Sunday, July 31, 2022

आम जनता के साहित्यकार थे प्रेमचंद

जयंती 31जुलाई 2022 पर विशेष
  (आलेख : स्वराज्य करुण )
साहित्य के क्षितिज पर एक चमकदार सितारे के रूप में प्रेमचंद का उदय इतिहास के एक ऐसे दौर में हुआ ,जब भारत में  स्वतंत्रता संग्राम की लहर चल रही थी और अंग्रेजों की औपनिवेशिक गुलामी से आज़ादी के लिए जनता में राजनीतिक चेतना का विकास हो रहा था। राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के उस दौर में 'कलम के सिपाही ' के रूप में प्रेमचंद का योगदान आज के कलमकारों के लिए भी प्रेरणादायक है। उनका जन्म 31 जुलाई 1880 को उत्तरप्रदेश के ग्राम लमही में और निधन 8 अक्टूबर 1936 को वाराणसी में हुआ। मात्र 56 साल की अपनी जीवन यात्रा में वह उर्दू और हिन्दी साहित्य जगत को अपनी रचनाओं का विशाल खज़ाना सौंपकर इस भौतिक संसार से चले गए ,लेकिन अपनी कहानियों ,अपने उपन्यासों और निबंधों में  देश ,दुनिया और समाज से जुड़े अपने मानवतावादी  चिन्तन  की अनमोल धरोहर के रूप में वह आज भी साहित्य प्रेमियों के दिलों में रचे -बसे हैं। 
            
              साहित्य केवल मनोरंजन और 
                विलासिता की वस्तु नहीं 
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      उन्होंने समाज और व्यक्ति को प्रभावित करने वाले सुलगते सवालों को अपने लेखन का विषय बनाया। कुछ एक अपवादों को छोड़कर देखें तो आधुनिक हिन्दी साहित्य का वह प्रारंभिक दौर रहस्य-रोमांच और रोमांटिक किस्से कहानियों और उपन्यासों का था। प्रेमचंद ने इस परम्परा को कल्पना लोक से बाहर निकालकर जन -सरोकारों से जोड़ा। लखनऊ में वर्ष 1936 में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन में अपने लिखित और लम्बे अध्यक्षीय भाषण में  साहित्य के उद्देश्य पर प्रेमचंद ने जो विचार प्रकट किए थे ,उनकी प्रासंगिकता 86 साल का लम्बा समय बीत जाने के बावज़ूद आज भी बनी हुई है। उन्होंने कहा था   -- "हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा , जिसमें उच्च चिन्तन हो ,स्वाधीनता का भाव हो ,सौन्दर्य का सार हो ,सृजन की आत्मा हो ,जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो,जो हममें गति ,संघर्ष और बेचैनी पैदा करे,सुलाये नहीं ,क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है । साहित्यकार बहुधा अपने देश काल से प्रभावित होता है।जब कोई लहर देश में उठती है तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है और उसकी विशाल आत्मा अपने देश -बन्धुओं के कष्टों से विकल हो उठती है और इस तीव्र विकलता में वह रो उठता है,पर उसके रुदन में भी व्यापकता होती है।वह स्वदेश का होकर भी सार्वभौमिक रहता है। साहित्य का सम्बन्ध बुद्धि से उतना नहीं ,जितना भावों से है।बुद्धि के लिए दर्शन है ,विज्ञान है ,नीति है। भावों के लिए कविता है ,उपन्यास है ,गद्य -काव्य है।" 
      दोहरी गुलामी के दौर में प्रेमचंद का लेखन 
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प्रेमचंद उस दौर के साहित्यकार थे ,जब देश दोहरी गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। एक तरफ़ साम्राज्यवादी इंग्लैंड की सरकार और दूसरी तरफ देशी राजे - रजवाड़ों का सामंतवादी रियासती प्रशासन। यानी साम्राज्यवाद और सामंतवाद के दो पाटों के बीच भारत की जनता आज़ादी और लोकतंत्र के लिए छटपटा रही थी। ऐसे नाज़ुक दौर में विदेशी हुकूमत और देशी सामंतों को व्यवस्था के ख़िलाफ़ किसी भी तरह का लेखन  बेहद नागवार लगता था। फिर भी प्रेमचंद ने अपने समय की इस दोहरी गुलामी की परवाह न करते हुए हिम्मत के साथ बहुत खुलकर लिखा और खूब लिखा।  हालांकि इसका अंज़ाम भी उन्हें भुगतना पड़ा ,लेकिन अपनी जनता और ज़मीन  से जुड़े  साहित्यकार ऐसे अंज़ामों से जूझने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। प्रेमचंद उन्हीं रचनाकारों में से थे।
                      
            ब्रिटिश हुकूमत ने ज़ब्त कर
             लिया पहला कहानी संग्रह 
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भारतीय समाज के मेहनतकश किसानों ,मज़दूरों ,दलितों और शोषितों के दुःख-दर्द को और उनकी भावनाओं को अपनी कलम से वाणी देने वाले , आम जनता के साहित्यकार थे। उन्होंने उन्होंने जन -सामान्य के लिए सहज ,सरल भाषा में जीवन की समस्याओं पर गंभीरता से विचार करने वाली रचनाएँ लिखीं।  साहित्य प्रेमियों ने उन्हें 'कहानी सम्राट ' 'उपन्यास सम्राट'  और 'कलम का सिपाही ' जैसे सम्मानजनक विशेषणों से नवाज़ा। शुरुआत उन्होंने उर्दू साहित्य से की। ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ , हमारे महान स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उर्दू में उनका पहला कहानी संग्रह सोज़ -ए-वतन (यानी देश का दर्द ) जब छपकर आया तब वर्ष 1907 में अंग्रेज सरकार ने इसे ज़ब्त कर लिया। पुस्तक पर पाबंदी लगा दी और उसकी तमाम पार्टियों को आग के हवाले करवा दिया। इस संग्रह में पाँच कहानियाँ थीं -- दुनिया का सबसे अनमोल रतन ,शेख़ मख़मूर ,यही मेरा वतन है ,शोक का पुरस्कार और सांसारिक प्रेम। तब तक प्रेमचंद उर्दू में नवाबराय के नाम से लिखा करते थे। इस घटना के बाद वह 'प्रेमचंद' बने और  आजीवन इसी नाम से साहित्य सृजन करते रहे।  हिन्दी में उनकी प्रमुख रचनाओं में सेवासदन ,  गोदान ,कर्मभूमि ,प्रेमाश्रम , निर्मला ,गबन ,रंगभूमि , कायाकल्प जैसे  15  कालजयी उपन्यास और कफ़न,ईदगाह , मंत्र ,खुदाई फौजदार, बड़े भाई साहब ,नमक का दरोगा ,मंदिर और मस्ज़िद , ठाकुर का कुआँ ,सदगति , बाबाजी का भोग , गरीब की हाय तथा पूस की रात जैसी तीन सौ से ज़्यादा कहानियाँ शामिल हैं। उनका पहला उपन्यास था 'सेवासदन', जो 1918 में छपा था। अंतिम प्रकाशित उपन्यास 'गोदान ' 1936 में आया ,जबकि 'मंगलसूत्र' नामक उपन्यास अधूरा रह गया।
                               
           उपन्यास 'गोदान ' पर बनी थी फ़िल्म 
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 प्रेमचंद का उपन्यास 'गोदान तत्कालीन भारतीय समाज में कर्ज के बोझ से दबे  ' होरी जैसे ग़रीब  किसानों के जीवन संघर्षों का एक कारुणिक दस्तावेज है ।  वहीं ' निर्मला ' दहेज के अभाव में बेमेल विवाह की त्रासदी झेलती भारतीय नारी की जीवन गाथा है ,जबकि 'रंगभूमि' उपन्यास में प्रेमचंद उन दिनों के रसूखदार अमीरों के विरुद्ध एक नेत्रहीन भिखारी (सूरदास)के अहिंसक संघर्ष का जीवंत चित्रण करते हैं। उनके उपन्यास 'गोदान ' पर वर्ष 1963 में हिन्दी में फीचर फ़िल्म भी रिलीज हुई थी , जिसकी पटकथा भी स्वयं प्रेमचंद ने लिखी थी।त्रिलोक जेटली इस फ़िल्म के निर्माता और निर्देशक थे। इसमें राजकुमार ,महमूद ,शशिकला,, कामिनी कौशल ,टुनटुन,शुभा खोटे और मदनपुरी जैसे कई प्रसिद्ध कलाकारों ने किरदार निभाया था। संगीत पण्डित  रविशंकर का था और गीतकार थे बॉलीवुड में 'अंजान' के नाम से मशहूर लालजी पाण्डेय। इस फ़िल्म में उनका लिखा एक गीत 'चली आज गोरी पिया की नगरिया' बहुत लोकप्रिय हुआ था।
          
       नाटक और निबंध लेखक भी थे प्रेमचंद 
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     प्रेमचंद ने कृषि प्रधान भारतीय समाज में कुरीतियों की वजह से कर्ज के बोझ से दबे किसानों की समस्याओं को  अपने नाटक 'संग्राम ' में रेखांकित किया है। यह नाटक वर्ष 1923 में प्रकाशित हुआ था।उनके लिखे दो अन्य नाटक कर्बला(1924) और प्रेम की वेदी (वर्ष 1933) भी काफी चर्चित हुए थे। प्रेमचंद के चर्चित निबंधों में महाजनी सभ्यता , साम्प्रदायिकता और संस्कृति ,पुराना ज़माना -नया ज़माना , हिन्दी -उर्दू एकता , स्वराज के फायदे और जीवन में साहित्य का स्थान भी उल्लेखनीय है। चाहे उपन्यास हो या कहानी ,निबंध हों या नाटक ,प्रेमचंद के साहित्य में समाज का कोई भी वर्ग और मानव जीवन का कोई भी पहलू अछूता नहीं रह गया है। उन्होंने अपनी कई रचनाओं के माध्यम से भारतीय समाज में साम्प्रदायिक सौहार्द्र की भावना को जन -जन तक पहुँचाने का प्रयास किया । अपने निबंध 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति ' की शुरुआत  वह इन शब्दों में करते हैं --"साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है।इसलिए वह उस गधे की भाँति, जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रौब जमाता फिरता था ,संस्कृति की खोल ओढ़कर आती है।" प्रेमचंद वास्तव में एक दूरदर्शी लेखक थे।उन्होंने समाज में आ रहे बदलावों को देखकर सटीक अनुमान लगा लिया था कि आने वाला समय कैसा होगा !
                   पुराना ज़माना : नया ज़माना 
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वह अपने निबंध 'पुराना ज़माना : नया ज़माना में लिखते हैं --" आने वाला ज़माना  अब जनता का है और वह लोग पछताएंगे ,जो ज़माने के साथ कदम -से - कदम मिलाकर न चलेंगे । "अपने इसी निबंध में वह उस दौर में भारतीय किसानों की दुर्दशा से चिंतित होकर कहते हैं -- क्या यह शर्म की बात नहीं कि जिस देश में नब्बे प्रतिशत आबादी किसानों की हो , उस देश में कोई किसान सभा ,कोई किसानों की भलाई का आंदोलन ,कोई खेती का विद्यालय, किसानों की भलाई का कोई व्यवस्थित प्रयत्न न हो। प्रेमचंद वर्ष 1917की सोवियत रूस की जनक्रांति से काफी प्रभावित थे। उन्होंने अपने निबंध पुराना ज़माना :नया ज़माना' में लिखा था -- आने वाला ज़माना अब किसानों और मज़दूरों का है। दुनिया की रफ़्तार इसका साफ सबूत दे रही है।हिन्दुस्तान इस हवा से बेअसर नहीं रह सकता।शायद जल्द ही हम जनता को केवल मुखर ही नहीं ,अपने अधिकारों की मांग करने वाले के रूप में देखेंगे और तब वह आपकी किस्मत की मालिक होगी " 
    जरा सोचिए ,  क्या आज इक्कीसवीं सदी के आज़ाद और लोकतांत्रिक भारत के किसानों में अपने अधिकारों को लेकर आई जागृति , संसद और विधानसभाओं के निर्वाचनों में उनकी निर्णायक भूमिका और  केन्द्र तथा राज्य सरकारों के द्वारा संचालित विभिन्न किसान हितैषी योजनाओं से यह साबित नहीं होता कि प्रेमचंद के लेखन में  अपने समय से  बहुत आगे का चिन्तन था ? 

                   

 विसंगतियों और विषमताओं पर साधा निशाना 
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वह अपने उपन्यास 'कर्मभूमि' के एक प्रमुख पात्र  के माध्यम से उन दिनों के समाज में व्याप्त विसंगतियों और विषमताओं को भी निशाना बनाते हैं। प्रेमचंद लिखते हैं --"धर्म का काम संसार में मेल और एकता पैदा करना है। यहाँ धर्म ने विभिन्नता औऱ द्वेष पैदा कर दिया है।क्यों खान-पान में ,रस्म -रिवाज़ में धर्म अपनी टांग अड़ाता है। मैं चोरी करूं ,धोखा दूँ,  धर्म मुझे अलग नहीं कर सकता ।अछूत के हाथ का पानी पी लूँ ,धर्म छूमंतर हो गया ! अच्छा धर्म है। हम धर्म के बाहर किसी से आत्मा का संबंध भी नहीं कर सकते ! आत्मा को भी धर्म ने बांध रखा है। प्रेम को भी जकड़ रखा है।यह धर्म नहीं ,धर्म का कलंक है।" आगे उनका पात्र कहता है --"जिसके पास जितनी बड़ी डिग्री है ,उसका स्वार्थ भी उतना ही बढ़ा हुआ है। मानो लोभ और स्वार्थ ही विद्वता का लक्षण है।" प्रेमचंद इस उपन्यास में उन लोगों पर भी करारा प्रहार करते हैं ,जिन्हें अनैतिक तरीकों से धनार्जन करने में अपनी शान समझते हैं।प्रेमचंद का पात्र इसमें कहता है --तुम कहोगे हमने बुद्धि बल से धन कमाया है । क्यों न उसका उपभोग करें? लेकिन इस बुद्धि का नाम स्वार्थ -बुद्धि है।और जब समाज का संचालन स्वार्थ -बुद्धि के हाथ में आ जाता है ,न्याय -बुद्धि गद्दी से उतार दी जाती है ,तो समझ  लो कि समाज में कोई विप्लव  होने वाला है।गर्मी बढ़ रही है तो तुरंत ही आंधी आती है। मानवता हमेशा कुचली नहीं जा सकती। समता जीवन का तत्व है। यही एक दशा है,जो समाज को स्थिर रख सकती है।थोड़े -से धनवानों को हरगिज़ यह अधिकार नहीं है कि वे जनता को ईश्वर प्रदत्त वायु और प्रकाश का अपहरण करें। "
                    प्रेमचंद की पत्रकारिता
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      प्रेमचंद एक सजग पत्रकार भी थे। स्वतंत्र पत्रकारिता की शुरुआत उन्होंने वर्ष 1903 में की। उस दौरान उन्होंने 'स्वदेश ' और 'मर्यादा ' नामक पत्रों में कई रिपोतार्ज लिखे, सम-सामयिक विषयों पर  विचारोत्तेजक लेख लिखे , जन मानस को प्रभावित करने वाली टिप्पणियाँ लिखीं। उर्दू अख़बार 'ज़माना ' में उनका नियमित स्तंभ 'रफ़्तार-ए व-ज़माना ' भी काफी चर्चित हुआ करता था।   लम्बे अरसे तक स्वतंत्र पत्रकारिता के बाद उन्होंने वर्ष 1933-34 में साप्ताहिक 'जागरण 'और 1930 से 1936 तक मासिक पत्रिका 'हंस ' का सम्पादन किया। उन्होंने आज़ादी के आंदोलन के उस दौर में अपने पत्रकारीय लेखन  को आम जनता में राष्ट्रीय चेतना के विकास का माध्यम बनाया। उन्होंने अपनी लेखनी से ब्रिटिश हुकूमत की जन विरोधी नीतियों की कटु आलोचनाएँ की। फलस्वरूप सरकार की पैनी निगाह उन पर और उनके पत्रों पर हमेशा बनी रहती थी। दोनों अख़बारों को कई बार प्रशासन की नाराज़गी झेलनी पड़ी।
        मासिक  ' हंस ' के प्रकाशन पर लगी थी रोक 
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        मासिक 'हंस' के जून -जुलाई 1936 के अंकों में सेठ गोविन्ददास रचित नाटक 'स्वातंत्र्य' के प्रकाशन पर आपत्ति करते हुए अंग्रेज -  प्रशासन ने प्रेमचंद की इस पत्रिका को बंद करवा दिया। पत्रिका पाँच महीने तक बंद रही। उस ज़माने में एक हजार रुपए की जमानत  भरने के बाद उसका प्रकाशन शुरू हो पाया। इस घटना से व्यथित होकर उन्होंने साप्ताहिक 'जागरण ' के 12 दिसम्बर 1932 के अंक में लिखा था --"ऐसे वातावरण में ,जबकि हर सम्पादक के सिर पर तलवार लटक रही हो ,राष्ट्र का सच्चा राजनीतिक विकास नहीं हो सकता।"  लेकिन इसके बाद भी ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति के लिए जन -जागृति की दिशा में प्रेमचंद का लेखन लगातार चलता रहा। 
देश को आज़ादी मिलने के मात्र ग्यारह साल पहले  अपने साहित्य और क्रांतिकारी विचारों की अनमोल धरोहर समाज को सौंपकर  प्रेमचंद 1936 में दुनिया छोड़ गए। लेकिन उनके विचारों की धड़कन और उनकी संवेदनाओं का स्पंदन उनकी कालजयी रचनाओं में हम आज भी महसूस कर सकते हैं। उनके  साहित्य  ने भारतीय समाज को हमेशा जोड़ने का प्रयास किया। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से जनता को एकता ,मैत्री , शांति , सामाजिक समानता और मानवता का संदेश दिया। 
         - स्वराज्य करुण
     


Friday, July 22, 2022

(आलेख) एक हजार साल से भी पुराना है छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य का इतिहास

आलेख -- स्वराज करुण 

भारत के प्रत्येक राज्य और वहाँ के प्रत्येक अंचल की अपनी भाषाएँ ,अपनी बोलियाँ ,अपना साहित्य ,अपना संगीत और अपनी संस्कृति होती है। ये रंग -बिरंगी विविधताएँ ही भारत की राष्ट्रीय पहचान है ,जो इस देश को एकता के मज़बूत बंधनों में बांध कर रखती है। छत्तीसगढ़ भी एक ऐसा भारतीय राज्य है , जो अपनी भाषा ,अपने साहित्य और अपनी विविधतापूर्ण लोक संस्कृति से सुसज्जित और समृद्ध है।यहाँ की भाषा और यहाँ के साहित्य को अपनी लेखनी के माध्यम से निरंतर विकसित और संरक्षित करने के लिए समर्पित साहित्य मनीषियों में डॉ. विनय कुमार पाठक भी हैं ,जो विगत आधी शताब्दी से भी अधिक समय से हिन्दी के साथ -साथ छत्तीसगढ़ी साहित्य की सेवा में भी  लगे हुए हैं।

    बिलासपुर में 11 जून 1947 को जन्मे डॉ. पाठक की अनेक पुस्तकें विभिन्न साहित्यिक -सांस्कृतिक  विषयों में प्रकाशित हो चुकी हैं। बी. एस-सी.एम .ए. के बाद उन्होंने हिन्दी और भाषाविज्ञान में पीएच -डी. की है। उन्हें डी.लिट् की भी उपाधि मिली है। उनके दो शोधग्रंथ हैं -- (1) छत्तीसगढ़ी साहित्य का सांस्कृतिक अनुशीलन  और (2) भाषाविज्ञान के तहत छत्तीसगढ़ी में प्रयुक्त परिनिष्ठित हिन्दी और इतर भाषाओं के शब्दों में अर्थ परिवर्तन  । उनके अन्य ग्रंथों में  वर्ष 2021 में प्रकाशित 382 पृष्ठों का 'विकलांग -विमर्श ' भी काफी चर्चित और प्रशंसित रहा है। देश में अपनी तरह का यह एक अनोखा  ग्रंथ है। इसमें में देश के निःशक्त जनों की सामाजिक -आर्थिक स्थिति और हिन्दी साहित्य तथा सिनेमा में उनके जीवन संघर्षो का चित्रण है। यह अपनी विषय -वस्तु और आकार -प्रकार में एक शोधग्रंथ के समकक्ष है। डॉ. पाठक छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। इन दिनों वह अपने गृहनगर बिलासपुर की साहित्यिक ,सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय हैं । अपनी संस्था 'प्रयास प्रकाशन ' से उन्होंने राज्य के अनेक रचनाकारों की पुस्तकों का प्रकाशन किया है।

 ननउनकी एक पुस्तक छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार' का पहला संस्करण वर्ष 1971 में प्रकाशित हुआ था। यह पुस्तक छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के क्रमिक विकास का एक ऐतिहासिक दस्तावेज है । छपते ही उन दिनों आंचलिक साहित्यकारों और साहित्य प्रेमियों के बीच इसकी डिमांड इतनी बढ़ी कि दूसरा और तीसरा संस्करण भी छपवाना पड़ा।दूसरा संस्करण 1975 में और तीसरा वर्ष 1977 में प्रकाशित हुआ था।  पुस्तक का तीसरा संस्करण उन्होंने मुझे 18 अगस्त 1977 को भेंट किया था ,जब वह आरंग के शासकीय महाविद्यालय में प्राध्यापक थे।वहाँ रहते हुए उन्होंने स्थानीय कवियों की रचनाओं का एक छोटा संकलन 'आरंग के कवि ' शीर्षक से सम्पादित और प्रकाशित किया था।



                                                   छत्तीसगढ़ी साहित्य का क्रमबद्ध इतिहास

            डॉ. विनय कुमार पाठक की   पुस्तक  'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार' को मैं छत्तीसगढ़ का साहित्यिक इतिहास मानता हूँ। लगभग 106 पृष्ठों की 17 सेंटीमीटर लम्बी और 11 सेंटीमीटर चौड़ी यह पुस्तक आकार में छोटी जरूर है ,लेकिन प्रकार में यह  हमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल की याद दिलाती है ,जिन्हें  हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन के लिए भी याद किया जाता है। डॉ. पाठक ने अपनी पुस्तक में  छत्तीसगढ़ी साहित्य के क्रमबद्ध विकास को अलग -अलग कालखण्डों में रेखांकित किया है। इस पुस्तक से ज्ञात होता है कि छत्तीसगढ़ी साहित्य का इतिहास एक हजार साल से भी अधिक पुराना है। आत्माभिव्यक्ति के तहत डॉ. पाठक ने लिखा है कि इस कृति में स्पष्ट रूप से दो खण्ड हैं, जिसमें पहला खण्ड साहित्य का है और दूसरा साहित्यकारों का। 

     वह लिखते हैं --"कई झन बिदवान मन छत्तीसगढ़ी साहित्य ल आज ले दू-तीन सौ बरिस तक मान के ओखर कीमत आंकथे। मय उन बिदवान सो पूछना चाहूं के अतेक पोठ अउ जुन्ना भाषा के साहित्य का अतेक नवा होही ? ए बात आने आए के हमला छपे या लिखे हुए साहित्य नइ मिलै,तभो एखर लोक साहित्य ल देख के अनताज (अंदाज ) तो लगाए जा सकत हे के वो कोन जुग के लेखनी आय ! छत्तीसगढ़ी के कतकोन कवि मरगें ,मेटागें ,फेर अपन फक्कड़ अउ सिधवा सुभाव के कारन ,छपास ले दूरिया रहे के कारन रचना संग अपन नांव नइ गोबिन। उनकर कविता ,उनकर गीत आज मनखे -मनखे के मुंहूं ले सुने जा सकत हे। उनकर कविता म कतका जोम हे ,एला जनैयेच मन जानहीं।"


                                                              


                                                                डॉ. विनय कुमार पाठक 

डॉ. पाठक ने लिखा है कि शब्द सांख्यिकी का नियम लगाकर ,युग के प्रभाव और उसकी प्रवृत्ति को देखकर कविता लेखन के समय का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ने शब्द सांख्यिकी नियम लगा कर बताया है कि पूर्वी हिन्दी (अवधी)से छत्तीसगढ़ी 1080 साल पहले नवमी -दसवीं शताब्दी में अलग हो चुकी थी । पुस्तक में डॉ. वर्मा को संदर्भित करते हुए  छत्तीसगढ़ी साहित्य के विकास का काल निर्धारण भी किया है,जो इस प्रकार है -- मौखिक परम्परा (प्राचीन साहित्य )--आदिकाल (1000 से 1500वि) -- चारण काल (1000 से 1200 वि)-- वीरगाथा काल (1200 से 1500 तक ),फिर मध्यकाल(1500 से 1900 वि),फिर लिखित परम्परा यानी आधुनिक साहित्य (1900 से आज तक )फिर आधुनिक काल में भी प्रथम उन्मेष (1900 से 1955 तक )और द्वितीय उन्मेष (1955 से आज तक )। आदिकाल के संदर्भ में डॉ. विनय पाठक लिखते हैं --इतिहास के पन्ना ल उल्टाये ले गम मिलथे के 10 वीं शताब्दी ले 12वीं शताब्दी तक हैहयवंशी राजा मन के कोनो किसिम के लड़ाई अउ बैर भाव नइ रिहिस।उनकर आपुस म मया भाव अउ सुमता दिखथे। ए बीच  बीरगाथा के रचना होना ठीक नई जान परै।ओ  बखत के राजा मन के राज म रहत कवि मन के जउन राजा के बीरता ,गुनानवाद मिलथे (भले राजा के नांव नइ मिलै)।ओ अधार ले एला चारण काल कहि सकत हन ।12वीं शताब्दी के छेवर-छेवर मा इन मन ल कतको जुद्ध करना परिस ।ये तरह 12 वीं शताब्दी के छेवर -छेवर ले 1500 तक बीर गाथा काल मान सकत हन।ये ही बीच बीरता ,लड़ाई ,जुद्ध के बरनन होइस हे, एमा दू मत नइये।

      लेकिन इतिहासकारों और साहित्यकारों में कई बार तथ्यों को लेकर मत भिन्नताएं होती ही  हैं ,जो बहुत स्वाभाविक है।  डॉ. पाठक वर्ष 1000 से 1500 तक को आदिकाल या वीरगाथा काल के रूप में स्थापित किए जाने के डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के विचार  को आधा ठीक और आधा गलत मानते हैं। उन्होंने आगे  लिखा है --"गाथा बिसेस के प्रवृति होय के कारण ये जुग ल गाथा युग घलो कहे जा  सकत हे।एमा मिलत प्रेमोख्यान गाथा म अहिमन रानी ,केवला रानी असन अबड़ कन गाथा अउ धार्मिक गाथा म पंडवानी, फूलबासन ,असन कई एक ठो गाथा ल ए जुग के रचना कहे अउ माने जा सकत हे। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ह 1000 ले 1500 तक के जुग ल आदिकाल या बीरगाथा काल कहे हे ,जउन ह आधा ठीक अउ आधा गलत साबित होथे। "

                                 छत्तीसगढ़ी के प्रथम कवि धरम दास 

     आगे डॉ. पाठक ने छत्तीसगढ़ी साहित्य के विकास क्रम में  मध्यकाल और आधुनिक साहित्य से जुड़े तथ्यों की चर्चा की है। उन्होंने मध्यकालीन साहित्य में  भक्ति धारा के प्रवाहित होने के  प्रसंग में लिखा है कि  संत कबीरदास के शिष्य धरम दास को छत्तीसगढ़ी का पहला कवि माना जा सकता है। डॉ. पाठक लिखते हैं -- "राजनीति के हेरफेर अउ  चढ़ाव -उतार के कारन समाज म रूढ़ि ,अंधविश्वास के नार बगरे के कारन ,मध्यकाल म लोगन के हिरदे ले भक्ति के धारा तरल रउहन बोहाये लागिस।वइसे तो इहां कतको भक्त अउ संत कवि होगे हें ,फेर उंकर परमान नइ मिल सके के कारन उनकर चरचा करना ठीक नोहय।कबीरदास के पंथ ल मनैया कवि मन के अतका परचार-परसार होय के कारन इहां कबीरपंथ के रचना अबड़ मिलथे। एही पंथ के रद्दा म रेंगइया कबीरदास के पट्ट चेला धरम दास ल छत्तीसगढ़ी के पहिली कवि माने जा सकत हे।घासीदास के पंथ के परचार के संग संग कतको रचना मिलथे ,जउन हर ये जुग के साहित्य के मण्डल ल भरथे। "

   छत्तीसगढ़ी में कहानी ,उपन्यास ,नाटक और एकांकी ,निबंध और समीक्षात्मक लेख भी खूब लिखे गए हैं। अनुवाद कार्य भी खूब हुआ है। पुस्तक की शुरुआत डॉ. पाठक ने 'छत्तीसगढ़ी साहित्य' के अंतर्गत गद्य साहित्य से करते हुए  यहाँ के गद्य साहित्य की इन सभी  विधाओं के प्रमुख  लेखकों और उनकी कृतियों का उल्लेख किया है। डॉ. पाठक के अनुसार   कुछ विद्वान  छत्तीसगढ़ी गद्य का सबसे पहला नमूना  दंतेवाड़ा के शिलालेख को बताते हैं ,जबकि यह मैथिली के रंग में रंगा हुआ है। 

                 आरंग का शिलालेख छत्तीसगढ़ी गद्य का पहला नमूना 

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अपनी इस पुस्तक में डॉ. पाठक ने लिखा है कि  आरंग में मिले सन 1724 के शिलालेख को छत्तीसगढ़ी गद्य लेखन का पहला नमूना माना जा सकता है।इसका ठोस कारण ये है कि यह (आरंग)निमगा (शुद्ध )छत्तीसगढ़ी की जगह है और यह कलचुरि राजा अमर सिंह का शिलालेख है। सन 1890 में हीरालाल काव्योपाध्याय का 'छत्तीसगढ़ी व्याकरण ' छपकर आया ,जिसमें ढोला की कहानी और रामायण की कथा भी छपी है ,जिनकी भाषा मुहावरेदार और काव्यात्मक है।अनुवादों के प्रसंग में पाठकजी ने एक दिलचस्प जानकारी दी है कि सन 1918 में पंडित शुकलाल प्रसाद पाण्डेय ने शेक्सपियर के लिखे 'कॉमेडी ऑफ एरर्स ' का अनुवाद 'पुरू झुरु' शीर्षक से किया था । पंडित मुकुटधर पाण्डेय ने कालिदास के 'मेघदूत' का छत्तीसगढ़ी अनुवाद करके एक बड़ा काम किया है।पुस्तक में 'छत्तीसगढ़ी साहित्य म नवा बिहान 'शीर्षक ' के अंतर्गत प्रमुख कवियों की कविताओं का भी जिक्र किया गया है।

                    लिखित परम्परा की शुरुआत 

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               छत्तीसगढ़ी साहित्य में आधुनिक काल की चर्चा प्रारंभ करते हुए अपनी इस पुस्तक में डॉ. पाठक कहते  हैं-"कोनो बोली ह तब तक भाषा के रूप नइ ले लेवै ,जब तक ओखर लिखित परम्परा नइ होवै।" इसी कड़ी में उन्होंने आधुनिक काल के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी के लिखित साहित्य के प्रथम और द्वितीय उन्मेष पर प्रकाश डाला है। प्रथम उन्मेष में उन्होंने सन 1916 के आस -पास राजिम के पंडित सुन्दरलाल शर्मा रचित 'छत्तीसगढ़ी दानलीला 'सहित आगे के वर्षों में प्रकाशित कई साहित्यकारों की कृतियों की जानकारी दी है।

                         सुराज मिले के पाछू नवा-नवा प्रयोग 

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      द्वितीय उन्मेष में वह लिखते हैं --"सुराज मिले के पाछू हिन्दी के जमों उप -भाषा अउ बोली डहर लोगन के धियान गिस।ओमा रचना लिखे के ,ओमा सोध करेके ,ओमा समाचार पत्र अउ पत्रिका निकारे के काम धड़ाधड़ सुरू होगे। छत्तीसगढ़ी म ए बीच जतका प्रकाशन होइस ,साहित्य म जतका नवा -नवा प्रयोग होइस ,ओखर ले छत्तीसगढ़ी के रूप बने लागिस,संवरे लागिस।अउ आज छत्तीसगढ़ी ह आने रूप म हमार आघू हावै। छत्तीसगढ़ी डहर लोगन के जउन रद्दी रूख रहिस ,टरकाऊ बानी रहिस ,अब सिराय लागिस। छत्तीसगढ़ी साहित्य ह अब मेला -ठेला ले उतरके लाइब्रेरी ,पुस्तक दुकान अउ ए .एच. व्हीलर इहां आगे। लाउडस्पीकर म रेंक के बेंचई ले उठके रेडियो, सिनेमा अउ कवि सम्मेलन तक हबरगे।गंवैहा मन के चरचा ले असकिटिया के 'काफी हाउस' अउ 'साहित्यिक गोष्ठी ' के रूप म ठउर जमा लिस। लोगन के सुवाद बदलगे, छत्तीसगढ़ के भाग पलटगे। " 

      डॉ. पाठक ने 'द्वितीय उन्मेष' में विशेष रूप से छत्तीसगढ़ी कवियों  की चर्चा की है। साथ ही उन्होंने इनमें से 25 प्रमुख कवियों के काव्य गुणों का उल्लेख करते हुए उनकी एक -एक रचनाएँ भी प्रस्तुत की हैं। इनमें सर्व प्यारेलाल गुप्त ,कुंजबिहारी लाल चौबे ,कोदूराम दलित ,श्यामलाल चतुर्वेदी, विमल कुमार पाठक, नारायण लाल परमार,डॉ. हनुमंत नायडू 'राजदीप' , लाला जगदलपुरी, दानेश्वर शर्मा ,हरि ठाकुर ,विद्याभूषण मिश्र, लखनलाल गुप्त,विनय कुमार पाठक ,रघुवीर अग्रवाल'पथिक', हेमनाथ यदु ,बृजलाल प्रसाद शुक्ल ,कपिलनाथ कश्यप ,अखेचंद क्लांत ,मेथ्यू जहानी 'जर्जर',गयाराम साहू ,सीताराम शर्मा ,भरतलाल तिवारी ,राजेन्द्र प्रसाद तिवारी ,देवधर दास महंत और सुश्री शकुन्तला शर्मा 'रश्मि' की कविताएँ शामिल हैं।

     बहरहाल ,साहित्य मनीषी  डॉ. विनय कुमार पाठक की पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार ' न सिर्फ़ इस राज्य के ,बल्कि देश के अन्य राज्यों के जिज्ञासु पाठकों ,साहित्यकारों और शोध कार्यो में दिलचस्पी रखने वाले लेखकों तथा छात्र -छात्राओं के लिए भी ज्ञानवर्धक है। हालांकि वर्ष 1977 में छपे इसके तीसरे संस्करण के बाद विगत 45 वर्षों से इसके चौथे संस्करण का बेसब्री से इंतज़ार किया जा रहा है । चूंकि साढ़े चार दशकों के इस लम्बे अंतराल में जमाना बहुत बदल गया है।  कम्प्यूटर क्रांति से मुद्रण तकनीक और मीडिया जगत में भी भारी बदलाव आया है। छपाई का काम बहुत आसान हो गया है। छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में इस दौरान कई परिवर्तन हुए हैं। बड़ी संख्या में नये रचनाकार आंचलिक पत्र -पत्रिकाओं में खूब  प्रकाशित हो रहे हैं। उनकी पुस्तकें भी खूब छप रही हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन सहित कई प्राइवेट टीव्ही चैनलों में उन्हें मंच भी मिल रहा है। उम्मीद है कि डॉ. पाठक जब कभी अपनी इस पुस्तक का चौथा संस्करण प्रकाशित करेंगे ,उसमें इन परिवर्तनों को शामिल करते हुए उसे एक नये स्वरूप में प्रस्तुत करेंगे।-- स्वराज करुण 

Tuesday, July 19, 2022

उन्होंने बताया था - किसे कहेंगे छत्तीसगढ़िया ?


   आज डॉ. खूबचंद बघेल की जयंती 

       (आलेख : स्वराज करुण)

महान स्वतंत्रता सेनानी , किसान नेता और साहित्यकार डॉ. खूबचंद बघेल के क्रांतिकारी विचार पृथक छत्तीसगढ़ राज्य और' छत्तीसगढ़िया' को लेकर बहुत स्पष्ट थे। उन्होंने कहा था --" सीधा अउ सरल ढंग से अर्थ कहूँ करे जाय तव इही कहना परही कि जउन छत्तीसगढ़ में रहिथे तउन छत्तीसगढ़ी ।मोर समझ के मुताबिक जउन व्यक्ति खुद ल अंतस से छत्तीसगढ़ी समझथे, छत्तीसगढ़ी कहवाय में हीनता अउ संकोच के अनुभव नइ करय, छत्तीसगढ़ के भलई अउ बुराई में अपन भलई अउ बुराई समझय , छत्तीसगढ़ी मन ला दिये गए गारी हा ओला गोली बरोबर लागय ,तउन हा छत्तीसगढ़ी आय ।"

  हिन्दी में उनके इन विचारों का आशय इस प्रकार है -- "सीधे और सरल ढंग से अर्थ कहूँ तो इतना कहना पड़ेगा कि जो छत्तीसगढ़ में रहता है वह छत्तीसगढ़ी ।मेरी समझ के मुताबिक जो व्यक्ति खुद को अपने अंतस से छत्तीसगढ़ी समझे ,छत्तीसगढ़ी कहलाने में हीनता और संकोच अनुभव न करे ,छत्तीसगढ़ की भलाई और बुराई में अपनी भलाई और बुराई समझे ,छत्तीसगढ़ियों को दी गई गाली उसे (बन्दूक की) गोली की तरह लगे ,वही व्यक्ति छत्तीसगढ़ी है।"

    डॉ. बघेल ने छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के सपने को साकार करने के लिए वैचारिक और राजनीतिक धरातल पर लम्बा संघर्ष किया  था ,लेकिन अफ़सोस कि वह अपने इस स्वप्न को साकार होता हुआ नहीं देख पाए। उनकी  आज 122 वीं जयंती है। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।                            

                                                              


                                                   राज्य आंदोलन के प्रमुख आधार स्तंभ 

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    छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के प्रमुख आधार स्तंभ  डॉ .खूबचन्द बघेल का जन्म 19 जुलाई 1900 को रायपुर जिले के ग्राम पथरी में और निधन 22 फरवरी 1969 को नई दिल्ली में हुआ। निधन के समय वह राज्य सभा के सांसद थे । इसके पहले वर्ष 1951 ,वर्ष 1957 और वर्ष 1967 के आम चुनावों में  वह धरसीवां क्षेत्र से विधायक रहे।  अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ रायपुर में वर्ष 1942 के  भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान  उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ भूमिगत गतिविधियों का संचालन किया । उसी दौरान 21 अगस्त को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।डॉ. बघेल ढाई साल तक कारावास में रहे। 

                                                   कर्मठ किसान नेता डॉ. बघेल 

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      आज़ादी के बाद एक कर्मठ किसान नेता और लोकप्रिय जन प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने छत्तीसगढ़ के हितों और छत्तीसगढ़ियों के अधिकारों के लिए मृत्यु पर्यन्त संघर्ष किया।  मेरे विचार से अगर उन्हें भारत की आज़ादी के महान संघर्षों और छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के लिए हुए आंदोलनों का महायोद्धा कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अगर उन्हें साहित्यिक किसान नेता कहें तो भी गलत नहीं होगा । राजनेता तो वह थे ,लेकिन उनके हॄदय में एक संवेदनशील साहित्यकार भी रहता था ,जो समय -समय पर उनकी लेखनी से अवतरित होता रहता था।राजनांदगांव में 28 जनवरी 1956 को छत्तीसगढ़ी महासभा और 25 सितम्बर 1967 को रायपुर में छत्तीसगढ़ भातृसंघ के गठन में उनकी ऐतिहासिक भूमिका को लोग आज भी याद करते हैं। स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों में  उन्होंने छुआछूत की सामाजिक बुराई के ख़िलाफ़ जनजागरण के लिए ' ऊँच -नीच ' शीर्षक से एक नाटक लिखा। इसके अलावा 'करम छड़हा' और 'लेड़गा सुजान ' भी उनके लिखे यादगार नाटक हैं।  वह बहुत अच्छे निबन्ध लेखक भी थे।

                                              

                              ऐतिहासिक भाषण  और लेख : उनके चिन्तन का प्रतिबिम्ब

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 विभिन्न अवसरों पर  दिये गए डॉ. बघेल के क्रांतिकारी भाषणों और समय -समय पर प्रकाशित उनके लेखों को उनके क्रांतिकारी चिन्तन का प्रतिबिम्ब कहा जा सकता है।स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी और पूर्व सांसद स्वर्गीय केयूर भूषण द्वारा सम्पादित डॉ .बघेल के भाषणों और लेखों का संकलन उनकी जयंती पर  'छत्तीसगढ़ का स्वाभिमान 'शीर्षक से 19 जुलाई 2000 को प्रकाशित किया गया था। इस पुस्तक के प्रकाशन के लगभग साढ़े तीन माह बाद एक नवम्बर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य का अभ्युदय हुआ। पुस्तक में छत्तीसगढ़ी महासभा के गठन और प्रथम अधिवेशन के समय  डॉ.बघेल के ऐतिहासिक भाषण को भी शामिल किया गया है।संकलन के  आलेखों से पता चलता है कि छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़िया को लेकर डॉक्टर साहब का नज़रिया बहुत स्पष्ट था। उनके विचारों के कुछ चयनित अंश 'छत्तीसगढ़ का स्वाभिमान' पुस्तक से साभार  उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि सहित प्रस्तुत है--

   *नवप्रभात की जीवन-दायिनी हवा ने छत्तीसगढ़ को कहीं -कहीं धीरे -धीरे स्पर्श करना शुरू कर दिया है। लोग 'पेट पाल ' और 'कुटुम्ब पाल ' के दायरे को लांघकर 'समाज सेवी ' होने की चेष्टा कर रहे हैं।कहीं -कहीं जातिगत घातक रूढ़ियाँ तोड़ी जा रही हैं।सहकारी सभाओं में लोग दिलचस्पी लेने लगे हैं छात्रालय और शालाओं की जरूरत कुछ क्षेत्रों में महसूस की जा रही है।हम छत्तीसगढ़ के लोग भाई -भाई हैं ,ऐसा भाव यहां के इतिहास में प्रथम बार जाग रहा है।आचार -भ्रष्टता और दुराचार को लोग घृणा की वस्तु कहने लग गए हैं।"

   *छत्तीसगढ़ के हित में जो अपना हित समझते हैं ,वे हमारे भाई हैं।जो छत्तीसगढ़ का राजनैतिक ,आर्थिक और अन्य तरीके से शोषण करना चाहते हैं ,वे हमारे प्रेम के भाजन नहीं हो सकते ।

   *जउन छत्तीसगढ़ के अन्न -जल से तो पलय ,तभो ले इहें के छत्तीसगढ़ी भाई मन ला नफरत से देखय तो भला वो अपन ला खुद छत्तीसगढ़ी कहिके छत्तीसगढ़ी आत्मा से कइसे समरस हो सकथे ? पर जउन मन छत्तीसगढ़ में बाहिर से आके निस्वार्थ भाव से छत्तीसगढ़ के सेवा करत हें ,तेकर प्रति हम कइसे कृतघ्नी बन सकथन ?वो तो हमार छत्तीसगढ़ के उद्धारकर्ता माने जाकर पूजे जाहीं  परन्तु जउन लोगन के मन में रात -दिन येहि भाव काम करत हे  कि छत्तीसगढ़ी संगठित अउ शक्तिशाली न हो सकें , ताकि हमर पांचों अंगरी घी में रहे ,उनला  अब तो पहिचान सकना चाही । जेकर छत्तीसगढ़ हा महतारी बरोबर प्रिय होंगे ,तउन कइसे अछत्तीसगढ़ी हो सकथे ?"

   *सीधा अउ सरल ढंग से अर्थ कहूँ करे जाय तव इही कहना परही कि जउन छत्तीसगढ़ में रहिथे तउन छत्तीसगढ़ी ।मोर समझ के मुताबिक जउन व्यक्ति खुद ल अंतस से छत्तीसगढ़ी समझथे, छत्तीसगढ़ी कहवाय में हीनता अउ संकोच के अनुभव नइ करय, छत्तीसगढ़ के भलई अउ बुराई में अपन भलई अउ बुराई समझय , छत्तीसगढ़ी मन ला दिये गए गारी हा ओला गोली बरोबर लागय ,तउन हा छत्तीसगढ़ी आय ।

      डॉ. बघेल आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं ,भले ही  वह अपने जीवन काल में अपने सपनों के छत्तीसगढ़ को राज्य बनता नहीं  देख पाए   लेकिन उनके सपनों के साकार हो चुके  राज्य में उनके विचार समाज को हमेशा  आलोकित करते रहेंगे ।

     आलेख  --स्वराज करुण 

 

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Friday, July 15, 2022

(आलेख) छत्तीसगढ़ के नये हस्ताक्षर : याद आ रहे हैं अनेक नये -पुराने कवि


      (आलेख -स्वराज करुण)

 ये उन दिनों की बात है जब कविगण  आपस में मिलकर अपनी -अपनी कविताओं का एक मिलाजुला काव्य संग्रह छपवाया करते थे। छत्तीसगढ़ के साहित्यिक इतिहास के पन्ने पलटने पर ऐसे कई संयुक्त कविता संकलनों की जानकारी मिलती है । संभवतः इसकी शुरुआत श्री हरि ठाकुर और उनके मित्रों द्वारा गठित 'लेखक सहयोगी प्रकाशन' नामक संस्था से हुई थी। वर्ष 1956 में रायपुर में गठित इस संस्था ने 'नये स्वर ' शीर्षक से सहयोगी कविता संग्रहों का सिलसिला शुरू किया था। आलेख में इसकी चर्चा आगे की गई है। 

  अपने  छोटे -से निजी पुस्तकालय को खंगालते हुए आज मुझे वर्ष 1978 में प्रकाशित पुस्तक  'छत्तीसगढ़ के नये हस्ताक्षर' की प्रति मिल गयी , तो उस दौर के अनेक नये -पुराने कवियों की याद आने लगी। इनमें से कई प्रकाशवान सितारे  उदित होकर अदृश्य हो गए ,जबकि कुछ सितारे आज भी अपनी रचनाओं से समाज को आलोकित कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ के 73 कवियों का यह संयुक्त कविता -संग्रह  श्री उत्तम गोसाईं के सम्पादन में प्रयास प्रकाशन बिलासपुर द्वारा प्रकाशित किया गया था , हालांकि इसका शीर्षक 'छत्तीसगढ़ के नये हस्ताक्षर' रखा गया था ,लेकिन इसमें छायावाद के प्रवर्तक पंडित मुकुटधर पाण्डेय सहित कई वरिष्ठ हस्ताक्षर भी शामिल थे। मेरा सौभाग्य था कि एक नये हस्ताक्षर के रूप में इस संग्रह में मुझे भी जगह मिली थी। पुस्तक में प्रत्येक कवि की एक-एक  रचना शामिल है। इसमें भूमिका डॉ. विनय कुमार पाठक की है और  सम्पादकीय वक्तव्य श्री उत्तम गोसाईं का है।  डॉ.पाठक ने अपनी भूमिका में छत्तीसगढ़ की साहित्यिक परम्पराओं की चर्चा करते हुए लिखा है --" छत्तीसगढ़ के नये हस्ताक्षर' -- 'नये स्वर'  और ' मैं भारत हूँ 'की परम्परा का विकसित स्वरूप प्रस्तुत करता है।'नये स्वर ' के तीन पुष्प प्रकाशित हुए ,जो कवियों के सहकारी प्रयास के प्रतिफलन हैं।नयेस्वर -1 (1956) ऐतिहासिक काव्य संग्रह है ,जिसमें हरि ठाकुर ,गुरुदेव काश्यप, सतीश चंद्र चौबे ,नारायण लाल परमार,ललित मोहन श्रीवास्तव और देवी प्रसाद वर्मा संग्रहित ,संकलित हैं। डॉ. पाठक ने 'नये स्वर ' श्रृंखला की अगली दो कड़ियों का भी उल्लेख किया है ,जो क्रमशः वर्ष 1957 और वर्ष 1969 में प्रकाशित हुए थे। वह लिखते हैं - 'नये स्वर -2' संग्रह से अधिक पत्रिका के रूप में दृष्टिगत होता है । इसमें प्रमोद वर्मा , रमाशंकर तिवारी ,शशि पाण्डेय ,के.इकबाल अब्बन , ज्ञानसिंह ठाकुर ,विश्वेन्द्र ठाकुर और मनहरण दुबे की कविताएं संचयित हैं। "डॉ. पाठक के अनुसार - "नये स्वर -3 की काफी आलोचनाएं हुईं ,जिसका एक मात्र कारण कवियों के चुनाव में सहयोग राशि को प्रमुखता देना था। चौंकाने वाले तथ्य और उनको उजागर करने वाली कविताएं इस संग्रह में प्रतिष्ठित हैं।  'नये स्वर' को इस अंचल का 'तार -सप्तक ' भी कहा जा सकता है। " डॉ. पाठक ने  भूमिका में 'मैं भारत हूँ ' कि बारे में बताया है कि अंचल के 60 कवियों का यह सहयोगी संकलन वर्ष 1969 में प्रकाशित हुआ था।    

                                                         

                                                   


आधुनिक हिन्दी कविता  के इतिहास में कवियों के सम्मिलित संकलन के रूप में 'तार सप्तक'का प्रकाशन एक महत्वपूर्ण घटना थी।उल्लेखनीय है कि 'तार -सप्तक' चार  कड़ियों में छपा  था। इनमें से प्रत्येक कड़ी में सात कवियों की रचनाएं प्रकाशित हैं। इसके सम्पादक हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि 'अज्ञेय ' यानी सच्चिदानंद हीरानन्द वात्सायन 'अज्ञेय' थे।पहला 'तार -सप्तक 'वर्ष 1943 में भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित किया गया था, जिसमें गजानन माधव मुक्तिबोध ,नेमिचन्द्र जैन ,भारत भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे ,गिरिजा कुमार माथुर ,रामविलास शर्मा और अज्ञेय की कविताएं शामिल थीं। इसकी अगली तीन कड़ियाँ क्रमशः वर्ष 1951 ,1959 और 1979 में प्रकाशित हुईं। दूसरे 'तार सप्तक ' में भवानी प्रसाद मिश्र , शकुन्त माथुर ,हरिनारायण व्यास ,शमशेर बहादुर सिंह ,नरेश मेहता ,रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती तथा तीसरा  'तार सप्तक' में कुँवर नारायण ,कीर्ति चौधरी ,सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ,मदन जायसवाल, प्रयाग नारायण त्रिपाठी, केदारनाथ सिंह और विजयदेवनारायण साही की रचनाओं का संकलन है।शायद 'तार सप्तक ' की इस श्रृंखला से ही देश में हिन्दी के कवियों संयुक्त कविता संग्रहों के प्रकाशन की प्रेरणा मिली।

   अब कुछ चर्चा 'छत्तीसगढ़ के नये हस्ताक्षर' के सम्पादक  उत्तम गोसाईं के बारे में ।  आध्यात्मिक अभिरुचि के कवि उत्तम गोसाईं रायगढ़ जिले में महानदी के तटवर्ती ग्राम सरिया के निवासी थे और रेल्वे की नौकरी करते हुए  झाँसी में रहते थे। उन्होंने छत्तीसगढ़ से इतनी दूर रहकर इस काव्य संग्रह का सम्पादन किया  और नौकरी से समय निकालकर ,दीवानगी की हद तक दौड़धूप करके  नई दिल्ली के एक प्रिंटिंग प्रेस से इसे छपवाया भी। संग्रह के सम्पादकीय में गोसाईं जी ने लिखा  है --"मैं अनेक वर्षों से छत्तीसगढ़ के उदीयमान तरुण कवि बंधुओं को एक साहित्यिक तम्बू के अधीन संपृक्त करने हेतु विचार करता रहा हूँ। इसी के परिणामस्वरूप प्रस्तुत काव्य संग्रह 'छत्तीसगढ़ के नये हस्ताक्षर' का उन्नयन हो सका है। अनेकानेक प्रयास और आग्रह के उपरांत भी अनेक कवि बंधुओं की रचनाओं से हम लाभान्वित नहीं हो सके । एतदर्थ अनावश्यक विलम्ब भी हुआ ,जिसका हमें हार्दिक दुःख है।हम इसके लिए फिर कभी यथावत प्रतीक्षा करेंगे। " 

संग्रह के सह -सम्पादक श्री ईश्वर रात्रे और श्री त्रिलोचन पटेल थे। श्री उत्तम गोसाईं और श्री त्रिलोचन पटेल कई वर्षों तक छत्तीसगढ़ लेखक संघ का भी संयोजन और संचालन करते रहे। सहयोगी काव्य संग्रह 'छत्तीसगढ़ के नये हस्ताक्षर' के बाद वर्ष 1981 में उन्होंने 'छत्तीसगढ़ के हस्ताक्षर'का भी सम्पादन और प्रकाशन किया। । यह संग्रह छत्तीसगढ़ लेखक संघ के बैनर पर प्रकाशित हुआ। इसमें लगभग 110 कवियों की रचनाएँ शामिल हैं। मेरी भी एक कविता को इसमें जगह मिली है। यह भी महत्वपूर्ण है कि दोनों संग्रहों में शामिल कवियों से कोई सहयोग शुल्क नहीं लिया गया था।  शायद वह वर्ष 1981 की बरसात के मौसम का कोई एक भीगा हुआ -सा दिन था ,जब रायगढ़ में पंडित मुकुटधर पाण्डेय के हाथों 'छत्तीसगढ़ के हस्ताक्षर ' का विमोचन हुआ था। मुझे भी  इस ऐतिहासिक आयोजन में शामिल होने का सौभाग्य मिला था  इधर कई दशकों से उत्तम गोसाईं से मेरा कोई सम्पर्क नहीं है। लेकिन छत्तीसगढ़ के कवियों को संयुक्त काव्य संग्रहों के माध्यम से परस्पर जोड़ने का उनका यह उद्यम मुझे आज भी याद आता है। उनका   स्वयं का  कविता संग्रह 'अनंत के यात्री ' शीर्षक से प्रकाशित हुआ था।   एक मित्र बता रहे थे कि आध्यात्मिक रूझान के श्री उत्तम गोसाईं  अब स्वामी उत्तमानन्द गिरि बन गए हैं और' महाराज' आजकल कनाडा में रहते हैं। लेकिन यह मित्र मंडली की यह अपुष्ट जानकारी है।  बहरहाल ,वो जहाँ भी रहें ,स्वस्थ और सानन्द रहकर सृजनात्मक कार्यो में व्यस्त और मस्त रहें ,यही कामना है। 

    उनके द्वारा  सम्पादित  'छत्तीसगढ़ के नये हस्ताक्षर'  में शामिल कवियों के नाम हैं -- पंडित मुकुटधर पाण्डेय , डॉ. शत्रुघ्न पाण्डेय ,पवन दीवान , कृष्णा रंजन , विश्वेन्द्र ठाकुर , जीवन यदु 'राही', मनहरण सोनी 'जलद' , डॉ. विनय कुमार पाठक ,डॉ. महेन्द्र कश्यप 'राही", पन्नालाल 'रत्नेश', विश्वनाथ योगी ,देवधर दास महंत 'मलयज ', बुधराम यादव ,परस राम साहू ,राजनाला रामेश्वर राव ,प्रभा 'सरस', मदनलाल प्रजापति, कुंवर पाल सिंह  छोंकर'निर्द्वन्द', गनी आमीपुरी ,देवदत्त तिवारी ,बलदेव सिंह  भारती रूपनारायण वर्मा 'वेणु ', गोवर्धन देवांगन ,रजनी पाठक ,जगदीश श्रीवास्तव ,ईश्वर रात्रे ,स्वराज्य करुण ,भरत लाल तिवारी ,गेंद राम 'सागर', अज़ीज़ रफ़ीक, भगत सिंह सोनी ,बनवारी लाल साहू ,लोक बाबू ,संतराम देशमुख ,बृजलाल प्रसाद शुक्ल, कृष्ण कुमार शर्मा ,प्रदीप चौबे ,गणेश सोनी 'प्रतीक ', शैल 'अंचल', प्रभात मिश्र 'आलोक ', सुरेश वर्मा 'शैल ', उत्तम गोसाईं ,सूरज प्रसाद देवांगन ,सतीश कुमार प्रजापति ,रामदयाल यादव ,प्रभाकर ,शिवमंगल पाण्डेय ,किरण चन्द्र 'किरण ', राम आधार तिवारी ,हीरा चक्रवर्ती ,शिवकुमार सोनी ,प्रकाश टण्डन' प्रकाश ', बी.आर .टांडे ,मदन गुप्ता ,मनोराम भलावी ,पुरुषोत्तम विश्वकर्मा, न्याज़ अली अंजुम ,अरविन्द फिलिप्स ,कमल कुमार बोहिदार ,महेशदत्त गुप्ता 'दीवाना ', बसंत कुमार पाण्डेय, सलाम हुसैन ,अशोक कुमार वाजपेयी, गयाराम साहू ,रामेश्वर प्रसाद ठेठवार, युधिष्ठिर पटेल ,प्रदीप तिवारी ,लखन लाल गुप्त ,बिहारी दुबे ,विद्याभूषण मिश्र ,डॉ. बिहारी लाल साहू ,त्रिलोचन पटेल ,रघुनाथ प्रधान और रवि श्रीवास्तव। संग्रह 104 पृष्ठों का है। अंतिम 12 पृष्ठों में सभी 73 कवियों का संक्षिप्त परिचय भी दिया गया है।

        प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी के विकास के इस युग में अत्याधुनिक कम्प्यूटर आधारित उन्नत मशीनों के आने से पुस्तकों की  छपाई बहुत आसान हो गयी है ,इसके बावज़ूद नये रचनाकारों के सामने प्रकाशन का  संकट हमेशा बना रहता है । ऐसे में इस  प्रकार के सहयोगी कविता संग्रहों में वरिष्ठ कवियों के साथ छपने पर नवोदित कवियों को जहाँ गर्व का अनुभव होता है ,वहीं उनका आत्मविश्वास भी बढ़ता है । संत कवि पवन दीवान ने एक बार मुझसे कहा था कि जब कभी अवसर मिले ,साहित्यिक आयोजनों में हम सबको आते -जाते रहना चाहिए ,क्योंकि इनमें जाकर जहाँ रचनाकारों को आपस में मिलने जुलने और भावनात्मक रूप से परस्पर जुड़ने  का मौका मिलता है ,वहीं उन्हें पता चलता है कि हमारी अपनी साहित्यिक बिरादरी कितनी विशाल है। 

        - स्वराज करुण

Monday, July 11, 2022

(कविता ) राजपक्ष को समझ न आई जब 'राजधर्म' की बात

     ( स्वराज करुण )

जन -आक्रोश की ज्वाला ने लंका में लगाई आग , 

कब तक तू सोएगा भारत अब जल्दी से जाग।

राजपक्ष को समझ न आई जब राजधर्म की बात ,

क्रोधित जनता ने तब उसकी  पीठ पे मारी लात।

 राज गया जब राजपक्ष का , दूर गया वह भाग, 

जाग तू उसका मुल्क पड़ोसी , अब जल्दी से जाग।

अच्छे दिन का ख़्वाब दिखाकर भोगा उसने राज 

जनता ने बदहाल होकर छीना उसका ताज।

ख़ूब पसंद था उसको भक्तों का दरबारी राग 

नफ़रत वाली राजनीति से था बहुत  अनुराग।

राष्ट्रवाद के नाम पे  बोये ख़ूब  घृणा के बीज ,

लेकिन  चल न पाया उसका वह जादुई ताबीज।

पैसा ,पद और पावर पाकर अहंकार में चूर हुआ,

धीरे -धीरे वह जनता से दूर बहुत ही दूर हुआ।

राजपक्ष के पक्षपात से पब्लिक हुई  नाराज ,

जिसने उसको माना था कभी देश का सरताज़ ।

जिस जनता ने कभी बिठाया था उसे  पलकों पर , 

आज उसी से क्रुद्ध होकर वह उतरी सड़कों पर ।

अनसुनी की  सदा ही  उसने जनता की आवाज़ 

महंगाई की आग में  झुलसा तभी तो उसका राज  ।

फूट डालकर जन जीवन में  ख़ूब मचाई लूट 

लेकिन आ ही गया सामने  खुलकर उसका  झूठ।

भाई भतीजावाद चलाकर कंगाल बनाया देश

हाहाकार मचा था फिर भी समझा न परिवेश । 

ज्यादा कभी नहीं चल पाते  कोरे वादे , कोरे नारे  

खुलती है जब कलई तो फिर मुँह छुपाते हैं सारे।

 -- स्वराज करुण

(कविता मेरे दिल से और फोटो इंटरनेट से साभार )

Saturday, July 2, 2022

(बालगीत संकलन ) हिल मिल सब करते हैं झिल मिल

मेरे 37 बालगीतों का पहला संकलन  वर्ष 2002 में प्रकाशित हुआ था। संकलन का मुखपृष्ठ और शीर्षक गीत।