पाँव -पाँव कांटे ही कांटे ,
गाँव-गली की धूल नहीं है ,
मेरे दिल की धड़कन भी अब
मेरे ही अनुकूल नहीं है !
भूल गए सब गाँव की दुनिया
पीपल, पनघट, छाँव की दुनिया
दौड़ आए हैं दूर-दूर तक ,
मिली नहीं सदभाव की दुनिया !
यह कैसी बगिया है जिसमे
तितली ,भौरें ,फूल नहीं हैं ,
मेरे दिल की धड़कन भी अब
मेरे ही अनुकूल नहीं है .!
चीख रही है जाने कब से
बेगानों के बीच ज़िन्दगी ,
इंसानों को ढूंढ रही है
इंसानों के बीच ज़िन्दगी !
चेहरों के बहते समंदर में देखो
जहाज़ों पर मस्तूल नहीं है ,
मेरे दिल की धड़कन भी अब
मेरे ही अनुकूल नहीं है !
- स्वराज्य करुण
मिली नहीं सदभाव की दुनिया !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया पोस्ट .बधाई
bhehtareen abhivyakti
ReplyDeleteअनुष्का
बहुत उम्दा अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteखुद के दिल की धडकनों के बागी सुर भला यूं सजाता है कोई ? :)
ReplyDeleteआप सबकी आत्मीय टिप्पणियों के लिए
ReplyDeleteहार्दिक आभार .
sundar kavita
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