Tuesday, August 31, 2010

दाने -दाने से निकलती दुआएं !

     दोस्तों ! कोई मुझे बताए कि अगर हमारी जेब में सिर्फ एक या दो रूपए बाकी रह गए  हों और हमें भूख लग रही हो ,  तो महंगाई डायन के हंटर की मार से तड़फते अपने  देश में  खुले बाज़ार के किसी होटल में जाकर हम क्या कुछ खरीद सकते हैं ? एक रूपए में तो हाफ चाय भी नसीब नहीं होगी और दो रूपए में एक नग समोसा भी नहीं मिलेगा. पान खाने की इच्छा हो तो आज वह भी कहीं चार  रूपए और कहीं पांच रूपए में  मिलता है. सामान्य होटलों में समोसा और कचौरी दस रूपए प्लेट आज के समय में बहुत सामान्य बात है. परिवार या मित्र-मंडली के साथ नाश्ता  करने किसी साधारण होटल में भी जाएँ ,तो वहां सत्तर-अस्सी रूपए खर्च हो जाना आज मामूली बात है , यह मै  इसलिए कह रहा हूँ कि जितने रूपए हम जैसे औसत दर्जे के  खाते -पीते कुछ शौकीन लोग बाज़ार में चाय -नाश्ते पर खर्च कर देते हैं, उतने में  तो छत्तीसगढ़ का एक गरीब परिवार अपने लिए आसानी से  महीने भर के अनाज का जुगाड़ कर लेता है.  यह मुमकिन हुआ है -प्रदेश के मुख्यमंत्री  डॉ. रमन सिंह की एक ऐसी योजना से , जिसने देश भर में धूम मचा कर देश के सभी राज्यों का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है .
          यह कोई मुंहदेखी बात नहीं,  दिल की बात है कि  सिर्फ छत्तीसगढ़ के सौम्य स्वभाव के मुख्यमंत्री डॉ. रमन  सिंह ही  जमीन से जुड़े अपने सहज- सरल चिंतन के साथ बड़ी सहजता ,लेकिन  दमदारी से देश के उन तमाम शासकों को यह सन्देश दे सकते हैं कि जिस राज्य का मेहनतकश  मजदूर सबसे ज्यादा सुखी होगा , उस राज्य की सरकार भी समझो सबसे ज्यादा कामयाब होगी. गाँव की माटी में जन्मे,  रचे -बसे और पले-बढ़े डॉ रमन सिंह छत्तीसगढ़ के छत्तीस लाख गरीब परिवारों को मुफ्त नमक और केवल एक रूपए और दो रूपए किलो में हर माह पैंतीस किलो अनाज देने की योजना चलाकर राज्य के मेहनतकशों का दिल जीत चुके हैं. इस योजना में गरीबों में भी सबसे गरीब याने कि 'अन्त्योदय' श्रेणी के सात लाख परिवारों को महज एक रूपए किलो में ३५ किलो अनाज दिया जा रहा हैऔर  बाकी २९ लाख गरीब परिवारों को   केवल दो रूपए में. अगर इन सभी छत्तीस लाख में से  हर  परिवार में औसत चार  सदस्य भी मान लें ,तो इस वक़्त मोटे तौर पर दो करोड़ ,दस लाख की जनसंख्या वाले इस राज्य में एक करोड़  से ज्यादा आबादी को इस योजना का फ़ायदा मिल रहा है ,  जिनमे ज्यादातर लोग मज़दूर तबके के हैं . महात्मा गांधी ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के निर्माण कार्यों में इन दिनों हर मज़दूर को रोजाना एक सौ रूपए की मज़दूरी तो  मिल  ही रही है.सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के दूसरे निर्माण कार्यों में भी आज के हिसाब से मजदूरी की दर इसके आस-पास है,  या फिर इससे कुछ ज्यादा . ऐसे में अगर किसी परिवार में पति-पत्नी दोनों किसी काम में  लगें  हों  , तो  उनमे  से  किसी  एक  व्यक्ति   की  एक  दिन  की  मजदूरी  से  भी  कम   राशि  में  पूरे  परिवार  के  लिए  महीने  भर  के  अनाज   का  बंदोबस्त  हो  सकता  है. फिर  छत्तीसगढ़  के  गावों  में  मजदूर  सबसे ज्यादा  सुखी  नहीं  होगा , तो  और  कौन  होगा  ?
      गरीबी-रेखा अर्थात बी. पी. एल. श्रेणी के इन परिवारों के लिए बेहद  सस्ते अनाज की यह योजना गाँवों के साथ-साथ शहरी क्षेत्रों में भी बेहतर ढंग से चल रही है  लेकिन  डॉ रमन सिंह   की  इस  योजना  ने  उन  लोगों  को ज़रूर  दुखी   कर  दिया  है , जिनकी  पूरी  ज़िन्दगी पीढ़ी-दर -पीढ़ी  दूसरों  की मेहनत  पर कायम रहती आयी है.हालांकि उनकी संख्या ज्यादा नहीं है .ऐसे लोग  शिकायत करते सुने जाते हैं कि अब उन्हें घर के काम के लिए नौकर नहीं मिल रहे हैं .डॉ .रमन सिंह ने इस प्रकार के लोगों को हाल ही में ज़ोरदार जवाब दिया है कि मजदूर केवल घरेलू नौकर बनने और दूसरों के घरों में झाडू-पोंछा करने के लिए पैदा नहीं हुए हैं. उन्हें भी स्वाभिमान से जीने का अधिकार है. डॉ . रमन सिंह के अनुसार यह अजीब मध्यवर्गीय मानसिकता है कि कुछ लोग अपने घरों में दस-दस नौकर रखना चाहते हैं .लेकिन ज़माना बदल रहा है . ऐसे लोग अगर मुझसे कहते हैं कि रमन! तुम्हारे राज्य में मजदूर सबसे ज्यादा सुखी है ,तो मुझे लगता है कि मेरा काम सार्थक हो गया.  
          ऐसी बात भी नहीं है कि राज्य के मुखिया को समाज के दूसरे तबकों का ख्याल नहीं है . उन्होंने निम्न-मध्यम वर्ग के उन बीस लाख परिवारों के दर्द को भी महसूस किया है ,जो  गरीबी -रेखा से ऊपर तो हैं ,लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर तेजी से बढ़ती महंगाई की मार से कराह रहे हैं. राज्य की उचित मूल्य दुकानों से  ए .पी. एल. श्रेणी के ऐसे राशन कार्ड धारकों को तेरह रूपए किलो में चावल और दस रूपए किलो में गेहूं दिया जा रहा है, जो वास्तव में आज के खुले बाज़ार भाव के मुकाबले काफी सस्ता है.छत्तीसगढ़ में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत सहकारी समितियों के ज़रिए दस हज़ार से ज्यादा उचित मूल्य दुकानों से आज गरीबी रेखा के नीचे और गरीबी रेखा के ऊपर के करीब छप्पन लाख राशन कार्ड धारक  परिवारों को सस्ता अनाज मिल रहा है. राज्य सरकार इन दुकानों के ज़रिए हर महीने सवा लाख मीटरिक टन से भी कुछ ज्यादा अनाज  छप्पन लाख घरों तक पहुंचा रही है. इसमें से एक लाख मीटरिक टन चावल गरीबी रेखा याने कि बी.पी.एल. श्रेणी के छत्तीस लाख परिवारों को महज एक और दो रूपए किलो में दिया जा रहा है . इस बेहद किफायती दर पर मिलने वाले पैंतीस किलो अनाज में उन्हें पांच किलो गेहूं लेने का भी विकल्प दिया गया है . इन बी. पी.एल. परिवारों को राज्य सरकार हर माह करीब साढ़े सात हज़ार मीटरिक टन आयोडीन-नमक प्रति परिवार दो किलो के हिसाब से  बिल्कुल मुफ्त दे रही है. प्रदेश सरकार की संस्था छत्तीसगढ़ राज्य नागरिक आपूर्ति निगम द्वारा दस हज़ार से ज्यादा उचित मूल्य दुकानों को आवंटन के अनुसार राशन सामग्री  हर महीने विशेष वाहनों के ज़रिए उनके दरवाजे तक पहुंचाई जा रही है, ताकि वह सभी छप्पन लाख घरों तक सही वक़्त पर पहुँच सके . यह निगम की 'द्वार प्रदाय 'योजना है . इसके अलावा प्रत्येक उचित मूल्य दुकान में हर माह की सात तारीख को 'चावल-उत्सव ' भी मनाया जाता है ,जहां उस दुकान के सभी राशन कार्ड धारकों अपनी सुविधा से राशन उठाने का मौका मिलता है. उन्हें यह भी मालूम हो जाता है कि सरकार ने उनके लिए इस दुकान को कितना राशन भेजा है ?  वहां सबके सामने इसका वितरण होता है. पारदर्शिता के लिहाज से भी यह 'चावल-उत्सव ' बड़े कमाल का है . वैसे तो छत्तीसगढ़ की सार्वजानिक वितरण प्रणाली ही सचमुच कमाल की है , जिसे देखने देश की कई राज्य सरकारें अपने मंत्रियों और अधिकारियों को अध्ययन दौरे पर यहाँ भेज  चुकी हैं .भारत सरकार के योजना आयोग ने इसे अन्य राज्यों में भी एक  आदर्श प्रणाली के रूप में अपनाने की सलाह दी है .
            सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को संभालने में शुरुआती दौर में रमन सरकार को कुछ दिक्कतें ज़रूर आयीं ,पर सूचना-प्रोद्योगिकी के आधुनिक औजारों के  इस्तेमाल से  इस प्रणाली को पारदर्शी बना कर  तमाम दिक्कतें दूर कर ली गयीं. आज इस राज्य के सभी राशनकार्ड धारकों के नाम , उनकी राशन दुकानों के नाम, किस दुकान को किस महीने में कितना राशन सरकार ने जारी किया , किस कार्ड धारक ने कितना राशन उठाया , ऐसी तमाम सूचनाएं खाद्य विभाग की वेब-साईट पर दुनिया के किसी भी कोने से कोई भी, कभी भी देख सकता है . निः शुल्क  कॉल सेंटर की व्यवस्था की गयी है , जहां कोई भी कार्ड धारक राशन -वितरण को लेकर यदि कोई शिकायत हो ,तो कहीं  से भी फोन पर नोट करवा सकता है. ऐसी चाक-चौबंद व्यवस्था के चलते शिकायतें लगातार कम होती चली गयी हैं और आम जनता तक राशन  बड़े सलीके से पहुँच रहा है. फिर एक रूपए , दो रूपए , दस रूपए और  तेरह रूपए किलो वाले उस सस्ते अनाज का तो कहना ही क्या, जिसके  हर एक दाने से निकलती  गरीबों के दिल की दुआएं डॉ. रमन सिंह और उनकी सरकार तक  पहुँच रही हैं . 
          आज ' दिल्ली दरबार'  की कृपा से देश में डीजल-पेट्रोल, शक्कर और  तेल सहित आम जनता की  घरेलू ज़िंदगी के लिए ज़रूरी हर चीज की कीमत आसमान छू रही है. ऐसे कठिन दौर में छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह ने अपनी सरकार के कुशल-प्रबंधन से    जन-सामान्य  के लिए सस्ते अनाज का तगड़ा बंदोबस्त कर, सचमुच उसे महंगाई के चक्रवात में संभलने का एक बहुत बड़ा सहारा दिया है .
                                                                                                                            -स्वराज्य करुण
    

Saturday, August 28, 2010

बताना चाहूंगा सिर्फ तुम्हें चुपके से !

जाने क्यों वह आज भी मुझे अपनी ओर खींचता  है ?
मैं भी  न जाने क्यों खिंचा चला जाता हूँ ?
ऐसा क्या है उसके पास मेरे लिए ?
बताना चाहूंगा सिर्फ तुम्हें चुपके से !
लेकिन शर्त केवल इतनी है कि                                           
बताना मत किसी को भी ,
वरना लग जाएगी उस पर किसी की बुरी नज़र !
ऐ दोस्त ! क्या कुछ नहीं है उसके पास
जो मुझे अपनी ओर खींच न सके ?
गहरे नीले आसमान की  साफ़-सुथरी छत
हरी घास पर फ़ैली सुनहरी धूप की मखमली चादर,  
आम,  पीपल , नीम और बरगद की छाँव
जहां घूमते बच्चे -बूढ़े बेफिक्र खाली पांव !
थोड़ी ही दूर पर तेंदू , चार- चिरौंजी और सागौन
का जंगल,
आँगन तक आ जाते हिरण और बन्दर ,
जहां स्याह रातों में आकाश की खुली छत पर
हरियर दमकते सितारों का जमघट और 
पगडंडियों पर जुगनुओं का मेला !
भला कौन वहां  मुझे कहेगा  अकेला ?
रूपहली चांदनी रात में  बचपन के दोस्तों के साथ
तालाब के शांत पानी में  चन्द्रमा को निहारने
का सुख दुनिया में और कहाँ ?,
जहां खेतों से खलिहानों तक, 
नदियों , पर्वत ,मैदानों तक
सुआ-ददरिया , करमा जैसे लोक-गीतों की महक ,
जहां घरों की छानी में लौकी और
कुम्हड़े के फूलों के बीच नन्हीं चिड़ियों की चहक,
भोले चेहरों की निष्कपट मुस्कान,
अभावों में भी जहां दिखे ज़िंदगी की शान !
धूल- भरी वह  धरती
जहां  दबी है नाल मेरी ,
ऐ दोस्त ! वही तो है मेरी ज़िन्दगी का
सबसे कीमती खजाना ,
तुम्हें इस माटी की कसम ! किसी से भी मत कहना,
किसी को भी मत बताना ,
वरना लग जाएगी भू-माफियाओं की ,
शहरी दरिंदों की  बुरी निगाह
मेरे सुंदर -सलोने गाँव पर
हरे-भरे वृक्षों की शांत-शीतल छाँव पर !
                                       स्वराज्य करुण

Wednesday, August 25, 2010

भक्तों की भीड़ में बेचारे भगवान !

      दोस्तों ! सड़कों के किनारे भगवानों की पूजा -अर्चना के लिए भारी  -भरकम पंडाल सजाने और पूजा के बहाने अपनी-अपनी    मनमानी करने वालों का मौसम फिर आ रहा है. धर्म-संस्कृति के नाम पर ढोल-ढमाकों के साथ  धींगा-मस्ती के लिए रास्ता  रोकने वालों की   भीड़ एक बार फिर आपको और मुझे भी दफ्तर देर से पहुँचने और शाम को घर  देर से लौटने के लिए मजबूर करने वाली है .इनके जलसों -जुलूसों में फंस कर कोई बीमार आदमी, या फिर प्रसव वेदना से तड़फती कोई बहु-बेटी अस्पताल पहुँचने  से पहले ही  दम तोड़ दे , इससे भगवान के इन ढोंगी भक्तों को क्या लेना-देना ? भगवानों  से ज्यादा  तो आज हर कहीं  ऐसे ही भक्तों की भीड़ नज़र आती है, जिन्हें देख कर भगवान भी अपना माथा पीट लें कि आखिर कौन -से मुहूर्त में ,किस माटी से उन्होंने हाड़-मांस के ऐसे पुतले तैयार  किए थे ? ऐसे भक्तों की भीड़ में फंस कर  भगवान भी आज-कल खुद को बेचारा और असहाय महसूस कर असमंजस में पाते हैं !  सड़क घेर कर मंडप सजाना जिनका  जन्म-सिध्द अधिकार है, बीच सड़क पर हवन-पूजन के लिए बैठना और भक्तों की भीड़ को बैठाना  जिनका  शौक और शगल है,
                आम-रास्ते पर भगवान का भोग और पूजा का प्रसाद बांटने के नाम पर दोना-पत्तल और पौलीथीन के कूड़े-कचरे की    चादर  बिछा देना जिनका  अपना बनाया हुआ एक नया धर्म है,. लाउड-स्पीकरों के तेजाबी शोर-शराबे से लोगों के कान के परदे फाड़ डालना जिनकी संस्कृति है ,  अवैध कब्जा करने के लिए सडकों के किनारे देवी-देवताओं की सिन्दूर लगी मूर्तियाँ  बैठा कर पूजा-भवन  बनवाना जिनके  नैतिक संस्कार हैं, ऐसे महापुरुषों (?) के देश में हम जैसे कापुरुषों का क्या काम ?  राहगीरों और मुसाफिरों को होने वाली तकलीफ जिनका हौसला बढाती है, जिससे उनके बेरहम दिलों में  भक्ति -भावना का ज्वार उमड़ता है, ऐसे  महानुभावों की  महिमा का बखान करने के लिए इस वक्त मेरे पास और कोई शब्द नहीं हैं. एक-दो अच्छे -भले शब्द ज़रूर थे  ,लेकिन इसके पहले कि वे मेरी ज़ुबान  से निकलें,  दिल की संसद के माननीय  अध्यक्ष महोदय ने उन्हें  असंसदीय मान कर सदन की कार्रवाई से विलोपित कर दिया. क्या इन महान भक्तों की शान में लिखने या कहने के लिए आपके शब्द-सागर में कुछ मोती हैं ? यदि हों ,तो कृपा करके बिखेर दीजिए उनके श्रीचरणों में !                                                                                                                                                                                                                                  स्वराज्य करुण         

Tuesday, August 24, 2010

जो कष्ट से मरे वह कस्टमर !

अंग्रेज़ी के कस्टमर (customer) शब्द का  अगर हम हिन्दी वाले ज़रा तोड़- फोड़ कर  अर्थ निकालें , तो  आज के समय में सौ करोड़ से भी ज्यादा आबादी वाले हमारे देश की आम जनता पर वह बिल्कुल फिट बैठता दिखेगा . अंग्रेज़ी में 'कस्टमर ' शब्द  का आशय होता है -ग्राहक और हिन्दी में अगर इस शब्द  पर आज के माहौल में विचार करें , तो हमें लगेगा कि अंग्रेजों की डिक्शनरी में यह शब्द काफी सोच-समझ कर डाला गया है. मेरे ख्याल से  ' कस्टमर ' वह जो कष्ट से मरे. महंगाई  डायन की दहशत और  बढ़ती कीमतों के हंटर से  बेचारा गरीब ग्राहक,  देखिए ! कैसे  कष्ट से मरा जा रहा है !  दाल, चावल , गेहूं  ,शक्कर . डीजल , पेट्रोल से लेकर इंसान को ज़िंदा रखने वाली दवाईयां भी   ' महंगाई  डायन ' की भेंट चढ़ रही है. जिन महाप्रभुओं पर ' महंगाई डायन ' को रोकने की जवाबदारी है, वे तो अपनी मासिक  तनख्वाह डेढ़ लाख रूपए तक पहुंचा कर अपने लिए हर प्रकार की  सुख -सुविधा का बेहतर बंदोबस्त करते जा रहे हैं ,जबकि आम जनता के लिए  रोटी ,कपड़ा और मकान ,सबकी कीमतें सातवें आसमान पर हैं .  ऐसे में कस्टमर याने कि बेचारा  ग्राहक , मेरा मतलब हम और आप किसी दुकान  की सीढी पर कष्ट से मरकर  अंग्रेज़ी के 'कस्टमर'  शब्द को सार्थक न बनाएं तो क्या करें  ?  हमें   'कस्टमर ' शब्द का आविष्कार करने वाले को और उसे अंग्रेज़ी के शब्दकोष में डालने वाले को धन्यवाद  देना चाहिए, जिन्होंने हम जैसे खस्ताहाल ग्राहकों  को  यह शब्द 'उपाधि ' के तौर पर उपहार में दिया.  आप कुछ कहना चाहेगें / चाहेंगी ?
                                                                                                                                       स्वराज्य करुण
                                                                                                                    

Sunday, August 22, 2010

एक चौंकाने वाली खबर

 छोटे परदे की चकाचौंध से चकित कुछ लोगों के लिए यह एक चौंकाने वाली खबर हो सकती है कि दर्शकों को श्रोताओं में बदलने के लिए रेडियो फिर आ धमका है . दूरदर्शन के सादगीपूर्ण ,लेकिन संवेदनशील कार्यक्रमों से परे अधिकांश टेलीविजन चैनलों  के चमकदार परदों  पर नज़र आने वाले   धन -पशुओं के महलनुमा घरों के अंतहीन पारिवारिक झगड़ों पर आधारित सास-बहु के सीरियल अब  खोटे सिक्के की तरह चलन से बाहर होने लगे हैं. यह अलग बात है कि कुछ  'फुरसतिहा' किस्म की ननद -भाभियाँ आज भी उन्हें देखने का समय निकाल लेती हैं. तरह -तरह के हादसों और हंगामों की  दिल दहला देने वाली खबरों की पट्टियों के ऊपर बेहूदे चुटकुलों पर राक्षसों की तरह ठहाके मारते हैवानियत से रंगे इंसानी चेहरे अब दर्शकों को बिल्कुल ही  नहीं सुहाते.जहाँ  फ़िल्मी हीरो-हीरोइनों और क्रिकेट खिलाड़ियों के शादी -ब्याह के चमकीले विज्ञापनों को  ब्रेकिंग न्यूज़ के नाम से परोसा जा रहा हो,  जहाँ देश के मेहनतकश किसानों , मज़दूरों और  छात्र-छात्राओं के कार्यक्रमों के लिए  ज़रा -सी भी जगह  न हो , किसी फैशन -शो में बिल्ली -चाल ,माफ़ कीजिए, कैट वाक करती किसी मॉडल की देह से कपड़े का गिर जाना जिनके लिए सबसे बड़ी खबर हो और घंटों उसी एक खबर का लगातार प्रदर्शन होता रहे ,तो ऐसे छोटे परदे को  अब परदे के पीछे ही  रहने दिया जाए. इसी में सब की भलाई है . दोस्तों ! यह मेरे अकेले की नहीं , बहुतों के'दिल की बात' है . आप अपने दिल से कहें कि वह ज़रा अपने आस -पास देखे और सोच कर  बताए कि ज्यादा नहीं सिर्फ पांच साल पहले के मुकाबले आज कितने लोग छोटे परदे को टकटकी लगाए देखते हैं ?  अब वह दौर चला गया जब भारत और दूसरे देशों के बीच होने वाले क्रिकेट मैच का आँखों देखा हाल देखने के लिए छोटे परदे के सामने घंटों  दर्शकों की भीड़ लगी रहती थी . क्रिकेट मैच तो अब भी होते हैं ,लेकिन  दो देशों के बीच नहीं बल्कि  किन्हीं दो कम्पनियों के बीच , और हमारे खिलाड़ी अपने वतन के लिए नहीं बल्कि  अरबों-खरबों रूपयों के स्वामी   शराब ठेकेदारों और फ़िल्मी कलाकारों के  किराए  के घोड़ों की तरह अपने -अपने मालिकों के लिए खेला करते हैं. ऐसे किराए के  क्रिकेट मैचों का आँखों देखा हाल भला कौन दर्शक देखना चाहेगा ? इसलिए छोटे परदे को उसके अपने हाल पर छोड़ देने वालों की तादाद बढ़ रही है .देखने वाले अब सुनने वालों में बदल रहे हैं .
                                                          घर वापसी का स्वागत  
          रेडियो फिर हमारी ज़िंदगी में सफ़र का साथी बनकर आ रहा है . वैसे वह कहीं  ज्यादा दूर तक गया भी नहीं था, सिर्फ आधुनिकता के शोरगुल भरे  शहरीकरण के मेले में कुछ समय के लिए  कहीं गुम हो  गया था  और  हम जैसे कुछ शहरी लोग टेलीविजन की नकली रंगीनियों में खो कर उसे भूल गए थे . लेकिन दुनिया बहुत बड़ी है , जहाँ रेडियो सुनने वालों का भी अपना एक बहुत बड़ा समाज है . खेतों की मेड़ पर किसी पेड़ की छाँव में रेडियो आज भी अपने मधुर गीत-संगीत से किसानों और श्रमिकों  की थकान दूर करता है , पान की दुकान और चाय के ठेले पर आने -जाने वालों को दुनिया -जहान का हाल-चाल सुनाता है .  यह और  बात है कि कुँए के भीतर रहने वालो के एक सिमटे हुए समाज  को रेडियो -श्रोताओं का इतना बड़ा समाज  नज़र नहीं आ सकता.  बहरहाल रेडियो सुनने वालों के इस  विशाल समाज ने जब भारतीय राज्य   छत्तीसगढ़ की  राजधानी रायपुर  में बीस अगस्त को 'श्रोता दिवस'  के रूप में एक दिन के अपने राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया तो एक बार फिर सब तरफ यह सन्देश  चला गया कि दिल की बात सुनने और महसूस करने वालों के लिए  रेडियो से अच्छा साथी आज की भाग-दौड़ से भरी दुनिया में शायद और कोई नहीं हो सकता. सम्मेलन  में बताया गया कि भारत में पहला रेडियो प्रसारण बीस अगस्त १९२१ को मुंबई में अंग्रेज़ी अखबार टाईम्स ऑफ इंडिया द्वारा डाक-तार विभाग के सहयोग से किया गया था , जब मुंबई के एक संगीत कार्यक्रम को तत्कालीन गवर्नर सर जार्ज लाईड के आग्रह पर वहां से करीब पौने दो सौ किलोमीटर दूर पुणे में प्रसारित करने की व्यवस्था की गयी .

                             मनोहर महाजन रचित  'यादें रेडियो सिलोन की' पुस्तक का विमोचन 
 
           देश के प्रथम रेडियो प्रसारण के इस ऐतिहासिक दिन को यादगार बनाने के लिए रेडियो और राजनीति के दीवाने श्री  अशोक बजाज की अगुवाई में छत्तीसगढ़ रेडियो श्रोता संघ और ओल्ड लिस्नर्स ग्रुप ऑफ इंडिया ने लगातार दूसरे साल यहाँ श्रोता दिवस का एक शानदार आयोजन   किया ,जिसकी तैयारी में वे अपनी श्रोता -बिरादरी के साथ पिछले कई महीनों से भिड़े हुए थे . उन्होंने इसमें छत्तीसगढ़ ,मध्यप्रदेश ,झारखंड ,उड़ीसा ,बिहार , आसाम , पश्चिम बंगाल , गुजरात,  और  राजस्थान सहित देश के कई राज्यों के श्रोताओं को दावतनामा भेज कर रायपुर बुलाया और सहज -सरल छत्तीसगढ़िया परम्परा के अनुरूप बिना किसी ताम-झाम के श्रोता बिरादरी ने मिल -बैठ कर रेडियो के पुराने दिनों से लेकर आज तक जारी सफ़र की यादों और अनुभवों को 'शेयर' करते हुए देश और दुनिया में इस 'बेतार के बेताज बादशाह '  की  सल्तनत को लोगों के दिलों में हमेशा कायम रखने की कसमें खायी .
                                          मनोहर महाजन : आवाज़ की दुनिया के अनदिखे सितारे
                  सम्मेलन  के मंच पर उस वक़्त चार चाँद लग गए ,जब किसी जमाने में रेडियो सिलोन के हिन्दी प्रसारणों  में अपनी जानदार सम्मोहक  आवाज़  से  करोड़ो   लोगों के दिलों पर राज कर चुके , आवाज़ की दुनिया के अनदिखे सितारे  श्री मनोहर महाजन , सुश्री विजय लक्ष्मी डिसेरम  और श्री  रिपुसूदन कुमार इलाहाबादी  जैसे लोकप्रिय  उदघोषकों ने एक पूरा दिन  श्रोताओं के साथ बिताया. आकाशवाणी के रायपुर, अम्बिकापुर और ग्वालियर  केन्द्रों के  उदघोषक भी वहां आए हुए थे. आम तौर पर  रेडियो श्रोताओं और उदघोषकों के बीच सिर्फ चिठ्ठी -पत्री और आज के समय में 'फोन-इन'  वाला  रिश्ता होता है , जिसमें एक -दूजे का चेहरा देखने का सवाल ही नहीं उठता , लेकिन  रेडियो की दुनिया में उदघोषकों और श्रोताओं के बीच एकदम घरेलू माहौल में आमने-सामने परस्पर संवाद का वास्तव में यह एक अनोखा कार्यक्रम था , जहाँ उम्र के साठ जमा सात वसंत पार कर चुके सदाबहार आवाज़ के धनी श्री  मनोहर महाजन की पुस्तक 'यादें रेडियो सिलोन की '  एक धरोहर के रूप में  सबके सामने आयी. साढ़े तीन सौ पन्नों की इस किताब का विमोचन करते हुए छत्तीसगढ़  के पर्यटन और संस्कृति मंत्री श्री  बृजमोहन अग्रवाल ने साफ़ शब्दों में कहा कि विज्ञापनों की भरमार वाले टेलीविजन कार्यक्रमों से  बोर होकर लोग अब तत्काल चैनल बदलने लगते हैं .  हालात कुछ ऐसे  बन रहे हैं कि आने वाले समय में टेलीविजन को रेडियो पीछे छोड़ देगा. उन्होंने  श्री मनोहर महाजन की इस पुस्तक के प्रकाशन पर खुशी ज़ाहिर करते हुए रेडियो के सुनहरे दिनों को याद किया और श्रोताओं को यह भी याद दिलाया कि रेडियो सिलोन , विविध भारती और ऑल इंडिया रेडियो में फ़िल्मी गानों की फरमाइश भेजने वाले श्रोताओं ने कैसे भारत के झुमरी तलैय्या और भाटापारा जैसे  छोटे कस्बों और  शहरों  को दुनिया भर में मशहूर कर दिया था . संस्कृति मंत्री का यह भी कहना था कि भारत में आज भी पचहत्तर फीसदी आबादी तक रेडियो की आसान पहुँच है ,जिसे चलते -फिरते भी आसानी से सुना  जा सकता है जबकि यह सुविधा टेलीविजन में नहीं है .  रेडियो  ज्ञान-विज्ञान ,सूचना और शिक्षा का एक सस्ता लेकिन सबसे ताकतवर माध्यम है . श्री अग्रवाल नेओल्ड लिस्नर्स ग्रुप रामगढ़ (झारखंड )की तिमाही पत्रिका 'लिस्नर्स बुलेटिन ' का भी विमोचन किया . कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए  श्री अशोक बजाज ने कहा कि आज टेलीविजन के ज्यादातर कार्यक्रमों में बढ़ती फूहड़ता के कारण घर -परिवार के लोग उन्हें देखना बंद कर रहे हैं  जबकि रेडियो की महत्ता और उपयोगिता आज भी कायम है . रेडियो एक ऐसी चीज है जो हमें राज्य ,देश ,जाति ,धर्म और भाषा की सीमाओं को लांघ  कर आपस में जोड़ती है . रेडियो सेट को सम्हालना आसान है , अब तो पेन और मोबाइल फोन पर भी रेडियो सुना जा सकता है . सम्मेलन के विशेष अतिथि श्री  मनोहर महाजन ने कहा कि मैंने अपने रेडियो कार्यक्रमों में  हमेशा राष्ट्रभाषा हिन्दी की प्रतिष्ठा को कायम रखने का प्रयास किया. उनका यह भी कहना था कि उदघोषक और श्रोता दोनों एक -दूसरे के पूरक हैं.श्री मनोहर महाजन ने पैंतीस साल पहले की अपनी प्रथम छत्तीसगढ़ यात्रा के रोचक प्रसंगों को भी याद किया .  रेडियो सिलोन की पूर्व उदघोषिका सुश्री विजयलक्ष्मी डिसेरम ने पुरानी यादें ताज़ा करते हुए कहा कि  श्रीलंका के इस रेडियो  स्टेशन में   अपने कार्यकाल में मैंने खुद को उदघोषक से पहले एक श्रोता माना .  श्री मनोहर महाजन और मैंने अपना प्रसारण करिअर तक़रीबन एक साथ पूरा किया . वे करीब सात साल की प्रसारण  सेवा के बाद १९७४ में मुंबई चले गए और मै वायस ऑफ अमेरिका की हिन्दी सेवा में पहुँच गयी . रेडियो सिलोन को याद करते हुए  सुश्री विजयलक्ष्मी डिसेरम  ने कहा कि वह हमारे लिए गुजरा वक़्त  या गुज़री यादें नहीं  बल्कि हमारे खून और हमारी सांसों में बसी ऑक्सीजन है ,जो हमें ज़िंदा रखे हुए है .रेडियो श्रोताओं के इस अनूठे सम्मेलन में बड़ोदा (गुजरात) से  इक्यासी साल के  श्री मधुकर व्यास भी आए थे ,जो पिछले पचपन साल से रेडियो के  नियमित श्रोता हैं . मंच पर उन्होंने भी अपनी भावनाएं प्रकट की .सम्मेलन की एक ख़ास बात यह भी रही कि इसमें रेडियो सिलोन के हिन्दी प्रसारण की बेहद  सीमित हो चुकी समय -सीमा को बढ़वाने के लिए सबने मिलकर पहल करने का इरादा ज़ाहिर किया. इसके अलावा छत्तीसगढ़ की प्रसिद्ध लोक -गायिका (भरथरी कलाकार) श्रीमती सुरूजबाई खांडे को आयोजकों ने 'कला -साधना ' सम्मान और  श्री मनोहर महाजन तथा  वहां आए   सभी जाने -माने उदघोषकों को 'रेडियो -रत्न'  अलंकरण से सम्मानित किया. कुछ गरीब परिवारों के प्रतिभावान बच्चों को भी सम्मानित किया गया . पुराने ज़माने के रेडियो सेट और छत्तीसगढ़ के लोक जीवन के अनेक दुर्लभ संगीत-उपकरणों की प्रदर्शनी भी  सम्मेलन में लोगों का ध्यान खींच रही थी .
                                                 भरथरी गायिका सुरूजबाई खांडे का सम्मान
         किस्सा यह  कि  इस अखिल भारतीय सम्मेलन में आने पर ही यह मालूम हुआ कि रेडियो -श्रोताओं और उदघोषकों    का   सामाजिक -सांस्कृतिक नेटवर्क कितना विशाल है.,जहां कोई राग-द्वेष नहीं ,सिर्फ अनुराग ही अनुराग है और  जहां आधुनिक दुनिया के सबसे पुराने इस प्रसारण माध्यम ने उन्हें कितनी मजबूती से आपस में जोड़ रखा है .  छत्तीसगढ़ रेडियो श्रोता संघ वाले तो समय-समय पर अपना बुलेटिन निकालते ही हैं ,   यहाँ रायपुर जिले के एक छोटे से गाँव पहन्दा (पोस्ट -बलौदाबाजार ) में 'अहिंसा रेडियो श्रोता संघ ' पिछले दस वर्षों से श्रोताओं की संगठन शक्ति को बढ़ाने में लगा हुआ है .इसकी अपनी वार्षिक पत्रिका है 'डी एक्स -अंजलि' , जिसका जून २००९ का अंक आकाशवाणी रायपुर पर केन्द्रित  विशेषांक  के रूप में प्रकाशित हुआ है .  . श्री  अशोक बजाज इस रेडियो श्रोता संघ के भी संरक्षक हैं . लगभग एक साल  पहले तक वे रायपुर जिला पंचायत के अध्यक्ष थे ,तब भी गाँवों के विकास के लिए नशामुक्ति और शिक्षा के प्रसार सहित पंचायत राज के कामों में भारी व्यस्तता के बीच रेडियो श्रोता संघों को भी अपना समय और सहयोग देते रहते थे . यह सिलसिला आज भी जारी है.  भारत के प्रथम रेडियो प्रसारण की बीस अगस्त १९२१ की ऐतिहासिक तारीख  को यादगार बनाने के लिए 'श्रोता-दिवस ' आयोजित करने की परम्परा  पिछले साल से छत्तीसगढ़ में शुरू करने में उनकी सक्रिय भूमिका है ,जिसकी  सभी तारीफ करते हैं. अशोक जी खुद भी रेडियो के पुराने  शौकीन और सजग श्रोता हैं .  टेलीविजन की चकाचौंध भरी मायावी दुनिया को  चुनौती देकर रेडियो की धमाकेदार वापसी के पीछे उनके जैसे  छत्तीसगढ़ समेत देश भर के रेडियो श्रोताओं और श्रोता संघों के योगदान को भला कौन नकार सकता है ?                                                -                                                                                                                              --    स्वराज्य करुण
                                                                                                             
                                                                                  

Friday, August 20, 2010

घोर कलि युग में किस पर करें भरोसा ?

आज की दुनिया में भोले -भाले लोग आखिर किस पर भरोसा करें ? जम्बू द्वीप के भारत वर्ष  में यह लगभग आठ साल पहले की बात है. वहां के एक राज्य में हायर सेकेंडरी बोर्ड की बारहवीं की परीक्षा पास करने के बाद आँखों में डॉक्टर बनने का सपना लेकर किशोर वय के  सैकड़ों  बच्चों ने अखबारों में  प्रकाशित एक  सरकारी विज्ञापन पढ़ कर आवेदन किया और  होम्योपैथी कालेजों में अपने दाखिले के लिए सरकारी बुलावा पत्र आने पर  काफी उत्साह से काउंसिलिंग में हिस्सा लिया.  उस  राज्य में कुल जमा  तीन सरकारी मान्यता प्राप्त  होम्योपैथी मेडिकल कॉलेज हैं और तीनों निजी संस्थाओं द्वारा संचालित हैं, जिन्हें राज्य के सरकारी विश्वविद्यालयों  से भी मान्यता और सम्बद्धता मिली हुई है .
                किसी भी देश अथवा  राज्य में डॉक्टरों की संख्या बढाने के लिए सरकारों  की भी यह कोशिश रहती है कि मेडिकल शिक्षा के लिए एलोपैथी  , आयुर्वेद और होम्योपैथी समेत इलाज की हर विधा के  नए -नए कॉलेज खुलें, ताकि वहां से डॉक्टर बनकर निकलने वाले युवा अपने राज्य की जनता की सेवा कर सकें.इसके अलावा दूर -दराज़ के गाँवों में डॉक्टरों की कमी दूर करने का प्रयास भी सरकारें करती रहती हैं . इसलिए अगर कोई निजी संस्था मेडिकल कॉलेज खोलना चाहे तो  इसके  लिए  सरकारें  नियमों के तहत उसे  अनुमति भी देती है . डॉक्टर बनने की चाहत रखने वाले बच्चे भी जीव-विज्ञान विषय के साथ बारहवीं पास करने के बाद  पी.एम. टी. जैसी प्रवेश परीक्षा में शामिल हो कर अपनी किस्मत आजमाना चाहते हैं .  बहरहाल किस्सा यह कि   भारत वर्ष के उस  राज्य  में होम्योपैथी के तीनों मेडिकल कॉलेजों में दाखिले के लिए वर्ष २००२ में कोई प्रवेश परीक्षा तो नहीं हुई अलबत्ता इसके लिए भारतीय चिकित्सा पद्धति संचालनालय से एक सरकारी विज्ञापन जारी हुआ और प्राप्त आवेदनों में से मेरिट के आधार पर सूची बनाकर छात्र -छात्राओं को बुलावा पत्र भेज कर काउंसिलिंग के लिए बुलाया गया. फिर विधिवत काउंसिलिंग हुई ,  जहाँ तीनों कॉलेजों के प्रबंधन के पदाधिकारी और प्राचार्य अपनी -अपनी टेबल सजा कर बैठे थे. 
     महान देशभक्त महाराणा प्रताप के नाम पर नया- नया खुला एक मेडिकल कॉलेज भी उनमे शामिल था जिसे उस राज्य की राजधानी के सरकारी विश्वविद्यालय से मान्यता मिली हुई थी .  . काउंसिलिंग में आए कई विद्यार्थियों ने बेहतर पढ़ाई और बेहतर भविष्य की उम्मीद लेकर उसमे दाखिला ले लिया . सालाना फीस थी लगभग तैंतीस हज़ार से चालीस हज़ार रूपए के आस-पास .  अब उनकी डाक्टरी की पढाई शुरू हुई .  बी. एच . एम. एस . याने कि बैचलर ऑफ होम्योपैथिक  मेडिसिन  एंड सर्जरी की डिग्री के लिए एम बी. बी. एस. की तरह साढ़े चार साल की पढ़ाई और  एक साल के इंटर्नशिप को मिलाकर कुल साढ़े पांच साल का पाठ्यक्रम होता है , लेकिन  विश्वविद्यालय से कभी वार्षिक परीक्षा में देरी और कभी प्रायोगिक परीक्षा में विलम्ब  होने पर वर्ष २००२ बैच के होम्योपैथी के  इन छात्र- छात्राओं को लम्बे इंतज़ार के बाद वर्ष २००९ में याने कि पूरे सात साल बाद  डिग्री मिली,  लेकिन अभी तो  समय उनका एक और इम्तहान लेने वाला था.  बी. एच .एम. एस . की डिग्री मिलने पर वे खुश हो रहे थे कि अब राज्य होम्योपैथी परिषद  में डॉक्टर के रूप में  उनका पंजीयन हो जाएगा और वे अपना क्लिनिक खोल सकेंगे और समाज को डॉक्टर के रूप में अपनी सेवाएँ दी सकेंगे. या नहीं तो होम्योपैथिक  डॉक्टरों की सरकारी  भरती के लिए विज्ञापन निकलने पर आवेदन कर सकेंगे और चयनित होने पर सरकारी  डॉक्टर की हैसियत से जनता और सरकार की सेवा कर कर सकेंगे ,लेकिन उनके दोनों ही सपनों पर ग्रहण लग गया . महाराणा प्रताप जैसे देशभक्त के नाम पर खुले इस होम्योपैथी कॉलेज के प्रथम बैच के डिग्री धारक इन युवाओं के लिए यह किसी सदमे से कम नहीं था , जब उन्हें पता चला कि केंद्रीय स्वास्थ्य  मंत्रालय के आयुष विभाग की द्वितीय अनुसूची में उनका यह कॉलेज  शामिल ही नहीं था , इसलिए भले ही उनको सरकारी विश्वविद्यालय से कानूनी तौर पर बी. एच. एम एस की डिग्री मिल गयी हो , फिर भी होम्योपैथिक  डॉक्टर के रूप में  राज्य होम्योपैथी परिषद उनका पंजीयन नहीं कर सकता. नतीज़ा यह कि अब ये लोग डाक्टरी की वैधानिक डिग्री होने के बावजूद डॉक्टर के रूप में पंजीकृत नहीं हो पा रहे हैं.किसी सरकारी भर्ती के विज्ञापन में अगर आवेदन करने पर उनका चयन हो भी गया, तो भी राज्य होम्योपैथी परिषद से पंजीयन नहीं होने के कारण उनकी नियुक्ति नहीं हो पा रही है.  कितना अजीब-सा लगता है कि आवेदन से लेकर काउंसिलिंग और दाखिले से लेकर विश्वविद्यालय स्तर पर परीक्षा आयोजन तक सब कुछ सरकारी प्रक्रिया से हुआ,       लेकिन जिस  विश्वविद्यालय ने  कछुआ चाल से  परीक्षाएं लेकर छात्र-छात्राओं को साढ़े पांच साल में मिलने वाली  डाक्टरी की डिग्री सात साल में दी , आज उसकी वह डिग्री उनके लिए बेकार साबित हो रही है. पढ़ाई में लगा धन और करीब सात साल का  कीमती समय भी बर्बाद होता नज़र आ रहा है .  समस्या केवल यह है कि  कॉलेज को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की दूसरी अनुसूची में जगह नहीं मिलने के कारण इन होम्योपैथिक  डाक्टरों का पंजीयन नहीं हो पा रहा है .
         इस बारे में पूछताछ के लिए जब कुछ डिग्रीधारकों और उनके अभिभावकों ने कॉलेज प्रबंधन  से सम्पर्क साधा तो उन्होंने विश्वविद्यालय की ओर उंगली उठा दी , जब ये डिग्री धारक और उनके गार्जियन  दौड़े -दौड़े विश्वविद्यालय पहुंचे  तो कुलपति और वहां के दूसरे अधिकारियों ने पल्ला झाड़ कर कॉलेज प्रबंधन की ओर इशारा कर दिया. एक -दूसरे पर दोषारोपण करने के बजाए उन्हें आपस में मिलकर समस्या का हल निकालने का ख़याल आज तक  नहीं आया. उनके  इस आरोप-  प्रत्यारोप में उन युवाओं का भविष्य चौपट होता साफ़ नज़र आ रहा है , जिन्होंने बड़ी हसरत से डॉक्टर बनने का सपना संजोकर , कॉलेज और  विश्वविद्यालय  पर भरोसा जताया था.  आज उन्हीं संस्थाओं ने उनके भरोसे को तोड़ कर रख दिया .  इस घोर कलि युग में हम और आप और हमारे बच्चे आखिर  किस पर भरोसा करें ?                                              
                                                                                                                             ----   स्वराज्य करुण  

Wednesday, August 18, 2010

लागत मूल्य गोपनीय क्यों ?

  दोस्तों ! इस वक्त एक ब्रांडेड कंपनी के टूथपेस्ट का ट्यूब और गहरे चटक रंग का उसका डिब्बा मेरे हाथों में है , डिब्बे पर टूथपेस्ट की तथाकथित खूबियों का अंग्रेज़ी में बखान करते हुए मात्र  डेढ़ सौ ग्राम की  इस सामग्री  की अधिकतम खुदरा कीमत छापी गयी है - सत्तावन रुपए. एक अन्य कंपनी के ब्रांडेड केश तेल की  सिर्फ एक सौ बीस मिलीलीटर की एक छोटी -सी बोतल पर उसका  अधिकतम खुदरा मूल्य एक सौ छत्तीस रुपए अंकित है.  फ़ूड सप्लीमेंट और साबुन ,तेल , टूथपेस्ट आदि घरेलू सामान बेचकर दुनिया भर में  अरबों -खरबों डालरों का व्यापार कर रही एक नेट वर्किंग कंपनी का कोई भी सामान भारतीय रुपए के हिसाब से  सौ -दो सौ रुपए से कम कीमत का नहीं  होता .ज़रा ध्यान दीजिये ,  टूथपेस्ट हो या केश तेल ,  नहाने का साबुन हो या कपड़ा धोने का पावडर  . पैकेट या डिब्बा  चाहे चाय का हो या चीनी का, या फिर जीवनरक्षक दवाओं का ,  उन पर विक्रय मूल्य की जानकारी तो प्रिंट कर दी जाती है , लेकिन उनकी प्रति यूनिट लागत के बारे में कोई सूचना नहीं होती और न ही हम ग्राहक इस बारे  में जानने की कोशिश करते हैं ?
        काफी ज़द्दोज़हद के बाद कुछ साल पहले  जब क़ानून बना, तब कहीं  आज ग्राहक को प्रिंट रेट के नाम पर  भले ही वह सही हो या गलत, इस तथाकथित अधिकतम खुदरा मूल्य की जानकारी मिल रही है.लेकिन क्या हम कभी यह जानने की कोशिश करते हैं कि कंपनियों अथवा उत्पादकों द्वारा अपने किसी भी प्रोडक्ट पर अधिकतम खुदरा कीमत के साथ उसका लागत मूल्य क्यों नहीं छपवाया जाता ? अपने उत्पादन की लागत बताने में उन्हें संकोच क्यों होता है ? जब कोई भी कंपनी अपने किसी प्रोडक्ट के  प्रत्येक पांच,दस, पचास या सौ -डेढ़ सौ ग्राम से लेकर हजार -दो हज़ार ग्राम या उससे भी ज्यादा वज़न के पैकेट पर खुदरा विक्रय मूल्य छाप सकती हैं ,तो लागत  मूल्य छापने में क्या हर्ज़ है ? साथियों ! क्या  एक ग्राहक होने के नाते हममे से कोई यह बता सकता है कि उसके द्वारा खरीदी गयी अधिकतम खुदरा मूल्य छपी किसी वस्तु की अधिकतम निर्माण लागत क्या होगी ? एक बड़े शहर के मेडिकल बाज़ार में जब कुछ माह पहले अधिकारियों ने छापा मारा तो वे यह देख कर  हैरान रह गए कि सामान्य सर्दी -जुकाम में इस्तेमाल की जाने वाली एक या दो रुपए की टेबलेट कई गुना अधिक कीमत पर बेची जा रही थी. केस भी दर्ज हुए ,लेकिन बाद में क्या हुआ, कोई खबर नहीं आयी.यह भी सोचने वाली बात है कि बहुत से डॉक्टर किसी एक बीमारी के इलाज के लिए मरीज़ को  काफी महंगी दवाई लिखकर  पर्ची थमा देते  हैं ,जबकि उसी बीमारी के लिए कुछ डॉक्टर सस्ती दवाई से मरीज़ को ठीक कर देते हैं. मेडिकल मार्केट में एक ही बीमारी की एक दवा कई  अलग-अलग नामों से अलग -अलग प्रिंट रेट पर बिकती है. कपड़े खरीदने जाएँ तो वहां  अलग -अलग कंपनियों के रेडीमेड कपड़े चाहे  शर्ट हो या पेंट , साड़ी हो या सलवार , एक ही प्रकार की वस्तु होने के बावजूद उनका विक्रय मूल्य अलग-अलग होता है .    वही हाल मकान अथवा भवन निर्माण उद्योग का है. इसमें ज़मीन की कीमत ,  सीमेंट , रेत, ईट -गारे सहित कुछ  अन्य निर्माण सामग्री  और मानव श्रम को मिलाकर हिसाब लगाएं तो  मालूम होगा कि वास्तविक लागत से कई गुना ज़्यादा कीमत पर मकान बेचा जाता है. नया ज़माना उपभोक्ता संस्कृति का है . बाज़ार में तो हर व्यक्ति उपभोक्ता है . चाहे फैक्ट्री का मालिक हो या कोई सामान्य मजदूर ,  जिंदा रहने के लिए हर किसी को रोटी ,कपड़ा और मकान चाहिए . इलाज के लिए औषधि चाहिए . लेकिन ऐसा लगता है कि उत्पादन कंपनियों को इस नैतिकता से कोई लेना -देना नहीं है  कि उपभोक्ता के रूप में हर इंसान एक -दूसरे पर आश्रित है.
    बिस्कुट , ब्रेड  सूखी मिठाई, शरबत   जैसी खाने -पीने की कई चीजें तो अपनी वास्तविक लागत  से कई गुना ज्यादा कीमत पर बेची जा रही हैं . लगभग दो दशक पहले महाराष्ट्र विधान सभा में  वहां के पूर्व वित्त मंत्री डॉ. श्रीकांत जिचकर ने २३ जुलाई १९९० को यह मामला उठाया था कि एक ब्रांडेड कंपनी के साबुन का उत्पादन खर्च प्रति नग सिर्फ एक रुपए आता है ,जबकि  लोकल टैक्स सहित वह मुम्बई में पांच रुपए में और  नागपुर में पौने छह रुपए में बिकता है .उन्होंने तथ्यों के साथ यह भी बताया था कि एक ब्रांडेड कंपनी का स्कूटर उन दिनों के हिसाब से फैक्ट्री में सात  हज़ार में तैयार होकर बाज़ार में साढ़े तेरह हज़ार रुपए में बेचा जा रहा है   और एक ब्रांडेड कंपनी की कार छियासठ हज़ार में बन कर एक लाख बाईस हज़ार में बिक रही है. डॉ. जिचकर ने  एकदम सही कहा था कि वास्तव में किस वस्तु पर उत्पादन खर्च कितना है , यह जानने का अधिकार आम जनता को मिलना चाहिए और इसके लिए कानूनी प्रावधान भी किया जाना चाहिए . ज़रा पीछे मुड़कर यह देखना भी दिलचस्प होगा कि उन्हीं दिनों संसद में मुखर वक्ता और प्रखर सांसद श्री अटलबिहारी बाजपेयी ने भी इस ज्वलंत मसले पर आवाज़ उठाई थी .
                  लगभग बीस वर्ष पहले समाचार पत्रों में कुछ पाठकों ने 'सम्पादक के नाम पत्र ' जैसे  वैचारिक स्तंभों में इस विषय पर विचार -विमर्श का एक रचनात्मक अभियान भी चलाया था. जिसकी शुरुआत पोस्टकार्ड पर मेरे लिखे हुए एक छोटे से पत्र से हुई  थी. उसकी प्रतिक्रिया में कई पत्र छपे .ऐसे ही एक पत्र में पिथौरा के महेश पालीवाल ने लिखा- ' अगर निर्माताओं द्वारा वस्तुओं में लागत मूल्य नहीं लिखा जाता , तो इसका साफ़ -साफ़ मतलब है कि उपभोक्ताओं के प्रति खुले आम बेईमानी की जा रही है'.सागर विश्वविद्यालय के छात्र समीर की प्रतिक्रिया थी-' वस्तुओं में विक्रय मूल्य तो अंकित किया जाता है ,लेकिन लागत मूल्य को गोपनीय रखना आम जनता के प्रति सरासर बेईमानी के सिवाय और कुछ नहीं .'
                     यह  बात सही है कि उत्पादन की  प्रक्रिया से गुज़रकर बाज़ार पहुँचने तक   मज़दूरी भुगतान , परिवहन खर्च , और लोकल टैक्स आदि मिलाकर किसी वस्तु की कीमत तय होती है.कच्चे माल का खर्च भी उसमे जोड़ना पड़ता है . उस पर उत्पादक कंपनी और दुकानदार का मुनाफ़ा भी जुड़ता है. इन सबको जोड़कर किसी वस्तु का अगर अधिकतम खुदरा मूल्य तय किया जा सकता है  और उसे वस्तु के पैकेट पर प्रिंट किया जा सकता है , तो लागत मूल्य तय करने और उसे अपने प्रोडक्ट में छापने में  भला क्या दिक्कत है ?  मुझे लगता है कि लागत मूल्य की गोपनीयता में ही कंपनियों के अधिकतम और अंधाधुंध मुनाफे का रहस्य छिपा है और यही राज़ है  डायन की तरह  आज की बढ़ती महंगाई का. देश में सूचना का अधिकार तो लागू हो गया है ,   अब देखना यह है कि  उपभोक्ताओं को लागत मूल्य जानने का  अधिकार कब मिलेगा  ?   आपका क्या कहना है ?    
                                                                                                                                      स्वराज्य करुण

Tuesday, August 17, 2010

हमारा समय

    कहीं दम तोड़ रही हो   जब तन ,मन और वतन की आबरू ,
   किसी गुनहगार के हाथों
   ज़िंदा जल रहा हो जब कोई बेगुनाह,
   सब कुछ जानकर और देख कर भी                                                                              
   तब नहीं पिघलता हमारा ह्रदय ,
   सचमुच कितना खौफनाक
   हो गया है हमारा समय !
   सच्चाई की आँखों में आँखें डाल कर
   बतियाने से भी घबराता है हमारा समय .
   रास्ते में देख कर इंसानों का खून
   और इंसानियत की लावारिस लाश,
    हमारा समय करने लगता है
   किसी सुरक्षित रास्ते की तलाश .                                                            
   सचमुच कितनी बदहवासी में है हमारा समय ,
    दोस्तों ! क्या हर मौसम में अब 
    ऐसा ही रहेगा हमारा समय ?
                              स्वराज्य करुण

Monday, August 16, 2010

सुनो विश्व -सुन्दरी !

सुनो विश्व-सुन्दरी सुनो  !
 रुपियों के रुपहले पंखों पर सवार
दिल्ली -कोलकाता ,न्यूयार्क -पेरिस
लन्दन और भी न जाने कहाँ -कहाँ
उड़ान भरने वाली परियों की शहजादी सुनो !
दुनिया के रंगमंच पर कपड़े उतार कर ,
बदन उघाड़ कर थिरकने वाली 'राष्ट्र-गरिमा'
कान खोल कर सुनो !
लज्जा को ढंकने में लाचार
फुटपाथ पर बैठी मेरे देश की बहु-बेटियों को
बाँट दो अपने कपड़े,
जो तुम्हें लगते हैं बहुत- बहुत बोझिल .
आँखें खोल कर देखो  और कान खोल कर सुनो !
बारिश की बौछार सहकर ,
तेज़ धूप की मार सहकर
जिन हाथों ने तोड़ कर चट्टानों को
बनायी  है तुम्हारे लिए सफलता और शोहरत की
यह चकाचौंध सड़क ,
हो सके तो चूम लो उन्हें ,
जिनकी ख़ूबसूरती का नहीं बना
दुनिया में कोई इतिहास !
सुनो और देखो भी अपने स्वप्न-लोक से
ज़रा ध्यान से -
काली घटाओं की घनघोर
गर्जना के बीच खेतों में
संभावनाओं के बीज बो रही
ग्राम्य-बालाओं की गुनगुनाहट  ,
विश्व -सुन्दरी से भी खूबसूरत हैं
जिनके पसीने से भीगे हुए
मासूम चेहरों की नादान-खिलखिलाहट .
                                         स्वराज्य करुण                            



     

नज़रबंद है सत्य-अहिंसा

नौकरशाहों , महफ़िलबाजों , मत-वालों के बीच
दबी रह गयी चीख वतन की हमप्यालों के बीच.
कोई मछली कैसे दिखाए मछुआरों को अपने आंसू 
उसकी तो किस्मत बंधक है घड़ियालों के बीच.
कितनी बेरहमी से खाया किसी ख़ास ने आम को
आम आदमी दफ़न हो गया कंकालों के बीच.
शहरों से जो चली हवाएं भोले-भाले गांवों में
रोज़-रोज़ है खून-खराबा चौपालों के बीच.
सच कहने की सीख तो शायद बचपन का इक सपना था
नज़रबंद है सत्य -अहिंसा सौ तालों के बीच
दिन-भर मेहनत करके  सूरज शाम ढले जब घर लौटा
अंधियारे में खुद को पाया घर वालों के बीच.
फिर भी उनके रंग-महल में रोज़ नाचना -गाना है
डूब रही है नाव देश की घोटालों के बीच .
कल रामू भी राख हो गया मिल की चिमनी के भीतर
आज सुबह से चली है चर्चा हम्मालों के बीच.
खैरात बांटने आ जाएंगे आंसू लेकर कुछ चेहरे
बेनकाब होने से पहले कंगालों के बीच .
अदालतें भी कहाँ सुनेंगी उस बूढ़े इंसान की अर्जी
जिसका बेटा राख हो गया रखवालों के बीच.
                                                              स्वराज्य करुण                  
                                           

Saturday, August 14, 2010

समय की सच्चाई पर छह कविताएँ

        (१)
    हमारे समय का सच तो
    आज यही है कि
    हमें अपने अलावा हर कोई
    झूठा लगता है ,
    जब हम देखते हैं आईना
     तो हम नहीं , यह आईना
     ही टूटा लगता है .

  
            (२)
      हमारे समय का एक सच
      यह भी है कि
      हम ढूंढते हैं सच्चाई
      एक दूसरे की आखों में ,
      सच तो यह है कि
      उसे तो हमने कब से
      डाल रखा है - झूठ और फरेब
      की सलाखों में .
     

             (३)
       हमारा समय
       चालाकी और चालबाजी के
       हथियारों से लैस है,
       जिसके हाथों में है लाठी
        उसकी ही भैंस है .
   

              (४)

       हमारे समय का 
       सबसे बड़ा सच
       यही है कि
       एक झूठ को सौ बार कहो तो
       वह सच हो जाता है और
       एक सच को हज़ार बार कहो
       तो वह झूठ हो जाता है .   
 

               (५)
      सचमुच बहुत खौफनाक है
      हमारे समय का सच ,
      पहन कर मुखौटा वह
      झूठ का जुड़वां भाई बन गया है ,
      सच तो यह है कि
      ओढ़कर खामोशी ,
      यह समाज भी तमाशाई बन गया है .
      

                (६)
      हमारे समय का सच तो
      यह है कि सच बोलना अपराध है ,
      क़ानून और कचहरी की
      दहलीज़ पर पूरे ताम -झाम के
      साथ झूठ आबाद है .
                           स्वराज्य करुण

मौसम ही एक दिन बदलेगा मौसम को

एक दिन ऐसा होगा ज़रूर कि
पानी लौटेगा अपनी जड़ों की तरफ
और होंगे फिर हमारे सपने हरे -भरे .
आकाश की गहरी नीली परछाई वाले
तालाब के ठहरे शांत पानी में एक नटखट बच्चा फेंकेगा
एक दिन छोटा -सा कंकड़
और दूर -दूर तक होगी हलचल .
लौट कर आएँगे फिर ऐसे दिन ,
जब पहाड़ों के पथरीले बदन को
मिलेगी हरियाली की नर्म नाजुक छुअन,
जब घर के खुले आँगन में दिखेगी फिर
चहचहाती गौरय्या
और छतों पर चहकेंगे दूर -देश के पंछी .
आज भले ही सन्नाटा है हवाओं में और
खामोश है यह मौसम ,
पर देख लेना  दोस्तों !                                                                            
मौसम ही एक दिन बदलेगा मौसम को.
                                                  स्वराज्य करुण       
                                                 

Thursday, August 12, 2010

शैतानों ने बता दी अपनी जात

हमारी इस महान भारत भूमि पर अनेक ऐसी महान आत्माओं ने जन्म लिया , जिन्होंने जाति-धर्म के नाम पर समाज में होने वाले भेद -भाव के खिलाफ अपनी अनमोल वाणी से जनता को शिक्षित और जाग्रत करने की दिशा में ऐतिहासिक भूमिका निभायी . संत कबीर ने तो आज से लगभग छह सौ साल पहले कह दिया था --
                               जात न पूछो साधौ की ,पूछ लीजिये ज्ञान
                               मोल करो तलवार का ,पड़ी रहन दो म्यान .
  ज़रा समझदारी से देखा और समझा जाए तो छह सौ साल पुरानी दो पंक्तियों की इस अनमोल वाणी में हम जैसे साधारण मनुष्यों के लिए भी आत्म ज्ञान का महासागर हिलोरे मारता नज़र आएगा,लेकिन शायद यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि छह सौ साल से इस अनमोल दोहे को पढ़ने-सुनने और गुनने के बावजूद हम समझदार नहीं हुए . अब हम एक-दूसरे की जात पूछेंगे और एक -दूसरे को जाति के नाम पर गिनेंगे . राष्ट्रीयता नहीं , जाति हमारी पहचान होगी .  लगभग सात दशक लम्बे अंतराल के बाद एक बार फिर हम जाति के नाम पर एक -दूसरे की गिनती लगाने जा रहें हैं .  अंग्रेजों के ज़माने में ,गुलामी के दिनों में  हमारे राष्ट्रीय नेताओं के प्रयासों से ख़त्म हो चुका   जनगणना में जाति पूछने का प्रावधान फिर ज़िंदा हो रहा है .
दरअसल संत कबीर ने जब यह कहा था कि साधुओं से उनकी जात न पूछ कर ज्ञान की बातें पूछो ,तब उस ज़माने में साधुओं की संख्या ज्यादा  हुआ करती थी और  कबीर की  सामाजिक समरसता वाली नज़रों में  मनुष्य केवल मनुष्य था , वे मनुष्य को भी साधू मानते और उससे जात न पूछ कर ज्ञान की बातें पूछने पर जोर देते थे . वह साधुओं का ज़माना था , आज शैतानों का ज़माना है , इसलिए अब साधुओं से भी उनकी जात पूछी जाएगी .शैतानों ने अपनी जात जो बता दी है.  जय हिंद .   -
                                                                                                                                            स्वराज्य करुण

Wednesday, August 11, 2010

शायद आत्महत्या कर लेते साबरमती के संत

हर गाँव-शहर ,गली -कूचे में देश की आजादी की हर सालगिरह पर हवाओं में तैरता यह एक तराना ज़रूर हम तक पहुंचता  है. जिसे हम और आप बरसों से न जाने कितनी बार सुनते आए   हैं -

दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग ,बिना ढाल
साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल .

इसमें कोई शक नहीं कि देशभक्ति की भावनाओं से भरपूर यह गीत आज़ादी की लम्बी लडाई में हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की शानदार भूमिका की याद  में  लिखा गया है ,जिसमे कवि ने बापू के अहिंसक संग्राम की अपरम्पार महिमा को जन-जन तक पहुंचाने की  शानदार कोशिश के साथ अहिंसा के पुजारी का सम्मान बढ़ाया है. लेकिन हम क्या कर रहे हैं ? भारत माता के इस अनमोल रतन को हमने आज तक भारत रत्न  का सम्मान नहीं दिया और  सत्य ,अहिंसा , सादगी और ईमानदारी के प्रतीक इस  महामानव का फोटो भारतीय रिजर्व बैंक के  हरे -हरे और हलके गुलाबी रंग के नोटों में छापकर उन्हें तो भूल ही गए , उनके आदर्शों को भी भुला दिया . सत्य का तो हमने राम नाम सत्य कर दिया और  अहिंसा,सादगी और ईमानदारी का क्या हाल किया ,यह हमसे अच्छा और कौन बता सकता है ? अहिंसा को हम अराजकता और आतंक की आग में भस्म करने लगे , सादगी के  नाम पर जनता के खजाने से जोर -ज़बरदस्ती अस्सी हजार करोड़ रुपये निकाल कर एक ऐसे   खेल आयोजन पर खर्च करने लगे , जो  उस इंग्लैंड की  महारानी एलिज़ाबेथ की मशाल के साथ यहाँ आ रहा है, जिसने हमारे प्यारे वतन को आज से सिर्फ तिरेसठ साल पहले   कम-से कम एक सौ वर्षों तक गुलाम बना रखा था , जिसने आजादी की लडाई के हमारे कठिन दौर में साबरमती के संत को और उनके सहयात्री बने आजादी के लाखों दीवानों को जेल की यातनाएं दी , जलियाँवाला बाग़ में हमारे ही सैकड़ों भाई-बहनों को बंदूकों से छलनी कर दिया और आज तक अपनी इस काली करतूत पर भारत माता से  सार्वजनिक माफी नहीं मांगी.
             हम सादगी के नाम पर  मेहनतक़श जनता के टैक्स के इस भारी -भरकम धन को अपने पूर्व मालिक ब्रिटेन अगुवाई में  बेदर्दी और बेशर्मी से लुटाये जा रहे हैं. अगर  मणिशंकर अय्यर  का यह कहना सच है कि  देश के चालीस करोड़ किसानों की क़र्ज़ माफी के लिए जनता के खजाने   में रखे गए सत्तर हज़ार करोड़ रुपये की विशाल धन राशि का आधा याने कि  पैंतीस हज़ार करोड़ इन खेलों की तैय्यारी में खर्च किये जा चुके हैं  तो इससे ज्यादा खौफनाक हादसा हमारे साथ और क्या हो सकता है ? .जनता ने जिन लोगों को अपने इस खजाने  की पहरेदारी का जिम्मा दिया है और उसकी चाबी भी सौंप दी है , आज वही पहरेदार हमारे पसीने की कमाई के इस खजाने को इस तरह से लूट रहे हैं .  हमारी सादगी का आलम यह है कि हम चकाचौंध से भरी  गुलामी के इस ग्लैमर में अपनी आज़ादी को और  हमें आज़ादी  दिलाने वाले साबरमती के संत का नाम लेने की फुरसत भी हमें नहीं है.   जहाँ तक  हमारी ईमानदारी का सवाल है,  तो  वह भी जग -जाहिर है .घर से लेकर दफ्तर  तक और सड़क से लेकर संसद तक कोई भी हमें बेईमानी का गोल्ड -मेडल दे सकता है .
        सच्चाई और ईमानदारी के पुजारी  राष्ट्र पिता की मुस्कुराती तस्वीर वाले  हरे -गुलाबी  कड़क  नोटों के करोड़ों - अरबों रुपयों के बण्डल जब  टैक्स चोर , रिश्वतखोर  धनपशुओं की तिजोरियों,  आलमारियों और बाथरूमों तक से बरामद होते नज़र आते हैं , जब मासूम बच्चों और भोले-भाले निरीह नागरिकों के खून से किसी आतंकी गिरोह की झोलियों से  हमारे राष्ट्र-पिता के फोटो छपे पांच -पांच सौ और हज़ार -हज़ार के  नोट  मिलने की खबरें  छपती हैं , तो लगता है कि   वक्त के  ऐसे नाजुक दौर में अगर साबरमती के संत आज हमारे बीच होते  तो भले ही ये नोट असली हों या नकली, उनमें अपना चित्र देख कर इस विचित्र और भयंकर माहौल में  शायद  वे आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाते. किसी भी देश की महान विभूतियाँ वहां का राष्ट्रीय गौरव होती हैं .राष्ट्रीय मुद्राओं में हम उनकी तस्वीरें छाप कर उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट करना चाहते हैं , लेकिन  जब उनके किसी भी उसूल से हमारा कोई लेना-देना ही नहीं रह गया हो और  जब उनकी तस्वीरों वाले नोट और सिक्के चोर --डाकुओं, हत्यारों  और बेईमानों के हाथों  खिलौनों की तरह  खेले जा रहे हों , तो हम अपने राष्ट्रीय सम्मान के इन प्रतीकों को देश की राष्ट्रीय मुद्रा में  चस्पा करके उन्हें सम्मानित करने  का यह ढोंग  आखिर कब तक करते रहेंगें  ?
                                                                                                                                     स्वराज्य करुण

Tuesday, August 10, 2010

देश के दुश्मन : मौत के सौदागर

कहते हैं कि शिक्षा मानव को मानवता सिखाती है , वह मनुष्य को सत्य, अहिंसा, सदाचार और शांति से जीवन जीने और प्रत्येक मानव के जीवन को अपने जीवन की तरह अनमोल समझने की सीख देती है. हमारे इस महान देश में भगवान  गौतम बुद्ध ,महावीर ,गुरु नानक ,कबीर और महात्मा गांधी सहित अनेक महान विभूतियों ने अपने सदविचारों से पूरी दुनिया को  जियो और जीने दो का प्रेरणादायक सन्देश दिया है. लेकिन आज की दुनिया में हो क्या रहा है ? दुनिया को रहने दें और यह देखें कि अपने ही देश में क्या हो रहा है ?
         कहीं नक़ली दवाईयों के काले कारोबार के जरिये मरीजों के जीवन से खुले आम खिलवाड़ चल रहा है ,तो कहीं मिलावटी दूध ,मिलावटी खोवा , मिलावटी तेल के घिनौने व्यापार से पूरे मानव समाज को बीमार बनाया जा रहा है .जनता की सेहत से खिलवाड़ करने वालों ने अब तो  सब्जियों को घातक रासायनिक रंगों से रंग कर बेचना शुरू कर दिया है . छतीसगढ़ के पंडित रविशंकर विश्वविद्यालय की रसायन विज्ञान की प्रयोगशाला में बाज़ार से खरीदी गयी परवल और खेक्सी को जब पानी में डाल कर जाँच की गयी  तो विशेषज्ञ यह देख कर चौंक गए कि पानी का रंग हरा हो गया कारण यह था कि स्वाद और विटामिनों का भण्डार समझी जाने वाली इन हरी सब्जियों को मेल्काईट  ग्रीन नामक जहरीले रसायन से रंगा गया था . प्रायोगिक जाँच में यह भी पाया गया कि बाज़ारों में बिक रही इस प्रकार की सब्जियों में कापर सल्फेट ,ब्रिलियंट ग्रीन और आक्सीटोसिन नामक इजेक्शन से भी ऐसे जहरीले रसायन डाल कर उन्हें  ग्राहकों को थमाया जा रहा है,कच्चे टमाटर को पकाने के लिए एथेफोन  और एक अन्य रसायन का इस्तेमाल हो रहा है. केले और आम के कच्चे फलों को जल्दी पकाने के लिए मौत के सौदागरों ने   कार्बाइड नामक जानलेवा रसायन का  उपयोग शुरू कर दिया है . यह किसी एक शहर की बात नहीं है. देश के अनेक शहरों की सब्जी मंडियों से ऐसी ख़बरें लगभग हर हफ्ते -दस दिन में अखबारों और छोटे परदे के समाचारों में  पढ़ते -पढ़ते और देखते -देखते हम  थक गए हैं. हर साल  होली ,रक्षाबंधन और दशहरा- दीवाली जैसे त्यौहारों के मौके पर नकली खोवा , नकली घी , मिलावटी मिठाई , नकली दूध और तरह-तरह के मिलावटी खाद्य पदार्थों का ज़खीरा पकडे जाने,  ऐसे  जानलेवा पदार्थों के कारखानों पर छापेमारी होने और रेल्वे स्टेशनों में भी उनके  पार्सल बरामद होने की ख़बरें पढ़ने और देखने को मिलती है.,लेकिन गुनाहगारों पर आगे क्या कार्रवाई हुई , आम तौर पर पता ही नहीं चलता . अचरज की बात है कि  ऐसे घातक सामान रेल्वे स्टेशनों में बाकायदा बुक किए हुए पार्सल के रूप में पकडे जाते हैं ,  उन  पर भेजने वाले और पाने वाले के रूप में किसी न किसी का नाम -पता लिखा होता है  फिर भी  वे पकड़ में नहीं आते और उनके बारे में जनता को कुछ भी मालूम नहीं हो पाता.
           डॉक्टर सचेत करते हैं कि ऐसी ज़हरीली मिठाइयों , ज़हारेली  सब्जियों  और खाने- पीने के मिलावटी सामानों के जरिये शरीर में घातक रसायनों के पहुँचने पर किडनी ,दिल और लीवर की प्राण घातक बीमारियाँ हो सकती हैं ,लेकिन ग्राहक बेचारा करे भी तो क्या ? रोजी -रोटी के लिए शहरी जीवन में रहने  की मजबूरी ,छोटे -छोटे घरों में रहने की मजबूरी  भाग -दौड़ से भरी ज़िंदगी में  असली सब्जियों के धोखे में लोग इन मिलावटी,नकली और जहरीली सब्जियों को खरीद कर और खाकर खुद बीमार हो रहें है और अनजाने में उनके परिवारों के सदस्य और घर आने वाले मेहमान भी अनजाने में ऐसी बीमारियों को शरीर में डाल रहें है , जिनका नतीज़ा उन्हें निर्दोष होने के बावजूद आज नहीं तो कल भोगना ही पड़ेगा. भोले -भाले इंसानों को नकली दवा,मिलावटी दूध ,मिलावटी घी , नकली खोवा और जहरीली सब्जियां बेच कर उनकी जेबों से लाखो -करोड़ों रुपयों की लूट-पाट करने और उन्हें मौत के मुंह में धकेलने वाले लोग मानव के वेश में दानव नहीं तो और क्या हैं ? ऐसे लोग मानवता के शत्रु और देश और दुनिया के दुश्मन नहीं तो और क्या हैं ? इनके साथ वही सलूक होना चाहिए जो हत्या के अपराधियों के साथ होता है. लेकिन सवाल यह है कि मौत के सौदागर , हमारे ये दुश्मन क्या ब्रम्हांड के किसी दूसरे ग्रह से आये हैं ,जिन्हें हम पृथ्वी  ग्रह के निवासी अपनी खुली आँखों से नहीं देख पा रहे हैं और  जो मौत का ऐसा  घिनौना खेल हमारे बीच छुप कर खेल रहें हैं ? सब कुछ हमारे आस- पास, हमारे ही खिलाफ खुलकर हो रहा है , फिर भी हम अगर अपने इन दुश्मनों को नहीं पहचान पा रहे हैं, तो इसमें गलती आखिर किसकी है ? ---स्वराज्य करुण

Monday, August 9, 2010

सुबह

सुबह
____     
सूर्योदय की प्रतीक्षा
करती रात
एक अंधी
सभ्यता है ,दो आँखों की तरह
उससे मिलती है सुबह .
पर्वतों की बाँहों में हरे -भरे जंगलों के
बीच सुबह होती है -नदियों के किनारे .
सूर्योदय की प्रतीक्षा करती रात
एक सूखी नदी है ,
बरसात के बहते पानी की तरह
तरह पहाडी ढलानों से उतर कर
मिलता है उससे -दिन का पहला -पहला
उजियारा .
सुबह होती है गाँव में ,
नीम और बरगद की छाँव में,
तालाब के किनारे किलकारियां भरते और
पानी में डुबकियाँ लगाते बच्चों की
तरह होती है सुबह  .
पहली मुलाक़ात की मुस्कुराहटों जैसी
बच्चों के दुधमुंहे दांतों की तरह
कितनी साफ़ और पहाडी झरनों
की मानिंद कितनी तनाव रहित होती है सुबह .
रात के अँधेरे से हुए संघर्ष का बोझ
उतार कर आगामी संघर्ष की तैयारी के साथ ,
क़दम -दर -क़दम आगे
बढ़ती - होती है सुबह .
ओ सुबह !
तुम पर्वतों की तरह तनो,
नदियों की तरह बहो और
अँधेरे के खिलाफ जारी अपने संघर्ष की गाथाएं
कहो , कहती रहो ,कहती रहो .
                                --- स्वराज्य करुण

Friday, August 6, 2010

मानसून की मेहरबानी और हमारी मनमानी

 मानसून की  मेहरबानी से बादल  खूब बरस रहे  हैं .कहीं -कहीं तो उनकी मेहरबानी इतनी ज्यादा है  कि वह मनमानी जैसी  लगती है .बरसाती नदियों के साथ बरसाती नाले भी उफन कर ,तटबंधों को तोड़ कर गाँव -देहात में बस्तियों को उजाड़ कर ,बर्बादी का असहनीय नज़ारा पेश कर रहे  हैं ,तो शहरों में थोड़ी -सी भी बारिश क्या गरीब ,क्या अमीर,हर किसी की बस्ती में कश्ती चलाने की नौबत ला रही है .झुग्गी बस्तियों के लोग सबसे ज्यादा परेशान हैं .

                         ऐसा नज़ारा देश में हर मानसून में देखने को मिलता है .बर्बादी की तस्वीरें अख़बारों में छपती हैं , रेडियो पर आती हैं , छोटे परदे पर दिखती हैं .अखबार लिखते हैं- मानसून का कहर , डूबे गाँव और शहर . लोग देखते हैं ,देश के भाग्य विधाता भी देखते हैं ,उनमे से कुछ महाप्रभु तो आकाश मार्ग से भ्रमण करते हुए ऐसे नजारों को हजारों बार देख लेते हैं.उनके हाथों राहतों की बारिश होती है ,लोग अपने गिरे हुए घरों को एक बार फिर से खड़े करने की जुगत में लग जाते हैं .मानसून लौट जाता है .अगले साल फिर वही नज़ारा लेकर आने के लिए . मानसून की मेहरबानी तो क्या इंसान ,क्या जानवर ,क्या पेड़,क्या पौधे ,सबके लिए ज़रूरी है.वह मेहरबान भी होता है , वह बादलों के जरिये अमृत की तरह अनमोल पानी बरसा कर खेतों में नई ताजगी भर देता है.उसकी मेहरबानी से मेहनतकश किसान की ज़िन्दगी में उम्मीदों के रंग -बिरंगे फूल खिलते हैं ,धरती सोना उगलती है ,और सबकी भूख मिटाती है.फिर ऐसे मूल्यवान ,मेहरबान  इस मानसून के ज्यादा बरसने पर क्यों होती है इतनी हाय तौबा ? दरअसल इसके लिए हम खुद ही ज़िम्मेदार हैं .हमने मानसून की मेहरबानियों को संभाल कर रखने के तौर-तरीकों को भुला दिया है ,चाहे जान-बूझ कर ,या  फिर अनजाने में ,लेकिन गलती तो हम इंसानों ने कर ही डाली है.हमने नदियो को बड़े -बड़े बांधों में बाँध कर उनका रास्ता रोका है ,
                                           हमारी संस्कृति में तो हर नदी एक पवित्र गंगा है ,लेकिन हमने गंगा जैसी  हर नदी में शहरों की गन्दी नालियों को जोड़कर ,कारखानों के गंदे  पानी को डालकर नदियों को नालियों में तब्दील करने में कोई शर्म महसूस नहीं की.नदियों के किनारों पर लगे हरे -भरे पेड़ों को बेरहमी से काट डाला .और तो और जब भी हमें कुर्सी की ताक़त मिली, हमने माता की तरह पवित्र अपनी बारहमासी नदियों को बेच डाला .तटबंधों को हमने तोडा ,सिर्फ पैसों से नाता जोड़ा .शहरों में पुराने तालाबों को पाट कर कालोनियां खडी कर दी , निकासी की नालियों पर सीमेंट के चबूतरे बना दिए .धरती माता के आँचल पर सडकों के नाम पर सीमेंट ,कांक्रीट  और डामर की चादर बिछा दी,प्लास्टिक के कचरे से माता के आँचल को पाट दिया ,सड़कों के सीमेंटीकरण और डामरीकरण के दौरान कुछ मूर्ख किस्म के इंजीनियर   पेड़ों की जड़ों को भी सीमेंट और डामर से पाट कर धीरे -धीरे उनकी हत्या करने लगे .जब कभी शहरी जीवन की सुख -सुविधा बढाने के लिए हमें सीमेंट -कांक्रीट के जंगल खड़े करने की इच्छा हुई , जब कभी हमें  खनिजों के कुदरती खजाने  से अपना खजाना भरने की चाहत हुई , तो हमने हरे -भरे सुंदर पहाड़ों को नोच -खसोट कर बर्बाद कर दिया .मूर्ति -विसर्जन के नाम पर ज़हरीले रंगों वाले रसायनों से तालाबों के पानी को ज़हरीला बना दिया .शहरों  के गंदे पानी की निकासी के लिए कोई रास्ता नहीं सूझा तो नालियों का रास्ता तालाबों की ओर मोड़ दिया . साम -दाम ,दंड -भेद से  तालाबों की ज़मीन  हथिया कर उस पर अवैध बस्तियां खडी कर दी .

                                                        आधुनिकता और विकास  के नाम पर  ऐसे बेतुके तौर -तरीकों से हमने खुद को अपनी ज़मीन और अपनी जड़ों से काट कर  मानसून के अनमोल पानी को भूमि के भीतर जाने  से रोक दिया ऐसे में ज़रा सोचें कि धरती माता की प्यास कैसे बुझेगी ? जब हमारी धरती माता  प्यासी रहेगी तो हम जैसे करोड़ों -अरबों धरती पुत्रों का क्या हाल होगा? थोडा पानी अगर उसके पास है भी तो हम मशीनों के जरिये  पूरी बेदर्दी से  जमीन के भीतर का सारा का सारा पानी निचोड़ लेना चाहते हैं .,हमें इन सब बातों से शायद कोई लेना -देना नहीं कि इसका अंजाम आखिर क्या होगा ? . अपने सुख की खातिर हमने नदियों का मुख मोड़ दिया .ऐसे में वह पानी आखिर जायेगा किधर ?वह अनमोल पानी तो हमें जीवन देने के लिए मानसून के साथ आता है ,लेकिन हम उसके ही जीवन से खिलवाड़ करने लगते है .  इसका नतीजा तो हमें भोगना पड़ेगा.इसमें मानसून की भला क्या गलती ?मानसून तो हम पर हमेशा मेहरबान होता है ,हम ही ऐसे नासमझ हैं ,जो अपनी मनमानी से बाज़ नहीं आते.क्या इसे समझ कर हम खुद को संभालना चाहेंगे ?अगर समझना और संभलना चाहें तो हमें अपने ही देश के एक छोटे -से नए राज्य छत्तीसगढ़ की ओर देखना चाहिए ,जहाँ सूबे के मुख्यमंत्री डॉ. रमनसिंह के एक आव्हान पर अपनी नदियों और अपने तालाबों को बचाने के लिए जनता एक होकर आगे आती है और जहाँ मुख्यमंत्री खुद हज़ारों मेहनतकश किसानों ,मजदूरों और आम नागरिकों के साथ इस पुनीत कार्य में कंधे से कन्धा और क़दम से क़दम मिलाकर जुट जाते हैं और .कहीं अस्सी साल पुराने खून्ताघात के सिंचाई बाँध में तो कहीं शिवनाथ नदी में जमी हुई गाद (रेत और मिट्टी )निकालने के लिए श्रमदान करते हैं.इस बार गर्मियों में डॉ. रमनसिंह ने खुद बिलासपुर जिले के खून्ताघात जलाशय के गहरीकरण और राजनांदगांव के पास शिवनाथ नदी के चौडीकरण के लिए जनता के साथ अपना पसीना बहाकर देश और प्रदेश में पानी बचाने का सन्देश फैलाया .जल है तो कल है और  गाँव का पानी गाँव मेंऔर खेत का पानी खेत में रखने के आव्हान के साथ उन्होंने भू -जल संरक्षण का अभियान चलाया .वे इतने में  ही नहीं रुके ,जहाँ गर्मियों की तेज़ धूप का स्वागत उन्होंने पानी बचाने के अभियान के साथ किया ,वहीँ मानसून की अगवानी हरियर छत्तीसगढ़ महाभियान के साथ . राज्य को हरा-भरा बनाने के लिए जनता के सहयोग से इस महाभियान में स्कूल -कालेज .गाँव -शहर  सब जगह हजारों -लाखों की तादाद में पौधे लगाये जा रहे हैं .
                                        नदी -तालाब और पेड़ -पौधे हमारी मूल्यवान धरोहर हैं.मानसून की मेहरबानी से ही कुदरत की यह कृपा हमारे साथ होती है ,बशर्ते हम इसे महसूस करें कि दुनिया में हमारे रहने के लिए हमारे साथ,हमारे पास इनका रहना भी बहुत ज़रूरी है ,यह तभी होगा जब हम इन पर अपनी मनमानी बंद करें .उम्मीद की  जानी चाहिए कि मानवता को बचाने के लिए   छत्तीसगढ़ की धरती से निकला यह सन्देश मानसून के बादलों के साथ हरियाली बनकर पूरी दुनिया में छा जायेगा .

                                                                                                                            स्वराज्य करुण