Thursday, July 30, 2020

(कविता) दाल में कुछ काला तो नहीं ?

                    - स्वराज करुण 
देश और  दुनिया में
जिसको देखो ,उसको कोरोना ,
जहाँ देखो ,वहाँ कोरोना !
कहीं कोई  गड़बड़ झाला तो नहीं ?
दाल में कुछ काला तो नहीं ?
राजा हो या रंक ,
सब पर छाया है
कोरोना का आतंक !
गाँव -गाँव ,पाँव -पाँव ,
नगर -नगर ,डगर -डगर
सिर्फ़ कोरोना का रोना ?
सुबह से रात तक 
टी .व्ही. चैनलों के पर्दे पर
देखते रहो कोरोना का ओढ़ना ,
कोरोना का बिछौना !
ऐसा कैसे हो रहा है कि
हर गली ,हर मोहल्ले में
आनन -फानन में निकल रहे हैं
कोरोना के मरीज  ?
कहीं टेस्ट में तो कोई गड़बड़ी तो नहीं ?
पूछ रहा है यह नाचीज़ !
जिसको  न सर्दी ,न खाँसी ,न बुखार ,
उसे भी पकड़ कर कह रहे -
टेस्ट करवा लो मेरे यार !
कहीं ऐसा तो नहीं कि
कोरोना है अरबों ,ख़रबों डॉलर का
कोई अंतर्राष्ट्रीय व्यापार ?
          -स्वराज करुण

Wednesday, July 29, 2020

(कविता ) शहर में बारिश

          -- स्वराज करुण 


                       काले ,घुंघराले बादलों 
                       के बीच सूर्योदय और सूर्यास्त !
                       उनकी रिमझिम बरसती
                       जल बूंदों की सरसराहट से भरा 
                       एक भीगा हुआ दिन ! 
                       जब दोपहर को भी लगता है जैसे
                      अभी तो सुबह के छह बजे हैं !
                      शहर की सीमेंट -कांक्रीट वाली
                      उबड़ -खाबड़ सड़कों से टकरा कर
                       टपकती ,उछलती बूंदें भी नहीं बुझा पातीं
                       धरती की प्यास !
                       सोख लेता है उन्हें 
                       वन ,टू ,थ्री ,फोर बी.एच.के.वाला 
                       पथरीला बेजान -सा जंगल , 
                       या फिर पी जाते हैं  बहुमंजिले फ्लैट्स के
                       गगनचुंबी पहाड़ !
                      कभी बहुत ज़्यादा पड़ी बौछारें 
                     तो निचली बस्तियों की 
                     बजबजाती नालियों से सैलाब बनकर 
                    ग़रीबों की झुग्गियों में 
                    घुस जाती हैं आषाढ़ ,सावन और 
                   भादो  के काले ,घुंघराले बादलों की बूंदें 
                   और कर देती हैं उनका जीना मुहाल !
                   झुग्गियाँ  पीढ़ी -दर -पीढ़ी  देख रही हैं -
                   इस तरह होती है शहर में बारिश 
                    बहुत कुछ बदल गया देश में ,
                   लेकिन नहीं बदला तो 
                   शहरों में होने वाली 
                   बारिश का यह सालाना मंज़र !

               ---स्वराज करुण 
              
     
   
   
  


  

Tuesday, July 28, 2020

(कविता ) कहीं न कहीं तो होगा ऐसा कोई देश

कहीं न कहीं  तो होगा कोई  ऐसा देश !
       ****
इस धरती पर नहीं तो
इस ब्रम्हांड में
और इस  ब्रम्हांड में नहीं तो
सुदूर आकाश गंगाओं में
कहीं न कहीं  तो होगा 
ऐसा देश ,
जहाँ इंसानों को सिर्फ़ और सिर्फ
इंसान समझा जाता हो ,
हिन्दू या मुसलमान नहीं ,
सिक्ख या ईसाई नहीं !
जहाँ न होते हों
मन्दिर , मस्ज़िद के झगड़े ,
किसी बीमार बच्चे का लाचार पिता
अस्पताल के दरवाज़े पर जहाँ
मज़बूरी में अपना माथा न रगड़े !
कहीं तो होगा कोई ऐसा देश
जहाँ मुट्ठी भर लोग खुद को
न समझें मुल्क का मालिक
और विशाल जन समूह को
अपना नौकर !
जहाँ कोई किसी को
न मारे अपने अहंकार की ठोकर !
जहाँ इंसान की हैसियत उसके
ओहदे से न तौली जाती हो ,
जहाँ धर्म , जाति और दौलत के नाम पर
ओहदों की नीलामी न बोली जाती हो !
जहाँ न हो खदानों की खतरनाक धूल,
जहाँ खिलते हों खेतों में
फसलों के रंगबिरंगे फूल !
मैं देख रहा हूँ ऐसे किसी अपने
वतन का सपना
जहाँ हम एक -दूसरे को
कह सकें अपना !
         - स्वराज करुण
   
      

Saturday, July 25, 2020

महाग्रंथ 'गांधी मीमांसा ' के भूले -बिसरे रचनाकार पं. रामदयाल तिवारी


               
                    आलेख : स्वराज करुण 

"राष्ट्र अपना मुख साहित्य के दर्पण में ही देखता है। साहित्य राष्ट्र के दिल का खजाना है।"  - ये पंक्तियां छत्तीसगढ़ के महान लेखक और चिन्तक स्वर्गीय पण्डित रामदयाल तिवारी के हैं ,जो उन्होंने वर्ष 1930 में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में नागपुर में आयोजित अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन में प्रमुख वक्ता की आसंदी से व्यक्त किए थे।
     महात्मा गांधी के जीवन काल में उनके सम्पूर्ण जीवन -दर्शन की गहन समीक्षा करके हिन्दी में  'गांधी मीमांसा ' और अंग्रेजी में 'गांधीज्म एक्सरेड ' जैसे विशाल ग्रंथों की रचना करने वाले तिवारीजी का जन्म 23 जुलाई 1892 को छत्तीसगढ़ की वर्तमान राजधानी रायपुर में हुआ था और निधन भी अपने गृह नगर रायपुर में हुआ। यहाँ के दाऊ कल्याण सिंह अस्पताल में 21 अगस्त 1942 को जब उनका देहावसान हुआ ,उस समय वह सिर्फ़ 50 वर्ष के थे। लेकिन इतनी अल्पायु में ही वह देश के हिन्दी जगत को अपनी प्रकाशित ,अप्रकाशित रचनाओं की विशाल और  अनमोल धरोहर सौंप गए। उन्हें हिन्दी साहित्य के' समर्थ समालोचक'  जैसी अघोषित उपाधि उस जमाने की लोकप्रिय पत्रिका 'माधुरी ' से मिली थी।
       इस महान  लेखक के जन्म स्थान रायपुर में उनसे जुड़ी एक मात्र स्मृति 'आर .डी .तिवारी शासकीय स्कूल " के नाम से शेष रह गयी है। उनके सुपुत्र लखनलाल तिवारी वर्ष 1973 में रायपुर छोड़कर मुम्बई चले गए । अब रायपुर में उनके परिवार का कोई नहीं रहता । रामदयाल तिवारी अब सिर्फ  एक भूले -बिसरे लेखक का नाम है।  हरि ठाकुर और उनके सुपुत्र आशीष सिंह के अलावा शायद विगत कई दशकों में उन्हें किसी ने शिद्दत से  याद किया हो ,मुझे याद नहीं! हरि ठाकुर  तो 3 दिसम्बर 2001 को दुनिया छोड़ गए ,लेकिन उन्होंने अपने विशाल  ग्रंथ 'छत्तीसगढ़  गौरव गाथा ' में  छत्तीसगढ़ की महान विभूतियों पर अपनी लेख माला में रामदयाल तिवारी पर भी एक विस्तृत लेख लिखा है। यह ग्रंथ ठाकुर साहब के।मरणोपरांत वर्ष 2003 में प्रकाशित हुआ ।इसके अलावा आशीष सिंह ने बड़ी मेहनत से वर्ष 2012 में तिवारी जी के चर्चित महा ग्रंथ 'गांधी मीमांसा" का एक संक्षिप्त संस्करण प्रकाशित करवाया और 2017 में उनकी 125 वीं जयंती पर स्मारिका प्रकाशित की।
     हरि ठाकुर लिखते हैं ---   तिवारीजी के पिता रामबगस तिवारी प्राथमिक स्कूल के अध्यापक थे। रामदयाल तिवारी का  बाल्यकाल अत्यंत गरीबी में बीता । ट्यूशन करके वे अपनी फीस और किताबों के लिए  पैसे जुटा पाते थे। गरीबी का यह आलम था कि उन्हें रात्रि में घर के पास लगे म्युनिसिपल के लैम्प पोस्ट के नीचे बैठ कर उसके उजाले में अध्ययन करना पड़ता था। तब कौन जानता था कि म्युनिसिपल के लैम्प पोस्ट के उजाले में पढ़ने वाला बालक एक दिन हिन्दी समालोचना का अत्यंत प्रकाशवान लैम्प पोस्ट बन जाएगा ?
                           

   पण्डित रामदयाल तिवारी ने वर्ष 1911 में  बी.ए. की परीक्षा पास की। वह वकालत की पढ़ाई करना चाहते थे ,लेकिन  उसी वर्ष  उनके पिता का निधनहो जाने पर ।परिवार का दायित्व उनके कंधों पर आ गया। उन्होंने रायगढ़ के स्टेट हाई स्कूल में अध्यापन किया। वेतन से थोड़ी -थोड़ी राशि बचाकर उन्होंने वकालत की पढ़ाई पूरी की और वर्ष 1915 से रायपुर में वक़ालत का अपना व्यवसाय शुरू किया। यहाँ उन्हें पण्डित माधवराव सप्रे ,ठाकुर प्यारेलाल सिंह और मावली प्रसाद श्रीवास्तव जैसे विद्वान साहित्यिकों का  सानिध्य मिला। उनके लेख हितवाद , मॉडर्न रिव्यू और हिन्दू आदि पत्र -पत्रिकाओं में छपने लगे। हरि ठाकुर के अनुसार  हिन्दी ,अंग्रेजी , संस्कृत , ओड़िया ,बांग्ला , मराठी और उर्दू भाषाओं पर तिवारीजी का समान अधिकार था।वे मूलतः अंग्रेजी के लेखक थे । हिन्दी में लिखना उन्होंने बहुत बाद में आरंभ किया था। वर्ष 1930 के बाद उन्होंने अपना सारा ध्यान हिन्दी लेखन पर केन्द्रित किया।
    वक़ालत के साथ -साथ तिवारीजी रायपुर के सावर्जनिक जीवन में भी सक्रिय रहते  थे। स्वतन्त्रता संग्राम के उस दौर में  यहाँ वर्ष 1930 से 1932 के बीच राष्ट्रीय आंदोलनों में भी तिवारीजी काफी   सक्रिय थे । जून 1930 के अंतिम सप्ताह में आंदोलन के दौरान  ठाकुर प्यारेलाल सिंह और कई अन्य नेताओं को गिरफ़्तार किया गया । इन गिरफ्तारियों के विरोध में हजारों की संख्या में लोगों ने प्रदर्शन किया।। शाम को धारा 144 के बावजूद आम सभा हुई ,जहाँ तिवारीजी ने जनता को सम्बोधित करते हुए अंग्रेज हुकूमत की दमनात्मक कार्रवाई की कड़े शब्दों में निन्दा की। वर्ष 1930 में ही बंदी सत्याग्रहियों के स्वागत के लिए रायपुर रेल्वे स्टेशन पर इकट्ठा हुए हजारों लोगों पर पुलिस ने बेरहमी से  लाठीचार्ज किया , जिसकी जांच के लिए गठित नागरिकों की समिति में तिवारीजी प्रमुख सदस्य थे।उन्होंने नगर में घूम - घूमकर घायलों के बयान लिए ,उनके इलाज का। इंतज़ाम किया और समिति को अपनी विस्तृत रिपोर्ट सौंपी। रायपुर में 15 अप्रैल 1930 को आयोजित प्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में पण्डित रामदयाल तिवारी ने स्वागताध्यक्ष का दायित्व बखूबी निभाया।
    पण्डित रामदयाल तिवारी ने   सड़क दुर्घटना में घायल होने के बावज़ूद बिस्तर पर बैठ कर महात्मा गाँधी के जीवन -दर्शन की समीक्षा करते हुए  वर्ष 1935 में लगभग 850 पन्नों के विशाल ग्रन्थ गांधी -मीमांसा ' की रचना की थी । आज भले ही वर्तमान पीढ़ी  के स्मृति पटल पर उनकी यादें धुँधली पड़ गयी हों ,लेकिन वर्ष 1941में 36 अध्यायों के  इस महा ग्रंथ  के  प्रकाशित होते ही  छत्तीसगढ़ के ये लगभग अल्प ज्ञात लेखक  देश भर के विद्वानों के बीच चर्चा का केंद्र बन गए थे , क्योंकि हरि ठाकुर के शब्दों में -- "इस ग्रंथ  की रचना के समय गाँधीजी अपनी ख्याति के चरम शिखर पर थे । उनको लेकर लोक -जीवन में अनेक दंतकथाएं प्रचलित थीं । उस समय जो भी लिखा जा रहा था , अधिकांश रचनाएं स्तुति परक थीं ।उनके विचारों को लेकर तर्क -वितर्क करने का साहस किसी नेता या लेखक में नहीं था ।ऐसे समय में तिवारीजी ने 'गांधी-मीमांसा'  की रचना इस दावे के साथ की कि अंध श्रद्धा और अनुदारता ,दोनों से परे होकर विचार करने वाले गांधी साहित्य का निर्माण होने को है। प्रस्तुत ग्रन्थ इस दिशा में किया गया पहला प्रयास है।
     तिवारीजी की 125 वीं जयंती पर 23 जुलाई 2017 को हरि ठाकुर स्मारक संस्थान रायपुर द्वारा आशीष सिंह के सम्पादन में उन पर  केन्द्रित स्मारिका प्रकाशित की गयी थी। स्मारिका के प्रकाशकीय वक्तव्य में आशीष सिंह ने लिखा है - " गांधी मीमांसा महात्मा गांधी के सिद्धांतों ,आदर्शों और कार्यक्रमों का ऐसा विवेचन है ,जिसमें पण्डित रामदयाल तिवारी ने जहाँ एक ओर गांधीजी की दिल खोलकर प्रशंसा की है ,वहीं वे जहाँ कहीं महात्मा जी से असहमत हुए ,बिना भय के अपनी बेबाक राय रखी। गांधी मीमांसा में कुछ स्थानों पर पूरी श्रद्धा और शालीनता के साथ महात्मा गांधी की कटु आलोचना भी है। " आशीष आगे लिखते हैं -" राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को भला कौन नहीं जानता ? पर उन्हें जानने योग्य जिस पण्डित रामदयाल तिवारी ने बनाया ,वे आज अनजान हैं।गुप्तजी की 'साकेत' और 'यशोधरा ' की समालोचना  तिवारी जी ने की थी ,जो 'माधुरी" में प्रकाशित हुई थी। उस समीक्षा ने ही हिन्दी साहित्य जगत का ध्यान गुप्तजी की ओर आकृष्ट किया था।"
  स्मारिका के अपने प्रकाशकीय आलेख में आशीष ने बहुत व्यथित होकर लिखा है -"
  सच में पण्डित रामदयाल तिवारी का समुचित मूल्यांकन आज तक नहीं हो पाया है।इसमें दुर्भाग्य उनका नहीं है।दुर्भाग्य हमारा है। हमने उनके लिए ऐसा कुछ भी नहीं किया कि उनकी ख्याति देशव्यापी हो सके। अपने समय के दिग्गज अख़बार 'मॉडर्न रिव्यू' के सम्पादक ने  तिवारीजी की अनमोल कृति 'गांधीज्म एक्सरेड' (अब लुप्त )की पांडुलिपि को पढ़कर पत्र लिखा था कि  यदि यह छप जाए तो इंग्लैंड और अमेरिका का दृष्टिकोण बदल जाएगा।अर्थात वो मानते थे कि तिवारीजी की लेखनी में वो दम -खम है ,जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित होने की क्षमता रखती है।।कैसा दुर्भाग्य है कि ऐसे सामर्थ्यवान विद्वान को आज छत्तीसगढ़ नहीं जानता !"
       तिवारी जी को समर्थ समालोचक के नाम से प्रसिद्धि क्यों मिली ,इस बारे में हरि ठाकुर ने अपने एक आलेख में लिखा है --"सन 1932 -33 और 1934 में उनके अनेक समालोचनात्मक निबन्ध 'माधुरी " में प्रकाशित हुए ।उनमें से एक निबन्ध का शीर्षक 'समर्थ समालोचक' था  उनका यह निबन्ध 'माधुरी' के दो अंकों में 15 पृष्ठों में प्रकाशित हुआ था।। इसके पूर्व समालोचना विधा पर इतनी गंभीरता और विस्तार से कभी चर्चा नहीं हुई थी  । यह सच है कि पण्डित माधवराव सप्रे ने 'छत्तीसगढ़ मित्र ' में हिन्दी समालोचना की बुनियाद रखी ,किन्तु उनके पास समालोचना के मानदंडों पर विस्तारपूर्वक विचार करने का अवसर न था। उनके द्वारा प्रारंभ किए गए कार्य को पूरा करने का कार्य पण्डित रामदयाल तिवारी ने किया। प्रेमचंद और निराला जैसे शीर्षस्थ साहित्यकार जिसकी समालोचना का लोहा मानते थे ,उन्हें यदि 'माधुरी 'जैसी उत्कृष्ट पत्रिका ने 'समर्थ समालोचक' की  उपाधि से विभूषित किया ,तो यह अत्यंत स्वाभाविक ही था ।"
        पण्डित रामेश्वर शुक्ल 'अंचल' के अनुसार तिवारीजी का यह लेख आदर्श साहित्य समालोचना धर्म का दस्तावेज है। माधुरी ने उन्हें समर्थ समालोचक की उपाधि दे ही  दी थी ,निराला भी पण्डित रामदयाल तिवारी के उन लेखों की विवेचनात्मक पकड़ के प्रशंसक थे।। प्रेमचंद ने बनारसीदास चतुर्वेदी को  अपने एक इंटरव्यू में 'भविष्य किनका है ' प्रश्न के उत्तर में भविष्यवान समालोचक के रूप में तिवारी जी की बड़ी प्रशंसा की थी। यह इंटरव्यू अंग्रेजी दैनिक 'लीडर ' में प्रकाशित हुआ था।
     तिवारी जी ने हिन्दी में 'गांधी मीमांसा' के बाद अंग्रेजी में एक महाग्रन्थ 'गांधीज्म एक्सरेड' लिखा ,जो 6 खण्डों ,35 अध्यायों और 80 शीर्षकों में था। हरि ठाकुर के अनुसार गांधी मीमांसा का लेखन समाप्त कर तिवारीजी को  संतोष नहीं हुआ। गांधीजी और उनके विचारों को
लेकर वे अधिक व्यापक धरातल पर उन्हें प्रतिष्ठित करना चाहते थे।अतः उन्होंने अंग्रेजी में गांधीज्म एक्सरेड नामक अति विशाल ग्रंथ का निर्माण किया ,जो 'गांधी मीमांसा 'का अंग्रेजी अनुवाद नहीं , बल्कि उसका स्वतंत्र रूप से किया गया विकसित रूप  है। यह विशाल ग्रंथ तिवारी जी के निधन के बाद दुर्भाग्यवश   प्रकाशित नहीं हो पाया। हरि ठाकुर का मत है कि छपने पर 'गांधीज्म एक्सरेड ' एक हज़ार पृष्ठों से भी अधिक आकार ग्रहण करता किन्तु तिवारी जी के असमय निधन के कारण यह महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाश में नहीं आ सका ।
        लेकिन इस पुस्तक की पांडुलिपि पर दादा धर्माधिकारी ,आचार्य काका कालेलकर, आचार्य पी.सी.राय , पण्डित जवाहर लाल नेहरू और बाबू राजेन्द्र प्रसाद जैसी महान विभूतियों ने जो  सकारात्मक टिप्पणियाँ भेजी थीं ,वे बहुत महत्वपूर्ण हैं । नेहरू जी ने लिखा था --"यह पुस्तक गांधीजी के विभिन्न रुचिपूर्ण पक्षों  पर प्रकाश डालती है। ऐसी पुस्तकों का हम स्वागत करते हैं।यह पुस्तक यदि मैं लिखता तो सर्वथा भिन्न ढंग से लिखी जाती ।मैं यह मानता हूँ कि गांधीजी पर विभिन्न दृष्टिकोणों से लिखा जाना चाहिए । यह पुस्तक हमारे विचारों को उत्तेजित करती है। "
   दादा धर्माधिकारी ने लिखा --" गांधीजी के मूल्यांकन को लेकर अनेक स्थलों पर मेरी आपसे मतभिन्नता हो सकती है।किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि  गांधीजी के प्रति आपके हॄदय में कोई दूषण या पूर्वाग्रह है। आपके गांधीजी के साथ जो मतभेद हैं ,वे सैद्धांतिक हैं।आश्चर्य  इस तथ्य में नहीं कि आपने गांधीजी के दृष्टिकोण का निर्भयता के साथ विश्लेषण और आलोचना की है,बल्कि इसमें है कि आपने गांधीजी के प्रति अगाध प्रेम व्यक्त करते हुए उन्हें इस युग का सबसे बड़ा मसीहा माना है। इन सुन्दर पृष्ठों को पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति  आपकी स्पष्टवादिता ,निष्पक्षता  और शालीनता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इस भावना से की गयी आलोचना का मैं न केवल स्वागत करता हूँ ,बल्कि उसमें सहयोग भी देने को तैयार हूँ।कुल मिलाकर गांधीजी के विचारों तथा कार्यक्रमों को लेकर उनके सैद्धांतिक आधारों की आपकी उदारतापूर्ण आलोचना अपने प्रकार का अकेला प्रयास है।   
    काका कालेलकर का अभिमत था  -" गांधीज्म एक्सरेड की पांडुलिपि पढ़कर लगा कि यह एक शानदार प्रस्तुति है।एक समाज शास्त्री की दृष्टि से  आपने विषय का प्रतिपादन किया है।यदि आलोचना मैत्रीपूर्ण हो और मित्र आलोचक हों तो गांधीजी भारत की बेहतर सेवा कर सकते हैं।"
    बाबू राजेन्द्र प्रसाद की टिप्पणी थी -- लेख अत्यंत सुंदर और वैज्ञानिक ढंग से लिखे गये हैं।आपने बहुत ही ध्यानाकर्षक और विचारोत्तेजक पुस्तक लिखी है।"
      वर्ष 1936 -37 में तिवारी जी ने विद्यार्थियों के लिए 'हमारे नेता '  और 'स्वराज्य प्रश्नोत्तरी ' शीर्षक से दो किताबें लिखीं । इनका प्रकाशन तो हुआ ,लेकिन उन्होंने 'कांग्रेस का इतिहास ' नामक ग्रंथ भी लिखा था ,जो छपने के लिए इलाहाबाद के दीक्षित प्रेस में दिया गया था ,लेकिन उनके  के देहावसान के बाद वह ग्रंथ भी लापता हो गया।
        तिवारीजी के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए हरि ठाकुर लिखते हैं - गांधीजी और उनके कार्यक्रमों पर उन्हें अटूट श्रद्धा थी।कोहनी पर लटकती आस्तीन वाली कमीज या कुरता और खादी की धोती ,यही उनकी वेशभूषा थी।श्यामल किन्तु पानीदार चेहरे से गंभीरता टपकती थी।घनी  मूंछों ने उनके चेहरे को रुआबदार बना दिया था।सब मिलाकर उनका व्यक्तित्व सरल ,किन्तु आकर्षक था।उनके व्यक्तित्व से मोहित होकर सुप्रसिद्ध चित्रकार पण्डित गणेशराम मिश्र ने उनका एक जीवंत चित्र बनाया था।वही एक मात्र चित्र है ,जो उपलब्ध है।तिवारीजी को कभी फोटो खिंचवाने की न फिक्र थी ,न  फ़ुरसत ।
                आलेख -स्वराज करुण
(यह आलेख स्वर्गीय हरि ठाकुर की पुस्तक "छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' और 'समर्थ समालोचक रामदयाल तिवारी 125 वीं जयंती स्मारिका  के तथ्यों और आलेखों पर आधारित है ।)

Friday, July 24, 2020

पुस्तक चर्चा : हल्बी लोकभाषा का पहला व्याकरण

                      आलेख : स्वराज करुण 
जब कभी साहित्यिक -सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पन्न   लोकभाषाओं को सम्पूर्ण भाषा के रूप में स्वीकार करने की बात होती है ,तो अक्सर कुछ लोग इस तरह की चर्चा को यह कह कर ख़ारिज कर देते हैं कि इनका  न तो कोई व्याकरण है और न ही इनकी कोई लिपि । लेकिन वो भूल जाते हैं कि जहाँ तक सम्पूर्ण कही जाने वाली भाषाओं की लिपि का सवाल है तो हमारे पड़ोसी देश नेपाल की राजभाषा नेपाली  भी देवनागरी लिपि में ही लिखी जाती है। हमारे देश की मराठी भाषा की वर्णमाला भी मामूली अंतर से देवनागरी ही है। 
   भले ही इन सम्पूर्ण मानी जाने वाली भाषाओं का अपना व्याकरण है ,लेकिन लिपि वही है जो हम लोग अपनी  राष्ट्रभाषा हिन्दी के लिए इस्तेमाल करते हैं। यानी देवनागरी । छत्तीसगढ़ प्रदेश में भी छत्तीसगढ़ी सहित अनेक आंचलिक लोक भाषाएं प्रचलित हैं। अलग से कोई लिपि न होने के बावज़ूद उनका अपना व्याकरण है ,  अपना लोक साहित्य है  , अपने लोकगीत हैं और अपना लोक संगीत है ,अपने लोकनृत्य हैं। इन लोकभाषाओं को भी देवनागरी वर्णमाला में ही लिखा जाता है।
                         
 वर्ष  2000 में राज्य बनने के बाद वर्ष 2007 में विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर  छत्तीसगढ़ी को तो  इस प्रदेश की राजभाषा का भी दर्जा दिया जा चुका है। छत्तीसगढ़ी भाषा का पहला व्याकरण आज से 135 साल पहले वर्ष 1885 में  धमतरी में व्याकरणाचार्य हीरालाल काव्योपाध्याय द्वारा लिखा गया था। वह शिक्षक थे और अपनी लोकप्रियता के कारण बाद में धमतरी नगरपालिका के अध्यक्ष भी निर्वाचित हुए  थे। उनके छत्तीसगढ़ी व्याकरण के प्रकाशन के लगभग 52 साल बाद  बस्तर जैसे उस समय के बेहद पिछड़े  अंचल में  वहाँ की प्रमुख लोक भाषा हल्बी का व्याकरण तैयार करने का ऐतिहासिक कार्य हुआ । वर्ष 1937 में जगदलपुर के ठाकुर पूरनसिंह की पुस्तक 'हल्बी भाषा बोध ' का पहला प्रकाशन हुआ था  । बस्तर के इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना के लगभग आठ दशक बाद इसका द्वितीय संस्करण वर्ष  2016 में प्रकाश में आया।  ठाकुर पूरनसिंह के  पौत्र और जगदलपुर निवासी कवि विजय सिंह ने  अपनी साहित्यिक संस्था 'सूत्र प्रकाशन" के बैनर पर नये कलेवर में  इसे पुनः प्रकाशित किया  है। विजय सिंह कहते हैं कि ' हल्बी भाषा -बोध ' दरअसल इस लोकभाषा का पहला व्याकरण है।  
     इसमें दो राय नहीं कि छत्तीसगढ़ का आदिवासी बहुल वनांचल बस्तर  अपनी समृद्ध लोक संस्कृति के लिए देश और दुनिया में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस राजस्व संभाग का भौगोलिक क्षेत्रफल 39 हजार 171 वर्ग किलोमीटर है । क्षेत्रफल की  दृष्टि से यह केरल राज्य के क्षेत्रफल से कुछ अधिक है। केरल का क्षेत्रफल 38 हजार 863 वर्गकिलोमीटर है ।  यानी छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग केरल प्रदेश से भी बड़ा है।  बस्तर राजस्व संभाग में  7 जिले हैं - उत्तर बस्तर (कांकेर ), कोंडागांव , बस्तर (जगदलपुर), दक्षिण बस्तर (दंतेवाड़ा ), बीजापुर , सुकमा और नारायणपुर । देश की आज़ादी के पहले यह  सम्पूर्ण इलाका रियासती शासन के अंतर्गत आता था।  वैसे तो बस्तर अंचल में मुख्य रूप से पांच जनजातीय बोलियां (लोक भाषाएं ) प्रचलित हैं -हल्बी ,भतरी ,गोंडी ,दोरली और धुर्वी ।  इन सबमें हल्बी यहाँ की प्रमुख सम्पर्क भाषा है। ब्रिटिश हुकूमत के दौरान  तब वहाँ नियुक्त  और पदस्थ होने वाले बाहर के सरकारी अधिकारी और कर्मचारी हल्बी सीख सकें ,ताकि उनके द्वारा जनता से जुड़े शासकीय काम-काज सुगमता से हो सकें , इस  उद्देश्य को अपनी किताब 'हल्बी भाषा बोध ' के माध्यम से  पूरा किया ठाकुर पूरनसिंह ने । हम कह सकते हैं कि जिस तरह व्याकरणाचार्य हीरालाल काव्योपाध्याय ने छत्तीसगढ़ी भाषा का पहला व्याकरण लिखा ,उसी तरह बस्तर में सबसे पहले ठाकुर पूरनसिंह  ने  हल्बी भाषा -बोध के नाम से हल्बी व्याकरण की पहली किताब  लिखी ।
      वरिष्ठ साहित्यकार जगदलपुर निवासी   स्वर्गीय लाला जगदलपुरी ने अपनी पुस्तक 'बस्तर इतिहास एवं संस्कृति ' में ठाकुर पूरनसिंह की इस पुस्तक का  जिक्र किया है। लालाजी लिखते हैं --"हल्बी यद्यपि बस्तर -स्टेट में 'राजभाषा ' के पद पर आसीन रह चुकी थी , फिर भी उसमें आंचलिक लेखन का अभाव था।हल्बी में आंचलिक लेखन का शुभारंभ सन 1937 में हुआ था।स्वर्गीय  ठाकुर पूरनसिंह और स्वर्गीय पण्डित गणेश प्रसाद सामंत ने हल्बी में लेखन -प्रकाशन का सूत्रपात किया था । ठाकुर पूरनसिंह ने 'हल्बी भाषा -बोध' की रचना की थी और पण्डित गणेश प्रसाद सामंत ने 'देवी -पाठ ' नामक एक पद्य -पुस्तिका  लिखी थी। सन 1945 में मेजर आर.के.एम .बेट्टी लिखित 'ए हल्बी ग्रामर ' का प्रकाशन हुआ था।सन 1950 में स्वर्गीय पण्डित गंभीरनाथ पाणिग्रही लिखित एक छोटा -सा हल्बी कविता संग्रह ' गजामूँग' प्रकाशित हुआ था।" 
     हल्बी लोकभाषा का प्रारंभिक ज्ञान अर्जित करने की दृष्टि से ठाकुर पूरनसिंह की यह किताब काफी उपयोगी है। जैसा कि बताया गया है -रियासत कालीन बस्तर में यह पुस्तक बस्तर के बाहर के क्षेत्रों से नौकरी में आने  वाले सरकारी कर्मचारियों और अफसरों को हल्बी सिखाने के लिए प्रकाशित की गई थी , तो इसकी जरूरत आज के समय में भी महसूस की जा रही है । अन्य नागरिक भी इस पुस्तक से हल्बी सीख सकते हैं।   यह पुस्तक हल्बी लोकभाषा के शिक्षण और  प्रशिक्षण के लिए पहली प्रामाणिक पुस्तक मानी जाती है। लगभग 70 पृष्ठों के इसके द्वितीय संस्करण के प्रकाशन से बस्तर में निश्चित रूप से हल्बी लोकभाषा के संरक्षण और संवर्धन की दिशा में एक ऐतिहासिक काम हुआ है।
           आलेख : स्वराज करुण