Saturday, August 29, 2020

भाषाओं का त्रिवेणी संगम

              (आलेख : स्वराज करुण )

भाषाओं की रंग -बिरंगी विविधताओं वाले हमारे देश में ऐसे  प्रयासों की नितांत आवश्यकता है ,जिनसे हमारी नयी पीढ़ी कम से कम तीन भाषाओं में दक्षता ज़रूर हासिल कर सके। इनमें से एक उसकी अपनी  मातृभाषा या स्थानीय भाषा हो ,दूसरी हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी और तीसरी भाषा अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा के रूप में  अंग्रेजी ।इसके अलावा भारत की सर्वाधिक पुरानी भाषा संस्कृत का ज्ञान भी आवश्यक होना चाहिए। 

     बहरहाल एक सराहनीय प्रयास के रूप में छत्तीसगढ़ राज्य शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद के आंग्ल भाषा प्रशिक्षण संस्थान  की पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी शब्दकोश ' को लिया जा सकता है ,जिसमें छत्तीसगढ़ी शब्दों के हिन्दी और अंग्रेजी मायने दिए गए हैं। इसे हम भाषाओं का त्रिवेणी संगम भी कह सकते हैं।

    वैसे तो 304 पृष्ठों का यह शब्दकोश हर किसी के लिए उपयोगी है ,लेकिन इसके  परिचय में बताया गया है कि इसका  निर्माण मिडिल स्कूल के बच्चों के स्तर को ध्यान में रखकर किया गया है।  इसमें छत्तीसगढ़ी क्रियात्मक शब्दों के साथ -साथ ,सब्जियों ,फलों ,पशु -पक्षियों , कीड़े -मकोड़ों सहित बैलगाड़ी के हिस्सों ,खेती -किसानी में प्रयुक्त होने वाले शब्दों , मकानों के हिस्सों ,पारिवारिक,सामाजिक रिश्ते -नातों, घरेलू सामानों ,पारम्परिक कहावतों और मुहावरों आदि का अच्छा संकलन है। देवनागरी वर्णमाला  के क्रम से छत्तीसगढ़ी शब्दों के हिन्दी अर्थ बताते हुए  उनके अंग्रेजी में वाक्य प्रयोग भी दिए गए हैं।।             


     इसी तारतम्य में छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा प्रकाशित ' वृहत छत्तीसगढ़ी शब्दकोश ' भी उल्लेखनीय है । श्री चन्द्रकुमार चंद्राकर द्वारा संकलित इस विशाल शब्दकोश में छत्तीसगढ़ी के लगभग 40 हज़ार शब्द हैं। देवनागरी वर्णमाला के क्रमानुसार  924 पृष्ठों के इस शब्दकोश में छत्तीसगढ़ी शब्दों के हिन्दी अर्थ दिए गए हैं।  

    इसमें दो राय नहीं कि छत्तीसगढ़ी एक समृद्ध भाषा है और इसका अपना शब्द भण्डार ,अपना व्याकरण और अपना साहित्य है। छत्तीसगढ़ी का पहला व्याकरण वर्ष 1885 में धमतरी में लिखा गया था और इसके लेखक थे व्याकरणाचार्य हीरालाल काव्योपाध्याय । इन सब विशेषताओं को देखते हुए छत्तीसगढ़ सरकार ने जहाँ छत्तीसगढ़ी को 'राजभाषा" का दर्जा दिया है , छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग का गठन किया है , वहीं इसे भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करवाने के लिए भी वह लगातार पहल कर रही है। विधानसभा के इस वर्षाकालीन सत्र में इसके लिए मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल द्वारा एक शासकीय संकल्प भी लाया गया था,जिसे सर्वसम्मति से पारित करते हुए केन्द्र सरकार से छत्तीसगढ़ी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने का अनुरोध किया गया है। 

     राज्य निर्माण के बीस वर्ष अगले दो महीने बाद एक नवम्बर 2020 को पूरे हो जाएंगे। राज्य बनने पर छत्तीसगढ़ी भाषा के संरक्षण और संवर्धन की दिशा में भी  नये उत्साह के साथ काम होने लगा है। बड़ी संख्या में छत्तीसगढ़ी फिल्मों का निर्माण हुआ है।  छत्तीसगढ़ी में कहानियाँ और कविताएँ भी ख़ूब लिखी जा रही हैं। कई समाचारपत्रों द्वारा हर सप्ताह छत्तीसगढ़ी साहित्य के परिशिष्ट भी प्रकाशित किए जा रहे हैं। 

       आलेख     -स्वराज करुण

Thursday, August 27, 2020

बालक तुलेन्द्र से स्वामी आत्मानन्द बनने की एक महान यात्रा

                 आलेख : स्वराज करुण 

महान विभूतियों की जन्म भूमि और कर्मभूमि छत्तीसगढ़ के एक तेजस्वी अनमोल रत्न थे स्वामी आत्मानन्द । यह एक महान संयोग ही है कि छत्तीसगढ़ (रायपुर ) की जिस धरती पर  बालक नरेन्द्र ने अपने बचपन के दो वर्ष बिताए और आगे चलकर देश और दुनिया में महान दार्शनिक स्वामी  विवेकानंद के नाम से मशहूर हुए ,उसी छत्तीसगढ़ की धरती पर जन्मे  बालक तुलेन्द्र ने उनके जीवन दर्शन को जन -जन तक पहुँचाने के लिए स्वामी आत्मानन्द बनकर  अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित कर दिया।  स्वामी आत्मानन्द जी का जन्म 6 अक्टूबर 1929 को रायपुर जिले के ग्राम बरबन्दा में हुआ था। भोपाल से रायपुर लौटते समय राजनांदगांव के पास 27 अगस्त 1989 को सड़क हादसे में उनका निधन हो गया। 

  सेवाग्राम में गाँधीजी का स्नेह -सानिध्य 

स्वामी आत्मानन्द जी के  बचपन का नाम तुलेन्द्र था। पिता धनीराम जी वर्मा स्कूल शिक्षक और माता श्रीमती भाग्यवती वर्मा गृहणी थीं। धनीराम जी अपने  उच्च  शिक्षकीय प्रशिक्षण के लिए  बुनियादी प्रशिक्षण केंद्र वर्धा गए थे। परिवार को भी साथ ले गए थे। वह बालक तुलेन्द्र को साथ लेकर वर्धा स्थित महात्मा गाँधी के  सेवाग्राम आश्रम भी आते - जाते थे और वहाँ भजन संध्या में भी शामिल होते थे।  बालक तुलेन्द्र को भी  मधुर स्वरों में भजन गाते देखकर गांधीजी काफी प्रभावित हुए। तुलेन्द्र उनके स्नेहपात्र बन गए। बहरहाल , वर्धा में शिक्षकीय प्रशिक्षण पूरा करके उनके पिता धनीराम जी वर्ष 1943 में सपरिवार अपने गृह  ग्राम बरबन्दा लौट आए।  बालक तुलेन्द्र की हाईस्कूल की शिक्षा रायपुर के सेंट पॉल स्कूल में हुई। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय  से गणित में एम.एससी . तक शिक्षा प्राप्त की। उन्हें प्रथम श्रेणी के साथ प्रावीण्य सूची में भी शीर्ष स्थान प्राप्त हुआ। छात्रावास की सुविधा नहीं मिलने के कारण वह नागपुर के रामकृष्ण आश्रम में रहते थे।वहीं उन्हें रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द के जीवन दर्शन के भी अध्ययन का अवसर मिला।सेवाग्राम में गाँधीजी का स्नेह और सानिध्य मिलने के  कारण तुलेन्द्र के बाल -मन पर भी उनकी सादगीपूर्ण जीवन शैली और उनके विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा ।

 आईएएस का इंटरव्यू छोड़ा : बन गए कर्मयोगी संन्यासी 

   इस बीच तुलेन्द्र ने संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा दी और उन्हें टॉप टेन की सूची में आने का गौरव मिला  । उनका चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस )के लिए होने ही वाला था ,लेकिन उन पर स्वामी रामकृष्ण परम हंस और विवेकानंद के विचारों का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि वह मौखिक परीक्षा (इंटरव्यू )में शामिल नहीं हुए। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन आध्यत्मिक क्षेत्र के लिए  समर्पित करने और रामकृष्ण परमहंस के जीवन दर्शन को जन -जन तक पहुंचाने का संकल्प लिया। आगे चलकर वह एक कर्मयोगी संन्यासी बन गए।

  तुलेन्द्र से स्वामी तेज चैतन्य

 और फिर स्वामी आत्मानन्द 

   आगे चलकर वर्ष 1957 में उन्होंने रामकृष्ण मिशन के प्रमुख स्वामी शंकरानन्द जी से दीक्षा ली। उन्होंने तुलेन्द्र का नामकरण किया स्वामी तेज चैतन्य जो आगे चलकर स्वामी आत्मानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए। स्वामी तेज चैतन्य (आत्मानन्द ) ने हिमालय जाकर वहाँ के  स्वर्गाश्रम में एक वर्ष की कठिन तपस्या की और रायपुर लौटे।  चूंकि स्वामी विवेकानंद ने अपने बाल्यकाल के दो महत्वपूर्ण वर्ष रायपुर में गुजारे थे ,इसलिए उन्होंने उनसे जुड़ी स्मृतियों को चिरस्थाई बनाने के लिए रायपुर में विवेकानंद आश्रम की स्थापना की। उनके आश्रम को बेलूर मठ स्थित रामकृष्ण मिशन के मुख्यालय से सम्बद्धता भी मिल गयी ।              


    स्वामी आत्मानन्द जी द्वारा स्थापित यह आश्रम छत्तीसगढ़ में रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद जी के विचारों का प्रमुख केंद्र बन गया । आश्रम में देश के अनेक प्रसिद्ध सन्त महात्माओं के प्रवचन भी होने लगे । आत्मानन्द जी ने यहाँ से 'विवेकज्योति ' नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी शुरू किया।  

   आदिवासी इलाके में सेवा प्रकल्पों की शुरुआत

  उन्होंने छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल बस्तर संभाग के अत्यंत पिछड़े अबूझमाड़ इलाके में आदिवासियों को शिक्षा और विकास की मुख्य धारा से जोड़ने का भी निश्चय किया। इसके लिए उन्होंने  वर्ष 1985 में नारायणपुर में रामकृष्ण मिशन की ओर से शिक्षा ,स्वास्थ्य सुविधाओं सहित कई सेवा प्रकल्पों की बुनियाद रखी। 

 वनवासी सेवा केन्द्र के रूप में नारायणपुर का यह आश्रम आज  देश -विदेश में अपनी पहचान बना चुका है , जो हमें स्वामी आत्मानन्द जी के सेवाभावी व्यक्तित्व की याद दिलाता है। इस आश्रम  परिसर में प्राथमिक से लेकर हायर सेकेंडरी तक स्कूल संचालित हो रहे हैं। वहाँ के आवासीय हायर सेकेंडरी स्कूल में एक हजार से ज्यादा सीटें हैं। 

    अधिकांश आदिवासी बच्चे वहाँ पढ़ाई करते हैं ।पिछले 35 वर्षों में शिक्षा के इन प्रकल्पों ने अबूझमाड़ और आस-पास के सैकड़ों बच्चों के जीवन को संवारा है। मिशन की ओर से नारायण पुर में आदिवासी  युवाओं को विभिन्न व्यवसायों का तकनीकी प्रशिक्षण देने के लिए वहाँ 305 सीटों वाले आईटीआई का भी संचालन किया जा रहा है। इसके अलावा 30 बिस्तरों का अस्पताल (विवेकानंद आरोग्य धाम ) भी वहाँ स्थापित किया गया है। आश्रम का एक चलित अस्पताल (मोबाइल चिकित्सा यूनिट )  भी अबूझमाड़ इलाके में ग्रामीणों को अपनी सेवाएं दे रहा है। इस दुर्गम क्षेत्र के ग्राम कुतुल ,इरक भट्टी और कच्छ पाल में तीन प्राथमिक विद्यालय भी चलाए जा  रहे हैं। रामकृष्ण मिशन के सेवा प्रकल्पों के महान उद्देश्यों को देखते हुए शासन -प्रशासन की ओर से भी संस्था को हर प्रकार का सहयोग मिल रहा है। इलाके में आधा दर्जन राशन दुकानें भी मिशन द्वारा चलाई जा रही हैं। 

                  कई  पुस्तकें भी लिखीं 

स्वामी आत्मानन्द जी के सम्मान में नारायणपुर के शासकीय कॉलेज का नामकरण उनके नाम पर किया गया है। वह  एक महान दार्शनिक ,चिन्तक और लेखक भी थे। उनकी लिखी पुस्तकों में 'धर्म और जीवन ' तथा 'आत्मोन्नति के सोपान ' भी शामिल हैं। विवेकानंद आश्रम रायपुर की पत्रिका 'विवेक ज्योति " में स्वामी आत्मानन्द जी के सम्पादकीय और विभिन्न आध्यात्मिक विषयों पर उनके आलेख नियमित रूप से छपते थे।  

  महान विभूतियां इस धरती पर आकर अपने जीवन और कार्यो से मानव समाज पर अमिट छाप छोड़ जाती हैं। स्वामी आत्मानन्द जी भी उन्हीं विलक्षण विभूतियों में से एक थे। उनकी  प्रेरणादायी जीवन यात्रा के बारे में विस्तार से लिखने को बहुत कुछ है ,लेकिन फ़िलहाल तो सिर्फ़ इतना ही । उनकी  पुण्यात्मा को  विनम्र नमन।

  आलेख     -- स्वराज करुण

Wednesday, August 26, 2020

(कहानी ) क्या था उस आवाज़ का रहस्य ?


               ( स्वराज करुण )

छपाक  ...छपाक ..छपाक !   रात एक  बजे हॉस्टल के थर्ड फ्लोर में  दक्षिणी कॉरिडोर के अंतिम छोर पर बने बाथरूम के भीतर से यह कैसी आवाज़ आ रही है ? पूरा कॉरिडोर गूँज रहा है ! मैं परीक्षाओं के उस  मौसम में बीए फाइनल के  तीसरे पर्चे की तैयारी के लिए अपने रूम पार्टनर महेन्द्र के साथ रतजगा कर रहा था । थर्ड फ्लोर  में  तीन कॉरिडोर  और  तीस कमरे थे ,लेकिन  अधिकांश  खाली थे । जिनकी परीक्षाएं हो चुकी थी, वो सब विद्यार्थी अपने -अपने घर चले गए थे ।  छात्रों की इतनी कम संख्या को देखते हुए मेस की व्यवस्था भी अस्थायी रूप से बन्द कर दी गयी थी ।  भोजन बाहर किसी होटल से करके आना पड़ता था।     हमारी लाइन के  दस कमरों में से तो  सिर्फ हमारा ही कमरा हम दोनों मित्रों से आबाद था। बाकी पूरे कॉरिडोर में सन्नाटा पसरा हुआ था । 

             उस गहराती हुई रात में सिर्फ़ छपाक -छपाक की आवाज़ बीच -बीच में  इस ख़ामोशी को तोड़ रही थी ।  (स्वराज करुण)  मैंने महेन्द्र से कहा -   लगता है कि हमारा कोई साथी बाथरूम में अपने कपड़े काछ रहा है ।वह रहस्यमयी आवाज़ हर बीस सेंकेंड के अंतराल पर आ रही थी । बीच में बीस सेकेंड का गैप हमारे मन में रह -रह कर एक सवाल खड़ा करता जा रहा  था । महेन्द्र ने हैरानी जताई और कहा -इतनी रात भला कौन बाथरूम में कपड़े धोएगा ?  हमारी लाइन के तो बाकी सभी कमरे खाली हैं ।फिर भी चलो देखकर आते हैं ,लेकिन दबे पाँव चलना है । चप्पल से चटाक -चटाक की ध्वनि निकलती है । कोई बाहरी व्यक्ति बेजा तरीके से हॉस्टल में घुसकर कपड़े काछ रहा होगा ,तो वह सतर्क हो कर भागने की कोशिश करेगा । हो सकता है कि वह  पिस्तौल न सही ,चाकू रखा हो और भागने की  कोशिश में हमसे उलझ कर  हम पर हमला कर दे । मैंने महेन्द्र से  कहा -तुम्हारा सोचना ठीक है । चलो ,खाली पैर चलते हैं ।  हालांकि कॉरिडोर में बिजली की पर्याप्त रौशनी थी । एक मटमैला  बल्ब बाथरूम में भी था ,फिर भी हमने ऐहतियात के तौर पर बैटरी वाला टॉर्च रख लिया  था ।

           


    हमारे कमरे से  दक्षिणी कॉरिडोर के आख़िरी छोर पर बाथरूम की  दूरी करीब 100 फुट  रही होगी । हम दोनों  हल्के -हल्के कदमों से उस दिशा में बढ़ने लगे ।  बाथरूम के नज़दीक पहुंचकर हमने देखा कि भीतर अंधेरा था । महेन्द्र ने मेरे कानों में धीमे स्वर में कहा -शायद बल्ब  फ्यूज हो गया है । मैंने कहा -हो सकता है । हम दोनों बाथरूम के सामने खड़े हो गए ।कपड़े काछने की आवाज़ हर बीस सेकेंड के अन्तराल पर  आ ही रही थी और पहले के।मुकाबले और भी तेज़ होती जा रही थी । ऐसा लगा  नल भी खुला हुआ था । 

मैंने दबी आवाज़ से महेन्द्र के कानों में कहा -दरवाज़े पर दस्तक दें  क्या ?  उसने कहा -ठीक है।  मैंने  दरवाजे को  ढकेला तो लगा कि भीतर से  कुंडी लगी हुई है । महेन्द्र ने चिल्लाकर कहा -कौन है ? दरवाज़ा खोलो !  मैंने खटखटाया तो    छपाक ..छपाक की आवाज़ बन्द हो गयी । कुछ ही पलों में दरवाज़ा भी खुल गया और मोंगरे की ख़ुशबू वाले इत्र की  भीनी महक  के साथ हवा का एक झोंका हमें छूकर निकल गया । पूरे बदन में सिहरन दौड़ गयी । हम यह देखकर हैरत में पड़ गए कि भीतर कोई नहीं था और एक बाल्टी में निचुड़े हुए कपड़े रखे हुए थे । टॉर्च जलाकर देखा तो  उनमें  था एक सफ़ेद  पैजामा ,एक सफ़ेद कुर्ता , सफ़ेद  बनियान और एक टर्किश टॉवेल । हम उल्टे पाँव अपने कमरे में लौट आए ।

     रात के दो बजे गए थे । हमें नींद नहीं आयी । सुबह होने तक कौतूहल मिश्रित चर्चा में मशगूल रहे कि आख़िर वह कौन था ?  दूसरे दिन  चौकीदार से पूछने पर मालूम हुआ कि हर बुधवार  आधी रात के बाद उस बाथरूम में किसी  निराकार शख्स के हाथों कपड़े धोने की और मेस में बर्तनों के  टकराने की आवाज़ आती है । जिस ज़मीन पर  इस प्रायवेट हॉस्टल की यह बहुत बड़ी  बिल्डिंग खड़ी है ,वह पहले इस शहर के बाहरी इलाके में  एक गाँव के किसी ग़रीब किसान की थी ,जो अब बढ़ती आबादी और शहरी बसाहटों के फैलाव की वजह से नगरीय क्षेत्र में आ गयी है ।उस ज़मीन पर  वह  धान की खेती करता था । दूसरे किसानों की तरह उसकी खेती भी सिर्फ़ बारिश के  भरोसे  थी ।

        लगभग 30 साल पहले एक बार  कमजोर मानसून की वज़ह से भयानक सूखा पड़ गया । उसके एक साल पहले  किसान ने अपनी  बेटी की शादी के लिए एक महाजन से  ब्याज़ में 20 हजार रुपए का कर्ज़ लिया था ।  ब्याज़ की रकम बढ़ते -बढ़ते मूलधन से  कई गुना ज्यादा हो गयी । । वह  महाजन के  लगातार तगादे से तंग आ गया था । एक दिन महाजन ने उससे कहा -अगर कर्ज़ पटा नहीं सकते तो दो  एकड़ का अपना यह खेत   मेरे नाम कर दो । तुम्हारा पूरा कर्जा माफ़ हो जाएगा । तगादे की वज़ह से मानसिक संताप झेल रहे किसान को  कुछ नहीं सूझा ,तो उसने महाजन की बातों में आकर अपनी ज़मीन उसके नाम कर दी । वह खेत जो उसकी और उसके  परिवार की रोजी -रोटी का एक मात्र सहारा था ,वह भी किसान के हाथों से चला गया । शहर में कॉलेजों की संख्या बढ़ती जा रही थी ।महाजन ने अपनी व्यावसायिक बुद्धि से  सुदूर भविष्य की सोचकर इस ज़मीन पर  हॉस्टल बनवा लिया । किसान अपने  परिवार के भरण -पोषण के लिए अपनी ही  ज़मीन पर मज़दूरी करने के लिए मज़बूर हो गया । महाजन उससे अपने बंगले की साफ-सफ़ाई से लेकर कपड़े धुलवाने का भी काम करवाने लगा । रसोई का काम भी करवाता था । 

        एक दिन वह किसान गले के कैन्सर से पीड़ित हो गया । उसने महाजन के आगे हाथ फैलाया ,लेकिन सिर्फ़ निराशा हाथ लगी । किसान की आँखों मे अंधेरा छा गया । उसने एक बुधवार इसी जगह पर  ज़हर ख़ाकर अपनी ज़िन्दगी खत्म कर ली । एक वो दिन था और ये आज का दिन । तब से लेकर अब तक उसकी आत्मा एक निराकार शख्स के रूप में इस हॉस्टल की बिल्डिंग में मंडरा रही है । वह प्रत्येक बुधवार  कभी  रसोईघर में पहुँचकर बर्तनों को खंगालती रहती है तो कभी  बाथरूम में कपड़े धोने के लिए आ जाती है ।  किसी को नुकसान नहीं पहुँचाती ।  पिछले बीस साल से  ये सिलसिला बदस्तूर जारी है ।  पता नहीं आगे कब तक चलता रहेगा ?  

             चौकीदार की बातें सुनकर हम तनाव में आ गए । उसने हम दोनों के माथे पर चिन्ता की लकीरों को पढ़ लिया था । बुजुर्ग चौकीदार ने  हमसे कहा -डरने की कोई बात नहीं । वह निराकार शख़्स  हॉस्टल के  विद्यार्थियों के  कमरों में कभी  नहीं जाता ।  उसकी अदृश्य गतिविधियाँ सिर्फ किचन और  बाथरूम तक सीमित रहती हैं । बीती रात की उस रहस्यमयी घटना के बाद हम दोनों ने  हॉस्टल छोड़ने और शहर में  ही किसी बैचलर्स  होम में कमरा लेने का मन बना लिया था ,लेकिन चौकीदार ने हौसला बढ़ाया   तो हमारी भी हिम्मत बढ़ी  और हम दोनों दोगुने उत्साह के साथ परीक्षा की तैयारी में जुट गए ।  कुछ हफ़्तों बाद जब रिजल्ट आया तो  बीए अंतिम की मेरिट लिस्ट के टॉप टेन में  हम  दोनों का भी नाम शामिल था ,जो अखबारों में भी छपा हुआ था । बीए की पढ़ाई कम्प्लीट होने के बाद हमने हॉस्टल छोड़ दिया और नौकरी की तलाश में इधर -उधर हो गए । 

            --स्वराज करुण 

(प्रतीकात्मक फोटो : इंटरनेट से साभार )

Tuesday, August 25, 2020

(कविता ) इस युग के हर अभिमन्यु से

चक्रव्यूह को तोड़ने की कोशिश में 
उस युग की तरह 
इस युग का हर अभिमन्यु भी 
आखिर टूट जाता है !
सच्चाई ,न्याय और नैतिकता का 
हर हथियार उसके हाथों से 
आख़िर छूट जाता है !
लम्पटों और दलालों के इस 
बेरहम और बेशर्म दौर में 
उनके बनाए चक्रव्यूह से
 निकलना आसान नहीं ,
ओ ! नादान अभिमन्यु 
ये आधुनिक कौरवों की बस्ती है, 
यहाँ कोई इंसान नहीं  .
निकलना हो अगर इस घेरेबंदी से ,
तो बन जाओ तुम भी 
कौरव दल के दलाल सैनिक ,
करो जयजयकार 
द्रौपदियों का चीरहरण कर रहे 
दुश्शासनों की ,
उनके दरबारों के 
दुर्योधनों और शकुनियों की ,  ,
एकलव्य का अंगूठा छीन लेने वाले  द्रोणाचार्यों की,  
सीखो उनकी चतुराई भरी चालबाजियां 
और कपट-नीति की कलाबाजियां !
अगर सीख लिया इतना कुछ 
तो यह तय मानो 
,गाँवों से  महानगरों तक 
इस कलियुगी महाभारत में 
तुम कभी नहीं हारोगे ,
लम्पटता क दांव-पेंच में 
होकर पारंगत 
अंत में तुम अपने पाण्डवों को ही मारोगे ! 
                    -- स्वराज करुण


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Sunday, August 23, 2020

कोरोना के साये में नुआखाई


             (आलेख : स्वराज करुण )

कोरोना संकट ने हमारे लोक पर्वों की रंगत और रौनक को  भी फीका कर दिया है। इस वर्ष भाद्र शुक्ल पंचमी के दिन यानी   23 अगस्त को पश्चिम ओड़िशा की लोक संस्कृति का प्रमुख पर्व 'नुआखाई ' भी कोरोना के  साये  में मनाया गया ।  ज़्यादातर लोग 'नुआखाई जुहार' और 'भेंटघाट'  के लिए शायद एक -दूसरे के घर नहीं जा पाए  और  मोबाइल फोन पर ही एसएमएस और वाट्सएप संदेशों के जरिए शुभकामनाओं का आदान -प्रदान करते रहे। सामाजिक मेल -मिलाप के लिए साल भर से जिस त्यौहार का इंतज़ार रहता है ,उसे इस बार अधिकांश परिवारों ने अपने घर पर ही मनाया । सार्वजनिक रूप से कोई बड़ा समारोह भी नहीं हुआ और अगर कहीं हुआ भी तो विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ )के मानकों के अनुरूप शारीरिक दूरी के नियमों का पालन करते हुए  हुआ ।

    नुआखाई का सरल शाब्दिक अर्थ है नया खाना। नुआ यानी नया । खेतों में खड़ी नई  फ़सल के स्वागत में यह मुख्य रूप से किसानों और खेतिहर श्रमिकों द्वारा मनाया जाने वाला पारम्परिक त्यौहार है ,लेकिन समाज के सभी वर्ग इसे उत्साह के साथ मनाते हैं।पश्चिम ओड़िशा से लगे हुए छत्तीसगढ़ के सरहदी इलाकों में भी हर साल भाद्र शुक्ल पंचमी के दिन नुआखाई का उत्साह देखते ही बनता है ।  यह ऋषि पंचमी का भी महत्वपूर्ण  दिन होता है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भी पश्चिम ओड़िशा के हजारों लोग विगत कई दशकों से निवास कर रहे हैं। वे हर साल यहाँ नुआखाई का त्यौहार परम्परगत तरीके से उत्साह के साथ मनाते आ रहे हैं ।नुआखाई के एक दिन पहले यहाँ नये धान की बालियों के साथ चुड़ा (चिवड़ा ), मूंग और परसा पत्तों और पूजा के फूलों की बिक्री के लिए उत्कल महिलाएं पसरा लगाकर बैठी थीं।  कोरोना संक्रमण की  आशंका को देखते हुए उनमें से कुछ ने  चेहरों पर मास्क भी लगा रखा था। उनके घरों के कुछ पुरुष सदस्य भी उनके साथ थे। कुछ ग्राहक भी मास्क लगाए हुए थे। लेकिन पिछले साल जैसी चहल -पहल नहीं होने के कारण इन  पसरा वालों के हावभाव में  मायूसी साफ़ झलक रही थी। अपराह्न उनसे हुई संक्षिप्त बातचीत में उनमें से कुछ ने बिक्री कम होने की जानकारी दी । शायद कोरोना के आतंक के कारण ग्राहकी कम रही। 

                                 

        पश्चिम ओड़िशा के सुंदरगढ़ , झारसुगुड़ा , सम्बलपुर ,बरगढ़ ,नुआपाड़ा , कालाहांडी,  बलांगीर , बौध और  सुवर्णपुर (सोनपुर ) जिलों का यह लोकप्रिय त्यौहार  अब ओड़िशा के कुछ अन्य जिलों में भी उत्साह के साथ मनाया जाने लगा है । upइनमें से कुछ जिले जैसे -झारसुगुड़ा , सम्बलपुर ,बरगढ़ ,नुआपाड़ा  छत्तीसगढ़ से लगे हुए हैं। झारखंड का सिमडेगा जिले का कुछ हिस्सा भी ओड़िशा और छत्तीसगढ़  की सरहद से लगा हुआ है । 

 एक -दूसरे के राज्यों की  सीमावर्ती लोक संस्कृति का गहरा असर उनके सरहदी लोक जीवन पर होता ही है। लोगों में एक -दूसरे के साथ पारिवारिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक  रिश्ते भी होते हैं। एक -दूसरे की भाषा ,बोली , एक -दूसरे के रीति -रिवाज और एक -दूसरे के गीत -संगीत से लोग गहराई से जुड़ जाते हैं। लिहाजा पश्चिम ओड़िशा के नुआखाई का सांस्कृतिक प्रभाव भी छत्तीसगढ़ से लगे इसके सीमंचलों  में साफ देखा जा सकता है। गरियाबंद , महासमुन्द , रायगढ़ , जशपुर ,धमतरी सहित बस्तर संभाग के कुछ जिले भी इनमें शामिल हैं ।वैसे तो कृषि प्रधान भारत में खरीफ़ और रबी की नई फ़सलों की अगवानी में  किसानों के द्वारा उत्सव मनाने की परम्परा हजारों वर्षों से काल से चली आ रही है।  पंजाब में बैसाखी , केरल में ओणम ,  असम में बिहू और छत्तीसगढ़ में नवाखाई इसका उदाहरण हैं ।  उल्लेखनीय है कि  छत्तीसगढ़ में 'नवाखाई 'और समुद्र तटवर्ती  पूर्वी ओड़िशा में 'नुआखाई ' दशहरे के दिन या उसके आस -पास  मनाया जाता है। 

                

ओड़िशा में भी  नुआखाई का इतिहास बहुत पुराना है जो वैदिक काल से जुड़ा हुआ है । लेकिन कुछ इतिहासकार जनश्रुतियों का उल्लेख करते हुए  बताते हैं कि  पश्चिम ओड़िशा में नुआखाई की परम्परा शुरू करने का श्रेय  बारहवीं शताब्दी में हुए चौहान वंश के प्रथम राजा रामईदेव को दिया जाता है। वह तत्कालीन पटना (वर्तमान पाटना गढ़ )के राजा थे। पाटनागढ़ वर्तमान में बलांगीर जिले में है। कुछ  जानकारों का कहना है कि पहले बलांगीर को ही पाटनागढ़ कहा जाता था।रामईदेव ने देखा कि उनकी प्रजा केवल शिकार और कुछ वनोपजों के संग्रहण से ही अपनी आजीविका चलाती है और  यह जीवन यापन की एक  अस्थायी व्यवस्था है। इससे कोई अतिरिक्त आमदनी भी नहीं होती  और  प्रजा के साथ -साथ राज्य की अर्थ व्यवस्था भी बेहतर नहीं हो सकती। उन्होंने लोगों के जीवन में स्थायित्व लाने के लिए उन्हें स्थायी खेती के लिए प्रोत्साहित करने की सोची और  इसके लिए धार्मिक  विधि -विधान के साथ नुआखाई पर्व मनाने की शुरुआत की। कालांतर में यह पश्चिम ओड़िशा के लोक जीवन का एक प्रमुख पर्व बन गया।    

वर्षा ऋतु के दौरान भाद्र महीने के शुक्ल पक्ष में खेतों में धान की नई फसल , विशेष रूप से जल्दी पकने वाले धान में बालियां आने लगती हैं। तब  नई फ़सल के  स्वागत में नुआखाई का आयोजन होता है।  यह हमारी कृषि संस्कृति और ऋषि संस्कृति पर आधारित त्यौहार है। इस दिन  फ़सलों की देवी अन्नपूर्णा सहित सभी देवी -देवताओं की पूजा अर्चना की जाती है। सम्बलपुर में समलेश्वरी देवी , बलांगीर -पाटनागढ़ अंचल में पाटेश्वरी देवी , सुवर्णपुर (सोनपुर ) में देवी सुरेश्वरी और कालाहांडी में देवी मानिकेश्वरी की विशेष पूजा की जाती है। नुआखाई के दिन सुंदरगढ़ में राजपरिवार द्वारा देवी शिखर वासिनी की पूजा की जाती है। राजपरिवार का यह मंदिर केवल नुआखाई के दिन खुलता है। 


 पहले यह त्यौहार भाद्र शुक्ल पक्ष में अलग -अलग गाँवों में अलग -अलग तिथियों में सुविधानुसार मनाया जाता था ।गाँव के मुख्य पुजारी इसके लिए तारीख़ और मुहूर्त तय करते थे ,लेकिन अब  नुआखाई का दिन और समय सम्बलपुर स्थित जगन्नाथ मंदिर के पुजारी तय करते हैं। इस दिन गाँवों में लोग अपने ग्राम देवता या ग्राम देवी की भी पूजा करते हैं । नये धान के चावल को पकाकर तरह -तरह के पारम्परिक व्यंजनों के साथ घरों में और सामूहिक रूप से भी  नवान्ह भक्षण यानी नये अन्न का भक्षण बड़े चाव से किया जाता है। सबसे पहले आराध्य देवी -देवताओं को भोग लगाया जाता है। प्रसाद ग्रहण करने के बाद 'नुआखाई ' का सह -  भोज होता है।

इस दिन के लिए 'अरसा पीठा ' व्यंजन विशेष रूप से तैयार किया जाता है। नुआखाई त्यौहार  के आगमन के पहले लोग अपने -अपने घरों की साफ -सफाई और लिपाई -पुताई करके नई फसल के रूप में देवी अन्नपूर्णा के स्वागत की तैयारी करते हैं। परिवार के सदस्यों के लिए नये कपड़े खरीदे जाते हैं। लोग एक -दूसरे के परिवारों को नवान्ह भक्षण के आयोजन में स्नेहपूर्वक  आमंत्रित करते हैं। इस विशेष अवसर के लिए लोग नये वस्त्रों में सज -धजकर एक -दूसरे को नुआखाई जुहार करने आते -जाते हैं। 


गाँवों से लेकर शहरों तक खूब चहल -पहल और खूब रौनक रहती है। सार्वजनिक आयोजनों में  पश्चिम ओड़िशा की लोक संस्कृति पर आधारित  पारम्परिक लोक नृत्यों की धूम रहती है।।अभी तक तो ऐसा ही होता चला आ रहा था  ,लेकिन इस बार कोरोनाजनित भय के माहौल में  'नुआखाई' का सार्वजनिक उल्लास पहले जैसा नहीं था । इसके बावज़ूद अधिकांश लोगों ने घरों  में रहकर ही अपनी इस धार्मिक और सांस्कृतिक परम्परा का निर्वाह किया। 

         --स्वराज करुण

Monday, August 17, 2020

हमारी भाषाओं में भावहीन अंग्रेजी शब्दों की भरमार

  आलेख : स्वराज करुण 

भाषाएं मानव समाज में व्यक्तियों, राज्यों  और देशों के बीच  परस्पर संवाद का माध्यम होती हैं। आम तौर पर भाषाएं अपने समय की शासन व्यवस्था से कदम मिलाकर चलती हैं।  जिस शासन के काम -काज की जो भाषा होती है ,वही उसकी जनता की भी भाषा बन जाती है। हालांकि लोकभाषाओं और बोलियों का अस्तित्व कायम रहता है। 

ईस्ट इंडिया कम्पनी के समय को जोड़कर देखें हमारे देश पर अंग्रेजों का शासन लगभग 200 वर्षों तक रहा है। लेकिन यह सुखद आश्चर्य है कि भारत में इतने लम्बे शासन काल के बावज़ूद अंग्रेजों  की सरकारी भाषा अंग्रेजी हिन्दुस्तान के आम नागरिकों की भाषा नहीं बन पाई। हमारे यहाँ अंग्रेजी आज भी बमुश्किल पाँच प्रतिशत लोगों की भाषा है। देश की 95 प्रतिशत जनता के लिए आज भी यह एक कठिन और समझ में नहीं आने वाली भाषा है ,जबकि देश की प्रमुख सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी  का प्रचलन पूरे देश में है। किसी भी भाषा को सीखने में कोई बुराई नहीं है। देश -विदेश के लोगों से सम्पर्क के लिए और आज के समय में विज्ञान और प्रौद्योगिकी तथा अंतर्राष्ट्रीय काम -काज के लिए  यह बहुत जरूरी भी है ,लेकिन दूसरी भाषाओं को सीखते और बोलते हुए हम अपनी भाषाओं को भूल जाएं या उनमें भरपूर शब्द भंडार होते हुए भी बाहरी भाषाओं के शब्दों को जबरन ठूंसते रहें तो क्या यह उचित होगा ?

 साहित्य की दृष्टि से यह हमारी 'राष्ट्रभाषा ' और  संविधान से  मान्यता प्राप्त  'राजभाषा '  है। लेकिन दुःखद और विचारणीय पहलू ये है कि विगत कुछ दशकों में हिन्दी में अंग्रेजी के ऐसे -ऐसे  शब्दों की घुसपैठ और भरमार होती जा रही है,जो भारतीय  परिवेश में बेहद  भावहीन , संवेदनहीन और निरर्थक लगते हैं  ! जैसे अंकल और आन्टी , मम्मी , डैडी , मॉम , डैड ,  ग्रैंड  पा ,   बॉय  फ्रेंड और गर्ल फ्रेंड । ऐसे शब्द हमारी संस्कृति को भी बुरी तरह प्रभावित कर रहे है। देश  की विभिन्न प्रांतीय भाषाओं में भी यह प्रदूषण कमोबेश आ ही गया है । संचार और प्रचार माध्यमों का भी हमारी भाषाओं पर गहरा असर होता ही है। आधुनिक युग में सिनेमा और टेलीविजन के हिन्दी सहित अन्य भारतीय भाषाओं कार्यक्रमों  में भी अंग्रेजी शब्दों की भरमार देखी जा सकती है। चाहे वह कोई समाचार बुलेटिन हो , या  फिर आधुनिक जीवन शैली पर आधारित धारावाहिक।  राहत की बात यह है कि पौराणिक और ऐतिहासिक कहानियों पर आधारित धारावाहिकों में सरल और  शुद्ध  हिन्दी का प्रयोग होता है। यह अच्छी बात है। 

लेकिन हमारे भारतीय   समाज में इधर  आजकल एक नया चलन आ गया है - हैलो गाइज और हैलो ड्यूड कहने का ! कितने बनावटी लगते हैं ये शब्द ! अब तो 'ब्रदर' (भाई ) शब्द के स्थान पर 'ब्रो' कहकर काम चलाया जा रहा है। पूरा शब्द बोलने में  इन अंग्रेजी वालों को शायद  आलस आता है इंग्लैड ,अमेरिका जैसे अंग्रेजी भाषा वाले देशों में भले ही   अंग्रेजी के ऐसे  शब्द भले ही प्रचलन में हों ,लेकिन हमारे देश में हमारी  भारतीय संस्कृति के साँचे के अनुकूल नहीं है और बेहद अटपटे ,हास्यास्पद और बेहूदे लगते हैं ! अधिकांश भारतीय  बच्चों को हिन्दी की गिनती और हिन्दी महीनों और सप्ताह के दिनों नाम तक ठीक से याद नहीं । क्या इसके लिए हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली ज़िम्मेदार नहीं है ? 

यह बड़े अफ़सोस की बात है कि हमारे यहाँ  माता -पिता अपने बच्चों को तहज़ीब सिखाने  के नाम पर उन्हें  किसी के लिए भी अंकल ,आन्टी सम्बोधित करने को प्रेरित करते हैं , जैसे- बेटा ! अंकल , आन्टी को नमस्ते करो , गुड मॉर्निंग बोलो !  जबकि अगर मैं गलत नहीं कह रहा हूँ  तो क्या यह सच नहीं है कि अंकल -आन्टी जैसे शब्दों का इस्तेमाल   चाचा -चाची , ताऊ - ताई   किसी के लिए भी कर   दिया जाता है ? मुझे तो अंग्रेजी के ऐसे  शब्द बिल्कुल  पथराए हुए लगते हैं , उनमें कोई सौम्यता महसूस नहीं होती !

जरूरत इस बात की है कि हम अंग्रेजी जरूर सीखें ,लेकिन अपनी हिन्दी को तो न भूलें। हिन्दी भाषी प्रान्तों के अलावा यह बात देश के अन्य  राज्यों के लोगों के लिए भी है कि वो भी अपने दैनिक जीवन में ,अपने घरों में और स्थानीय समाज में बोलचाल के लिए  अपनी प्रादेशिक भाषाओं का ही प्रयोग करें।

Sunday, August 16, 2020

अंगारों के हाथ न सौंपो फूलों के संसार को

                  आलेख : स्वराज करुण 

देश और समाज की बेहतरी के लिए एक साथ कई भूमिकाओं का निर्वहन कर  19 साल पहले दुनिया छोड़ गए हरि ठाकुर आज अगर हमारे बीच रहते  तो 93 साल के हो चुके होते। उन्होंने अपनी 74 साल की ज़िन्दगी में कई सार्वजनिक जिम्मेदारियों को बखूबी संभाला।   आज 16 अगस्त को उनकी जयंती है।  हिन्दी और छत्तीसगढ़ी के श्रेष्ठ  कवि तो वह थे ही , छत्तीसगढ़ के पौराणिक , सांस्कृतिक ,सामाजिक , साहित्यिक और राजनीतिक इतिहास के भी वह गहन अध्येता और लेखक थे।  राज्य निर्माण आंदोलन के लिए सर्वदलीय मंच के संयोजक के रूप में उनकी यादगार भूमिका थी। 

               

   इन सबके ऊपर आम जनता के जीवन के सुख -दुःख को शब्द देने वाले  मया ,पीरा के  गीतकार , किसानों , मज़दूरों और सामान्य मनुष्यों के जीवन संघर्षों को अभिव्यक्ति देने वाले कवि के रूप में समाज में उनकी एक खास पहचान थी। वर्ष 1956 में छत्तीसगढ़ के छह युवा कवियों द्वारा  परस्पर सहयोग से अपना एक संयुक्त काव्य संग्रह 'नये स्वर ' का प्रकाशन उस जमाने में इस अंचल के साहित्यिक इतिहास में एक बड़ी महत्वपूर्ण घटना थी। इस संग्रह के कवि थे -हरि ठाकुर , गुरुदेव काश्यप चौबे , सतीशचन्द्र चौबे ,नारायणलाल परमार ,ललित मोहन श्रीवास्तव और देवीप्रसाद वर्मा 'बच्चू जांजगीरी '। लेखक सहकारी संघ के बैनर पर छपे इस काव्य संग्रह के प्रथम कवि हरि ठाकुर थे । इसमें शामिल उनकी कविताओं में से एक गीत की इन पंक्तियों में उनकी भावनाओं को आप भी महसूस कीजिए -    

             

             कभी -कभी दुनिया में ऐसा भी होता है

              पत्थर गल जाते हैं शबनम की आहों से ।

             कोई जब बादल के पंख काट लेता है

              फैली हरियाली की धार चाट लेता है।

              कोई तब आँसू की बरखा से नहला कर 

              धरती के कण -कण को प्यार बाँट देता है ।

               कभी -कभी दुनिया में ऐसा भी होता है,

               पर्वत बँध जाते हैं बचपन की बाँहों से ।


इस काव्य संग्रह में शामिल उनके एक गीत में कवि हॄदय में उमड़ती -घुमड़ती भावनाएं कुछ इस तरह प्रकट होती हैं --

      

       अंगारों के हाथ न सौंपो फूलों के संसार को ।

        लहरों के यौवन को बाँधों मन के मीठे तार से ,

      अरमानों का आँगन  भर दो  पायल की झंकार से

      खुशबू की खामोशी खोलो ,भय की पाँखें काट दो

      जिन पौधों पर  काँटे जन्में , उनकी शाखें काट दो ।

       पतझर के हाथों मत सौंपो कलियों भरी बहार को।

       अंगारों के हाथ न सौंपो फूलों के संसार को 

       आज हवाओं के पाँवों में बारूदी जंजीर है 

       संगीनों की झंकारों में कैद पड़ी मंजीर है।

       नीर भरी सपनों की आँखें , पीर भरी हर रात है 

       धरती के धानी आँचल में लोहू की बरसात है ।

        तलवारों के हाथ न सौंपो जीने के अधिकार को 

        अंगारों के हाथ न सौंपो फूलों के संसार को ।


 उनका  जन्म 16 अगस्त 1927 को रायपुर में और निधन 3 दिसम्बर 2001 को नई दिल्ली में हुआ ,जहाँ वह कैन्सर के इलाज के लिए गए थे।  हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में उनकी 30 से ज्यादा किताबें छपीं  ,जिनमे कविता संग्रह - लोहे का नगर , नये विश्वास के बादल , गीतों के शिलालेख ,जय छत्तीसगढ़ , हँसी एक नाव सी , धान के कटोरा , सुरता के चन्दन  और खण्ड काव्य शहीद वीर नारायण सिंह भी शामिल हैं । छत्तीसगढ़ के इतिहास पर केन्द्रित कई महत्वपूर्ण शोध आलेख और ग्रन्थ भी उन्होंने लिखे । इनमें छत्तीसगढ़ का प्रारंभिक इतिहास और छत्तीसगढ़ गौरव गाथा उल्लेखनीय हैं ।  इनमें से 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' का प्रकाशन उनके मरणोपरांत वर्ष 2003 में हुआ । स्वतंत्रता संग्राम के दौरान छत्तीसगढ़ के तत्कालीन रायपुर  जिले के ग्राम तमोरा (तहसील-महासमुन्द ) में सितम्बर 1930 में अंग्रेजों के जंगल कानून को तोड़ने के लिए कांग्रेस कमेटी ने ग्रामीणों को संगठित कर 'जंगल सत्याग्रह ' किया था।  हरि ठाकुर इस सत्याग्रह के इतिहास से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने 'तमोरा सत्याग्रह ' शीर्षक से हिन्दी में एक नाटक  लिखा। उनका लिखा एक अन्य  नाटक है 'परबुधिया', जो छत्तीसगढ़ी में है। दोनों नाटक स्वर्गीय डॉ. राजेन्द्र सोनी द्वारा सम्पादित साहित्यिक पत्रिका 'पहचान यात्रा ' के हरि ठाकुर विशेषांक में वर्ष 2002 में प्रकाशित हुए हैं। यह विशेषांक हरि ठाकुर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित है ।

            


   करीब पांच दशक पहले छत्तीसगढ़ी भाषा में बनी दूसरी फीचर फ़िल्म ' घर द्वार 'में हरि ठाकुर के लिखे गीत  काफी लोकप्रिय हुए । जमाल सेन के संगीत निर्देशन में इन गीतों को मोहम्मद रफ़ी और सुमन कल्याणपुर जैसे सुप्रसिद्ध कलाकारों ने अपना स्वर दिया था  । फ़िल्म में हरि ठाकुर के लिखे 'गोंदा फुल गे मोर राजा ,गोंदा फुल गे मोर बैरी,छाती म लगे बान गोंदा फुल गे  ,' 'सुन -सुन मोर मया पीरा के संगवारी रे ,आजा नयना तीर ,आजा रे ' और 'झन मारो गुलेल , झन मारो गुलेल ,बाली उमर मोर सईंया , जैसे गीतों को लोग आज भी गुनगुनाते हैं।

     हरि ठाकुर छत्तीसगढ़ के महान श्रमिक नेता और स्वतंत्रता सेनानी ठाकुर प्यारेलाल सिंह के सुपुत्र थे । लिहाज़ा लोकहित और देश हित में काम करने का जज्बा उन्हें स्वाभाविक रूप से विरासत में मिला था । उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ 1942 के भारत छोडो आंदोलन में हिस्सा लिया । आज़ादी के बाद 1955 में गोवा मुक्ति आंदोलन में भी शामिल हुए ।आचार्य विनोबा भावे के सर्वोदय और भूदान आंदोलन से भी वह काफी प्रभावित थे । हरि ठाकुर  1955 मे नागपुर से प्रकाशित भूदान आंदोलन की पत्रिका ' साम्य योग ' के  सम्पादक भी रहे । डॉ. खूबचन्द बघेल ने वर्ष 1956 में राजनांदगांव में छत्तीसगढ़ी महासभा का गठन करते हुए छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन की बुनियाद रखी। उन्होंने हरि ठाकुर को महासभा के संयुक्त सचिव बनाया। डॉ.बघेल ने  वर्ष 1967 में रायपुर में छत्तीसगढ़ भातृ संघ की स्थापना की और हरि ठाकुर को इसमें महासचिव पद की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी सौंपी। कवि और लेखक होने के नाते ठाकुर साहब वरिष्ठ और युवा रचनाकारों के भी चहेते  साहित्यकार  थे। उन्होंने वर्ष 1995 में स्थानीय युवा साहित्यकारों को लेकर साहित्यिक संस्था   'सृजन सम्मान ' का भी गठन किया।

    अपने गृह नगर रायपुर में उन्होंने वर्ष 1966 में पिता ठाकुर प्यारेलाल सिंह के समाचार पत्र साप्ताहिक ' राष्ट्रबन्धु ' के सम्पादन और प्रकाशन का दायित्व संभाला । उनके पिताजी ने इस साप्ताहिक का प्रकाशन वर्ष 1950 में शुरू किया था । हरि ठाकुर वर्ष 1966 से 1978 तक इसका नियमित सम्पादन और प्रकाशन करते रहे।छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन को गति देने के लिए  वर्ष 1992 में रायपुर मेंउनके घर पर प्रबुद्धजनों की बैठक हुई ,जिसमें  सर्वदलीय मंच बनाने का निर्णय लिया गया। हरि ठाकुर इस मंच के संयोजक बनाए और उन्हें अध्यक्ष मंडल में भी शामिल किया गया ।

 उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर में शोध कार्य भी हुआ है ।  विश्व विद्यालय से  ' हरि ठाकुर के साहित्य में राष्ट्रीय चेतना ' विषय पर  अपने शोध के लिए मेरी भाँजी श्रीमती अनामिका पाल को वर्ष 2011 में पीएचडी की उपाधि मिली है ।   हरि ठाकुर वर्ष 1965 - 66 में छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के भी अध्यक्ष रहे । उन्होंने वर्ष 1965 में साहित्यिक पत्रिका ' संज्ञा ' का भी सम्पादन किया ।नई दिल्ली में 3 दिसम्बर 2001 को उनके निधन के बाद अगले दिन गृहनगर रायपुर में 4 दिसम्बर को उनका अंतिम संस्कार हुआ। छत्तीसगढ़ विधान सभा का शीतकालीन अधिवेशन चल रहा था। तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी सहित पक्ष और विपक्ष के अनेक नेता और बड़ी संख्या में नागरिक ठाकुर साहब को  अंतिम बिदाई देने मौज़ूद थे। उसी दिन विधान सभा  की बैठक में उन्हें श्रद्धांजलि दी गयी।मुख्यमंत्री अजीत जोगी और नेता प्रतिपक्ष नन्दकुमार साय सहित अनेक सदस्यों ने शोक उदगार  व्यक्त किए।

   स्वर्गीय हरि ठाकुर के  बहुआयामी सार्वजनिक व्यक्तित्व और उनकी 74 वर्षीय जीवन यात्रा के  विभिन्न पहलुओं पर किसी एक आलेख में विस्तार से प्रकाश डालना संभव नहीं है। सार्वजनिक जीवन की उनकी हर भूमिका पर  अलग -अलग आलेख बन सकते हैं। इसलिए  आज तो सिर्फ इतना ही । उनकी जयंती पर एक बार फिर उन्हें विनम्र नमन । 

    आलेख   -स्वराज करुण

Saturday, August 15, 2020

स्वतंत्रता संग्राम : गैंदसिंह थे छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद

                   आलेख : स्वराज करुण 

  आधुनिक भारतीय इतिहास में अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़  प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के नेतृत्व में 1857 में हुए पहले शस्त्र विद्रोह से मानी जाती है  । इसी तरह छत्तीसगढ़ में सोनाखान के प्रजा वत्सल जमींदार नारायण सिंह को 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का पहला शहीद माना जाता है। वह बिंझवार जनजाति के पराक्रमी योद्धा थे।  अंग्रेज सरकार के ख़िलाफ़ वीरतापूर्ण सशस्त्र संग्राम में  उनकी शहादत को सम्मान देने के लिए उनके नाम के सामने 'वीर ' लगाकर उन्हें याद किया जाता है ।

    वह एक महान बलिदानी जरूर थे ,लेकिन इतिहास के पन्ने पलटने पर ज्ञात होता है कि छत्तीसगढ़ में स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पहले शहीद वो नहीं बल्कि परलकोट के हल्बा जनजाति के ज़मींदार गैंदसिंह थे ,जिन्हें वीर नारायण सिंह की  शहादत के 32 साल पहले 1825 में उनके ही महल के सामने अंग्रेजी सेना ने सरेआम फाँसी पर लटका दिया था। स्वतंत्रता दिवस की 74 वीं वर्षगांठ पर आज आज हम इन दोनों महान आदिवासी शहीदों के संघर्षों और बलिदानों की संक्षिप्त चर्चा करेंगे । आज हम छत्तीसगढ़ की वर्तमान राजधानी रायपुर में ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध 162 साल पहले वर्ष 1858 में हुए सिपाही विद्रोह और उसमें अपने प्राण न्यौछावर करने वाले भारत माता के वीर सपूतों को भी  याद करेंगे ।

            वीर नारायण सिंह 



 इतिहासकारों के अनुसार वीर नारायण सिंह को देशभक्ति का जज़्बा अपने पिता रामराय से विरासत में मिला था। वर्ष 1740 -41 में नागपुर के भोंसले शासन की सेना ने छत्तीसगढ़ पर आधिपत्य जमाने के बाद  सोनाखान ज़मींदारी के 300 गांवों में से 288 गाँवों को अपने कब्जे में ले लिया और सोनाखान जमींदार को सिर्फ़ 12 गांव दिए। रामराय इस ज़ुल्म के ख़िलाफ़ संघर्ष करते रहे। उनके पिता फत्ते नारायण सिंह ने भी इस अन्याय के विरुद्ध भोंसले शासन से विद्रोह किया था। वीर नारायण सिंह के पिता रामराय का  वर्ष 1830 में निधन हो गया । उनके उत्तराधिकारी के रूप में  35 वर्षीय नारायण सिंह ने सोनाखान ज़मींदारी का कार्यभार संभाला।

    छत्तीसगढ़ में 1856 में  भयानक सूखा पड़ा था ।  तब 12 गाँवों के जमींदार  वीर नारायण सिंह ने अकाल पीड़ित किसानों और मज़दूरों को भूख से बचाने एक सम्पन्न व्यापारी के गोदाम को खुलवाकर उसका अनाज जनता में बंटवा दिया और रायपुर स्थित अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर इलियट को बाकायदा इसकी सूचना भी दे दी।लेकिन ब्रिटिश हुकूमत ने नारायण सिंह के प्रजा हितैषी इस कार्य को विद्रोह मानकर उन्हें 24 दिसम्बर 1856 को गिरफ़्तार कर लिया ,लेकिन नारायणसिंह 28 अगस्त 1857 को सुरंग बनाकर रायपुर जेल से छुपकर निकल गए और सोनाखान आकर लगभग 500 किसानों और मज़दूरों को संगठित कर अपनी सेना तैयार कर ली और अंग्रेजों के ख़िलाफ़ संघर्ष का शंखनाद कर दिया। लेकिन ब्रिटिश फ़ौज को कड़ी टक्कर देने के बावज़ूद वह गिरफ़्तार कर लिए गए और उन्हे 62 साल की उम्र में 10 दिसम्बर 1857 को अंग्रेजी सेना ने रायपुर के चौराहे (वर्तमान जय स्तंभ ) पर फाँसी पर लटका दिया । 

                          शहीद गैंदसिंह 

          

निश्चित रूप से वीर नारायण सिंह की यह शहादत ब्रिटिश राज के विरुद्ध संघर्ष की एक बड़ी ऐतिहासिक घटना थी ,लेकिन इतिहास के भूले बिसरे अध्यायों को  पढ़ने पर ज्ञात होता है वीर नारायण सिंह की इस शहादत से भी करीब 32 साल पहले छत्तीसगढ़ में अंग्रेजों के विरुद्ध पहला विद्रोह 1824 -25 में बस्तर इलाके के परलकोट में हुआ था।

हल्बा जनजाति के गैंदसिंह  परलकोट के जमींदार थे। यह इलाका महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिलेसे लगा हुआ है।वर्तमान में छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में है। गेंदसिंह की यह जमींदारी अबूझमाड़ इलाके में आती थी और परलकोट इसका मुख्यालय था। इस जमींदारी में 165 गांव शामिल थे। इनमें से 98 निर्जन गांव थे ।वर्ष 1818 में नागपुर के भोंसले राजा और अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच एक समझौता हुआ,जिसके अनुसार मराठों ने छत्तीसगढ़ की सम्पूर्ण शासन व्यवस्था कम्पनी के हवाले कर दी। बस्तर अंचल भी उसकी जद में आ गया ,जिसमें परलकोट की जमींदारी भी शामिल थी। ईस्ट इंडिया कम्पनी के  अफसरों और ।मराठा शासन के कर्मचारियों द्वारा इलाके में  कई प्रकार से जनता का  शोषण किया जाता था। इस ज़ुल्म और ज़्यादती के ख़िलाफ़ गेंदसिंह ने अबूझमाड़ियों को संगठित कर विद्रोह का शंखनाद किया।तीर -धनुष से सुसज्जित हजारों की संख्या में अबूझमाड़िया आदिवासियों ने अंग्रेज अफसरों और मराठा कर्मचारियों पर घात लगाकर हमला करना शुरू कर दिया। ये लोग 500 से 1000 की संख्या में अलग -अलग समूह में  निकलते थे । महिलाएं भी इस लड़ाई में पुरुषों के साथ कदम से कदम मिलाकर शामिल होती थीं । गेंदसिंह अपनी इस जनता के साथ घोटुल में बैठकर इस छापामार स्वतंत्रता संग्राम की संघर्ष की रणनीति बनाते थे। लगभग एक साल तक यह संघर्ष चला । 

    अंत में अंग्रेज प्रशासक एग्न्यू ने चांदा (महाराष्ट्र ) से अपनी फ़ौज बुलवाई। फ़ौज ने 10 जनवरी 1825 को परलकोट को चारों तरफ से घेर लिया। गेंदसिंह गिरफ़्तार कर लिए गए और 10 दिनों के भीतर 20 जनवरी 1825 को उन्हें उनके ही महल के सामने अंग्रेजी सेना ने फाँसी पर लटका दिया। गेंदसिंह शहीद हो गए। अखिल भारतीय हल्बा महासभा द्वारा हर साल 20 जनवरी को गेंदसिंह की याद में शहीद स्मृति दिवस मनाया जाता है। हल्बा महासभा द्वारा 20 जनवरी 2014 को आयोजित शहीद स्मृति दिवस के अवसर पर एक पुस्तिका प्रकाशित की गयी थी। इसमें गैंदसिंह के नेतृत्व में 1824 -25 में हुए परलकोट संग्राम अलावा उनके पहले और बाद में  बीच  छत्तीसगढ़ के बस्तर अंचल में चक्रकोट राज्य में हुई कुछ प्रमुख क्रांतिकारी   घटनाओं की सूची दी गयी  है। सूची में  वर्ष 1795 में भोपालपट्टनम संघर्ष , वर्ष 1825 के परलकोट विद्रोह , वर्ष 1842 से 1854 तक चले  तारापुर विद्रोह , वर्ष 1842 से 1863 तक और वर्ष1876 में हुए मुरिया जनजाति के विद्रोह,वर्ष 1859 के कोया विद्रोह  और वर्ष 1910 के भूमकाल आंदोलन का भी उल्लेख है।

   उत्तर बस्तर (कांकेर ) जिले में चारामा के शासकीय महाविद्यालय का नामकरण उनके सम्मान में किया गया है,वहीं नवा रायपुर स्थित छत्तीसगढ़ सरकार का   अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम और महासमुंद जिले का कोडार सिंचाई जलाशय भी  शहीद वीर नारायण सिंह के नाम पर  है। 

        छत्तीसगढ़ का पहला सिपाही विद्रोह 

 वीर नारायण सिंह की शहादत के सिर्फ़ लगभग एक महीने के भीतर रायपुर की ब्रिटिश फ़ौजी छावनी में 18  जनवरी 1858 को मैगज़ीन लश्कर हनुमानसिंह के नेतृत्व में एक बड़ा लेकिन असफल  सिपाही विद्रोह हुआ 

 इसे छत्तीसगढ़ का पहला सिपाही विद्रोह माना जा सकता है ,जिसमें   17 भारतीय सिपाहियों को रायपुर के वर्तमान पुलिस मैदान में 22 फरवरी 1858 को अंग्रेजों ने मृत्यु दंड दिया था। इन शहीद सिपाहियों में हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के वीर और देशभक्त योद्धा शामिल थे । उनके नाम इस प्रकार हैं -- हवलदार गाज़ी खान और गोलंदाज सिपाही अब्दुल हयात ,मल्लू , शिवनारायण , पन्नालाल , मातादीन , ठाकुरसिंह , बली दुबे , अकबर हुसैन , लल्ला सिंह , बल्लू , परमानन्द , शोभाराम , दुर्गाप्रसाद , नज़र मोहम्मद , देवीदीन और शिवगोविंद ।हनुमानसिंह इस   विद्रोह के नायक थे । हालांकि विद्रोह के असफल होने के बात उन्होंने भूमिगत रहकर अंग्रेजों के विरुद्ध अपना अभियान जारी रखा। अंग्रेज हुकूमत ने उन्हें पकड़ने के लिए 500 रुपए का इनाम भी घोषित किया था ,लेकिन उनको कभी पकड़ा नहीं जा सका और भूमिगत रहते हुए वह वीर गति को प्राप्त हुए। रायपुर का यह सिपाही विद्रोह  भी छत्तीसगढ़ अंचल में भारतीय  स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है।

आलेख : स्वराज करुण       

(सन्दर्भ  : स्वर्गीय हरि ठाकुर की पुस्तक 

'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' वर्ष 2003  और अखिल भारतीय हल्बा आदिवासी समाज भिलाई नगर की पुस्तिका वर्ष 2014  से साभार  )

Wednesday, August 12, 2020

उम्र मिली सिर्फ़ 34 साल ,लेकिन बने 20 से ज़्यादा भाषाओं के विद्वान


  महान भाषाविज्ञानी  हरिनाथ डे 

  आलेख : स्वराज करुण 

आम तौर पर एक मनुष्य अपनी पूरी ज़िन्दगी में कितनी भाषाएं सीख और समझ सकता है ?  एक तो अपनी मातृभाषा जो उसे अपनी माता और अपने घर -परिवार में प्रचलित बोलचाल  से मिलती है ,दूसरी भाषा वह घर के बाहर के समाज से ग्रहण करता है । यह उसकी स्थानीय दुनिया से दिन -प्रतिदिन के सम्पर्क की भाषा होती है । इसके अलावा अपने कार्यालय अथवा कार्य -स्थल  की भाषा और अगर वह कोई व्यापारी या कारोबारी हुआ तो अपने कारोबार में सुविधा के लिए बाज़ार की भाषा। 

 यानी एक सामान्य मनुष्य अपने पूरे जीवनकाल में चार -पाँच से अधिक भाषाएं नहीं सीख सकता ,लेकिन भारत भूमि पर अनेक ऐसी महान  विभूतियों ने जन्म लिया है ,जिन्होंने अपनी विलक्षण प्रतिभा से एक साथ इससे भी ज़्यादा भाषाओं का ज्ञान अर्जित कर समाज को आश्चर्यचकित कर दिया । इनमें   आज़ाद हिन्द फौज के संस्थापक नेताजी सुभाषचन्द्र बोस  और देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय पी.व्ही .नरसिंहराव जैसी हस्तियां शामिल हैं। लेकिन इन्हीं  दिग्गज प्रतिभाओं में से एक भूली -बिसरी विभूति हैं स्वर्गीय हरिनाथ डे ।  वह कवि ,लेखक और चिन्तक होने के साथ -साथ एक महान भाषाविज्ञानी थे। 

  छत्तीसगढ़  और बंगाल सहित सम्पूर्ण भारत  का गौरव बढ़ाने वाले हरिनाथ डे को ईश्वर ने  सिर्फ 34 साल की ज़िन्दगी दी , लेकिन इतनी कम उम्र में उन्होंने देश -विदेश की बीस से भी ज्यादा भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया था । राजधानी रायपुर को अनेक महान विभूतियों की जन्म और कर्मभूमि होने का  गौरव प्राप्त है । प्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय हरि ठाकुर ने अपने ग्रन्थ 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' में इन विभूतियों की महान उपलब्धियों से सुसज्जित जीवन यात्रा का विस्तृत वर्णन किया है । उल्लेखनीय है कि महान दार्शनिक और समाज सुधारक स्वामी विवेकानन्द ने अपने बाल्यकाल के दो स्वर्णिम वर्ष यहाँ बिताए थे । उन्हीं की तरह विलक्षण प्रतिभा के धनी हरिनाथ डे ने भी अपनी किशोरावस्था के कुछ साल रायपुर में गुज़ारे । हरिनाथ के पिता श्री भूतनाथ डे रायपुर के प्रतिष्ठित वकील और म्युनिसिपल कमेटी के उपाध्यक्ष रह चुके थे । उन्हें अंग्रेज सरकार से राय बहादुर की पदवी मिली थी। वह स्थानीय बूढ़ापारा के निवासी थे। स्वामी विवेकानंद के पिता विश्वनाथ जी रायपुर प्रवास के दौरान कुछ महीने भूतनाथ डे के घर रुके थे। विश्वनाथ जी यहाँ स्वास्थ्य लाभ के लिए आए थे। ।

  वकील भूतनाथ डे के सुयोग्य सुपुत्र  हरिनाथ का  जन्म  बंगाल के एक गाँव आरिया दाबा स्थित अपने ननिहाल में  12 अगस्त 1877 को हुआ था ।  बालक हरिनाथ को अधिक से अधिक भाषाएं सीखने की प्रेरणा शायद अपनी माता एलोकेशी से मिली थी ,जो  हिन्दी ,बांग्ला , मराठी और अंग्रेजी भाषाओं की जानकार थीं। हरिनाथ  अपने वकील पिता राय बहादुर श्री भूतनाथ डे के पास रायपुर (छत्तीसगढ़ )  आने के बाद यहाँ उनकी प्राथमिक शिक्षा मिशन स्कूल में  और मिडिल स्कूल की पढ़ाई गवर्नमेंट हाई स्कूल  में हुई। इस हाई स्कूल को हम आज स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जयनारायण पांडेय के नाम पर प्रोफेसर जे.एन.पांडेय शासकीय बहुउद्देश्यीय उच्चतर माध्यमिक शाला के रूप में   जानते हैं । रायपुर में हरिनाथ ने  मिडिल स्कूल की शिक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की । उन्हें छात्रवृत्ति भी मिली । हरि ठाकुर बताते हैं कि हरिनाथ यहाँ एक ईसाई संगठन के सम्पर्क में आए और उन्होंने बाइबल का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया।     इसी दरम्यान उन्होंने लैटिन भाषा का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया । उनकी गिनती इस भाषा के विद्वानों में होने लगी । रायपुर में  मिडिल तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए हरिनाथ  कलकत्ता चले गए।,जहाँ सेंट जेवियर कॉलेज में दाख़िला लिया और  वर्ष 1892 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से इंटरमीडिएट की परीक्षा में  प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए । उन्होंने अंग्रेजी और लैटिन भाषाओं में प्रावीण्यता भी दिखाई । उस वर्ष कलकत्ता विश्वविद्यालय में इंटरमीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले वह इकलौते विद्यार्थी थे । उन्हें छात्रवृत्ति मिली । 

                        

   उन्होंने कलकत्ता के ही प्रेसिडेंसी कॉलेज में एडमिशन लिया और वर्ष 1896 में वहाँ  परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रथम श्रेणी में ग्रेजुएट हुए ।  उच्च शिक्षा के लिए केम्ब्रिज  भेजने उनका चयन किया गया । वर्ष 1896 में ही हरिनाथ ने स्वाध्यायी छात्र के रूप में लैटिन भाषा में प्रथम श्रेणी में एम. ए.किया । इस उपलब्धि के लिए उन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया । वर्ष 1897 में उन्होंने इटैलियन कवि दांते की कविताओं पर शोध पत्र प्रस्तुत किया । हरिनाथ ने इंग्लैंड में भी पढ़ाई के दौरान अपनी अदभुत प्रतिभा का प्रदर्शन किया ।

   वहाँ क्राइस्ट कॉलेज कैम्ब्रिज में अध्ययन करते हुए उन्होंने  प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में ग्रीक भाषा में एम.ए.की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली । वर्ष 1900 में वह क्राइस्ट कॉलेज कैम्ब्रिज स्नातक हुए । उसी वर्ष उन्होंने इंडियन सिविल सर्विस (आई .सी एस.) की परीक्षा में भी कामयाबी हासिल की ,लेकिन ब्रिटिश सरकार के  उच्च प्रशासनिक पद की पेशकश को उन्होंने स्वीकार नहीं किया । उन्हें  कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी कॉलेज में प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति दी गयी . वहां से वर्ष 1905 में उन्होंने स्वाध्याय से संस्कृत ,अरबी और ओडिया भाषाओं में परीक्षाएं उत्तीर्ण की । इस पर उन्हें तीन हजार रूपए का पुरस्कार मिला । सन 1906 में वह हुगली कॉलेज के प्राचार्य के पद पर नियुक्त हुए । प्राचार्य के पद पर कार्य करते हुए उन्होंने स्वाध्याय से पाली भाषा में भी एम.ए. कर लिया । हिन्दी और  बंगला के ज्ञाता तो वह थे ही , उन्होंने  स्वाध्याय से पाली ,संस्कृत ,तिब्बती अरबी ,ओड़िया  ,भाषाओं के साथ -साथ ग्रीक ,स्पेनिश ,लैटिन तिब्बती ,चीनी ,हिब्रू , फारसी ,रूसी ,तुर्की , रुमानियन,रूसी  पोर्तुगीज ,इटैलियन ,स्पेनिश, एंग्लो-सेक्शन , जर्मन, फ्रेंच , डच  आदि कई भाषाओं में  भी दक्षता हासिल की और  कई भाषाओं की साहित्यिक रचनाओं का  अंग्रेजी  ,बांग्ला  आदि भाषाओं में  अनुवाद भी किया । उन्हें  कई अन्य भारतीय और एशियाई भाषाओं में दक्षता हासिल थी।पंद्रह अगस्त 1911 को मोतीझीरा की बीमारी से पीड़ित हुए और 30 अगस्त 1911 को उनका निधन हो गया ।

 स्वर्गीय श्री हरि ठाकुर के अनुसार -हरिनाथ डे जितने बड़े भाषा शास्त्री थे ,भाषाविद् थे ,विभिन्न भाषाओं के साहित्य के जानकार थे ,उतने ही बड़े चिन्तक और धुरंधर लेखक भी थे । हरिनाथ डे को भाषाएँ सीखने का पागलपन की सीमा तक शौक था।किसी भी भाषा को सीखने में उन्हें कुछ महीनों से अधिक समय नहीं लगता था । जिन भाषाओं को उन्होंने सीखा , उनके साहित्य का गहन अध्ययन भी उन्होंने किया । अपने संक्षिप्त जीवन काल में उन्होंने 50 से भी अधिक कृतियों का सफलतापूर्वक सृजन कर अपनी अदभुत लेखन क्षमता और दक्षता का परिचय दिया । उन्होंने  बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के कालजयी बांग्ला उपन्यास 'आनन्द मठ ' और उनकी लोकप्रिय कविता 'वंदेमातरम' का अंग्रेजी और लैटिन भाषाओं में अनुवाद किया था,जो वर्ष 1906 में प्रकाशित हुआ । पाणिनि और बुद्ध घोष पर उनकी व्याख्यात्मक समीक्षा भी वर्ष 1906 में छपी। उन्होंने अंग्रेजों द्वारा किए गए बौद्ध ग्रंथों के त्रुटिपूर्ण अनुवादों को जहाँ संशोधन सहित प्रस्तुत किया ,वहीं महाकवि कालिदास के संस्कृत महाकाव्य ' अभिज्ञान शाकुंतलम ' के दो खण्डों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। 

हरिनाथ जी की मौलिक और अनुवादित कृतियों की एक लम्बी सूची है। स्वर्गीय हरि ठाकुर ने 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' में उनके जीवन परिचय के साथ  इन कृतियों का  भी उल्लेख किया है। स्वर्गीय हरि ठाकुर ने 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' में उनके जीवन परिचय के साथ  इन कृतियों का  भी उल्लेख किया है। ठाकुर साहब द्वारा  दी गयी सूची के एक हिस्से की फोटोकॉपी   मैंने  इस पोस्ट में संलग्न की  है।,जिसके अवलोकन से हरिनाथ जी की विलक्षण प्रतिभा का परिचय मिलता है। विलक्षण प्रतिभा के धनी , महान भाषाविद स्वर्गीय हरिनाथ डे को   विनम्र  नमन।

     --स्वराज करुण

Wednesday, August 5, 2020

कितनी रामकथाएं : कितने महाकाव्य ?

          आलेख : स्वराज करुण
भारत के सांस्कृतिक इतिहास में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की जीवन -गाथा अनुपम और अतुलनीय है। प्राचीन काल में उनके । महान जीवन संग्राम पर  महाकवियों द्वारा  कई रामायणों की रचना की गयी है । अलग -अलग समय में ,अलग -अलग भाषाओं में अनेक रचनाकारों ने  भगवान श्रीराम की कीर्ति -कथा को  अपने -अपने ढंग से प्रस्तुत किया है।
  भारतीय लोक मानस में भगवान श्रीराम की छवि मानव रूप में एक महान लोक नायक की है। वह हमारे  समाज के 'रोल मॉडल'  हैं । उनकी जीवन यात्रा पर केन्द्रित जितने महाकाव्यों की रचना की गई है ,उतनी कृतियाँ संभवतः किन्हीं  और प्राचीन या पौराणिक नायकों पर विश्व साहित्य में कहीं भी  नहीं मिलती ।  उनका सम्पूर्ण जीवन और चरित्र अपने -आप में एक महाकाव्य था ,है और रहेगा,  जिसमें मनुष्य के पारिवारिक ,सामाजिक ,सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन के कई रंग हैं। मनुष्य रूप में उनके जीवन में समय -समय पर इतने  नाजुक मोड़ और इतने गंभीर उतार - चढ़ाव आए ,जिन्हें देखकर किसी भी भावुक और संवेदनशील व्यक्ति के सहज ही  कवि बन जाने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता ।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने  अपने  महाकाव्य 'साकेत '
की दो पंक्तियों में इस भाव को कुछ इस तरह प्रकट किया है ---
   " राम तुम्हारा चरित स्वयं ही महाकाव्य है।
    कोई कवि बन जाए ,सहज संभाव्य है ।।"

  लेकिन मेरे जैसे सामान्य नागरिक रामकथा के नाम से सिर्फ संस्कृत में रचित वाल्मीकीय रामायण और अवधि में गोस्वामी  तुलसीदास जी के 'रामचरितमानस' को ही जानते हैं , जबकि राजेश्री महंत रामसुन्दर दास जी ने अपने ग्रंथ 'श्रीराम संस्कृति की झलक ' में १०८ रामायणों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि यह यथासंभव उपलब्ध सूची है। यानी रामायणों की संख्या इससे भी अधिक हो सकती है । महंत जी के लगभग साढ़े नौ सौ पृष्ठों के इस महा ग्रंथ पर 'पुस्तक चर्चा ' के रूप में मेरा यह आलेख अयोध्या में आज हो रहे श्रीराम मंदिर के भूमिपूजन के अवसर पर शायद मित्रों के लिए प्रासंगिक हो सकता है ।
           
   
 
        दक्षिण कोसल के नाम से इतिहास प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ को मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के ननिहाल के रूप में भी पौराणिक मान्यता प्राप्त है ।यानी यह माता कौशल्या का मायका माना जाता है ।  राजधानी रायपुर के पास ग्राम चंदखुरी को कौशल्या माता का जन्मस्थान माना जाता है ,जहाँ उनका भव्य मंदिर भी है। छत्तीसगढ़ सरकार ने उनके इस मंदिर को और भी अधिक भव्य रूप देने का निर्णय लिया है । राज्य में चिन्हांकित किए गए श्रीराम वन गमन पथ के संरक्षण और संवर्धन के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने प्रोजेक्ट बनाकर काम शुरू कर दिया है।
    छत्तीसगढ़ की  धरती के कण -कण में श्री राम संस्कृति की महिमा व्याप्त है । यहाँ के गाँव-गाँव में ' मानस मण्डलियां ' हैं , जिनमें शामिल बच्चे युवा और बुजुर्ग नवधा रामायण जैसे धार्मिक आयोजनों में और अन्य अवसरों पर उत्साह के साथ  महाकवि तुलसीदास कृत 'रामचरितमानस ' की  संगीतमय प्रस्तुति देते हैं । यहाँ के प्रसिद्ध मानस मर्मज्ञों में धमतरी जिले के स्वर्गीय दाऊद खान और महासमुन्द जिले के पिथौरा निवासी स्वर्गीय शेख करीम का नाम भी सम्मान के साथ लिया जाता है , जिन्होंने इस अंचल में  कई दशकों तक  मानस प्रस्तुतिकरण के जरिये सामाजिक समरसता और सदभावना का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया  (स्वराज करुण ) भगवान श्रीराम के ननिहाल की इस धरती पर उनके आदर्श जीवन की अमिट छाप है , जिसे लेखक राजेश्री डॉ .महंत रामसुन्दर दास ने अपने महाग्रन्थ  ' श्रीराम संस्कृति की झलक ' में बड़ी ख़ूबसूरती से प्रस्तुत किया है ।  इस महाग्रन्थ में  न सिर्फ राजधानी रायपुर बल्कि छत्तीसगढ़ के विभिन्न जिलों के प्रमुख और प्राचीन मन्दिरों का अत्यंत सुरुचिपूर्ण शैली में वर्णन किया गया  है । इनमें श्रीराम और श्री हनुमान जी और भगवान शिव के भी अनेक मन्दिर शामिल हैं ।  राजेश्री महन्त रामसुंदर दास वर्तमान में रायपुर शहर के ४६४ साल पुराने दूधाधारी मठ के प्रमुख महन्त हैं । 
    इस मठ की स्थापना स्वामी बलभद्रदास जी द्वारा संवत  १६१०  में की गयी थी । एक  सुरही गाय  हनुमान जी की एक प्राचीन मूर्ति को अपने दूध से  नहलाती थी ।(स्वराज करुण)उस समय  जो दूध बहकर आता था स्वामीजी उसी का सेवन करते थे । इसलिए उनका नामकरण 'दूध आहारी'  हुआ जो आगे चलकर बोलचाल में दूधाधारी उच्चारित होने लगा । मठ का सञ्चालन गुरु - शिष्य परम्परा से हो रहा है ।
     लेखक राजेश्री डॉ. महन्त रामसुंदर दास इस परम्परा के नवमें गुरु हैं । उनकी इस पुस्तक से  पाठकों को यह भी पता चलेगा कि रायपुर में एक हजार साल से भी ज्यादा पुराना एक मन्दिर है ।यह विरंची नारायण मन्दिर शहर के ब्रम्हपुरी इलाके में स्थित है ,जो छत्तीसगढ़ के प्राचीनतम हनुमान मन्दिरों में से एक है । इसका निर्माण अक्टूबर सन् ९७३ ईस्वी में हुआ था । (स्वराज करुण ) पुस्तक के अनुसार इस मन्दिर में शेषशायी भगवान विष्णु और श्री नृसिंहनाथ जी की भी प्रतिमाएं हैं । (स्वराज करुण )हममें से अधिकांश लोग रामायण के नाम पर सिर्फ वाल्मीकीय  रामायण और तुलसीदास जी के रामचरित मानस से परिचित हैं ,जबकि महन्त रामसुंदर दास के इस महाग्रन्थ से हमें १०८ रामायणों की भी जानकारी मिलती है । वह कहते हैं -जिस प्रकार प्रभु श्रीरामचन्द्रजी अनन्त हैं ,उसी प्रकार रामायण भी अनन्त हैं । 
   राजेश्री डॉ .महन्त ने  इस महाग्रन्थ में वाल्मीकीय रामायण और रामचरित मानस जैसे कालजयी महाकाव्यों के साथ इन   रामायणों की सूची दी है और लिखा है कि यह यथा संभव उपलब्ध सूची है। यानी यह सूची और भी लम्बी हो सकती है। वर्तमान में उनके महाग्रंथ में दी गयी १०८ रामायणों की  सूची इस प्रकार है --
 (1)श्रीवाल्मीकीय रामायण ,(2)श्रीरामचरितमानस ,
 (३)अध्यात्मरामायण , (४) योग वशिष्ठ रामायण , 
(५) श्रीहनुमद रामायण (६) श्रीनारद रामायण 
(७) लघु रामायण (८) वृहद रामायण 
(९)अगस्त्य रामायण (१०) सार रामायण
 (११) देह रामायण (१२) वृत्त रामायण 
(१३) ब्रम्ह रामायण (१४ भारद्वाज रामायण 
(१५) शिव रामायण (१६) क्रौंच रामायण 
(१७) भरत रामायण (१८) जैमिनी रामायण 
(१९)आत्म धर्म रामायण (२०) श्वेतकेतु रामायण 
(२१) जटायु रामायण (२२) रवि रामायण 
(२३) पौलस्ति रामायण (२४) देवि रामायण 
(२५) गुह्यक रामायण (२६) मंगल रामायण 
(२७) विश्वामित्र रामायण (२८) सुतीक्ष्ण रामायण 
(२९ ) सुग्रीव रामायण (३०) विभीषण रामायण 
(३१) आनन्द रामायण  (३२) ब्यासोक्त रामायण
(३३) शुक रामायण (३४) शेष रामायण 
(३५) आगम रामायण (३६) कूर्म रामायण 
(३७) स्कंद रामायण    (३८) अरुण रामायण 
(३९) पद्य रामायण      (४०) धर्म रामायण 
(४१) आश्चर्य रामायण (४२) अदभुत रामायण 
(४३) अत्रि रामायण (४४) अम्बिका रामायण 
(४५) अवधूत रामायण (४६) आचार्य रामायण 
(४७) औसनस रामायण (४८) दुर्वासा रामायण 
(४९) नन्दि रामायण  (५०) ईश्वर रामायण 
(५१) कपिल रामायण (५२) कलि रामायण 
(५३) कालिका रामायण (५४) कुमार रामायण 
(५५) गणेश रामायण (५६) गरुड़ रामायण 
(५७) चम्पू रामायण (५८) जैन रामायण 
(५९) जामवन्त रामायण (६०) नल रामायण 
(६१) नील रामायण (६२) नाटक रामायण 
(६३) नरसिंह रामायण (६४) पद्म रामायण 
(६५) परासर रामायण (६६) बकदाल्भ्य रामायण 
(६७) ब्रम्ह वैवर्तक रामायण (६८) ब्रम्हाण्ड रामायण 
(६९) भविष्योत्तर रामायण (७० ) भागवत रामायण 
(७१) भार्गव रामायण (७२) भारत रामायण 
(७३) मैंद रामायण (७४) मरीचि रामायण 
(७५) माहेश्वर रामायण (७८) मारुति रामायण 
(७९) मुदगल रामायण (८०) लिंग रामायण 
(८१) वरद रामायण (८२) वरुण रामायण 
(८३) वायु रामायण (८४) विष्णु रामायण 
(८५) श्रीरंग रामायण (८६) सनत्कुमार रामायण 
(८७) सनकादि रामायण (८८) वामन रामायण 
(८९) सुकन्द रामायण (९०) सूर्य रामायण 
(९१) हरिवंशीय रामायण (९२) शैव रामायण 
(९३) पंचरात्र रामायण (९४) हनुमन्त  रामायण 
(९७)महाकाली रामायण (९८) अग्नि रामायण 
(९९) महाभारत रामायण (१००) शिव भवानी रामायण 
(१०१) आत्म रामायण (१०२) संवृत रामायण 
(१०३) किशोर रामायण (१०४) नरकुटक रामायण
(१०५) प्रसन्न राघव रामायण (१०६) राधेश्याम रामायण 
(१०७) बरवै रामायण (१०८) अभिनव रामायण 

 लेखक राजेश्री डॉ. महन्त अपने महाग्रंथ 'श्रीराम संस्कृति की झलक ' में 'आत्म निवेदनम' के अंतर्गत  लिखते हैं -
  " छत्तीसगढ़ राज्य का यह सौभाग्य है कि इस पावन धरा को मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राघवेन्द्र सरकार जी का ननिहाल होने का गौरव प्राप्त है ।इसीलिए इस क्षेत्र को कोसल प्रान्त के नाम से  जाना जाता था ।छत्तीसगढ़ के निवासियों में यह भाव आज भी स्पष्ट देखा जा सकता है कि अपनी बहन की संतानों को भगवान श्रीरामजी के रूप में ही भांजा -भांजी मानकर पूजा जाता है ।"
   राजेश्री डॉ .महन्त जी के इस महाग्रन्थ में 53 अध्याय हैं ।  इसके चौथे  अध्याय में जहाँ श्री राम राज्य की विशेषताएं बतायी गयी हैं ,वहीं अध्याय 7 में भारत भूमि के महात्म्य और अध्याय 8 में प्रभु श्री राघवेन्द्र सरकार जी और रावण के युध्द का वर्णन है। इसके अलावा अध्याय 13 में छत्तीसगढ़ प्रदेश के विभिन्न  व्रत ,उत्सवों और त्यौहारों में तथा लोगों के दैनिक जीवन में श्रीराम भक्ति की झलक दिखायी गयी है । 
 अध्याय १४ से अध्याय ४६ तक (पृष्ठ ३२८ से ३७८ तक )छत्तीसगढ़ के प्राचीन और पुरातात्विक महत्व के मंदिरों  सहित विगत कुछ दशकों में स्थापित मंदिरों की  जिलेवार सूची  उनमें से प्रत्येक मंदिर के प्रमुख विवरणों सहित प्रकाशित की गयी  है ,जिनमें कहीं न कहीं ,किसी न किसी रूप में श्रीराम संस्कृति की झलक मिलती है । इनमें अधिकांश श्रीराम जी और हनुमानजी के मंदिर शामिल हैं । राजधानी रायपुर के ऐतिहासिक श्रीदूधाधारी मंदिर के बारे में उन्होंने लिखा है कि इसकी स्थापना का काल सम्वत १६१० माना जाता है। यह स्थान श्रीस्वामी बलभद्र दास जी द्वारा स्थापित है।
     यह भी उल्लेखनीय है कि श्री दूधाधारी मंदिर न्यास ने  छत्तीसगढ़ को शिक्षा के प्रकाश  से आलोकित करने के लिए अपना सराहनीय योगदान दिया है। लेखक ने  पुस्तक में जानकारी दी है कि  इस मंदिर के तत्कालीन प्रमुख राजेश्री महंत वैष्णवदास ने  रायपुर में वर्ष १९५५ में श्री दूधाधारी वैष्णव संस्कृत महाविद्यालय और वर्ष १९५८ में   श्री दूधाधारी बजरंगदास महिला महाविद्यालय और वर्ष १९५८ में ही अभनपुर में बजरंग दास उच्चतर माध्यमिक विद्यालय की स्थापना की थी। बजरंगदास जी उनके गुरु थे। रायपुर में श्रीदूधाधारी वैष्णव संस्कृत महाविद्यालय का शुभारंभ राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की जयंती पर 2 अक्टूबर १९५५ को देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद  के हाथों हुआ था। महंत वैष्णव दास जी ने संस्कृत महाविद्यालय और महिला महाविद्यालय के सुचारू संचालन के लिए आर्थिक स्रोत के रूप में बलौदाबाजार और भाटापारा इलाके में पर्याप्त कृषि योग्य भूमि भी दान की गयी थी। उनके द्वारा बलौदाबाजार के विधि महाविद्यालय को भी आर्थिक दृष्टि से सक्षम बनाने के लिए पलारी के पास कृषि भूमि दान में दी गयी थी।
    मेरे विचार से यह महाग्रन्थ छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक इतिहास का एक विशाल अभिलेख है ,जिसे अपने -आप में एक शोध -ग्रन्थ भी माना जा सकता है ।लेखक ने  यह  पुस्तक अपने गुरु राजेश्री महन्त वैष्णवदास जी को समर्पित की है । रामनवमी के दिन संवत २०७४ यानी ५अप्रेल सन् २०१७ ईस्वी को इसका प्रकाशन हुआ । इस महाग्रन्थ के रचनाकार राजेश्री डॉ.महन्त वर्ष २००८ से २०१३तक  जांजगीर जिले के मालखरौदा से विधायक भी रह चुके हैं और वर्तमान में भी वह उस क्षेत्र के विधायक हैं  ,लेकिन मूल रूप में उनका व्यक्तित्व राजनीतिक  नहीं बल्कि आध्यात्मिक है । उन्होंने अपनी पुस्तक के माध्यम से छत्तीसगढ़ के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक इतिहास को सामने लाने का सराहनीय प्रयास  किया है ।
       -स्वराज करुण