Saturday, December 31, 2011

(ग़ज़ल ) राम का हनुमान अब रावण हो गया !

                                                               
                                                     खामोश अचानक वातावरण हो गया 
                                                     भरी सभा द्रौपदी का चीरहरण हो गया !
 
                                                     लुटेरों की बस्ती में चीखते रह जाओगे ,
...                                                  खुले आम सपनों का अपहरण हो गया !
 
                                                      कौन किसे बचाने यहाँ  आगे आएगा ,
                                                      छुपे हुए चेहरों का अनावरण हो गया !
 
                                                      कौन जाए खोजने सत्य की सीता को ,
                                                      राम का हनुमान अब रावण हो गया !
 
                                                      चरण-धूलि  कौन ले अब किसी कृष्ण की
                                                      हर कदम कंस का आचरण हो गया !
 
                                                       रात-दिन,साल सब इस तरह बीत गए ,
                                                       वक्त आज  बेरहम संस्मरण हो गया !
                                                                                             ---  स्वराज्य करुण
                                                                                                                            

Thursday, December 22, 2011

सावधान ! हिन्दी पर हुआ बेशर्मों का हमला !


                           
  

                                                    हैं कितने खुश हिन्दी के हत्यारों को देखिये
                                                    लगा रहे जो 'हिंग्लिश ' के नारों को देखिये !
                                                    खा कर हिंद का दाना ,गाते  हैं अंग्रेजी गाना
                                                    खुले आम नाच रहे इन गद्दारों को देखिये !
 
बेशर्मों ने हिन्दी पर इस बार बड़ी बेरहमी से हमला किया है. हमें सावधान और सचेत होकर उनका मुकाबला करना होगा .दिल्ली की अंग्रेजी शीर्षक वाली एक पत्रिका ने अपने २८ दिसम्बर २०११ के हिन्दी संस्करण में 'हिंग्लिश'  यानी कथित अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी की तरफदारी करते हुए प्रकाशित आवरण कथा में बड़ी बेशर्मी से ऐलान कर दिया है कि सरकारी हिन्दी का ज़नाजा उठ गया है .इसके साथ ही नीचे और भी बेशर्मी से नारा लिखा गया है-इंग्लिश हिन्दी जिंदाबाद .इतने पर भी जब जी नहीं भरा तो इसने आवरण कथा का शीर्षक दे दिया -वाह ! हिंग्लिश  बोलिए ! नरेंद्र सैनी की  आवरण कथा के  इस वाक्य पर भी जरा गौर करें-- 'देश के युवाओं के बीच खासी लोकप्रिय हो रही भाषा  को केन्द्र सरकार ने भी अपनाया ' यहाँ कथित रूप से इस लोकप्रिय भाषा का आशय हिन्दी और अंग्रेजी की बेमेल और बेस्वाद खिचड़ी यानी 'हिंग्लिश' से है. ज़रा सोचिये  क्या वाकई यह तथा कथित 'हिंग्लिश' भारत के युवाओं में लोकप्रिय हो रही है ? इसके बावजूद इस वाक्य में ऐसा लिखना और छापना  देश के युवाओं को भाषा के नाम पर गुमराह करने की   कोशिश  और साजिश  नहीं, तो और क्या है ? पत्रिका के इसी अंक में 'हिन्दी मरेगी नहीं,बढ़ेगी ' शीर्षक से मनीषा पाण्डेय ने अपने आलेख में फरमाया है- ''हिंग्लिश को लेकर साहित्यिक गलियारों में स्वीकृति के स्वर मज़बूत होने लगे हैं ''.ऐसा लिख कर क्या हिन्दी साहित्य और हिन्दी के साहित्यकारों को अपमानित नहीं किया जा रहा है ? क्या हमारे हिन्दी लेखकों को चुनौती नहीं दी जा रही है ?
राष्ट्र भाषा हिन्दी को एक मरणासन्न भाषा बताने का दुस्साहस करते हुए संतोष कुमार का एक लेख भी इस  पत्रिका में  'सरकारी हिन्दी की अंतिम हिचकियाँ 'शीर्षक से छपा है,जिसमे भारत सरकार के गृह मंत्रालय से सम्बन्धित राज भाषा विभाग के २६ सितम्बर २०११ के उस परिपत्र की छायाप्रति भी छापी गयी है,जिसमें सरकारी काम-काज के पत्रों में सरल हिन्दी के नाम पर अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी के इस्तेमाल की सलाह दी गयी है. यह सरकारी परिपत्र भी हास्यास्पद है ,जिसमें काम काजी हिन्दी  लिखने के लिए अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल करने के लिए एक उदाहरण भी दिया गया है ,जो इस प्रकार है-  
     'कॉलेज में एक रि-फारेस्टेशन अभियान है, जो रेगुलर चलता रहता है .इसका इस साल से एक और प्रोग्राम शुरू हुआ है, जिसमें हर स्टूडेंट एक पेड़ लगाएगा ' 
           अब इन्हें कौन समझाए कि 'रि-फारेस्टेशन' के बजाय अगर 'वृक्षारोपण' , 'रेगुलर'  के बजाय 'नियमित'  'प्रोग्राम' के बजाय 'कार्यक्रम' और 'स्टूडेंट'' के बजाय 'विद्यार्थी ' अथवा 'छात्र'   कहा और लिखा जाए तो भी हिन्दी का सामान्य ज्ञान रखने वाले  लोग हिन्दी के इन शब्दों को  आसानी से  समझ जाएंगे, लेकिन लगता है कि   दिल्ली के गलियारों में घूमने और पलने-बढ़ने वालों को हिन्दी भाषा अब किसी दुश्मन की तरह लगने लगी है.तभी तो उन्होंने ऐसा फरमान जारी किया है. तभी तो अंग्रेजी मानसिकता वाले हमारे देशी अंग्रेजों का दिल खूब  उछल-कूद  मचाए हुए  है .यही कारण है कि अंग्रेजी शीर्षक वाली पत्रिका के हिन्दी संस्करण में   भी  इतनी ज़ोरदार खुशी का इज़हार किया जा रहा है. भारत को भाषाई रूप से पहले अंग्रेजी का और आगे चलकर अंग्रेजों का गुलाम बनाने की साजिश भी इसमें साफ़ झलकती है. मिसाल के तौर पर इस पत्रिका में नरेंद्र सैनी की  आवरण कथा के शुरुआती वाक्यों को देखिये--  ''यह पार्टी टाइम है. जश्न मनाइए कि भारत सरकार ने आपके आगे हार मान ली है. पिछले ६० साल से सरकार आप पर ऐसी हिन्दी थोपने की कोशिश कर रही थी ,जिसे आप बोलते तक नहीं . ....सरकारी प्रोटीन और विटामिन खिलाने से हिन्दी नाम का बच्चा जवान नहीं हो सकता था .अब केन्द्र सरकार ने कहा है कि हिन्दी को सरल बनाना समय की मांग है और इसलिए 'हिंग्लिश 'भी चलाओ .  '' हैरत की बात यह है कि  राजभाषा विभाग के जिस परिपत्र की फोटोकापी इसी पत्रिका के पृष्ठ १८ पर 'सरकारी हिन्दी की अंतिम हिचकियाँ ;शीर्षक से संतोष कुमार के लेख के साथ छपी है,उसमें कहीं भी हिंग्लिश' शब्द का उल्लेख नहीं है .इसके बावजूद सैनी ने अपने आलेख में लिख दिया है कि सरकार ने 'हिंग्लिश' भी चलाने के लिए कहा है. यह ज़रूर है कि परिपत्र में सरकारी काम-काज में सरल और सहज हिन्दी के प्रयोग के लिए नीति- निर्देश दिए गए हैं पर 'हिंग्लिश ' का कोई ज़िक्र नहीं है.हाँ, कठिन हिन्दी के बदले अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग की गैरज़रूरी सलाह ज़रूर दी गयी है , जिससे मेरे जैसे आम नागरिक सहमत नहीं हो सकते .
      भारत २८ प्रदेशों  और ७ केन्द्र शासित राज्यों का एक आज़ाद मुल्क है ,जहां हर प्रदेश ,हर राज्य की अपनी अपनी लोकप्रिय भाषाएँ हैं,जो अपने आप में काफी समृद्ध हैं . हिन्दी इन सभी प्रादेशिक भाषाओं को परस्पर जोड़ने का काम करती है .हिन्दी को भारतीय संविधान में राज भाषा का दर्जा प्राप्त है . हिन्दी भारत की एक सम्पन्न    भाषा है . उसका शब्द भंडार बहुत विशाल है . इसलिए उसे सरकारी पत्र व्यवहार के लिए जब तक  कठिन हिन्दी शब्दों के आसान विकल्प उपलब्ध हैं ,तब तक  अंग्रेजी से उधारी में शब्द मांगने की ज़रूरत नहीं है. अगर  सरकारी काम-काज में, शासकीय पत्राचार में हिन्दी को आसान बनाने के लिए अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग की सलाह दी जा सकती है,तो सरकारी दफ्तरों को इसके लिए अन्य भारतीय भाषाओं से शब्दों  चयन के लिए क्यों नहीं कहा जा सकता ? इसमें दो राय नहीं कि आज सरकारी हिन्दी  के सरलीकरण की ज़रूरत है,  सर्वोच्च न्यायालय और   उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी भाषा का ही दबदबा है ,जबकि  निचली अदालतों में  बहुत कठिन उर्दू मिश्रित हिन्दी का प्रचलन है.  राज भाषा विभाग को सामान्य प्रशासनिक दफ्तरों के साथ-साथ सम्पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया में भी राज भाषा के रूप में हिन्दी के प्रचलन को बढ़ावा देना चाहिए.  इसके लिए अगर  हिन्दी में सरल शब्द नहीं मिल रहे हों ,तो हम अपने ही देश  की प्रादेशिक  भाषाओं से शब्द ग्रहण कर सकते हैं.  इससे जहां हिन्दी और भी ज्यादा धनवान होगी, वहीं  राष्ट्रीय एकता  को  भी बढ़ावा मिलेगा. हिन्दी  साहित्य  की  विकास यात्रा के लिए वर्षों पहले मील का पत्थर रखने वाले महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने कभी लिखा था-
                                         निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल
                                         बिनु निज भाषा ज्ञान बिनु मिटे  न  हिय को शूल !

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने  कहा था - ''  हिन्दी ही भारत की राष्ट्र भाषा हो सकती है,अमर शहीद भगत सिंह  सिंह का भी कहना था  -'' हिन्दी में राष्ट्र भाषा  होने की सारी काबिलियत है .जबकि  प्रसिद्ध साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन 'अज्ञेय'  ने देशवासियों को सतर्क करते हुए लिखा था - ''हिन्दी पर अनेक दिशाओं से कुठाराघात की तैयारी है ,ताकि उसकी अटूट शक्ति को कमज़ोर किया जा सके''   .
   भाषा चाहे देशी हो ,या विदेशी , हर भाषा की अपनी खूबियाँ  होती हैं . किसी भी भाषा से , चाहे वह अंग्रेजी ही क्यों न हो, व्यक्तिगत बैर भाव नहीं होना चाहिए ,लेकिन अगर कोई भाषा किसी देश की संस्कृति को और उसके राष्ट्रीय स्वाभिमान को ही नष्ट करने की कोशिश में जुट जाए , तो उसका प्रतिकार तो करना ही होगा . अंग्रेजी के साथ भी कुछ ऐसा ही मामला है. क्या हम इतनी जल्दी भूल गए कि देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त करने के लिए लाखों हिंदुस्तानियों ने अपने प्राणों की आहुति दी ,जेल की यातनाएं झेलीं ,तब कहीं करीब चौंसठ साल पहले १५ अगस्त १९४७  को  बड़ी मुश्किल से अंग्रेजों को यहाँ से भगाया जा सका ?  भारतीय संस्कृति के संरक्षण के लिए आज ज़रूरत इस बात की है कि  हम हिन्दी सहित तमाम भारतीय भाषाओं के समग्र विकास के लिए चिन्तन करें और इस दिशा में काम करें , भारतीय भाषाओं में भरपूर साहित्य सृजन हो , हर भारतीय अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के बजाय अपनी भाषा के स्कूलों में दाखिला दिलवाए .
    मुझे लगता है कि आज एक बार फिर इंग्लिस्तान से एक नहीं ,बल्कि हजारों बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ   ईस्ट इंडिया कम्पनी के नए अवतार के रूप में   'हिंग्लिश  ' भाषा के साथ भारत को गुलाम बनाने के लिए आ रही हैं , और हमारे ही देश के छिपे हुए नहीं , बल्कि खुले आम घूमते कुछ गद्दार किस्म के लोग उनके क़दमों में बिछ कर  और अंग्रेजी की हिमायत में पूंछ हिलाकर उनका स्वागत कर रहे हैं .हिन्दुस्तान के ऐसे दुश्मनों और हिन्दी भाषा पर प्राणघातक हमला करने और उसकी हत्या की कोशिश करने वालों से हमें सावधान रहना होगा. .                                                                                                                              --                                                                                                             ----स्वराज्य करुण 
                                         

Wednesday, December 21, 2011

क्या पढ़ना है तय करेगी अदालत ?

क्या आज की पढ़ी-लिखी जनता इतनी नासमझ है कि उसे क्या पढ़ना है और क्या नहीं पढ़ना है, यह किसी अदालत में तय होगा  ? दुनिया  भर में साक्षरता और शिक्षा तेजी से बढ़ती जा रही है. टेलीफोन , रेडियो, सिनेमा और टेलीविजन जैसे आधुनिक सूचना माध्यमों के विस्तार के बाद  अब कम्प्यूटर उपकरणों के साथ मोबाइल फोन और  इंटरनेट जैसे अत्याधुनिक संचार माध्यम भी आम जनता के लिए सर्व-सुलभ है . तब वक्त के इस नए दौर में क्या किसी किताब पर प्रतिबंध लगा देने से भर से उस किताब में व्यक्त विचार आम जनता तक नहीं पहुँच पाएंगे ?
  विचार भले ही किसी इंसान के मस्तिष्क में जन्म लेते हों ,  लेकिन समाज में उनका फैलाव हवा की निराकार तरंगों जैसा  होता है.  हवा को  हम नहीं देख पाते केवल उसे   अनुभव कर सकते हैं ,ठीक उसी तरह मानव मस्तिष्क से उपजे किसी भी विचार को शब्दों में पढ़कर या सुनकर सिर्फ  महसूस किया जा सकता है . यह अलग बात है कि उसे कोई किस रूप में ग्रहण करता है . लेकिन प्रतिबंध लगा देने से कहीं कोई वैचारिक प्रवाह न कभी  रुक पाया है और न कभी रुक पाएगा . सैकड़ों-हजारों साल पहले जब ऐसे आधुनिक संचार उपकरण नहीं थे , उस जमाने में भी कई ऐतिहासिक ग्रन्थों की रचना हुई और वे तत्कालीन समाज में विभिन्न माध्यमों से जन-जन तक पहुँची.भारत में महाकवि गोस्वामी तुलसीदास का 'रामचरित मानस ' और संत कबीर के दोहे इसकी जीती-जागती मिसाल हैं, जो  भारत की हिन्दी पट्टी में आज भी जन-जन की जुबान पर हैं .
आज दुनिया के सभी देशों में साक्षरता और शिक्षा का काफी प्रसार हो चुका है . पढे-लिखे लोगों की संख्या भी पहले के मुकाबले काफी ज्यादा है .हर पढ़े-लिखे इंसान में  अच्छे -बुरे को  पहचानने की क्षमता होती है. उसे क्या पढ़ना और क्या नहीं , इसका फैसला भी वह अपने विवेक से कर सकता है. हम भारतीयों  के महान सांस्कृतिक ग्रन्थ 'भगवत गीता ' के अनुवाद पर आधारित एक पुस्तक पर रूस में प्रतिबंध लगाने की मांग पर अदालती विवाद वास्तव में आश्चर्यजनक और.दुर्भाग्यजनक है. इस्कॉन के संस्थापक ए. सी. भक्तिवेदांत द्वारा लिखित 'भगवत गीता यथा रूप' के रूसी अनुवाद पर प्रतिबंध के लिए वहाँ साइबेरिया के तोमस्क शहर  की अदालत में विगत जून माह से यह मामला चल रहा है .खबर आयी है कि अदालत ने फैसला फिलहाल २८ दिसम्बर तक स्थगित रखा है., लेकिन इस मामले से यह  सवाल  भी उठने लगा है कि अगर पुस्तक पर पाबंदी लग भी जाए तो क्या  उसका महत्व कम हो जाएगा ?   ए. सी भक्तिवेदान्त और उनके इस्कॉन के लाखों अनुयायी भारत में भी हैं जो इस पुस्तक को अगर चाहें तो इंटरनेट पर भी जारी कर सकते हैं ,फिर हजारों किलोमीटर दूर देश की कोई अदालत उस पर पाबंदी लगाती रहे ,क्या फर्क पड़ता  है  ? बताया जाता है कि रूस में तो 'गीता' का पहला अनुवाद लगभग ९५ साल पहले वर्ष १९१६ में आ गया था ,जिसका अनुवाद अन्ना  कर्म्न्स्काया ने किया था .जवाहर लाल नेहरु पुरस्कार से सम्मानित लेखक  सिम्सोबर्ग ने भी  वर्ष १९७८ में  'गीता' का अनुवाद किया था. अब इतने लम्बे अंतराल के बाद ए. सी. भक्तिवेदांत की पुस्तक के बहाने क्या ' भगवत गीता' की मूल पुस्तक को प्रतिबंधित कर दिया जाएगा ,या उसके अनुवाद को, यह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है . अखबारों  में  कहीं यह छप रहा है कि रूस में 'गीता' पर पाबंदी लगाने की मांग हो रही है ,तो कहीं बताया जा रहा कि  ए. सी भक्तिवेदांत के अनुवाद पर पाबंदी के लिए अदालत में याचिका लगी है . बहरहाल विवाद अभी थमा नहीं है ,लेकिन इससे 'श्रीमद भगवत गीता' की रचना -भूमि ' यानी हमारे भारत में जनता का उद्वेलित होना बहुत स्वाभाविक है. भारतीय संसद में भी इस पर चिन्ता व्यक्त की गयी है  .विदेश मंत्री एस. एम्. कृष्णा ने रूस में चल रहे इस विवाद  को घटिया हरकत बताया है ,वहीं भारत स्थित रूस के राजदूत एलेक्जेंडर एम्.कदाकिन ने भी इस पर अपने देश की सरकार की ओर से अफ़सोस जताते हुए कहा है कि यह घटना साइबेरिया के उस विश्वविद्यालय में हुई .जो अपनी धर्मनिरपेक्षता के लिए पहचाना जाता है. रूसी राजदूत ने तो यह भी कहा है कि एक पवित्र ग्रन्थ को लेकर अदालत में मुकदमा चलाना उचित नहीं है. उनका यह भी कहना है कि 'श्रीमद भगवत गीता ' भारत सहित पूरी दुनिया के लिए ज्ञान का स्रोत है .उसे लेकर विवाद खड़ा करना ठीक नहीं है . यह अच्छी बात है कि इस मामले में रूसी सरकार का नज़रिया भी  भारत  के पक्ष में है .
सच तो यह है कि दुनिया के सभी धर्म ग्रन्थ इंसान को इंसानियत की राह पर चलने की प्रेरणा देते हैं . हमें  सभी धर्मों  और सभी धार्मिक ग्रंथों का आदर करना चाहिए .आज भगवत गीता पर रूस में कानूनी विवाद शुरू हुआ है, कल अगर रामायण, महाभारत , बाइबल .कुरआन या अन्य किसी प्राचीन धार्मिक-सांस्कृतिक पुस्तक पर पाबंदी की मांग होने लगे और कोई सिरफिरा दुनिया की किसी अदालत में याचिका दायर कर दे , तब क्या होगा ? सोचकर दहशत होती है .         - स्वराज्य करुण 

Saturday, December 10, 2011

जरा याद करो कुर्बानी !

       स्वतंत्रता संग्राम के महान योद्धा और छत्तीसगढ़ के महान क्रांतिकारी शहीद वीर नारायण सिंह का शहीदी दिवस आज दस दिसम्बर को मनाया जाएगा. वह रायपुर जिले के सोनाखान क्षेत्र के एक ऐसे लोकप्रिय और परोपकारी ज़मींदार थे, जिन्होनें सन १८५६-५७ के भयानक अकाल के दिनों में गरीब और भूखे किसानों, मजदूरों के पेट की आग शांत करने के लिए एक साहूकार के गोदामों से अनाज निकलवाकर जनता को दिलवाया और बाकायदा अपने इस कार्य की सूचना अंग्रेज प्रशासन को भी भेजी ,जिसे उनका यह परोपकार नागवार लगा. फिरंगी प्रशासन ने उनकी गिरफ्तारी का आदेश जारी कर दिया. 
यहीं से शुरू हुआ ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ नारायण सिंह का संग्राम जो आगे चल कर देश की आज़ादी के लिए उनके संघर्ष और बलिदान  में तब्दील हो गया .अंग्रेजों की अदालत ने उन्हें मौत की सजा सुनायी इतिहासकारों के अनुसार उन्हें फांसी दी गयी . बताया जाता है कि उन्हें ब्रिटिश फ़ौज की जनरल परेड के वक्त सबके सामने फाँसी  पर लटकाया गया.वह रायपुर के (वर्तमान) जय स्तम्भ चौक पर आज ही के दिन सन १८५७ में भारत माता की आज़ादी के लिए शहीद हो गए . 
 वीर नारायण सिंह  भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में छत्तीसगढ़ के प्रथम शहीद के रूप में आज भी याद किये जाते हैं . यह भी उल्लेखनीय है कि झांसी की रानी लक्ष्मी बाई के नेतृत्व में फिरंगियों से मुक्ति के लिए भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम भी १८५७ में शुरू हुआ था. बहरहाल सोनाखान के अमर शहीद वीर नारायण सिंह को आज उनके शहादत दिवस के मौके पर विनम्र श्रद्धांजलि .
संयोगवश वीर नारायण सिंह के शहीदी दिवस पर आज ही अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार दिवस भी है, जो संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित है. मानव-अधिकारों के प्रति जन-चेतना बढाने के लिए दस दिसंबर १९४८ से हर साल दुनिया भर में मानवाधिकार दिवस मनाया जा रहा  है. भरपेट भोजन  और स्वाभिमान के साथ जीने की आज़ादी प्रत्येक मानव  के सबसे महत्वपूर्ण अधिकार  हैं, जिनके लिए छत्तीसगढ़ में वीर नारायण सिंह ने सन १८५७ में कठिन संघर्ष किया था .                                                                                    - स्वराज्य करुण
                                                                    

Tuesday, December 6, 2011

खेती को भी मिलना चाहिए उद्योग का दर्जा

 किसी भी  उद्योग के लिए पैसा ,पानी , ज़मीन , कच्चा माल और मानव श्रम की ज़रूरत होती है और खेती के लिए भी यह सब ज़रूरी होता है.फिर उद्योग और खेती में क्या अंतर है ? अगर टाटा ,अम्बानी , जिंदल , माल्या वगैरह उद्योगपति माने जाते हैं, तो हमारे देश का किसान भी उद्योगपति कहलाने का हकदार है. खेती उसका उद्योग है , जो मानव जीवन के लिए अन्य किसी भी उद्योग से ज्यादा मूल्यवान है. किसान के इस उद्योग से अन्न उपजता है ,जो हर इंसान की भूख मिटा कर दुनिया को ज़िंदा रखता है .क्या अनाज खेती के अलावा अन्य किसी कारखाने में पैदा हो सकता है ? अगर नहीं तो फिर यह मान लेना चाहिए कि दुनिया में खेती ही सबसे बड़ा उद्योग है. शुरुआत हमारे कृषि प्रधान भारत से हो और हम अपने देश में खेती को कानूनी रूप से उद्योग का दर्जा देकर दुनिया को सही रास्ता दिखाएँ . यह दुनिया भर के करोड़ों-अरबों मेहनतकश किसानों के हित में होगा .उद्योग के रूप में खेती बढ़ेगी तो दुनिया से  भुखमरी की समस्या भी खत्म हो जाएगी. खेती ही एक मात्र ऐसा उद्योग है , जिससे पर्यावरण पर कोई विपरीत असर नहीं होता . जैसे उद्योगों में मशीनों का उपयोग होता है ,उसी तरह अब तो हल और बैलों के अलावा खेती के लिए भी आधुनिक मशीनों का इस्तेमाल होने लगा है .  इसलिए भी खेती और उद्योग में अब कोई फर्क नहीं किया जा सकता .खेती को कानूनी रूप से उद्योग का दर्जा देने के साथ-साथ हमें कृषि आधारित उद्योगों को भी बढ़ावा देना होगा . अनाज और सब्जियों के प्रसंस्करण से कई प्रकार की स्वादिष्ट और पौष्टिक खाद्य वस्तुएँ तैयार होती है. खेती को उद्योग का  दर्जा मिलने पर खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों को भी बढ़ावा मिलेगा .इससे किसानों को उनकी उपज का वाजिब मूल्य मिलेगा और बेरोजगारी की समस्या भी कम होगी .आपके क्या विचार हैं ?   
                                                       ---    स्वराज्य करुण 

Sunday, December 4, 2011

नहीं किसी को लाज-शरम !

                                      
                                         नहीं किसी को लाज-शरम,नहीं किसी को भय ,
                                         सारे टी. व्ही . चैनल  लगते  आज मदिरालय !
                                      
                                         खुल कर नंगा नाचने की आज़ादी तेरी जय ,
                                         तेरी कृपा से छोटा परदा बन गया वेश्यालय !
                                      
                                         सीरियलों के नाम लगती देह-व्यापार  की मंडी,  
                                         बिग बॉस के घर से बहती गाली गंदी-गंदी !
                                      
                                         मजाक उड़ाए गरीबों का , विज्ञापन की भाषा
                                         सुबह- शाम ,दिन-रात देखो जोकर का तमाशा !
                                      
                                         भू-माफिया ,कोल-माफिया सबने खोले चैनल ,
                                         लूट रहे   धन  सरकारी , खुला खजाने का नल !
                                      
                                         यही हाल है रंग-बिरंगे पोस्टर जैसे अखबारों का ,                                     
                                         सुनते  हैं कि इनमें  लगता पैसा ठेकेदारों का  !
                                           
                                         दो नम्बर के धंधे  वाले भी हैं इनकी शरण में ,
                                         नेता-अफसर सभी बैठते केवल इनके चरण में !

                                         नहीं किसी को चिन्ता कोई बेरोजगार जवानों की ,
                                         नहीं किसी को फिकर यहाँ गरीबों के अरमानों की !

                                          देश बेचने को तत्पर  जब  अपने  देश की संसद ,
                                          विदेशी धन से कहाँ बचेगी कहो देश की सरहद !

                                                                                              -- स्वराज्य करुण
                          
                            
 

Saturday, December 3, 2011

दरिंदों के हाथों सौंपे गए परिंदे !

    दोस्तों !   आज तीन दिसम्बर को भोपाल गैस त्रासदी के सत्ताईस साल पूरे हो गए हैं .  औद्योगिक विकास का ऐसा खतरनाक जोखिम हमने उठाया ,जो विनाश में तब्दील हुआ और  जिसका जान-लेवा खामियाजा  हमारे हज़ारों बेगुनाह ,मासूम बच्चों, माताओं-बहनों और भाइयों को भुगतना पड़ा.हज़ारों लोग मौत का शिकार हो गए ,उन्हें हर साल उनकी बरसी पर अश्रुपूरित विनम्र श्रद्धांजलि देने के सिवाय हमने और किया भी क्या है ? हत्यारी यूनियन कार्बाइड कम्पनी के मालिक को लाख कोशिशों के बावजूद हम भारत नहीं ला सके वह सात समन्दर पार अमीरों के मुल्क अमेरिका में बैठा मुस्कुरा रहा होगा यह सोच कर कि इन भोले भाले भारतीयों ने हमारा क्या बिगाड़ लिया ? बहरहाल दुनिया के सबसे बड़े इस भयानक औद्योगिक हादसे से हमें सबक लेने की ज़रूरत है.
     दिल पर हाथ रख कर कहना दोस्तों , क्या हमने कोई सबक लिया है ? शायद नहीं ! अगर हम सबक लेते ,तो शायद पिछले सत्ताईस बरसों में भारत के हमारे अधिकाँश शहरों में चारों ओर ज़हरीला धुंआ उगलती दानवाकार फैक्ट्रियां क्यों खड़ी होतीं ? अगर हम सबक लेते तो आज सत्ताईस बरस बाद भी औद्योगिक प्रदूषण का राक्षस हमारे गाँवों और शहरों पर तरह-तरह के कहर क्यों बरसाता ? फैक्ट्रियों में औद्योगिक सुरक्षा को लेकर आज भी इतनी लापरवाही क्यों होती ? अगर कोई सीख हमने ली होती , तो  आज  एक या दो प्रतिशत नहीं , बल्कि  पूरे इक्यावन प्रतिशत की साझेदारी में देश का खुदरा व्यापार विदेशी निवेशकों को सौंपने का आत्मघाती और राष्ट्रघाती फैसला हम क्यों करते?   अगर  कोई सबक हमने लिया होता ,तो इंसान को प्राण वायु (ऑक्सीजन )देने वाले हरे-भरे जंगलों को उजाड़ कर और सबके  पेट की भूख मिटाने वाले अन्नदाता के खेतों को बर्बाद कर उनमें लोहे- लक्कड़ के बेजान कारखाने क्यों खड़े करते ?  क्या अपनी भारत भूमि में  ज़िंदा रहने के लिए हम भारतीयों को  चावल,गेहूं और दाल-दलहन के बदले अब लोहे के बुरादे से अपना पेट भरना होगा  ?
   बहरहाल , आओ , भोपाल गैस त्रासदी की  बरसी पर आज हम अपने इन तमाम अपराधों का पश्चाताप करते हुए अपने उन हज़ारों निरपराध दिवंगतों को एक बार फिर याद करें , जिन्हें ज़हरीले कीटनाशक बनाने वाली कम्पनी ने अपनी आपराधिक लापरवाही से  मौत के मुँह में ढकेल दिया . क्या यह सच नहीं है कि हमने अपने इन मासूम परिंदों को खूंखार दरिंदों के हाथों को सौंप दिया था ? उन नादान  भोले परिंदों की आँखों में भी  उस रात अगले दिन के लिए कई हसीन सपने रहे होंगे , जो कभी पूरे नहीं हो पाए ., क्योंकि अगला दिन उनके लिए कभी नहीं आया . यूनियन  कार्बाइड ने उनके मासूम सपनों को भी हमेशा के लिए खामोश कर दिया . आज मैं उन्हीं खामोश और बेजुबान सपनों को अपनी इन पंक्तियों के साथ याद करना चाहूँगा -
                                           चूनर की तरह कभी लगते थे जो ,
                                            देखते ही देखते कफन हुए सपने ,
                                            रात के बदहवास अँधेरे में कैद ,
                                            सूरज की रौशनी में दफन हुए सपने !
                                            मेले में छूट गए सारे हमसफर , 
                                            थम गया जिंदगी का  काफिला,
                                            साँसों के हरे-भरे पौधे भी  सूख गए , 
                                            अचानक वीरान चमन हुए सपने !
                                            आँखों ही आँखों में मीठी नींद लिए ,
                                             नयी सुबह आएगी कोई उम्मीद लिए ,                       
                                             दिल में  आस लिए हो गए खामोश , 
                                             प्रतीक्षा के  पथरीले नयन हुए सपने !
                                                                                           -   स्वराज्य करुण  
                                                                                               
(छाया चित्र : google से साभार )

Thursday, December 1, 2011

एड्स का हौव्वा : मुनाफे का खेल !

  सर्वे भवन्तुः सुखिनः ,सर्वे सन्तु निरामयः ! सभी सुखी  रहें, सभी स्वस्थ रहें ! हमारे महान भारतीय ऋषि-मुनियों ने  हमेशा वसुधैव कुटुम्बकम की भावना के साथ सबके लिए सुखी जीवन और उत्तम स्वास्थ्य की कामना की है. आज एक दिसम्बर को विश्व एड्स दिवस के मौके पर भी हमें  अपने पूर्वजों द्वारा सम्पूर्ण मानवता को दिए गए इस आशीर्वाद पर  गम्भीरता से चिन्तन करने की ज़रूरत है. दुर्भाग्य से अंगरेजी मानसिकता वालों  की बुरी संगत में पड़कर हमारे जीवन में एक विसंगति चुपचाप यह भी आ गयी है कि आज के दिन जो भी आयोजन होंगें, उनमें इस खतरनाक बीमारी के बारे में केवल एलोपैथिक डाक्टरों और एलोपैथिक दवा कंपनियों के नज़रिए से ही चर्चा होगी .सवाल यह है कि इस बीमारी को लेकर आयुर्वेदिक ,होमियोपैथिक ,यूनानी,योग और प्राकृतिक चिकित्सा  अथवा इसी तरह की दूसरी वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियों के दृष्टिकोण  से इलाज के आसान रास्तों के बारे में विचार क्यों नहीं किया जाता ? 
दरअसल यह सारा खेल उन बहुराष्ट्रीय एलोपैथिक दवा कंपनियों के सुनियोजित प्रचार / दुष्प्रचार अभियान का एक हिस्सा है, जो दुनिया के हर देश में एड्स के नाम पर हौव्वा खड़ा करके अरबों-खरबों डालर का कारोबार कर रही हैं .हर कीमत पर केवल ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा हासिल करना उनका लक्ष्य है .शायद इसीलिये भारत में भी जब कभी एड्स की बीमारी पर कोई चर्चा -परिचर्चा होती है, कोई तथाकथित जन-जागरण रैली निकलती है , तो उसमें आयुर्वेद और होमियोपैथी जैसी प्रभावी और कम खर्चीली चिकित्सा पद्धति के विशेषज्ञों को नहीं बुलाया जाता .क्योंकि अगर उन्होंने वहाँ बता दिया कि यह लाइलाज बीमारी नहीं है तो इन बहुराष्ट्रीय दवा कारोबारियों के मुनाफे का खेल बिगड़ जाएगा .आखिर हम कब तक सिर्फ एलोपैथी का दामन थामे रहेंगे ? मलेरिया,उल्टी-दस्त ,बुखार ,मधुमेह , कैंसर आदि में हम कब तक अपने गाढ़े पसीने की कमाई सिर्फ एलोपैथिक दवाओं के निर्माताओं पर कुर्बान करते रहेंगे ? एलोपैथी वाले साफ़ तौर पर कह देते हैं कि एड्स का कोई इलाज नहीं है ,जबकि उनके द्वारा इस बारे में आयुर्वेद ,होमियोपैथी या दूसरी चिकित्सा प्रणाली के विशेषज्ञों से परामर्श ही नहीं किया जाता .मुझे याद आ रहा है कुछ वर्ष पहले हिन्दी की एक प्रमुख पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट ,जिसमें फोटो सहित बताया गया था कि चेन्नई  [तमिलनाडु]की एक महिला और उसकी नन्हीं बेटी को एड्स हो गया था ,मेडिकल कॉलेज  से भी इसकी पुष्टि हो गयी थी , लेकिन  एक पारम्परिक चिकित्सक ने आयुर्वेदिक दवा से उनका  इलाज किया और उसके बाद उसी मेडिकल कॉलेज ने दोबारा उन दोनों के खून की जांच की और बताया कि अब उनमें एड्स के कोई लक्षण नहीं हैं और दोनों स्वस्थ हो गए गए हैं,लेकिन बाद में उस पारम्परिक चिकित्सक को किसी ने कोई तवज्जो नहीं दी गयी और बात आयी-गयी हो गयी . अगर एलोपैथिक डाक्टर सोचते हैं कि उनकी थैरेपी में एड्स लाइलाज है ,तो सरकार को मानवता के हित में इसके इलाज के लिए वैद्यों और  हकीमों को ,  आयुर्वेदिक  और होमियोपैथिक डाक्टरों को आगे लाना चाहिए .
 देश में काफी संख्या में इन वैकल्पिक प्रणालियों के मेडिकल कॉलेज चल रहे हैं ,जिन्हें सरकारी मान्यता भी मिली हुई है . एम्.बी.बी.एस. की तरह इनमें भी विश्वविद्यालयों से ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट की  डिग्रियां  दी जाती हैं .बी.ए .एम . एस. /  बी.एच. एम्. एस. आदि डिग्री धारक भी डाक्टर कहलाते हैं , इनका भी सरकारी पंजीयन होता है . इसके बावजूद लम्बे समय की अपनी गुलाम मानसिकता के कारण हम इन वैकल्पिक  चिकित्सा प्रणालियों को दोयम दर्जे का मानकर चलते हैं ,जबकि  इनमें भी  इलाज ,  अध्ययन और अनुसंधान की काफी गुंजाइश है ,लेकिन आज की कड़वी हकीकत यह है कि बेशरम और बेरहम बाजारवाद के आगे केवल चमकने वाली चीज ही चल सकती है ,पर यह भी सच है कि हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती !                                                                                                                                     -- स्वराज्य करुण