Monday, September 20, 2010

खुले आम धोखाधड़ी और हम खामोश !

  खुले बाज़ार में खुले आम हो रही धोखाधड़ी के बावजूद आखिर हम और आप खामोश क्यों हैं ? क्या सिर्फ इसलिए कि बैठे-ठाले क्यों किसी से पंगा लिया जाए ? लेकिन एक पल के लिए जरा गंभीरता से विचार करें ! क्या आप और हम दिन-रात सिर्फ इसलिए मेहनत करते हैं कि हमारी मेहनत की कमाई इसी तरह धोखाधड़ी करने वालों की भेंट चढ़ती रहे ? हम दो रूपए का सामान दस रूपए में और दस रूपए का सामान सौ  रूपए में खरीद कर अपने गाढ़े पसीने की कमाई को अपनी ही आँखों के सामने लुट जाने दें और उन सामानों को बनाने और बेचने वाले प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से मालामाल  होते रहें ? क्या हम इन धोखेबाज लुटेरों को हमारी  जेबों पर खुले आम डाका डालने दें ? महंगाई डायन की बेरहम मार से वैसे भी  हम  खस्ताहाल  हैं .नीम पर करेला वाली बात यह कि ये लुटेरे हमारी बची-खुची कमाई को भी निचोड़ लेना चाहते हैं  .
   आखिर कौन हैं ये धोखेबाज अपराधी,  जिनके लिए यह सम्पूर्ण मानव-समाज  मुनाफे का खुला बाज़ार बन गया है ,या नहीं तो बना दिया गया है, जहाँ  दया ,करुणा और परोपकार जैसे मानवीय मूल्य भी अब  मुनाफे के तराजू पर तौले जाते है !  यही कारण है कि बाज़ार में किसी भी सामान को बेचने की कीमत तय करने का अधिकार तो उसे बनाने और बेचने वालों के हाथ में है ,लेकिन उसे खरीदने वाले हम ग्राहकों को यह अधिकार नहीं है कि हम उनसे यह पूछ सकें कि दरअसल उसे बनाने में खर्चा कितना आया है, या लागत कितनी आयी है ?  विक्रय -मूल्य तो घोषित रहता है ,पर लागत मूल्य को बड़ी चालाकी से छुपा लिया जाता है . सिर्फ इसलिए कि मनमाने तरीके से मुनाफ़ा कमाने और मालामाल होने का रहस्य तो इसी लागत-मूल्य में छुपा हुआ है .क्या यह अजीब नहीं लगता कि  खुले बाज़ार की अर्थ-व्यवस्था में विक्रय-मूल्य तो खुला हुआ है ,लेकिन  लागत-मूल्य की जानकारी  गोपनीयता के गर्भ में कैद है , जबकि सूचना के अधिकार और पारदर्शिता के इस युग में हम यह दावा करते नहीं थकते कि हम एक खुले समाज में रहते हैं !
  मिसाल के तौर पर पीने के पानी को ही देखें, जिसे एक अनमोल तोहफे  के रूप में कुदरत ने हमें   मुफ्त में दिया है , लेकिन बड़ी-बड़ी कम्पनियां इंसान को मिले ईश्वर  के  इस वरदान को छीन कर खुले आम पानी का व्यापार कर रही हैं.  कुदरत ने नदी-नाले भी धरती को और धरती-पुत्रों को मुफ्त में दिए हैं , लेकिन ये कम्पनियां उन्हें भी अपनी जागीर समझ कर उन पर  कब्जा कर रही हैं और वहां से मुफ्त का पानी खींच कर उसे .प्लास्टिक की पारदर्शी बोतलों में भर कर एक-एक बोतल पानी पंद्रह से बीस रूपए में बेच कर करोड़ों का मुनाफ़ा लूट रही हैं .रेल्वे स्टेशनों , बस-स्टेशनों और विमान-तलों में , या फिर और कहीं भी वक्त-ज़रुरत पर हम मजबूर होकर पानी का यह बोतल खरीदते हैं , जिसे बनाने में निर्माता को कितनी लागत आयी ,यह जानने की न तो हमें कोई दिलचस्पी होती है और न ही फ़ुरसत ! अगर हो भी तो हम अकेले कर भी क्या लेंगे  ?
   एक ब्रांडेड कंपनी के टूथपेस्ट का ट्यूब और गहरे चटक रंग का उसका डिब्बा मेरे हाथों में है , डिब्बे पर टूथपेस्ट की तथाकथित खूबियों का अंग्रेज़ी में बखान करते हुए मात्र  डेढ़ सौ ग्राम की  इस सामग्री  की अधिकतम खुदरा कीमत छापी गयी है - सत्तावन रुपए. एक अन्य कंपनी के ब्रांडेड केश तेल की  सिर्फ एक सौ बीस मिलीलीटर की एक छोटी -सी बोतल पर उसका  अधिकतम खुदरा मूल्य एक सौ छत्तीस रुपए अंकित है.  फ़ूड सप्लीमेंट और साबुन ,तेल , टूथपेस्ट आदि घरेलू सामान बेचकर दुनिया भर में  अरबों -खरबों डालरों का व्यापार कर रही एक नेट वर्किंग कंपनी का कोई भी सामान भारतीय रुपए के हिसाब से  सौ -दो सौ रुपए से कम कीमत का नहीं  होता .ज़रा ध्यान दीजिये ,  टूथपेस्ट हो या केश तेल ,  नहाने का साबुन हो या कपड़ा धोने का पावडर  . पैकेट या डिब्बा  चाहे चाय का हो या चीनी का, या फिर जीवनरक्षक दवाओं का ,  उन पर विक्रय मूल्य की जानकारी तो प्रिंट कर दी जाती है , लेकिन उनकी प्रति यूनिट लागत के बारे में कोई सूचना नहीं होती और न ही हम ग्राहक इस बारे  में जानने की कोशिश करते हैं ?
        काफी ज़द्दोज़हद के बाद कुछ साल पहले  जब क़ानून बना, तब कहीं  आज ग्राहक को प्रिंट रेट के नाम पर  भले ही वह सही हो या गलत, इस तथाकथित अधिकतम खुदरा मूल्य की जानकारी मिल रही है.लेकिन क्या हम कभी यह जानने की कोशिश करते हैं कि कंपनियों अथवा उत्पादकों द्वारा अपने किसी भी प्रोडक्ट पर अधिकतम खुदरा कीमत के साथ उसका लागत मूल्य क्यों नहीं छपवाया जाता ? अपने उत्पादन की लागत बताने में उन्हें संकोच क्यों होता है ? जब कोई भी कंपनी अपने किसी प्रोडक्ट के  प्रत्येक पांच,दस, पचास या सौ -डेढ़ सौ ग्राम से लेकर हजार -दो हज़ार ग्राम या उससे भी ज्यादा वज़न के पैकेट पर खुदरा विक्रय मूल्य छाप सकती हैं ,तो लागत  मूल्य छापने में क्या हर्ज़ है ? साथियों ! क्या  एक ग्राहक होने के नाते हममे से कोई यह बता सकता है कि उसके द्वारा खरीदी गयी अधिकतम खुदरा मूल्य छपी किसी वस्तु की अधिकतम निर्माण लागत क्या होगी ? एक बड़े शहर के मेडिकल बाज़ार में जब कुछ माह पहले अधिकारियों ने छापा मारा तो वे यह देख कर  हैरान रह गए कि सामान्य सर्दी -जुकाम में इस्तेमाल की जाने वाली एक या दो रुपए की टेबलेट कई गुना अधिक कीमत पर बेची जा रही थी. केस भी दर्ज हुए ,लेकिन बाद में क्या हुआ, कोई खबर नहीं आयी.यह भी सोचने वाली बात है कि बहुत से डॉक्टर किसी एक बीमारी के इलाज के लिए मरीज़ को  काफी महंगी दवाई लिखकर  पर्ची थमा देते  हैं ,जबकि उसी बीमारी के लिए कुछ डॉक्टर सस्ती दवाई से मरीज़ को ठीक कर देते हैं.  मेडिकल मार्केट में एक ही बीमारी की एक दवा कई  अलग-अलग नामों से अलग -अलग प्रिंट रेट पर बिकती है. कपड़े खरीदने जाएँ तो वहां  अलग -अलग कंपनियों के रेडीमेड कपड़े चाहे  शर्ट हो या पेंट , साड़ी हो या सलवार , एक ही प्रकार की वस्तु होने के बावजूद उनका विक्रय मूल्य अलग-अलग होता है .    वही हाल मकान अथवा भवन निर्माण उद्योग का है. इसमें ज़मीन की कीमत ,  सीमेंट , रेत, ईट -गारे सहित कुछ  अन्य निर्माण सामग्री  और मानव श्रम को मिलाकर हिसाब लगाएं तो  मालूम होगा कि वास्तविक लागत से कई गुना ज़्यादा कीमत पर मकान बेचा जाता है. नया ज़माना उपभोक्ता संस्कृति का है . बाज़ार में तो हर व्यक्ति उपभोक्ता है . चाहे फैक्ट्री का मालिक हो या कोई सामान्य मजदूर ,  जिंदा रहने के लिए हर किसी को रोटी ,कपड़ा और मकान चाहिए . इलाज के लिए औषधि चाहिए . लेकिन ऐसा लगता है कि उत्पादन कंपनियों को इस नैतिकता से कोई लेना -देना नहीं है  कि उपभोक्ता के रूप में हर इंसान एक -दूसरे पर आश्रित है.
    बिस्कुट , ब्रेड  सूखी मिठाई, शरबत   जैसी खाने -पीने की कई चीजें तो अपनी वास्तविक लागत  से कई गुना ज्यादा कीमत पर बेची जा रही हैं . लगभग दो दशक पहले महाराष्ट्र विधान सभा में  वहां के पूर्व वित्त मंत्री डॉ. श्रीकांत जिचकर ने २३ जुलाई १९९० को यह मामला उठाया था कि एक ब्रांडेड कंपनी के साबुन का उत्पादन खर्च प्रति नग सिर्फ एक रुपए आता है ,जबकि  लोकल टैक्स सहित वह मुम्बई में पांच रुपए में और  नागपुर में पौने छह रुपए में बिकता है .उन्होंने तथ्यों के साथ यह भी बताया था कि एक ब्रांडेड कंपनी का स्कूटर उन दिनों के हिसाब से फैक्ट्री में सात  हज़ार में तैयार होकर बाज़ार में साढ़े तेरह हज़ार रुपए में बेचा जा रहा है   और एक ब्रांडेड कंपनी की कार छियासठ हज़ार में बन कर एक लाख बाईस हज़ार में बिक रही है. डॉ. जिचकर ने  एकदम सही कहा था कि वास्तव में किस वस्तु पर उत्पादन खर्च कितना है , यह जानने का अधिकार आम जनता को मिलना चाहिए और इसके लिए कानूनी प्रावधान भी किया जाना चाहिए . ज़रा पीछे मुड़कर यह देखना भी दिलचस्प होगा कि उन्हीं दिनों संसद में मुखर वक्ता और प्रखर सांसद श्री अटलबिहारी बाजपेयी ने भी इस ज्वलंत मसले पर आवाज़ उठाई थी  लगभग बीस वर्ष पहले समाचार पत्रों में कुछ पाठकों ने 'सम्पादक के नाम पत्र ' जैसे  वैचारिक स्तंभों में इस विषय पर विचार -विमर्श का एक रचनात्मक अभियान भी चलाया था. जिसकी शुरुआत पोस्टकार्ड पर मेरे लिखे हुए एक छोटे से पत्र से हुई  थी. उसकी प्रतिक्रिया में कई पत्र छपे .ऐसे ही एक पत्र में  महेश पालीवाल ने लिखा- ' अगर निर्माताओं द्वारा वस्तुओं में लागत मूल्य नहीं लिखा जाता , तो इसका साफ़ -साफ़ मतलब है कि उपभोक्ताओं के प्रति खुले आम बेईमानी की जा रही है'.सागर विश्वविद्यालय के छात्र समीर की प्रतिक्रिया थी-' वस्तुओं में विक्रय मूल्य तो अंकित किया जाता है ,लेकिन लागत मूल्य को गोपनीय रखना आम जनता के प्रति सरासर बेईमानी के सिवाय और कुछ नहीं .'
                     यह  बात सही है कि उत्पादन की  प्रक्रिया से गुज़रकर बाज़ार पहुँचने तक   मज़दूरी भुगतान , परिवहन खर्च , और लोकल टैक्स आदि मिलाकर किसी वस्तु की कीमत तय होती है.कच्चे माल का खर्च भी उसमे जोड़ना पड़ता है . उस पर उत्पादक कंपनी और दुकानदार का मुनाफ़ा भी जुड़ता है. इन सबको जोड़कर किसी वस्तु का अगर अधिकतम खुदरा मूल्य तय किया जा सकता है  और उसे वस्तु के पैकेट पर प्रिंट किया जा सकता है , तो लागत मूल्य तय करने और उसे अपने प्रोडक्ट में छापने में  भला क्या दिक्कत है ?  मुझे लगता है कि लागत मूल्य की गोपनीयता में ही कंपनियों के अधिकतम और अंधाधुंध मुनाफे का रहस्य छिपा है और यही राज़ है  डायन की तरह  आज की बढ़ती महंगाई का. देश में सूचना का अधिकार तो लागू हो गया है ,   अब देखना यह है कि  उपभोक्ताओं को लागत मूल्य जानने का  अधिकार कब मिलेगा  ?   आपका क्या कहना है ?    
                                                     

10 comments:

  1. तीन बातें बहुत साफ हैं-
    एक तो ये कि हम सभी 'हम' नही हैं केवल 'मैं' हैं ! दूसरी ये कि उपभोक्ता हित के कानूनों से अनभिज्ञ हैं और तीसरी तथा सबसे बडी बात ये कि निर्माताओं को सत्ताधीशों तथा नौकरशाहों का अंधसमर्थन प्राप्त है !

    अच्छा और सार्थक आलेख !

    ReplyDelete
  2. बहुत अच्छे तथ्यों के साथ आपने अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया है .......आपका कहना सही है बदलाव केलिए हमारी जागरूकता बहुत ज़रूरी है ....सार्थक लेखन पर आभार
    यहाँ भी पधारे
    विरक्ति पथ-3

    अनुष्का

    ReplyDelete
  3. टिप्पणियों के लिए आप सबको धन्यवाद. शायद हम इस विषय पर अपनी बात किसी उपभोक्ता-अदालत में भी रख सकते हैं क्या ख़याल है आपका ?

    ReplyDelete
  4. मठ सेठ और सत्ता का गठजोड़ जो करा दे वो कम है.
    हमेशा इनका ही राज रहा है.
    उपभोक्ता को ठगने के लिए इतने जल फैलाये जाते हैं की वह फंस ही जाता है.

    आभार

    ReplyDelete
  5. यह सब झूठे बाजारवाद का खेल है . इसके लिए जन-जागरुकता जरूरी है . आप ने जगाया आपको धन्यवाद .

    ReplyDelete
  6. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  7. ललित जी, विवेक जी और अशोक जी सहित आप सभी टिप्पणीकारों को बहुत-बहुत धन्यवाद. यह भी निवेदन है कि इस महत्वपूर्ण विषय पर आप भी अपने ब्लॉग के जरिए अपने विचार प्रस्तुत कर जनमत बनाने का प्रयास करें ,क्योंकि यह विषय देश और दुनिया के करोड़ों -अरबों उपभोक्ताओं के हितों से जुड़ा हुआ है,जिनमे आप और हम भी शामिल हैं . हम सब कहीं न कहीं ,किसी न किसी वस्तु के उपभोक्ता हैं, और बाज़ार से खरीदी जाने वाली हर वस्तु का लागत-मूल्य जानना हमारा अधिकार है. मेरा ख़याल है कि महंगाई और मुनाफे का रहस्य लागत-मूल्य में ही छुपा हुआ है .

    ReplyDelete