दोस्तों ! मेरा सामान्य ज्ञान बहुत कमजोर है . इसलिए मै अंग्रेजी के 'मार्केट ' और हमारी हिन्दी के 'मार-काट' शब्द में कोई खास फर्क महसूस नहीं कर पा रहा हूँ . उच्चारण में भले ही फर्क लगे ,लेकिन दुनियादारी के नज़रिए से सोचें तो आज की दुनिया में दो अलग-अलग भाषाओं के ये दोनों ही शब्द लिखने और बोलने में अंतर के बावजूद एक ही सिक्के के दो पहलू नज़र आते हैं . अर्थ इनका अलग-अलग है , पर आर्थिक दृष्टि से दोनों एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं . अंग्रेजी में जिसे मार्केट कहते हैं , याने कि बाज़ार, वहां आखिर नहीं दिखने वाले 'मार-काट 'के सिवाय और क्या होता है ? महंगाई की मार झेल रहे हम जैसे बेचारे ग्राहकों पर वहां कीमतों की दोहरी मार पड़ती है कि नहीं और हमारी जेब वहां काटी जाती है कि नहीं ? एक रूपए के सामान को दस रूपए में और पांच रूपए के माल को पच्चीस रूपए में बेच कर क्या 'बाज़ार ' ग्राहकों की जेब नहीं काटता ? यह नेक काम वह कौन से माल पर कितने 'मार्जिन ' से करता है , हमारी भोली आँखें नहीं देख पाती , लेकिन मैंने यह ज़रूर देखा है कि बाज़ार अपने दोनों हाथों में दो तरह के चाकू रखता है - एक चतुराई का चाकू और दूसरा मुनाफे का ! भले ही जेब काटने का यह काम मार्केट बड़ी सफाई से करता है , लेकिन महंगाई की बेरहम और बेशर्म 'मार ' के साथ वह चतुराई और मुनाफे के चाकूओं से हमारा कितना कुछ 'काट' लेता है ? तब मै 'मार्केट ' और 'मार-काट ' में शाब्दिक तौर पर न सही , लेकिन आर्थिक दृष्टि से कोई फर्क क्यों और कैसे महसूस करूं ? मै तो अंग्रेज़ी और हिन्दी के उन गुमनाम शब्द-शिल्पियों को तहे -दिल से धन्यवाद देना चाहता हूँ , जिन्होंने क्रमशः 'मार्केट' और 'मार-काट ' शब्दों का निर्माण किया , जो भौतिक रूप से न सही पर भावनात्मक रूप से तो एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं ! ! खूब जमता है रंग ! जब मिल-बैठते हैं दोनों संग-संग ! मतलब' 'मार्केट' और 'मार-काट' ! फिर तो दोनों ही शब्द एक-दूसरे में समाहित हो कर एक-दूजे के अर्थ को ज़मीन पर सार्थक बनाते नज़र आते हैं ! दोनों शब्दों और उनके निर्माताओं को मेरा सादर प्रणाम ! हे शब्द-शिल्पियों ! मेरा आमंत्रण स्वीकार करो ! मै तुम्हारा अभिनन्दन करना चाहता हूँ !
- स्वराज्य करुण
लेख अच्छा लिखा है ........
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पढ़िए और मुस्कुराइए :-
क्या आप भी थर्मस इस्तेमाल करते है ?
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
ReplyDeleteकहानी ऐसे बनी– 5, छोड़ झार मुझे डूबन दे !, राजभाषा हिन्दी पर करण समस्तीपुरी की प्रस्तुति, पधारें
मार-काट का बढिया विश्लेषण रहा।
इसके साथ गला काट युद्ध भी जारी है।
बेहतरीन लेखन के बधाई
तेरे जैसा प्यार कहाँ????
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें
शब्दों का सदुपयोग :)
ReplyDeleteमार्केट में मार-काट शब्द साम्य से है या नहीं, कौन जाने, लेकिन इसका राशि-साम्य मंदिर, मस्जिद क्यों होने लगता है.
ReplyDeleteसभी टिप्पणीकारों को उनकी स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद .
ReplyDeleteआपकी चिंता जायज है,पर मुझे लगता है की मार्केट को विस्तृत करें तो पूरी दुनिया एक मार्केट है और प्रत्येक व्यक्ति कहीं न कहीं एक सौदागर भी होता है, कुछ खरीदने बेचने का काम भी करता है.नौकरी करने वाला व्यक्ति अपनी योग्यता,प्रतिभा,श्रम बेचता है.मजदूर अपनी मेहनत बेचता है. ये बात अलग है कि कुछ लोग अच्छे सौदागर होते हैं,कुछ बुरे.कुछ लाभ अर्जित करते हैं,कुछ को हानि होती है.यदि हम बुरे सौदागर हैं,तो हमें अच्छा सौदागर बनने की और ध्यान देना चाहिए,अपनी वित्तीय योग्यता बढानी चाहिए, अपने दिमाग को ये जानने में लगाना चाहिए कि अच्छे सौदागर क्या सोचते हैं और कैसे काम करते हैं? अन्यथा जैसा आप कहते हैं, और मै मानता हूँ,कष्ट से मरना ही बुरे सौदागर की नियति होनी चाहिए,और होती भी है. पुनः, मैंने देखा है कि हमारे गाँव के किसान अपनी जमीन को आज बीस लाख में बेचते हैं,और पांच साल बाद उन्ही किसानों के पास बीस रूपए तक नहीं होते, जबकि बाहर से आने वाले लोग बीस रूपए लेकर आते हैं और एक समय के बाद उनके पास लाखों कि संपत्ति होती है. वित्तीय ज्ञान से युक्त और साहसी व्यक्ति ही बाजार का लाभ उठा सकता है,और मुझे लगता है कि उसे उठाना भी चाहिए.ये survival of the fittest नहीं,survival of the wisest है, तो प्रयास करें हम अपनी योग्यता बढाने की -सादर,बालमुकुन्द
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