Wednesday, December 21, 2022

(आलेख) आग उगलते खेतों में धरती माता का जलता हुआ आँचल


(आलेख : स्वराज करुण )

फसल उगाने वाले खेत आग उगलने लगें तो इससे दुःखद, दर्दनाक और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति और क्या होगी? हालांकि ऐसा सभी जगह नहीं हो रहा है ,लेकिन जहाँ कहीं भी हो रहा है ,वह कृषि उत्पादन और पर्यावरण के भविष्य के लिए बहुत ख़तरनाक़ है। देश के कुछ राज्यों के कुछ इलाकों में इन दिनों  खरीफ़ फसल (धान) की कटाई के बाद 

खेतों में जलाई जा रही  पराली यानी फसल-अवशेषों  की आग से धरती माता का आँचल जलने लगा  है , यानी खेती की ज़मीन झुलसती जा रही है और उसकी उपजाऊ शक्ति नष्ट हो रही है। विडम्बना यह कि धरती माता के आँचल को उसके ही  मेहनतकश बेटे यानी हमारे  कर्मठ किसान आग के हवाले कर रहे हैं। सरकारों की ओर से की जा रही अपीलों और तमाम अच्छी योजनाओं के बावज़ूद कुछ इलाकों में पराली जलाने की प्रवृत्ति कम होने का नाम नहीं ले रही है। इस आग से,  मिट्टी में रहने वाले राइजोबियम बैक्टीरिया  ख़त्म हो रहे हैं ,जो नाइट्रोजन को मिट्टी में पहुँचा कर उसकी उर्वरता को बढ़ाते थे। पराली की आग से केंचुए भी मरते जा रहे हैं ,जो खेतों की ज़मीन को भुरभुरी बनाकर फसलों की वृद्धि में सहायक हो सकते थे। यह दृश्य कल दोपहर छत्तीसगढ़ में पिथौरा तहसील के अंतर्गत ग्राम  लहरौद से नयापारा  (खुर्द) जाने वाले रास्ते के किनारे के खेतों का है। पराली जलाकर किसान शायद भोजन के लिए घर चले गए थे ,क्योंकि  आसपास कोई नज़र नहीं आ रहा था और खेतों में आग धधक रही थी।


                                                           


                               पराली जलाए बिना खेती पहले भी होती थी : अब क्या हो गया ?

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       खेती हजारों वर्षों से हो रही है ,लेकिन हमारे देश में पराली जलाने की यह कुप्रथा विगत छह-सात साल से देखी जा रही है। किसान जब पराली नहीं जलाते थे , उनकी खेती  तब भी होती थी और बहुत अच्छे से होती थी। अब क्या हो गया? पराली जलाने की बीमारी  पंजाब और हरियाणा से निकलकर  उनके पड़ोसी दिल्ली और उत्तरप्रदेश  सहित देश के कई राज्यों में फैल गयी है ।कुछ वर्ष पहले आकाशवाणी से प्रसारित अपने मासिक कार्यक्रम  'मन की बात' में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी किसानों से खेतों में पराली नहीं जलाने की अपील की थी और कहा था कि पराली जलाने से धरती माता की त्वचा झुलस जाती है। मैंने दो सप्ताह पहले सम्बलपुर(ओड़िशा) प्रवास के दौरान हीराकुद बाँध की एक नहर के किनारे के कुछ खेतों में भी  पराली जलने के निशान देखे ।छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों में भी यह समस्या है। प्रभावित राज्य सरकारें किसानों से अपील कर रही हैं कि वे पराली न जलाएँ ,उन्हें पराली के वैकल्पिक उपयोग के लिए भी प्रोत्साहित किया जा रहा है ,लेकिन कई  किसान इस ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं।  छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल किसानों को पराली नहीं जलाने और सरकारी गौठानों के लिए पैरा दान करने की समझाइश दे रहे हैं ,आम सभाओं में भी  अपील  कर रहे हैं,जिसका  सकारात्मक असर  कई गाँवों में देखा गया है ,फिर भी कुछ गाँवों में किसान पराली जला रहे हैं। इसके फलस्वरूप खेतों से उड़कर पराली का धुआँ दूर -दूर तक फैल रहा है ,जिससे गाँवों की स्वच्छ हवा प्रदूषित हो रही है। मेरे विचार से सरकारों के अलावा यह स्थानीय ग्राम पंचायतों के पंच-सरपंचों और संबंधित इलाके के  कृषि अधिकारियों की भी ज़िम्मेदारी है कि वे किसानों को पराली नहीं जलाने के लिए  समझाएँ  और उन्हें पराली के वैकल्पिक उपयोगों के लिए प्रोत्साहित करें। इस विषय में किसानों में जागरूकता  लाने के लिए समाचार पत्रों के साथ -साथ रेडियो स्टेशनों और टीव्ही चैनलों का भी सहयोग लिया जाए।  

                                   पराली के धुएँ के बीच सुबह की सैर 

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     आजकल गाँवों के लोग भी सुबह की सैर के लिए निकलते हैं ,तब उन्हें पराली के धुएँ से प्रदूषित हवा में साँस लेते हुए निकलना पड़ता है।पहली नज़र में दूर से तो ऐसा लगता है कि कोहरा है ,लेकिन नज़दीक जाने पर पता चलता है कि यह पराली का धुआँ है ,जो दोपहर और शाम तक भी बना रहता है। आम तौर पर गाँवों की हवा स्वच्छ होती है ,लेकिन उसके साफ सुथरे अमृत तुल्य प्राकृतिक ऑक्सीजन में  पराली के धुएँ से कार्बन डाइऑक्साइड का ज़हर घुल जाता है ,जो निश्चित रूप से ग्रामीणों की सेहत के लिए भी हानिकारक है। खुद पराली जलाने वाले किसानों के स्वास्थ्य के लिए भी यह नुकसानदायक है।  

                                    आख़िर क्या है किसानों की मजबूरी ?

        यह भी विचारणीय है कि किसान आख़िर अपने खेतों में पराली क्यों जलाते हैं ? क्या इसके पीछे उनकी कोई मज़बूरी है ?  इसे भी समझना होगा। कुछ दिनों पहले एक किसान ने मुझसे कहा कि खेती के बढ़ते मशीनीकरण के फलस्वरूप गाँवों में पशुधन की संख्या कम होती जा रही है । अब खेतों की जुताई ट्रैक्टरों से और फसलों की कटाई हार्वेस्टरों से होने लगी है। इससे  पशुओं की उपयोगिता और उनकी संख्या भी कम हो गयी है । पहले पराली (पैरा , पुआल ) का उपयोग पशु चारे के रूप में होता था। पशुओं की संख्या घटने के कारण अब  इसका इस्तेमाल बहुत सीमित मात्रा में होता है। इसके अलावा उन्नत कृषि तकनीक और रासायनिक खादों की वजह से फसलों का उत्पादन भी काफी बढ़ गया है। तो कटाई के बाद फसल अवशेषों का क्या किया जाए ? उन्हें खेतों से उठाने में  खर्चा बहुत लगता है। किसान का कहना बहुत हद तक ठीक लगा लेकिन मेरे विचार से देश में  दूध के उत्पादन को अधिक से अधिक  बढ़ावा मिले तो गोवंश की आबादी बढ़ सकती है। इससे पशु चारे के रूप में पैरा की खपत बढ़ेगी। दूध उत्पादक सहकारी समितियों के माध्यम से राज्य सरकारें इस दिशा में प्रयास कर रही हैं। डेयरी फार्मिंग में भी किसानों की मदद के लिए अनेक सरकारी योजनाएँ हैं। 

                       पराली के अनेकानेक वैकल्पिक उपयोग : बन सकती है जैविक खाद

   इंटरनेट को खंगाला जाए तो पराली के वैकल्पिक उपयोगों के बारे में एक से बढ़कर एक बेहतरीन जानकारी मिलेगी ,जिन्हें आजमाया जाए तो समस्या काफी हद तक कम हो सकती है। पराली को जलाने के बजाय  खेतों में ही सड़ाकर जैविक खाद बनाई जा सकती है।इसके लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने 'पूसा डिकम्पोजर' नामक दवा विकसित की है ,जो तरल रूप में और पावडर तथा कैप्सूल के रूप में है। फसल कटाई के बाद इसे खेतों में डालकर पराली को जैविक खाद में परिवर्तित किया जा सकता है। इससे पर्यावरण भी स्वच्छ और स्वस्थ रहेगा। न्यूज ऑन एयर (News On Air)नामक वेबसाइट ने 5 नवम्बर 2022 को इस संबंध में एक विस्तृत ख़बर दी है।इसमें बताया गया है कि 'पूसा डिकम्पोजर' के उपयोग के बारे में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने  दिल्ली में एक दिवसीय कार्यशाला का भी आयोजन किया था।

                                   मशरूम उत्पादन में पैरा का इस्तेमाल

   मशरूम की खेती में भी पैरा का उपयोग होता है। हमारे इधर तो 'पैरा फुटू' के नाम से यह ख़ूब लोकप्रिय है। पैरा आधारित मशरूम की खेती करके भी किसान अच्छी कमाई कर सकते हैं। कई किसान कर भी रहे हैं। अगर इस पद्धति से मशरूम उत्पादन को और भी अधिक बढ़ावा  मिले तो पराली जलाने की समस्या कम हो सकती है ।

                                    पराली से बन सकते हैं कप-प्लेट : 

                         आईआईटी दिल्ली के छात्रों का सराहनीय प्रयोग 

    एक अन्य वेबसाइट' इंडिया साइंस वायर' (India Science Wire) में 16 अक्टूबर 2018 को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई .आई. टी .)दिल्ली के इन्क्यूबेशन सेंटर से जुड़े तीन छात्रो  के  स्टार्टअप ने पराली जैसे फसल अवशेषों से कप -प्लेट (दोना पत्तल)बनाने की तकनीक विकसित की है।इस पहल की शुरुआत आईआईटी-दिल्ली के छात्र अंकुर कुमार, कनिका प्रजापत और प्रचीर दत्ता ने मई 2014 में ग्रीष्मकालीन परियोजना के रूप में शुरू की थी, जब वे बीटेक कर रहे थे। रिपोर्ट के अनुसार -  "उनका विचार था कि फसल अपशिष्टों से जैविक रूप से अपघटित होने योग्य बर्तन बनाने की तकनीक विकसित हो जाए तो प्लास्टिक से बने प्लेट तथा कपों का इस्तेमाल कम किया जा सकता है। इसके लिए उन्होंने एक प्रक्रिया और उससे संबंधित मशीन विकसित की और पेटेंट के लिए आवेदन कर दिया। अंकुर कुमार ने बताया कि "जल्दी ही हमें यह एहसास हो गया कि मुख्य समस्या कृषि कचरे से लुगदी बनाने की है, न कि लुगदी को टेबलवेयर में परिवर्तित करना।"लगभग उसी समय, दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण की समस्या उभरी और पराली जलाने से इसका संबंध एक बड़ा मुद्दा बन गया। उसी दौरान हमने इस नयी परियोजना पर काम करना शुरू किया था। हमारी कोशिश कृषि अपशिष्टों से लुगदी बनाना और उससे लिग्निन-सिलिका के रूप में सह-उत्पाद को अलग करने की थी। 

      इन छात्रों का कहना था --"हमने सोचा कि अगर किसानों को उनके फसल अवशेषों का मूल्य मिल जाए तो वे पराली जलाना बंद कर सकते हैं। इस प्रकार सितंबर 2017 में प्रोजेक्ट स्थापित किया गया। अभी स्थापित की गई यूनिट में प्रतिदिन 10 से 15 किलोग्राम कृषि अपशिष्टों का प्रसंस्करण किया जा सकता है।इस प्रोजेक्ट के  संस्थापकों का कहना है कि अब वे इससे जुड़ा पायलट प्लांट स्थापित करने के लिए तैयार हैं, जिसकी मदद से प्रतिदिन तीन टन फसल अवशेषों का प्रसंस्करण करके दो टन लुगदी बनायी जा सकेगी। इस तरह के प्लांट उन सभी क्षेत्रों में लगाए जा सकते हैं, जहां फसल अवशेष उपलब्ध हैं।अंकुर के अनुसार, "अगर रणनीतिक पार्टनर और निवेश मिलता है तो बाजार की मांग के अनुसार हम उत्पादन इकाइयों में परिवर्तन करके उसे फाइबर और बायो-एथेनॉल जैसे उत्पाद बनाने के लिए भी अनुकूलित कर सकते हैं।" चूंकि' इंडिया साइंस वायर ' की  यह रिपोर्ट लगभग चार साल पुरानी है ,इसलिए बाद में  क्या हुआ ,इसकी जानकारी फिलहाल मुझे नहीं है। लेकिन इतना तो तय है कि पराली से कप प्लेट भी बन सकते हैं। 

                              सड़क निर्माण में भी काम आएगी पराली 

               इस बीच इंटरनेट पर उपलब्ध 9 नवम्बर 2022 की एक ख़बर के अनुसार केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि पराली से बायो बिटुमिन बनाकर सड़क निर्माण में उसका इस्तेमाल किया जा सकता है। उन्होंने मध्यप्रदेश में कुछ सड़क परियोजनाओं का शिलान्यास करते हुए कहा कि यह तकनीक अगले दो -तीन महीने में आ जाएगी।

                                ताप बिजली घरों में भी हो सकता है पराली का इस्तेमाल

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 इसके अलावा पराली के इस्तेमाल से ताप बिजली घरों में कोयले की खपत भी कम हो सकती है। इससे पर्यावरण संरक्षण में भी मदद मिलेगी।वेबसाइट 'डाउन टू अर्थ' की 14 मई 2020 की एक रिपोर्ट में बायोमास के रूप में पराली का इस्तेमाल कोयला आधारित ताप बिजली संयंत्रों में किए जाने की संभावनाओं पर प्रकाश डाला गया है। इसमें बताया गया है कि वर्ष 2017 में केन्द्र सरकार ने सभी राज्यों को निर्देश दिए थे कि वे अपने ताप बिजली घरों में कोयले के साथ 5 से 10 प्रतिशत बायोमास पैलेट्स(छर्रे या गोली)का इस्तेमाल करें। केन्द्र सरकार के सार्वजनिक उपक्रम राष्ट्रीय ताप बिजली निगम (एनटीपीसी)ने दादरी स्थित अपने संयंत्र में कोयले के साथ 10 प्रतिशत बायोमास का उपयोग किया था । एनटीपीसी ने देश भर के अपने 21 ताप बिजली घरों में इसका प्रयोग शुरू किया था । आगे क्या हुआ ,इसके बारे में  एनटीपीसी वाले ही बेहतर बता पाएंगे ,लेकिन यह तो तय है कि ताप बिजली घरों में कोयले के साथ कुछ मात्रा में पराली का इस्तेमाल किया जा सकता है।

              दोस्तों , मेरी कोशिश होगी कि पराली के विभिन्न लाभप्रद उपयोगों के बारे में समय -समय पर आपको जानकारी देता रहूँ। आप चाहें तो खुद भी इंटरनेट पर सर्च करके इस संबंध में काफी उपयोगी सूचनाएँ प्राप्त कर सकते हैं।  (स्वराज करुण )

Saturday, December 17, 2022

(स्मृति-शेष ) तपस्वी साहित्यकार लाला जगदलपुरी ; 102 वीं जयंती


 (आलेख : स्वराज्य करुण )

आधुनिक इतिहास के एक ऐसे दौर में ,जब देश के अधिकांश वनांचलों में मुद्रण और प्रकाशन सुविधाओं का नितांत अभाव था , छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल बस्तर अंचल में एक साहित्यकार इन सुविधाओं की फिक्र छोड़कर बड़ी तल्लीनता से साहित्य साधना में लगे हुए थे।  मैं याद कर रहा हूँ साहित्य महर्षि लाला जगदलपुरी को , जिन्होंने  93 साल की अपनी  जीवन यात्रा के दस ,बीस या तीस नहीं ,बल्कि पूरे 77 साल एक तपस्वी के रूप में साहित्य की देवी माँ सरस्वती की साधना में लगा दिए। सचमुच वह एक तपस्वी साहित्यकार थे ,जिन्होंने   देश और दुनिया के साहित्य भण्डार को अपनी रचनाओं के अनमोल रत्नों से समृद्ध बनाया। 

लाला जी हिन्दी  और छत्तीसगढ़ी भाषाओं के साथ -साथ बस्तर अंचल में प्रचलित हल्बी और भतरी भाषाओं के भी साहित्यकार थे।  आज अगर वे हमारे बीच होते तो अपनी ज़िन्दगी के सफ़र के 102 साल पूरे करके 103 वें वर्ष में प्रवेश कर चुके होते।  लेकिन  उनकी तकरीबन पौन सदी से भी अधिक लम्बी  साहित्य साधना विगत 14 अगस्त 2013 को अचानक हमेशा के लिए थम गयी ,जब अपने गृहनगर जगदलपुर में उनका देहावसान हो गया। तत्कालीन बस्तर रियासत की राजधानी रहे इसी जगदलपुर में उनका जन्म 17 दिसम्बर 1920 को हुआ था। उनका साहित्य सृजन 16 वर्ष की उम्र में किशोरावस्था से ही प्रारंभ हो चुका था। हिन्दी  और हल्बी पत्रकारिता में भी उनका सक्रिय योगदान रहा। उन्होंने वर्ष 1948 से 1950 तक दुर्ग के साप्ताहिक 'ज़िन्दगी' और वर्ष 1950 में रायपुर के ठाकुर प्यारेलाल सिंह के अर्ध साप्ताहिक 'राष्ट्रबन्धु' सहित देश के अनेक दैनिक समाचार पत्रों को बस्तर -संवाददाता के रूप में अपनी सेवाएँ दी। लालाजी तुषारकान्ति बोस द्वारा प्रकाशित बस्तर के प्रथम हल्बी साप्ताहिक 'बस्तरिया' के  भी सम्पादक रहे। इसका प्रकाशन वर्ष 1984 में प्रारंभ हुआ था।

                                


लाला जगदलपुरी की  प्रमुख हिन्दी  पुस्तकों में वर्ष 1983 में प्रकाशित  ग़ज़ल संग्रह 'मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते परिवेश ',   वर्ष 1992 में प्रकाशित काव्य संग्रह 'पड़ाव ',वर्ष 2005 में प्रकाशित आंचलिक कविताएं और वर्ष 2011 में प्रकाशित 'ज़िन्दगी के लिए जूझती गज़लें ' तथा 'गीत धन्वा 'शामिल हैं। उनके द्वारा सम्पादित चार कवियों  के सहयोगी काव्य संग्रह 'हमसफ़र ' का प्रकाशन वर्ष 1986 में हुआ। इसमें बहादुर लाल तिवारी , लक्ष्मीनारायण पयोधि , गनी आमीपुरी और स्वराज्य करुण की हिन्दी कविताएं शामिल हैं। मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी भोपाल  द्वारा वर्ष 1994 में प्रकाशित लाला जगदलपुरी की पुस्तक 'बस्तर : इतिहास एवं संस्कृति ' ने छत्तीसगढ़ के इस आदिवासी अंचल पर केन्द्रित एक प्रामाणिक संदर्भ ग्रंथ के रूप में काफी प्रशंसा अर्जित की। वर्ष 2007 में इस ग्रंथ का तीसरा संस्करण प्रकाशित किया गया। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर हरिहर वैष्णव द्वारा सम्पादित एक महत्वपूर्ण पुस्तक " लाला जगदलपुरी समग्र ' का भी प्रकाशन हो चुका है। छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी रायपुर द्वारा लाला जी की  पुस्तक 'बस्तर की लोकोक्तियाँ ' वर्ष 2008 में प्रकाशित की गयी। उनकी हल्बी लोक कथाओं का संकलन लोक चेतना प्रकाशन जबलपुर द्वारा वर्ष 1972 में प्रकाशित किया गया। लाला जी ने प्रेमचंद की प्रमुख कहानियों का  भी हल्बी में अनुवाद किया था । यह अनुवाद संकलन 'प्रेमचंद चो बारा कहनी ' शीर्षक से वर्ष 1984 में वन्या प्रकाशन भोपाल ने प्रकाशित किया था।  ।  लालाजी की अधिकांश हिन्दी कविताओं में इस युग की निर्मम सामाजिक -आर्थिक विसंगतियों को लेकर गहरी वेदना की झलक मिलती है।  इस दौर की यह क्रूरतम विडम्बना है कि आज सज्जन कहलाने वाले लोग दुर्जनों की पीठ ठोंकते नज़र आते हैं। यह इस दौर की बेरहम त्रासदी है ,जिसकी मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति वर्ष 1984 में प्रकाशित लालाजी के ग़ज़ल संग्रह 'मिमियाती ज़िन्दगी -दहाड़ते परिवेश' में शामिल इस रचना में मिलती है --


दुर्जनता की पीठ ठोंकता 

सज्जन कितना बदल गया है !

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दहकन का अहसास कराता,चंदन कितना बदल गया है , 

मेरा चेहरा मुझे डराता, दरपन कितना बदल गया है !

आँखों ही आँखों में  सूख गई हरियाली अंतर्मन की ,

कौन करे विश्वास कि मेरा सावन कितना बदल गया है !

पाँवों के नीचे से खिसक-खिसक जाता सा बात-बात में ,

मेरे तुलसी के बिरवे का आँगन कितना बदल गया है ! 

भाग रहे हैं लोग मृत्यु के पीछे-पीछे बिना बुलाए

जिजीविषा से अलग-थलग यह जीवन कितना बदल गया है

प्रोत्साहन की नई दिशा में देख रहा हूँ, सोच रहा हूँ ,

दुर्जनता की पीठ ठोंकता सज्जन कितना बदल गया है !

लाला जी ने  बहुत सादगीपूर्ण  जीवन जिया । उनके सौवें जन्म वर्ष के उपलक्ष्य में वर्ष 2020 में  बस्तर जिला प्रशासन द्वारा जगदलपुर स्थित शासकीय जिला ग्रंथालय का नामकरण उनके नाम पर किया गया। यह निश्चित रूप से स्वागत योग्य निर्णय है।  यह  ग्रंथालय जगदलपुर के शासकीय बहुउद्देश्यीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय परिसर में स्थित है। इस ग्रंथालय के एक हिस्से में लाला जी की रचनाओं ,उनकी पुस्तकों और उनसे यशस्वी जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण वस्तुओं का संकलन भी प्रदर्शित किया गया है। लाला जी को छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर रायपुर में आयोजित राज्योत्सव 2004 में प्रदेश सरकार की ओर से पंडित सुन्दरलाल शर्मा साहित्य सम्मान से नवाजा गया था । तपस्वी साहित्यकार लाला जगदलपुरी के सम्मान में छत्तीसगढ़ सरकार ने वर्ष 2022 से राज्य सम्मान  की भी शुरुआत की है। पहला 'लाला जगदलपुरी सम्मान ' छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर एक नवम्बर 2022 को  छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध कवि ,खैरागढ़ निवासी जीवन यदु 'राही' को दिया गया । साहित्य महर्षि लाला जगदलपुरी को आज उनकी 102 वीं जयंती पर विनम्र श्रद्धांजलि। (आलेख -स्वराज्य करुण )

(साक्षात्कार ) परिवेश हमारी ज़िन्दगी के ख़िलाफ़ है :लाला जगदलपुरी

 

  साहित्य महर्षि लाला जगदलपुरी से मेरे  38 साल

 पुराने साक्षात्कार का पुनः स्मरण :  स्वराज्य  करुण 

*********************************************************************************************सही मसाहित्य महर्षि  लाला जगदलपुरी  अब इस भौतिक संसार में नहीं हैं। आज अगर वे हमारे बीच होते तो 102 साल के हो चुके होते।   लालाजी का जन्म 17 दिसम्बर 1920 को छत्तीसगढ़ की तत्कालीन बस्तर रियासत की राजधानी जगदलपुर में हुआ था।  गृहनगर जगदलपुर में ही 93 साल की आयु में 14 अगस्त 2013 को उनका निधन हो गया । उनकी साहित्य साधना  लगभग 77 वर्षो तक निरन्तर चलती रही ।  वह बस्तर की आदिवासी संस्कृति और वहाँ के लोक साहित्य के गंभीर अध्येता और विशेषज्ञ थे । मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी भोपाल द्वारा प्रकाशित उनकी पुस्तक 'बस्तर :इतिहास एवं संस्कृति '  छत्तीसगढ़ के इस आदिवासी अंचल के सामाजिक -सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तथ्यों का एक प्रामाणिक सन्दर्भ ग्रन्थ है।    उन पर केन्द्रित हरिहर वैष्णव की  पुस्तक 'लाला जगदलपुरी समग्र ' भी हाल के  वर्षो में प्रकाशित हुई है । लाला जगदलपुरी  से मेरा यह साक्षात्कार रायपुर की साहित्यिक लघु पत्रिका 'पहचान ' के जून -अगस्त 1984 के अंक में प्रकाशित हुआ था ।  आज 17 दिसम्बर 2022  को उनके जन्म दिवस के मौके पर   लगभग 38 साल के लम्बे अंतराल के बाद इसे पुनः प्रस्तुत करते हुए उनसे  जुड़ी  अनेकानेक स्मृतियाँ आंखों में तैरने लगी हैं ।**************************************************************************************************

यदि आपमें साहित्यिक अभिरुचि है और आप कभी जगदलपुर (बस्तर )जाएं और वहाँ लाला जगदलपुरी से भेंट न करें , ऐसा आपके लिए हर्गिज़ संभव नहीं। पिछले दिनों एक सरकारी काम से जगदलपुर गया तो वहाँ मुझे लालाजी से मुलाकात का भी सौभाग्य मिला ।बस्तर की पहली यात्रा और पहली बार एक समर्पित साहित्य साधक से मिलने और बातचीत करने का यह पहला मौका मेरे जीवन की सर्वाधिक मधुर स्मृतियों में शामिल हो गया है।

   शाम को गरज -चमक के साथ पड़ी तेज़ बौछारों से  नवतपे की गर्मी शांत हो गयी थी । हवा में ठंडक आ गयी थी और आसमान रह -रह कर टपक रहा था ।मैं लोगों से लालाजी के निवास का पता पूछते हुए निकल रहा था ।धोती -कुर्ता पहने एक दुबले -पतले सज्जन छाता लगाए नज़दीक से गुजरे । मैंने देखा -अरे ! वही तो हैं ।पत्र -पत्रिकाओं में छपी उनकी तस्वीरें मेरे स्मृति -पटल पर उभर आयीं । मैंने कुछ झिझकते हुए उन्हें रोककर पूछा -क्या आप ही लाला जगदलपुरी हैं ?स्नेह भरी आवाज़ में उन्होंने कहा - हाँ -हाँ ! कहिए आप ....?


                                                  


                                                             साहित्य महर्षि लाला जगदलपुरी

   मैंने अपना परिचय दिया ।बड़ी आत्मीयता और प्रसन्नता के साथ वे मुझे एक चाय की दुकान पर ले गए ।बाहर बूंदाबांदी ने फिर बारिश का रूप ले लिया था ।चाय के साथ हमारी बातचीत भी चलने लगी ।लालाजी जितने विशाल हॄदय वाले हैं ,उतने ही स्पष्टवादी भी । साहित्यिक क्षेत्र में फैली उठा -पटक की राजनीति से वे काफी क्षुब्ध हैं ।उन्होंने कहा --" साहित्य की दुनिया में फैली खेमेबाजी ने आज बहुत -सी प्रतिभाओं को उपेक्षा के अँधेरे में ला पटका है।" काफी देर तक बातें होती रही। 

      बारिश थमने पर वे मुझे  अपने घर ले गए ।हाल ही में 'आंदोलन प्रकाशन'  जगदलपुर द्वारा प्रकाशित अपने ग़ज़ल संग्रह  ' मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते  परिवेश ' की एक प्रति उन्होंने मुझे भेंट की ।उनकी 51 ग़ज़लों का यह संकलन इन दिनों काफी चर्चा और प्रशंसा का विषय बना हुआ है।जिज्ञासा हुई कि उन्होंने संग्रह का शीर्षक 'मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते परिवेश ' ही क्यों रखा ?क्या ज़िन्दगी और परिवेश एक सिक्के के दो पहलू नहीं हैं ?क्या वे नहीं मानते कि ज़िन्दगी से ही परिवेश बनता है ?

   उन्होंने कहा -" मैं परिवेश और ज़िन्दगी को एक नहीं मानता ।दोनों एक सिक्के के दो पहलू नहीं हैं ।परिवेश एक परिधि है ,जिसके केन्द्र में हमारी ज़िन्दगी है ।परिवेश एक स्थानवाची शब्द है ।यद्यपि ज़िन्दगी ही परिवेश बनाती है  लेकिन दोनों का अस्तित्व पृथक --पृथक होता है ।चोरों ,उठाईगीरों ,शोषकों का झुंड ही आज परिवेश बन गया है ।सामर्थ्यवान लोग दहाड़ रहे हैं और कमज़ोर मिमिया रहे हैं ।परिवेश हमारी ज़िन्दगी के  ख़िलाफ़ हो गया है ।" लालाजी ने आगे कहा -" परिवेश एक व्यवस्था है ,जिसके सामने आज ज़िन्दगी मिमिया रही है । मेरे ग़ज़ल संग्रह का शीर्षक यही संकेत देता है ।"

  लालाजी के इस संकलन की अधिकांश ग़ज़लें हमारे समय और समाज की विसंगतियों को रेखांकित करती हैं ।लालाजी आदिवासी अंचल में रचे -बसे रचनाकार हैं।अतः उनकी कुछ ग़ज़लों में बस्तर की आदिम धरती का भी सजीव  चित्रण हुआ है ।संग्रह में जहाँ जीवन का जंगली संग्राम है ,वहीं तूम्बा के साथ सरगी के वृक्षों की शीतल छाया भी । बानगी देखिए --

     इस धरती के राम जंगली इसके नमन -प्रणाम जंगली 

    कुड़ई , कुंद, झुई सम्मोहक वनफूलों के नाम जंगली ।

         अथवा 

    लम्बी राह ,हमसफ़र तूम्बा ग्रीष्म की दाह ,हमसफ़र तूम्बा ।

   सिरचढ़ी धूप ,गाँव का राही   पेड़ की छाँह ,हमसफ़र तूम्बा ।

          या 

    प्रकृति का सहज प्यार  सरगी की छाया 

   शीतल -शीतल उदार,   सरगी की छाया ।

  जीवन पर विसंगतियां तो हावी हैं ही , पर मानवीय संवेदना और सौन्दर्य का महत्व भी कम नहीं हुआ है।  व्यवस्था के शिंकजे में मिमियाती ज़िन्दगी को देख कर लाला जी व्यथित हैं । समय के विरोधाभास का एक चित्र उनके संग्रह की पहली ही ग़ज़ल में देखिए --

दहकन का अहसास कराता  चंदन कितना बदल गया है  

मेरा चेहरा मुझे डराता , दरपन कितना बदल गया है ।

लालाजी पिछले क़रीब पाँच दशकों से  लगातार लिख रहे हैं ।वे राष्ट्रभाषा हिन्दी के अलावा लोक भाषाओं ;छत्तीसगढ़ी , हल्बी और भतरी में भी निरन्तर सृजनरत हैं ।'हल्बी पंचतंत्र ' , हल्बी लोककथाएँ'और 'रामकथा ' उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं ।बस्तर की आदिवासी संस्कृति पर उन्होंने अनेक शोध -निबंध लिखे हैं ,जो विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए हैं। लालाजी निरन्तर लिखें और राष्ट्रभाषा और लोकभाषाओं के भण्डार को समृद्ध करते रहें ,यही शुभकामना है । प्रस्तुत है ,लाला जगदलपुरी के हाल ही में छपे ग़ज़ल -संग्रह 'मिमियाती ज़िन्दगी दहाड़ते परिवेश 'से एक ग़ज़ल 

           आसमान लौटा दे सूरज 

                    ***

       छद्म चेतना जिसको मारे  उसकी टूटन कौन निवारे ।

       होंगे कितने विवश आदमी  जो अंदर ही अंदर हारे ।

       चीख़ -पुकारों की सांसत में कौन पुकारे , किसे पुकारे ?

      बड़ा ज़ुर्म है यहाँ न कोई  निरीहता पर आँसू ढारे।

      जिसको देखो वही देवता किस -किस की आरती उतारें ?

     उनकी सारी सुख -सुविधाएँ ,जो अनीति के राजदुलारे ।

      आसमान लौटा दे सूरज,   रख ले सारे चाँद -सितारे ।

Saturday, December 10, 2022

(आलेख) अभिनंदन का हक़दार है बिलासपुर शहर

          ( आलेख : स्वराज्य करुण )

अपने पूर्वज साहित्यकारों को याद रखने वाला शहर   निश्चित रूप से सराहना और अभिनंदन का हक़दार होता है। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर शहर में एक मुख्य सड़क का नामकरण छत्तीसगढ़ी और हिंदी के वरिष्ठ कवि  स्वर्गीय पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी के नाम पर किया जाना स्थानीय जनता के साथ -साथ प्रदेश की साहित्यिक बिरादरी के लिए भी गर्व की बात है। बिलासपुर में आधुनिक हिंदी कविता के सुपरिचित हस्ताक्षर श्रीकांत वर्मा के नाम पर भी एक सड़क है और अज्ञेय जी के नाम पर अज्ञेय नगर भी। वहाँ छत्तीसगढ़ी के वरिष्ठ कवि पंडित द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र' के नाम पर विप्र महाविद्यालय भी संचालित हो रहा है।

                            


                                                             (फोटो : स्वराज्य करुण )

उस दिन संक्षिप्त प्रवास के दौरान बिलासपुर में  यह देखकर मुझे आत्मिक खुशी हुई कि वहाँ का स्मार्ट रोड अब 'पद्मश्री पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी स्मार्ट रोड'के नाम से पहचाना जा रहा है। पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी को भारत सरकार ने 2 अप्रैल 2018 को पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित किया था। तत्कालीन राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद ने उन्हें इस अलंकरण से नवाज़ा था। पंडित चतुर्वेदी का जन्म 2 फरवरी 1926 को ग्राम कोटमी (तत्कालीन जिला-बिलासपुर)में और निधन 7 दिसम्बर 2018 को अपने गृहनगर बिलासपुर में हुआ था। उन्होंने लगभग 93 वर्ष की अपनी जीवन यात्रा के 77 साल साहित्य को और 70 साल पत्रकारिता को समर्पित कर दिए। वह वर्ष 2008 से 2013 तक छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के प्रथम अध्यक्ष भी रहे। उनकी प्रमुख पुस्तकों में छत्तीसगढ़ी कविता-संग्रह 'पर्रा भर लाई' और कहानी संग्रह 'भोलवा भोलाराम बनिस' उल्लेखनीय है। 

छत्तीसगढ़  में अपने साहित्यकारों से जुड़ी स्मृतियों को सहेज कर रखने की एक अच्छी परम्परा है।   जिला मुख्यालय रायगढ़ में सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित लोचनप्रसाद पांडेय और पद्मश्री मुकुटधर पांडेय के नाम पर गृह निर्माण मंडल की दो कॉलोनियों का नामकरण मध्यप्रदेश के ज़माने में हो चुका था। रायगढ़ दोनों पांडेय बंधुओं का कर्मक्षेत्र और गृहनगर रहा है।  वहाँ  संस्कृत ,ओड़िया और हिंदी के विद्वान कवि पंडित चिरंजीव दास के नाम पर भी एक सड़क का नामकरण लगभग दो-ढाई दशक पहले हो चुका है ,जो रायगढ़ के ही रहने वाले थे। इसी तरह लगभग दो वर्ष पहले जगदलपुर के शासकीय जिला ग्रंथालय का नामकरण साहित्य मनीषी लाला जगदलपुरी के नाम पर  किया जा चुका है। 

    राजनांदगांव में हिंदी के तीन ख्यातनाम साहित्यकारों - डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख़्शी ,गजानन माधव मुक्तिबोध और डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र के नाम पर त्रिवेणी संग्रहालय परिसर बनाया गया है। राजनांदगांव इन तीनों साहित्यिक दिग्गजों  का कर्मक्षेत्र रहा है। बख़्शीजी के नाम पर भिलाई नगर में बख़्शी सृजन पीठ का संचालन किया जा रहा है। छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा  प्रदेश के प्रसिद्ध साहित्यकार पण्डित सुन्दरलाल शर्मा , माधवराव सप्रे , डॉ. खूबचन्द बघेल , लाला जगदलपुरी और लक्ष्मण मस्तुरिया के नाम पर राज्य सम्मानों की भी स्थापना की गयी है। कई शिक्षण संस्थान भी प्रदेश के अनेक दिवंगत साहित्यकारों के नाम पर कई वर्षों से संचालित हो रहे हैं। फोटो एवं आलेख : स्वराज्य करुण 



Friday, December 9, 2022

(आलेख) छठवीं-सातवीं सदी का भीम -कीचक मन्दिर :प्राचीन भारतीय वास्तु -शिल्प का अनुपम उदाहरण

                (आलेख -स्वराज्य करुण)

छत्तीसगढ़ के कस्बेनुमा ऐतिहासिक नगर मल्हार का 'भीम -कीचक ' मन्दिर  प्राचीन भारत के वास्तु शिल्प का एक अनुपम उदाहरण है। यह दरअसल एक शिव मंदिर है , हालांकि उसकी जलहरि में शिवलिंग नहीं है। लेकिन मन्दिर की भव्यता बताती है कि कभी यह दक्षिण कोसल के नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ का एक प्रमुख आस्था केन्द्र रहा होगा।  पुरातत्वविदों ने अनुमान के आधार पर इसे छठवीं -सातवीं सदी का मन्दिर बताया है। अगर उनका अनुमान सटीक हो  तो इसे तेरह सौ से चौदह साल साल पुराना कहा जा सकता है।भारत सरकार द्वारा'प्राचीन स्मारक एवं पुरातात्विक स्थल व अवशेष अधिनियम 1958 (यथा संशोधित)के अंतर्गत इसे राष्ट्रीय महत्व का स्मारक घोषित किया गया है। 

मल्हार के  'भीम कीचक' मन्दिर की अब तक शायद उतनी चर्चा नहीं हो पायी है ,जितनी वहाँ के डिडनेश्वरी मन्दिर की होती रही है।मुझे उस दिन 'भीम कीचक'मन्दिर और उसके परिसर के अवलोकन का अवसर मिला। उसकी दीवारों पर कुछ एक पत्थरों को हाथ से नाप कर भी देखा। प्रत्येक पत्थर की चौड़ाई दो हाथ और लम्बाई ढाई हाथ की है।यानी कम से कम दो फुट चौड़ी और दाई फुट लम्बी पत्थर की ईंटें !  यह कल्पना करके आश्चर्य होता है कि जिस युग में बड़े बड़े  पत्थरों को दूर दराज से उठाकर लाने के लिए आज की तरह भारी वाहन नहीं थे , भारी मशीनें नहीं थीं , पत्थरों को तराशने के लिए आधुनिक औजार नहीं थे , उस दौर में इस ऊँचे और विशाल मन्दिर का निर्माण आख़िर कैसे किया गया होगा? जिस प्रकार मिस्र के हजारों साल पुराने  विशाल पिरामिड हमें आश्चर्यचकित करते हैं ,ठीक उसी तरह भारत और दुनिया के अलग -अलग देशों के सैकड़ों-हजारों साल पुराने विशाल भवनों की निर्माण -कला और उनके निर्माण-काल के बारे में सोचकर हैरत होती है। 


                                                


भीम कीचक मन्दिर एवं परिसर,मल्हार (छत्तीसगढ़)
फोटो : स्वराज्य करुण 

भीम-कीचक मन्दिर  छत्तीसगढ़ के मल्हार  नगरपंचायत क्षेत्र के पातालेश्वर महादेव वार्ड में,  (बिलासपुर मार्ग पर)  स्थित है। मन्दिर परिसर लगभग पौने दो एकड़ में विस्तारित है।। इस मंदिर के साथ यहाँ प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों  का रख -रखाव भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के रायपुर मंडल द्वारा किया जाता है। परिसर में पुरातात्विक महत्व की कई खण्डित अवशेष भी हैं ,जिन्हें सुव्यस्थित रूप से रखा। गया है। परिसर को एक सुन्दर उद्यान के रूप में विकसित किया गया है। सम्पूर्ण परिसर को लोहे का  जालीदार घेरा लगाकर सुरक्षित किया गया है। परिसर की देखभाल के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की ओर से एक पूर्णकालिक कर्मचारी तैनात है,जबकि तीन मज़दूर ठेके पर रखे गए हैं।

        परिसर के भीतर (प्रवेश द्वार के पास)   उनके सूचना फलक पर  'भीम -कीचक 'मन्दिर के बारे में दी गयी जानकारी के अनुसार - "यह भव्य मन्दिर अवशेष स्थानीय तौर पर देऊर के नाम से प्रचलित है। मन्दिर की भित्ति के ऊपर का भाग खण्डित है।पश्चिमाभिमुखी इस मन्दिर के गर्भगृह में स्थापित शिवलिंग प्रमाणित करता है कि मन्दिर भगवान शिव को समर्पित था मन्दिर की द्वार -शाखा पर गंगा और यमुना का सुन्दर अंकन है।द्वार -शाखा पर ही अन्दर की ओर शिव और उनके गणों को विभिन्न भाव-भंगिमाओं में दर्शाया गया है।मूर्ति शिल्प के आधार पर यह मन्दिर छठवीं -सातवीं शताब्दी का प्रतीत होता है ।"  यानी पुरातत्वविद भी इसका निर्माण काल पक्के तौर पर बताने की स्थिति में नहीं हैं ,यही कारण है कि उन्होंने 'प्रतीत होता है ' लिखा है। सूचना फलक में इसे शिव मंदिर तो बताया गया है ,लेकिन इसका नामकरण 'भीम -कीचक' के नाम पर क्यों हुआ , इस संबंध में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सूचना फलक में कोई जानकारी नहीं दी गयी है। क्या इस नामकरण का  महाभारत की कथा में भीम द्वारा  कीचक वध के प्रसंग से भी कोई संबंध जुड़ता है ?  इतिहासकार और पुरातत्वविद इस बारे में बेहतर बता पाएंगे।- स्वराज्य करुण