(आलेख - स्वराज करुण )
जवानी की दहलीज पर आज के ज्यादातर युवा हसीन सपनों की रंगीन दुनिया में खोए रहते हैं और इस आधुनिक दौर में मोबाइल फोन पर वाट्सएप यूनिवर्सिटी के अधकचरे ज्ञान में भी उलझे रहते हैं । वे किसी भी तरीके से फोकट में धन कमाने के चक्कर में स्वार्थी नेताओं के दुमछल्ले बनकर उनके आगे -पीछे घूमते रहते हैं । हमारे आज के अधिकांश युवा काले धन के ग्लैमर और प्रचार तंत्र के दम पर महान नज़र आते नेताओं और फ़िल्मी अभिनेताओं को आदर्श मानकर अपना करियर बर्बाद कर लेते हैं , महँगाई ,गरीबी और बेरोजगारी के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने के बजाय वो बेतुके धार्मिक नारों के जहरीले मायाजाल में उलझे रहते हैं। ऐसे में उन्हें कहाँ फिक्र होगी कि आज हम 135 करोड़ देशवासियों के गाढ़े पसीने की कमाई मुट्ठी भर पूंजीपतियों की तिजोरियों में कैद है और शिक्षा और चिकित्सा सुविधाएँ महँगी से महँगी होती जा रही हैं ? क्या उन्हें मालूम है कि आज देश में सामाजिक न्याय और आर्थिक आज़ादी का सपना महज़ सपना बनकर रह गया है ,जिनके बिना देश की राजनीतिक आज़ादी निरर्थक है ?
लेकिन उम्र के ऐसे नाजुक दौर में आज से 91 साल पहले हमारे ही देश के तीन युवा क्रांतिकारियों ने वतन की आज़ादी के लिए क्रांति की राह पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिए,जिन्हें तत्कालीन परिस्थितियों में भी इस प्रकार की ज्वलंत समस्याओं की गहरी समझ थी। क्या आज की युवा पीढ़ी उनसे कुछ प्रेरणा ग्रहण कर पाएगी ?उनके बलिदानों से देशवासियों को राजनीतिक आज़ादी तो मिल गयी ,लेकिन सामाजिक -आर्थिक आज़ादी का मिलना अभी बाकी है।
अग्रणी पथ -प्रदर्शक
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आज 23 मार्च को उन्हीं तीन अमर शहीदों -- भगत सिंह ,सुखदेव और राजगुरु की शहादत को याद करने का दिन है ।आज ही के दिन 1931 में लाहौर के केन्द्रीय जेल में तीनों ने इंकलाब ज़िंदाबाद का उद्घोष करते हुए हँसते-हँसते फाँसी के फंदे पर लटककर आज़ादी की लड़ाई में अपने प्राणों का बलिदान किया था। भगतसिंह उस दौर के युवा क्रांतिकारियों के अग्रणी पथ प्रदर्शक थे । वह महान क्रांतिकारी अमर शहीद चंद्र शेखर आज़ाद के भी अभिन्न सहयोगी थे। आर्थिक विषमता पर आधारित समाज व्यवस्था को ध्वस्त करना और समानता पर आधारित स्वतंत्र और समाजवादी भारत का निर्माण उनका सपना था। इन क्रांतिकारियों ने देश की आज़ादी के लिए हिंदुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना की स्थापना की थी। इस संगठन का नाम ही यह साबित करने के लिए पर्याप्त था कि लोकतंत्र और समाजवाद में देश आज़ादी के इन महान योद्धाओं की गहरी आस्था थी।
शहीदे-ए-आज़म भगत सिंह का जन्म तत्कालीन अविभाजित गुलाम भारत के लायलपुर जिले के ग्राम बंगा में में 27 सितम्बर 1907 को हुआ था , जो अब पाकिस्तान में है । हालांकि उनका पारिवारिक गाँव खटकर कला स्वतंत्र भारत के ,पंजाब प्रांत में है ,जहाँ कुछ दिनों पहले विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत से विजयी आम आदमी पार्टी की सरकार के मुखिया भगवंत मान ने अपने पद की शपथ ली थी। आज़ाद भारत के इतिहास में यह शायद पहला मौका है ,जब किसी नव निर्वाचित मुख्यमंत्री का शपथ ग्रहण समारोह देश के।एक महान सपूत और महान शहीद के गाँव में आयोजित किया गया।
भगतसिंह ,सुखदेव और राजगुरू की शहादत के करीब सोलह साल बाद अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो' वाली नीति ने 15अगस्त 1947 को भारत की आज़ादी के समय देश का बंटवारा कर दिया ,जिनकी गलतियों से और जिनके क्षुद्र स्वार्थों से हमें एक अखंड भारत के बजाय एक खंडित भारत मिला, उन पर चर्चा करके वक्त जाया करने में अब कोई फायदा नहीं ,फिर भी किसी शायर की यह एक पंक्ति आज भी बार-बार ज़ख्मों को कुरेदा करती है – ‘लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सज़ा पायी ‘।
शहीद भगतसिंह के विचारों को भी याद करें
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लेकिन आज तो हमें अमर शहीद भगत सिंह को उनकी पुण्यतिथि पर याद करते हुए देश और समाज को नयी दिशा देने वाले उनके क्रांतिकारी विचारों को भी याद करना चाहिए , जिनसे यह पता चलता है कि चौबीस साल से भी कम उम्र में अपने समय के इस युवा-ह्रदय सम्राट ने क्रांतिकारी –आन्दोलनों में भूमिगत जीवन जीते हुए और जेल की सलाखों के पीछे भी हर तरह के तनावपूर्ण माहौल में धैर्य के साथ विभिन्न विषयों की किताबों का कितना गहरा अध्ययन किया और अपनी जिंदगी के आख़िरी लम्हों तक जनता को नए विचारों की नयी रौशनी देने की लगातार कोशिश की । उनका लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूँ ' हमारी दुनिया में 'ईश्वर ' के काल्पनिक अस्तित्व को लेकर उनकी क्रांतिकारी जिज्ञासाओं को प्रकट करता है।
बहरों को सुनाने ऊँची आवाज़
की जरूरत होती है !
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अंग्रेज –हुकूमत भारत की आज़ादी के आंदोलन की लगातार अनदेखी कर रही थी. दमन और दबाव का हर तरीका वह अपना रही थी और जनता की आवाज़ को उसने जान-बूझ कर अनसुना कर दिया था. ऐसे में उस बधिर विदेशी शासक के कानों तक देशवासियों की आवाज पहुंचाने के लिए 08 अप्रेल 1929 को भगत सिंह ने दिल्ली केन्द्रीय असेम्बली में दो बम फेंके उनके सहयोगी बटुकेश्वर दत्त ने उसी वक्त असेम्बली में भगत सिंह द्वारा लिखित पर्चा गिराया , जिसमे अंग्रेज –सरकार को हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना की तरफ से साफ़ शब्दों में यह चेतावनी दी गयी थी कि बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज़ की ज़रूरत होती है ।
दमनकारी कानूनों के ख़िलाफ़
असेम्बली में किया हल्का बम विस्फोट
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आज़ादी के जन-आंदोलन की ओर ब्रिटिश –सरकार का ध्यान आकर्षित करने के साथ-साथ उस विदेशी –हुकूमत के सार्वजनिक-सुरक्षा विधेयक, औद्योगिक विवाद विधेयक और अखबारों की आजादी पर अंकुश लगाने वाले दमनकारी क़ानून जैसे जन-विरोधी कदमों का विरोध करना भी उनका उद्देश्य था , यह उस पर्चे से स्पष्ट हुआ. उन्होंने असेम्बली में बहुत सोच-समझ कर इतनी कम शक्ति का बम फेंका , जिससे सिर्फ एक खाली बेंच को मामूली नुकसान पहुंचा और केवल छह लोग मामूली घायल हुए । यह हल्का बम विस्फोट केवल प्रतीकात्मक था।
. भगत सिंह का इरादा किसी को गंभीर चोट पहुंचाना या फिर किसी की ह्त्या करना नहीं था , बल्कि वे चाहते थे कि इस हल्के धमाके के जरिए अंग्रेज सरकार के बहरे कानों तक जन-भावनाओं की अनुगूंज तुरंत पहुँच जाए . ध्यान देने वाली एक बात यह भी है कि बम फेंकने के बाद भगत और बटुकेश्वर ने हिम्मत का परिचय देते हुए तुरंत अपनी गिरफ्तारी भी दे दी . इससे ही उनके नेक इरादे और निर्मल ह्रदय का पता चलता है.फिर भी अंग्रेजों ने इसे अपनी सरकार के खिलाफ एक युद्ध माना और उन पर राज-द्रोह का मुकदमा चलाया ।
भगत सिंह की उम्र उस वक्त सिर्फ बाईस साल थी , जब उन्होंने भारत माता की मुक्ति के लिए अपने क्रांतिकारी मिशन के तहत अंग्रेजों की विधान सभा में जन-भावनाओं का धमाका किया था । जेल की काल-कोठरी में भी भगत सिंह अपने क्रांतिकारी –चिंतन में लगे रहे ।
हमें गोली से उड़ा दिया जाए !
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उन्होंने अपने साथियों –राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी पर लटकाए जाने के महज तीन दिन पहले पंजाब के गवर्नर को एक लंबा पत्र लिख कर साफ़ शब्दों में कहा –हमें फाँसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए।
अंतिम युद्ध निर्णायक होगा
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पत्र में तीनों क्रांतिकारियों ने लिखा था ---हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी ,जब तक कि शक्तिशाली लोगों ने भारत की जनता और मेहनतकश मजदूरों की आमदनी के साधनों पर एकाधिकार कर रखा है । चाहे वे अंग्रेज-पूंजीपति हों या भारतीय पूंजीपति... ! हो सकता है कि यह लड़ाई विभिन्न दशाओं में अलग-अलग स्वरुप धारण करते हुए चले.. निकट भविष्य में अंतिम युद्ध लड़ा जाएगा ,जो निर्णायक होगा ।
साम्राज्यवाद और पूंजीवाद कुछ दिनों के मेहमान
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साम्राज्यवाद और पूंजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं. यही वह लड़ाई है ,जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया है और हमें इस पर गर्व है .इस युद्ध को न तो हमने शुरू किया है और न ही यह हमारे जीवन के साथ खत्म होगा .हम आपसे किसी दया की विनती नहीं करते ...हमें युद्ध-बंदी मान कर फांसी देने के बजाय गोली से उड़ा दिया जाए. अपने देश के लिए मर मिटने की ऐसी चाहत देख कर भगत और उनके साथियों के क्रांतिकारी ज़ज्बे को सलाम करने की इच्छा भला किस देश-भक्त को नहीं होगी ?
इंकलाब यानी प्रगति के लिए
परिवर्तन की भावना
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समाज –नीति, राजनीति ,राष्ट्र-नीति और अर्थ-नीति सहित मानव जीवन के हर पहलू का भगत सिंह ने गहरा अध्ययन किया था ,जो उनके वैचारिक आलेखों में साफ़ झलकता है .इन्कलाब जिंदाबाद के विचारोत्तेजक नारे को जन-जन की आवाज़ बना देने वाले भगत सिंह ने अपने साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ 22 दिसंबर 1929 को’माडर्न-रिव्यू’ नामक पत्रिका के संपादक श्री रामानंद चट्टोपाध्याय को लिखे पत्र में यह स्पष्ट किया था कि इन्कलाब जिंदाबाद क्या है ?
उन्होंने इस पत्र में बहुत साफ़ शब्दों में लिखा - इस वाक्य में इन्कलाब (क्रांति ) शब्द का अर्थ प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना और आकांक्षा है । लोग आम-तौर पर जीवन की परम्परागत दशाओं से चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार मात्र से कांपने लगते हैं । यही एक अकर्मण्यता की भावना है , जिसके स्थान पर क्रांतिकारी भावना जाग्रत करने की ज़रूरत है . क्रांति की इस भावना से मानव-समाज की आत्मा स्थायी रूप से जुड़ी रहनी चाहिए. यह भी ज़रूरी है कि पुरानी व्यवस्था हमेशा न रहे और वह नयी व्यवस्था के लिए जगह खाली करती रहे .ताकि एक आदर्श व्यवस्था संसार को बिगड़ने से रोक सके . यही हमारा अभिप्राय है ,जिसे दिल में रख कर हम ‘इन्कलाब जिंदाबाद ‘ का नारा बुलंद करते हैं .
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छुआछूत की समस्या पर भगतसिंह
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तत्कालीन भारत की छुआ-छूत जैसी गंभीर सामाजिक –समस्या पर भी भगत सिंह ने गंभीर चिंतन के बाद एक आलेख लिखा ,जिसे उन्होंने ‘विद्रोही’ के नाम से ‘किरती’ नामक पत्रिका के जून 1928 के अंक में प्रकाशित कराया . अछूत –समस्या पर अपने विचार उन्होंने इसमें कुछ इस तरह व्यक्त किए-
‘ हमारे देश जैसे बुरे हालात किसी दूसरे देश में नहीं हुए । यहाँ अजब-अजब सवाल उठते रहते हैं । एक अहम सवाल अछूत-समस्या का है . तीस करोड की आबादी के देश में जो छह करोड लोग अछूत कहलाते हैं , उनके स्पर्श मात्र से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा ! मंदिरों में उनके प्रवेश से देवता नाराज़ हो जाएंगे, अगर वे किसी कुएं से पानी निकालेंगे ,तो वह कुआँ अपवित्र हो जाएगा ! ऐसे सवाल बीसवीं सदी में हो रहे हैं , जिन्हें सुनकर शर्म आती है. ‘ भगत सिंह ने यह आलेख अपनी उम्र के महज़ इक्कीसवें साल में लिखा था । इतनी कम उम्र में यह उनकी वैचारिक परिपक्वता का एक अनोखा उदाहरण है । भगतसिंह वर्ष 1917 की महान रूसी क्रांति के नायक लेनिन के विचारों से भी काफी प्रभावित थे। कहा जाता है कि अपनी फाँसी के कुछ घंटे पहले तक वे जेल में लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे।
झांसी की रानी की शहादत
भी मात्र 23 की उम्र में
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देश की आज़ादी का और एक समता मूलक समाज का जो सपना भगत सिंह ने देखा और जिसके लिए उन्होंने कठिन संघर्ष किया , उसके साकार होने के सोलह साल पहले ही वे अपनी कुर्बानी देकर देश और दुनिया से चले गए. यह भी एक ऐतिहासिक संयोग है कि सन 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की महान योद्धा झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की शहादत भी महज तेईस साल की उम्र में हुई और इस घटना के करीब चौहत्तर साल बाद जब सन 1931 में भगत सिंह वतन की आज़ादी के लिए फांसी के फंदे पर अपने जीवन की आहुति दे रहे थे , तब उनकी उम्र भी करीब-करीब उतनी ही थी । उनके दोनों साथी सुखदेव और राजगुरु भी इसी हल्की उम्र के आस -पास थे।
क्या हमें अपनी आज की पीढ़ी में इतनी कम उम्र का ऐसा कोई नौजवान मिलेगा ,जो आज़ादी , लोकतंत्र और समाजवाद जैसे गंभीर विषयों के साथ-साथ देश की अन्य ज्वलंत समस्याओं पर व्यापक सोच के साथ इतना कुछ लिख चुका हो ,जो आने वाली कई पीढ़ियों तक चर्चा का विषय बन सके ?
क्या अपने वतन की आज़ादी और अपने लोकतंत्र की रक्षा के लिए भगत सिंह के बताए मार्ग पर चलने का हौसला हमारे दिलों में है ?
-- स्वराज करुण
(फोटो : इंटरनेट से साभार )