Thursday, March 4, 2021
केंवटिन देऊल : महानदी घाटी की सभ्यता का साक्षी
Friday, January 1, 2021
(आलेख ) ओ थके पथिक ! विश्राम करो ,मैं बोधि -वृक्ष की छाया हूँ ...!
(आलेख - स्वराज्य करुण )
छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के लिए अपनी मर्मस्पर्शी और ओजस्वी कविताओं के माध्यम से कई दशकों तक जन -जागरण में लगे पवन दीवान आज अगर हमारे बीच होते तो 76 साल के हो चुके होते । लेकिन तब भी उनमें युवाओं जैसा जोश और ज़ज़्बा जस का तस कायम रहता । वह छत्तीसगढ़ी और हिन्दी दोनों ही भाषाओं में समान रूप से लिखने और सस्वर काव्यपाठ करने वाले लोकप्रिय कवि थे ,जिन्हें संत कवि के नाम से भी सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ में अपार लोकप्रियता मिली। भागवत प्रवचनकर्ता के रूप में भी वह काफी लोकप्रिय रहे। उनका आध्यात्मिक नाम -स्वामी अमृतानन्द सरस्वती था।
यद्यपि अब वह हमारे बीच नहीं हैं ,लेकिन आज अंग्रेजी कैलेण्डर के प्रथम पृष्ठ पर नये साल का पहला दिन उनकी जयंती के रूप में हमें उनके विलक्षण व्यक्तित्व की और उनकी कविताओं की याद दिला रहा है। चाहे कड़ाके की ठंड हो , चिलचिलाती गर्मी हो , या फिर घनघोर बारिश ! हर मौसम में और हर हाल में गौर वर्णीय देह पर वस्त्र के नाम पर सिर्फ़ एक गेरुआ गमछा और पैरों में खड़ाऊँ ! यही था उनके आध्यात्मिक जीवन का सादगीपूर्ण पहनावा । इसके साथ ही सबको सम्मोहित करने वाला उनका आकर्षक अट्टहास ,लेकिन इस अट्टहास के पीछे वह अपने अंतर्मन की व्यथा को छुपकर रखते थे ,जो उनकी कविताओं में प्रकट होती थी। देश और विशेष रूप से छत्तीसगढ़ के किसानों ,मज़दूरों और आम जनों की कारुणिक परिस्थितियाँ उन्हें हमेशा व्यथित और विचलित करती थीं।
राज्य के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. परदेशीराम वर्मा ने वर्ष 2011 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'सितारों का छत्तीसगढ़ ' में यहाँ के जिन 36 सितारों के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अपने 36 आलेखों में विस्तार से जानकारी दी है ,उनमें पवन दीवान भी शामिल हैं। लेखक 'मातृभूमि और छत्तीसगढ़ के लिए समर्पित फ़क़ीर - संत कवि पवन दीवान 'शीर्षक अपने आलेख में कहते हैं --
संत सदैव सत (सत्य ) का पक्ष लेते हैं। वे राजा से भी नहीं डरते। संत पवन दीवान इस दौर के ऐसे ही अक्खड़ संत हैं। उनकी आवाज़ पर लाखों -लाख लोग पंक्तिबद्ध हो जाते हैं। उनकी वाणी के जादू से बंधे लाखों लोग सप्ताह भर भुइंया पर बैठकर कथा सुनते हैं। उनकी कविता लाल किले में गूंज चुकी है।। वे छत्तीसगढ़ के दिलों में बसते हैं। उनका अट्टहास चिन्ता -संसो में पड़े लोगों को बली बनाता है।वे योद्धा संन्यासी हैं। संसार से डरकर भागने फिरने वाले संन्यासी नहीं ,बल्कि ताल ठोंककर इस दौर के मलिन हृदय -द्रोहियों से लड़ जाने वाले योद्धा संन्यासी हैं। उन्होंने छत्तीसगढ़ महतारी के लिए अपना घर -द्वार त्याग दिया।वे जन -जन के नायक हो गए। और तो और ,उन्होंने गमछा कमर में बाँधकर शेष वस्त्र भी त्याग दिया। 'जतके ओढ़ना -ततके जाड़ ' अट्टहास करते हुए दीवान जी ने यह संदेश हमें दिया।गाँधीजी ने कहा था कि जितनी जरूरत हो ,उतना ही एकत्र करो।उन्होंने भी अपने देश के भूखे -नंगे भाइयों -बहनों की हालत देखकर वस्त्र तक को कम से कम पहनकर संदेश दिया कि हमें दूसरों के साथ जुड़ना चाहिए।उनके दुःख को बाँटना चाहिए।सत्य ,अहिंसा , अपरिग्रह आदि गाँधीजी के सिद्धांत हैं।संत पवन दीवान ने इन सिद्धांतों को जीवन में उतारा है। इन सिद्धांतों के लिए खुद को तपाया है।इसलिए उन्हें छत्तीसगढ़ का गाँधी भी कहा गया है।छत्तीसगढ़ भर में यह नारा ख़ूब गूँजता है (था )--
" पवन नहीं यह आँधी है
छत्तीसगढ़ का गाँधी है।"
छत्तीसगढ़ के माटी -पुत्र संत पवन दीवान का जन्म एक जनवरी 1945 को तत्कालीन रायपुर जिले में राजिम के पास महानदी के निकटवर्ती ग्राम किरवई में हुआ था । वर्तमान में यह गाँव बिन्द्रानवागढ़ ( गरियाबंद ) जिले में है। उनका निधन 2 मार्च 2016 गुरुग्राम (हरियाणा) के एक अस्पताल में हुआ। अगले दिन 3 मार्च को राजिम स्थित उनके ब्रम्हचर्य आश्रम परिसर में उनकी पार्थिव काया समाधि में लीन हो गयी ।यजुर्वेद के शांति - मन्त्र और वैदिक विधि -विधान के साथ उनके हजारों श्रद्धालुओं और प्रशंसकों ने अश्रुपूरित नेत्रों से उनके अंतिम दर्शन किए।
दीवान जी की महाविद्यालयीन शिक्षा रायपुर में हुई ,जहाँ उन्होंने हिन्दी ,संस्कृत और अंग्रेजी में एम.ए. किया। वह छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के प्रमुख नेताओं में थे। दीवान जी वर्ष 1977 से 1979 तक संयुक्त मध्यप्रदेश में राजिम से विधायक और मध्यप्रदेश सरकार के जेल मंत्री और वर्ष 1991 से 1996 तक छत्तीसगढ़ के महासमुंद से लोकसभा सांसद रहे। राजिम स्थित संस्कृत विद्यापीठ में लम्बे समय तक प्राचार्य के रूप में भी अपनी सेवाएं दी। उन्होंने छत्तीसगढ़ प्रदेश निर्माण के बाद राज्य शासन की संस्था छत्तीसगढ़ गौ सेवा आयोग के अध्यक्ष पद का भी दायित्व संभाला। वर्ष 1970 के दशक में राजिम से साहित्यिक लघु पत्रिका 'अंतरिक्ष ' ,'महानदी ' और ' बिम्ब' का सम्पादन और प्रकाशन । समाचार पत्र -पत्रिकाओं में उनकी कविताएं वर्षों तक छपती रहीं। वह कवि सम्मेलनों के भी प्रमुख आकर्षण हुआ करते थे। उनके प्रकाशित काव्य संग्रह हैं (1) अम्बर का आशीष (2) मेरा हर स्वर इसका पूजन और (3) छत्तीसगढ़ी गीत ।
समकालीन राजनीति ने उनके साहित्यिक व्यक्तित्व को कुछ वर्षों तक नेपथ्य में डाल रखा था । इसके बावज़ूद जनता के बीच उनकी सबसे बड़ी पहचान कवि के रूप में ही बनी रही। एक समय ऐसा भी था ,जब कवि सम्मेलनों के मंचों पर चमकदार सितारे की तरह अपनी रचनाओं का प्रकाश बिखेरते हुए वह सबके आकर्षण का केन्द्र बने रहते थे। भारत माता और छत्तीसगढ़ महतारी की माटी के के कण -कण में व्याप्त मानवीय संवेदनाओं को अपनी कविताओं के जरिए जन -जन तक पहुँचा कर उन्होंने देश और समाज को राष्ट्र प्रेम और मानवता का संदेश दिया। इसे हम उनके काव्य -संग्रह 'अम्बर का आशीष ' में प्रकाशित उनकी एक रचना ' मेरा हर स्वर इसका पूजन ' की इन पंक्तियों में महसूस कर सकते हैं --
माटी से तन ,माटी से मन , माटी से ही सबका पूजन
मेरा हर स्वर इसका पूजन , यह चन्दन से भी है पावन ।
जिसके स्वर से जग मुखरित था ,वह माटी में मौन हो गया ,
चाँद-सितारे पूछ रहे हैं ,शांति घाट में कौन सो गया ?
इस माटी से मिलने सागर ,लहरों में फँसकर व्याकुल है ,
अवतारों का खेल रचाने ,अम्बर का वासी आकुल है ।
इसका दुर्लभ दर्शन करने ,स्वर्ग धरा पर आ जाता है ,
इसकी मोहक हरियाली से नन्दन भी शरमा जाता है।
जब माटी में प्राण समाया ,तो हँसता इन्सान बन गया
माटी का कण ही मंदिर में ,हम सबका भगवान बन गया ।
जिसका एक सपूत हिमालय ,तूफ़ानों में मौन खड़ा है ,
यह रचना का आदि अन्त है ,इस माटी से कौन बड़ा है ?
कवि अपने देश की माटी की महिमा से भी प्रभावित और आल्हादित है। पवन दीवान ' मेरे देश की माटी ' शीर्षक अपनी रचना में माटी का जयगान करते हुए कहते हैं --
तुझमें खेले गाँधी ,गौतम ,कृष्ण ,राम ,बलराम ,
मेरे देश की माटी तुझको सौ -सौ बार प्रणाम ।
नव -बिहान का सूरज बनकर चमके तेरा नाम ,
मेरे देश की माटी तुझको सौ -सौ बार प्रणाम ।
सामाजिक विसंगतियों के साथ मनुष्य के भटकाव और सांस्कृतिक पतन को देखकर किसी भी संवेदनशील कवि हृदय का विचलित होना बहुत स्वाभाविक है। पवन दीवान का कवि -हृदय भी इस दर्द से अछूता नहीं था। तभी तो उनकी अंतर्रात्मा एक दिन इस पीड़ा से कराहते हुए कहने
लगी --
कोई कहता है चिंतन का सूरज भटक गया है ,
कोई कहता है चेहरों का दर्पण चटक गया है ।
कोई अंधकार के आगे घुटने टेक रहा है ,
कोई संस्कृति के माथे पर पत्थर फेंक रहा है।
रोज निराशा की खाई क्यों गहराती जाती है ,
क्यों सच्चाई को कहने से आत्मा घबराती है ?
हम पानी में खड़े हुए हैं , फिर भी क्यों प्यासे हैं ,
हम ज़िन्दा हैं या कोई चलती -फिरती लाशें हैं ?
हमारे महान पूर्वजों की तरह छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण सन्त कवि पवन दीवान का भी एक बड़ा सपना था । इसके लिए उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से जनमत निर्माण का भी सार्थक प्रयास किया । वह छत्तीसगढ़ की जनता में आ रही जागृति को लेकर आशान्वित थे ,लेकिन कई बार समाज में व्याप्त खामोशी उन्हें विचलित करती थी । उनकी कलम से निकली उनकी भावनाओं को इन पंक्तियों में आप भी महसूस कीजिए --
घोर अंधेरा भाग रहा है , छत्तीसगढ़ अब जाग रहा है ,
खौल रहा नदियों का पानी ,खेतों में उग रही जवानी ।
गूंगे जंगल बोल रहे हैं ,पत्थर भी मुँह खोल रहे हैं।
कसम हमारी सन्तानों की ,निश्छल ,निर्मल मुस्कानों की ,
गाँवों के शोषित दुखियारे ,लुटे हुए बेज़ानों की।
छत्तीसगढ़ में सब कुछ है ,पर एक कमी है स्वाभिमान की ,
मुझसे सही नहीं जाती है ऐसी चुप्पी वर्तमान की ।
पवन दीवान का कवि हृदय देश में व्याप्त सामाजिक -आर्थिक विषमता की दिनों दिन गहराती और चौड़ी हो रही खाई को देखकर भी विचलित है। वह महानगरों को जीवन का संदेश सुनाना चाहता है --
ओ थके पथिक ! विश्राम करो , मैं बोधि वृक्ष की छाया हूँ ,
इस महानगर में जीवन का संदेश सुनाने आया हूँ।
मुझको सहन नहीं होगा ,कोई भी प्राण उदास मरे ,
ओ महलों वाले ! ध्यान रखो ,कोई भी कंठ न प्यास मरे ।
महलों के लिए गरीबों का दिन -रात पसीना बहता है ,
उजड़ी कुटिया का सूनापन ,निज राम कहानी कहता है।
वर्तमान युग में तीव्र गति से हो रहे मानव समाज के भौतिक विकास को लेकर पवन दीवान का यह मानना था कि ऐसा विकास हमारे सुख और आनन्द की कीमत पर नहीं होना चाहिए । वर्ष 2010 में प्रकाशित अपने काव्य -संग्रह के प्रारंभ में उन्होंने 'साहित्य साधना है ' शीर्षक से अपनी संक्षिप्त टिप्पणी में लिखा है ---
" मन ही मनुष्य की स्वतंत्रता और गुलामी का कारण है। विषय -वासना विष से भी ज्यादा ख़तरनाक़ है। हमारी कर्मेन्द्रियां विषय की ओर खींचती हैं। संसार से जुड़ना योग है।साहित्य साधना है।काव्य का सृजन उत्कर्ष के लिए हो ,जन -मन के आनन्द के लिए हो ,मानव -समाज के हित के लिए हो।सवाल है कि दुनिया में विकास होना ठीक है। किन्तु यदि विकास हमारे सुख और आनन्द की कीमत पर हो ,तो वह किस काम का ,जो मनुष्य को मात्र मशीन बनाकर रख दे !"
दीवान जी के इस काव्य संग्रह का प्रकाशन उनके शिष्य और छत्तीसगढ़ी भाषा के लोकप्रिय कवि (अब स्वर्गीय )लक्ष्मण मस्तुरिया ने बहुत प्रयास करके उनकी कुछ रचनाओं को संकलित करने के बाद किया था। उन्होंने रायपुर स्थित अपनी संस्था 'लोकसुर प्रकाशन ' के माध्यम से इसे प्रकाशित किया था। इसमें दीवान जी की छोटी -बड़ी 117 कविताएं शामिल हैं। इस काव्य -संग्रह की भूमिका में लक्ष्मण मस्तुरिया ने लिखा है ---
--"संचयन ,मंचयन आडम्बर और छल -प्रपंच से बिदकने वाले संत कवि ने तो अपनी काव्य -रचनाओं से भी मोह नहीं किया। पता नहीं ,कितनी रचनाओं की डायरी खो गयी,कहीं पांडुलिपि गायब हो गयी ।स्व. ओंकार शुक्ल के सौजन्य से एक संकलन किसी तरह प्रकाशित किया गया था उसका भी कहीं अता -पता नहीं ,कहीं कोई जिक्र करने वाला नहीं है।विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में कहीं उनकी रचनाएं सम्मिलित दिखाई नहीं देतीं। दीवान जी के कई शुभचिंतकों ने मुझसे कई बार कहा कि उनकी कोई किताब है क्या ? हमारा यह प्रयास इसी उद्देश्य के लिए है कि संत कवि श्री पवन दीवान की रचनाएं साहित्य जगत से ओझल न होने पाएं।उनके कृतित्व का समुचित मूल्यांकन होना चाहिए। "
यह सच है कि संत पवन दीवान जैसे बड़े कवि की रचनाओं का मूल्यांकन अवश्य होना चाहिए । लेकिन करेगा कौन ? मेरे विचार से समय ही सबसे बड़ा मूल्यांकनकर्ता है। कवि और लेखक तो रचनाओं में अपनी बात कहकर दुनिया से एक न एक दिन चले ही जाते हैं और रह जाती हैं उनकी रचनाएं ,जिनका मूल्यांकन सिर्फ़ समय ही कर सकता है । लेकिन 'समय ' के लिए भी यह तभी संभव है ,जब सबसे पहले उन रचनाओं का ठीक से संरक्षण हो। कई साहित्यकारों का यह दुर्भाग्य रहा है कि दुनिया से उनके जाने के बाद उनके घर -परिवार में कोई भी उनकी रचनाओं को संभालकर रखने वाला नहीं होता । सब अपनी अपनी -अपनी दुनियादारी में व्यस्त हो जाते हैं। अगर परिवार में कोई साहित्यिक रुचि का सदस्य हो तो शायद वह उनकी कृतियों को संरक्षित कर सकता है , लेकिन ऐसाबहुत कम ही देखने में आता है। ऐसे में स्थानीय साहित्यिक संस्थाओं की यह नैतिक ज़िम्मेदारी होनी चाहिए कि वे अपने यहाँ के दिवंगत कवियों ,कहानीकारों और अन्य विधाओं के दिवंगत रचनाकारों की प्रकाशित -अप्रकाशित ,हर तरह की रचनाओं को संकलित और संरक्षित करें और अप्रकाशित कृतियों के प्रकाशन के लिए पहल और प्रयास करते रहें। स्थानीय वाचनालयों में उनकी पुस्तकों और पांडुलिपियों को अलग से सुरक्षित रखकर प्रदर्शित भी किया जा सकता है।
आलेख -- स्वराज करुण
Monday, October 5, 2020
(कविता )सिर्फ़ रह जाएंगे अवशेष
जिस तरह से
चल रहा है देश ,
लगता है कुछ दिनों में
लोकतंत्र के सिर्फ़
रह जाएंगे अवशेष !
जीतेगा और जिएगा वही
जिसके हाथों में होगा
नोटों से भरा सूटकेस !
जब चारों दिशाओं में छा जाएंगे कार्पोरेट,
उन्हीं के हाथों में होंगे
तुम्हारे खलिहान और खेत !
ये नये ज़माने के राजे -महाराजे
बजवाएंगे तुमसे अपनी तारीफ़ों के बाजे !
धर्म ,जाति और सम्प्रदाय के नाम पर
वो जनता को आपस में लड़वाएँगे ,
देशभक्ति की नकली परिभाषाओं से
बेगुनाहों को सूली पर चढ़वाएंगे।
मांगोगे रोजगार तो तुम्हें
नकली राष्ट्रवाद का बेसुरा गाना सुनवाएँगे ,
मांगोगे न्याय तो तुम्हें
फ़र्ज़ी देशभक्तों से धुनवाएंगे !
सुनो बटोही ! उठाओगे आवाज़
अगर अन्याय के।ख़िलाफ़ ,
तुम ठहरा दिए जाओगे देशद्रोही !
जहाँ रात के अंधेरे में
चोरी छिपे जला दी जाएगी
भारत माता की ,
बलात्कार पीड़ित बेटियों की लाश ,
उस देश में आख़िर कब तक करोगे
इंसानियत और इंसाफ़ की तलाश ?
-स्वराज करुण
Friday, October 2, 2020
महात्मा गाँधी की छत्तीसगढ़ यात्रा के सौ साल
महात्मा गाँधी की छत्तीसगढ़ यात्रा के सौ साल
******
(आलेख - स्वराज करुण )
क्या आपको याद है ? राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की पहली छत्तीसगढ़ यात्रा के सौ साल अब से लगभग ढाई महीने बाद पूरे हो जाएंगे । वैसे वह एक बार नहीं ,दो बार छत्तीसगढ़ आए थे। । आइए । उनकी इतिहास के पन्ने पलटकर उनकी इन यात्राओं के कुछ प्रमुख प्रसंगों को याद करें । हम इस वक्त सन 2020 में हैं ,जो उनके प्रथम छत्तीसगढ़ आगमन का शताब्दी वर्ष है। महात्मा गाँधी पहली बार दो दिन के दौरे पर 20 दिसम्बर 1920 को छत्तीसगढ़ आए थे। यह इस प्रदेश के ग्राम कण्डेल ( जिला -धमतरी ) के किसानों के नहर सत्याग्रह का भी शताब्दी वर्ष है। गाँधीजी इस सत्याग्रह में किसानों को समर्थन देने और उनका हौसला बढ़ाने के लिए यहाँ आए थे।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के स्वर्णिम इतिहास में गाँधीजी से जुड़े कई प्रसंग अमिट अक्षरों में दर्ज हैं। उनकी छत्तीसगढ़ यात्रा के प्रसंग भी इनमें शामिल हैं।उन्होंने वर्ष 1920 से 1933 के बीच लगभग तेरह वर्षो के अंतराल में दो बार छत्तीसगढ़ का दौरा किया था। वह कुल 9 दिनों तक यहाँ के अलग -अलग इलाकों में गए। किसानों ,मज़दूरों और आम नागरिकों से मिले । गाँधी जी पहली बार वर्ष दिसम्बर 1920 में बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव और पण्डित सुन्दरलाल शर्मा के आमंत्रण पर छत्तीसगढ़ आए थे। वह 20 और 21 दिसम्बर तक यहाँ रहे। उनकी इस पहली यात्रा का मुख्य उद्देश्य था -कण्डेल (धमतरी ) में हुए नहर सत्याग्रह में शामिल किसानों का हौसला बढाना और उनके अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद करना ।(स्वराज करुण ) अगस्त 1920 में भरपूर वर्षा और खेतों में पर्याप्त पानी होने के बावज़ूद अंग्रेज सरकार ने कण्डेल के किसानों पर पानी चोरी का झूठा इल्ज़ाम लगाकर सिचाई टैक्स की जबरन वसूली का भी आदेश जारी कर दिया था । प्रशासन ने किसानों पर 4050 रुपए का सामूहिक जुर्माना लगा दिया ।इसकी वसूली नहीं हुई तो किसानों को उनके पशुधन की कुर्की करने की नोटिस जारी कर दी गयी । किसानों के मवेशियों को ज़ब्त भी किया गया और साप्ताहिक हाट -बाजारों में उनकी नीलामी के भी प्रयास किए गए ,लेकिन ग्रामीणों की एकता के आगे प्रशासन की तमाम कोशिशें बेकार साबित हुईं। सिंचाई टैक्स और जुर्माने के आदेश के ख़िलाफ़ किसानों ने बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव के नेतृत्व में' नहर सत्याग्रह " शुरू कर दिया । अंचल के नेताओं ने इस आंदोलन में जोश भरने के लिए महात्मा गाँधी को बुलाने का निर्णय लिया । छोटेलाल जी के आग्रह पर उन्हें 20 दिसम्बर 1920 को पण्डित सुन्दरलाल शर्मा अपने साथ कोलकाता से रायपुर लेकर आए । गाँधीजी रेलगाड़ी में यहाँ पहुँचे । यह महात्मा गाँधी के प्रभावी व्यक्तित्व का ही जादू था कि उनके आगमन की ख़बर मिलते ही अंग्रेज प्रशासन बैकफुट पर आ गया और उसे सिंचाई टैक्स की जबरिया वसूली का हुक्म वापस लेना पड़ा । गाँधीजी ने 20 दिसम्बर की शाम रायपुर में एक विशाल आम सभा को भी सम्बोधित किया । जहाँ पर उनकी आम सभा हुई ,वह स्थान आज गाँधी मैदान के नाम से जाना जाता है। वह रायपुर से 21 दिसम्बर को रायपुर से मोटरगाड़ी में धमतरी गए थे ,जहाँ आम जनता और किसानों की ओर से पण्डित सुन्दरलाल शर्मा और छोटेलाल श्रीवास्तव सहित कई वरिष्ठ नेताओं ने उनका स्वागत किया । गाँधीजी ने धमतरी में आम सभा को भी सम्बोधित किया और रायपुर आकर नागपुर के लिए रवाना हो गए ।

नवम्बर 1933 में छत्तीसगढ़ के दूसरे प्रवास में भी गाँधीजी ने रायपुर में आम सभा को सम्बोधित किया ,जहाँ उंन्होने छुआछूत मिटाने के लिए पण्डित सुन्दरलाल शर्मा द्वारा किए गए कार्यों की तारीफ़ करते हुए उन्हें अपना गुरु कहकर सम्मानित किया। इस दौरान धमतरी की आम सभा में गाँधीजी ने कण्डेल के किसानों के नहर सत्याग्रह आंदोलन को भी याद किया और कहा कि यह दूसरा 'बारादोली' है। उंन्होने इसके लिए बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव , पण्डित सुन्दरलाल शर्मा , नारायणराव मेघावाले और नत्थूजी जगताप जैसे किसान नेताओं की भी जमकर तारीफ़ की। (स्वराज करुण ) महात्मा गाँधी स्वतंत्रता संग्राम की सफलता के लिए देश में सामाजिक समरसता और समानता की भावना पर बहुत बल देते थे।
उन्होंने दूसरी बार के अपने छत्तीसगढ़ प्रवास के दौरान 24 नवम्बर 1933 को रायपुर स्थित राजाओं के कॉलेज याने राजकुमार कॉलेज में विद्यार्थियों को सम्बोधित किया । ये सभी विद्यार्थी छत्तीसगढ़ और देश की विभिन्न रियासतों के राजवंशों से ताल्लुक रखते थे। गाँधीजी ने उनसे कहा था - "आप विश्वास कीजिए कि आप में और साधारण लोगों में कोई अंतर नहीं है। अंतर केवल इतना है कि आपको जो मौका मिला है,वह उन्हें नहीं दिया जाता।" उंन्होने राजकुमारों से आगे कहा था --"अगर आप भारत के ग़रीबों की पीड़ा समझना नहीं सीखेंगे तो आपकी शिक्षा व्यर्थ है। हिन्दू धर्म में जब प्राणी मात्र को एक मानने की शिक्षा दी गयी है ,तब मनुष्यों को जन्म से ऊँचा या नीचा मानना उसके अनुकूल हो ही नहीं सकता ।"
छत्तीसगढ़ में वर्ष 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सोनाखान के अमर शहीद वीर नारायण सिंह के सशस्त्र संघर्ष की अपनी गौरव गाथा है ,वहीं बाद के वर्षों में महात्मा गाँधी के अहिंसक आंदोलनों के प्रेरणादायक प्रभाव से भी यह इलाका अछूता न रहा । जनवरी 1922 में आदिवासी बहुल सिहावा क्षेत्र में श्यामलाल सोम के नेतृत्व में हुआ 'जंगल सत्याग्रह' इसका एक बड़ा उदाहरण है ,जिसमें सोम सहित 33 लोग गिरफ़्तार हुए थे और जिन्हें तीन महीने से छह महीने तक की सजा हुई थी। वनों पर वनवासियों के परम्परागत अधिकार ख़त्म किए जाने और वनोपजों पर अंग्रेजी हुकूमत के एकाधिकार के ख़िलाफ़ यह सत्याग्रह हुआ था। इस आंदोलन में भी पण्डित सुन्दरलाल शर्मा , नारायणराव मेघा वाले और बाबू छोटेलाल श्रीवास्तव जैसे नेताओं ने भी सक्रिय भूमिका निभाई । मई 1922 में सिहावा में सत्याग्रह का नेतृत्व करते हुए गिरफ़्तार होने पर पण्डित शर्मा को एक वर्ष और मेघावाले को आठ महीने का कारावास हुआ । वर्ष 1930 में गाँधीजी के आव्हान पर स्वतंत्रता सेनानियों ने धमतरी तहसील में जंगल सत्याग्रह फिर शुरू करने का निर्णय लिया । इसके लिए धमतरी में नत्थूजी जगताप के बाड़े में सत्याग्रह आश्रम स्थापित किया गया। गिरफ्तारियां भी हुईं। रुद्री में हुए जंगल सत्याग्रह के दौरान पुलिस की गोली से एक सत्याग्रही मिंटू कुम्हार शहीद हो गए।
पण्डित रविशंकर शुक्ल ,पण्डित वामन बलिराम लाखे,पण्डित भगवती प्रसाद मिश्र ,बैरिस्टर छेदीलाल , अनन्त राम बर्छिहा , क्रान्तिकुमार भारतीय , यति यतन लाल ,डॉ.खूबचन्द बघेल , डॉ.ई.राघवेन्द्र राव ,मौलाना रऊफ़ खान ,महंत लक्ष्मीनारायण दास जैसे कई दिग्गज स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत से अंग्रेजी हुकूमत को समाप्त करने के लिए गाँधीजी के बताए मार्ग पर चलकर इस अंचल में राष्ट्रीय चेतना की अलख जगायी।
आलेख -स्वराज करुण
Friday, September 4, 2020
मानस मर्मज्ञ डॉ. बलदेवप्रसाद मिश्र
आलेख : स्वराज करुण
मानस मर्मज्ञ और छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार स्वर्गीय डॉ. बलदेवप्रसाद मिश्र को आज उनकी पुण्यतिथि पर विनम्र नमन । उनका जन्म 12 सितम्बर 1898 को राजनांदगांव में हुआ था। अपने जन्म स्थान में ही लगभग 77 वर्ष की अपनी गरिमापूर्ण जीवन यात्रा को उन्होंने 4 सितम्बर 1975 को चिर विश्राम दे दिया ।
उन्हें 'तुलसी दर्शन ' के अपने इस शोध प्रबंध पर वर्ष 1939 में नागपुर विश्वविद्यालय ने डी. लिट् की उपाधि प्रदान की । डॉ. मिश्र ने अपने जीवन काल में लगभग 100 किताबें लिखीं । भर्तृहरि के 'श्रृंगार शतक ', और 'वैराग्य शतक ' का उनके द्वारा किया गया भावानुवाद इन्हीं शीर्षकों से वर्ष 1928 में प्रकाशित हुआ। महाकाव्य 'कौशल किशोर ' का प्रकाशन वर्ष 1934 में ,मुक्तक संग्रह 'जीवन संगीत '1940 में और एक और मुक्तक संग्रह 'साकेत संत' का प्रकाशन वर्ष 1946 में हुआ।डॉ. मिश्र द्वारा रचित ग्रंथ ' मानस के चार प्रसंग ' वर्ष 1955 में छपा ,जबकि 'गाँधी गाथा' का प्रकाशन महात्मा गाँधी के जन्मशती वर्ष 1969 में हुआ। उनके लिखे नाटकों में 'शंकर दिग्विजय ' भी उल्लेखनीय है। उनकी रचनाओं और पुस्तकों की एक लम्बी सूची है ।
डॉ. मिश्र की हाई स्कूल तक शिक्षा राजनांदगांव में हुई। उन्होंने नागपुर के हिस्लाप कॉलेज से वर्ष 1918 में बी.ए.और वर्ष 1920 में मनोविज्ञान में एम.ए. तक शिक्षा हासिल की। नागपुर से ही उन्होंने वकालत की डिग्री ली।कुछ समय तक रायपुर में वकालत करने के बाद वे रायगढ़ रियासत के राजा चक्रधर सिंह के आमंत्रण पर वहाँ चले गए। वर्ष 1923 से 1940 तक उन्होंने रायगढ़ रियासत के न्यायाधीश ,नायब दीवान और दीवान के पद पर अपनी सेवाएं दी। इसी दरम्यान वे रायगढ़ और खरसिया नगरपालिकाओं के अध्यक्ष भी रहे। बाद में राजनांदगांव नगरपालिका के अध्यक्ष निर्वाचित हुए।उन्होंने कुछ समय तक रायपुर नगरपालिका के उपाध्यक्ष के रूप में भी जन सेवा के दायित्वों का बड़ी कुशलता से निर्वाह किया।
स्वर्गीय डॉ. बलदेवप्रसाद मिश्र, नागपुर विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के मानसेवी अध्यक्ष , खैरागढ़ स्थित इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय के उपकुलपति , हैदराबाद तथा बड़ोदा विश्व विद्यालयों के आमंत्रित प्राध्यापक और मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी रह चुके थे। छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव शहर को अनेक महान साहित्यिक विभूतियों की कर्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है। डॉ. बलदेवप्रसाद प्रसाद मिश्र ,डॉ. पदुमलाल पुन्नालाल बख़्शी और गजानन माधव मुक्तिबोध भी इन्हीं महान साहित्यिक रत्नों में शामिल थे। इन तीनो कालजयी साहित्यकारों की स्मृतियों को चिरस्थायी बनाए रखने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा वहाँ त्रिवेणी संग्रहालय परिसर बनवाया गया है।
आलेख : स्वराज करुण
Thursday, September 3, 2020
(आलेख ) मेड़ों पर खिलने लगे कांस
--स्वराज करुण
भारत में आम तौर पर बरसात का मौसम चार महीने का होता है। आषाढ़ से क्वांर तक या 15जून से 15 अक्टूबर तक। इस बीच खरीफ़ के धान की हरी -भरी बालियों से भरे खेत हरित गलीचे की तरह नज़र आते हैं। लेकिन इस बीच उन खेतों की मेड़ों पर अगर सफ़ेद बालों वाले रुपहले कांस के फूल खिलने लगें तो ऐसा माना जाता है कि वर्षा ऋतु समय से पहले ही हमसे विदा होने वाली है। कांस का खिलना शरद ऋतु के आने का संकेत होता है।
गोस्वामी तुलसीदास जी के महाकाव्य रामचरित मानस में भगवान श्रीराम एक स्थान पर शरद ऋतु का वर्णन करते हुए अपने अनुज लक्ष्मण से कहते हैं -
बरषा बिगत सरद रितु आई।
लछमन देखहु परम सुहाई॥
फूले कास सकल महि छाई।
जनु बरषा कृत प्रगट बुढ़ाई॥1॥
यानी बरसात के बीतने पर परम सुहावनी शरद ऋतु आ गयी है और कांस के फूल सम्पूर्ण पृथ्वी पर छा गए हैं । श्वेत रंग के इन फूलों को देखकर वो कहते हैं - ऐसा लगता है मानो वर्षा बूढ़ा गयी है ।
खैर , बरसात का बुढ़ाना तो महाकवि की एक दिलचस्प कल्पना मात्र है। जलवायु परिवर्तन के इस वैश्विक संकट के नाज़ुक समय में वर्षा ऋतु इस बार भले ही समय से पहले विदाई मांग रही हो ,लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि वह अभी कुछ दिन और रुकेगी । फिर अगले साल समय पर आकर पूरे चार महीने हमारे यहाँ मेहमान बनकर रहेगी !
(तस्वीर -आँखन देखी ,व्हाया मेरा मोबाइल कैमरा)
Saturday, August 29, 2020
भाषाओं का त्रिवेणी संगम
(आलेख : स्वराज करुण )
भाषाओं की रंग -बिरंगी विविधताओं वाले हमारे देश में ऐसे प्रयासों की नितांत आवश्यकता है ,जिनसे हमारी नयी पीढ़ी कम से कम तीन भाषाओं में दक्षता ज़रूर हासिल कर सके। इनमें से एक उसकी अपनी मातृभाषा या स्थानीय भाषा हो ,दूसरी हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी और तीसरी भाषा अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी ।इसके अलावा भारत की सर्वाधिक पुरानी भाषा संस्कृत का ज्ञान भी आवश्यक होना चाहिए।
बहरहाल एक सराहनीय प्रयास के रूप में छत्तीसगढ़ राज्य शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद के आंग्ल भाषा प्रशिक्षण संस्थान की पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी शब्दकोश ' को लिया जा सकता है ,जिसमें छत्तीसगढ़ी शब्दों के हिन्दी और अंग्रेजी मायने दिए गए हैं। इसे हम भाषाओं का त्रिवेणी संगम भी कह सकते हैं।
वैसे तो 304 पृष्ठों का यह शब्दकोश हर किसी के लिए उपयोगी है ,लेकिन इसके परिचय में बताया गया है कि इसका निर्माण मिडिल स्कूल के बच्चों के स्तर को ध्यान में रखकर किया गया है। इसमें छत्तीसगढ़ी क्रियात्मक शब्दों के साथ -साथ ,सब्जियों ,फलों ,पशु -पक्षियों , कीड़े -मकोड़ों सहित बैलगाड़ी के हिस्सों ,खेती -किसानी में प्रयुक्त होने वाले शब्दों , मकानों के हिस्सों ,पारिवारिक,सामाजिक रिश्ते -नातों, घरेलू सामानों ,पारम्परिक कहावतों और मुहावरों आदि का अच्छा संकलन है। देवनागरी वर्णमाला के क्रम से छत्तीसगढ़ी शब्दों के हिन्दी अर्थ बताते हुए उनके अंग्रेजी में वाक्य प्रयोग भी दिए गए हैं।।
इसी तारतम्य में छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा प्रकाशित ' वृहत छत्तीसगढ़ी शब्दकोश ' भी उल्लेखनीय है । श्री चन्द्रकुमार चंद्राकर द्वारा संकलित इस विशाल शब्दकोश में छत्तीसगढ़ी के लगभग 40 हज़ार शब्द हैं। देवनागरी वर्णमाला के क्रमानुसार 924 पृष्ठों के इस शब्दकोश में छत्तीसगढ़ी शब्दों के हिन्दी अर्थ दिए गए हैं।
इसमें दो राय नहीं कि छत्तीसगढ़ी एक समृद्ध भाषा है और इसका अपना शब्द भण्डार ,अपना व्याकरण और अपना साहित्य है। छत्तीसगढ़ी का पहला व्याकरण वर्ष 1885 में धमतरी में लिखा गया था और इसके लेखक थे व्याकरणाचार्य हीरालाल काव्योपाध्याय । इन सब विशेषताओं को देखते हुए छत्तीसगढ़ सरकार ने जहाँ छत्तीसगढ़ी को 'राजभाषा" का दर्जा दिया है , छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग का गठन किया है , वहीं इसे भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करवाने के लिए भी वह लगातार पहल कर रही है। विधानसभा के इस वर्षाकालीन सत्र में इसके लिए मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल द्वारा एक शासकीय संकल्प भी लाया गया था,जिसे सर्वसम्मति से पारित करते हुए केन्द्र सरकार से छत्तीसगढ़ी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने का अनुरोध किया गया है।
राज्य निर्माण के बीस वर्ष अगले दो महीने बाद एक नवम्बर 2020 को पूरे हो जाएंगे। राज्य बनने पर छत्तीसगढ़ी भाषा के संरक्षण और संवर्धन की दिशा में भी नये उत्साह के साथ काम होने लगा है। बड़ी संख्या में छत्तीसगढ़ी फिल्मों का निर्माण हुआ है। छत्तीसगढ़ी में कहानियाँ और कविताएँ भी ख़ूब लिखी जा रही हैं। कई समाचारपत्रों द्वारा हर सप्ताह छत्तीसगढ़ी साहित्य के परिशिष्ट भी प्रकाशित किए जा रहे हैं।
आलेख -स्वराज करुण