Wednesday, March 23, 2022

क्या इन युवा शहीदों से प्रेरणा लेंगे आज के युवा ?

          (आलेख    - स्वराज करुण )

 जवानी की दहलीज पर  आज के ज्यादातर युवा हसीन सपनों की रंगीन दुनिया में खोए रहते हैं और इस आधुनिक दौर में मोबाइल फोन पर वाट्सएप यूनिवर्सिटी के अधकचरे ज्ञान में भी उलझे रहते हैं । वे किसी भी तरीके से फोकट में धन कमाने के चक्कर में स्वार्थी नेताओं के दुमछल्ले बनकर उनके आगे -पीछे घूमते रहते हैं । हमारे आज के अधिकांश युवा  काले धन के ग्लैमर और प्रचार तंत्र के दम पर  महान नज़र आते नेताओं और फ़िल्मी अभिनेताओं को आदर्श मानकर अपना करियर बर्बाद कर  लेते हैं  , महँगाई ,गरीबी और बेरोजगारी के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने के बजाय वो  बेतुके धार्मिक नारों  के जहरीले मायाजाल में उलझे रहते हैं। ऐसे में उन्हें कहाँ फिक्र होगी कि आज हम 135 करोड़ देशवासियों के गाढ़े पसीने की कमाई मुट्ठी भर पूंजीपतियों की तिजोरियों में कैद है और  शिक्षा और चिकित्सा सुविधाएँ महँगी से महँगी होती जा रही हैं ? क्या उन्हें मालूम है कि आज देश में सामाजिक न्याय और  आर्थिक आज़ादी का सपना महज़ सपना बनकर रह गया है ,जिनके बिना देश की राजनीतिक आज़ादी निरर्थक है ?
      लेकिन  उम्र  के ऐसे  नाजुक दौर में आज से 91 साल पहले हमारे ही देश के तीन युवा क्रांतिकारियों ने वतन की आज़ादी के लिए क्रांति की राह पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिए,जिन्हें तत्कालीन परिस्थितियों में भी  इस प्रकार की ज्वलंत समस्याओं की गहरी समझ थी। क्या आज की युवा पीढ़ी उनसे कुछ प्रेरणा ग्रहण कर पाएगी ?उनके बलिदानों से देशवासियों को राजनीतिक  आज़ादी तो मिल गयी ,लेकिन सामाजिक -आर्थिक आज़ादी का मिलना अभी बाकी है। 

                      
            
             अग्रणी पथ -प्रदर्शक 
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             आज 23 मार्च को उन्हीं तीन अमर शहीदों -- भगत सिंह ,सुखदेव और राजगुरु की शहादत को याद करने का दिन है ।आज ही के दिन 1931 में लाहौर के केन्द्रीय जेल में तीनों ने इंकलाब ज़िंदाबाद का उद्घोष करते हुए हँसते-हँसते फाँसी के फंदे पर लटककर आज़ादी की लड़ाई में अपने प्राणों का बलिदान किया था। भगतसिंह उस दौर के युवा क्रांतिकारियों के अग्रणी पथ प्रदर्शक थे । वह  महान क्रांतिकारी अमर शहीद चंद्र शेखर आज़ाद के भी अभिन्न सहयोगी थे। आर्थिक विषमता पर आधारित समाज व्यवस्था को ध्वस्त करना और समानता पर आधारित स्वतंत्र और समाजवादी भारत का निर्माण उनका सपना था।  इन क्रांतिकारियों ने देश की आज़ादी के लिए हिंदुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना की स्थापना  की थी। इस संगठन का नाम ही यह साबित करने के लिए पर्याप्त था कि लोकतंत्र और समाजवाद में देश आज़ादी के इन महान योद्धाओं की गहरी आस्था थी।
     शहीदे-ए-आज़म भगत सिंह का जन्म तत्कालीन अविभाजित गुलाम भारत के लायलपुर जिले के ग्राम बंगा में  में 27 सितम्बर 1907 को हुआ था ,  जो अब पाकिस्तान में है । हालांकि उनका पारिवारिक गाँव खटकर कला स्वतंत्र भारत के ,पंजाब प्रांत में है ,जहाँ कुछ दिनों पहले विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत से विजयी आम आदमी पार्टी की सरकार के मुखिया भगवंत मान ने अपने पद की शपथ ली थी। आज़ाद भारत के इतिहास में यह शायद पहला मौका है ,जब किसी नव निर्वाचित मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण समारोह देश के।एक महान सपूत और महान शहीद के गाँव में आयोजित किया गया।
 भगतसिंह ,सुखदेव और राजगुरू की शहादत के  करीब सोलह साल बाद अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो' वाली नीति ने 15अगस्त 1947  को भारत की आज़ादी के समय  देश का बंटवारा कर दिया ,जिनकी गलतियों से और जिनके क्षुद्र स्वार्थों से हमें एक अखंड भारत के बजाय एक खंडित भारत मिला, उन पर चर्चा करके वक्त जाया करने में अब कोई फायदा नहीं ,फिर भी किसी शायर की यह एक पंक्ति आज भी बार-बार ज़ख्मों को कुरेदा करती है –  ‘लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सज़ा पायी ‘। 
         शहीद भगतसिंह के विचारों को भी याद करें
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लेकिन आज तो हमें  अमर शहीद भगत सिंह को उनकी पुण्यतिथि  पर याद करते हुए देश और समाज को नयी दिशा  देने वाले उनके क्रांतिकारी विचारों को भी याद करना चाहिए , जिनसे यह पता चलता है कि चौबीस साल से भी कम उम्र में अपने समय के इस युवा-ह्रदय सम्राट ने क्रांतिकारी –आन्दोलनों में भूमिगत जीवन जीते हुए और जेल की सलाखों के पीछे भी हर तरह के तनावपूर्ण माहौल में धैर्य के साथ विभिन्न विषयों की किताबों का कितना गहरा अध्ययन किया और अपनी जिंदगी के आख़िरी लम्हों तक जनता को नए विचारों की नयी रौशनी देने की लगातार कोशिश की । उनका लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूँ ' हमारी दुनिया में 'ईश्वर ' के काल्पनिक अस्तित्व को लेकर उनकी क्रांतिकारी जिज्ञासाओं को प्रकट करता है। 
       
      बहरों को सुनाने ऊँची आवाज़ 
          की जरूरत होती है !
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   अंग्रेज –हुकूमत भारत की आज़ादी के आंदोलन की लगातार अनदेखी कर रही थी. दमन और दबाव का हर तरीका वह अपना रही थी और जनता की आवाज़ को  उसने जान-बूझ कर अनसुना कर दिया था. ऐसे में उस बधिर विदेशी शासक के कानों तक देशवासियों की आवाज पहुंचाने के लिए 08 अप्रेल 1929 को भगत सिंह ने दिल्ली केन्द्रीय असेम्बली में दो बम फेंके उनके सहयोगी बटुकेश्वर दत्त ने उसी वक्त असेम्बली  में भगत सिंह द्वारा लिखित पर्चा गिराया , जिसमे अंग्रेज –सरकार को हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना की तरफ से साफ़ शब्दों में यह चेतावनी दी गयी थी कि बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज़ की ज़रूरत होती है  ।
  
   दमनकारी कानूनों के ख़िलाफ़ 
  असेम्बली में किया  हल्का बम विस्फोट
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 आज़ादी के जन-आंदोलन की ओर ब्रिटिश –सरकार का ध्यान आकर्षित करने के साथ-साथ उस विदेशी –हुकूमत के सार्वजनिक-सुरक्षा विधेयक, औद्योगिक  विवाद विधेयक और अखबारों की आजादी पर अंकुश लगाने वाले दमनकारी  क़ानून जैसे जन-विरोधी कदमों का विरोध करना भी उनका उद्देश्य था , यह उस पर्चे से स्पष्ट हुआ.  उन्होंने असेम्बली में बहुत सोच-समझ कर इतनी कम शक्ति का बम फेंका , जिससे सिर्फ एक खाली बेंच को मामूली नुकसान पहुंचा और केवल छह लोग मामूली घायल हुए । यह हल्का बम विस्फोट केवल प्रतीकात्मक था। 
     . भगत सिंह का इरादा किसी  को गंभीर चोट पहुंचाना या फिर किसी की ह्त्या करना नहीं था , बल्कि वे चाहते थे कि इस हल्के धमाके के जरिए अंग्रेज सरकार के बहरे कानों तक जन-भावनाओं की अनुगूंज  तुरंत पहुँच जाए . ध्यान देने वाली एक बात यह भी है कि बम फेंकने के बाद भगत और बटुकेश्वर ने हिम्मत का परिचय देते हुए तुरंत अपनी गिरफ्तारी भी दे दी . इससे ही उनके नेक इरादे और निर्मल ह्रदय का पता चलता है.फिर भी अंग्रेजों ने इसे अपनी सरकार के खिलाफ एक युद्ध माना और उन पर राज-द्रोह का मुकदमा चलाया । 
   भगत सिंह की उम्र उस वक्त सिर्फ बाईस साल थी , जब उन्होंने  भारत माता की मुक्ति के लिए अपने क्रांतिकारी मिशन के तहत अंग्रेजों की विधान सभा में जन-भावनाओं का धमाका किया था । जेल की काल-कोठरी में भी भगत सिंह अपने क्रांतिकारी –चिंतन में लगे रहे ।
           हमें गोली से उड़ा दिया जाए !
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उन्होंने अपने साथियों –राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी पर लटकाए जाने के महज तीन दिन पहले पंजाब के गवर्नर को एक लंबा पत्र लिख कर साफ़ शब्दों में कहा –हमें फाँसी  देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए। 
              
           अंतिम युद्ध निर्णायक होगा 
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पत्र में  तीनों क्रांतिकारियों ने लिखा था ---हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी ,जब तक कि शक्तिशाली लोगों ने भारत की जनता और मेहनतकश मजदूरों की आमदनी के साधनों पर एकाधिकार कर रखा है । चाहे वे अंग्रेज-पूंजीपति हों या भारतीय पूंजीपति... ! हो सकता है कि यह लड़ाई विभिन्न दशाओं में अलग-अलग स्वरुप धारण करते हुए चले.. निकट भविष्य में अंतिम युद्ध लड़ा जाएगा ,जो निर्णायक होगा । 

साम्राज्यवाद और पूंजीवाद कुछ दिनों के मेहमान 
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साम्राज्यवाद और पूंजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं.  यही वह लड़ाई है ,जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया है और हमें इस पर गर्व है .इस युद्ध को न तो हमने शुरू किया है और न ही यह हमारे जीवन के साथ खत्म होगा .हम आपसे किसी दया की विनती नहीं करते ...हमें युद्ध-बंदी मान कर फांसी  देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए.  अपने देश के लिए मर मिटने की ऐसी चाहत देख कर  भगत और उनके साथियों के क्रांतिकारी ज़ज्बे को सलाम करने की इच्छा भला किस देश-भक्त को नहीं होगी ?
                   इंकलाब यानी प्रगति के लिए 
                   परिवर्तन की भावना 
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  समाज –नीति, राजनीति ,राष्ट्र-नीति और अर्थ-नीति सहित मानव जीवन के हर पहलू का भगत सिंह ने गहरा अध्ययन किया था  ,जो उनके वैचारिक आलेखों में साफ़ झलकता है .इन्कलाब जिंदाबाद के विचारोत्तेजक नारे को जन-जन की आवाज़ बना देने वाले भगत सिंह ने  अपने साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ 22 दिसंबर 1929 को’माडर्न-रिव्यू’ नामक पत्रिका के संपादक श्री रामानंद चट्टोपाध्याय को लिखे पत्र में यह स्पष्ट किया था कि इन्कलाब जिंदाबाद क्या है ? 
     उन्होंने इस पत्र में बहुत साफ़ शब्दों में लिखा -  इस वाक्य में इन्कलाब (क्रांति ) शब्द का अर्थ प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना और आकांक्षा है । लोग आम-तौर पर जीवन की परम्परागत दशाओं से चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार मात्र से कांपने लगते  हैं ।  यही एक अकर्मण्यता की भावना है , जिसके स्थान पर क्रांतिकारी भावना जाग्रत करने की ज़रूरत है . क्रांति की इस भावना से मानव-समाज की आत्मा स्थायी रूप से जुड़ी रहनी चाहिए. यह भी ज़रूरी है कि पुरानी व्यवस्था हमेशा न रहे और वह नयी व्यवस्था के लिए जगह खाली करती रहे .ताकि एक आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके . यही हमारा अभिप्राय है ,जिसे दिल में रख कर हम ‘इन्कलाब जिंदाबाद ‘ का नारा बुलंद करते हैं . 
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        छुआछूत की समस्या पर भगतसिंह 
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 तत्कालीन भारत की छुआ-छूत जैसी गंभीर सामाजिक –समस्या पर भी भगत सिंह ने गंभीर चिंतन के बाद एक आलेख लिखा ,जिसे उन्होंने ‘विद्रोही’ के नाम से ‘किरती’ नामक पत्रिका के जून 1928 के अंक में प्रकाशित कराया . अछूत –समस्या पर अपने विचार उन्होंने इसमें कुछ इस तरह व्यक्त किए- 
      ‘ हमारे देश जैसे बुरे हालात किसी दूसरे देश में नहीं हुए ।  यहाँ अजब-अजब सवाल उठते रहते हैं । एक अहम सवाल अछूत-समस्या का है . तीस करोड की आबादी के देश में जो छह करोड लोग अछूत कहलाते हैं , उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा ! मंदिरों में उनके प्रवेश से देवता नाराज़ हो जाएंगे, अगर वे किसी कुएं से पानी निकालेंगे ,तो वह कुआँ अपवित्र हो जाएगा ! ऐसे सवाल बीसवीं सदी में हो रहे हैं , जिन्हें सुनकर शर्म आती है. ‘ भगत सिंह ने यह आलेख अपनी उम्र के महज़ इक्कीसवें साल में लिखा था । इतनी कम उम्र में यह उनकी वैचारिक परिपक्वता का एक अनोखा उदाहरण है  ।      भगतसिंह वर्ष 1917 की महान रूसी क्रांति के नायक लेनिन के विचारों से  भी काफी प्रभावित थे। कहा जाता है कि अपनी फाँसी के कुछ घंटे पहले तक वे जेल में  लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे।
          
        झांसी की रानी की शहादत 
          भी मात्र 23 की उम्र में 
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         देश की आज़ादी का और एक समता मूलक समाज का जो सपना भगत सिंह ने देखा और जिसके लिए उन्होंने कठिन संघर्ष किया , उसके साकार होने के सोलह साल पहले ही वे अपनी कुर्बानी देकर देश और दुनिया से चले गए. यह भी एक ऐतिहासिक संयोग है कि सन 1857  के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की महान योद्धा झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की शहादत भी महज तेईस साल की उम्र में हुई और इस घटना के करीब चौहत्तर साल बाद जब सन 1931 में भगत सिंह वतन की आज़ादी के लिए फांसी के फंदे पर अपने जीवन की आहुति दे रहे थे , तब उनकी उम्र भी करीब-करीब उतनी ही थी । उनके दोनों साथी सुखदेव और राजगुरु भी इसी हल्की उम्र के आस -पास थे।
    क्या हमें अपनी आज की पीढ़ी में इतनी कम उम्र का ऐसा कोई नौजवान मिलेगा ,जो आज़ादी , लोकतंत्र और  समाजवाद जैसे गंभीर विषयों के साथ-साथ देश की अन्य ज्वलंत समस्याओं पर व्यापक सोच के साथ इतना कुछ लिख चुका हो ,जो आने वाली कई पीढ़ियों तक चर्चा का विषय बन सके ? 
  क्या अपने वतन की आज़ादी और अपने लोकतंत्र की रक्षा के लिए भगत सिंह के बताए मार्ग पर चलने का हौसला हमारे दिलों में है ?
       -- स्वराज करुण
    (फोटो : इंटरनेट से साभार )

Tuesday, March 22, 2022

भावी पीढ़ियों के लिए बचाइए नदियों और तालाबों को

(आलेख : स्वराज करुण )
 जल और वन मिलकर ही न सिर्फ़ जीवन का निर्माण करते हैं ,बल्कि उसकी रक्षा भी करते हैं। थोड़ा समय निकाल कर हमें अपने आस पास के तमाम जल स्रोतों के संरक्षण और उनकी शुद्धता के बारे में सोचना चाहिए। स्थानीय तालाबों और नदी --नालों की हालत पर विचार करना चाहिए। 
    अच्छी सेहत के लिए अच्छी हवा के साथ अच्छा यानी साफ पानी भी जरूरी है। आज की दुनिया में कई बीमारियाँ वायु प्रदूषण और जल -प्रदूषण के कारण भी हो रही हैं। जब हमारे नदी -नाले प्रदूषित होंगे तो समुद्रों को प्रदूषित होने से भला कौन बचा पाएगा ? उनका पानी तो आखिर इन्हीं समुद्रों में ही जाता है।  आधुनिक जीवन शैली का अभिन्न अंग बन चुके प्लास्टिक और पॉलीथिन से भी जल प्रदूषण का कारण बन रहे है।  अब समुद्रों के भीतर भी प्लास्टिक और पॉलीथिन के पहाड़  खड़े होने लगे हैं। देर सबेर इसका भी खमियाजा हमें भुगतना ही पड़ेगा ।

                  

     कई नदियाँ ,कई बरसाती नाले और कई तालाब प्रदूषण के कारण मरणासन्न होते जा रहे हैं। भूमिगत जल स्तर के लगातार घटते चले जाने का भी यह एक मुख्य कारण है। नलकूपों और हैंडपम्पों के इस आधुनिक  युग में  कुओं को तो हम लगभग भूल ही चुके हैं ,जबकि भू -जल स्तर को बनाए और बचाए रखने में कुओं का भी बड़ा योगदान रहता था। 
      
विलुप्त हो रही सामूहिक श्रमदान की संस्कृति
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जल स्रोतों की साफ -सफाई के लिए पहले सामूहिक श्रमदान भी होता था। लेकिन जन -सहयोग पर आधारित श्रमदान की वह शानदार संस्कृति भी अब लगभग विलुप्त -सी हो गयी है और लगता है कि सब कुछ सरकारों के भरोसे छोड़ दिया गया है । सरकारी मदद एक सीमा तक हो सकती है ,लेकिन क्या नागरिक होने के नाते हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं बनती ? हमें अपनी न सही ,लेकिन आने वाली पीढ़ियों के लिए भी तो सोचना चाहिए। हम उनके जीवन के लिए कैसा जल स्रोत छोड़कर जाएंगे ? बारिश के पानी को सहेजने के लिए भी जल स्रोतों को स्वच्छ बनाए रखना जरूरी है।          नदी -नाले और तालाब हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग रहे हैं । कई तरह के महत्वपूर्ण धार्मिक अनुष्ठान इन्हीं के किनारे पर आयोजित होते हैं। कई देवी देवताओं के मंदिर भी इन्हीं के तट पर स्थित होते हैं।  
  भक्त लोग धार्मिक मामलों में जितने संवेदनशील बनते हैं , तथाकथित धर्म रक्षा के लिए  मरने -मारने पर उतारू हो जाते हैं ,उतनी संवेदनशीलता  अपने इन  पवित्र स्थलों के आस -पास के जल स्रोतों की साफ -सफाई के लिए क्यों नहीं दिखाते ? कई तालाबों के  आस पास रहने वाले लोग ही उनके किनारे  अपने घरों का कचरा डालते रहते हैं। 
    
 तालाबों  की छाती पर 
 सीमेंट -कांक्रीट के पहाड़ 
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पिछले कुछ वर्षों में देश के  कई शहरों में कुछ  अदृश्य ताकतों  ने  बड़ी चालाकी से पुराने और ऐतिहासिक
तालाबों की भूमि पर कचरा डाल डाल कर उन्हें पटवा  दिया  और मौका देखकर उनमें शॉपिंग कॉम्प्लेक्स या आवासीय   कॉलोनियाँ भी खड़ी कर दी ! जब तालाबों की छाती पर मानव निर्मित सीमेंट -कांक्रीट के पहाड़ खड़े हो जाएंगे ,तब ऐसे में शहरों का भू -जल स्तर भला कैसे बढ पाएगा ?

     क्या से क्या हो गए हमारे नदी -तालाब ?
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     जरा सोचिए , पहले हमारे गाँवों और शहरों में  कितने तालाब थे और आज कितने हैं ? क्या से क्या हो गए हमारे नदी -तालाब ?कई कस्बों और शहरों में तो बसाहटों की  नालियों का अंतिम छोर  तालाबों से जोड़कर पूरा गंदा पानी उनमें डाल दिया जाता है । कई शहरों की नालियाँ भी नदियों से   जोड़कर शहर भर का गंदा पानी उनमें बहा दिया जाता है। गंगा यमुना जैसी पवित्र नदियों के किनारे संचालित कई उद्योगों का गंदा पानी उनमें मिलने की वजह से ये नदियाँ भी जल प्रदूषण की बीमारी से पीड़ित हैं। हालांकि उन्हें प्रदूषण से बचाने के प्रयास भी हो रहे हैं।  लेकिन कुछ एक शहरों को छोड़कर अधिकांश इलाकों में ठोस पहल नज़र नहीं आ रही है। 
         
       इंदौर में हुई अनुकरणीय पहल :
        दो नदियों को नया जीवन 
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कुछ शहरों में इसके लिए जरूर सराहनीय और अनुकरणीय पहल भी हो रही है।जैसे मध्यप्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर में कान्ह और सरस्वती नामक दो छोटी नदियों को प्रदूषण से मुक्त कर उन्हें नया जीवन दिया गया है। इस बड़ी कामयाबी की कहानी मुझे   दैनिक नईदुनिया में 15 मार्च 2022 में पढ़ने को मिली।
कान्ह की लम्बाई 21 किलोमीटर और सरस्वती की 15 किलोमीटर है।  इंदौर शहर के 5500 बड़े और 1800 छोटे तथा घरेलू नालों का गंदा पानी इन दोनों नदियों में बहाया जाता था। इसके फलस्वरूप दोनों मरणासन्न हो चुकी थीं। इनसे जुड़े शहरी गंदे पानी के नालों को बंद कर दिया गया ताकि नदियों को स्वच्छ बनाया जा सके। 
    गंदे पानी के उपचार के लिए उसे 7 सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांटों में भेजकर उसकी सफाई की जाती है और   इस स्वच्छ जल को दोनों नदियों में प्रवाहित किया जाता है। सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांटों में उपचारित 312 एमएलडी पानी हर रोज दोनों नदियों में पहुँचता है। सरस्वती नदी वर्ष 1970 तक एकदम स्वच्छ रहती थी । अब वह अपने उसी पुराने निर्मल स्वरूप में लौट आयी है। इसी तरह 21 किलोमीटर लम्बी कान्ह नदी का अधिकांश हिस्सा भी स्वच्छ हो चुका है । इसके लिए इंदौर नगर निगम की सराहना की जानी चाहिए। वैसे भी स्वच्छ भारत अभियान के तहत इंदौर लगातार देश का सर्वाधिक साफ -सुथरा शहर बना हुआ है । इसके लिए उसे कई बार राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुके हैं। इस बार केन्द्र ने उसे इन नदियों को प्रदूषण मुक्त करने शहरी आबादी को स्वच्छ जल आपूर्ति के लिए भी वाटर -प्लस नगर निगम के रूप में  सम्मानित किया है।
       उल्लेखनीय है कि भारत सरकार ने देश के प्रमुख शहरों  को जल प्रदूषण से बचाने के लिए अमृत योजना की शुरुआत की है।इस योजना के तहत नगर निगमों को केन्द्र  से आर्थिक सहायता भी मिलती है। इंदौर नगर निगम ने अपनी दोनों नदियों के पुनर्जीवन के लिए इस योजना से भी राशि प्राप्त की।  महानगर के गंदे पानी की निकासी व्यवस्था के बेहतर बनाने के लिए अमृत मिशन के तहत 220 करोड़ रुपए खर्च कर सीवरेज नेटवर्क का विस्तार किया गया और 7 सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट बनाए गए। जल स्रोतों को बचाने और स्वच्छ बनाने की दिशा में इंदौर वालों का यह निश्चित रूप से प्रेरणादायक है।बशर्ते आज विश्व जल दिवस के मौके पर  हम सब उनसे प्रेरणा ल सकें।
     -- स्वराज करुण

Monday, March 21, 2022

कटते जंगल : उजड़ती दुनिया


(आलेख : स्वराज करुण)

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  धरती पर जीवन भी तब तक है जब तक हरे -भरे वन हैं। लेकिन आधुनिकता के इस दौर में तीव्र शहरीकरण और बेतहाशा और बेतरतीब औद्योगिक विकास की वजह से  जंगल कट रहे हैं और हमारी नैसर्गिक दुनिया उजड़ रही है। उसके बदले जो दुनिया बन रही है ,वह प्राकृतिक नहीं ,बनावटी है। फलस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग की समस्या हमारे सामने है। हर साल 21 मार्च को विश्व वानिकी दिवस मनाया जाता है । इस मौके पर वनों की रक्षा और उनके विस्तार में आ रही समस्याओं और चुनौतियों के बारे में  गंभीरता से विचार करना बहुत जरूरी है। वनों का हरा -भरा नैसर्गिक सौन्दर्य सबको आकर्षित करता है , लेकिन सवाल यह है कि उनकी सुरक्षा की चिन्ता कितने लोग करते हैं ?  इन दिनों वसंत के इस फागुनी मौसम में सड़कों के किनारे के जंगलों में किंशुक यानी पलाश (टेसू )के खिलते लाल सुर्ख़ फूल  हर आने जाने वाले के मन को लुभा रहे हैं। 
                     

    लेकिन ऐसे लुभावने दृश्य अब कहीं -कहीं पर ही बाकी रह गए हैं। सड़कों के चौड़ीकरण और नई सड़कों के निर्माण के लिए उनके दोनों किनारों के प्राकृतिक पेड़ों की कटाई करनी पड़ती है। इस वजह से बड़ी संख्या में  पलाश जैसे कई उपयोगी वृक्ष कट जाते हैं। उनके स्थान पर उन्हीं सड़कों के किनारे नये पेड़ लगाने के लिए सुरक्षित तरीके से सघन पौध रोपण किया जाना चाहिए। वरना पलाश जैसे कई  ख़ूबसूरत वृक्षों की प्रजातियाँ विलुप्त हो जाएंगी। यह दृश्य छत्तीसगढ़ के महासमुन्द जिले के अंतर्गत महासमुन्द -बागबाहरा मार्ग का है।
                


            वर्तमान में कहीं बेमौसम बारिश तो कभी मानसून की बेरुख़ी सम्पूर्ण विश्व को परेशान कर रही है ।कहीं बड़ी -बड़ी फैक्ट्रियों की चिमनियों से निकलते धुएँ से हवा दूषित हो रही है तो उनके जहरीले पानी से नदियाँ गंभीर रूप से बीमार हो रही हैं।  कहीं परमाणु परीक्षणों से होने वाले विषैले विकिरणों  से और कहीं दुनिया के कुछ देशों में चल रही  भयंकर लड़ाइयों  में बमों और मिसाइलों के पागलपन भरे इस्तेमाल से भी धरती का वायुमंडल  प्रदूषित हो रहा है। इन सब प्रदूषणों का दुष्प्रभाव दुनिया के हरे -भरे वनों पर भी पड़ रहा है। इंसानी आबादी बढ़ रही है। इसके फलस्वरूप  मानवीय जरूरतों के लिए वनों पर भी इस आबादी का दबाव बढ़ रहा है।
    वनों की अंधाधुंध कटाई से वन्य प्राणियों का जीवन भी संकट में पड़ता जा रहा है।  उनके लिए चारे और पानी का संकट बढ़ रहा है। इसे हम अपने देश में  भी महसूस कर सकते हैं। प्राकृतिक वनों के असंतुलित दोहन से वन्य जीवों का वहाँ रहना बहुत मुश्किल होता जा रहा है। इस वजह से वो  भोजन और पानी की तलाश में गाँवों और शहरों तक पहुँच रहे हैं।  देश के कई इलाकों में हाथियों ,भालुओं और बंदरों का मानव -बस्तियों में आकर फसलों और कच्चे मकानों को नुकसान पहुँचाना चिन्ताजनक है। कई बार  जंगली हाथियों के झुण्ड ग्रामीणों की जान के दुश्मन बन जाते हैं। अगर इन इलाकों में सघन वन होते तो शायद इन जंगली जानवरों को मनुष्यों की बसाहटों में ख़तरनाक ढंग से दस्तक नहीं देनी पड़ती।  मानव आबादी वाले इलाकों में लोग अब  बंदरों का उत्पात झेलने के भी अभ्यस्त हो चुके हैं।  
        स्वच्छ हवा , स्वच्छ पानी और  बहुमूल्य वनौषधियों सहित  वनों के हम पर ढेरों एहसान हैं।  इसलिए वनों को उजाड़ कर हमें एहसानफरामोश नहीं बनना चाहिए । वनौषधियों की बात चली तो हमें सोचना चाहिए कि कोरोना सहित कई बीमारियों से बचाव के लिए भी वनों में दवाइयों की संभावनाओं को खँगाला जा सकता है । आयुर्वेद ,होम्योपैथी और यूनानी चिकित्सा पद्धतियों में जिन दवाइयों का इस्तेमाल होता है , उनका मुख्य स्रोत कई तरह के पेड़ -पौधे ही होते हैं।वनों का संरक्षण और विस्तार होगा तो इन पद्धतियों के  तहत चिकित्सा  अनुसंधान  और दवाइयों के उत्पादन के लिए भी एक अच्छा वातावरण बनेगा । वन क्षेत्रों के आस -पास के गाँवों में रहने वाले लोग शहरी इलाकों के लोगों की तुलना में अधिक स्वस्थ रहते हैं। यह भी चिकित्सा वैज्ञानिकों के लिए रिसर्च का विषय हो सकता है।
    आपने ध्यान दिया होगा कि देश के कई  राज्यों में हर साल    गर्मी के मौसम में वनों में आग लग जाती है। कई बार तो यह आग पहाड़ियों में भी धधकने लगती है।कभी वनों के रास्ते गुजरते मुसाफिरों द्वारा बीड़ी ,सिगरेट के अधजले टुकड़े लापरवाही से फेंक देने के कारण और कभी  महुआ बीनने वाले ग्रामीणों द्वारा भालू आदि वन्य जीवों को दूर रखने के लिए सूखे पत्तों को बेतरतीबी से जलाने के कारण वनों में आग फैल जाती  है। कभी जंगलों की अवैध कटाई करने वाले लकड़ी तस्कर जानबूझकर वनों में आग सुलगा देते हैं।   कभी सड़क निर्माण सहित कई अन्य विकास परियोजनाओं के लिए और उद्योगों के लिए आधिकारिक रूप से वनों की कटाई की जाती है।  जितने वन काटे जाते हैं ,उनकी भरपाई के लिए राष्ट्रीय स्तर पर क्षति पूर्ति पौध रोपण की भी योजना है ,लेकिन काटे गए चालीस -पचास साल और सौ -सौ साल पुराने पेड़ों की तुलना में  भरपाई के लिए जो पौधे लगाए जाते हैं ,उनके वृक्ष बनने में भी कई साल लग जाते हैं। इसके अलावा इन पौधों की अगर बेहतर देखभाल नहीं हुई तो ये असमय ही मौत का शिकार हो जाते हैं।। 
     हालांकि भारत सरकार सहित सभी राज्य सरकारें वनों की रक्षा और उनके विकास के लिए सजग और सक्रिय रहती हैं। वन संरक्षण के कई अच्छे प्रोजेक्ट भी चल रहे हैं । लेकिन जब तक सबकी भागीदारी नहीं होगी , किसी भी योजना अथवा परियोजना को कोई भी सरकार अकेले नहीं चला सकती । उसमें जनता का सहयोग भी जरूरी होता है।।
अक्सर देखा जाता है कि वन विभाग हर साल  बारिश के मौसम में वन महोत्सवों का आयोजन करके आम जनता और स्कूल -कॉलेजों के विद्यार्थियों की भागीदारी से करोड़ों पौधे लगवाता है ,लेकिन नियमित देखरेख नहीं होने के कारण ये पौधे कुम्हलाकर धरती में समा जाते हैं  या फिर लावारिस गाय -बैलों और बकरे -बकरियों का भोजन बन जाते हैं।  
भारत सरकार की  संयुक्त वन प्रबंधन योजना भी एक अच्छी योजना है। इसके तहत देश के सभी प्रांतों में राज्य सरकारों ने ग्रामीणों की भागीदारी से वन प्रबंध समितियों का गठन किया है। इनमें लाखों -करोड़ों ग्रामीण जन सदस्य के रूप में शामिल हैं।  इन समितियों पर भी वनों की देखभाल की ज़िम्मेदारी है। सरकार भी इनकी मदद करती है। जहाँ ये समितियाँ जागरूक हैं,वहाँ वनों का प्रबंधन बेहतर ढंग से हो रहा है ।कई इलाकों की वन समितियों में  वनौषधियों का भी उत्पादन हो रहा है 
  विगत कुछ वर्षों में अमेरिका ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना और ब्राजील के प्राकृतिक वनों  में आग से हज़ारों वर्ग किलोमीटर के दायरे में वनों को  भयानक नुकसान हो चुका है ।  पता नहीं किसकी लापरवाही से यह  नुकसान हुआ ? बहरहाल , उम्मीद की जानी चाहिए कि  दुनिया के सभी देश इस बारे में गंभीरता से विचार करेंगे ,सबके प्रयासों से धरती पर वनों का विनाश रुकेगा  और  हमारे वनों , वन्य प्राणियों और  हम मनुष्यों का  जीवन  फिर से हरा -भरा होगा ।
     --- स्वराज करुण
      (पत्रकार एवं ब्लॉगर )