देखो दबे पांव चल रही हवा ,
इधर-उधर कहीं उछल रही हवा !
सूरज के सामने है रोशनी का संकट ,
अँधेरे की आग में जल रही हवा !
बादलों की बांहों में कहीं रो रही ,
धरती की गोद में मचल रही हवा !
कभी अनुकूल, तो कभी प्रतिकूल है ,
बार- बार दल बदल रही हवा !
- स्वराज्य करुण
ओह...हवा के बहाने बहुत कुछ कहा !
ReplyDeleteकविता पढते हुए आपके ब्लॉग के मुताल्लिक एक ख्याल आया है ! आगे कभी मेल करता हूं !
kabhi anukul to kabhi pratikul hai, baar baar dal badal rahi hawa. behad sundar rachna.
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