अपनी ही आँखों से आखिर हुआ जा रहा ओझल क्यों ,
जीवन का यह सफ़र बन गया बेबस कटता जंगल क्यों ?
रिश्तों के सारे दरवाज़े
धीरे -धीरे बंद हो गए ,
उम्मीदों के दीपक जल कर
धीरे -धीरे मंद हो गए !
आम्र -कुंज की घनी छाँव से गायब आखिर कोयल क्यों ,
जीवन का यह सफ़र बन गया बेबस कटता जंगल क्यों ?
सपनों की हर साँस थकी है ,
थकी-थकी सी अभिलाषा है ,
सफल-विफल की रोज नयी -सी
लिखी जा रही परिभाषा है !
छल-कपट से छलनी हो कर पंछी अब तक निश्छल क्यों ,
जीवन का यह सफ़र बन गया बेबस कटता जंगल क्यों ?
कब तक देखें यूं ही उनकी
आँखों से बहते पानी को ,
बुलडोज़र से प्रलय मचाती
मुस्काती महारानी को !
उजड़े घर-घरौंदे कितने , फिर भी नहीं कोई हल चल क्यों ,
जीवन का यह सफ़र बन गया बेबस कटता जंगल क्यों ?
-स्वराज्य करुण
आशा का एक दीप जलाए रखना
ReplyDeleteसपना पूरा होगा धीर बंधाए रखना
निराश होना नहीं कठिन राहों पर
हमेशा अपना आत्मबल बनाए रखना
साधुवाद
सार्थक लेखन के लिए बधाई
ReplyDeleteसाधुवाद
लोहे की भैंस-नया अविष्कार
ब्लॉग4वार्ता पर आपका स्वागत है
उत्साहजनक प्रतिक्रिया के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद.
ReplyDeleteparyaavaran sanrakshan hamare swayam k astitva k liye behad aawashyak hai, ye samajhne me hum kahin na kahin bhool kar rahe hain. vichaarottejak aur sundar kavita
ReplyDeleteकोयल के बहाने बहुत कुछ कह डाला आपने !
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