Sunday, December 21, 2014

रविवार का दिन

  कुछ लोगों के लिए
  छुट्टी मनाने का
  और बहुतों के लिए हमेशा की तरह ...
  काम करने का दिन .
  रविवार कुछ लोग सुबह उठते हैं
  देर से आराम के साथ ,
  वहीं अलसुबह मोहल्ले की चाय
  दुकान में चूल्हा सुलगाने
  पहुँच जाते हैं मंगलू और उसका दस साल का बेटा ,
  सुबह चार बजे से नुक्कड़ पर  रिक्शा लेकर
  खड़ा रहता है दरसराम सवारियों के इंतज़ार में .
  रविवार की सुबह चाहे
  बर्फीली सर्द हवाएं हों या झमाझम बारिश,
  अखबार बाँटने वाले लड़के साइकिल पर सरपट
  दौड़ते पहुंचते हैं हमारे दरवाजे
  दुनिया भर की खबरें देने .
  अस्पतालों में मरीजों की
  सेवा में दिन -रात लगे डाक्टरों और कर्मचारियों के लिए ,
  रेडियो. टेलीविजन और अखबार में काम करते पत्रकारों .
  और प्रेस कर्मचारियों के लिए ,
  खेतों में पसीना बहाते किसानों के लिए
  सरहद पर वतन की रक्षा करते
  सैनिकों के लिए ,
  रेलगाड़ियों और बसों में लाखों मुसाफिरों को
  मंजिल तक पहुंचाते ड्रायवरो के लिए ,
  ज़िन्दगी की डायरी में नहीं होता
  रविवार का दिन 
  जैसे सूरज की रौशनी के लिए ,
 जैसे मौसम और हवाओं के लिए
 नहीं होता कोई रविवार ! 
 सोचो अगर उनकी ज़िन्दगी में भी  
 हर हफ्ते आने लगे रविवार तो
 कैसी होगी हमारी ज़िन्दगी ?
                                         - स्वराज्य करुण

Monday, December 1, 2014

टेक्नोलॉजी हमारी या हम टेक्नोलॉजी के गुलाम ?

  नए जमाने की नयी तकनीकों  से जहां इंसान की ज़िन्दगी काफी सहज-सरल और सुविधाजनक होती जा रही है, वहीं   प्रौद्योगिकी के नए -नए औजार   हमारे जीवन और हमारी संस्कृति की बहुत -सी चीजों को हमसे दूर करते जा रहे हैं .लगता है -टेक्नोलॉजी हमारी गुलाम नहीं ,बल्कि हम टेक्नोलॉजी के गुलाम बनते जा रहे हैं .हैरानी इस बात पर होती है कि  टेक्नोलॉजी का जन्मदाता इंसान स्वयं है और वह खुद ही उसकी गुलामी सहज भाव से स्वीकार करता जा रहा है .  समय बड़ा बलवान और परिवर्तनशील होता है . बदलते समय की बदलती टेक्नोलॉजी इस परिवर्तनशीलता के लिए उत्प्रेरक का काम करती है. धान के महासागर के रूप में प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं रह गया है .अब खेतों में धान कटाई के लिए मजदूरों की जरूरत लगभग खत्म होती जा रही है . मजदूरों की भूमिका मशीन निभा रही है . किसानों के लिए यह बहुत सुविधाजनक है.  हार्वेस्टर  खड़ी फसल को काटकर और मिजाई कर आपको सौंप देता है . एक घंटे में एक एकड़ में फसल कटाई आसानी से हो जाती है .जबकि दस मजदूर इसी काम को आठ घंटे में करते थे .  आज के रेट के हिसाब से जितनी मजदूरी उन्हें देंगे , उसकी तुलना में हार्वेस्टर  किराए पर लेना सस्ता पड़ता है . पहले फसल खेतों से खलिहानों में लायी जाती थी . मशीनीकरण के इस दौर में अब खलिहानों की जरूरत भी नहीँ रह गयी है . हार्वेस्टर  से फसल काटकर और खेत में ही बोरे में भरकर सीधे मंडी ले जा सकते हैं . इस प्रकार अब खेतों में श्रमिकों की भूमिका लगातार कम होने लगी है . खेतों की जोताई अब हल से नहीं ,ट्रेक्टरों से होने लगी है  .रोपाई के लिए भी मशीन आ गयी है . खेतिहर मजदूरों का अब क्या होगा ? क्या उनके हाथ खाली रहेंगे ?  जब मशीनों से फसल कटाई और मिंजाई होगी ,तो खेत-खलिहानों में  इन श्रमिकों की क्या जरूरत और जब वहां श्रमिक नहीं होंगे ,तो श्रम के लोक-गीत भला कौन गाएगा  ?  यानी अब तो लोक-गीतों की अनुगूंज भी हमारे खेत-खलिहानों से गायब होने लगी है . फसल उगाने के लिए खेत  किसी  तरह कायम हैं ,लेकिन मशीनीकरण के इस  आधुनिक समय में खलिहान लुप्त हो रहे हैं. खेतों की जोताई ट्रेक्टरों से होने लगी है ,गौर-तलब है कि खलिहान हमारी कृषि -संस्कृति का अभिन्न अंग माने जाते हैं .उनका विलुप्त होना एक आत्मीय परम्परा के खत्म होने जैसा कष्टदायक है . लेकिन समय बड़ा बलवान होता है . उसके सामने किसी की नहीं चलती .फिर भी क्या किसी नयी टेक्नोलॉजी के आने पर हमें अपनी जड़ों से कट जाना चाहिए ? (आलेख और फोटो-स्वराज्य करुण)

Friday, November 28, 2014

बहुत खुश है शिक्षा -माफिया !

  डोनेशनखोर शिक्षा माफिया गिरोह के सदस्य  बहुत खुश होंगे .क्यों न हों ? दिल्ली में उनके पक्ष में फैसला जो आया है ! इस फैसले के अनुसार प्रायवेट नर्सरी स्कूलों में मासूम बच्चों के दाखिले के लिए फार्मूला वह खुद बनाएंगे ,सरकार इसमें कोई दखल नहीं दे पाएगी . जनता की निर्वाचित सरकार का कोई हुक्म उन पर नहीं चलेगा . !यानी अब प्रायवेट स्कूलों में बच्चों के एडमिशन के लिए जमकर होगी रिश्वतखोरी की तर्ज पर डोनेशनखोरी !. दो-तीन साल की नाजुक उम्र के बच्चों को भी देना होगा इंटरव्यू ,जैसे किसी नौकरी के लिए बेरोजगार आवेदकों का लिया जाता है साक्षात्कार ! इतना ही नहीं ,बल्कि इन बच्चों के माता-पिता को भी शिक्षा-माफिया के सामने खड़े होकर बेरोजगारों की तरह इंटरव्यू देना होगा !    यह शिक्षा के निजीकरण के लिए देश में विगत कई वर्षों से चल रही साजिशों का  'साइड इफेक्ट' है . धन्य है फैसला देने वाला इन्साफ का नेत्रहीन देवता ! (स्वराज्य करुण )

Thursday, November 27, 2014

काले-धन का मंत्र-जाप !


                         अगर चाहते हो जानें सब धन है कितना काला ,
                         सबसे पहले खोलो   बैंक में हर लॉकर का ताला !
                         समझदार को इशारा काफी ,अगर ध्यान से देखे ,
                         आँखों में वरना पड़ा रहेगा नासमझी का जाला !
                         चोर-लुटेरे - डाकू सबके सब हैं मौज-मजे में ,
                         काले-धन का मंत्र-जाप कर रहे फेर कर माला !
                         कोई किसी का भाई-भतीजा ,कोई किसी का बेटा ,
                         कोई किसी का जीजा है तो कोई किसी का साला !
                         बाहर-बाहर इक-दूजे को जमकर हैं गरियाते ,
                         भीतर -भीतर हँसी -ठहाके ,महफ़िल और मधुशाला !
                         बिन इलाज के मरते हैं जो अस्पताल के आंगन ,
                          कोई नहीं होता है उनको कफन ओढ़ाने वाला !
                         फिर भी खूब तरक्की पर है देश तुम्हारा -मेरा ,
                         समृद्धि के दावों से देखो घर-घर में उजियाला !
                                                                           -- स्वराज्य करुण

Friday, November 21, 2014

(ग़ज़ल ) कभी गाँव था अपनों का ...!

                                    मुझे समय  की बुरी नज़र से  डर लगता है ,
                                     भीड़ भरे इस शहर से बेहद डर लगता है !
                                     हर  तरफ  यहाँ  अजनबी चेहरों के मेले   ,
                                     रूपयों का  ही बाज़ार चारों प्रहर लगता है !
                                     बाहर -बाहर  जितना आलीशान दिख रहा,
                                     भीतर जाओ तो भुतहा  खंडहर लगता है !
                                     कभी गाँव था अपनों का  इसी जगह पर ,
                                    जहाँ आज यह बेगानों का घर लगता है !
                                     हरी घास के नर्म  बिछौने कौन ले गया ,
                                     धरती  का प्यारा आंचल पत्थर लगता है !
                                   .जिसने  छीनी महतारी की ममता हमसे ,
                                     उसके हाथों छुपा हुआ खंज़र लगता है !
                                     इन्साफ और क़ानून तो सिर्फ़ कहने की बातें ,
                                     बेहिसाब ,बेदर्द यहाँ का मंज़र लगता है !
                                                                        --  स्वराज्य करुण

Thursday, November 20, 2014

फैशनेबल पशु-प्रेमियों ने बढ़ाया आदमखोर कुत्तों का हौसला !

      .
    हमारे शहर में पिछले एक साल से आवारा कुत्तों का भयानक आतंक है  कुछ फैशनेबल पशु-प्रेमियों के चलते उनके  हौसले बुलंद होते जा रहे हैं .  होटलों और मांस-मछली विक्रेताओं के ठेलों के आस -पास  जूठन की लालच में इनके झुण्ड के झुण्ड घूमते रहते हैं  . शहर के आऊटर में जगह-जगह बेतरतीब और अवैध रूप से संचालित ब्रायलर मुर्गों और अण्डों की दुकानों के इर्द -गिर्द इन आवारा कुत्तों को सुस्ताते देखा जा सकता है .ये वहाँ मुर्गों के पंखों और मांस के लोथड़ों की लालच में ध्यान लगाए बैठे रहते हैं और जैसे ही कोई दुकानदार इस प्रकार के अवशेषों को लापरवाही से फेंकता है ,ये उस दिशा में दौड पड़ते हैं .रात में सडकें सुनसान होने पर भी ये आवारा हिंसक पशु वहीं पर अपना डेरा जमाए रहते हैं .
      विगत एक वर्ष में दर्जनों लोगों पर इन लावारिस कुत्तों ने हमले किए , कई लोगों को बुरी तरह घायल कर दिया और कई मासूम बच्चों को भी अपना शिकार बनाया . ऐसा नहीं है कि शासन-प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा है. नगर-निगम के अधिकारियों ने इन कुत्तों को जहर देकर मारना चाहा ,उनकी नसबंदी के प्रयास किये ,लेकिन जब -जब ऐसी कोशिशें हुई , स्वयं  को पशु-प्रेमी कहलाने वालों के कुछ  स्वयं -भू संगठन के लोग अखबार बाजी करने लगे कि निरीह जानवरों पर अत्याचार हो रहा है .  कोई उपाय न देखकर नगर-निगम वालों ने इन आवारा कुत्तों को शहर की सरहद से काफी दूर जंगल में छोड़ना शुरू किया ,तो एक नई समस्या तन कर खड़ी हो गई . ये कुत्ते अब गाँवों में आतंक फैलाने लगे .शहर से लगभग तीस किलोमीटर परस्थित  एक गाँव से खबर आयी है कि वहाँ इन आवारा कुत्तों ने खुले में खेल रहे एक दर्जन नन्हें बच्चों को काटकर बुरी तरह जख्मी कर दिया .शहर के आऊटर पर एक कॉलोनी में ऐसे ही कुछ आवारा कुत्तों ने एक भिखारन को नोच-खसोट  कर मार डाला . इतना होने के बाद भी शहर के स्वनाम धन्य पशु-प्रेमियों का दिल नहीं पसीज रहा है .
        आदमखोर होते जा रहे इन आवारा कुत्तों को  खत्म करने के लिए जब-जब शासन -प्रशासन ने नगर -निगम के साथ मिलाकर कोई कदम उठाना चाहा , इन लोगों ने उसका विरोध शुरू कर दिया . कोई उनसे यह क्यों नहीं पूछता कि मानव -जीवन ज्यादा कीमती है या आदमखोर कुत्ते ? गौर तलब है कि ये लावारिस कुत्ते  राहगीरों,स्कूली बच्चों  और  आम नागरिकों पर हमले कर रहे हैं .  कामकाजी लोग रात में दोपहिया गाड़ियों में घर लौटे हैं तो ये उन पर झपट्टा मारते की कोशिश करते है .ऐसे में कई जानलेवा दुर्घटनाएं भी हो चुकी हैं .पशु-प्रेमी संगठन के स्व-घोषित नेताओं को वह सब नज़र नहीं आता .लगता है अब एक ही उपाय रह गया है-लोग अपने घरों के आस-पास आवारा और हिंसक कुत्तों को देखते ही  चुपचाप उन्हें खाने में जहर मिलाकर खिला दें . इसके बाद भी अगर स्वघोषित पशु-प्रेमी इसका विरोध करें तो इन लावारिस कुत्तों को उनके घरों के भीतर ले जाकर छोड़ देना चाहिए और उनसे कहना चाहिए कि अब आप ही इनकी परवरिश कीजिए !
(स्वराज्य करुण )

Tuesday, November 18, 2014

काली कमाई का सबसे सुरक्षित ठिकाना बैंक लॉकर !

         भ्रष्टाचार और काला धन दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं . दोनों एक-दूजे के लिए ही बने हैं और एक-दूजे के फलने-फूलने के लिए ज़मीन तैयार करते रहते हैं . यह कहना भी गलत नहीं होगा कि दोनों एकदम सगे मौसेरे भाई हैं. भ्रष्टाचार से अर्जित करोड़ों-अरबों -खरबों की दौलत को छुपाकर रखने के लिए तरह -तरह की जुगत लगाई जाती है . भ्रष्टाचारियों द्वारा इसके लिए अपने नाते-रिश्तेदारों ,नौकर-चाकरों और यहाँ तक कि कुत्ते-बिल्लियों के नाम से भी बेनामी सम्पत्ति खरीदी जाती है . बेईमानी की कालिख लगी दौलत अगर छलकने लगे तो सफेदपोश चोर-डाकू उसे अपने बिस्तर और यहाँ तक कि टायलेट में भी छुपाकर रख देते हैं . .हालांकि देश के सभी राज्यों में हर साल और हर महीने कालिख लगी कमाई करने वाले सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के घरों पर छापेमारी चलती रहती है ,करोड़ों -अरबों की अनुपातहीन सम्पत्ति होने के खुलासे भी मीडिया में आते रहते हैं .
                      आपको यह जानकर शायद हैरानी होगी कि हमारे देश के राष्ट्रीयकृत और निजी क्षेत्र के बैंक भी भ्रष्टाचारियों  की   बेहिसाब दौलत को छुपाने का सबसे सुरक्षित ठिकाना बन गए हैं .जी हाँ !  ये बैंक  जाने-अनजाने इन भ्रष्ट लोगों की मदद कर रहे हैं और उनकी काली कमाई के अघोषित संरक्षक बने हुए हैं  ! वह कैसे ? तो जरा विचार कीजिये ! प्रत्येक बैंक में  ग्राहकों को लॉकर रखने की भी सुविधा मिलती है .हालांकि सभी खातेदार इसका लाभ नहीं लेते ,लेकिन कई इच्छुक खातेदारों को बैंक शाखाएं  निर्धारित शुल्क पर लॉकर आवंटित करती हैं  .उस लॉकर में आप क्या रखने जा रहे हैं , उसकी कोई सूची बैंक वाले नहीं बनाते . उन्हें केवल अपने लॉकर के किराए से ही मतलब रहता है . लॉकर-धारक से उसमे रखे जाने वाले सामानों की जानकारी के लिए कोई फ़ार्म नहीं भरवाया जाता .  .आप सोने-चांदी ,हीरे-जवाहरात से लेकर  बेहिसाब नोटों के बंडल तक उसमे रख सकते हैं . एक मित्र ने मजाक में कहा - अगर आप चाहें तो अपने बैंक लॉकर में दारू की बोतल और अफीम-गांजा -भांग जैसे नशीले पदार्थ भी जमा करवा सकते हैं .
          कहने का मतलब यह  कि बैंक वाले अपनी शाखा में लॉकर की मांग करने वाले किसी भी ग्राहक  को निर्धारित किराए पर लॉकर उपलब्ध करवा कर अपनी ड्यूटी पूरी मान  लेते हैं  .हाल ही में कुछ अखबारों में यह समाचार पढ़ने को मिला कि   एक भ्रष्ट अधिकारी के बैंक लॉकर होने की जानकारी मिलने पर जांच दल ने जब उस बैंक में उसे साथ ले जाकर लॉकर खुलवाया तो उसमे पांच लाख रूपए नगद मिले ,जबकि उसमे विभिन्न देशों के बासठ नोटों के अलावा कई विदेशी सिक्के भी उसी लॉकर से बरामद किये गए ..उसके ही एक अन्य बैंक के लॉकर में करोड़ों रूपयों की जमीन खरीदी से संबंधित रजिस्ट्री के अनेक दस्तावेज भी पाए गए .जरा सोचिये ! इस व्यक्ति ने  पांच लाख रूपये की नगद राशि को अपने बैंक खाते में जमा क्यों नहीं किया ? उसने इतनी बड़ी रकम को लॉकर में क्यों रखा ? फिर उस लॉकर में विदेशी नोटों और विदेशी सिक्कों को रखने के पीछे  उसका इरादा क्या था ? हमारे जैसे लोगों के लिए तो  पांच लाख रूपये भी बहुत बड़ी रकम होती है .इसलिए मैंने इसे 'इतनी बड़ी रकम' कहा .
          बहरहाल हमारे  देश में बैंकों के लॉकरों में पांच लाख तो क्या , पांच-पांच करोड रूपए रखने वाले भ्रष्टाचारी भी होंगे .आम धारणा है कि भारत के काले धन का जितना बड़ा जखीरा विदेशी बैंकों में है ,उससे कहीं ज्यादा काला धन देश में ही छुपा हुआ है और तरह-तरह के काले कारोबार में उसका धडल्ले से इस्तेमाल हो रहा है . ऐसा लगता है कि बैंक लॉकर भी काले-धन को सुरक्षित रखने का एक सहज-सरल माध्यम   बन गए हैं .ऐसे में अगर देश के भीतर छुपाकर रखे गए काले धन को उजागर करना हो तो सबसे पहले तमाम बैंक-लॉकर धारकों के लिए यह कानूनन अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए कि वे अपने लॉकर में रखे गए सामानों की पूरी जानकारी बैंक-प्रबंधन को दें .ताकि उसका रिकार्ड सरकार को भी मिल सके .अगर लॉकर धारक ऐसा नहीं करते हैं तो उनके लॉकर जब्त कर लिए जाएँ . मुझे लगता है कि ऐसा होने पर  अरबों-खरबों रूपयों का काला धन अपने आप बाहर आने लगेगा और उसका उपयोग देश-हित में किया जा सकेगा .(स्वराज्य करुण )

Sunday, November 9, 2014

मानवता का दुश्मन हिटलर अभी ज़िंदा है !

अभी हिटलर को मरे सौ साल भी नहीं हुए ,लेकिन लगता है कि मानवता का यह भयानक दुश्मन अपने नये -नये रूप में आज भी दुनिया के हर देश में जिंदा है. दैनिक 'भास्कर ' में  आज छपी दिल दहला देने वाली इस खबर से हिटलर के नये दानवी अवतारों के इस दुनिया में जीवित होने की पुष्टि हो जाती है. इन्सानियत को और  इंसानों को ऐसे आदमखोर हिटलरों से सावधान रहने और एकजुट होकर उन्हें हमारी दुनिया से बाहर भगाने की जरूरत है.(स्वराज्य करुण )

Saturday, November 8, 2014

(पुस्तक -चर्चा ) छत्तीसगढी भाषा का पहला उपन्यास


       आंचलिक  साहित्य के शोधकर्ताओं की मानें तो पाण्डेय बंशीधर शर्मा रचित 'हीरू के कहिनी' . छत्तीसगढी भाषा का पहला उपन्यास  है. इसका प्रथम प्रकाशन सन् 1926 में हुआ था .दूसरा संस्करण 74 साल बाद सन् 2000 में  छत्तीसगढ़ के जिला मुख्यालय रायगढ़ में प्रकाशित हुआ . यानी आज (सन 2014 से ) 88 साल पहले  महानदी के आँचल में लिखा गया था छत्तीसगढ़ की जन-भाषा में पहला उपन्यास .यही वह समय था जब देश में स्वतंत्रता आंदोलन के जरिये राष्ट्रीय चेतना का विकास हो रहा था .
          यही वह समय था जब देश भर में विभिन्न राज्यों की आंचलिक भाषाओं में  राष्ट्रीय जागरण की  रचनाएँ लिखी और छापी जा रही थी और हिन्दी सहित तमाम भारतीय भाषाओं का भी उत्थान हो रहा था . इतिहास के ऐसे निर्णायक दौर में  छत्तीसगढ़ में यहाँ की जन-भाषा में साहित्य सृजन करने वाले माँ सरस्वती के पुजारियों में  पाण्डेय बंशीधर शर्मा भी अग्रणी  थे . उन्होंने 'हीरू के कहिनी ' के माध्यम से  छत्तीसगढ़ के तत्कालीन ग्रामीण जन-जीवन का जीवंत चित्रण किया है., गरीबों के जीवन -संघर्ष  को अभिव्यक्ति दी है और यह भी बताने का प्रयास किया है कि राजा (शासक ) और जनता के बीच कैसे रिश्ते होने चाहिए.
    उपन्यासकार के   पारिवारिक सदस्य और वरिष्ठ साहित्यकार श्री ईश्वर शरण पाण्डेय ने इसका सम्पादन किया है. यह दूसरे संस्करण का मुखपृष्ठ है .पाण्डेय बंशीधर शर्मा छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध इतिहासकार स्वर्गीय श्री लोचन प्रसाद पाण्डेय और प्रसिद्ध कवि स्वर्गीय श्री मुकुटधर पाण्डेय के मंझले भाई थे.  पाण्डेय परिवार के लोग महानदी के तटवर्ती ग्राम बालपुर के निवासी थे . बंशीधर जी के उपन्यास के प्रकाशक श्री राजू पाण्डेय ने अपने प्रकाशकीय वक्तव्य में लिखा है -उपन्यास के नायक हीरू का चरित्र छत्तीसगढ़ अंचल के निवासियों का प्रतिनिधि चरित्र है .धनी -निर्धन . शिक्षित -अशिक्षित , परम्परावादी और प्रगतिशील , सभी प्रकार के पात्र उपन्यास में मौजूद हैं .उपन्यास का कथानक हीरू की कष्टपूर्ण और दुःखमय बाल्यावस्था से उसके सफल और प्रतिष्ठापूर्ण यौवन तक फैला हुआ है .उपन्यास बहुरंगी ग्रामीण जीवन की समग्रता को समेटे है .अंग्रेजों द्वारा किया जा रहा शोषण , आम जनता में व्याप्त असंतोष . जन जागरण के प्रयास और स्वाधीनता आंदोलन की ऊहापोह वायु की भांति पूरे उपन्यास में फैली है 
          मेरे विचार से 'हीरू के कहिनी '  भारतीय साहित्य की एक अनमोल धरोहर है .छत्तीसगढी भाषा  का पहला उपन्यास होने की वजह से यह हमारे लिए और भी ज्यादा मूल्यवान   सम्पत्ति है,जिसे  सहेजकर और संजोकर सुरक्षित रखना हम सबकी नैतिक जिम्मेदारी है. राजू पाण्डेय ने अपने सीमित संसाधनों से स्थानीय स्तर पर इसे प्रकाशित कर जनता के सामने लाने का सराहनीय प्रयास किया. जरूरत इस बात की है कि सरकार और समाज दोनों मिलकर ऐसी दुर्लभ  साहित्यिक रचनाओं को संरक्षित करे ,ताकि आने वाली पीढ़ियों  को मालूम तो हो कि    देश -दुनिया और समाज को सही दिशा देने के लिए उनके पूर्वज प्रेरक विचारों का  कितना अनमोल खजाना उन्हें  सौंप गए हैं .(स्वराज्य करुण )

Friday, November 7, 2014

(पुस्तक चर्चा ) भारतीय अवनद्ध वाद्यों पर एक ज़रूरी किताब

                                        

         संगीत की अपनी भाषा होती है ,जो दुनिया के हर इंसान के दिल को छू जाती है और चाहे कोई देश-प्रदेश हो या विदेश,  कहीं का भी संगीत , कहीं के भी इंसान को सहज ही अपनी ओर आसानी से खींच लेता है.  भारतीय संगीत और वाद्य यंत्रों की भी अपनी कई विशेषताएं हैं .उनकी उत्पत्ति का अपना इतिहास है .   अवनद्ध वाद्य भी इनमे अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं . संगीत में अवनद्ध वाद्यों की जरूरत भोजन का जायका बढ़ाने वाली  मसालेदार सब्जियों और स्वादिष्ट चटनियों की तरह है . 
      भारतीय अवनद्ध वाद्यों पर  डॉ.जवाहरलाल नायक का शोध-ग्रन्थ लगभग तीस साल बाद पुस्तक के रूप में सामने आया है .लेखक के अनुसार  चमड़े से ढंके वाद्य-यंत्रों के बारे में शायद अपने किस्म की यह पहली शोध पुस्तक है .. डॉ जवाहर नायक छत्तीसगढ़ में महानदी के किनारे ग्राम लोधिया (जिला -रायगढ़ ) के निवासी हैं. मध्यप्रदेश के जमाने में उस जिले के सरिया क्षेत्र से विधायक भी रह चुके हैं .उनकी पहचान एक कुशल तबला वादक के रूप में भी है .उन्होंने छत्तीसगढ़ के इंदिरा कला एवं संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ से तबले में एम .ए. की उपाधि प्राप्त की है.और इसी विश्वविद्यालय से भारतीय अवनद्ध वाद्यों पर पी.एच-डी की है. 
      डॉ. नायक के अनुसार चर्म-आच्छादित वाद्यों जैसे तबला , पखावज ,मृदंग खंजरी , डफ ,ढोलक, ,आदि के लिए 'अवनद्ध ' संज्ञा दी गयी है. उन्होंने इस बारे में पुस्तक में अवनद्ध वाद्य  यंत्रों  के बारे में कई विद्वानों की परिभाषाएं भी संकलित की हैं .स्वर्गीय डॉ. लालमणि मिश्र के अनुसार -वे वाद्य जो भीतर से पोले तथा चमड़े से मढ़े हुए होते हैं और हाथ या किसी अन्य वस्तु के ताड़न से ध्वनि या शब्द उत्पन्न करते हैं ,उन्हें 'अवनद्ध ' या ' वितत ' भी कहा गया है. डॉ. जवाहर नायक ने 407 पृष्ठों की अपनी इस पुस्तक मे भारतीय अवनद्ध वाद्यों का वर्गीकरण करते हुए प्राचीन काल के अवनद्ध वाद्यों , मध्यकालीन अवनद्ध वाद्यों और आधुनिक अवनद्ध वाद्यों का दिलचस्प विश्लेषण किया है. सर्वाधिक प्रचलित अवनद्ध वाद्य 'तबला ' पर भी उन्होंने प्रकाश डाला है.प्रत्येक अवनद्ध वाद्यकी उत्पत्ति, बनावट, निर्माण विधि की जानकारी भी इसमें दी गयी है. 
        शोध-ग्रन्थ नौ अध्यायों में है. विषय प्रवेश के साथ पहले अध्याय में अवनद्ध वाद्य : शब्द व्युत्पत्ति , परिभाषा , अवनद्ध वाद्यों की निर्माण सामग्री , अवनद्ध वाद्यों का महत्व और उत्पत्ति का संक्षिप्त विवेचन है . दूसरे अध्याय में अवनद्ध वाद्यों का वर्गीकरण किया गया है. तीसरे अध्याय में भारत के प्राचीन अवनद्ध  वाद्य यंत्रों का उल्लेख है .इसमें भूमि- दुन्दुभि ,  दुन्दुभि , केतुमत और मृदंग जैसे वाद्य यंत्रों पर प्रकाश डाला गया है. चौथे अध्याय में संजा , धोंसा , तम्बकी , ढक्का, हुडुक जैसे  मध्यकालीन अवनद्ध वाद्यों पर, पांचवें अध्याय में खंजरी , दफ़ , दुक्कड , दमामा , ढोल  जैसे आधुनिक अवनद्ध वाद्यों पर और छठवें अध्याय में सर्वाधिक प्रचलित अवनद्ध वाद्य 'तबला' पर शोधकर्ता लेखक ने ज्ञानवर्धक जानकारी दी है. सातवें अध्याय में प्रमुख भारतीय अवनद्ध वाद्यों के अनेक प्रसिद्ध वादकों का परिचय दिया गया है .लेखक ने आठवें अध्याय में पाश्चात्य अवनद्ध वाद्यों का विश्लेषण किया है .इसमें लेखक डॉ.नायक की  ये पंक्तियाँ संगीत कला को लेकर उनके व्यापक और प्रगतिशील नज़रिए को प्रकट करती हैं - पाश्चात्य और हिन्दुस्तानी ,इन दो संगीत पद्धतियों के नाम से सभी संगीत रसिक परिचित हैं .दोनों ही संगीत पद्धतियाँ अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण हैं .आज वैज्ञानिक विकास के युग में जब सम्पूर्ण विश्व की दूरी नगण्य -सी हो गई है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की सांस्कृतिक उपलब्धियों का पूर्ण सहिष्णुता के आधार पर समाकलन प्रस्तुत करें ,जिससे विस्तृत वसुन्धरा के प्रत्येक कला में स्वाभाविक सामंजस्य स्थापित हो सके .समय की आवाज को यदि आज के परिवेश में सही रूप से पहचाना जाए तो प्रत्येक विचारधारा का निष्कर्ष राष्ट्रीयता से ऊपर उठकर विश्व-बन्धुता की प्रेरणा प्रदान करता हुआ मिलेगा .
           शोधार्थी डॉ. नायक के अनुसार भारतीय अवनद्ध वाद्यों के स्वतंत्र अध्ययन की दृष्टि से संभवतः यह पहला प्रयास है. उन्होंने छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध संगीतज्ञ और इंदिरा संगीत एवं कला विश्वविद्यालय के पूर्व उप-कुलपति स्वर्गीय डॉ. अरुण कुमार सेन के मार्ग दर्शन में यह शोध-कार्य पूर्ण किया था . लगभग तीस साल के लंबे अंतराल के बाद वर्ष .2012 में डॉ. नायक की मेहनत पुस्तक के रूप में सामने आयी .उन्हें बहुत-बहुत बधाई. (स्वराज्य करुण )

Tuesday, November 4, 2014

क्या सपना ही रह जाएगा अपने मकान का सपना ?

          आधुनिक भारतीय समाज में यह आम धारणा है कि इंसान को अपनी कमाई बैंकों में जमा करने के बजाय ज़मीन में निवेश  करना चाहिए . कई लोग ज़मीन खरीदने में पूँजी लगाने को बैंकों में  'फिक्स्ड  डिपौजिट' करने जैसा मानते हैं . यह भी आम धारणा है कि सोना खरीदने से ज्यादा फायदा ज़मीन खरीदी में है . समाज में प्रचलित इन धारणाओं में काफी सच्चाई है, जो साफ़ नज़र आती है .
       अपने शहर में किसी ने आज से पचीस साल पहले अगर दो हजार वर्ग फीट जमीन कहीं बीस रूपए प्रति वर्ग फीट के भाव से चालीस हजार रूपए में खरीदी थी तो आज उसकी कीमत चालीस लाख रूपए हो गयी है . पीछे  मुड़कर बहुत दूर तक देखने की जरूरत नहीं है .याद कीजिये तो पाएंगे कि  छोटे और मंझोले शहरों में आज से सिर्फ दस  साल पहले एक हजार  वर्ग फीट वाले जिस मकान की कीमत छह -सात लाख रूपए थी आज वह बढकर पैंतीस-चालीस लाख रूपए की हो गयी है . कई कॉलोनियां ऐसी बन रही हैं ,जहां एक करोड ,दो करोड और पांच-पांच करोड के भी मकान बिक रहे हैं .उन्हें खरीदने वाले कौन लोग हैं और उनकी आमदनी का क्या जरिया है , इसका अगर ईमानदारी से पता लगाया जाए तो काले धन के धंधे वालों के कई चौंकाने वाले रहस्य उजागर होंगे .प्रापर्टी का रेट शायद ऐसे ही लोगों के कारण तेजी से आसमान छूने लगा है . प्रापर्टी डीलिंग का काम करने वाले कुछ बिचौलियों की भी इसमें काफी संदेहास्पद भूमिका हो सकती है .  कॉलोनियां बनाने वालों के लिए यह कानूनी रूप से अनिवार्य है कि वे उनमे दस-पन्दरह प्रतिशत मकान आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए भी बनवाएं ,लेकिन अधिकाँश निजी बिल्डर इस क़ानून का पालन नहीं करते और उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ पाता .
           ज़मीन और मकानों की  कीमतें  इस तरह बेतहाशा बढने के पीछे क्या गणित है ,यह कम से कम मुझ जैसे सामान्य इंसान की समझ से बाहर है ,लेकिन इस रहस्यमय मूल्य वृद्धि की वजह से  गरीबों और सामान्य आर्थिक स्थिति वालों पर जो संकट मंडराने लगा है , वह देश और समाज दोनों के भविष्य के लिए खतरनाक हो सकता है. जब किसी ज़रूरतमंद व्यक्ति या उसके परिवार को रहने के लिए एक अदद मकान नहीं मिलेगा तो उसके दिल में सामाजिक व्यवस्था के प्रति स्वाभाविक रूप से आक्रोश पैदा होगा .अगर यह आक्रोश सामूहिक रूप से प्रकट होने लगे तो फिर क्या होगा ? सोच कर ही डर लगता है .
        यह एक ऐसी समस्या है जिस पर सरकार और समाज दोनों को मिलकर विचार करना और कोई रास्ता निकालना चाहिए . रोटी और कपडे का जुगाड तो इंसान किसी तरह कर लेता है ,लेकिन अपने परिवार के लिए मकान खरीदने या बनवाने में उसे पसीना आ जाता है.  खुद का मकान होना सौभाग्य की बात होती है ,लेकिन यह सौभाग्य हर किसी का नहीं होता . खास तौर पर शहरों में यह एक गंभीर समस्या बनती जा रही है . जैसे-जैसे रोजी-रोटी के लिए , सरकारी और प्राइवेट नौकरियों के लिए ग्रामीण आबादी का शहरों की ओर पलायन हो रहा है , यह समस्या और भी विकराल रूप धारण कर रही है .जहां आज से कुछ साल पहले शहरों में आवासीय भूमि की कीमत पच्चीस-तीस या पचास  रूपए प्रति वर्ग फीट के आस-पास हुआ करती थी ,आज वहाँ  उसका  मूल्य सैकड़ों और हजारों रूपए वर्ग फीट हो गया है . ऐसे में कोई निम्न-मध्यम वर्गीय परिवार स्वयं के घर का सपना कैसे साकार कर पाएगा ?
        सरकारी हाऊसिंग  एजेंसियां शहरों में लोगों को सस्ते मकान देने का दावा करती हैं ,लेकिन उनकी कीमतें भी इतनी ज्यादा होती हैं कि  उनका मकान  खरीद पाना हर किसी के लिए संभव नहीं हो पाता .इधर निजी क्षेत्र के बिल्डरों की भी  मौज ही मौज है . अगर किसी मकान की प्रति वर्ग फीट निर्माण लागत अधिकतम एक हजार  रूपए प्रति वर्ग फीट हो तो सीधी-सी बात है कि  पांच सौ वर्ग फीट का मकान पांच  लाख रूपए में बन सकता है .लेकिन बिल्डर लोग इसे पन्द्रह -बीस लाख रूपए में बेचते हैं ,यानी निर्माण लागत का तिगुना -चौगुना दाम वसूल करते हैं . ज़ाहिर है कि गरीब या कमजोर आर्थिक स्थिति वाले परिवार के लिए खुद के मकान का सपना आसानी से साकार नहीं हो सकता . ऐसे में सरकार को अलग-अलग आकार के मकानों की  प्रति वर्ग फीट  एक निश्चित निर्माण लागत तय कर देनी  चाहिए ,जो  सरकारी तथा निजी दोनों तरह के बिल्डरों के लिए अनिवार्य हो . शहरों में आवासीय ज़मीन की बेलगाम बढती कीमतों पर भी अंकुश लगाने की जरूरत है . अगर ऐसा नहीं हुआ तो देश के शहरों में अधिकाँश लोगों के लिए अपने मकान  का सपना सिर्फ सपना बनकर रह जाएगा .(स्वराज्य करुण )

Friday, October 31, 2014

पुस्तक चर्चा -- छत्तीसगढ़ के चटनी


भारत के हर प्रदेश में खान-पान की अपनी विशेषताएं होती हैं .छत्तीसगढ़ भी देश का ऐसा राज्य है ,जहां रसोई की अपनी विशेष विधाएं और खूबियाँ हैं . भोजन का स्वाद बढ़ाने में चटनी का अपना महत्वपूर्ण योगदान होता है .   अड़तालिस पेज की इस छोटी - सी पुस्तिका में आचार्य डॉ. दशरथ लाल निषाद'विद्रोही' ने छत्तीसगढ़ के घरों में  बनने वाली अड़तीस प्रकार की चटनियों का वर्णन किया है. पुस्तिका में प्रत्येक चटनी की निर्माण विधि का उल्लेख हिन्दी में और उसके गुणों का बखान छत्तीसगढी कुंडलियों में कुछ इस तरह किया है कि पढ़ते -पढ़ते जीभ चटकारे लेने लगती है और मुँह में अनायास पानी आ जाता है . लेखक ने चटनी की परिभाषा अत्यंत सहज भाव से दी है- जेन ला चांट के खाय जाथे,वोला चटनी कहिथें .आमा... के चटनी , लिमऊ यानी नीबू की चटनी , आँवरा (आँवला ) की चटनी ,अमली (इमली )की चटनी , अदरक आलू कांदा , चिरपोटी फर, बोईर (बेर ),करेला , करौंदा की चटनी का नाम सुनते ही लार टपकने से खुद को भला कैसे रोक पाएगी ? अखबारी प्रचार-प्रसार से लगभग दूर रहने वाले दशरथ लाल जी छत्तीसगढ़ के ऐसे समर्पित साहित्यकार हैं ,जो अपनी लेखनी से इस राज्य के जन -जीवन की विशेषताओं को देश और दुनिया के सामने लाने के.लिए लम्बे समय से लगे हुए हैं .वह धमतरी जिले में महानदी के किनारे ग्राम मगरलोड में रहते हैं . छत्तीसगढ़ के चटनी के अलावा राज्य के खान -पान की खूबियों पर प्रकाशित उनकी पुस्तिकाओं में छत्तीसगढ़ के भाजी , छत्तीसगढ़ के कांदा , छत्तीसगढ़ के पान , छत्तीसगढ़ के बासी , छत्तीसगढ़ के रोटी , छत्तीसगढ़ के मछरी -मास भी उल्लेखनीय हैं . इन्हें मिलाकर छत्तीसगढ़ के जन -जीवन, इतिहास , लोक -परम्परा आदि कई पहलुओं पर छिहत्तर वर्षीय निषाद जी की अब तक छब्बीस किताबें छप चुकी हैं और बाईस अप्रकाशित हैं वर्ष १९७५ में देश में लगे आपातकाल के दौरान उन्होंने मीसा -बंदी के रूप में जेल-यात्रा भी. की और वहाँ से लौटे तो उन्होंने ' मीसा के मिसरी ' शीर्षक कविता संग्रह लिख डाला . कुछ वर्ष पहले यह प्रकाशित हुआ ..सजने-धजने इस राज्य  की परम्परओं को उन्होंने 'छत्तीसगढ़ के सिंगार' शीर्षक अपनी पुस्तिका में सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है. वह आयुर्वेद चिकित्सक भी हैं . उनका डाक्टरी ज्ञान 'आयुर्वेद बोधनी' में खुलकर सामने आता है .इस किताब का पहला भाग प्रकाशित हो गया है . गौ वंश की महत्ता ,छत्तीसगढ़ के फूल ,छत्तीसगढ़ के तिहार (त्यौहार ) .धर्म बोधनी' अभी प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं उनकी अधिकांश किताबें संगम साहित्य एवं सांस्कृतिक समिति .मगरलोड द्वारा प्रकाशित की गयी हैं.(स्वराज्य करुण )

Thursday, October 30, 2014

देश का रूपया सीधे विदेशी बैंकों में जमा करने पर प्रतिबंध ज़रूरी !


अपने देश में कई राष्ट्रीयकृत बैंक हैं ,फिर भी कुछ लोग अपनी कथित धन-राशि   विदेशी बैंकों में ही क्यों जमा करते हैं ?   इससे तो उनकी बदनीयती साफ़ झलकती है . वे जिसे अपना धन समझ रहे हैं , वह तो वास्तव में इस देश की माटी से हासिल पूँजी है ,    जिसे उनके द्वारा टैक्स चोरी के लिए देश के बाहर के बैंकों में जमा किया जाता है .अगर यह दौलत  साफ़-सुथरी होती और उनके दिल भी पाक-साफ़ होते ,तो  ऐसे लोग यह रूपया अपने ही देश के सरकारी बैंकों में जमा करते . उन बैंकों के माध्यम से भले ही उन्हें विदेशों में पैसों की जरूरत होने पर राशि का हस्तांतरण हो जाता .यह माना जा सकता है कि कुछ लोगों को अपने बेटे-बेटियों की विदेशों में उच्च शिक्षा के लिए ,या विदेश में स्वयं के  अथवा अपने किसी नाते-रिश्तेदार के इलाज के लिए भी राशि की ज़रूरत हो सकती है , दूसरे देशों में  उद्योग-व्यापार में निवेश  अथवा समाज-सेवा के कार्यों में दान देने के लिए भी पूँजी की जरूरत होती है .अगर ऐसे प्रयोजनों के लिए कोई अपना रूपया विदेश भेजना चाहे तो उसे अपने देश के किसी सरकारी बैंक के माध्यम से भेजना चाहिए ,ताकि उसका पूरा हिसाब देश की सरकार के पास रहे ,लेकिन यहाँ तो पता नहीं ,किस जरिये से देश की दौलत विदेशी बैंकों में कैद हो रही है .कुछ लोग  अपने ही देश की लक्ष्मी का अपहरण कर रहे हैं . वह धन विदेशों में किस काम में लगाया जा रहा है ,कौन देखने वाला है ?    हो सकता है इस दौलत का इस्तेमाल वे अपने ही देश के खिलाफ साजिश रचने में कर रहे हों  ! ऐसे लोगों के नाम बेनकाब होने ही चाहिए . .पारदर्शिता के इस युग में इन सफेदपोश डाकुओं के नाम गोपनीय रखना किसी भी मायने में उचित नहीं है . .ऐसे बेईमानों का मुँह काला करके सड़कों पर उनका जुलूस निकाला जाना चाहिए और चौक-चौराहों पर जूतों की मालाओं से ' नागरिक अभिनन्दन ' भी होना चाहिए .देश का धन विदेशी बैंकों में सीधे जमा करने की आज़ादी पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए . भारत में विदेशी बैंकों की शाखाएं हैं तो केन्द्र सरकार उन्हें  साफ़ -साफ़ यह निर्देश जारी  कि वे किसी भी भारतीय नागरिक अथवा अप्रवासी भारतीय का रूपया भारत सरकार के अनापत्ति-प्रमाण पत्र के बिना  अपने बैंक में जमा नहीं  करें.! .देश में संचालित विदेशी बैंकों का दिन-प्रतिदिन  पूरा हिसाब भारतीय रिजर्व बैंक को भी अपने पास अनिवार्य रूप से रखना  चाहिए . (स्वराज्य करुण )

Wednesday, October 29, 2014

सुपर स्पेशलिटी अस्पतालों की असलियत !

         निजी क्षेत्र में सुपर स्पेशलिटी अस्पतालों के नाम पर लूट-मार जारी है. हालांकि अपवाद स्वरुप कुछ अच्छे अस्पताल और अच्छे डॉक्टर भी होते हैं , जिनमे  परोपकार और समाज  सेवा  की भावना जीवित है ,लेकिन अधिकाँश अस्पतालों की व्यवस्था देखकर लगता है कि मानवता खत्म हो गई है .अपने एक मित्र के बीमार पिताजी को देखने एक ऐसे ही स्वनाम धन्य अस्पताल गया तो मित्र ने बताया --- इस अस्पताल के डॉक्टरों की आपसी बातचीत अगर सुन लें तो आपको डॉक्टर और हैवान में कोई अन्तर नज़र नहीं आएगा .ये डॉक्टर अपने लंच टाईम में आपसी चर्चा में मरीजों को क्रिकेट का 'विकेट' कहते हैं. .एक डॉक्टर दूसरे से कहता है -आज चार विकेट आए थे ,एक विकेट गिरा है .
 दरअसल  सुपर स्पेशलिटी में स्पेशल बात ये होती है कि वहाँ किसी गंभीर मरीज को ले जाने के बाद सबसे पहले बिलिंग काऊंटर में बीस-पच्चीस या पचास हजार रूपए जमा करवा लिए जाते हैं . उसके बाद शुरू होता है असली लूट -खसोट का सिलसिला . मरीज को आई.सी. यू .में भर्ती करने के बाद तरह-तरह के मेडिकल टेस्ट करवाने और हर दो -चार घंटे बाद नई -नई दवाइयों की लिस्ट उसके परिजन को थमा दी जाती है .उसी अस्पताल के परिसर में अस्पताल मालिक का मेडिकल स्टोर भी होता है .यह मरीज के घर के लोगों के लिए सुविधा की दृष्टि से तो ठीक है ,लेकिन वहाँ दवाईयां मनमाने दाम पर खरीदना उनकी मजबूरी हो जाती है.मरीज को छोड़कर ज्यादा दूर किसी मेडिकल स्टोर तक जाने -आने का जोखिम उठाना ठीक भी नहीं लगता . खैर किसी तरह अगर दवाई खरीद कर डॉक्टर को दे दी जाए तो उसके बाद यह पता भी नहीं चलता कि उन सभी दवाइयों का इस्तेमाल मरीज के लिए किया गया है या नहीं ?गौर तलब है कि आई.सी. यू. में मरीज के साथ हर वक्त उसके परिजन को मौजूद रहने की अनुमति नहीं होती .उसे बाहर ही बैठकर इन्तजार करना होता है .वह बड़ी व्याकुलता से समय बिताता है. उसे केवल आई.सी.यू. में दाखिल अपने प्रियजन के स्वास्थ्य की चिन्ता रहती है,लिहाजा डॉक्टर से कई प्रकार के मेडिकल टेस्ट का और मरीज के लिए खरीदी गयी दवाइयों के उपयोग का हिसाब मांगने की बात उसके मन में आती ही नहीं. इसका ही बेजा फायदा उठाते हैं कथित सुपर स्पेशलिटी अस्पतालों के मालिक और डॉक्टर .वैसे इस प्रकार के ज्यादातर अस्पतालों के मालिक स्वयं डॉक्टर होते हैं .सरकार तो जन-कल्याण अच्छे  इरादे के साथ गरीब परिवारों को स्मार्ट -कार्ड देकर उन्हें सालाना एक निश्चित राशि तक निशुल्क इलाज की सुविधा देती है यह सुविधा पंजीकृत अस्पतालों में दी जाती है ,लेकिन वहाँ डॉक्टर कई स्मार्ट कार्ड धारक परिवार के किसी एक सदस्य के एक बार के इलाज में ही अनाप-शनाप खर्च बताकर स्मार्ट कार्ड की पूरी राशि निकलवा लेते हैं.
     दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी अस्पताल हैं ,जहां गंभीर से गंभीर बीमारियों का मुफ्त इलाज होता है.जैसे - नया रायपुर और पुट्टपर्थी  स्थित श्री सत्य साईसंजीवनी अस्पताल ,जहां जन्मजात ह्रदय रोगियों का पूरा इलाज और ऑपरेशन मुफ्त किया जाता है .यह एक ऐसा अस्पताल है ,जहाँ कोई बिलिंग काऊंटर नहीं है. मरीजों के और उनके सहायकों के लिए भोजन और आवास की व्यवस्था भी निशुल्क है .-स्वराज्य करुण

Monday, October 13, 2014

( ग़ज़ल ) भोली आँखों से दुनिया को ...!

                                देख रहे भोली आँखों से दुनिया को सीधे-सादे लोग,
                                समझ न पाएं इस फरेबी महफ़िल के इरादे लोग !

                                 नकाबपोशों के नगर में नक्कालों का  स्वागत खूब ,
                                 दहशत में जाने कहाँ गए इस बस्ती के आधे लोग !
                                
                                सच्चाई की बात भी करना पागलपन कहलाता है ,
                                झूठी कसमों के संग करते सौ-सौ झूठे वादे लोग !
                                
                                उल्टी- सीधी  चालें चलती चालबाज की माया है ,
                                नासमझी में बन जाते हैं सियासतों के प्यादे लोग !
                               
                                हीरे-मोती के चक्कर में चीर रहे धरती का सीना .
                                खेती के रिवाज़ को चाहे पल भर में  गिरा  दें लोग !
                                
                                उनकी पुस्तक में न जाने दिल वालों का देश कहाँ ,
                                शायद असली के बदले दिल नकली दिलवा दें लोग ! 
                                
                                 वक्त आ गया अब चलने  का इस मुसाफिरखाने से ,
                                 आने  वाले हैं यहाँ  भी हुक्कामों  के शहजादे  लोग !
                                                                         -- स्वराज्य करुण

Saturday, June 14, 2014

विज्ञापनों के लिए भी बनाया जाए सेंसर बोर्ड !

            विज्ञापनों की विश्वसनीयता का भी कोई क़ानून सम्मत वैज्ञानिक प्रमाण होना चाहिए. मेरे विचार से  केन्द्र सरकार को फिल्म सेंसर बोर्ड की तरह विज्ञापन सेंसर बोर्ड भी बनाना चाहिए .उपभोक्ता वस्तुओं के प्र्काशित और  प्रसारित  होने वाले विज्ञापनों में सेंसर बोर्ड का प्रमाणपत्र भी जनता को दिखाया जाना चाहिए ताकि फूहड़ और अश्लील विज्ञापनों को समाज में प्रदूषण फैलाने से रोका जा सके . 
      आजकल टेलीविजन चैनलों में और अखबारों में तरह -तरह की दवाइयों, कई प्रकार के तेल और साबुनों ,विभिन्न प्रकार के सौंदर्य प्रसाधनों ,बिस्किट आदि पैकेट बन्द खाद्य वस्तुओं के विज्ञापनों की भरमार है. होर्डिंग्स में भी बड़े-बड़े दावों के साथ विज्ञापन प्रदर्शित किए जाते हैं . तन्त्र-मंत्र के विज्ञापन भी छपते और प्रसारित होते हैं .बाजारवाद के इस बेरहम और बेशर्म दौर में अधिकाँश विज्ञापनों की भाषा भी सामाजिक-सांस्कृतिक और पारिवारिक मर्यादाओं के खिलाफ नज़र आती है . कई बार टेलीविजन चैनलों में खबरों और कार्यक्रमों के बीच अचानक ऐसे फूहड़ विज्ञापन आने लगते हैं,जिनके शब्दों को किसी भी संस्कारवान भारतीय घर में अशोभनीय माना जाता है .
         औषधियों और उपभोक्ता वस्तुओं के विज्ञापनों में किए जाने वाले दावों की विश्वसनीयता जांचने के लिये दर्शकों और पाठकों के पास तत्काल कोई उपाय नहीं होता .ऐसे में प्रत्येक विज्ञापनदाता के लिए यह कानूनी रूप से अनिवार्य किया जाना चाहिए कि वह अपने विज्ञापन में किए जा रहे दावों का एक विधि सम्मत सरकारी प्रमाण पत्र भी विज्ञापित वस्तु के साथ सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करे ,टेलीविजन के परदे पर भी ऐसे प्रमाणपत्र को  प्रसारित किया जाए करे और अगर अखबार में विज्ञापन छपे तो उसके साथ भी ऐसा एक कानूनी प्रमाणपत्र अनिवार्य रूप से छापा जाए..मिसाल के तौर पर अगर किसी टूथ-पेस्ट ,केश-तेल ,दवाई आदि सेहत से जुडी वस्तुओं का विज्ञापन है तो उसके साथ सरकारी मेडिकल बोर्ड का भी प्रमाण-पत्र लगाना अनिवार्य हो. 
      इसी तरह अन्य वस्तुओं के विज्ञापनों में भी उनसे संबंधित विषयों के तकनीकी जानकारों की एक सरकारी कमेटी उन्हें प्रमाणित करे और उनका प्रमाणपत्र विज्ञापन के साथ प्रसारित-प्रदर्शित और प्रकाशित हो. वस्तुओं के पैकेटों और डिब्बों में भी यह प्रमाणपत्र लगाया जाना चाहिए .संक्षेप में यह कि चाहे प्रिंट मीडिया में छपने वाले विज्ञापन हों ,या इलेक्ट्रानिक मीडिया में प्रदर्शित या प्रसारित होने वाले विज्ञापन , उनके दावों की सच्चाई और उनकी भाषा की मर्यादा  को जांचने और उसे अनुमोदित करने के लिए सेंसर बोर्ड जैसी एक सरकारी संस्था  बननी चाहिए .यदि विज्ञापनों के लिए कोई सुस्पष्ट नियम-क़ानून बन सके और उन पर निगाह रखने वाली कोई संस्था  बन जाए , तो देश की जनता को भ्रामक विज्ञापनों के मायाजाल से काफी हद तक बचाया जा सकेगा .- स्वराज्य करुण

Tuesday, April 15, 2014

लोकतंत्र इसी का नाम है !


    बदनामी कोई नहीं चाहता . इंसान अपनी आजीविका के लिये चाहे छोटा-बड़ा कोई भी काम क्यों न करता हो,  समाज में हर इंसान की दिली इच्छा होती है कि दूसरे लोग उसके कार्यों की तारीफ़ करें,लेकिन कई बार ऐसा हो नहीं पाता और जाने-अनजाने अपने बिगड़े कार्यों की वजह से वह अपयश का शिकार हो जाता है. ठीक उसी तरह आज के युग में दुनिया भर की तमाम सरकारें भी जनता के लिये अच्छे से अच्छा काम करके दिखाना चाहती हैं , भला कौन सी सरकार अपने ही देश के लोगों के बीच अपनी बदनामी चाहेगी ? लेकिन सरकारों के विशाल कुनबे में कहीं न कहीं , किसी न किसी से कुछ न कुछ ऐसा गलत-सलत हो जाता है कि कुनबे के मत्थे बदनामी आ ही जाती है और जनता उस कुनबे से यानी सरकार से हाथ जोड़कर कहती है - माई-बाप ,अब आप जाओ, घर बैठो और आराम करो ! हम आपको शोभा-यात्रा के साथ ससम्मान आपके घर तक पहुंचा आएँगे .अब किसी और को आने दो, अगर वह भी अच्छे कार्य करके नहीं दिखाएगा ,तो उसे भी हम गाजे-बाजे के साथ उसके घर तक छोड़ आएँगे ! यह सिलसिला चलता रहता है ! लोकतंत्र इसी का नाम है !
                                                                                                              -स्वराज्य करुण 

Saturday, April 12, 2014

मौसमी यारों का मौसम !

                                                                                       -स्वराज्य करुण 

                                        भीड़-भाड़ , शोरगुल , नारों का मौसम,
                                        आ गया फिर चुनावी बहारों का मौसम !
                                        मंचों में थिरक रहे सिंहासन के सपने  ,
                                        आ गया  लो मौसमी यारों का मौसम !
                                        मोहक मुस्कान लिये चेहरों का सैलाब है  ,
                                        वादों की नदियों के किनारों का मौसम !
                                        कातिल भी आज  हमदर्द नज़र आ रहे ,
                                        मुखौटों से सजी -धजी  दीवारों का मौसम !
                                        दिन में हर कोई अपने को सूरज कहता है ,
                                        हर रात यहाँ चुनावी सितारों का मौसम !
                                        कहते हैं अपने आप को हम हैं देश-रक्षक ,
                                       लगता है ये  नकली पहरेदारों का मौसम !
                                       चैनलों के नलों से  बयानों की बौछार है ,
                                       भाषणों की थाल सजे अखबारों का मौसम !
                                                                                   -स्वराज्य करुण

Tuesday, April 8, 2014

सार्वजनिक संचार कम्पनी को जिन्दा चबा जाने की साजिश !

                                                                                              -- स्वराज्य करुण
बी.एस.एन.एल दफ्तर के बाहर लंच टाइम में चाय की दुकान पर इस सार्वजनिक कम्पनी के कुछ कर्मचारी चर्चा कर रहे थे . उनमे से एक कह रहा था -
      हमारे देश में सार्वजनिक कम्पनियों को जिन्दा चबाकर खा जाने के लिए निजी कम्पनियां तरह-तरह के घटिया हथकंडे अपना रही हैं .साजिश का ताजा निशाना केन्द्र सरकार की कम्पनी भारत संचार निगम लिमिटेड ( बी.एस. एन .एल) को बनाया जा रहा है . देश के बड़े-बड़े धन-पशुओं की निजी संचार कम्पनियों ने इस सार्वजनिक प्रतिष्ठान को आर्थिक प्रतिस्पर्धा में पीछे धकेलने की ऐसी साजिश रची है कि अब बी.एस.एन .एल के संचार नेटवर्क में हमेशा कई तरह की तकनीकी रुकावटें आने लगी हैं ..अगर आपके मोबाइल फोन में बी.एस .एन .एल का सिम लगा है और आप कमरे के भीतर हैं,तो कई बार उसमे बातचीत के दौरान बीच-बीच में नेट-वर्क का ऐसा व्यवधान होता है कि आप और जिसका फोन आया है वह दोनों परेशान हो जाते हैं , सरकारी संचार कम्पनी (बी.एस.एन.एल ) की छवि धूमिल करने के लिए निजी संचार कम्पनियों के अफसरों ने उच्च स्तर पर उसके कुछ अफसरों को मोटी रकम देकर अघोषित रूप से खरीद लिया है . 

      चाय की चुस्कियां लेते हुए एक कर्मचारी ने कहा --बी.एस.एन .एल के माइक्रोवेब मोबाइल टावर पहले अधिकाँश शहरों में लगे हुए थे,आज भी हैं, गाँवों में भी इस सरकारी संचार कम्पनी के टावर हुआ करते थे ,आज भी हैं,लेकिन अब निजी संचार कंपनियों के अफसर इस सरकारी संचार कम्पनी के टावरों में तकनीकी खराबी लाने की जुगत में रहते हैं और इसके लिए बी.एस एन.एल के कुछ छोटे-बड़े अफसरों को अप्रत्यक्ष रूप से खरीद लिया जाता है साजिश के तहत बी.एस.एन.एल के नेटवर्क में सर्वर डाउन करवा दिया जाता है .या सर्वर में कुछ खराबी पैदा कर दी जाती है इस वजह से बी.एस.एन.एल के सिम धारक मोबाईल फोन उपभोक्ता को नेटवर्क नहीं मिलता और किसी से बात करते वक्त कट-कट कर बातें होती हैं .झुंझलाहट में वह बी.एस.एन एल को गालियाँ देता है और किसी निजी कम्पनी के सिम लेने की सोचने लगता है और ले भी लेता है .सरकारी संचार कम्पनी के फोन-केबल्स को सडक खोदकर निजी कम्पनियों के लोग खुले आम काट देते है और उस वजह से सरकारी फोन और इंटरनेट सेवाएं ठप्प हो जाती हैं शिकायत दर्ज करवाने पर केबल्स जोड़ने के लिए बी.एस.एन.एल के   कई लापरवाह अधिकारी और कर्मचारी धीमी गति से काम करते हैं या कई दिनों तक ध्यान भी नहीं देते .मजबूर होकर सामान्य ग्राहक अथवा सरकारी ग्राहक भी निजी कम्पनियों की तरफ जाने लगता है . इस प्रकार निजी संचार कम्पनियों का मुनाफे का कारोबार तेजी से चलने ही नहीं ,बल्कि दौड़ने लगता है और बी.एस.एन.एल जैसी सार्वजनिक कम्पनी को साल-दर -साल घाटा उठाना पड़ता है .
      बगल में बैठे एक अन्य कर्मचारी का कहना था -   यह साजिश इस सार्वजनिक कम्पनी के निजीकरण की राह को आसान बनाने के लिए रची गयी है,ताकि करोड़ों -अरबों रूपयों का घाटा दिखाकर सरकारी कम्पनी को किसी निजी कम्पनी के हाथों बेच दिया जाए . सरकारी कम्पनियाँ जनता की धरोहर होती हैं.उन्हें निजी हाथों में सौंपने का अधिकार किसी को भी नहीं होना चाहिए . भारत संचार निगम के कर्मचारी संगठन इस साजिश को और भी ठीक ढंग से बेनकाब करने की तैयारी में हैं .चाय की दुकान पर सुनी गयी इस चर्चा में कितनी सच्चाई है इसका अंदाजा तो बी.एस.एन.एल. की टेलीफोन और मोबाईल फोन सेवाओं की क्वालिटी देखकर आसानी से लगाया जा सकता है. हाथ कंगन को आरसी क्या ? लंच टाइम खत्म हुआ और सभी कर्मचारी अपपने दफ्तर की ओर जाने लगे .