Friday, May 12, 2023

(आलेख)दुनिया की तमाम नर्सों की प्रेरणा स्रोत फ्लोरेंस नाइटिंगेल ; 203वीं जयंती ; विश्व नर्सिंग दिवस

आलेख :  स्वराज करुण 

     कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी हमें अपना हर कार्य बहुत धैर्य से करना चाहिए। दुनिया भर के सभी अस्पतालों की नर्सों की कठिन ड्यूटी को देखकर हमें यही सीख मिलती है। अस्पतालों में डॉक्टरों की भूमिका तो अपनी जगह सबसे महत्वपूर्ण होती है ,लेकिन उनके साथ कदम से कदम मिलाकर ओपीडी और ऑपरेशन थियेटरों तक मरीजों की सेवा करने वाली नर्सों का योगदान भी बहुत महत्वपूर्ण होता है। अस्पताल के गहन चिकित्सा कक्ष में अपने मस्तिष्क के एक जटिल ऑपरेशन के लगभग  एक सप्ताह बाद बाद कल शाम को ही घर लौटा हूँ। जब तक वहां भर्ती रहा , मेरे साथ -साथ अन्य गंभीर मरीजों की सेवा में तमन्यता से लगी नर्सो के धीरज को  देखकर मुझे फ्लोरेंस नाइटिंगेल की याद आती रही , जो दुनिया की तमाम नर्सों की प्रेरणास्रोत हैं ।संयोगवश आज 12 मई 2023 को उनकी 203 वीं जयंती है ,जो विश्व नर्सिंग दिवस के रूप में मनायी जा रही है। दर्द से कराहते मरीजों को दिलासा देना ,अचानक किसी मरीज की तबियत बहुत ख़राब हो जाए तो डॉक्टरों को सूचित करना , चाहे रात के दो बजे जाएं मरीजों  समय पर दवाइयाँ खिलाना , थर्मामीटर से उनके शरीर का तापमान लेना , मरीज को दी जा रही दवाइयों का और तापमान का हर घण्टे का रिकार्ड दर्ज करना , ये कोई साधारण काम नहीं हैं।मुझ जैसा साधारण व्यक्ति नर्सो की सेवा भावना और उनके सेवा कार्यो  का भला क्या प्रतिदान दे सकता है ? 

कोई कह सकता है कि उन्हें तो ड्यूटी के लिए तनख़्वाह मिलती है , लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि  पीड़ित मानवता की सेवा के किसी भी कार्य का मूल्यांकन रुपए -पैसों से नहीं किया जा सकता। आज विश्व नर्सिंग दिवस के के उपलक्ष्य में  फ्लोरेंस नाइटेंगल पर केन्द्रित मेरा यह आलेख दुनिया भर की तमाम नर्सो को समर्पित है ।

                            




           कोई भी धर्म मानवता से बड़ा नहीं 

अस्पताल एक ऐसी जगह है ,जहाँ इंसानों की जान बचाने के लिए न तो उनका धर्म देखा जाता है और न ही देखी जाती है उनकी जात ! अस्पतालों में मरीज मनुष्य के रूप में आते हैं ,हिन्दू मुसलमान ,सिक्ख या ईसाई के रूप में नहीं। मंदिर ,मस्ज़िद और मीनार के फ़िजूल धार्मिक विवादों में जनता को उलझाने वाले लोगों को देश और दुनिया भर के अस्पतालों से , ,वहाँ के डॉक्टरों और वहाँ की नर्सों से  सीखना चाहिए कि कोई भी धर्म मानवता से बड़ा नहीं होता। मानवता की सेवा के लिए  वहाँ की नर्सें भी  सदैव मुस्तैद रहती हैं।वे  अपनी सेवा भावना से सबको यह संदेश देती हैं कि  उनके लिए मानवता की सेवा ही सच्चा धर्म है।

   चाहे बाढ़ , तूफ़ान और  भूकम्प  जैसी प्राकृतिक आपदाएँ हों या युद्ध ,  महायुद्ध या महामारी  जैसे  मानवीय संकट , कहीं  अग्नि दुर्घटना हो गई हो ,या सड़क दुर्घटना  , वे हर हाल में इन हादसों से  पीड़ित इंसानों  की मदद के लिए ततपर रहती हैं। घायल और बीमार मरीजों की सेवा करती हैं। उन्हें अस्पतालों में रात दिन भाग दौड़ करते देखा जा सकता है।  डॉक्टरों के साथ मिलकर वो सामान्य दिनों में भी अस्पतालों में मरीजों के इलाज में मददगार की भूमिका में रहती हैं। 

    विगत दो वर्षों में कोरोना के दौरान भी उन्होंने अस्पतालों में मरीजों का जीवन बचाने के लिए पीपीई किट पहनकर , पसीने से लथपथ होकर भी चौबीसों घंटे ड्यूटी पर तैनात रहीं। आज 12 मई को उन्हीं सेवाभावी नर्सों की प्रेरणास्रोत फ्लोरेंसनाइटिंगेल की 202 वीं जयंती है। उन्हें विनम्र नमन।उनकी याद में आज पूरी दुनिया में नर्सिंग दिवस मनाया जाता है। उन्हें याद करते हुए  आज देश और दुनिया की करोड़ों नर्सों के प्रति सम्मान और कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है। 

     वैसे तो अस्पतालों में  मरीजों के इलाज़ में डॉक्टरों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है ,लेकिन  उनके  सहयोगी के रूप में नर्सों का भी बड़ा अहम रोल होता है ।  अगर डॉक्टर अपनी टीम का कप्तान होता है तो आज के युग में  नर्सें  उसकी टीम की सबसे  महत्वपूर्ण सदस्य होती हैं ,जल मरीजों की देखभाल सेवा भावना से और पूरी तन्मयता के साथ करती हैं ।  नर्सों के बिना किसी अस्पताल की कल्पना भी नहीं की जा सकती । 

     

         कौन थीं फ्लोरेंस नाइटिंगेल ?

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    पीड़ित मानवता की सेवा के लिए कर्म क्षेत्र में अपनी भावनाओं की ज्योति सदैव प्रज्ज्वलित रखने वाली महिला थीं फ्लोरेंस नाइटेंग । उनके  संघर्षपूर्ण और गरिमामय जीवन यात्रा के बारे में इंटरनेट पर  उपलब्ध अलग -अलग  जानकारियों के अनुसार वह एक  लेखिका भी थीं । उनकी पुस्तकों में 'लेटर्स फ्रॉम इजिप्ट ' 'नर्सिंग होम केयर ' 'नोट्स ऑफ़ नर्सिंग ' और 'नोट्स ऑन हॉस्पिटल्स '  उल्लेखनीय हैं  । उन्होंने वर्ष 1849 -1850 में अपने मित्रों के साथ इजिप्ट का दौरा किया था ।  इजिप्ट प्रवास पर आधारित उनकी यह किताब 1854 में छपी थी ।

      उनका जन्म- 12 मई, 1820 को फ्लोरेन्स (इटली ) में  एक सम्पन्न ब्रिटिश परिवार में हुआ था ।  निधन -13 अगस्त, 1910 को लन्दन में हुआ था  । वे  आधुनिक नर्सिग आन्दोलन की जननि ' मानी जाती हैं। आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न पारिवारिक पृष्ठभूमि के बावज़ूद उन्होंने नर्स बनकर  मानवता के कल्याण का मार्ग चुना । यह वर्ष 1840  के उन दिनों की बात है ,जब इंग्लैंड में भयानक अकाल पड़ा था । फ्लोरेन्स नाइटेंगल ने इस कठिन समय में अकाल पीड़ित बीमारों की  मदद के लिए अपने एक  पारिवारिक डॉक्टर  के साथ नर्स बनने की इच्छा जताई ।हालांकि इसके लिए उन्हें पारिवारिक विरोध भी सहना पड़ा ,लेकिन उनके दृढ़ संकल्प की वज़ह से माता पिता ने उन्हें सहमति दे दी । क्रीमिया के युद्ध के दौरान वह  तुर्की में घायलों के उपचार के लिए 38 महिलाओं की टीम बनाकर युद्ध क्षेत्र में पहुँची । उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारावहाँ के सैन्य असपताल में भेजा गया था ।

      

     लेडी विथ द लैम्प की मिली उपाधि 

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       रात के समय जब डॉक्टर अपनी ड्यूटी के बाद चले जाते थे ,तब फ्लोरेन्स नाइटेंगल अँधेरे में मोमबत्तियां और लालटेन  जलाकर घायलों की देखभाल करती ।  इस पुण्य कार्य की वज़ह से उन्हें 'लेडी विथ द लैम्प ' की उपाधि से नवाज़ा गया था । वह सदैव सेवा की ज्योति जलाए रखने वाली एक ज्योतिर्मयी महिला थीं ।उन्होंने वर्ष 1859 के आसपास ' नोट्स ऑफ नर्सिंग ' नामक पुस्तक भी लिखी ।  उनकी प्रेरणा से ही महिलाएं नर्सिंग के क्षेत्र में आने लगीं । फ्लोरेन्स नाइटेंगल ने  अपने समय के शासकों को युद्ध ग्रस्त इलाकों में घायलों और बीमारों के इलाज की उचित व्यवस्था के लिए प्रेरित किया । पहले ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती थी । उन्होंने अपने अनुकरणीय सेवा कार्यों से अस्पतालों में नर्सिंग के प्रोफेशन को एक नयी पहचान दिलाई । लन्दन में उन्होंने वर्ष 1860 में सेंट थॉमस अस्पताल में  विश्व के प्रथम  नर्सिंग प्रशिक्षण स्कूल की स्थापना की ।

        -- स्वराज करुण 

(फोटो : इंटरनेट से साभार )

Wednesday, May 3, 2023

(आलेख) पारम्परिक और नागरिक पत्रकारिता पर कुछ विचार

 आज विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस ; चिन्तन -मनन का दिन 

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            (आलेख - स्वराज करुण )

संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वर्ष 1993 में की गयी घोषणा के अनुरूप सम्पूर्ण विश्व में हर साल तीन मई को मनाए जाने वाले विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस का यह 30 वां साल है। यूनेस्को ने इसे मनाने की सिफारिश की थी। आज इस  मौके पर पत्रकारिता की    सभी विधाओं में सक्रिय सभी लोगों को हार्दिक बधाई   और बहुत -बहुत शुभकामनाएँ । दुनिया के प्रत्येक लोकतंत्र में आधुनिक मीडिया के  सभी पहलुओं पर आज चिन्तन -मनन करने का दिन है। मेरे विचार से लोकतंत्र में प्रेस की आज़ादी और अभिव्यक्ति की आज़ादी , दोनों एक दूसरे के पूरक हैं  या एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उसी तरह एक आम नागरिक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रेस की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में कोई  फ़र्क नहीं है। है भी तो बहुत बारीक फ़र्क है ,क्योंकि प्रेस या मीडिया का संचालन भी नागरिक ही तो करते हैं। उनकी अभिव्यक्ति अगर बाधित होगी तो वे प्रेस या मीडिया का संचालन भला कैसे कर पाएंगे ? 

    आज की दुनिया में प्रेस का अर्थ बहुत व्यापक हो गया है। लोकतंत्र के इस नये युग में अब 'प्रेस' का मतलब सिर्फ़ छपा हुआ अख़बार नहीं है ,बल्कि उस तक समाचारों और विचारों की पूर्ति सतत बनाए रखने वाले रेडियो,टेलीविजन,  और इंटरनेट आधारित समाचार एजेंसियों सहित सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफार्म भी प्रेस के रूप में अपनी -अपनी भूमिका है ।लेकिन  पारम्परिक पत्रकारिता के रूप में प्रिंट मीडिया की भूमिका आज भी बहुत महत्वपूर्ण और ताकतवर बनी हुई है। छपे हुए शब्दों और विचारों का अपना महत्व होता है।

    इधर हो सकता है कि बहुत से लोग सोशल मीडिया को 'पत्रकारिता' मानने से  इंकार करें ,लेकिन यह पारम्परिक पत्रकारिता से हटकर 'सार्वजनिक पत्रकारिता'  अथवा 'नागरिक पत्रकारिता ' कहलाने की हक़दार तो बन ही चुकी है।भले ही इसके विभिन्न प्लेटफार्मों में मनुष्य को भ्रमित करने वाला शोरगुल बहुत है ,हर कोई इसमें अपनी बात कहने के लिए व्याकुल नज़र आता है ,लेकिन  यह सच्चाई है कि  आज  यह अभिव्यक्ति की आज़ादी का एक नया माध्यम है बन चुका है। सोशल मीडिया  अभिव्यक्ति की आज़ादी का एक नया माध्यम है। पारम्परिक पत्रकारिता में वैतनिक अथवा मानसेवी सम्पादक और वैतनिक , अवैतनिक संवाददाताओं का होना बहुत जरूरी है  । वो छपनीय जानकारी प्राप्त करने के लिए  किसी से भी कोई भी सवाल कर सकते हैं,  जबकि 'नागरिक पत्रकारिता 'में व्यक्ति को ऐसी आज़ादी नहीं है ,जबकि आज दुनिया का हर स्मार्ट फोन धारक व्यक्ति सूचनाओं ,समाचारों और विचारों का प्रेषक बनकर अप्रत्यक्ष रूप से ही क्यों न हो , एक 'नागरिक पत्रकार' (सिटीजन जनर्लिस्ट)  की भूमिका तो  निभा ही रहा है।वह अपने लिखे हुए का खुद सम्पादक ,मुद्रक और खुद प्रकाशक है। भले ही वह हमारी सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक  व्यवस्था के सूत्रधारों से आमने -सामने होकर कोई सवाल न  कर पाता हो ,लेकिन अपने इर्दगिर्द की घटनाओं और समस्याओं को सचित्र पोस्ट करके अप्रत्यक्ष रूप से सवाल तो उठा ही देता है और पारम्परिक प्रेस के लिए विषय अथवा मैटर का जुगाड़ भी कर देता है। वह भी एकदम निःशुल्क ,बल्कि खुद पैसे देकर ,यानी मोबाइल कम्पनियों  को  हर महीने सिम रिचार्ज के लिए अपनी जेब से सैकड़ों रुपए देकर वह 'नागरिक पत्रकारिता ' में अपना सहयोग दे रहा है। यह एक प्रकार की अनौपचारिक पत्रकारिता है। 

          दुनिया के बड़े - बड़े नेता, राष्ट्र  प्रमुख  और अफ़सर ,आजकल स्वयं न्यूज मेकर बन गए हैं जो  पारम्परिक प्रेस से साझा करने योग्य जानकारी सबसे पहले फेसबुक,  ट्विटर,ब्लॉग और वेबसाइट  पर फोटो और वीडियो सहित पोस्ट कर देते हैं ,जिन्हें अख़बार ,रेडियो और टीव्ही चैनल अपने लिए उठा लेते हैं। उन्हें पकी-पकाई सामग्री मिल जाती है।अब तो टीव्ही चैनलों की तरह यूट्यूब न्यूज चैनल भी ख़ूब चल रहे हैं।    

 सोशल मीडिया के ये सभी प्लेटफार्म निजी कम्पनियों द्वारा संधारित और संचालित हैं। वो जिस दिन चाहें ,इन्हें बंद भी कर सकती हैं।लेकिन विश्व के करोड़ो नागरिकों से  मिल रही तरह -तरह की सूचनाओं का विशाल बैंक उन्हें मुफ़्त में मिल रहा है और विज्ञापनों से भी  उनकी खरबों डॉलर की कमाई हो रही है।ऐसे में मुझे नहीं लगता कि वो  अपनी इन दुकानों को बंद करेंगीं। दुनिया भर में आज लगभग सभी सरकारी विभागों और  निजी कम्पनियों के अपने -अपने वेबसाइट हैं। लोकल से ग्लोबल तक हर तरह की जानकारी लोग इनमें अपने हिसाब से कहीं भी और कभी भी प्राप्त कर सकते हैं। प्रेस की स्वतंत्रता जनता की  अभिव्यक्ति की आज़ादी से जुड़ी हुई है ,जो एकतरफा कतई नहीं हो सकती। इसके साथ हमारी सामाजिक ,राष्ट्रीय और वैश्विक ज़िम्मेदारियाँ भी हैं। सूचनाएँ गलत न हों ,समाचार प्रायोजित न हों और विचार विषैले न हों और जन हित से जुड़े हुए हों , प्रेस की आज़ादी में इन बातों का  ध्यान रखना भी  बहुत जरूरी है।  -- स्वराज करुण

Sunday, April 30, 2023

(आलेख) सरहदों के मिलन -बिंदु पर आकर

(आलेख :  स्वराज्य करुण  )

जहाँ कुछ ही कदमों के फासले पर बदल जाती हैं संस्कृतियाँ ,भाषाएँ  और बोलियाँ ,वहाँ  इस बदलाव को देखना और महसूस करना क्या आपको  रोमांचक नहीं  लगता ? मुझे तो लगता है। देश के भीतर ऐसे कई सीमावर्ती  मिलन -बिंदु हैं ,जहाँ आकर हम और आप स्वयं को रोमांचित महसूस कर सकते हैं ,जहाँ  हमें अपने भारत की सांस्कृतिक विविधता के भी  कई रंग देखने को मिलते हैं।  

    ऐसा ही रोमांच हमें  पड़ोसी देशों से लगी हमारी अंतर्राष्ट्रीय  सीमाओं पर भी होता है , लेकिन मैं जिनकी चर्चा कर रहा हूँ ,वो हमारी आंतरिक (घरेलू ) सरहदें हैं। हालांकि  अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं पर कई तरह की सख़्त बंदिशें भी होती हैं ,लेकिन देश के अंदर राज्यों के बीच  अंतर्राज्यीय सरहदों पर  सब कुछ सहज भाव से चलता  है ,क्योंकि इन सरहदों के इधर -उधर  रहने के बावज़ूद हम सब एक हैं, एक ही देश के निवासी हैं । पिछले साल इन्हीं गर्मियों में उधर से गुजरते हुए  अपने मोबाइल कैमरे से  मैंने ये दृश्य संकलित कर लिए।  इन तस्वीरों में  नज़र आ रहे दो सरकारी बोर्ड हमारे देश के दो प्रदेशों  की सरहदों के मिलन बिंदुओं  के सूचक हैं। नीले रंग का बोर्ड ओड़िशा के लोक निर्माण विभाग का है और पीले कलर का बोर्ड छत्तीसगढ़ सरकार के लोक निर्माण विभाग का । दोनों बोर्डों के बीच कुछ ही कदम पैदल  चलकर हम एक -दूसरे के राज्यों में आ -जा सकते हैं। इन चंद कदमों के फासले पर ही काफी कुछ बदल जाता है। बच्चों की स्कूली पढ़ाई की भाषा बदल जाती है , शासन -प्रशासन बदल जाता है। सामाजिक -सांस्कृतिक  राजनीतिक और प्रशासनिक  गतिविधियाँ बदल जाती हैं।


                                             



बोलचाल के लिए उधर  छत्तीसगढ़ मे छत्तीसगढ़ी और हिन्दी का चलन है  और इधर ओड़िशा के इलाके में ओड़िया भाषा और सम्बलपुरी बोली। हालांकि एक दूसरे के  इलाकों में स्थानीय लोग एक -दूसरे की भाषाओं और बोलियों के भी अभ्यस्त हैं। इन भाषाओं और बोलियों में एक -दूसरे के यहाँ लोक संस्कृति से जुड़े कार्यक्रम भी समय -समय पर ख़ूब होते हैं। काम -काज के सिलसिले में एक -दूसरे के यहाँ आना -जाना भी हमेशा लगा ही रहता है। (स्वराज्य करुण ) यह स्थान छत्तीसगढ़ के तहसील मुख्यालय बसना (जिला -महासमुंद) से मात्र साढ़े तेरह किलोमीटर पर ओंग नदी के किनारे है। इधर से गुजरने वाली  सड़क बसना (छत्तीसगढ़ )से  ओड़िशा के सबडिविजनल मुख्यालय पद्मपुर की दिशा में जा रही है ,जो बसना से लगभग  40 किलोमीटर पर है। इस पुल से छत्तीसगढ़ के विकासखंड मुख्यालय बसना की दूरी मात्र साढ़े तेरह किलोमीटर है। कभी -कभी मुझे लगता है कि इस नदी का नाम 'ओम नदी'  या 'अंग नदी'  रहा होगा और शायद  समय के साथ आंचलिक उच्चारण के असर से जन -जीवन में इसका नाम 'ओंग' प्रचलित हो गया। पिछले साल जब मैं उस रास्ते से गुज़र रहा था ,तो वहाँ  छत्तीसगढ़ की तरफ की सड़क का उन्नयन और चौड़ीकरण किया जा रहा था। । उधर ओड़िशा की तरफ कुछ वर्ष पहले ओंग नदी पर एक बड़े पुल का निर्माण हो चुका है और आगे के  लगभग 26 किलोमीटर के रास्ते का चौड़ीकरण और डामरीकरण भी। इस रास्ते पर ओंग नदी का पुल पार करने के बाद आपको जगदलपुर भी मिलेगा , लेकिन वह  छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले का मुख्यालय जगदलपुर नहीं ,ओड़िशा का एक कस्बा है। इसके  आस - पास है  पहाड़ियों का  सुरम्य नैसर्गिक परिवेश । 

      दोनों सरहदों के मिलन -बिंदु के इर्द-गिर्द   कुछ पेड़ आम के भी हैं ,जो इन दिनों गर्मियों में फलों से लदे हुए नज़र आते है। फल अभी पके नहीं हैं। राहगीर कुछ फल चटनी और अचार बनाने के लिए तोड़ भी लें तो यहाँ कोई रोक -टोक नहीं है । यानी लगता है कि ये सार्वजनिक पेड़ हैं। अच्छा भी है। पहले ज़माने में राजा -महाराजा लोग जनता के लिए और कुछ करें या न करें ,लेकिन  सड़कों के किनारे फलदार पौधे जरूर लगवाते थे , जो बड़े होकर राहगीरों को छाया और स्वादिष्ट फल  मुफ़्त में दिया करते थे। ये पेड़ उनके लगवाए हुए हैं या  नहीं ,ये तो मुझे नहीं मालूम ,लेकिन जिन्होंने भी लगवाए होंगे , उनके इस परोपकार की प्रशंसा तो करनी ही चाहिए। उनसे प्रेरणा भी लेनी चाहिए।

    आलेख      -- स्वराज्य करुण 

  

(आलेख) जल -जीवन के साथ सूखने लगा जन -जीवन

(आलेख : स्वराज्य करुण  )

हमारी संस्कृति और हमारे जन -जीवन से जुड़ी नदियाँ पहले बारहमासी हुआ करती थीं ,अब उनमें से अधिकांश ' बरसाती नदियाँ ' कहलाने लगी हैं। ठीक भी है। बारहों महीने तो उनमें पानी नहीं रहता ।  आजकल उनके जल में जीवन की कुछ हलचल सिर्फ़ बरसात के दिनों में ही  नज़र आती है। पहले नदियों में नौकाओं के जरिए यातायात और माल परिवहन भी होता था । देश के भीतर  जल मार्ग से व्यापार व्यवसाय होने की जानकारी भी  इतिहास में मिलती है । कई नदियों के किनारे पुरातत्वविदों को उत्खनन में प्राचीन बंदरगाहों के अवशेष भी मिले हैं। 

    पहाड़ों की संतान हैं उनकी गोद से निकलने वाले नदी -नाले। लेकिन विगत सैकड़ों वर्षों से मानव के हाथों से हो रहे प्राकृतिक संसाधनों के असंतुलित और निर्मम दोहन की वजह से पहाड़ उजड़ने लगे और  नदियाँ भी सूखने लगीं ,पहाड़ों से निकलकर नदियों से मिलने वाले झरने भी सूखने लगे और जल मार्ग विलुप्त हो गए। यह सिलसिला आज भी जारी है। नदियों के साथ - साथ कई प्राकृतिक बरसाती नाले भी सूखकर बेजान होते जा रहे हैं। जब हमारी प्राकृतिक जल -धाराएँ सूखने लगीं तो धरती पर हमारा 'जन - जीवन 'भी इस समस्या से अछूता कैसे रह सकता है ?लिहाजा जल -जीवन के साथ जन -जीवन भी सूखने लगा । 


                                                    


                                   ( दृश्य  - पश्चिम ओड़िशा के ओंग नदी का , पिछले साल गर्मी के मौसम में ) 


     खेती के लिए पानी और सिंचाई भी जरूरी है। बिजली और  पेयजल के लिए भी पानी का बारहमासी स्रोत चाहिए। इसलिए नदियों पर छोटे-  बड़े बांधों के जरिए उनका पानी रोका जाने लगा तो उनकी  जल धाराएँ आगे नहीं बढ़ पायीं और आगे चलकर नदियाँ सूखने लगीं । बरसाती नाले भी।  मानव बसाहटों का कचरा नदी -नालों में डाला जाने लगा। ये प्राकृतिक जल स्रोत प्रदूषण का शिकार होने लगे।

     बड़े -बड़े उद्योगों को चलाने के लिए विशालकाय पाइप लाइनों के जरिए नदियों का  पानी सोखा जाने लगा। भू -जल का भी निर्मम शोषण होने लगा। हालांकि मानव जीवन के लिए तरह -तरह के उद्योग भी जरूरी हैं ,लेकिन उनमें पानी के  इस्तेमाल के लिए क्या कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं हो सकती ? वाटर रिचार्जिंग और रेन वाटर हार्वेस्टिंग की सहज -सरल तकनीक  शायद उनके लिए विकल्प बन सकती है। उनके लिए ही क्यों , आम जनता के लिए भी यह बहुत उपयोगी है। अब तो कई राज्यों में सरकारी और निजी भवन और  मकान बनाने के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग की तकनीक अनिवार्य कर दी गयी है।बरसात में छत पर जमा होने वाले पानी को पाइपों के माध्यम से ज़मीन के भीतर भेजकर इमारतों के आस -पास के गिरते हुए भू -जल स्तर को संभाला जा सकता है। बहुमूल्य  खनिज, वन और जल -सम्पदा के रूप में हम इंसान  प्रकृति से बहुत कुछ लेते हैं ,लेकिन जितना उससे लेते हैं ,उसके बदले हम उसे क्या और कितना देते हैं ? इस पर भी हमें विचार करना चाहिए ।

      भारत में नदियों को माता कहकर सम्बोधित किया जाता है ,क्योंकि वे अपने अमृत तुल्य पानी से मनुष्य का लालन -पालन करती हैं। लेकिन देश के कई शहरी इलाकों में नदियों के  इस  'अमृत जल ' को उनके बेटे -बेटियों  ने ही  विषैला बना दिया है। गंगा और यमुना के किनारे बसे कई शहरों से इस प्रकार के चिन्ताजनक सचित्र समाचार गाहेबगाहे आते रहते हैं। यह जरूर है कि नये दौर में वाटर ट्रीटमेंट तकनीक के जरिए हम नदियों के  प्रदूषित ,जहरीले पानी को भी साफ़ करके पीने योग्य बना रहे हैं। लेकिन यह तो कृत्रिम उपाय है। (स्वराज्य करुण) कृत्रिमता कभी  नैसर्गिकता का विकल्प नहीं बन सकती।  अगर जीवन को स्वस्थ रखना है तो नदी -नालों को भी स्वच्छ रखना होगा । उनकी गोद में कचरा डालना बंद करना होगा। उनके किनारों पर और उनके उदगम पहाड़ों पर  सघन वृक्षारोपण करना होगा। वर्तमान में प्राकृतिक वनों का असंतुलित दोहन भी नदी -नालों के सूखते जाने का एक बड़ा कारण है। नदी -नालों के किनारे बसे  कई गाँवों ,कस्बों और शहरों में ग्रीष्म ऋतु में पानी के लिए हाहाकार क्यों मचता है ,जबकि पानी का नैसर्गिक स्रोत तो उनके नज़दीक ही होता है ? इसके कई कारण हो सकते हैं।

   बाकी तो बड़े -बड़े विशेषज्ञ ही बताएंगे कि इस गंभीर समस्या के निराकरण के क्या -क्या उपाय हो सकते हैं ?   पिछले साल इन्हीं गर्मियों के दिनों में ओड़िशा में ओंग नदी के पुल से गुजरते हुए गर्मियों में सूखी इस  नदी की हालत को देखकर मन में ऐसे कई विचार आए  ,जिन्हें मैंने तस्वीरों सहित आप सबके चिन्तन-मनन के लिए  यहाँ प्रस्तुत  किया। 

आलेख : स्वराज्य  करुण

Friday, April 28, 2023

उत्कल गौरव मधुसूदन दास ; ओड़िशा राज्य के प्रथम स्वप्न दृष्टा

 

          (आलेख - स्वराज्य  करुण  )

  छत्तीसगढ़ , झारखण्ड और बंगाल के निकटतम पड़ोसी उत्कलवासी आज 28 अप्रैल को आधुनिक ओड़िशा राज्य के प्रथम स्वप्नदृष्टा  स्वर्गीय मधुसूदन दास को उनकी जयंती के दिन ज़रूर याद कर रहे होंगे । उन्होंने आज से लगभग 120 साल पहले अलग ओड़िशा राज्य का सपना देखा था और जनता को इसके लिए प्रेरित और संगठित किया था। 


                 


 ओड़िशा के समाचार पत्रों , ओड़िशा के टीव्ही चैनलों और सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्मों में भी आज लोग अलग -अलग तरीके से लोग उनके व्यक्ति और कृतित्व की चर्चा कर रहे होंगे। उत्कलवासियों ने उन्हें  'उत्कल गौरव 'का लोकप्रिय और आत्मीय सम्बोधन दिया । वह आज भी इसी सम्बोधन से याद किये जाते हैं । भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाकटिकट भी जारी किया था  ।वह बैरिस्टर (वकील ) होने के साथ -साथ विद्वान लेखक , चिन्तक और ओड़िया भाषा के लोकप्रिय साहित्यकार भी थे । उनका जन्मदिन ओड़िशा में 'वकील दिवस ' के रूप में भी मनाया जाता है ।

    स्वर्गीय मधुसूदन दास का जन्म 28 अप्रेल 1848 को तत्कालीन ब्रिटिश प्रशासित बंगाल प्रेसीडेंसी के अंतर्गत उत्कल क्षेत्र के ग्राम सत्यभामापुर (जिला -कटक) में हुआ था । उनका  निधन 4 फरवरी 1934 को कटक में हुआ । उन्होंने कोलकाता विश्वविद्यालय से एम .ए .और वकालत की शिक्षा प्राप्त की थी । स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने महत्वपूर्ण  योगदान दिया । वह पहले ऐसे प्रबुद्ध नागरिक थे ,जिन्होंने सबसे पहले एक अलग ओड़िशा राज्य की परिकल्पना की और इसके लिए लोगों को संगठित कर वर्ष 1903 में उत्कल सम्मिलनी की स्थापना की और इस  मंच के माध्यम से  लगातार जन जागरण का अभियान चलाया । सितम्बर 1897 में उन्होंने ब्रिटेन जाकर लंदन में   ब्रिटिश सरकार के सामने पृथक ओड़िशा राज्य की मांग रखी ।वह 1907 में एक बार फिर लंदन गए और ओड़िशा वासियों की समस्याओं और भावनाओं की ओर  ब्रिटिश सरकार का ध्यान आकर्षित किया । उत्कल सम्मिलनी के माध्यम से ओड़िशा राज्य निर्माण के लिए उनके नेतृत्व में जन जागरण के साथ -साथ जन आंदोलन भी चलता रहा ।

लेकिन  यह विडम्बना ही है कि ओड़िशा राज्य निर्माण का उनका सपना  उनके जीवनकाल में पूरा नहीं हो पाया । विधि का विधान देखिए कि ओड़िशा राज्य निर्माण के करीब 2 साल पहले ही 4 फरवरी 1934 को लगभग  86 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया  । ओड़िशा राज्य एक अप्रैल 1936 को अस्तित्व में आया ।  

       -स्वराज्य  करुण

आइए ,कुछ पल निकालकर करें वृक्ष-चिन्तन

 


(आलेख ; स्वराज्य करुण )

गर्मियों की तेज ,चिलचिलाती धूप में  राह चलते इंसान को कुछ पलों के सुकून के लिए शीतल छाँव की ज़रूरत होती है।  सड़कों के किनारे लगे नीम ,बरगद ,पीपल और कई अन्य छायादार पेड़ इंसान को निःशुल्क शीतलता प्रदान करते हैं। आम जैसे कई फलदार वृक्ष स्वादिष्ट फलों के साथ ठंडी छाँव भी देते हैं। पीपल का तो कहना ही क्या ?

   भारतीय संस्कृति का पूजनीय वृक्ष है पीपल । वैसे तो हमारी संस्कृति में बरगद ,आम ,आंवला  और बेल सहित  सभी वृक्ष पूजनीय हैं ,क्योंकि ये  हमारी  धरती पर  हर प्रकार से  प्राणी जगत की सेवा करते हैं ,हमें जीवित रहने के लिए बिना किसी भेदभाव के ,हर दिन भरपूर ऑक्सीजन देते हैं। अन्य प्रजातियों के वृक्षों की तरह यह भी पर्यावरण -हितैषी पेड़ है।    पीपल के बारे में कहा जाता है कि यह चौबीसों घंटे ऑक्सीजन देने वाला वृक्ष है। यह कहीं भी और कठोर भूमि पर भी उग सकता है। इसलिए आज के समय में उजड़ते पहाड़ों पर भी इसे उगाने की संभावनाओं पर हमें विचार करना चाहिए। परन्तु  अपने आस -पास देखें तो पता चलेगा कि यह तेजी से विलुप्त हो रहा है । पहले तो पीपल के पेड़ तालाबों के किनारे भी दिख जाते थे। नदी  -नालों के दोनों  किनारे भी तरह -तरह के सघन वृक्षों से सजे होते थे । लेकिन अब वो बात कहाँ ?  ऐसे में बचपन के दिनों में  अपनी स्कूली किताब 'बालभारती' में पढ़ी कविता की याद आती है --

यह कदम्ब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे

मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे -धीरे। 

पीपल सहित सभी  प्रजातियों के पेड़ --पौधों को बचाना और उनकी संख्या बढ़ाना हमारी ज़िम्मेदारी है। लेकिन आज आधुनिकता की सुनामी में  तूफ़ानी रफ़्तार से हो रहे  शहरीकरण  की वजह से वृक्षों के अस्तित्व पर संकट के घने बादल मंडरा रहे हैं। मनुष्यों की आबादी बढ़ रही है और वृक्षों की घट रही है। फिर भी मनुष्य अगर चाहे तो अपने जीवन में पेड़ -पौधों के लिए भी पर्याप्त जगह छोड़  सकता है।  -- स्वराज्य  करुण

Wednesday, April 26, 2023

(आलेख) आजकल ऐसी फिल्में क्यों नहीं बनतीं?

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को समर्पित एक फ़िल्म को याद करते हुए मन में उठा सवाल )

        (आलेख -स्वराज करुण)
अच्छा ,आप लोग जरा ये बताइए , आजकल  ऐसी फिल्में  क्यों नहीं बनतीं ,जो हमारे समाज की ज्वलंत समस्याओं को लेकर दर्शकों की चेतना को झकझोरती हों ,उन्हें सोचने के लिए मज़बूर करती हों? फिल्में मनोरंजन का माध्यम जरूर हैं लेकिन उनमें समाज के लिए कोई स्वस्थ और सार्थक संदेश भी तो होना चाहिए।
  क्या सचमुच हमारा समाज बदल गया है ?क्या ज़ुल्म और लूट का रिवाज़ बदल गया है ? अगर नहीं तो क्या फिर आजकल ऐसी फिल्मों और ऐसे गीतों की जरूरत नहीं है ,जिनमें तरह -तरह के ज़ुल्म-ओ-सितम से घिरे मनुष्य की मुक्ति और समाज में एक बेहतर बदलाव की चाहत हो ?
    अगर ऐसी फिल्में नहीं आ रही हैं तो उन  पुरानी फिल्मों के ऐसे गीत भी तो अब रेडियो और टीव्ही पर सुनने -देखने को नहीं मिल रहे हैं। शायद आज की समाज -व्यवस्था को ऐसे गीत बर्दाश्त नहीं होते। लेकिन पहले ऐसा नहीं था। व्यवस्था की विसंगतियों पर प्रहार करने वाली फिल्में भी आती थीं और उनमें ऐसे गाने भी होते थे ,जो रेडियो पर भी फ़रमाइशी कार्यक्रमों में प्रसारित भी होते थे ।

                                               


        
    उदाहरण के लिए वर्ष 1970 में आई फ़िल्म 'समाज को बदल डालो' को याद कीजिए । इस फ़िल्म का  शीर्षक ही अपने -आप में एक बड़ा सन्देश लिए हुए है। लोकप्रिय शायर साहिर लुधियानवी के लिखे इस गीत को सुप्रसिद्ध संगीतकार रवि (रविशंकर शर्मा)के संगीत निर्देशन में लोकप्रिय मोहम्मद रफ़ी ने अपनी आवाज़ दी थी।
फ़िल्म में  अजय साहनी ,शारदा ,प्रेम चोपड़ा, प्राण ,  अरुणा ईरानी ,महमूद  और कन्हैयालाल सहित  सहित कई बड़े कलाकारों ने  बेहतरीन अभिनय किया था। जेमिनी पिक्चर्स द्वारा निर्मित यह फ़िल्म राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को समर्पित की गयी है । बहरहाल आप इस फ़िल्म के शीर्षक गीत को पढ़िए ,यूट्यूब के लिंक को क्लिक करके  सुनिए और मनन कीजिए कि आजकल ऐसे फ़िल्मी गाने समाज से गायब क्यों हैं ?-
https://www.facebook.com/Brij1206/videos/10203763381107017/

समाज को बदल डालो
समाज को बदल डालो
समाज को बदल डालो
जुल्म और लूट के रिवाज़  को बदल डालो
समाज को बदल डालो

कितने घर हैं जिनमे आज रौशनी नहीं
कितने घर हैं जिनमे आज रौशनी नहीं
कितने तन बदन हैं जिनमे ज़िन्दगी नहीं

मुल्क  और कौम के मिज़ाज़  को बदल डालो
मुल्क  और कौम के मिज़ाज़  को बदल डालो
समाज को बदल डालो
जुल्म और लूट के रिवाज़  को बदल डालो
समाज को बदल डालो

सैकड़ों  की मेहनतों पर एक क्यूँ पले
सैकड़ों  की मेहनतों  पर एक क्यूँ पले
ऊँच नीच से भरा निज़ाम  क्यूँ चले
आज है यही तो ऐसे आज को बदल डालो
आज है यही तो ऐसे आज को बदल डालो

समाज को बदल डालो
जुल्म और लूट के रिवाज़  को बदल डालो
समाज को बदल डालो.

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