(अमर शहीद भगत सिंह की जयन्ती 27 सितम्बर पर विशेष )
आलेख : स्वराज्य करुण
उम्र के चौबीसवें वसंत को पार करने से पहले ही वह नौजवान गहन अध्ययन और चिंतन के जरिए देश और समाज पर अपने अनमोल विचारो की गहरी छाप छोड़ कर और भारत-माता को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने की लड़ाई में अपने प्राणों की आहुति देकर हमें अलविदा कह गया ! वास्तव में यह हमारे वतन के इतिहास की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक अविस्मरणीय घटना है, लेकिन विडम्बना है कि आज हम ऐसे ऐतिहासिक प्रसंगों को भूलते जा रहे है, जिन्हें याद रखना आज़ादी और लोकतंत्र की रक्षा के लिए बहुत ज़रूरी है. ज़रा सोचिए ! उम्र केवल तेईस साल और छह महीने के आस-पास, लेकिन देश की आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों की साम्राज्यवादी सरकार से सीधे टकरा जाने का हौसला ! जवानी की दहलीज पर जब ज्यादातर युवा हसीन सपनों की रंगीन दुनिया में खोए रहते हैं, उसने अपनी जिंदगी के असली मकसद को समझा और अपनी उम्र के युवाओं को संगठित कर हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना की स्थापना की , अपने जैसे विचारों वाले देशभक्तों को जोड़ कर क्रांतिकारी आंदोलन का संचालन किया और अंत में गिरफ्तार हो कर इन्कलाब जिंदाबाद के नारों के साथ फांसी की सजा का आत्मीय स्वागत करते हुए आजादी के महायज्ञ में अपने प्राणों की आहुति दे दी ! मै ज़िक्र कर रहा हूँ अमर शहीद भगत सिंह का जिनकी सत्ताईस सितम्बर को जयन्ती है, जिनके ‘इन्कलाब जिंदाबाद’ का नारा आज भी शोषितों और वंचितों के दिलों में नए उत्साह का संचार करता है .
शहीदे-ए-आज़म भगत सिंह का जन्म तत्कालीन अविभाजित गुलाम भारत के लायलपुर जिले के ग्राम बंगा में में 27 सितम्बर 1907 को हुआ था , जो अब पाकिस्तान में है. अंग्रेज हुकूमत ने उन्हें 23 मार्च 1931 को लाहौर की जेल में उनके दो साथियों –राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी के फंदे पर मौत की सज़ा दे दी .दुर्भाग्य से आज अमर शहीद भगतसिंह का जन्म स्थान और शहादत-स्थल दोनों पकिस्तान में हैं पर इससे उनके महान संघर्ष और बलिदान का महत्व कम नहीं हो जाता. उन्होंने एक अविभाजित और अखंड भारत की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी ,लेकिन इतिहास ने कुछ ऐसा मोड़ लिया कि उनकी शहादत के करीब सोलह साल बाद अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो' वाली नीति ने 15 अगस्त 1947 को भारत की आज़ादी के समय देश का बंटवारा कर दिया. जिनकी गलतियों से और जिनके क्षुद्र स्वार्थों से हमें एक अखंड भारत के बजाय एक खंडित भारत मिला, उन पर चर्चा करके वक्त जाया करने में अब कोई फायदा नहीं ,फिर भी शायर की यह एक पंक्ति आज भी बार-बार ज़ख्मों को कुरेदा करती है – ‘लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सज़ा पायी ‘.लेकिन आज तो हमें अमर शहीद भगत सिंह को उनकी जयन्ती पर याद करते हुए देश और समाज को नयी दिशा देने वाले उनके क्रांतिकारी विचारों को याद करना चाहिए , जिनसे यह पता चलता है कि चौबीस साल से भी कम उम्र में अपने समय के इस युवा-ह्रदय सम्राट ने क्रांतिकारी –आन्दोलनों में भूमिगत जीवन जीते हुए और जेल की सलाखों के पीछे भी हर तरह के तनावपूर्ण माहौल में धैर्य के साथ विभिन्न विषयों की किताबों का कितना गहरा अध्ययन किया और अपनी जिंदगी के आख़िरी लम्हों तक जनता को नए विचारों की नयी रौशनी देने की लगातार कोशिश की.
अंग्रेज –हुकूमत भारत की आज़ादी के आंदोलन की लगातार अनदेखी कर रही थी. दमन और दबाव का हर तरीका वह अपना रही थी और जनता की आवाज़ को उसने जान-बूझ कर अनसुना कर दिया था. ऐसे में उस बधिर विदेशी शासक के कानों तक देशवासियों की आवाज पहुंचाने के लिए 08 अप्रेल 1929 को भगत सिंह ने दिल्ली केन्द्रीय असेम्बली में दो बम फेंके उनके सहयोगी बटुकेश्वर दत्त ने उसी वक्त असेम्बली में भगत सिंह द्वारा लिखित पर्चा गिराया , जिसमे अंग्रेज –सरकार को हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना की तरफ से साफ़ शब्दों में यह चेतावनी दी गयी थी कि बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज़ की ज़रूरत होती है . आज़ादी के जन-आंदोलन की ओर ब्रिटिश –सरकार का ध्यान आकर्षित करने के साथ-साथ उस विदेशी –हुकूमत के सार्वजनिक-सुरक्षा विधेयक, औद्योगिक विवाद विधेयक और अखबारों की आजादी पर अंकुश लगाने वाले दमनकारी क़ानून जैसे जन-विरोधी कदमों का विरोध करना भी उनका उद्देश्य था , यह उस पर्चे से स्पष्ट हुआ. उन्होंने असेम्बली में बहुत सोच-समझ कर इतनी कम शक्ति का बम फेंका , जिससे सिर्फ एक खाली बेंच को मामूली नुकसान पहुंचा और केवल छह लोग मामूली घायल हुए . भगत सिंह का इरादा किसी को गंभीर चोट पहुंचाना या फिर किसी की ह्त्या करना नहीं था , बल्कि वे चाहते थे कि इस हल्के धमाके के जरिए अंग्रेज सरकार के बहरे कानों तक जन-भावनाओं की अनुगूंज तुरंत पहुँच जाए . ध्यान देने वाली एक बात यह भी है कि बम फेंकने के बाद भगत और बटुकेश्वर ने हिम्मत का परिचय देते हुए तुरंत अपनी गिरफ्तारी भी दे दी . इससे ही उनके नेक इरादे और निर्मल ह्रदय का पता चलता है.फिर भी अंग्रेजों ने इसे अपनी सरकार के खिलाफ एक युद्ध माना और उन पर राज-द्रोह का मुकदमा चलाया .
शहीदे-ए-आज़म भगत सिंह का जन्म तत्कालीन अविभाजित गुलाम भारत के लायलपुर जिले के ग्राम बंगा में में 27 सितम्बर 1907 को हुआ था , जो अब पाकिस्तान में है. अंग्रेज हुकूमत ने उन्हें 23 मार्च 1931 को लाहौर की जेल में उनके दो साथियों –राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी के फंदे पर मौत की सज़ा दे दी .दुर्भाग्य से आज अमर शहीद भगतसिंह का जन्म स्थान और शहादत-स्थल दोनों पकिस्तान में हैं पर इससे उनके महान संघर्ष और बलिदान का महत्व कम नहीं हो जाता. उन्होंने एक अविभाजित और अखंड भारत की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी ,लेकिन इतिहास ने कुछ ऐसा मोड़ लिया कि उनकी शहादत के करीब सोलह साल बाद अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो' वाली नीति ने 15 अगस्त 1947 को भारत की आज़ादी के समय देश का बंटवारा कर दिया. जिनकी गलतियों से और जिनके क्षुद्र स्वार्थों से हमें एक अखंड भारत के बजाय एक खंडित भारत मिला, उन पर चर्चा करके वक्त जाया करने में अब कोई फायदा नहीं ,फिर भी शायर की यह एक पंक्ति आज भी बार-बार ज़ख्मों को कुरेदा करती है – ‘लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सज़ा पायी ‘.लेकिन आज तो हमें अमर शहीद भगत सिंह को उनकी जयन्ती पर याद करते हुए देश और समाज को नयी दिशा देने वाले उनके क्रांतिकारी विचारों को याद करना चाहिए , जिनसे यह पता चलता है कि चौबीस साल से भी कम उम्र में अपने समय के इस युवा-ह्रदय सम्राट ने क्रांतिकारी –आन्दोलनों में भूमिगत जीवन जीते हुए और जेल की सलाखों के पीछे भी हर तरह के तनावपूर्ण माहौल में धैर्य के साथ विभिन्न विषयों की किताबों का कितना गहरा अध्ययन किया और अपनी जिंदगी के आख़िरी लम्हों तक जनता को नए विचारों की नयी रौशनी देने की लगातार कोशिश की.
अंग्रेज –हुकूमत भारत की आज़ादी के आंदोलन की लगातार अनदेखी कर रही थी. दमन और दबाव का हर तरीका वह अपना रही थी और जनता की आवाज़ को उसने जान-बूझ कर अनसुना कर दिया था. ऐसे में उस बधिर विदेशी शासक के कानों तक देशवासियों की आवाज पहुंचाने के लिए 08 अप्रेल 1929 को भगत सिंह ने दिल्ली केन्द्रीय असेम्बली में दो बम फेंके उनके सहयोगी बटुकेश्वर दत्त ने उसी वक्त असेम्बली में भगत सिंह द्वारा लिखित पर्चा गिराया , जिसमे अंग्रेज –सरकार को हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना की तरफ से साफ़ शब्दों में यह चेतावनी दी गयी थी कि बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज़ की ज़रूरत होती है . आज़ादी के जन-आंदोलन की ओर ब्रिटिश –सरकार का ध्यान आकर्षित करने के साथ-साथ उस विदेशी –हुकूमत के सार्वजनिक-सुरक्षा विधेयक, औद्योगिक विवाद विधेयक और अखबारों की आजादी पर अंकुश लगाने वाले दमनकारी क़ानून जैसे जन-विरोधी कदमों का विरोध करना भी उनका उद्देश्य था , यह उस पर्चे से स्पष्ट हुआ. उन्होंने असेम्बली में बहुत सोच-समझ कर इतनी कम शक्ति का बम फेंका , जिससे सिर्फ एक खाली बेंच को मामूली नुकसान पहुंचा और केवल छह लोग मामूली घायल हुए . भगत सिंह का इरादा किसी को गंभीर चोट पहुंचाना या फिर किसी की ह्त्या करना नहीं था , बल्कि वे चाहते थे कि इस हल्के धमाके के जरिए अंग्रेज सरकार के बहरे कानों तक जन-भावनाओं की अनुगूंज तुरंत पहुँच जाए . ध्यान देने वाली एक बात यह भी है कि बम फेंकने के बाद भगत और बटुकेश्वर ने हिम्मत का परिचय देते हुए तुरंत अपनी गिरफ्तारी भी दे दी . इससे ही उनके नेक इरादे और निर्मल ह्रदय का पता चलता है.फिर भी अंग्रेजों ने इसे अपनी सरकार के खिलाफ एक युद्ध माना और उन पर राज-द्रोह का मुकदमा चलाया .
भगत की उम्र उस वक्त सिर्फ बाईस साल थी , जब उन्होंने भारत माता की मुक्ति के लिए अपने क्रांतिकारी मिशन के तहत अंग्रेजों की विधान सभा में जन-भावनाओं का धमाका किया था . जेल की काल-कोठरी में भी भगत सिंह अपने क्रांतिकारी –चिंतन में लगे रहे . उन्होंने अपने साथियों –राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी पर लटकाए जाने के महज तीन दिन पहले पंजाब के गवर्नर को एक लंबा पत्र लिख कर साफ़ शब्दों में कहा – हमें फांसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए. हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी ,जब तक कि शक्तिशाली लोगों ने भारतीय जनता और मेहनतकश मजदूरों की आमदनी के साधनों पर एकाधिकार कर रखा है. चाहे वे अंग्रेज-पूंजीपति हों या भारतीय पूंजीपति... हो सकता है कि यह लड़ाई विभिन्न दशाओं में अलग-अलग स्वरुप धारण करते हुए चले.. निकट भविष्य में अंतिम युद्ध लड़ा जाएगा ,जो निर्णायक होगा .साम्राज्यवाद और पूंजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं. यही वह लड़ाई है ,जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया है और हमें इस पर गर्व है .इस युद्ध को न तो हमने शुरू किया है और न ही यह हमारे जीवन के साथ खत्म होगा .हम आपसे किसी दया की विनती नहीं करते ...हमें युद्ध-बंदी मान कर फांसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए. अपने देश के लिए मर मिटने की ऐसी चाहत देख कर भगत और उनके साथियों के क्रांतिकारी ज़ज्बे को सलाम करने की इच्छा भला किस देश-भक्त को नहीं होगी ?
समाज –नीति, राजनीति ,राष्ट्र-नीति और अर्थ-नीति सहित मानव जीवन के हर पहलू का भगत सिंह ने गहरा अध्ययन किया था ,जो उनके वैचारिक आलेखों में साफ़ झलकता है .इन्कलाब जिंदाबाद के विचारोत्तेजक नारे को जन-जन की आवाज़ बना देने वाले भगत सिंह ने अपने साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ 22 दिसंबर 1929 को’माडर्न-रिव्यू’ नामक पत्रिका के संपादक श्री रामानंद चट्टोपाध्याय को लिखे पत्र में यह स्पष्ट किया था कि इन्कलाब जिंदाबाद क्या है ? उन्होंने इस पत्र में बहुत साफ़ शब्दों में लिखा - इस वाक्य में इन्कलाब (क्रांति ) शब्द का अर्थ प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना और आकांक्षा है . लोग आम-तौर पर जीवन की परम्परागत दशाओं से चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार मात्र से कांपने लगते हैं . यही एक अकर्मण्यता की भावना है , जिसके स्थान पर क्रांतिकारी भावना जाग्रत करने की ज़रूरत है . क्रांति की इस भावना से मानव-समाज की आत्मा स्थायी रूप से जुड़ी रहनी चाहिए. यह भी ज़रूरी है कि पुरानी व्यवस्था हमेशा न रहे और वह नयी व्यवस्था के लिए जगह खाली करती रहे .ताकि एक आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके . यही हमारा अभिप्राय है ,जिसे दिल में रख कर हम ‘इन्कलाब जिंदाबाद ‘ का नारा बुलंद करते हैं .
तत्कालीन भारत की छुआ-छूत जैसी गंभीर सामाजिक –समस्या पर भी भगत सिंह ने गंभीर चिंतन के बाद एक आलेख लिखा ,जिसे उन्होंने ‘विद्रोही’ के नाम से ‘किरती’ नामक पत्रिका के जून 1928 के अंक में प्रकाशित कराया . अछूत –समस्या पर अपने विचार उन्होंने इसमें कुछ इस तरह व्यक्त किए- ‘ हमारे देश जैसे बुरे हालात किसी दूसरे देश में नहीं हुए . यहाँ अजब-अजब सवाल उठते रहते हैं . एक अहम सवाल अछूत-समस्या का है . तीस करोड की आबादी के देश में जो छह करोड लोग अछूत कहलाते हैं , उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा ! मंदिरों में उनके प्रवेश से देवता नाराज़ हो जाएंगे, अगर वे किसी कुएं से पानी निकालेंगे ,तो वह कुआँ अपवित्र हो जाएगा ! ऐसे सवाल बीसवीं सदी में हो रहे हैं , जिन्हें सुनकर शर्म आती है. ‘ भगत सिंह ने यह आलेख अपनी उम्र के महज़ इक्कीसवें साल में लिखा था .इतनी कम उम्र में यह उनकी वैचारिक परिपक्वता का एक अनोखा उदाहरण है . देश की आज़ादी का और एक समता मूलक समाज का जो सपना भगत सिंह ने देखा और जिसके लिए उन्होंने कठिन संघर्ष किया , उसके साकार होने के सोलह साल पहले ही वे अपनी कुर्बानी देकर देश और दुनिया से चले गए. यह भी एक ऐतिहासिक संयोग है कि सन 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की महान योद्धा झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की शहादत भी महज तेईस साल की उम्र में हुई और इस घटना के करीब चौहत्तर साल बाद जब सन 1931 में भगत सिंह वतन की आज़ादी के लिए फांसी के फंदे पर अपने जीवन की आहुति दे रहे थे , तब उनकी उम्र भी करीब-करीब उतनी ही थी .
क्या हमें अपनी आज की पीढ़ी में इतनी कम उम्र का ऐसा कोई नौजवान मिलेगा ,जो आज़ादी , लोकतंत्र और समाजवाद जैसे गंभीर विषयों के साथ-साथ देश की अन्य ज्वलंत समस्याओं पर व्यापक सोच के साथ इतना कुछ लिख चुका हो ,जो आने वाली कई पीढ़ियों तक चर्चा का विषय बन सके ! क्या अपने वतन की आज़ादी और अपने लोकतंत्र की रक्षा के लिए भगत सिंह के बताए मार्ग पर चलने का हौसला हमारे दिलों में है ?बहरहाल चलते-चलते किसी अज्ञात शायर के आज़ादी के तराने की इन दो पंक्तियों को ज़रा गुनगुना तो लीजिए
क्या हुआ गर मर गए अपने वतन के वास्ते
बुलबुलें कुर्बान होती हैं चमन के वास्ते !
तत्कालीन भारत की छुआ-छूत जैसी गंभीर सामाजिक –समस्या पर भी भगत सिंह ने गंभीर चिंतन के बाद एक आलेख लिखा ,जिसे उन्होंने ‘विद्रोही’ के नाम से ‘किरती’ नामक पत्रिका के जून 1928 के अंक में प्रकाशित कराया . अछूत –समस्या पर अपने विचार उन्होंने इसमें कुछ इस तरह व्यक्त किए- ‘ हमारे देश जैसे बुरे हालात किसी दूसरे देश में नहीं हुए . यहाँ अजब-अजब सवाल उठते रहते हैं . एक अहम सवाल अछूत-समस्या का है . तीस करोड की आबादी के देश में जो छह करोड लोग अछूत कहलाते हैं , उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा ! मंदिरों में उनके प्रवेश से देवता नाराज़ हो जाएंगे, अगर वे किसी कुएं से पानी निकालेंगे ,तो वह कुआँ अपवित्र हो जाएगा ! ऐसे सवाल बीसवीं सदी में हो रहे हैं , जिन्हें सुनकर शर्म आती है. ‘ भगत सिंह ने यह आलेख अपनी उम्र के महज़ इक्कीसवें साल में लिखा था .इतनी कम उम्र में यह उनकी वैचारिक परिपक्वता का एक अनोखा उदाहरण है . देश की आज़ादी का और एक समता मूलक समाज का जो सपना भगत सिंह ने देखा और जिसके लिए उन्होंने कठिन संघर्ष किया , उसके साकार होने के सोलह साल पहले ही वे अपनी कुर्बानी देकर देश और दुनिया से चले गए. यह भी एक ऐतिहासिक संयोग है कि सन 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की महान योद्धा झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की शहादत भी महज तेईस साल की उम्र में हुई और इस घटना के करीब चौहत्तर साल बाद जब सन 1931 में भगत सिंह वतन की आज़ादी के लिए फांसी के फंदे पर अपने जीवन की आहुति दे रहे थे , तब उनकी उम्र भी करीब-करीब उतनी ही थी .
क्या हमें अपनी आज की पीढ़ी में इतनी कम उम्र का ऐसा कोई नौजवान मिलेगा ,जो आज़ादी , लोकतंत्र और समाजवाद जैसे गंभीर विषयों के साथ-साथ देश की अन्य ज्वलंत समस्याओं पर व्यापक सोच के साथ इतना कुछ लिख चुका हो ,जो आने वाली कई पीढ़ियों तक चर्चा का विषय बन सके ! क्या अपने वतन की आज़ादी और अपने लोकतंत्र की रक्षा के लिए भगत सिंह के बताए मार्ग पर चलने का हौसला हमारे दिलों में है ?बहरहाल चलते-चलते किसी अज्ञात शायर के आज़ादी के तराने की इन दो पंक्तियों को ज़रा गुनगुना तो लीजिए
क्या हुआ गर मर गए अपने वतन के वास्ते
बुलबुलें कुर्बान होती हैं चमन के वास्ते !
शहीदों की चिताव पर लगेंगे हर बरस मेले,
ReplyDeleteवतन पे मरने वालो का यही बाकीं निशां होगा
पढ़िए और मुस्कुराइए :-
आप ही बताये कैसे पर की जाये नदी ?
शहादत का जज्बा लेकर जागी थी तरुणाई।
ReplyDeleteप्राणों को वार दिया था तब आजादी आई॥
आजाद जीएंगे स्वराज अथर्ववेद ने बतलाया।
स्वामी दयानंद ने स्वराज का अर्थ बतलाया।
स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को नमन
भगत सिंह और उसके हमख्याल नौजवानों को नमन।
ReplyDeleteसामयिक आलेख ! वे हमारे प्रेरणा स्रोत हैं !
ReplyDeleteशहीदों को नमन ....सार्थक लेख
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