Monday, September 4, 2023

(पुस्तक-चर्चा ) न्यूनतम शब्दों में अधिकतम कहने की हिम्मत रखती ये क्षणिकाएँ

(आलेख -स्वराज्य करुण) यह एक सच्चाई है कि दुनिया के प्रत्येक मनुष्य और यहाँ तक कि प्रत्येक जीव का जीवन क्षणभंगुर होता है। मेरी शुभकामना है कि सभी स्वस्थ रहें और दीर्घायु हों ,शतायु हों ,लेकिन इस हक़ीक़त से भला कौन इनकार कर सकता है कि अगले पल या अगले क्षण क्या होगा ,इसे कोई नहीं जानता । फिर भी एक बेहतर कल या सुखद भविष्य की आशाओं के साथ ,नई सुबह की उम्मीदों के साथ छोटे -छोटे और बड़े-बड़े सुखों और दुःखों की गठरी लेकर हम सब जिये चले जाते हैं। इस क्षणभंगुर जीवन की बड़ी -से बड़ी बातों को कुछ ही क्षणों में अपनी छोटी-छोटी क्षणिकाओं के माध्यम से बड़े सहज लेकिन प्रभावी ढंग से ,बड़ी ख़ूबसूरती से लिखना और कह देना शिवानंद महान्ती की एक बड़ी ख़ूबी थी। वे छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले में स्थित पिथौरा कस्बे के निवासी थे।श्रृंखला साहित्य मंच ,पिथौरा की ओर से उनका पहला कविता -संग्रह 'संशय के बादल ' वर्ष 2018 में प्रकाशित हुआ था । उसमें भी उनकी अधिकांश रचनाएँ क्षणिकाओं के रूप में हैं । महासमुंद जिले में एक कर्मठ सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी उनकी पहचान और प्रतिष्ठा थी। हिन्दी कविता की क्षणिका-विधा के सिद्धहस्त और सशक्त हस्ताक्षर के रूप में छत्तीसगढ़ के साहित्यिक परिदृश्य में वह बड़ी तेजी से अपनी पहचान बना रहे थे। तभी दुर्भाग्यवश 11 अगस्त 2022 को रक्षाबंधन के पवित्र दिवस पर पिथौरा में सड़क हादसे में गंभीर रूप से घायल होने के बाद लगभग सौ किलोमीटर दूर राजधानी रायपुर के एक निजी अस्पताल में जीवन के लिए संघर्ष कर रहे थे। लेकिन तीसरे दिन यानी 14 अगस्त2022 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। ऐसा लगता है कि इस भयानक हादसे के साथ उनका हमसे सदैव के लिए बिछुड़ना भी कुछ ही क्षणों में हुआ। हम सब व्यथित हॄदय से कह सकते हैं कि देखते ही देखते यह सब 'कुछ ही क्षणों में ' घटित हो गया। इस हृदयविदारक हादसे में उनके निधन के लगभग एक वर्ष बाद उनकी क्षणिकाओं का यह संकलन 'कुछ ही क्षणों में' आपके सामने है। हालांकि उनके इस दूसरे संकलन में इस शीर्षक से उनकी कोई क्षणिका नहीं है । उनकी अब तक उपलब्ध कविताओं और क्षणिकाओं में भी इस शीर्षक से लिखी कोई रचना नहीं मिली है , लेकिन अपनी बातों को 'कुछ ही क्षणों में ' लिख देने और कह देने का उनका अभिव्यक्ति-कौशल संकलन की इन क्षणिकाओं में झलकता है, इसीलिए इस संग्रह का सम्पादन करते हुए मैंने इसका शीर्षक 'कुछ ही क्षणों में' दिया है । शिवानंद के साथ हुए जानलेवा सड़क हादसे ने मुझे भी बेहद विचलित और व्यथित करते हुए जीवन की क्षणभंगुरता का अहसास करवाया। मुझे लगा कि इंसान के साथ कुछ ही क्षणों में क्या से क्या हो जाता है !
शिवानंद की ये क्षणिकाएँ हमें उनसे जुड़ी अनेकानेक अमिट स्मृतियों से भी जोड़ती हैं। यह संग्रह उनकी प्रथम पुण्यतिथि के अवसर पर प्रकाशित हो रहा है। काश ! वे अपने जीवन-काल में स्वयं के इस दूसरे कविता -संग्रह (क्षणिका-संग्रह) को प्रकाशित होता हुआ देख पाते। लेकिन नियति ने उन्हें हमसे सदैव के लिए छीन लिया । मेरा मानना है कि साहित्य मनुष्य के मनोभावों की शाब्दिक अभिव्यक्ति है। कहानी ,उपन्यास ,निबंध और कविता भी साहित्य की अलग-अलग विधाएँ है। कविता हिन्दी साहित्य के क्रमिक विकास में गीत ,ग़ज़ल मुक्त छंद और अतुकांत कविता जैसे अलग -अलग रूपों में हमारे सामने आती रही है। पिछले कुछ दशकों में कविता का एक नया रूप 'क्षणिका'के रूप में प्रकट हुआ है। कोई भी सच्चा कवि स्वाभाविक रूप से भावुक होता है। वह अपने समय और समाज में घटित तरह -तरह की घटनाओं से भी प्रभावित होता है। अन्याय ,अत्याचार और सामाजिक विसंगतियों से आहत एक सच्चे कवि से कविता भावनाओं के आवेग में ही लिखी जाती है। मेरे विचार से किसी एक क्षण की भावुकता में रची गयी कोई छोटी कविता ही 'क्षणिका'होती है। अपने आस-पास के परिवेश से प्रभावित कवि में यह भावुकता क्षण भर में आती है ,तब अपनी भावुकता के इस क्षणिक उफान में कवि के शब्द 'क्षणिका' के रूप में अभिव्यक्त होते हैं ,जो पाठकों को विषय-वस्तु पर देर तक कुछ न कुछ सोचने के लिए मज़बूर कर देते हैं। शिवानंद महान्ती की इन क्षणिकाओं को भी हमें इसी नज़रिए से देखना और समझना चाहिए। इनमें व्यंग्य भी है और करुणा भी । समय और समाज की सच्चाइयों के बारे में न्यूनतम शब्दों में अधिकतम कह देने की हिम्मत शिवानंद की क्षणिकाओं में देखी जा सकती है। यह उनकी क्षणिकाओं की एक बड़ी ताकत भी है ,जिसे हम 'कुछ ही क्षणों में' शीर्षक से छपे इस संग्रह में महसूस कर सकते हैं। ।संग्रह में शामिल शिवानंद की क्षणिकाएँ हमें मानवीय संवेदनाओं से जोड़ती हैं। संग्रह में उनकी 40 क्षणिकाएँ शामिल हैं। उनकी अधिकांश क्षणिकाएँ हमारे समाज में हो रही व्यथित कर देने वाली विसंगतिपूर्ण हलचल की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करती हैं । ये क्षणिकाएँ कवि बिहारी की रचना "बिहारी सतसइ' के इस दोहे को चरितार्थ करती हैं ,जिसमें वे कहते हैं- सतसइया के दोहरे ,ज्यों नावक के तीर देखन में छोटे लगें ,घाव करें गंभीर । आजकल के छल-प्रपंच की सियासी तिजारत को देखकर शिवानंद महान्ती के भीतर का कवि आहत भी है और आक्रोशित भी । वह उस समाज की बात कहता है ,जिसका मन इन विसंगतियों को देखकर खौल रहा है और निराशा के अंधेरे में सुख की संभावनाओं को टटोल रहा है । इसकी बानगी 'निराशा के अंधेरे में शीर्षक उनकी इस क्षणिका में देखिए - कदम जो कभी टिकते नहीं थे , अब जम गए हैं अंगद के पैरों की तरह ! दिन जो गुज़र जाते थे देखते ही देखते , बमुश्किल गुज़र रहे है वक़्त को देखते -देखते! उम्मीद की किरणों का विशाल बरगद के पीछे लुकाछिपी का खेल चल रहा है! छल -प्रपंच की सियासी तिज़ारत को देखकर हम मन ही मन खौल रहे हैं , निराशा के अंधेरे में सुख की संभावनाओं को टटोल रहे हैं। महँगाई से परेशान जनता की ओर से अपनी एक बहुत छोटी क्षणिका में कवि की गुजारिश है कि बारिश तमाम मुसीबतों का साथ इस महँगाई को भी बहा कर ले जाए -- मुसीबतें सारे जहाँ की ले जाओ , ऐ बारिश ,महँगाई को बहा कर ले जाओ! कवि छत्तीसगढ़ शासन द्वारा महासमुंद जिला जेल के लिए मनोनीत अशासकीय संदर्शक भी रहे हैं।उस दौरान समय -समय पर जेल विजिट करते समय उन्होंने जेल के बाहर बाहर अपने बन्दी परिजनों से मिलने आए लोगों के चेहरों के भावों को ध्यान से पढ़ा और उनकी मनोदशा को दिल की गहराइयों से महसूस भी किया । यह सब 'जेल के बाहर' शीर्षक उनकी इस क्षणिका में प्रकट हुआ है - याचना ,उद्विग्नता, उत्सुकता, कुंठा , कुछ समय का ही है हालाँकि ठहराव, अलग -अलग चेहरों के अलग-अलग भाव ! संभावनाओं और आशंकाओं के वातायन में चकरघिन्नी-सा उलझा हुआ अशांत मन ! मैंने देखे जेल के बाहर प्रतीक्षा रत बंदियों के अनेक परिजन ! कवि आर्थिक विषमता के इस युग मे पैसों के अभाव में अस्पतालों में दम तोड़ते मरीजों और बारिश के अभाव में सूखती फसलों के बीच किसानों की वेदना से भी व्यथित है । उसकी यह पीड़ा इस क्षणिका में प्रकट होती है -- दवाइयों के अभाव में अस्पतालों में दम तोड़ते मरीजों के परिजनों की वेदना जैसी ही होती है बारिश के अभाव में सूखते खेतों में दम तोड़ती फसलों के साथ किसानों की वेदना ! वह कवि ही क्या ,जो आम जनता की तरह आज के निराशाजनक माहौल से व्यथित न हो ? शिवानंद की क्षणिकाओं में जनता की यह व्यथा उभर कर आती है। अपनी बहुत छोटी -सी इस क्षणिका में उन्होंने लिखा है -- इधर हमारी राष्ट्रभक्ति ख़तरे में पड़ जाती है, उधर पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ जाती हैं ! कवि शिवानंद आज की सियासत में बेशर्मी की हद तक व्याप्त फूहड़ता से भी बेहद विचलित है वह 'बेशर्म सियासत की नग्नता ' शीर्षक अपनी क्षणिका में कहते हैं - शर्मसार कर रही है बयानों की अशोभनीयता, सवालों के तिलस्म में उलझ गयी है सच्चाई की विश्वसनीयता ! पक्ष और विपक्ष के पुतलों में लग रही है रोज -रोज आग , दिखने लगी हम्माम के बाहर भी बेशर्म सियासत की नग्नता ! कवि शिवानंद ने स्वयं कोरोना की महामारी को झेला था। संग्रह में शामिल उनकी 40 क्षणिकाओं में से 13 क्षणिकाएँ वर्ष 2020-21 के कोरोना काल की त्रासदी से जूझती दुनिया पर केन्द्रित हैं ,जिनमें से कुछ में कवि का अपना दर्द भी छलक उठता है ,जबकि 10 क्षणिकाओं का संकलन उनके प्रथम कविता संग्रह'संशय के बादल' से भी किया गया है । शिवानंद महान्ती अब हमारे बीच नहीं हैं। उन्हें इस भौतिक संसार से गए एक साल देखते ही देखते 'कुछ ही क्षणों में' बीत गया । लेकिन हम जैसे उनके चाहने वालों को लगता ही नहीं कि वे अब दुनिया में नहीं हैं ।फिर भी हक़ीक़त तो हक़ीक़त है। उनका जाना कुछ ही क्षणों में हुआ जो सबको व्यथित कर गया। उनकी पहली पुण्यतिथि (14 अगस्त 2023 ) को ध्यान में रखकर श्रृंखला साहित्य मंच ने महान्ती परिवार के सहयोग से इस क्षणिका संग्रह का प्रकाशन किया था ,लेकिन कुछ धार्मिक मान्यताओं और रीति रिवाजों के अनुसार परिजनों ने उनकी पहली बरसी का कार्यक्रम उनके गृहनगर पिथौरा में 2 सितम्बर 2023 को रखा और इसी अवसर पर उनके क्षणिका -संग्रह का विमोचन भी हुआ। वरिष्ठ साहित्यकार जी. आर. राना विमोचन समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुए। अध्यक्षता छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ भाषा विज्ञानी डॉ. चित्तरंजन कर ने की ।विशेष अतिथि के रूप में साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ के अध्यक्ष ईश्वर सिंह दोस्त और रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार पूर्णचन्द्र रथ उपस्थित थे। विमोचन समारोह पिथौरा स्थित गुरु तेगबहादुर सभा-भवन में हुआ ,जहाँ पिथौरा क्षेत्र सहित सम्पूर्ण महासमुंद जिले के अनेक साहित्यकारो और साहित्य प्रेमी प्रबुद्धजन बड़ी संख्या में शामिल हुए। -स्वराज्य करुण सम्पादक -'कुछ ही क्षणों में' श्रृंखला साहित्य मंच ,पिथौरा ********

Monday, July 24, 2023

(आलेख)क्या नदियों को आपस में नहीं जोड़ा जा सकता ?

(आलेख -स्वराज करुण) नदियाँ अगर धीरे बहें तो सुहावनी और उफनती हुई बहें तो डरावनी लगती हैं। लेकिन प्रकृति की व्यवस्था ही ऐसी है कि बारिश के मौसम में बादलों को बरसने से और नदियों को उफनने से नहीं रोका जा सकता। बरसात में जल से लबालब नदियाँ किसानों और उनके खेतों के लिए वरदान साबित होती हैं ,लेकिन अगर छलकते हुए वह सैलाब में तब्दील हो जाऍं तो ? इस वर्ष भी देश के कई राज्यों के कुछ इलाकों में इन दिनों भारी वर्षा से नदियों में आया सैलाब कहर बनकर जन जीवन को अस्त-व्यस्त कर रहा है।
अगर देश की नदियों को एक -दूसरे से जोड़ दिया जाए तो किसी नदी में बाढ़ की स्थिति बनने पर उसका अतिरिक्त पानी दूसरी नदी में भेजकर खतरे को कम किया जा सकता है। कुछ दशक पहले इसकी संभावनाओं पर विशेषज्ञों के बीच विचार -विमर्श भी हुआ करता था।नदी जोड़ो अभियान की भी चर्चा होती थी। लेकिन अब खामोशी है। क्या नहरों का जाल बिछाकर नदियों को आपस में नहीं जोड़ा जा सकता ? इसकी संभावनाओं पर सबको मिलकर विचार करना और रास्ता निकालना चाहिए। छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती ओंग सेतु पर मोबाइल कैमरे से मेरी आँखन देखी ये तीन तस्वीरें पिछले साल के आज ही के दिन की हैं । यह पश्चिम ओड़िशा में इठलाती,बलखाती ओंग नदी और उस पर बने पुल का नज़ारा है। ओंग सेतु छत्तीसगढ़ के तहसील मुख्यालय बसना से बलांगीर मार्ग पर लगभग 22 वें किलोमीटर पर है। ओंग नदी गर्मियों में एकदम सूख जाती है।यह छत्तीसगढ़ और ओड़िशा की जीवन -रेखा महानदी की सहायक है। - स्वराज करुण

Monday, July 3, 2023

(पुस्तक- चर्चा ) क्रांतिवीर नारायण सिंह की शहादत पर पहला उपन्यास ; 1857 सोनाखान

(आलेख ; स्वराज करुण ) स्वतंत्रता हर देश का मौलिक और मानवीय अधिकार है। विशेष रूप से विगत दो शताब्दियों में दुनिया के विभिन्न देशों में स्वतंत्रता के लिए जनता के अनेक संग्राम हुए हैं। भारत भी इन संग्रामों से अछूता नहीं रहा है। इनमें से कई संग्राम ज्ञात और कई अल्पज्ञात रहे और कुछ संघर्ष गुमनामी के अंधेरे में दबकर रह गए। इन संग्रामों में अनेक वीर योद्धाओं और क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दी है। उनमें छत्तीसगढ़ की सोनाखान जमींदारी के वीर नारायण सिंह का नाम भी अमिट अक्षरों में दर्ज है ,जो वर्ष 1857 में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी की हुकूमत के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष के नायक बनकर उभरे थे। ऐसे नायकों की गौरव गाथा पर आधारित उपन्यास लेखन साहित्यकारों के लिए वाकई बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य होता है। आज़ादी के आंदोलन में छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद क्रांतिवीर नारायण सिंह के संघर्षों पर आधारित '1857 ;सोनाखान' शीर्षक 144 पृष्ठों की यह पुस्तक उनके समय के छत्तीसगढ़ की सामाजिक -आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का भी सजीव वर्णन करती है। प्रजा हितैषी नारायण सिंह को अपनी अकाल पीड़ित जनता के लिए एक जमाखोर व्यापारी के गोदाम से अनाज निकलवाने और पीड़ितों में वितरित करने के आरोप में कम्पनी सरकार की ओर से राजद्रोह के मुकदमे का नाटक रचकर 10 दिसम्बर 1857 को रायपुर स्थित सैन्य छावनी में फाँसी पर लटका दिया गया था।
भीषण अकाल के दौर में उपजा विद्रोह ******* दरअसल अंग्रेजों के खिलाफ सोनाखान के नारायण सिंह का विद्रोह वर्ष 1856 में छत्तीसगढ़ में पड़े भीषण अकाल के दौर में उस वक्त हुआ ,जब प्रजा -वत्सल नारायण सिंह ने मदद के लिए रायपुर स्थित डिप्टी कमिश्नर इलियट को ख़बर भेजी ,लेकिन वहाँ से उन्हें कोई मदद नहीं मिली। तब नारायण सिंह ने खरौद के एक जमाखोर व्यापारी माखन को उसके गोदामों में भरे अनाज को सोनाखान जमींदारी की अकाल पीड़ित जनता के लिए बाँटने को कहा। नारायण सिंह यह अनाज मुफ़्त में नहीं बल्कि बाढ़ी में यानी मूल धन से डेढ़ गुना ज्यादा कीमत पर उधार में लेने को तैयार थे । वे चाहते थे कि नई फसल के आने पर सोनाखान जमींदारी की ओर से उन्हें उधार लिया गया अनाज बाढ़ी के रूप में लौटा दिया जाएगा।इसके लिए उन्होंने कुछ अन्य व्यापारियों को भी चिट्ठी भिजवाई थी।उनमें से कुछ ने उन्हें मदद का आश्वासन दिया लेकिन खरौद का जमाखोर व्यापारी माखन इनकार करता रहा। तब नारायण सिंह ने अपने सैनिकों के साथ उसके गोदामों से अनाज निकलवाकर भूख से बेहाल जनता में वितरित करवा दिया । उन्होंने उसे भरोसा भी दिया कि और बाकायदा इसकी लिखित सूचना सम्पूर्ण हिसाब के साथ रायपुर स्थित कम्पनी सरकार के डिप्टी कमिश्नर को भी भेजी। इस बीच माखन ने रोते -कलपते रायपुर पहुँचकर इलियट से नारायण सिंह की शिकायत कर दी। इलियट ने इसे डकैती मान लिया और नारायण सिंह के विरुद्ध कार्रवाई की योजना बनाने लगा। अतंतःएक सैन्य संघर्ष के बाद नारायण सिंह ने अंग्रेज अधिकारियों के सामने स्वयं को प्रस्तुत कर दिया था। इस पर तो फ़िल्म भी बन सकती है ************** पुस्तक की विषय -वस्तु ,पृष्ठभूमि , पात्रों के परस्पर संवाद और घटनाओं की वर्णन शैली को देखते हुए इसे उपन्यास कहना मेरे विचार से उचित होगा। इस पर तो हिन्दी और छत्तीसगढ़ी मिश्रित भाषा में एक अच्छी देशभक्तिपूर्ण फ़िल्म बन सकती है । इसका नाट्य रूपान्तर करके मंचन भी हो सकता है। इस पुस्तक के लेखक हैं राजधानी रायपुर निवासी वरिष्ठ पत्रकार आशीष सिंह। मेरी जानकारी के अनुसार पत्रकार होने के नाते आशीष के लेखन में घटनाओं का धाराप्रवाह वर्णन मिलता है। विश्लेषण और वर्णन की उनकी क्षमता गज़ब की होती है। उन्होंने अब तक न तो कहानियाँ लिखीं और न ही कविताएँ और उपन्यास तो कभी नहीं लिखा । इसके बावज़ूद उनके भीतर दबा -छिपा एक देशभक्त और भावुक उपन्यासकार इस कृति के माध्यम से हमारे सामने आया है। शहादत पर पहला उपन्यास ***** जहाँ तक मुझे जानकारी है ,वीर नारायण सिंह के संघर्ष और उनकी शहादत पर ऐसा कोई उपन्यास अब तक नहीं लिखा गया था। मेरा मानना है कि इस लिहाज से यह उनकी जीवन-गाथा पर आधारित पहला उपन्यास है। यह आशीष सिंह की एक बड़ी उपलब्धि है। आशीष को साहित्यिक प्रतिभा आशीष के रूप में विरासत में मिली है। उनके पिता हरि ठाकुर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी , गोवा मुक्ति आंदोलन के कर्मठ सिपाही , छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के लिए गठित सर्वदलीय मंच के संयोजक तथा हिन्दी और छत्तीसगढ़ी के सुप्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' शीर्षक से एक विशाल ग्रंथ भी लिखा , जिसमें छत्तीसगढ़ के इतिहास और यहाँ की महान विभूतियों के जीवन पर आधारित उनके कई आलेख शामिल हैं। हरि ठाकुर के पिता जी यानी आशीष सिंह के दादा जी ठाकुर प्यारेलाल सिंह अपने समय के एक महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ,श्रमिक नेता और सहकारिता आंदोलन के प्रमुख स्तंभ थे। उन्होंने वर्ष 1950 के दशक में रायपुर से अर्ध साप्ताहिक 'राष्ट्र-बन्धु' का सम्पादन और प्रकाशन प्रारंभ किया था। ठाकुर प्यारेलाल सिंह 'त्यागमूर्ति' के नाम से भी लोकप्रिय हुए। वे तत्कालीन मध्यप्रान्त की नागपुर विधान सभा में विधायक और नेता प्रतिपक्ष भी रह चुके थे। उन्हें तीन बार रायपुर नगरपालिका अध्यक्ष भी निर्वाचित किया गया था। आशीष सिंह का लेखकीय परिचय ******* इस प्रकार आशीष सिंह विरासत में मिली लेखकीय परम्परा को अपनी सृजनात्मक प्रतिभा के जरिए लगातार आगे बढ़ा रहे हैं।उनकी अनेक पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। चौबीस जनवरी 1963 को जन्में आशीष सिंह लगभग तीन दशकों से राजधानी रायपुर में पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं। उनका लेखन मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ की उन महान विभूतियों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केन्द्रित रहा है ,जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना भरपूर योगदान दिया था। आशीष ने उन पर आधारित कई बड़े-बड़े ग्रंथों का सम्पादन भी किया है ,जिनमें स्वर्गीय हरि ठाकुर के शोधपरक आलेखों और निबंधों का संकलन 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' और स्वर्गीय पण्डित रामदयाल तिवारी का विशाल ग्रंथ 'गांधी-मीमांसा' भी शामिल है। इसके अलावा तीन खंडों में प्रकाशित ठाकुर प्यारेलाल सिंह समग्र 'भी शामिल है। आशीष सिंह ने सम्पादन के अलावा कुछ पुस्तकें अलग से भी लिखी हैं । उनकी प्रकाशित पुस्तकों में महात्मा गांधी की छत्तीसगढ़ यात्रा पर आधारित ' बापू और छत्तीसगढ़' , वरिष्ठ पत्रकार सनत चतुर्वेदी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आधारित 'अर्ध विराम ', छत्तीसगढ़ में वर्ष 1952 से 2014 तक हुए विधान सभा चुनावों का का लेखा-जोखा 'जनादेश' और छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता सेनानियों का हिन्दी, छत्तीसगढ़ी और अंग्रेजी में प्रकाशित जीवन-परिचय और उनका छत्तीसगढ़ी नाट्य रूपांतर 'हमर सुराजी ' आदि भी उल्लेखनीय है। हिन्दी -छत्तीसगढ़ी मिश्रित प्रवाह पूर्ण भाषा ****** अंग्रेजों के ख़िलाफ़ सोनाखान के अमर शहीद वीर नारायण सिंह के संघर्षों को ऐतिहासिक तथ्यों और तारीखों का साथ औपन्यासिक कथा वस्तु की शक्ल देकर आशीष सिंह ने सचमुच एक बड़ा महत्वपूर्ण कार्य किया है। इस पुस्तक में हिन्दी और छत्तीसगढ़ी मिश्रित उनकी भाषा -शैली वाकई बहुत प्रवाहपूर्ण है । भारत के महान स्वतंत्रता संग्राम और आज़ादी के योद्धाओं के बलिदानों की कहानियों में जिन्हें सचमुच दिलचस्पी है ,ऐसे देशभक्त पाठकों को इस पुस्तक में वर्णित घटनाएँ अंत तक सम्मोहित करके रखती हैं। हर घटना उत्सुकता जगाती है कि आगे क्या हुआ होगा ? किसी भी ऐतिहासिक उपन्यास में घटनाएँ भले ही वास्तविक हों ,लेकिन उन्हें सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करने के लिए काल्पनिकता का भी सहारा लेना पड़ता है। इसे देखते हुए कई प्रसंगों में आशीष सिंह ने कल्पनाओं के कैनवास पर शब्दों के रंगों से इस उपन्यास को सुसज्जित किया है। उन्होंने अपनी यह पुस्तक भारत की आज़ादी के अमृत महोत्सव को और अपने पिता स्वर्गीय हरि ठाकुर को समर्पित की है। यह पुस्तक हरि ठाकुर स्मारक संस्थान ,रायपुर द्वारा प्रकाशित की गयी है। लेखक ने अपनी इस औपन्यासिक पुस्तक में वीर नारायण सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व में व्याप्त मानवीय संवेदनशीलता को बख़ूबी उभारा है। वे न सिर्फ़ अपनी प्रजा के हर सुख -दुःख का ख़्याल रखते हैं ,बल्कि अपने पशुओं को भी भरपूर स्नेह देते हुए अपने कर्मचारियों के साथ स्वयं उनकी देखभाल भी करते हैं। अक्ति यानी अक्षय तृतीया के दिन किसानों के साथ खेतों में बीज बोने के अनुष्ठान में भी शामिल होते हैं। उस दिन वे ग्रामीण परिवारों में होने वाले वैवाहिक समारोहों में भी हिस्सा लेते हैं।वीर नारायण सिंह के परिवार के सोनाखान की जनता के साथ आत्मीय जुड़ाव को इस औपन्यासिक कृति में बड़ी रोचकता से उभारा गया है। लोक कल्याणकारी ज़मींदार का रहन -सहन आम किसानों जैसा है। उनकी मिट्टी की हवेली का वर्णन भी प्रभावित करता है। औपन्यासिक कृति में नाटक के तत्वों का प्रयोग ******** पुस्तक की भूमिका छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार और सेवानिवृत्त आई.ए. एस. अधिकारी डॉ. सुशील त्रिवेदी ने लिखी है। उनका कहना है -"आशीष सिंह ने अपनी इस औपन्यासिक कृति में नाटक के तत्वों का प्रयोग कर राष्ट्रीय चेतना को उत्प्रेरित किया है। उन्होंने अपनी कथा -वस्तु में 1856 और 1857 में सोनाखान और रायपुर से लेकर सम्बलपुर तक चल रही विद्रोह की घटनाओं को एक श्रृंखला में पिरोया है।अलग -अलग घटनाओं के बीच के सम्पर्क शून्य को उन्होंने अपनी साहित्यिक कल्पनाशीलता से भरा है।इस शून्य को भरते हुए आशीष सिंह छत्तीसगढ़ी जीवनशैली को पूरी यथार्थता में उभारते हैं।" पुस्तक में नवीन रचनाधर्मिता ******** वहीं पुस्तक के आमुख में राज्य के जाने-माने इतिहासकार और श्री शंकराचार्य प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी भिलाई के कुलपति प्रोफेसर लक्ष्मीशंकर निगम लिखते हैं --" आशीष की इस पुस्तक में एक नवीन रचनाधर्मिता देखने को मिलती है।यह रचना मूलतः नाटक शैली में , छत्तीसगढ़ी में है ,तथापि बीच -बीच में अन्य भाषा-भाषी पात्रों के उपस्थित होने पर हिन्दी का भी प्रयोग आवश्यकता अनुसार किया गया है।इस रचना के माध्यम से लेखक ने छत्तीसगढ़ के इतिहास ,संस्कृति और लोक व्यवहार का एक विहंगम दृश्य प्रस्तुत किया है और ऐसा करने के लिए ऐतिहासिक पात्रों का समावेश करने के साथ ही अन्य काल्पनिक पात्रों को भी गढ़ा है ,लेकिन ये काल्पनिक पात्र इतिहास से प्रतिद्वंद्विता नहीं करते , बल्कि उसके पूरक रूप में हैं।" पुस्तक में वीर नारायण सिंह की धर्मपत्नी ,उनके सुपुत्र गोविन्द सिंह और कई देशभक्त ग्रामीणों की बातचीत को भी बड़ी भावुकता से प्रस्तुत किया गया है। नारायण सिंह के आत्मीय सहयोगी के रूप में सम्बलपुर रियासत के वीर सुरेंद्र साय और उनके कुछ साथियों के कठिन संघर्षों का भी इसमें उल्लेख है। नारायण सिंह में देशभक्ति और मानवीय संवेदनशीलता ******* नारायण सिंह को रायपुर में डिप्टी कमिश्नर इलियट के सामने मुकदमे के लिए पेश करने पर उसके सवालों का जवाब देते हुए वे कहते हैं - मैंने आग्रहपूर्वक माखन से अनाज की मांग की थी।अन्य व्यापारियों ने तो मुझे यथा शक्ति मदद की ,मगर माखन ने अनाज न होने का बहाना बनाया।मैंने जाँच की तो ज्ञात हुआ कि उसके गोदामों में अनाज भरा है।अकाल की इस विपत्ति में वह जमाखोरी कर ऊँचे भाव में अनाज बेच रहा है।भूख से बिलबिला रहे लोगों के बर्तन ,आभूषण ,पशु और खेत गिरवी रख रहा है।क्या यह अन्याय नहीं है?क्या यह अपराध नहीं है ? मुकदमा तो उस पर चलना चाहिए।सारी स्थिति का ब्यौरा हमने तुम्हें भेजा था , पर तुमने अकाल की विभीषिका से जनता को बचाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया।यह तो कम्पनी का दायित्व था ।दोषी तो तुम भी हो।" नारायण सिंह इलियट के एक प्रश्न के उत्तर में माखन के गोदाम से अनाज लूटने के आरोप को ख़ारिज करते हुए कहते हैं -"माखन के गोदाम से ज़रूरत के मुताबिक ही अनाज लिया गया है।वह भी बाढ़ी में। मैंने उससे करारनामा में हस्ताक्षर करवाया है।कि अगली फसल आने के बाद लिए गए अनाज का डेढ़ गुना लौटा दिया जाएगा। करारनामा की नकल तुम्हें भी भेजी गई है।" इलियट पूछता है -क्या किसी की मर्जी के बिना ऐसा किया जा सकता है? इस पर नारायण सिंह कहते हैं -- जब हजारों जन भूख से तड़प रहे हों ,तो किसी जमाखोर व्यापारी की मर्जी का कोई मतलब नहीं । मैंने अपनी प्रजा की प्राण -रक्षा के लिए अनाज लिया है।न्याय तो तब होगा ,जब तुम माखन के गोदाम का सारा अनाज जब्त करो और भूखों मर रही जनता में बाँट दो। " लेकिन मुकदमे और न्याय का नाटक कर रहे कम्पनी सरकार के अंग्रेज अफ़सर पर वीर नारायण सिंह की इन दलीलों का कोई असर नहीं हुआ ।उन्हें जेल में बंद रखा गया । इसके बावजूद अपने देशभक्त जेल कर्मचारियों की मदद से नारायण सिंह 28 अगस्त 1857 को वार्ड की दीवार पर बनाए गए एक बड़े छेद से निकलकर सोनाखान पहुँच गए। लेकिन दो दिसम्बर 1857 को अंग्रेज कैप्टन स्मिथ और नेपियर की फौज के साथ हुए युद्ध में नारायण सिंह ने विवश होकर स्वयं को अंग्रेजों के सामने प्रस्तुत कर दिया। कैप्टन स्मिथ की फौज ने सोनाखान को राख में तब्दील कर दिया था *************** इस बीच एक दिसम्बर की रात कैप्टन स्मिथ ने अपनी फौज से सोनाखान की निर्जन बस्ती में आग लगवा दी और गाँव को राख में तब्दील कर दिया।उसने देवरी के जमींदार महाराज साय से कहा -लो ,महाराज साय अपना इनाम। ये रहा सोनाखान।अब तुम हो सोनाखान के जमींदार। " गिरफ़्तार हुए नारायण सिंह पर अंग्रेज हुकूमत की ओर से रायपुर में डिप्टी कमिश्नर इलियट की अदालत में फिर एक बार मुकदमे का नाटक हुआ।स्मिथ उनसे कहता है -" व्यापारी के गोदाम से अनाज लूटने के आरोप में तुम्हे गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया जा रहा था।ट्रायल के दौरान तुम जेल से फरार हो गए और 500 लोगों की सेना तैयार कर ली।जब तुम्हें गिरफ्तार करने पलटन पहुँची ,तो तुमने उस पर आक्रमण कर दिया।कम्पनी सरकार ने तुम्हारी इन हरकतों को राजद्रोह करार दिया है। "इलियट उनसे पूछता है -तुम्हें अपनी सफाई में कुछ कहना है? विदेशियों की इस अदालत को मैं मान्य नहीं करता ******* इस पर वीर नारायण सिंह का जवाब था - "पहली बात तो यह कि तुम विदेशियों की इस अदालत को मैं मान्य नहीं करता।"स्मिथ फिर बोला-यह कोर्ट की तौहीन है।तुम्हें अदालत का सम्मान करना होगा।" नारायण सिंह ने उसे जवाब दिया -"तुम फिरंगी हमारे देश में व्यापार करने आए थे न?लूट-खसोट और फूट डालकर राज्यों और जमींदारियों पर अवैध कब्जा जमा रहे हो ।तुम किस आधार पर मुझे देशद्रोही करार देते हो? क्या यह देश तुम्हारा है ? रहा सवाल सम्मान का ,तो वह हम तुम्हें अवश्य देते ,यदि तुम्हारा आचरण अतिथि जैसा होता। ये देश तुम्हारा नहीं ,हमारा है।हम तुम्हें राजा नहीं मानते तो राजद्रोह का प्रश्न ही उपस्थित नह होता।" अंततः उनकी देशभक्तिपूर्ण सभी दलीलों को अमान्य करते हुए इलियट की अदालत ने नारायण सिंह को फाँसी की सजा सुना दी। अंतिम इच्छा ;फिरंगी मेरा देश छोड़कर चले जाएँ ********* इलियट ने 10 दिसम्बर 1857 को सुबह फाँसी देने के पहले वीर नारायण सिंह से पूछा -माफी के अलावा तुम्हारी कोई इच्छा है,तो कह सकते हो।इस पर नारायण सिंह बोले -मेरे सिर पर पड़ा यह चोंगा उतार दिया जाए,ताकि मैं अपनी धरती और अपनी मातृभूमि के अंतिम दर्शन कर सकूं।इलियट ने फिर पूछा -और कोई इच्छा ? नारायण सिंह ने कहा -मेरी अंतिम इच्छा है कि फिरंगी मेरा देश छोड़कर चले जाएँ । आखिर अंग्रेजों ने नारायण सिंह को फाँसी पर लटका दिया।वीर नारायण सिंह अपनी प्रजा और अपने देश के लिए शहीद हो गए। छिपा हुआ साम्राज्यवादी एजेंडा लेकर आयी थी ईस्ट इंडिया कम्पनी ******** हमारे देश को गुलाम बनाना भले ही अंग्रेजों का दूरगामी और छिपा हुआ साम्राज्यवादी एजेंडा रहा होगा , लेकिन इसमें दो राय नहीं कि वे सबसे पहले ईस्ट इंडिया कम्पनी बनाकर इस महादेश में व्यापार करने आए थे। उन्होंने अपनी कपट नीति और कूटनीति से भारत में कारोबार का ऐसा मायाजाल फैलाया कि उस ज़माने की छोटी -बड़ी अधिकांश रियासतों के राजे -महाराजे उसमें उलझ कर अंग्रेजों की इस 'कम्पनी सरकार' के सामने नतमस्तक होते चले गए। तत्कालीन युग का विशाल अखण्ड भारत अंग्रेजों का गुलाम बन गया। भारत माता को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए देश के विभिन्न इलाकों में वर्षों तक रह-रहकर कई स्थानीय और व्यापक विद्रोह भी हुए ।झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के वर्ष 1857 की महान संघर्ष गाथा इतिहास में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के रूप में दर्ज है। इस विद्रोह के बाद इंग्लैंड की हुकूमत ने भारत का शासन और प्रशासन ईस्ट इंडिया कम्पनी से अपने हाथों में ले लिया। परलकोट के गैंद सिंह की शहादत ******* वैसे नारायण सिंह की शहादत के 32 साल पहले छत्तीसगढ़ अंचल में भी अंग्रेजों की 'कम्पनी सरकार 'के ख़िलाफ़ संघर्ष का वीरतापूर्ण इतिहास मिलता है ,जिसमें परलकोट यानी वर्तमान बस्तर राजस्व संभाग के कांकेर जिले में पखांजूर का इलाका भी इसका साक्षी रहा है ,जहाँ वर्ष 1825 में परलकोट के जमींदार गैंद सिंह को अंग्रेजों ने उनके महल के सामने 20 जनवरी को फाँसी पर लटका दिया था। सोनाखान के नारायण सिंह की शहादत 10 दिसम्बर 1857 को हुई। आज़ादी मिलने के दस साल बाद शहीद घोषित हुए वीर नारायण सिंह ************ असंख्य वीरों के महान संघर्षों से देश को 15 अगस्त 1947 को आज़ादी मिली और उसके लगभग 10 साल बाद 1957 में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शताब्दी वर्ष के दौरान तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने सोनाखान के नारायण सिंह को छत्तीसगढ़ का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और पहला शहीद घोषित किया । यानी पूरे सौ साल बाद उन्हें यह सम्मान मिला वरिष्ठ साहित्यकार और इतिहासकार हरि ठाकुर ने नारायण सिंह के बलिदान पर एक आलेख भी लिखा था ,जिसके छपने के बाद तत्कालीन मध्यप्रदेश सरकार ने इसका संज्ञान लिया और बलौदाबाजार के तत्कालीन तहसीलदार से जाँच प्रतिवेदन मंगवाया । नारायण सिंह को शहीद और स्वतंत्रता सेनानी का दर्जा हरि ठाकुर के इसी आलेख के आधार पर दिया गया। हरि ठाकुर ने दिया 'वीर 'विशेषण ****** हरि ठाकुर के सुपुत्र और उपन्यास के लेखक आशीष सिंह ने पुस्तक की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालते हुए प्रारंभिक पन्नों में इस प्रसंग का उल्लेख किया है। उन्होंने यह भी लिखा है कि नारायण सिंह को 'वीर' विशेषण मेरे पिता (हरि ठाकुर) के द्वारा दिया गया था ,जो अब नारायण सिंह के साथ अटूट रूप से जुड़ गया है। रायपुर की सैन्य छावनी में हुए 17 शहीद *********** दिसम्बर 1857 में वीर नारायण सिंह की शहादत के बाद जनवरी 1858 में रायपुर की सैन्य छावनी में अंग्रेज अफसरों के ख़िलाफ़ मैग्जीन लश्कर हनुमान सिंह के नेतृत्व में एक सैन्य विद्रोह भड़क उठा था,जिसमें हनुमान सिंह ने तीसरे नियमित रेजिमेंट के सार्जेंट मेजर सिंडवेल की उसके बंगले में घुसकर तलवार से हत्या कर दी थी। हनुमान सिंह अंग्रेजो के शस्त्रागार को कब्जे में लेना चाहते थे ,लेकिन उनका और उनके साथियों का यह विद्रोह विफल हो गया। इस घटना के बाद हनुमान सिंह अज्ञातवास में चले गए और उनका कोई पता नहीं चला ।लेकिन उनके 17 साथियों को पकड़ लिया गया ,जिन्हें 22 जनवरी 1858 को फाँसी पर लटका दिया गया। यह उपन्यास वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौर में छत्तीसगढ़ में घटित ऐसी कई भूली -बिसरी घटनाओं की याद दिलाता है । -स्वराज्य करुण

Monday, June 19, 2023

(आलेख) साहित्य और पत्रकारिता के इतिहास पुरुष पण्डित माधवराव सप्रे ; लेखक स्वराज्य करुण

आज 19 जून को उनकी जयंती छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के युग प्रवर्तक साहित्यकार पण्डित माधवराव सप्रे को आज उनकी जयंती पर शत -शत नमन। उनका जन्म 19 जून 1871 -ग्राम पथरिया (जिला -दमोह)मध्यप्रदेश में और निधन23 अप्रैल 1926 को रायपुर (छत्तीसगढ़)में हुआ था। उन्होंने आज से 123 साल पहले 1900 में छत्तीसगढ़ के पेण्ड्रा (जिला -बिलासपुर) से अपने साथी रामराव चिंचोलकर के साथ मासिक पत्रिका 'छत्तीसगढ़ मित्र' का सम्पादन प्ररंभ करके , तत्कालीन समय के इस बेहद पिछड़े इलाके में पत्रकारिता की बुनियाद रखी। इस पत्रिका के प्रकाशक (प्रोपराइटर)थे छत्तीसगढ़ में सहकारिता आंदोलन के प्रमुख सूत्रधार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रायपुर के वामन बलिराम लाखे । पत्रिका का मुद्रण रायपुर और नागपुर में हुआ।आर्थिक कठिनाइयों के कारण मात्र तीन साल में इसे बंद करना पड़ा । लेकिन यह पत्रिका छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता की ऐतिहासिक बुनियाद बन गयी। सप्रेजी की ज़िंदगी का सफ़र महज़ 55 साल का रहा ,लेकिन अपनी कर्मठता और संघर्षशीलता के कारण इस अल्प अवधि में वह अपनी लेखनी से जनता के दिलों में छा गए। उनकी रचनाएँ हिन्दी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं।
साहित्य और पत्रकारिता के इतिहास पुरुष सप्रेजी की लिखी ,'एक टोकरी भर मिट्टी ' को हिन्दी की पहली कहानी होने का गौरव प्राप्त है। सप्रे जी ने महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य पण्डित बालगंगाधर तिलक के प्रखर विचारों को हिन्दी भाषी लोगों में प्रचारित करने के लिए वर्ष 1907 में नागपुर से 'हिन्दी केसरी ' साप्ताहिक का सम्पादन और प्रकाशन प्रारंभ किया था। तिलकजी मराठी में साप्ताहिक अख़बार 'केसरी' निकालते थे। सप्रेजी को वर्ष 1908 में 'हिन्दी केसरी' में अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी लेखों के कारण राजद्रोह के आरोप में भारतीय दंड विधान की धारा 124(ए)तहत गिरफ़्तार किया गया था। उनके साथ 'देशसेवक' समाचार पत्र के सम्पादक कोल्हटकर जी भी गिरफ़्तार हुए थे। सप्रेजी ने कई मराठी ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद भी किया। इनमें लोकमान्य बालगंगाधर तिलक द्वारा मंडल(म्यांमार)की जेल में कारावास के दौरान रचित900 पृष्ठों का 'श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य' भी शामिल है ,जो 1915 में छपा था। सप्रे जी ने 'गीता रहस्य' के नाम से इसका हिन्दी में अनुवाद किया ,जो 1916 में प्रकाशित हुआ। उन्होंने चिंतामणि विनायक वैद्य के मराठी ग्रंथ महाभारत के उपसंहार' का भी हिन्दी अनुवाद किया,जो 'महाभारत मीमांसा' शीर्षक से 1920 में छपा। सप्रे जी द्वारा अनुवादित मराठी कृतियों में समर्थ श्री रामदास रचित 'दासबोध' भी उल्लेखनीय है।नागपुर में सप्रेजी ने हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने के लिए 'हिन्दी ग्रंथमाला' का भी प्रकाशन प्रारंभ किया था।। सप्रेजी को पुनः विनम्र नमन।- स्वराज करुण

Tuesday, June 13, 2023

जानलेवा साबित हो रहे हैं रेलिंग विहीन रोड डिवाइडर

इसमें दो राय नहीं कि सड़कें बहुत अच्छी बन रही हैं ,लेकिन कई इलाकों में फोर लेन और सिक्स लेन सड़कों पर डिवाइडरों में रेलिंग नहीं होने के कारण हर पल दुर्घटनाओं का खतरा बना रहता है। दरअसल इन डिवाइडरों में हरियाली के लिए झाड़ीनुमा पौधे लगाए जाते हैं , जिन्हें खाने के लिए आस- पास के गाँवों के मवेशी वहाँ आते -जाते रहते हैं। ये रेलिंग विहीन रोड डिवाइडर प्राणघातक साबित हो रहे हैं। कई सड़कों पर ये डिवाइडर ज़रूरत से ज़्यादा चौड़े बनवाए गए हैं। कई बार ये मासूम मवेशी थकान मिटाने के लिए उन रेलिंग विहीन डिवाइडरों की झाड़ियों की छाँव में बैठ जाते हैं। चाहे जो भी कारण हो , कई बार ये बेचारे मासूम जानवर सड़क पार करने के चक्कर में वाहनों से टकराकर घायल हो जाते हैं और उनमें से कइयों की मौत भी हो जाती है। इन मवेशियों से टकराकर कई वाहन भी गंभीर रूप से दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं।फलस्वरूप उनके चालक और साथ बैठे यात्री भी गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं। ऐसी दुर्घटनाएं विशेष रूप से रात के समय ज़्यादा होती हैं। कई बार कुछ लापरवाह किस्म के राहगीर भी शार्टकट के चक्कर में पैदल अथवा अपनी दोपहिया गाड़िया सहित इन डिवाइडरों को पार करते समय अचानक सामने आए वाहनों से टकरा कर घायल हो जाते हैं । इन हादसों से बचाव के लिए फोर लेन और सिक्स लेन की सड़कों के डिवाइडरों में दोनों तरफ रेलिंग लगवाने की ज़रूरत है। मेरा विनम्र निवेदन है कि मासूम पशुओं सहित आम जनता की जीवन रक्षा के लिए इस पर गंभीरता से विचार किया जाए और सड़क बनाने वालों को रेलिंग लगाने के सख़्त निर्देश दिए जाएँ। -स्वराज्य करुण

Friday, June 9, 2023

(पुस्तक -चर्चा )मंदिर सलामत है : हमारे सामाजिक परिवेश की कहानियाँ

शिवशंकर पटनायक की सैंतीसवीं किताब (आलेख : स्वराज करुण ) विभिन्न विधाओं की साहित्यिक रचनाओं की तरह कहानियाँ भी हमारे सामाजिक परिवेश में ही लिखी जाती हैं। उनका ताना -बाना हमारे समाज में होने वाली सुखद या दुःखद घटनाओं पर ही बुना जाता है। यह ताना -बाना कोई भी रचनाकार अपनी कल्पनाओं के धागों को यथार्थ के रंगों में रंगकर ही बुनता है। ऐसे अग्रणी रचनाकारों में छत्तीसगढ़ के शिवशंकर पटनायक भी शामिल हैं । वे इस प्रदेश के उन साहित्यकारों में से हैं , जो ग्रामीण परिवेश के निवासी हैं और महासमुंद जिले के पिथौरा जैसे छोटे -से गाँवनुमा कस्बे में रहकर समर्पित भाव से साहित्य की सेवा कर रहे हैं। उनकी साहित्य -साधना अर्ध -शताब्दी से भी अधिक समय से अनवरत जारी है। कहानियाँ ,निबंध और उपन्यास उनके लेखन की प्रमुख विधाएँ हैं। उनका नवीनतम कहानी संग्रह 'मंदिर सलामत है ' हाल ही में प्रकाशित हुआ है।यह उनकी सैंतीसवीं किताब है। अब तक 37 किताबों का लेखन और प्रकाशन साहित्य साधना के प्रति उनके समर्पण और उनकी असाधारण साहित्यिक प्रतिभा का सबसे बड़ा उदाहरण है। उनकी ताजातरीन किताब 'मंदिर सलामत है' कुल 10 कहानियों का संकलन है। संग्रह की पहली कहानी 'मंदिर सलामत है ' एक कस्बे मे हुए दो वैवाहिक आयोजनों पर लिखी गयी है। यहाँ मंदिर से लेखक का आशय घर-परिवार से है , जिसे सलामत रखना हम सबकी जिम्मेदारी है । रंग -भेद की सामाजिक बुराई को भी इसमें उकेरा गया है।
इन वैवाहिक आयोजनों में में से एक में नायिका सांवले रंग की होने के कारण समाज के कुछ लोग उसकी आलोचना करते हुए सगाई और विवाह को तोड़ने की कोशिश करते हैं, लेकिन सफल नहीं हो पाते और नेहा और प्रभाष का विवाह सम्पन्न हो जाता है । दूसरी घटना उस परिवार में घटती है ,जिसके मुखिया की पत्नी श्रीमती उर्मिला दास ने मिस्टर षड़ंगी की उच्च शिक्षित सहायक प्राध्यापिका बिटिया नेहा के काले रंग को लेकर सार्वजनिक रूप से प्रतिकूल टिप्पणी की थी। लेकिन वहीं जब उस परिवार की बेटी पूनम की शादी के दौरान कुछ लोग अफवाहों से प्रभावित होकर उस बेटी पर चरित्रहीनता का लांछन लगाते हैं और वैवाहिक अनुष्ठान में व्यवधान डालने का प्रयास करते हैं ,तब मिस्टर षड़ंगी की समझाइश पर ही पूनम का विवाह निर्विघ्न सम्पन्न हो जाता है। यहाँ लेखक ने इन दोनों घटनाओं का वर्णन आत्मकथ्य के रूप में किया है। लेखक को पूनम के पिता मिस्टर दास हाथ जोड़कर कहते हैं -- षड़ंगी साहब , आपने तो पूनम बिटिया का मंदिर बनाकर पुण्य अर्जित कर लिया, किंतु मैंने और मेरी पत्नी ने नेहा बिटिया का मंदिर ध्वंस कर जो पाप किया है , उसका प्रायश्चित हम किस प्रकार करेंगे? लेखक कहते हैं कि मैंने मिस्टर दास को आलिंगन में भरकर कहा -"आपको और आपकी धर्मपत्नी को नेहा को लेकर अपराध-बोध पालने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है ,क्योंकि महाकाल महादेव की अति कृपा से उसका मंदिर सलामत है।" संग्रह की अन्य कहानियों में (1) अधिकारी (2)जोजवा (3)मेहरबानी का कर्ज (4)कर्म -दंड (5) दाऊजी (6) तुमने सही कहा था (7)कर्त्तव्य -बोध (8) आक्रोश और (9) चैती शामिल हैं। ये कहानियाँ भी हमारे सामाजिक परिवेश के इर्दगिर्द होने वाली घटनाओं को रेखांकित करती हैं । संग्रह की प्रत्येक कहानी में कोई न कोई सार्थक सामाजिक संदेश ज़रूर गूंजता है। शिवशंकर पटनायक के प्रकाशित अन्य कहानी संग्रहों में (1)पराजित पुरुष (2) प्रारब्ध (3) पलायन और (4) डोकरी दाई भी काफी चर्चित और प्रशंसित हैं। उनके अधिकांश उपन्यास पौराणिक पात्रों और घटनाओं पर आधारित हैं।इनमें महाभारत की पृष्ठभूमि पर आधारित (भीष्म प्रश्नों की शर-शैय्या पर (2)कालजयी कर्ण और (3) एकलव्य भी उल्लेखनीय हैं । उन्होंने महाभारत की प्रमुख पात्रव कुन्ती और रामायण की मंदोदरी पर भी उपन्यासों की रचना की है। रामायण के पात्रों पर आधारित 'अग्नि स्नान' सहित 'कोशल नंदिनी ' जैसे उनके उपन्यास भी काफी प्रशंसित रहे हैं।उनका उपन्यास 'अग्नि स्नान ' रामायण के खलनायक 'रावण ' के आत्मकथ्य पर आधारित है।शिवशंकर पटनायक ने छत्तीसगढ़ के लोक देवता करिया धुर्वा पर भी एक उपन्यास लिखा है। उनके सहित निबंध संग्रहों में (1) आप मरना क्यों नहीं चाहते (2) भाव चिन्तन और (3)मानसिक दशा एवं दर्शन सम्मिलित हैं। आलेख - स्वराज करुण

Monday, June 5, 2023

(आज विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष) लगातार टूटते -झुकते पहाड़ !-लेखक : स्वराज्य करुण

हरे -भरे पहाड़ लगातार टूट रहे हैं। उनके झरनों पर और उनकी कन्दराओं में रहने वाले वन्य जीवों पर संकट गहराने लगा है। आज पर्यावरण दिवस पर हमें इन टूटते ,झुकते पहाड़ों की भी चिन्ता करनी ही चाहिए । लेकिन आधुनिकता की सुनामी में वो तो टूटेंगे ही ,क्योंकि सीमेन्ट -कांक्रीट का मकान बनवाना अब शायद लोगों की मज़बूरी हो गयी है ।
खपरैल वाली छतों से हर बरसात में पानी टपकने का डर बना रहता है । हर साल मानसून आने से पहले खपरा पलटवाने का झंझट ! हालांकि पहले भी लोग खपरैलों से ढँके मकानों में ही रहते थे। लेकिन आज के दौर में वनों के निरंतर कटते जाने से वन्य प्राणी भोजन -पानी की तलाश में मनुष्यों की बस्तियों में मंडराने लगे हैं।ग्रामीण इलाकों में खपरैल की छतों पर बन्दरों का उपद्रव बढ़ने लगा है।जो अपनी उछल-कूद से खपरैलों को तोड़ -फोड़ देते है ,फिर कच्ची ईंटों और मिट्टी के मकानों पर जंगली हाथी यदाकदा धावा बोल देते हैं । इसके अलावा साँप -बिच्छुओं और अन्य ज़हरीले कीड़े -मकोड़ों के डर तथा आधुनिक जीवन - शैली की चाहत की वज़ह से भी लोगों में मिट्टी की मोटी दीवारों वाले मकानों से अरुचि होने लगी है ,जबकि ऐसे मकान गर्मियों में सुकून भरी ठंडक और ठंड के मौसम में गुनगुनी गर्मी का एहसास देते हैं। कई कारणों से मिट्टी के मकानों के प्रति लोगों दिलचस्पी कम हो रही है । इसके साइड इफेक्ट भी साफ़ दिखने लगे हैं । गर्मियों में सीमेंट -कांक्रीट के मकान किसी तन्दूर की तरह भभकते हैं और अचानक बिजली चली जाने से पँखे ,कूलर और एसी बन्द हो जाने के बाद कुछ समय के लिए उमस भरी यातना झेलनी पड़ती है । कांक्रीट बनाने के लिए चलने वाले क्रशर यूनिटों के आस -पास स्वाभाविक रूप से वायु प्रदूषण होता ही है ,जिसका दुष्प्रभाव मानव और पशु - पक्षियों के स्वास्थ्य और पेड़ - पौधों पर भी पड़ना स्वाभाविक है फिर भी ऐसे मकानों के प्रति अमीर -गरीब , सबमें आकर्षण बढ़ रहा है ।शहरों में खपरैलों की बिक्री अब नज़र नहीं आती । फलस्वरूप कुम्हारों की आमदनी कम हो रही है ,हालांकि वो मिट्टी के घड़े और गमले आदि बनाकर और बेचकर अपना और अपने परिवार का किसी तरह गुजारा कर रहे हैं । लोग अब खपरैल वाली नहीं ,बल्कि सीमेंटेड यानी लेंटर्ड छतों के मकान चाहते हैं । बहुत मज़बूरी में ही कोई खपरैल का मकान बनवाता है ,या उसमें रहता है । सोचने के लिए मज़बूर करने वाला सवाल ये है कि हमारे पूर्वजों ने तो खपरैल और मिट्टी के बने मकानों में पीढ़ियाँ गुज़ार दी , फिर हम क्यों अपने लिए सीमेन्ट -कांक्रीट का जंगल खड़ा करना चाहते हैं ,जो पर्यावरण के लिए भी घातक साबित हो रहे हैं ? पहाड़ टूटेंगे तो हरियाली और बारिश भी कम होगी ही । हमें कोई न कोई नया विकल्प सोचना होगा । *********