क्या अब हमें यह स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए कि राष्ट्र की आज़ादी के तिरेसठ साल बाद भी हमारी राष्ट्र -भाषा को आज़ादी नहीं मिल पाई है ? कुछ दिनों पहले की एक खबर आज भी चीख-चीख कर हम सबसे यह सवाल कर रही है और हम खामोश हैं ! खबर यह है कि राज-भाषा संसदीय समिति की बैठक में छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ लोक-सभा सांसद श्री रमेश बैस के कुछ सवालों का जवाब एक वरिष्ठ अधिकारी जब अंग्रेज़ी में देने लगे और बैठक में दस्तावेज भी अंग्रेज़ी में रखे गए , तो श्री बैस सहित समिति के सभी माननीय सदस्यों ने अधिकारियों के इस हिन्दी-विरोधी आचरण का तीव्र विरोध किया और राष्ट्र-भाषा के सम्मान की खातिर बैठक का बहिष्कार भी कर दिया .
उल्लेखनीय है कि यह समिति राष्ट्र -भाषा हिन्दी को देश के सरकारी काम-काज में राज-भाषा के रूप में अधिक से अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए केंद्र सरकार को सुझाव देने के लिए बनायी गयी है. यह एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति है और संसदीय समिति होने के नाते देश की सर्वोच्च पंचायत याने कि संसद के हमारे माननीय सदस्य इसमें सदस्य मनोनीत हुए हैं ,जो देश की जनता और जन-भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते है. हिन्दी हमारे देश में व्यापक रूप से प्रचलित आम-जनता के बोल-चाल की भाषा है , जिसे साहित्य,कला, सिनेमा और संस्कृति ने आज इस देश की जन-भाषा की आसंदी पर भी सम्मान के साथ बैठाया है. लेकिन अंग्रेज़ी-मानसिकता के कुछ लोग जब इस सच्चाई को समझ नहीं पाते या फिर समझना नहीं चाहते , तब ऐसी नौबत आती है . राज-भाषा हिन्दी के लिए बनी संसदीय समिति में अंग्रेजी की दखलंदाजी का विरोध करके हमारे सांसदों ने सचमुच सजग जन-प्रतिनिधि का फ़र्ज़ निभाया है और ऐसा करके उन्होंने जन-भावनाओं के साथ-साथ राष्ट्र -भाषा के सम्मान की रक्षा की है. बैठक में प्रकट उनकी भावनाओं को वास्तव में जन-भावनाओं के रूप में देखा जाना चाहिए .उनका यह कदम वास्तव में वन्दनीय और अभिनंदनीय है.बैठक की अध्यक्षता कर रहे माननीय सांसद श्री सत्यव्रत चतुर्वेदी का यह सुझाव भी अखबारों में पढ़ने को मिला कि राज-भाषा के इस्तेमाल में आना-कानी करने वाले अधिकारियों पर राज-भाषा अधिनियम के तहत पुलिस थाने में प्राथमिकी दर्ज की जानी चाहिए .ऐसा हुआ कि नहीं , यह तो पता नहीं लगा ,लेकिन इससे अधिकाँश जनता को यह तो मालूम हो गया कि राज-भाषा की अवहेलना एक दंडनीय अपराध है और ऐसा आचरण करने वालों पर कानूनी कार्रवाई हो सकती है. भाषाएँ किसी भी देश की आजादी और अस्मिता का प्रतीक होती हैं ,जो राष्ट्रीय स्वाभिमान का परचम लहरा कर देशवासियों में राष्ट्रीय -चेतना का विस्तार करती हैं .एक विद्वान चिन्तक ने एकदम ठीक कहा है कि अनेकता में एकता हमारी भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी खूबी है . भाषाई विविधता का रंग भी इसमें शामिल है. देश के विभिन्न राज्यों की अपनी -अपनी खूबसूरत भाषाओं के बीच हिन्दी सचमुच राष्ट्रीय एकता का एक विशाल और मज़बूत सेतु बनाती है.
हमारे तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने आज से लगभग बत्तीस साल पहले वर्ष १९७८ में देश के विदेश मंत्री के नाते संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए हिन्दी में भाषण देकर भारतीयों का दिल जीत लिया था . लोग आज भी बहुत सम्मान से इस बात की चर्चा करते हैं .देश की आज़ादी की रात १५ अगस्त १९४७ को जब बी. बी. सी. के संवाददाता ने राष्ट्र-पिता महात्मा गांधी से इस ऐतिहासिक मौके पर उनके विचार जानने के लिए अंग्रेजी में सवाल किया तो गांधीजी ने केवल एक वाक्य में कह दिया - 'दुनिया वालों को बता दीजिए कि गांधी आज से अंग्रेजी भूल गया है. ' क्या हम अपने राष्ट्र-पिता के इस एक वाक्य में छुपी राष्ट्र-प्रेम की भावनाओं को समझ कर जीवन में अपनाने की ज़रा भी कोशिश कर रहे हैं ? भारतीय संविधान में हिन्दी १४ सितम्बर १९५६ को 'राज-भाषा' घोषित हो चुकी है. इस ऐतिहासिक दिन को यादगार बनाने के लिए हर साल १४ सितम्बर को हिन्दी -दिवस पूरे देश में उत्साह के साथ मनाया जाता है. बैंकों और सरकारी दफ्तरों में हिन्दी सप्ताह और हिन्दी पखवाडा भी मनाया जाता है .
इसके बावजूद हमारी हिन्दी के सामने मुश्किलें कुछ कम नहीं हैं .संचार-क्रांति के इस युग में हिन्दी अपनी देवनागरी लिपि के साथ ज़रूर कंप्यूटर और इंटरनेट की भाषा बन गयी है, लेकिन नागफनी की तरह जहाँ -तहां उग आए अंग्रेजी माध्यम स्कूलों का मायावी आकर्षण करोड़ों भारतीय माता -पिताओं को अपनी ओर खींच रहा है , जहाँ वे अपने बच्चों को अंग्रेजी मानसिकता में ढालने वाली मशीनों में डाल कर खुद को तनाव-मुक्त महसूस करने लगते है.वे यह भूल जाते हैं कि अपनी राष्ट्र-भाषा और अपनी देशी भाषाओं को भूलकर ऐसे बच्चे अपने जीवन में राष्ट्र की कितनी और कैसी सेवा करेंगे ? हिन्दी का एक, दो , तीन भूल कर , बड़े होकर , बड़े-बड़े साहब बन कर अंग्रेजी में वन , टू का फोर करते हुए अगर वे फोर-ट्वंटी बन गए ,तब क्या होगा ? दर-असल अंग्रेजों ने लगभग दो सौ साल तक भारत में अपनी हुकूमत के दौरान अंग्रेजी को राज-काज की भाषा बना कर हम पर यह मानसिक दबाव बनाया कि इस विदेशी भाषा को सीखे बिना भारतीयों का भला नहीं हो सकता ! लार्ड मैकाले की थोपी गयी ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली ने इसमें करेले पर नीम की तरह असर दिखाया, जो अंग्रेजों के चले जाने के तिरेसठ साल बाद भी आज तक हम पर हावी है .
हालाँकि आज भी देश में आम-जनता के बीच अंग्रेजी भाषा का प्रचलन नहीं के बराबर है , फिर भी काफी संख्या में लोगों में अंग्रेजी सीखने और अंग्रेजी बोलने की एक अव्यावहारिक होड़ देखी जा रही है, दर-असल कहीं न कहीं ऐसे लोगों के भीतर यह सोच आज भी दबी हुई है कि अंग्रेजी मालिकों की अथवा राज करने वालों की भाषा है और हिन्दी सहित हमारी तमाम भाषाएँ गुलामों की भाषा. उनकी यह सोच अथवा गलतफहमी है कि अगर उनके बच्चे अंग्रेजी सीख लेंगे , तो राज करने वालों की ज़मात में शामिल हो जाएंगे और परिवार का उद्धार हो जाएगा . दर-असल ऐसे लोगों में इस प्रकार की मानसिकता विकसित करने में कथित रूप से फटाफट अंग्रेजी सिखाने का दावा करने वाले कुछ विज्ञापनों का भी बहुत बड़ा योगदान है .ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि अंग्रेजों के इंग्लैंड या फिर अमेरिका में सब लोग मालिक नहीं हैं .वहाँ तो नौकर भी अंग्रेजी बोलता है , और इधर हम अपने देश में अंग्रेजी भाषा के चक्कर में उलझे हुए है.हमारी गुलाम -मानसिकता का एक बड़ा नमूना यह भी है कि अगर कोई हिन्दुस्तानी कभी गलत अंग्रेज़ी बोल जाए तो हम उसका मज़ाक उड़ाने लगते है. लेकिन अगर कोई अंग्रेज गलत हिन्दी बोले तो हमें उस पर हँसी नहीं आती ! वह गोरा साहब जो है ! एक और नमूना यह भी तो है कि हम अपने बच्चों को अंग्रेज़ी में गुड-मॉर्निंग और गुडनाईट जैसा अभिवादन करते देख कर खुश हो जाते हैं , प्रणाम या नमस्ते कहने वाले हमें कथित रूप से पिछड़े नज़र आते हैं . अपने बच्चों को हिन्दी में एक ,दो तीन ,चार की गिनती नहीं आने पर हमें अब ज़रा भी दुःख नहीं होता , जबकि उन्हें वन , टू ,थ्री , फोर कहते या पढ़ते देख कर हमारी बांछे खिल जाती हैं कि पप्पू अंग्रेज़ी सीख रहा है . हमें अपनी संतानों को हिन्दी माध्यम के विद्यालयों में दाखिला दिलाने में संकोच होता है , जबकि सरकार इन पाठशालाओं के संचालन में , वहां के शिक्षकों के वेतन-भत्तों में, उनके प्रशिक्षण में , छात्र-छात्राओं के दोपहर की भोजन व्यवस्था में लाखों-करोड़ों रूपए खर्च करती है . अब तो सर्व-शिक्षा अभियान के तहत छत्तीसगढ़ का उदाहरण लें ,तो लाखों छात्र-छात्राओं को सरकार की ओर से पाठ्य -पुस्तकें भी मुफ्त दी जा रही हैं. जितने प्रशिक्षित शिक्षक सरकारी स्कूलों में मिलेंगे , उतने किसी भी निजी अंग्रेज़ी स्कूल में नहीं होंगे. सरकारी स्कूलों के अध्यापकों के लिए शासन हर साल कई तरह के प्रशिक्षण सत्र आयोजित करता है . वह बात निजी क्षेत्र के अंग्रेज़ी स्कूलों में कहाँ ? इसके बावजूद हममे से ज्यादातर भारतीयों की मानसिकता आज भी अंग्रेज़ी के साम्राज्यवादी प्रभा-मंडल से प्रभावित नज़र आती है और हम अपने बच्चों को वहां दाखिला दिलाने के लिए तरसते रहते हैं ! जितना मोह हम अंग्रेजी पर दिखाते हैं , उतना अपनी हिन्दी और अपनी देशी भाषाओं पर क्यों नहीं ? अंग्रेजी पर गर्व और अपने ही गांव में , अपनी ही गलियों में और अपने ही घरों में बोली जाने वाली स्वदेशी भाषाओं पर शर्म ! क्या हम सचमुच हो गए है बेशर्म ? क्या इसी दिन के लिए आज़ादी के रणबांकुरों ने भारत माता के चरणों में अपने प्राणों का बलिदान किया था ? टेलिविज़न के इस दौर में अक्सर हम देखते हैं कि भारत आने वाले ज्यादातर विदेशी राष्ट्र-प्रमुख यहाँ अंग्रेज़ी में नहीं , बल्कि भारतीय नेताओं , अधिकारियों और मीडिया से भी अपने देश की भाषा में ही बातचीत करते हैं . दुभाषिया उसका अनुवाद कर देता है .ऐसा नहीं है कि ये विदेशी मेहमान ज़रा भी अंग्रेज़ी नहीं जानते. वे तो विदेशों में भी अपनी राष्ट्र -भाषा में लोगों से बातचीत करके दुनिया को यह सन्देश देना चाहते हैं कि राष्ट्रीय -स्वाभिमान सर्वोपरि है और राष्ट्र-भाषा किसी भी देश के स्वाभिमान का प्रतिबिम्ब होती है . अंग्रेज़ी भाषा हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रतीक हरगिज नहीं बन सकती.
सवाल अंग्रेज़ी भाषा के विरोध या समर्थन का नही है ,बल्कि सवाल उस मानसिकता का है जो हमें अपनी हिन्दी और तमाम भारतीय भाषाओं की महिमा और गरिमा को महसूस करने से वंचित कर रही है और हमारी संस्कृति, हमारी सामाजिकता और सबसे बड़ी बात तो यह कि हमारी राष्ट्रीय -चेतना को भी चुनौती दे रही है . अंग्रेज़ी हो या कोई और भाषा, वास्तव में ज्ञान बढ़ाने के लिए किसी भाषा को सीखना गलत नहीं है, नौकरी हासिल करने अथवा व्यापार-व्यवसाय के सिलसिले में किसी दूसरे देश या राज्य की भाषाओं को सीखना गलत नहीं है , अन्य देशों अथवा राज्यों की कला- संस्कृति को समझने और वहां के साहित्य को पढ़ने के लिए भी वहां की भाषाओं का ज्ञान हासिल करना गलत नहीं है, लेकिन अगर हम अपनी राष्ट्र-भाषा और अपनी देशी भाषाओं को दोयम दर्जे का मान कर किसी विदेशी भाषा को सिर्फ इसलिए सीखना चाहें कि उसके ज़रिए हम दूसरों पर रौब गांठना चाहते हैं, दूसरों पर अपनी हुकूमत चलाना चाहते हैं, तो हमारी यह मंशा और मानसिकता हमें एक तानाशाही मनोवृत्ति की ओर ले जाएगी , जिसका खामियाजा हमारी अपनी मूल्यवान भाषाओँ को देर-सबेर अपने अस्तित्व को संकट में डालकर भुगतना तो पड़ेगा.
हमें आज भी इस बात की परवाह नहीं है कि हमारे उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों में राष्ट्र-भाषा हिन्दी , राज-भाषा हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं की क्या हालत है ? देश के हमारे भाग्य-विधाता अगर हिन्दी जान कर, हिन्दी का भोजन करके , हिन्दी का पानी पीकर भी रेडियो और छोटे परदे के कार्यक्रमों में अपनी जुबान अंग्रेजी में हिलाते हों, भारत-सरकार से देश के राज्यों को तमाम सरकारी पत्र-परिपत्र अंग्रेजी में जारी होते हों, तब कौन कहेगा कि हमारी प्यारी हिन्दी और हमारी अन्य खूबसूरत मीठी भारतीय भाषाएँ भी विदेशी हुकूमत की गुलामी से आज़ाद हो चुकी हैं ? बहरहाल हमारे माननीय सांसदों ने देश-भक्ति के जिस ज़ज्बे के साथ संसदीय समिति की बैठक में राष्ट्र-भाषा और राज-भाषा हिन्दी का परचम लहराकर देशवासियों को भाषाई -निराशा से उबारने का प्रयास किया है .उम्मीद की जानी चाहिए कि उनकी यह पहल ज़रूर रंग लाएगी . उनके ज़ज्बे को ज़ोरदार सलाम ! उन लाखों-करोड़ों भारतीयों के हौसले को भी सलाम , जो अंग्रेज़ी के बढ़ते भाषाई-साम्राज्यवाद के इस खतरनाक दौर में भी अपने बच्चों को हिन्दी और देशी भाषाओं के माध्यम स्कूलों में दाखिला दिलाते हैं , खुद हिन्दी और अन्य भारतीय-भाषाओं में काम करते हैं और दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करते हैं .सलाम उन भारतवंशियों को ,जिन्होंने सात-समंदर पार सुदूर मॉरिशस, फिजी और सूरीनाम जैसे द्वीप-देशों में भारतीयता की पहचान को सलामत रख कर भोजपुरी और हिन्दी जैसी हमारी भारतीय भाषाओं की आन-बान और शान को कायम रखा है. सलाम कम्प्यूटर पर हिन्दी और अनेकानेक भारतीय भाषाओं के सॉफ्टवेयर विकसित करने वाले उन प्रतिभावान इंजीनियरों और वैज्ञानिकों को , जिनके ऐसे महान तकनीकी आविष्कारों ने हमारी अपनी भाषाओं को बहुत बड़ा सम्बल और संरक्षण दिया है . सलाम उस छोटी-सी , पतली-सी त्रिभाषी पुस्तिका के गुमनाम लेखक को भी , जो हमारे देश में छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के सरहदी इलाकों के साप्ताहिक हाट - बाज़ारों में ग्रामीणों के बीच खूब बिकती है और जिसे पढ़ कर गाँव के लोग बड़े उत्साह से हिन्दी ,ओड़िया और बांग्ला , तीनों भाषाएँ एक साथ सीखने की कोशिश करते हैं और तीनों भाषाओं का अक्षर-ज्ञान एक साथ हासिल करने का प्रयास करते हैं राष्ट्र-भाषा हिन्दी सहित हमारी तमाम भारतीय भाषाओं के संरक्षण के लिए बिना किसी औपचारिकता के , ऐसे त्रिभाषी प्रयास देश के दूसरे राज्यों में क्यों नहीं हो सकते ?
- स्वराज्य करुण
मातृभाषा के प्रति अपने ही बंधुओ का रवैया देख कर क्षोभ होता है ! बहुत सुन्दर और सुचिंतित आलेख ! हम इस मामले में आपसे शब्दशः सहमत हैं !
ReplyDeleteआपका पोस्ट पढ़कर कुछ बातें दिमाग में आई हैं-पहली बात , भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम .भाषा को यदि हम सिर्फ विचारों, भावनाओं और तथ्यों के आदान प्रदान का जरिया बस माने तो कहीं ज्यादा उचित होगा. भाषा के प्रति अत्यधिक भावुकता कहीं न कहीं क्षेत्रीयतावाद को बढ़ावा भी देती है और उसके अनेक दुष्परिणाम भी होते हैं.दूसरी बात,किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाना चाहिए,सीखा जाना चाहिए,स्वतः प्रेरणा से.थोपने से दिक्कत होगी.मातृभाषा से व्यक्ति को स्वाभाविक प्रेम होता है,उसमे कुछ भी अस्वाभाविक नहीं. छत्तीसगढ़ी भाखा मोला गुरतुर लगथे,ओमा जेन मिठास हे,तेन दुसर भाखा म़ा मोला नई दिखय. काबर के ओला मै हां अपन अम्मा के गोदी म़ा बईठ के सीखे हंव.तीसरी बात-यदि और यदि हिंदी को हम सचमुच राष्ट्रभाषा मानते हैं,तो प्रयास करना होगा कि हम अन्य भाषाओँ को भी समुचित महत्व देते हुए हिंदी को सरकारी कामकाज की भाषा, प्राथमिक और उच्च शिक्षा का माध्यम बनाये,जिसमे हम कुछ हद तक ही सफल हो पाए ह .राजनेताओं द्वारा विश्व मंच पर कभी कभार भाषण देना सांकेतिक तौर पर तो ठीक है, पर उस से बहत ज्यादा बात बनती नहीं है.चौथी बात-हम अंग्रेजी या अन्य कोई भी भाषा सीखें,ताकि हम अपना ज्ञानवर्धन कर सके,उस भाषा में लिखी अच्छी पुस्तकें पढ़ सकें,उस भाषा को बोलने वालों से उन्ही कि भाषा में बात कर सकें,शायद हमारी सोच का विस्तार होगा और भाषा सम्बन्धी संकीर्णता दूर होगी और हम उनकी संस्कृति को समझ पायेंगे व प्रेम भी कर पायेंगे.पांचवी बात- उस देश में राष्ट्रप्रेम कि भावना अधिक मिलेगी जो विदेशी भाषा कि जगह अपनी भाषा को अधिक महत्व देता है. हमारे देश में वो कमी देखने को मिलती है क्योंकि हम अपनी भाषा को महत्व कम दे रहे हैं.अंतिम बात-छत्तीसगढ़ी म़ा एक ठन कहावत हे-उपजारे मया अउ बताये बुद्धि दुनो काम नई देवय. हिंदी संग घलौ ओही बात लागू होथे. राष्टभाषा हिंदी के प्रति हमारे मन में अन्दर से आदर व प्रेम होना जरुरी है अन्यथा हिंदी दिवस मनाने से अधिक लाभ नहीं.व्यक्ति के अन्दर का प्रेम और अन्दर कि बुद्धि ही काम देती है. बाहर का प्रेम और बाहर कि बुद्धि अधिक कारगर नहीं होती. सादर- बालमुकुन्द
ReplyDeleteटिप्पणियों के लिए आप दोनों को धन्यवाद .श्री बालमुकुंद जी की टिप्पणी
ReplyDeleteपर यह सवाल उठाना चाहूँगा कि आज के समय में , भौतिकता की चका-चौंध में
लोग अपने बच्चों को अंग्रेजी आखिर किस मकसद और किस मानसिकता से
सिखाना चाहते हैं ,और खुद भी किस मानसिकता से अंग्रेजी की ओर आकर्षित
होते हैं ? ऐसे लोग जितना मोह अंग्रेजी पर दिखाते हैं , उतना हिन्दी और देश की अन्य
भाषाओं पर क्यों नहीं ? मुझे लगता है कि इसका सिर्फ एक ही कारण है कि वे आज भी
इस विदेशी भाषा को भारत में रौब-दाब की भाषा मानते हैं और सोचते हैं कि
इससे ऐसी नौकरी मिलेगी ,जो उनको दूसरों पर रौब गांठने की ताकत देगी .
कौन सिर्फ ज्ञान अर्जित करने के लिए अंग्रेजी सीखता और पढ़ता है और कौन
सिर्फ रौब-दाब की नौकरी पाने के लिए , यह आसानी से देखा और समझा जा सकता है .
बहुत सुन्दर यथार्थपरक आलेख
ReplyDeleteदेश-दुनिया से लौट कर अपने घरों की सुध लें, जहां बच्चों के अंगरेजी ज्ञान से हम संतुष्ट नहीं होते और उसकी फर्राटा अंगरेजी पर पहले चमत्कृत फिर गौरवान्वित होते हैं. चैत-बैसाख की कौन कहे हफ्ते के सात दिनों के नाम और 1 से 100 तक की क्या 20 तक की गिनती पूछने पर बच्चा कहता है, क्या पापा, पत्नी कहती है आप भी तो... और हम सकुचा जाते हैं. आगे क्या कहूं आप सब खुद समझदार हैं.
ReplyDeleteधन्यवाद, रानी विशाल जी और राहुल जी ! मै दो दिन के लिए प्रवास
ReplyDeleteपर चला गया था . लौटने पर आज आप दोनों की टिप्पणियां मिली.
बस , इसी तरह संवाद कायम रहे, यही कामना है . पुनः आभार .
आदरणीय सर,निस्संदेह मै इस बात से सहमत हूँ कि अधिकाँश लोग अपने बच्चों के सुखद भविष्य को ध्यान में रखते हुए उन्हें अंग्रेजी माध्यम में दाखिला दिलवाते हैं,और मै समझता हूँ कि बच्चों के सुखद भविष्य के विषय में सोचना कोई गलत बात नहीं.दुःख तो यह है कि हिंदी को हमने राष्ट्रभाषा तो बना दिया है,किन्तु उसे हम उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा,चिकित्सा शिक्षा,विधिक शिक्षा,उच्चतम व उच्च न्यायालयों की भाषा नहीं बना पाए हैं.फिर अच्छे जीवनस्तर,अच्छे पद आदि की महत्वाकांक्षा कोई बुरी बात नहीं.यह भी कोई जरुरी नहीं की अंग्रेजी माध्यम में पढने से रौबदाब वाली नौकरी मिल ही जाए. वास्तव में व्यक्ति की महत्वाकांक्षा वर्तमान परिस्थितियों में अंग्रेजी का रास्ता अधिक दिखाती है क्यूंकि हिंदी भाषा अंग्रेजी भाषा की जगह चिकित्सा,तकनीक,विधि,न्यायालय,सरकारी कामकाज की भाषा के रूप में प्रतिस्थापित नहीं हो पायी है.अभी भी यहाँ अंग्रेजी भाषा का बहुतायत में उपयोग होता है,फिर व्यक्ति क्या करे? जो भाषा अच्छी रोजगार उपलब्ध कराती है, उस भाषा को अधिकाँश लोग सीखना चाहेंगे ही, इसमें गलती लोगों की नहीं,रोजगार व शिक्षा की भाषा के रूप में किसी भाषा का स्थापित नहीं हो पाना शायद मुख्य कारण है. जैसा आप कहते हैं, इस दिशा में प्रयास करना जरुरी है और मेरी और से भी प्रयास करने वालों के जज्बे को सलाम-सादर बालमुकुन्द
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