Tuesday, June 25, 2019

(आलेख) दुनिया को जल्द नज़र आएगा एक भूला -बिसरा जमींदोज़ शहर !

                          -स्वराज करुण 
      दुनिया को बहुत जल्द दो हज़ार साल से भी ज़्यादा पुराने एक ऐसे भारतीय शहर का पता चल जाएगा ,जो अभी धरती माता के गर्भ से धीरे -धीरे बाहर आ रहा है ।  यह भूला -बिसरा शहर भारत के प्राचीन इतिहास में दक्षिण कोशल के नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ के ग्राम रींवा में ज़मीन के नीचे दबा हुआ था ,जो निकट भविष्य में हमें नज़र आएगा ।  राज्य सरकार ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से अनुमति लेकर यहाँ उत्खनन शुरू करवाया है ।   रायपुर जिले में आरंग तहसील के इस गाँव 40 ऐसे टीले हैं जो पुरातत्व की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं ।फिलहाल इनमें से दो टीलों में उत्खनन चल रहा है ,जो राज्य सरकार के पुरातत्व सलाहकार   डॉ .अरुण कुमार शर्मा के मार्गदर्शन में  करीब तीन हफ़्ते पहले शुरू हुआ है ।


     भारत सरकार द्वारा वर्ष 2017 में पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित 86 साल के  डॉ .शर्मा को छत्तीसगढ़ सहित देश के लगभग 20 राज्यों में पुरातात्विक उत्खनन का 45 वर्षों का लम्बा तजुर्बा है ।  वह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग में वरिष्ठ अधिकारी रह चुके हैं । हाल के वर्षों में उन्होंने छत्तीसगढ़ के दो प्राचीन शहर सिरपुर और राजिम में भी उत्खनन कार्यो का नेतृत्व किया है ।
 भारतीय पुरातत्व पर अंग्रेजी में  उनकी 52 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । वयोवृद्ध डॉ  शर्मा इस उम्र में भी पूरे जोश और जज़्बे के साथ रींवा गाँव में दक्षिण कोशल के भूमिगत इतिहास को खोदने और खँगालने में लगे हुए हैं । वह छत्तीसगढ़ के ही धरतीपुत्र हैं ।शायद यह भी 86 साल की उम्र में उनके युवा जोश और जज़्बे का एक प्रमुख कारण है । वह रोज सुबह 8 बजे साइट पर पहुँच जाते हैं और अपने विभागीय सहयोगियों और स्थानीय मजदूरों के साथ शाम 5 बजे तक उत्खनन गतिविधियों में  लगे रहते हैं ।
              डॉ. शर्मा कहते हैं -रींवा गाँव में 40 ऐसे टीले हैं ,जिनमें भारत और दक्षिण कोशल के वैभवशाली इतिहास के अनेक मूल्यवान तथ्य दबे हुए हैं । इन सबके उत्खनन में कम से कम 5 साल का वक्त लग सकता है ।फिलहाल हम लोगों ने  20 टीलों के उत्खनन का लक्ष्य रखा है ।  पुरातात्विक उत्खनन बहुत सावधानी से और वैज्ञानिक पद्धति से  करना होता है ।   इन 20 टीलों में से वर्तमान में दो टीलों पर उत्खनन  चल रहा है ।इनमें से एक टीला मुम्बई -कोलकाता राष्ट्रीय राजमार्ग 53 के किनारे स्थित है । यह किसी बौद्ध स्तूप के आकार का है । इसकी 9 परतों में से 7 का उत्खनन हो चुका है । इसमें किसी महात्मा की अस्थियाँ हो सकती हैं । इसे मौर्यकालीन बौद्घ स्तूप माना जा रहा है ,जो मिट्टी का बना हुआ है । डॉ. अरुण कुमार शर्मा बताते हैं कि यह छत्तीसगढ़ में अब तक के उत्खनन में प्राप्त मिट्टी का पहला बौद्ध स्तूप है। इसके पहले सिरपुर में  पत्थरों से और भोंगपाल (बस्तर )में ईंटों से निर्मित स्तूप मिल चुके हैं  ।रींवा में दूसरा उत्खनन एक विशाल तालाब के पास हो रहा है ,जहाँ आसपास आम और पीपल आदि के कई बड़े -बड़े वृक्ष और बबूल की कँटीली झाड़ियाँ भी हैं । छिन्द के भी कुछ पेड़ वहाँ पर हैं ।
      अब तक के उत्खनन में इस टीले से कुछ स्वर्ण , कुछ रजत और कुछ ताम्र मुद्राएं भी मिली हैं । इनके अलावा मिट्टी के दीये और बर्तन तथा हाथी दांत से बनी सजावटी वस्तुओं के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं । स्वर्ण मुद्राओं में से एक पर ब्राम्ही लिपि में "कु' शब्द अंकित है । डॉ .शर्मा इसे कुमारगुप्त के समय का मानते हैं । सजावटी मालाओं में गूँथने के लिए उपयोग में लायी जाने वाली छोटी -छोटी मणि कर्णिकाओ का ज़खीरा भी मिला है । डॉ. शर्मा के अनुसार ये तमाम अवशेष ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के याने लगभग 2200 वर्ष पुराने हैं । वह कहते हैं -सुदूर अतीत में रींवा कोई गाँव नहीं ,बल्कि एक बड़ा शहर और प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था ।महानदी इसके नज़दीक से बहती थी । तत्कालीन समय में पेड़ों की अत्यधिक कटाई होने के कारण नदी के किनारों पर भी कटाव हुआ । इस वज़ह से महानदी यहाँ से 8 किलोमीटर दूर खिसक गयी ।  रींवा से 50 किलोमीटर पर छठवीं -आठवीं सदी में शैव ,वैष्णव और बौद्ध मतों के त्रिवेणी संगम के नाम से प्रसिद्ध सिरपुर भी महानदी के किनारे स्थित है । छत्तीसगढ़ के प्रयाग राज के नाम से मशहूर राजिम  महानदी ,पैरी और सोंढूर नदियों के संगम पर है। पुरातत्व वेत्ता डॉ .अरुण कुमार शर्मा बताते हैं कि प्राचीन काल में राजिम और सिरपुर से ओड़िशा के समुद्र तटवर्ती  शहर कटक  तक जल मार्ग से व्यापार होता था । इतना ही नहीं ,सिरपुर से सूरत (गुजरात) तक कारोबार स्थल -मार्ग से भी होता था । सिरपुर में हुए उत्खनन में दुनिया का सबसे बड़ा बाज़ार भी मिला है ,जहाँ दोमंजिला दुकानें हुआ करती थीं ।एक ऐसी मुहर (सील ) भी वहाँ मिली है ,जिस पर फ़ारसी लिपि में 'बन्दर-ए-मुबारक सूरत ' लिखा हुआ है । उल्लेखनीय है कि सूरत गुजरात का बंदरगाह शहर है ।
       बहरहाल हम एक बार फिर लौट आते हैं रींवा गाँव की ओर । डॉ .अरुण कुमार शर्मा  अपनी यादों में दर्ज इतिहास के पन्ने  पलटते हुए कहते हैं - रींवा गाँव दरअसल वीर भूमि है । इसे रींवा गढ़ के नाम से भी जाना जाता है । गढ़ याने किला । यहाँ पर भी  मिट्टी से  निर्मित एक बड़ा किला (मडफ़ोर्ट )था , जिसके सुरक्षा घेरे के रूप में मिट्टी की मज़बूत दीवारें थीं । आधुनिक ज्ञान -विज्ञान के इस दौर में दूर संवेदी भू -उपग्रह  के जरिए भी इसकी पुष्टि हो चुकी है । रींवा गढ़ का उल्लेख अंग्रेज अधिकारी लॉर्ड कनिंघम ने भी अपने अभिलेखों में किया है ।
      अगर यह इतना बड़ा शहर था तो जमींदोज क्यों हो गया ? इस सवाल पर डॉ .अरुण शर्मा कहते हैं - पुराने समय में भयानक  बाढ़ ,भूकम्प और महामारी जैसी आपदाओं के समय लोग अपने गाँव या शहर छोड़कर अन्यत्र पलायन कर जाते थे और बस्तियां वीरान हो जाती थीं ।यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ होगा ।समय के प्रवाह में इस बस्ती के भवनों पर  सैकड़ों वर्षों तक धूल और मिट्टी की परतें चढ़ती गयीं और वो जमींदोज हो गयीं ।
            फ़िलहाल उत्खनन जारी है ।  भूमिगत इतिहास के पन्नों पर जमी सैकड़ों वर्षों की धूल  हटाई जा रही है । डॉ .अरुण कुमार शर्मा जैसे वरिष्ठतम पुरातत्ववेत्ता की पारखी आंखें अपनी गहन इतिहास दृष्टि से उन्हें पलटने और  पढ़ने में लगी हैं ।  उम्मीद की जानी चाहिए कि  उनके गहन अध्ययन ,उत्खनन और अनुसंधान से एक बहुत पुराना भूला -बिसरा शहर फिर हमारे सामने होगा । टाइम मशीन भले ही काल्पनिक हो, लेकिन प्रत्यक्ष में हो रहे इस कार्य  से शायद हम दो हज़ार साल से भी ज्यादा पुराने ज़माने को  और उस दौर की इंसानी ज़िन्दगी को महसूस तो कर सकेंगे ! वह एक रोमांचक एहसास होगा ।
         -स्वराज करुण

Friday, June 14, 2019

आलेख : प्राचीन इतिहास पर नयी रौशनी !

                                     -स्वराज करुण 
       छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से सिर्फ़ 25 किलोमीटर की दूरी पर दो हजार साल से भी ज्यादा पुरानी मौर्यकालीन बौद्ध संस्कृति की एक नयी बसाहट का पता चला है । रायपुर जिले  के  तहसील मुख्यालय आरंग के पास ग्राम रींवा में एक टीले पर राज्य शासन के पुरातत्व विभाग द्वारा  उत्खनन जोर -शोर से किया जा रहा है । माना जा रहा है इस उत्खनन में  दक्षिण कोशल के नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास पर नयी रौशनी पड़ सकती है ।
         

         यह स्थान मुम्बई -कोलकाता राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 53 के बिल्कुल किनारे पर है । विभागीय अधिकारियों ने बताया कि इस टीले से एक बौद्ध स्तूप निकलने की प्रबल संभावना है । यह भी माना जा रहा है कि सुदूर अतीत में वहाँ एक विकसित बसाहट भी रही होगी ।उत्खनन के दौरान वहां स्तूप की दीवारों की बुनियाद और ईंटें  भी नज़र आने लगी है । पुरातत्व विशेषज्ञों के अनुसार यह  मौर्यकालीन स्तूप  ईसा  पूर्व तीसरी  शताब्दी का हो सकता  हैं । याने आज से कोई तेईस सौ साल पुराना । जिस आकार -प्रकार की ईंटें वहां मिल रही हैं ,उन्हें देखकर यह अनुमानित काल निर्धारण किया गया है ।  इस आलेख के लेखक ने उस दिन देश के मशहूर पर्यटन ब्लॉगर ललित शर्मा के साथ वहाँ  धरती के गर्भ से निकलते इतिहास को देखा ।
    वैसे तो पुरातत्व की दृष्टि से सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ ही अत्यंत समृद्ध है । आरंग तहसील भी इस मामले में कम नहीं है। पौराणिक इतिहासकारों के अनुसार आरंग शहर को  राजा मोरध्वज की राजधानी माना जाता है । वहां का भांड देवल मन्दिर प्रसिद्ध है ,जो  भारत सरकार द्वारा  संरक्षित ऐतिहासिक  स्मारक है । छत्तीसगढ़ और ओड़िशा की जीवन रेखा महानदी आरंग के नजदीक से बहती है । पुराणों में चित्रोत्पला गंगा के नाम से वर्णित इस नदी का उदगम भी छत्तीसगढ़ में है. ।यहाँ के सिहावा पर्वत से निकलकर करीब आठ सौ किलोमीटर का लम्बा सफ़र तय करते हुए यह बंगाल की खाड़ी के विशाल समुद्र में समाहित हो जाती है ।  महानदी के किनारे छत्तीसगढ़ से ओड़िशा तक अनेक प्रसिद्ध तीर्थ और ऐतिहासिक स्थान हैं ।
         दक्षिण कोशल (प्राचीन छत्तीसगढ़ )में शैव ,वैष्णव और बौद्ध संस्कृतियों के त्रिवेणी संगम के नाम से प्रसिद्ध सिरपुर भी महानदी के किनारे स्थित है ।  सिरपुर को हमारे प्राचीन भारतीय इतिहास में  'श्रीपुर' के नाम से भी जाना जाता है । इतिहासकार बताते हैं कि यहाँ प्राप्त स्मारक सातवीं -आठवीं शताब्दी के हैं ।  सिरपुर में गन्धरेश्वर महादेव और लक्ष्मण मन्दिर के अलावा प्राचीन बौद्ध विहार भी हैं ,जिन्हें केन्द्र तथा राज्य सरकारों के द्वारा  संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है ।
   ब्लॉगर ललित शर्मा कहते हैं कि ग्राम रींवा ,जहां अभी टीले का उत्खनन हो रहा है ,महानदी पहले वहाँ से होकर भी  बहती रही होगी । हजारों साल के समय प्रवाह में नदियाँ अपना रास्ता बदलती रहती हैं । रींवा के तालाब की मेड़ों को देखकर उन्होंने कहा कि इस जगह पर किसी राजा का मृदा भित्ती दुर्ग (मड फोर्ट ) रहा होगा ।बहरहाल ,पुरातत्व विभाग के अधिकारी स्थानीय श्रमिकों के साथ पूरी गंभीरता और तत्परता से वहाँ उत्खनन में  लगे हुए हैं और  भूमिगत हो चुके भारतीय इतिहास के धुंधले पन्नों की धूल झाड़कर उन्हें पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं ।
        - स्वराज करुण
 (तस्वीरें : मेरे 'मोबाइल' की आंखों से ) 

Thursday, June 13, 2019

( कहानी ) क्या था उस रहस्यमयी आवाज़ का रहस्य ?


                                 - स्वराज करुण 
छपाक  ...छपाक ..छपाक !   रात एक  बजे हॉस्टल के थर्ड फ्लोर में  दक्षिणी कॉरिडोर के अंतिम छोर पर बने बाथरूम के भीतर से यह कैसी आवाज़ आ रही है ? पूरा कॉरिडोर गूँज रहा है !
       मैं परीक्षाओं के उस  मौसम में बीए फाइनल के  तीसरे पर्चे की तैयारी के लिए अपने रूम पार्टनर महेन्द्र के साथ रतजगा कर रहा था । थर्ड फ्लोर  में  तीन कॉरिडोर  और  तीस कमरे थे ,लेकिन  अधिकांश कमरे खाली थे । जिनकी परीक्षाएं हो चुकी थी, वो सब विद्यार्थी अपने -अपने घर चले गए थे ।  छात्रों की इतनी कम संख्या को देखते हुए मेस की व्यवस्था भी अस्थायी रूप से बन्द कर दी गयी थी ।  भोजन बाहर किसी होटल से करके आना पड़ता था।     हमारी लाइन के  दस कमरों में से तो  सिर्फ हमारा ही कमरा हम दोनों मित्रों से आबाद था। बाकी पूरे कॉरिडोर में सन्नाटा पसरा हुआ था ।
             उस गहराती हुई रात में सिर्फ़ छपाक -छपाक की आवाज़ बीच -बीच में  इस ख़ामोशी को तोड़ रही थी ।  (स्वराज करुण)  मैंने महेन्द्र से कहा -   लगता है कि हमारा कोई साथी बाथरूम में अपने कपड़े काछ रहा है ।वह रहस्यमयी आवाज़ हर बीस सेंकेंड के अंतराल पर आ रही थी । बीच में बीस सेकेंड का गैप हमारे मन में रह -रह कर एक सवाल खड़ा करता जा रहा  था ।
          महेन्द्र ने हैरानी जताई और कहा -इतनी रात भला कौन बाथरूम में कपड़े धोएगा ?  हमारी लाइन के तो बाकी सभी कमरे खाली हैं ।फिर भी चलो देखकर आते हैं ,लेकिन दबे पाँव चलना है । चप्पल से चटाक -चटाक की ध्वनि निकलती है । कोई बाहरी व्यक्ति बेजा तरीके से हॉस्टल में घुसकर कपड़े काछ रहा होगा ,तो वह सतर्क हो कर भागने की कोशिश करेगा । हो सकता है कि वह  पिस्तौल न सही ,चाकू रखा हो और भागने की  कोशिश में हमसे उलझ कर  हम पर हमला कर दे । मैंने महेन्द्र से  कहा -तुम्हारा सोचना ठीक है । चलो ,खाली पैर चलते हैं ।  हालांकि कॉरिडोर में बिजली की पर्याप्त रौशनी थी । एक मटमैला  बल्ब बाथरूम में भी था ,फिर भी हमने ऐहतियात के तौर पर बैटरी वाला टॉर्च रख लिया  था ।
    हमारे कमरे से  दक्षिणी कॉरिडोर के आख़िरी छोर पर बाथरूम की  दूरी करीब 100 फुट  रही होगी । हम दोनों 
हल्के -हल्के कदमों से उस दिशा में बढ़ने लगे ।  बाथरूम के नज़दीक पहुंचकर हमने देखा कि भीतर अंधेरा था । महेन्द्र ने मेरे कानों में धीमे स्वर में कहा -शायद बल्ब  फ्यूज हो गया है । मैंने कहा -हो सकता है । हम दोनों बाथरूम के सामने खड़े हो गए ।कपड़े काछने की आवाज़ हर बीस सेकेंड के अन्तराल पर  आ ही रही थी और पहले के।मुकाबले और भी तेज़ होती जा रही थी । ऐसा लगा  नल भी खुला हुआ था ।
मैंने दबी आवाज़ से महेन्द्र के कानों में कहा -दरवाज़े पर दस्तक दें  क्या ?  उसने कहा -ठीक है ।
       मैंने  दरवाजे को  ढकेला तो लगा कि भीतर से  कुंडी लगी हुई है । महेन्द्र ने चिल्लाकर कहा -कौन है ? दरवाज़ा खोलो !  मैंने खटखटाया तो    छपाक ..छपाक की आवाज़ बन्द हो गयी । कुछ ही पलों में दरवाज़ा भी खुल गया और मोंगरे की ख़ुशबू वाले इत्र की  भीनी महक  के साथ हवा का एक झोंका हमें छूकर निकल गया । पूरे बदन में सिहरन दौड़ गयी । हम यह देखकर हैरत में पड़ गए कि भीतर कोई नहीं था और एक बाल्टी में निचुड़े हुए कपड़े रखे हुए थे । टॉर्च जलाकर देखा तो  उनमें  था एक सफ़ेद  पैजामा ,एक सफ़ेद कुर्ता , सफ़ेद  बनियान और एक टर्किश टॉवेल । हम उल्टे पाँव अपने कमरे में लौट आए ।
     रात के दो बजे गए थे । हमें नींद नहीं आयी । सुबह होने तक कौतूहल मिश्रित चर्चा में मशगूल रहे कि आख़िर वह कौन था ?  दूसरे दिन  चौकीदार से पूछने पर मालूम हुआ कि हर बुधवार  आधी रात के बाद उस बाथरूम में किसी  निराकार शख्स के हाथों कपड़े धोने की और मेस में बर्तनों के  टकराने की आवाज़ आती है । जिस ज़मीन पर  इस प्रायवेट हॉस्टल की यह बहुत बड़ी  बिल्डिंग खड़ी है ,वह पहले इस शहर के बाहरी इलाके में  एक गाँव के किसी ग़रीब किसान की थी ,जो अब बढ़ती आबादी और शहरी बसाहटों के फैलाव की वजह से नगरीय क्षेत्र में आ गयी है ।उस ज़मीन पर  वह  धान की खेती करता था । दूसरे किसानों की तरह उसकी खेती भी सिर्फ़ बारिश के  भरोसे  थी ।
        लगभग 30 साल पहले एक बार  कमजोर मानसून की वज़ह से भयानक सूखा पड़ गया । उसके एक साल पहले  किसान ने अपनी  बेटी की शादी के लिए एक महाजन से  ब्याज़ में 20 हजार रुपए का कर्ज़ लिया था ।  ब्याज़ की रकम बढ़ते -बढ़ते मूलधन से  कई गुना ज्यादा हो गयी । । वह  महाजन के  लगातार तगादे से तंग आ गया था । एक दिन महाजन ने उससे कहा -अगर कर्ज़ पटा नहीं सकते तो दो  एकड़ का अपना यह खेत   मेरे नाम कर दो । तुम्हारा पूरा कर्जा माफ़ हो जाएगा । तगादे की वज़ह से मानसिक संताप झेल रहे किसान को  कुछ नहीं सूझा ,तो उसने महाजन की बातों में आकर अपनी ज़मीन उसके नाम कर दी । वह खेत जो उसकी और उसके  परिवार की रोजी -रोटी का एक मात्र सहारा था ,वह भी किसान के हाथों से चला गया । शहर में कॉलेजों की संख्या बढ़ती जा रही थी ।महाजन ने अपनी व्यावसायिक बुद्धि से  सुदूर भविष्य की सोचकर इस ज़मीन पर  हॉस्टल बनवा लिया । किसान अपने  परिवार के भरण -पोषण के लिए अपनी ही  ज़मीन पर मज़दूरी करने के लिए मज़बूर हो गया । महाजन उससे अपने बंगले की साफ-सफ़ाई से लेकर कपड़े धुलवाने का भी काम करवाने लगा । रसोई का काम भी करवाता था ।
        एक दिन वह किसान गले के कैन्सर से पीड़ित हो गया । उसने महाजन के आगे हाथ फैलाया ,लेकिन सिर्फ़ निराशा हाथ लगी । किसान की आँखों मे अंधेरा छा गया । उसने एक बुधवार इसी जगह पर  ज़हर ख़ाकर अपनी ज़िन्दगी खत्म कर ली । एक वो दिन था और ये आज का दिन । तब से लेकर अब तक उसकी आत्मा एक निराकार शख्स के रूप में इस हॉस्टल की बिल्डिंग में मंडरा रही है । वह प्रत्येक बुधवार  कभी  रसोईघर में पहुँचकर बर्तनों को खंगालती रहती है तो कभी  बाथरूम में कपड़े धोने के लिए आ जाती है ।  किसी को नुकसान नहीं पहुँचाती ।  पिछले बीस साल से  ये सिलसिला बदस्तूर जारी है ।  पता नहीं आगे कब तक चलता रहेगा ? 
             चौकीदार की बातें सुनकर हम तनाव में आ गए । उसने हम दोनों के माथे पर चिन्ता की लकीरों को पढ़ लिया था ।बुजुर्ग चौकीदार ने  हमसे कहा -डरने की कोई बात नहीं । वह निराकार शख्स  हॉस्टल के  विद्यार्थियों के  कमरों में कभी  नहीं जाता ।  उसकी अदृश्य गतिविधियाँ सिर्फ किचन और  बाथरूम तक सीमित रहती हैं । बीती रात की उस रहस्यमयी घटना के बाद हम दोनों ने  हॉस्टल छोड़ने और शहर में  ही किसी बैचलर्स  होम में कमरा लेने का मन बना लिया था ,लेकिन चौकीदार ने हौसला बढ़ाया   तो हमारी भी हिम्मत बढ़ी  और हम दोनों दोगुने उत्साह के साथ परीक्षा की तैयारी में जुट गए ।  कुछ हफ़्तों बाद जब रिजल्ट आया तो  बीए अंतिम की मेरिट लिस्ट के टॉप टेन में  हम  दोनों का भी नाम शामिल था ,जो अखबारों में भी छपा हुआ था । बीए की पढ़ाई कम्प्लीट होने के बाद हमने हॉस्टल छोड़ दिया और नौकरी की तलाश में इधर -उधर हो गए ।
            --स्वराज करुण

Friday, June 7, 2019

(आलेख ) हाथी अब नहीं इंसानों के साथी !

                                          - स्वराज करुण 
         बिना महावत के  हाथी उद्दंड तो होंगे ही । महावत हाथी की पीठ पर बैठकर उसे शहरों और गाँवों सड़कों पर आसानी से घुमाता है और बच्चे , युवा और बुजुर्ग ,सभी उसे बड़ी उत्सुकता से और बड़े उत्साह से देखते हैं । कई बार तो महावत नन्हें बच्चों को  हाथी पर बैठाकर कुछ दूर तक सैर भी करवा देता है । हाथी पहले राजा -महाराजाओं की फ़ौज में भी हुआ करते थे । चूंकि कुशल महावत उन्हें नियंत्रित करता था , इसलिए वो कंट्रोल में रहते थे । सर्कस के विशाल तंबुओं में भी हमने उन्हें रिंग मास्टर या महावत  के हंटर और इशारों पर तरह -तरह के करतब करते देखा है ।
      लेकिन बगैर महावत का हाथी आतंक का पर्याय बन जाता है । यही कारण है कि जंगली हाथियों का उपद्रव बिहार ,झारखण्ड ,उत्तरप्रदेश,उत्तराखण्ड  ,छत्तीसगढ़,ओड़िशा  और मध्यप्रदेश में तेजी से बढ़ता जा रहा है । अब समस्या ये है कि इतने महावत लाएँ कहाँ से ? एक पुरानी हिन्दी  फ़िल्म है -हाथी मेरे साथी । लेकिन अब हालत ये है कि हाथी मेरे साथी न होकर मेरे , यानी इंसानों के जानी दुश्मन बन गए हैं । सरकारों के तमाम गंभीर प्रयासों के बावज़ूद इन आवारा हाथियों का बेकाबू होते जाना चिन्ता और चिन्तन का विषय बन गया है ।
     इंसानों को ये जंगली हाथी सूंड़ से पटक -पटक कर और पैरों से कुचल -कुचल कर जान से मार रहे हैं । अभी छत्तीसगढ़ से एक भयानक समाचार आया कि खेत में झोपड़ी बनाकर फसल की रखवाली कर रहे एक किसान को  हाथियों ने कुचल कर मार डाला ।  हालांकि ऐसे दुःखद प्रकरणों में मृतकों के परिवारों को सरकार पूरी सहृदयता और संवेदनशीलता के साथ उचित मुआवजा भी देती है । लेकिन मानव जीवन अनमोल होता है। जो चला गया ,वो तो लौटकर आने वाला नहीं ।  सरकारी मदद से उसके परिवार को तत्काल कुछ राहत मिल जाती है । फिर भी हमारी कोशिश हो कि हाथियों का उपद्रव इंसानों के लिए प्राणघातक न होने पाए । 
          इंटरनेट पर सर्च करें तो पता चलता है कि  जंगली हाथियों का  आतंक देश के बहुत से राज्यों में फैल  चुका है । उत्तराखंड  के  हरिद्वार में भी उनकी धमक  महसूस  की गयी है । देश के नये --नये इलाकों में इनकी बेकाबू   घुसपैठ बढ़ती जा रही है । कई बार तो ये शहरी बसाहटों के आसपास भी देखे जा रहे हैं ।  हरे -भरे जंगलों  का कम होते जाना और बचे -खुचे जंगलों में इनके लिए पर्याप्त चारे -पानी का नहीं होना इसकी  एक प्रमुख वज़ह मानी जा रही है ।
         आख़िर क्या , कब और कैसे  हो सकता है  इस गंभीर समस्या का समाधान ?
           -- स्वराज करुण
 (तस्वीर : Google से साभार )

Wednesday, June 5, 2019

(व्यंग्य ) श्वान -संस्कृति के स्वामी -भक्त पहरेदार !

                      - स्वराज करुण 
     मुझे 'श्वान -संस्कृति ' वालों से बहुत डर लगता है । मॉर्निंग और इवनिंग भ्रमण में ले जाना , सड़क पर ही छी -छी और सू -सू कराना ,फिर घर आकर खूब नहलाना ,फिर  सोफ़े पर  बैठाना  ,उनके बाल संवारना , अपने साथ उन्हें भी खिलाना ,पिलाना , रात को बिस्तर पर  साथ सुलाना ...!  क्या इन्हें घिन नहीं लगती ?
   श्वान -संस्कृति के   इन ' स्वामी -भक्त पहरेदारों ' को इंसानों से जितना प्यार नहीं ,उससे ज्यादा श्वानों से क्यों ? श्वान -संस्कृति के एक कट्टर समर्थक ने अपने घर में 'डबरा मेन'   पाल रखा है तो दूसरे ने अल्सेशियन ।  दोनों खतरनाक प्रजातियों के कुत्ते हैं ।  उनके घर जाने में हमारी रूह काँपती है । हमने तो जाना ही छोड़ दिया !
        वैसे  किसकी मज़ाल है ,जो उनके इन प्यारे 'बेटों' को 'कुत्ता ' कह दे ? एक दिन उनमें से एक मुझे बाज़ार में मिल गया ।  मैंने कहा -यार ! तुम्हारा कुत्ता  बड़ा  ख़तरनाक हैं ! वह मुझ पर भड़क गया ! बोला -ख़बरदार ! जो मेरे 'डॉगी' को  'कुत्ता ' कहा ! उसका नाम 'किम जोंग ' है ! मैंने कहा -ये तो उत्तर कोरिया के खूँखार तानाशाह का नाम है ,जो हज़ारों निर्दोष लोगों का क़ातिल है !
       मित्र ने कहा -  यह क़ातिलों का ज़माना है !  इस ज़माने में सिर्फ़ और सिर्फ़ क़ातिलों की ही चलती है !   क़ातिल ही क़ानून बनाते हैं ,क़ातिल ही क़ानून की रखवाली करते हैं और क़ातिल ही इंसाफ़ भी करते हैं । इसीलिए मैंने इसका नाम  इस युग के मशहूर क़ातिल के नाम पर रखा है ।
       मैंने 'श्वान -संस्कृति ' के इस  स्वामी - भक्त पहरेदार मित्र के  'श्वानोचित ज्ञान और विवेक को मन ही मन प्रणाम किया और हाथ जोड़कर वहाँ से दफ़ा हो गया ।
      - स्वराज करुण

Sunday, June 2, 2019

(आलेख ) ओड़िया महानाटक 'धनुजात्रा ' में उभरती है कंस की प्रजा -वत्सल छवि

                                -स्वराज करुण 
     भारतीय जन मानस में प्रचलित कृष्ण -कथाओं में  कंस  एक अत्याचारी राजा के रूप में कुख्यात है । यह उसकी नकारात्मक छवि है ,लेकिन उसकी एक सकारात्मक छवि  भी है ।
      छत्तीसगढ़ के पड़ोसी राज्य ओड़िशा की लोक -संस्कृति में प्रचलित ओड़िया  महानाटक 'धनुजात्रा ' में  एक  प्रजा -वत्सल राजा के रूप में कंस की सकारात्मक छवि देखने को मिलती है । जब वह हाथी पर सवार होकर नगर भ्रमण करते हुए लोगों की समस्याओं का जायजा लेता है और दरबार लगाकर अपने अधिकारियों को तलब करता है , कंस की ओर से दरबार में जन प्रतिनिधियों को भी बुलाया जाता है । वर्तमान युग के हिसाब से क्षेत्रीय  विधायक और सांसद भी वहाँ आते हैं ।जन -शिकायतों और समस्याओं को अपनी प्रजा से सुनकर कंस जन प्रतिनिधियों और अपने अफसरों को उनके त्वरित निराकरण का आदेश देता है ,तब उसकी यह प्रजा - वत्सल छवि उभरती है । वह अपने परिजनों के लिए जरूर आततायी था ,लेकिन अपनी प्रजा के लिए नहीं । 
       
   -यह कहना है ' धनुजात्रा 'में कंस की भूमिका निभाने वाले ओड़िशा के प्रसिद्ध मंचीय अभिनेता और लोक गायक सोनपुर जिले के ग्राम बिनका निवासी गोपालचंद्र पण्डा का । वो कहते हैं -- जैसे त्रेतायुग में रावण ने राम के हाथों मोक्ष की चाहत से सीताहरण किया था ,उसी तरह कंस ने कृष्ण के हाथों अपनी मुक्ति के लिए सारा प्रपंच रचा था । गोपालचंद्र कहते हैं -  द्वापर युग में युधिष्ठिर ने धर्मशास्त्र का और कंस ने न्याय शास्त्र का अध्ययन किया था । लेकिन  कंस में राक्षसी प्रवृत्ति कहाँ से आयी ,इसकी जानकारी के लिए हमें पौराणिक आख्यानों में जाना होगा । कंस के पिता उग्रसेन मथुरा के राजा थे । वह भी अत्यंत प्रजा -हितैषी थे । उनकी रानी पद्मावती  स्नान करने नदी गयी थीं ,जहाँ ध्रुमिलासुर नामक राक्षस ने उनके साथ दुराचार किया ।  इससे कंस का जन्म हुआ । उसे यह बात मालूम नहीं थी । राक्षसी स्वभाव के कारण वह अपने परिजनों और देवी -देवताओं पर  भी अत्याचार करने लगा । कुछ पौराणिक आख्यानों में ध्रुमिलासुर को आसुरी प्रवृत्ति का  गन्धर्व बताया गया है ,जिसने मायके गयी  रानी पद्मावती को बागीचे में सम्मोहित कर लिया था ।
                     
     राक्षसी स्वभाव के प्रभाव में आकर कंस ने अपने पिता महाराज उग्रसेन को राजगद्दी से उतार कर सिंहासन पर आधिपत्य जमा लिया और अपनी बहन देवकी का विवाह सुरकुल के राजा। देवमीढ़ के पुत्र वासुदेव से करवाया ।एक दिन आकाशवाणी हुई कि देवकी के गर्भ से उतपन्न होने वाली आठवीं सन्तान कंस की मृत्यु का कारण बनेगी । यह आठवीं सन्तान भगवान कृष्ण के रूप में आने वाली थी । तभी से कंस भयभीत और सशंकित रहने लगा । उसने देवकी और वासुदेव को बन्दी बनाकर कारागार में डाल दिया ।
          देवकी के छह पुत्रों  का तो उसने वध कर दिया ,लेकिन सातवें पुत्र के रूप में देवकी के गर्भ में जब स्वयं भगवान बलराम अवतरित हुए तो योगमाया ने उन्हें ब्रज (गोकुल )में नन्द बाबा के घर रहने वाली रोहिणी जी के गर्भ में भिजवा दिया । इस प्रकार कंस के प्रकोप से बलराम जी बच गए ।  फिर कृष्णजी के जन्म ,  जेल के लौह द्वारों के स्वयं खुल जाने और भारी वर्षा के बीच उफनती जमुना को पार करके वसुदेवजी द्वारा उन्हें वृंदावन में नन्द बाबा और यशोदा माता के घर सुरक्षित पहुंचाए जाने की कथा हम सबको मालूम ही है ।  पौराणिक कथाओं के अनुसार  हमें यह भी ज्ञात है कि आततायी कंस ने कृष्ण और बलराम की हत्या करने के इरादे से नन्द बाबा और गोपों के साथ उन्हें अक्रूरजी के हाथों धनुर्योग मेले का न्यौता भिजवाया था ,जहाँ कृष्णजी के हाथों कंस का वध हुआ । संभवतः धनुर्योग मेले  शामिल होने के लिए वृंदावन (गोकुल ) से मथुरा नगरी तक उनकी यात्रा का विशाल नाट्य -रूपांतरण ही धनुजात्रा है ।
     इसमें कृष्ण जन्म से लेकर कंस वध तक पूरी कहानी का नाट्य मंचन चलित रंगमंच पर होता है । चाहे गाँव हो , कोई कस्बा हो या कोई शहर , जहाँ भी इसका मंचन होता है ,वह स्थान अपने -आप में एक विशाल रंगमंच में परिवर्तित हो जाता है । बड़ी संख्या में स्थानीय लोग भी इस महानाटक के पात्र बन जाते हैं । उपलब्धता के अनुसार आस -पास की किसी नदी को त  बरसाती नाले को ,या नहीं तो तालाब को ही यमुना नदी मान लिया जाता है , जिसके इस पार और उस पार क्रमशः मथुरा और वृंदावन के दृश्य मंचित होते हैं । पौष -माघ के महीने में यह आयोजन कहीं दस दिनों तक तो कहीं पंद्रह दिनों तक चलता है.
      पश्चिम ओड़िशा के जिला मुख्यालय बरगढ़ की धनुजात्रा देश -विदेश में प्रसिद्ध है । वहाँ से प्रेरित और उत्साहित होकर अब ओड़िशा के कई गाँवों में भी लोगों ने  धनुजात्रा महोत्सव समितियों का गठन कर  इस चलित नाटक का आयोजन शुरू कर दिया है ।      गोपालचंद्र पण्डा कहते हैं -मेरी जानकारी के अनुसार बरगढ़ में पिछले 70 या 72 वर्षो से धनुजात्रा हो रही है ,वहीं बलांगीर जिले के ग्राम भालेर में यह वार्षिक आयोजन  लगभग एक सौ वर्षों  से किया जा रहा है ।  इधर बरगढ़ जिले के  ही  चिचोली और लेलहेर नामक गाँवों में भी 'धनुजात्रा ' की धूम  रहती है । लेलहेर निवासी पूर्व सरपंच श्री हीराधर साहू ने बताया कि लेलहेर में  ग्राम देवता की पूजा -अर्चना के बाद धनुजात्रा का शुभारंभ होता है। कंस के मुकुट की भी पूजा होती है । पड़ोसी गाँव चण्डी पाली को वृंदावन (गोपपुर )और लेलहेर को मथुरा मानकर महानाटक का मंचन किया जाता है ।  सम्पूर्ण आयोजन के दौरान दस -पन्द्रह दिनों तक दोनों गाँवों में भारी चहल -पहल बनी  रहती है ।
    गोपालचन्द्र  पण्डा को हर साल 14 से 18 धनुजात्राओं में कंस की भूमिका निभाने का न्यौता मिलता है ।  वह सम्बलपुरी लोकगायक भी हैं । इन गीतों में अभिनय के साथ उनके दस -पन्द्रह एलबम भी आ चुके हैं । वह  रावण और अन्य कई  असुरों का भी किरदार निभाते हैं । गोपाल अच्छे कॉमेडियन भी हैं । सीमावर्ती राज्यों की कला -संस्कृति एक -दूसरे से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकती ।  पश्चिम ओड़िशा की लोकप्रिय ' धनुजात्रा ' ने अब अपनी सरहद से लगे छत्तीसगढ़ के सरायपाली इलाके में भी रंग जमाना शुरू कर दिया है । तहसील मुख्यालय सरायपाली में दिसम्बर 2017 में पहली बार इसका भव्य आयोजन हुआ ।
   इस अंचल के वरिष्ठ साहित्यकार ग्राम तोषगाँव निवासी  सुरेन्द्र प्रबुद्ध के अनुसार - यह एक प्रदर्शनकारी मुक्ताकाशी महानाटक है ।  कृष्ण कथा के रूप में मंचित होने वाले इस महानाटक का नाम धनुजात्रा क्यों ? श्री प्रबुद्ध कहते हैं - यह  एक जटिल प्रश्न है ,क्योंकि कृष्ण के व्यक्तित्व के विभिन्न प्रतीकों में मथुरा ,वृंदावन ,द्वारिका , यशोदा ,  राधा , दूध ,दही , गोप ;गोपिकाएँ , मोर पंख ,बाँसुरी ,सुदर्शन -चक्र और पांचजन्य शंख आदि तो हैं ,लेकिन उनमें धनुष नहीं है ,जबकि यह राम के व्यक्तित्व में रूढ़ हो गया है । तलाशने पर भी 'धनुजात्रा" में कृष्ण और धनुष के अंतर -सम्बन्ध नहीं मिलते ।
          धनुजात्रा में व्यवहृत 'जात्रा" शब्द को स्पष्ट करते हुए सुरेन्द्र  प्रबुद्ध कहते हैं - हिन्दी मे 'यात्रा 'शब्द की जो अमिधा है ,  भारत की पूर्वी भाषाओं ;ओड़िया ,बांग्ला और असमिया में उसका अर्थ अलग है ।जात्रा एक सामूहिक सांस्कृतिक मेला है। यह धर्म और प्राचीन साहित्य ,कला और संगीत का सम्मिश्रण है ,जो पूरे गाँव या कस्बे को चलित मंच बना देता है और दर्शक भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस महानाटक में भागीदार बन जाते हैं । पौराणिक राज पोशाक में सुसज्जित होकर महाराज कंस का  नगर भ्रमण भी जनता के आकर्षण का केन्द्र बन जाता है ।  सुरेन्द्र प्रबुद्ध भारतीय नाट्य साहित्य के इतिहास के  तथ्यात्मक अध्ययन के आधार पर यह भी कहते हैं कि ओड़िशा की 'धनुजात्रा" का इतिहास पांच सौ वर्षों से अधिक पुराना नहीं है ।
              वो कहते हैं - भरत मुनि भारतीय नाट्य साहित्य के आदि पुरुष और प्रवर्तक थे ।संस्कृत भाषा में नाटकों का विशाल और बहुरंगी भण्डार है ।,जिसकी समृद्ध परम्परा में भारतीय भाषाओं के नाटकों की परम्परा लगातार विकसित हो रही है । उत्तरप्रदेश की रामलीला रामायण का वैश्विक नाट्य रूप है ।किसी भी नाटक के सफल मंचन के लिए मंच अनिवार्य तत्व है ,जिसका अधिकतम विस्तार रूसी नाटकों में देखा गया है । रूस में एक -डेढ़ फर्लांग लम्बे -चौड़े रंगमंच हुआ करते थे । पारसीनाटकों पर भी इसका असर देखा गया,लेकिन धनुजात्रा जैसे महानाटक का मुक्ताकाशी विस्तार शहरों और गाँवों में मंच के रूप में कब और कैसे परिवर्तित हो गया ,उसका सम्यक विवरण भारतीय नाट्य शास्त्र में नहीं मिलता,लेकिन अनुमानों के आधार पर यह नयी अवधारणा 500 वर्षो से अधिक पुरानी नहीं लगती ।
         बहरहाल , मेरे विचार से कलियुग में ओड़िशा की  'धनुजात्रा' भारत के द्वापर युगीन इतिहास में कृष्ण जन्म ,कृष्ण लीला और कंस वध जैसी घटनाओं का ऐसा सजीव चित्रण करती है ,जिसे देखकर हम बहुत कुछ सीख सकते हैं । टेलीविजन चैनलों और  इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया के इस युग में  आधुनिक समाज आत्म केन्द्रित होता जा रहा है । ऐसे समय में  इस महानाटक में जनता की उत्साहजनक ,सक्रिय और  सामूहिक भागीदारी से भारतीय रंगमंच  की विकास यात्रा को अंधेरे में रोशनी की किरण नज़र आती है ।
   -- स्वराज करुण
   दो तस्वीरें  : कंस की भूमिका में  गोपालचंद्र पण्डा 
  और ग्राम लेलहेर की धनुजात्रा में कंस वध का दृश्य
  फोटो सौजन्य : गोपालचंद्र पण्डा और हीराधर साहू )

Saturday, June 1, 2019

(आलेख ) गोपनीय क्यों रहे लागत मूल्य ?


                                    -- स्वराज करुण 
      सौ बात की एक बात । अगर बाज़ार में बेतहाशा महँगाई और बेहिसाब मुनाफ़ाख़ोरी पर अंकुश लगाना है तो पैक्ड वस्तुओं पर अधिकतम खुदरा  विक्रय मूल्य के साथ ;साथ अधिकतम खुदरा लागत मूल्य छापना भी कानूनन अनिवार्य कर देना चाहिए । आज हम और आप किसी भी दुकान से साबुन ,टूथपेस्ट और मेडिकल स्टोर से  दवाइयाँ खरीदते हैं तो भुगतान के समय उन पर छपे एमआरपी (Maximum Retail Price )  देखकर सन्तुष्ट हो जाते हैं कि चलो छपी हुई कीमत के अनुसार ही हमसे राशि ली गयी है । लेकिन उस वक्त हमारे मन में यह सवाल नहीं आता कि हमने जो सामान खरीदा है ,उसके निर्माण या उत्पादन में अधिकतम कितनी लागत आयी है ?
      वैसे भी जब उस पैक्ड या डिब्बाबन्द सामान पर यह नहीं छपा है तो हमें पता भी कैसे चलेगा ? उत्पादकों और निर्माताओं द्वारा लागत मूल्य को बड़ी चतुराई से गोपनीय रखा जाता है । ऐसा क्यों होना चाहिए ?लागत मूल्य गोपनीय क्यों रहे ? जानकार लोग बताते हैं कि अधिकांश ऐसी वस्तुएं उनकी प्रति यूनिट  उत्पादन -लागत से कई गुना ज्यादा कीमत पर बेची जाती हैं । कुछ अपवाद ज़रूर हो सकते हैं ,लेकिन अधिकांश मामलों में लागत मूल्य की यह गोपनीयता ही बाज़ार में  मनमाने मुनाफ़े के साथ महँगाई को कायम रखती है । सूचना के अधिकार के  इस युग में वस्तुओं के लागत मूल्यों में पारदर्शिता क्यों नहीं है ? क्या इसके लिए कोई कानून नहीं है ? अगर नहीं है तो ऐसा कोई कानून बनाया जाना चाहिए ,जिसमें निर्माताओं और उत्पादकों के लिए अपने हर पैक्ड आइटम में विक्रय मूल्य के साथ लागत मूल्य भी प्रिंट करना बन्धनकारी हो । यह कानून साइकिल मोटरसाइकिल , कार , ट्रक ,ट्रेक्टर , टीव्ही ,फ्रीज़ जैसी वस्तुओं और  विभिन्न चिकित्सा  उपकरणों पर भी लागू होना चाहिए ।
        मैं यह कदापि नहीं कह रहा कि उद्योग अथवा व्यापार -व्यवसाय में मुनाफ़ा बिल्कुल भी नहीं कमाना चाहिए । मेरा कहना है कि लागत मूल्य और विक्रय मूल्य के बीच एक तर्कसंगत अनुपात होना चाहिए ,लेकिन यहाँ तो ज़मीन -आसमान का अंतर नज़र आता है ।
     हममें से  हर व्यक्ति एक उपभोक्ता है । वह अपने लिए और अपने घर -परिवार के लिए प्रतिदिन किसी न किसी वस्तु को खरीदता ही है । उपभोक्ता होने के नाते हमको और आपको किसी भी पैक्ड वस्तु के अधिकतम खुदरा विक्रय मूल्य के साथ उसकी अधिकतम उत्पादन लागत के बारे में जानने का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए ?  मेरे ख़्याल से  यह  उपभोक्ता अदालतों (उपभोक्ता फोरमों  ) के लिए भी एक विचारणीय विषय हो सकता है।  बशर्ते हममें से हर कोई अपने -अपने जिले के उपभोक्ता फोरम में आवेदन करें ,जो सादे कागज़ पर भी किया जा सकता है । प्रमाण के रूप में किसी भी पैक्ड वस्तु के डिब्बे या कव्हर को ,जिस पर एमआरपी छपा हो, ,संलग्न किया जा सकता है ।
          लगभग तीन दशक पहले मैंने अखबारों में 'सम्पादक के नाम पत्र " और 'लोकवाणी' जैसे कॉलमों में अपने पत्रों के माध्यम से  इस विषय को उठाया था , जिस पर प्रतिक्रिया स्वरूप पाठकों के बीच लम्बी बहस चली थी । इसे लेकर चर्चा -परिचर्चा के रूप में अख़बारों में पाठकीय पत्रों का प्रकाशन कई महीनों तक होता रहा ।    उसकी बहुत ;सी कतरनें आज भी मेरे पास  सुरक्षित हैं ।  उन दिनों फेसबुक और वाट्सएप जैसे माध्यम नहीं थे । इसलिए बहस सिर्फ़ अख़बारो तक  सीमित रह गयी थी । अब तो सोशल मीडिया का दौर आ गया है । इस विषय पर अब और भी ज्यादा विस्तार से   विचार - विमर्श हो सकता है ।
    -- स्वराज  करुण