Thursday, December 31, 2015

आधुनिक संतों को 'सीकरी' से ही काम !

 आधुनिक 'संतों' को हमेशा 'सीकरी' में ही डोलते -मंडराते देखा जाता है । नये जमाने की ' सीकरियों ' में हमेशा उनका ही जमावड़ा बना रहता है , जबकि मुग़ल सम्राट अकबर ने कवि कुंभनदास को जब अपनी राजधानी फतेहपुर सीकरी (सन 1570-1585 ईस्वी ) में आमंत्रित किया , तो कवि की आत्मा कह उठी-
''संतन को कहा सीकरी सो काम ,
आवत जात पनहियाँ टूटी ,
बिसरि गयो हरि नाम !
जिनको मुख देखे दुःख उपजत ,
तिनको करिबे परी सलाम !!''

  भावार्थ यह कि संतों को 'सीकरी' से यानी राजधानी से भला क्या काम ? वहां आते-जाते ' पनहियाँ ' यानी चप्पलें  टूट गयी और मैं हरि का नाम लेना भूल गया ! वहां तो जिन लोगों का मुखड़ा देखकर दुःख उपजने लगता  है , हमें उनको भी सलाम करना पड़ता है ! कुंभनदास हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल के कवि माने जाते हैं . वह धन-दौलत और मान-सम्मान की लालसा से कोसों दूर रहते थे .
       यह बात लगभग सवा चार सौ साल पहले की है ,जब वह 'संतन को कहा सीकरी सो काम ' कहकर समाज को यह संदेश देना चाहते थे कि फतेहपुर सीकरी यानी तत्कालीन शासन की राजधानी से संतों को भला क्या लेना-देना ,जहां ऐसे-ऐसे लोग रहते हैं ,जिनका चेहरा देखकर भी दुःख उत्पन्न होता है और जिन्हें सलाम करने के लिए हमें मजबूर होना पड़ता है !
   क्या आधुनिक युग के 'संतों' में है हिम्मत ,जो कुंभनदास की तरह सच कह सकें ? वर्तमान नस्ल के 'संतन' को तो हर प्रकार की सुख-सुविधा के लिए 'सीकरी' के ही चक्कर लगाते देखा जा सकता है ! साहित्य, कला , संस्कृति और सार्वजनिक जीवन के अन्य क्षेत्रों के आधुनिक संत क्या इसका जवाब देंगे ?
                                                                                                                  -स्वराज्य करुण