत के ग्राम अर्जुनी में स्थित मंदिर में करिया धुरवा और देवी करिया धुरवाइन यानी देवी कुंअर की पूजा होती है और अगहन महीने की पूर्णिमा के दिन वहाँ तीन दिनों तक विशाल मेले का आयोजन होता है।
            पात्रों के माध्यम से प्रेरक संदेश 
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 आंचलिक भाव -भूमि पर आधारित अपने इस उपन्यास में  पात्रों के माध्यम से कई ऐसे प्रेरक विचार भी पाठकों के सामने आते हैं ,जिनकी प्रासंगिकता आज के समय में और भी अधिक बढ़ जाती है । इनके माध्यम से लेखक ने समाज को प्रेरणादायक संदेश देने का प्रयास किया है। जैसे --बाल्यकाल में सिंहगढ़ नरेश प्रियभान की पुत्री देवी कुंअर का अपने पिता से यह पूछना कि समाज में पुत्रवान भवः जैसा आशीष क्यों दिया जाता है ,जबकि पुत्र और पुत्री ,दोनों ही तो संतान हैं , या फिर गुरु के द्वारा देवी कुंअर से यह कहना कि जब हम मनुष्य अथवा मानव का उल्लेख करते हैं तो इसका आशय ही नर एवं नारी दोनों हैं ,दोनों एक -दूसरे के पूरक हैं और नारी को शिक्षा अनिवार्य रूप से प्राप्त करनी चाहिए ,क्योंकि इसके माध्यम से ही वह मातृकुल और सासू कुल को तार सकती है। 

महिला सशक्तिकरण का प्रतीक देवी कुंअर 
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उपन्यास में राजकुमारी देवी कुंअर के व्यक्तित्व को  तत्कालीन समाज में महिला सशक्तिकरण के लिए काम करने वाली एक जागरूक नारी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। वह महिलाओं को संगठित करती है। वह घुड़सवारी , तीरंदाजी और खड्ग चालन में भी माहिर है। राज्य की महिलाओं से उसका  जीवंत सम्पर्क रहता है।वह जन -सामान्य के घरों में भी सहजता और आत्मीयता से आती जाती है, उनकी रसोई में जाकर बरा , सोंहारी, ठेठरी ,खुरमी जैसे तरह -तरह के स्वादिष्ट व्यंजन बनाती है।तीज -त्यौहारों में उनके  साथ रहती है। महिलाओं को शिक्षा और संगठन शक्ति का महत्व बताती है। रूढ़ियों और अंध-विश्वासों से बचने की नसीहत देती है ,संस्कारों के साथ आत्मरक्षा के लिए उन्हें तीर ,बरछा और तलवार चलाना भी सिखाती है। वह मदिरापान की सामाजिक बुराई के ख़िलाफ़ भी उन्हें सचेत करती है।
         युद्ध का अर्थ ही सर्वनाश 
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इतना ही नहीं ,बल्कि  उपन्यास में महाराज करिया धुरवा की  छवि एक शांतिप्रिय शासक के रूप में भी उभरती है। वह अपने पड़ोसी राज्य पिपौद के राजा केवराती से  युद्ध नहीं चाहते।  रानी देवी कुंअर से अपने युद्ध विरोधी शांतिप्रिय विचारों को साझा करते हुए वह कहते हैं --" द्वंद्व युद्ध के परिणाम से केवल दोनों प्रतिभागी प्रभावित हो सकते हैं ,किंतु युद्ध का अर्थ  ही सर्वनाश है। एक अपराधी होता है ,किंतु अंसख्य निरपराध ,निर्दोष , राज्य - धर्म के नाम पर दोनों ओर से जीवन के मूल्य पर दंड प्राप्त करते हैं। इसमें भी एक सैनिक अपने प्राणों की आहुति देता है ,किंतु पीड़ित तो पूरा परिवार होता है।मैं भी अनावश्यक युद्ध नहीं चाहता।साथ ही युद्ध को थोपा जाना भी मैं उचित नहीं मानता। मुझे कौड़िया की प्रजा पर शत -प्रतिशत विश्वास है। सैन्य शक्ति की मुझे तनिक भी चिन्ता नहीं है,क्योंकि पिपौद की प्रजा भी युद्ध नहीं चाहती। वास्तविकता यह है कि मै मात्र केवराती के लिए किसी भी मूल्य पर प्रजा के जीवन को युद्ध के माध्यम से अशांत नहीं करना चाहता। " 
     उपन्यास में एक राजा अथवा शासक को कैसा होना चाहिए ,इसे भी कौड़िया महाराज  करिया धुरवा के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। वह अपनी रानी से कहते हैं -- "किसी भी राजा अथवा शासक को निजत्व को कभी भी महिमा मंडित कर सर्वोपरि नहीं मान लेना चाहिए। मान-अपमान ,यश -अपयश की व्याख्या करते समय सर्व कल्याण और प्रजा हित का चिंतन आवश्यक है। "
   एकलव्य थे करिया धुरवा के आदर्श 
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लेखक ने उपन्यास में  महाभारत के चर्चित पात्र एकलव्य का भी जिक्र किया है।वैसे एकलव्य के जीवन पर उनका एक उपन्यास अलग से भी है ,लेकिन करिया धुरवा पर केन्द्रित यह  उपन्यास हमें बताता है कि वह (करिया धुरवा ) एकलव्य की जीवन गाथा से बहुत प्रभावित है। इसमें सिंहगढ़ नरेश अपनी पुत्री देवी कुंअर को बताते है कि करिया धुरवा का आदर्श नायक आदिवासी पुरखा पुरुष एकलव्य है। आगे के एपिसोड में कौड़िया के महल में महाराज करिया धुरवा और  उनकी  रानी भी आपसी बातचीत में एकलव्य की चर्चा करते हैं।करिया अपनी रानी से कहते हैं --" देवी ,हम महान व्रती ,तपी और त्यागी एकलव्य के वंशज हैं , जिनका चिंतन हमारा धर्म तथा दर्शन जीवन मंत्र है। तुम्हें स्मरण है न देवी , वनवासी वन -नायक एकलव्य ने ही महाराज युधिष्ठिर से वनवासियों के हित में अनेक राजाज्ञाएँ जारी करायी और प्रथम बार महाराज युधिष्ठिर ने वनवासियों को आदिवासी के रूप में अलंकृत कर सम्बोधित किया था। "  
द्रोणाचार्य ने नहीं मांगा था एकलव्य का अंगूठा 
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 उपन्यास में एक नया तथ्य यह भी उभरकर आया है कि गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य से अंगूठा नहीं मांगा था। रानी देवी कुंअर इस संदर्भ में महाराज करिया से कहती हैं -- " भील वनवासी युवक एकलव्य हमारे गौरव हैं।गुरु द्वारा शिक्षा देने से वंचित किए जाने पर भी गुरु माटी प्रतिमा के समक्ष त्याग ,निष्ठा तथा निर्भाव से  समस्त शास्त्र विधाओं में पारंगत होना तथा गुरु के दक्षिणा मांगने के भाव को समझकर ही सीधे हाथ के अंगूठे को काटकर दे देना और गुरु को जन -रोष के कलंक से  मुक्त करते हुए दृढ़ता से कहना कि गुरु ने तो अपने मुख से दक्षिणा मांगी ही नही  थी ,उन्होंने तो अर्जुन की मानसिकता का ही जिक्र किया था ,मैंने ही आशय समझ कर अंगूठा काटकर दे दिया था , गुरु को मानसिक उलझन तथा धर्म संकट से मुक्त करना शिष्य का परम दायित्व होता है , वास्तव में एकलव्य की महानता ही थी।" 

 लोक देवता करिया धुरवा पर आधारित इस प्रथम उपन्यास में और भी कई प्रेरक प्रसंग हैं ,जिनसे पता चलता है कि  करिया धुरवा और रानी देवी कुंअर केवल मूर्तियों के रूप में प्रणम्य नहीं हैं बल्कि मानव के रूप में उनके विचार और उनके कार्य हर किसी के लिए अनुकरणीय हैं ,प्रेरणादायक हैं। लगभग 136 पृष्ठों के इस उपन्यास की प्रवाह पूर्ण भाषा पाठकों को अंत तक बांधकर रखती है। 

   आलेख  -- स्वराज करुण

Sunday, October 10, 2021

गद्य साहित्य के एकांत साधक :छत्तीसगढ़ के शिवशंकर पटनायक

(आलेख : स्वराज करुण )

आम तौर पर साहित्य सृजन में रचनाकार के आस -पास के माहौल का भी बड़ा  योगदान रहता  है। एक ऐसे   इलाके में , जहाँ अधिकांश साहित्यिक गतिविधियां सिर्फ़ कविताओं पर  केन्द्रित रहती हैं  ,वहाँ शिवशंकर पटनायक फिलहाल इकलौते रचनाकार हैं जो गद्य लेखन की साहित्यिक विधा को  पूरी तल्लीनता से आगे बढ़ा रहे हैं। वर्तमान में वह इस अंचल में गद्य-साहित्य के एकांत साधक हैं । उनके अलावा और कोई हो , जो 'छुपे -रुस्तम ' की तरह गद्य लेखन में लगा हो तो मुझे उसकी जानकारी नहीं है। 
  श्री पटनायक छत्तीसगढ़ के महासमुन्द जिले में ग्रामीण परिवेश के  छोटे -से कस्बाई शहर पिथौरा के निवासी हैं । इस   जिले में 5 तहसीलें हैं-महासमुन्द , बागबाहरा  ,पिथौरा ,बसना और सरायपाली । इनमें से महासमुंद को  राष्ट्रीय स्तर के व्यंग्यकार स्वर्गीय लतीफ़ घोंघी के गृह नगर के रूप में भी ख्याति मिली है ,जो गद्य विधा में व्यंग्य लेखन के सशक्त हस्ताक्षर थे और जिनके लगभग 30 व्यंग्य संग्रह प्रकाशित और प्रशंसित हुए हैं। वर्ष 2005 में उनके देहावसान के बाद पूरे जिले में ऐसा माना जा रहा था कि गद्य लेखन और प्रकाशन के क्षेत्र में खालीपन आ  गया है ,लेकिन उन्हीं दिनों और उसके पहले से भी शिवशंकर पटनायक बड़ी खामोशी से कहानियां ,उपन्यास,  निबंध और व्यंग्य लिख रहे थे। 


     सरकारी नौकरी में राजनांदगांव में रहने के दौरान उनका व्यंग्य संग्रह -'क्या आप इज़्ज़त की तलाश में हैं 'शीर्षक से प्रकाशित हुआ था ,जिसमें 10 लेख संकलित हैं।यह उनका इकलौता व्यंग्य संग्रह है। उन्होंने बड़ी संख्या में कहानियों, उपन्यासों और निबंधों की रचना की है। नाट्य लेखन की एकांकी विधा में भी उन्हें महारत हासिल है।
            अब तक सैंतीस ....
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 इन सभी विधाओं में उनकी प्रकाशित ,अप्रकाशित पुस्तकों की संख्या 37 तक पहुँच गयी है।
इनमें से अब तक 28 पुस्तकें  छप चुकी हैं। इनमें  7 कहानी -संग्रह , 9 उपन्यास   दो खंडों में प्रकाशित 5 लघु उपन्यास, एक व्यंग्य संग्रह , तत्व चिन्तन पर आधारित 5 आलेख संग्रह और उनके गृह ग्राम पिथौरा के स्थानीय इतिहास पर आधारित एक पुस्तक शामिल है  जबकि तीन उपन्यासों सहित कुल 5 पुस्तकें अभी प्रकाशन के लिए प्रेस में  हैं। 
   
उनकी प्रकाशित पुस्तकें इस प्रकार हैं
   * कहानी संग्रह -(1)पराजित पुरुष (2)पलायन (3) प्रारब्ध (4)डोकरी दाई (5) बचा ..रे...दीपक (6) अंत एक संत का और (7) मंदिर सलामत है। ये सभी सामाजिक कहानियों के संग्रह हैं। 

* उपन्यास   (1)भीष्म -प्रश्नों की शर -शैय्या पर (2) कालजयी कर्ण (3) एकलव्य (4) कोशल नंदिनी (5) आत्माहुति (6) अग्नि स्नान (7) देवी करिया धुरवा (8) नागफ़नी पर खिला गुलाब और (9) समर्पण 

*लघु उपन्यास---
(1)कुन्ती (2)द्रौपदी(3) अहल्या (4) तारा और (5) मंदोदरी (आदर्श नारियां भाग -1और भाग -2 में प्रकाशित ।
*चिन्तन परक लेख संग्रह -
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 -(1) मनोभाव (2) विकार -विमर्श (3) मानसिक दशा एवं दर्शन (4) नारी -अस्मिता : संकट एवं समाधान और (5) आप मरना क्यों नहीं चाहते । 

*व्यंग्य संग्रह -- क्या आप इज़्ज़त की तलाश में हैं ?
  
* स्थानीय इतिहास -- उनकी एक प्रकाशित पुस्तक 'पिथौरा सौ साल ' में इस इलाके के विगत एक शताब्दी के स्थानीय  इतिहास और सामाजिक -आर्थिक विकास की  झलक मिलती है। 
      
        पाँच पुस्तकें प्रेस में 
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  -(1)उपन्यास -- भगवान श्रीराम के अनुज भरत पर केन्द्रित 'भरत :भातृत्व एवं त्याग का प्रतीक , (2)उपन्यास -- अश्वत्थामा पर केन्द्रित 'नरो वा कुंजरो' और (3) सामाजिक उपन्यास -पतली -सी परत।  इनके अलावा (1) सफ़र ज़िंदगी का : स्मृतियां और घटनाएं और (2) निबंध संग्रह -आत्म -वार्तालाप भी इस वक्त प्रेस में हैं। 
      
         नाट्य साहित्य 
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*अप्रकाशित नाटक  (1) अदालत का फैसला (2) बंग के फूल और (3) अमानत । इनमें से 'बंग के फूल ' का मंचन वर्ष 1971 में इस अंचल के विभिन्न गांवों में हुआ था। यह नाटक वर्ष 1971 में पाकिस्तान की फ़ौजी हुकूमत के ख़िलाफ़ बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान)की जनता के स्वतंत्रता संग्राम पर आधारित था।  ते थे। 

*अप्रकाशित उपन्यास(1)पुष्कर 

श्री पटनायक के प्रकाशित उपन्यासों में  'कोशल नंदिनी ' मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की माता कौशल्या  और 'अग्नि -स्नान ' लंका नरेश रावण की जीवनी पर आधारित उपन्यास हैं ,जबकि 'आत्माहुति'  में माता कैकेयी के जीवन सफर को उपन्यास के साँचे में ढाला गया है।      
   
       करिया धुरवा :छत्तीसगढ़ के 
        लोक देवता पर पहला  उपन्यास 
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        उपन्यास 'देवी करिया धुरवा ' छत्तीसगढ़ के लोक देवता करिया धुरवा और उनकी धर्म पत्नी की जीवन गाथा है,जो इस प्रदेश के किसी भी लोक देवता के जीवन पर आधारित संभवतः  पहला उपन्यास है। उल्लेखनीय है कि पिथौरा से करीब 6 किलोमीटर पर ग्राम अर्जुनी में करिया धुरवा और माता भगवती का प्राचीन मंदिर है ,जहाँ हर साल अगहन पूर्णिमा के मौके पर तीन दिवसीय मेले का आयोजन किया जाता है।
  
   सचमुच 'कलम के धनी' हैं : कलम से ही लिखते हैं 
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     कम्प्यूटर क्रांति के इस दौर में जब अधिकांश पढ़े -लिखे  लोगों में  कलम से लिखने  की आदत छूटती जा रही  है , दो -चार वाक्य कलम से लिख लेने पर  बहुतों की   उंगलियों में दर्द होने लगता है , तब  यह देखकर और सुनकर किसे आश्चर्य नहीं होगा कि 78 वर्षीय साहित्यकार श्री पटनायक आज भी  लम्बी -लम्बी कहानियां और  बड़े से बड़े उपन्यास अपने हाथ  से लिखते हैं। अब तक प्रकाशित पुस्तकों की उनकी हस्तलिखित  पांडुलिपियां हजारों पन्नों की होंगी । वह फुलस्केप कागज के दोनों ओर  लिखते हैं । 
वास्तव में  ऐसे ही लोग   'कलम के धनी ' होते हैं ,क्योंकि वे कलम से लिखते हैं । उन्हें  प्रेमचंद की तरह 'कलम के सिपाही 'का भी दर्जा दिया जा सकता है। श्री पटनायक  इस अंचल के अकेले ऐसे साहित्यकार हैं ,जिनके साहित्य पर पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर से तीन शोधार्थियों को पीएच-डी. की उपाधि मिल चुकी है और  दो शोधार्थी शोध प्रबंध लिख रहे हैं। 
 
      डोकरी दाई : 'कथा मध्यप्रदेश' में शामिल 
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श्री पटनायक की  एक कहानी 'डोकरी दाई ' को अविभाजित मध्यप्रदेश के कथाकारों पर केन्द्रित वृहद कोश 'कथा मध्यप्रदेश 'के  में शामिल किया गया है।   यह विशाल ग्रंथ पाँच खण्डों में वर्ष 2017 में संतोष चौबे के सम्पादन में विश्व कला एवं संस्कृति केन्द्र ,ग्राम मेहुआ ,जिला -रायसेन द्वारा प्रकाशित किया गया है। यह केन्द्र आईसेक्ट और सी.वी .रमन विश्वविद्यालय द्वारा स्थापित है।

            जीवन सफ़र की शुरुआत
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   उन दिनों पिथौरा छोटा -सा गाँव था ,जहाँ एक अगस्त 1943 को शिवशंकर पटनायक का जन्म हुआ था।  पिता स्वर्गीय बंशीधर पटनायक और माता स्वर्गीय राजकुमारी पटनायक के इस प्रतिभावान सपूत की प्राथमिक से लेकर हाई स्कूल तक की शिक्षा पिथौरा में हुई। यहीं उन्होंने शासकीय उत्तर बुनियादी शाला में  पहली से आठवीं तक और रणजीत कृषि उच्चतर माध्यमिक शाला में दसवीं (मेट्रिक )तक शिक्षा प्राप्त की। वह 1960 में मेट्रिक पास हुए। साहित्यिक अभिरुचि उनमें स्कूली शिक्षा के दौरान विकसित हो चुकी थी ।
       
        ये भी कोई उम्र है उपन्यास लिखने की ?
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विद्यार्थी  जीवन का एक रोचक किस्सा मुझसे साझा करते हुए उन्होंने बताया कि जब वह नवमीं के छात्र थे ,तब उन्होंने एक सामाजिक उपन्यास 'पुष्कर 'की रचना की थी। हालांकि वह पुस्तक रूप में छप नहीं पायी और अब तो उसकी पांडुलिपि भी उनके पास नहीं है। वर्ष 1958 की घटना है। 
      नवमीं के छात्र द्वारा उपन्यास लिखे जाने की ख़बर किसी अन्य के जरिए जब प्राचार्य श्री उमाचरण तिवारी को मिली तो उन्होंने शिवशंकर पटनायक को बुलाया और पहले तो डाँट लगाकर कहा -"ये भी कोई उम्र है   उपन्यास लिखने की ?  अभी तो बेटा ख़ूब पढ़ाई करो और अपना कैरियर बनाओ। " लेकिन बाद में  प्राचार्य महोदय ने उनका लिखा उपन्यास पढ़कर बड़े स्नेह से उनकी तारीफ़ भी की और शुभकामनाएं दीं। 
      
  "बाहर के किसी  नाटक का मंचन नहीं होगा " 
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पुरानी यादों से जुड़ा एक और दिलचस्प प्रसंग श्री पटनायक ने  मुझसे साझा किया।  वह  उन दिनों स्थानीय रणजीत कृषि उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक थे। स्कूल में होने वाले वार्षिक स्नेह सम्मेलनों में नाटकों का भी मंचन होता था ,जिनमें अध्यापक और विद्यार्थी स्वयं अभिनय किया करते थे। श्री पटनायक बताते हैं कि प्राचार्य श्री उमाचरण तिवारी की  सख़्त हिदायत दी थी बाहर के किसी भी नाटक ,एकांकी या प्रहसन  का मंचन नही होगा।  शिक्षक  स्वयं  लिखें और छात्रों से उसका मंचन करवाएं। उन्होंने शिक्षकों की लेखन प्रतिभा और विद्यार्थियों की अभिनय प्रतिभा को परखने और निखारने के लिए ऐसा रचनात्मक आदेश दिया था। उनके आदेश का सहर्ष पालन होता था। शिक्षक खुद उत्साह के साथ नाटक लिखते थे और अपने छात्रों से उसका मंचन करवाते थे। उन्हीं दिनों बांग्लादेश की जनता पर पाकिस्तानी फ़ौज अमानवीय अत्याचार कर रही थी। बांग्लादेशी अपने वतन की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे और भारत -पाकिस्तान युद्ध भी चल रहा था। इस माहौल ने शिवशंकर पटनायक को नाटक 'बंग के फूल ' लिखने के लिए प्रेरित किया।
         
      रिटायरमेंट के बाद अब और
        तेज चल रही कलम 
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     पिथौरा में हाई स्कूल तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद  कॉलेज की पढ़ाई के लिए वह रायपुर चले गए ,जहाँ उन्होंने शासकीय विज्ञान महाविद्यालय में  गणित विषय लेकर बी.एससी. की डिग्री हासिल की। पिथौरा लौटकर रणजीत कृषि उच्चतर माध्यमिक शाला में अध्यापक नियुक्त हुए। अध्यापन कार्य के साथ उन्होंने स्वाध्यायी छात्र के रूप में इतिहास में एम .ए. किया ,फिर बी.एड.। वह  तत्कालीन मध्यप्रदेश लोकसेवा आयोग की परीक्षा में भी शामिल हुए और इसमें सफल होने पर उन्हें वर्ष 1975 में सहकारिता विभाग में सहायक पंजीयक के पद पर नियुक्त किया गया। विभाग में पदोन्नत होते हुए वह वर्ष 2003 में छत्तीसगढ़ शासन के प्रथम श्रेणी राजपत्रित के अधिकारी के रूप में संयुक्त पंजीयक (सहकारिता)के   पद से रायपुर में सेवानिवृत्त हुए। रिटायरमेंट के बाद उनकी कलम  अब और भी तेजी से चल रही है। वह अपने बहुत बड़े पैतृक मकान के छोटे -से कमरे में अपनी पलंग के सामने रखी छोटी -सी टेबल पर खूब जमकर लिखते हैं। 
आलेख और फोटो : स्वराज करुण