Sunday, September 8, 2024

(पुस्तक- चर्चा ) माटी-महतारी से जुड़ी कविताएँ

एकान्त श्रीवास्तव का कविता -संग्रह 'अँजोर' ****** आलेख - स्वराज करुण **** छत्तीसगढ़ी नई कविताओं के हिंदी अनुवाद सहित एकान्त श्रीवास्तव का नया संग्रह 'अँजोर' अपने शीर्षक के अनुरूप कविता की दुनिया में नई रौशनी लेकर आया है। संग्रह में 42 छत्तीसगढ़ी कविताओं के साथ -साथ उनके हिन्दी अनुवाद भी दिए गए हैं। यानी एक पृष्ठ पर छत्तीसगढ़ी तो दूसरे पृष्ठ पर उसका हिंदी अनुवाद। देखा जाए तो यह उनका एक नया प्रयोग है।इन छत्तीसगढ़ी नई कविताओं का हिंदी अनुवाद भी स्वयं कवि एकान्त श्रीवास्तव ने किया है। हिंदी की सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका 'वागर्थ ' के नौ साल तक सम्पादक रहे एकान्त छत्तीसगढ़ में ही जन्मे और पले-बढ़े हैं। राजिम के पास ग्राम कोमा में उनका बचपन बीता। आगे चलकर वह भारत सरकार के राजभाषा विभाग में अधिकारी बने । फरवरी 2024 में सेवानिवृत्त हो चुके हैं। अभी दिल्ली में रहते हैं। हिंदी जगत के प्रसिद्ध कवि होने के साथ -साथ वह कहानीकार और समीक्षक भी हैं। छत्तीसगढ़ी भाषा में आधुनिक शैली की अतुकांत कविताएँ लिखने वालों की संख्या काफी कम है । ऐसे में एकान्त श्रीवास्तव की ये कविताएँ अनायास पाठकों का ध्यान आकर्षित करती हैं ,जो हमारी माटी-महतारी से जुड़ी हुई हैं।
प्रकाशन संस्थान ,नईदिल्ली द्वारा पिछले वर्ष 2023 में प्रकाशित उनका यह संग्रह 'अँजोर' 168 पृष्ठों का है, जिसे उन्होंने उन्हीं के शब्दों में कवि त्रिलोचन (शास्त्री ) की अवधी में रचित काव्य -कृति 'अमोला' को और छत्तीसगढ़ की मिट्टी ,जिसका नाम कन्हार है और इसके सीधे-सच्चे रहवासियों को और कोरोना काल में खो गए तमाम प्रियजनों और कवि -लेखक बंधुओं को याद करते हुए समर्पित किया है। चूंकि एकान्त छत्तीसगढ़ में जन्मे और यहाँ के ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े हैं , इसलिए उनके इस संग्रह में छत्तीसगढ़ के गाँवों की और यहाँ के लोकजीवन की सोंधी महक महसूस की जा सकती है। संग्रह में 'मनुख के गीत गाओ ' शीर्षक से 21 पृष्ठों की भूमिका जयप्रकाश ने लिखी है, जिसमें उन्होंने एकान्त की इन कविताओं के बारे में विस्तार से प्रकाश डाला है। कवि एकांत 'इन कविताओं के बारे में' शीर्षक अपने आत्मकथ्य में कहते हैं -"इनमें झाँक रहा गाँव एक भूला-बिसरा गाँव है ,जो अब आधा ही बचा है।कला या कविता उस आधे खो गये गाँव की खोज का ही रचनात्मक प्रयत्न है। उस गाँव और उस जीवन के साथ मूल्य भी पीछे छूट गये हैं,जो जीवन और सभ्यता के प्रत्येक समय आधार स्तंभ हैं।इस तरह परम्परा अधुनातन होती है । भारतीय संस्कृति के 'अग्राह्य' को त्यागकर ग्राह्य को स्वीकार करना ही कविता और समाज का धर्म है ।" कवि एकान्त के शब्दों में -"हिंदी की बड़ी कविता बोली की कविता है । " संग्रह में एकान्त की पहली छत्तीसगढ़ी कविता 'पियास ' (प्यास) का एक अंश देखिए - "फूल के रस ल फुलचुहकी पीथे /आँसू ल पीथे महतारी , मइनसे के लहू ल टोनही चुहकथे / गौंटिया ह पी थे गरीब के पछीना । कोन पानी ल पियँव के /माढ़ जाए मोरो पियास , कोन रद्दा जाँव / तैं मोला बता दे , कोन गाँव ,कही दे संगवारी । कुँवार के घाम म देहे करियागे /भुंजागे सब्बो बन -कांदी, अंतस के दोना म मया के पानी / एक घुटका पी लेतेंव त तर जातेंव । कवि ने वर्ष 2002 की अपनी इस कविता की इन पंक्तियों का हिंदी अनुवाद इस तरह किया है - "फूल के रस को फूलचुहकी पीती है , आँसू को पीती है माँ , जादूगरनी पीती है मानुष का रक्त , साहूकार पीता है गरीब का पसीना । कौन -सा जल पियूँ कि बुझ जाए मेरी भी प्यास , किस रास्ते जाऊँ कौन -सा गाँव ? मुझे तुम बता दो ओ संगी मेरे । कुँवार की धूप में काली पड़ गयी काया, जल गई घास और जंगल , तर जाता यदि एक घूँट पी लेता , हॄदय के दोने में प्रेम का जल ।" संग्रह 'अँजोर ' की कविताओं में हमारी ग्राम्य संस्कृति के साथ छत्तीसगढ़ के गाँवों की ज़िन्दगी जीवंत हो उठी है। इसमें एक छत्तीसगढ़ी कविता है 'मड़ई ' , यह किसी मड़ई की चहल -पहल के बीच खाली जेब घूमते ग्रामीण की सहज -सरल अभिव्यक्ति है ,जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं - "मड़ई म सकलाए हें गाँव भर के मइनखे, आए हें आन गाँव ले घलो , भंडार के गाँव अउ रकसहूँ के गाँव, उत्ती के गाँव अउ बुड़ती के गाँव, जुरे हें सब दिसा ले। कोदो के पाना ल चबाए हों अइसे, जानो, मानो खाए हों पान , लाली -लाली रचे हे मुँहु, मड़ई म घूमथौं अउ अइसे मेछराथंव कोनहो पार नइ पाही के एक्को ठन पइसा नइ हे खिसा म।" कवि ने इन पंक्तियों का हिंदी अनुवाद किया है- "मेले में एकत्र हुए हैं गाँव भर के लोग , आए हैं दूसरे गाँवों से भी , उत्तर के गाँव और दक्षिण के गाँव, पूरब के गाँव और पश्चिम के गाँव, एकत्र हुए हैं यहाँ सब दिशाओं से । कोदो की पत्तियों को चबाया है इस तरह , जैसे मैंने खाया है पान लाल -लाल रचे हैं होंठ , मेले में घूमता इतरा रहा ऐसे किसी को पता नहीं चलेगा कि एक भी पैसा नहीं जेब में।" संग्रह में 'भुंइया के फूल' शीर्षक कविता की प्रारंभिक पंक्तियों में एक छत्तीसगढ़िया मनुष्य की अभिव्यक्ति को महसूस कीजिए - खर नइ हे पानी खारून के , करू नइ हे जाम चंदना -चमसूर के ,फेर काबर जाबो ठंइया ला छोड़ के , इही भूँइया के फूल हन , इही भूँइया म झर बो। " एकांत ने अपनी इस रचना का हिंदी अनुवाद इस तरह किया है - "खारा नहीं है पानी 'खारून 'का , कड़ुए नहीं हैं अमरूद चंदना -चमसूर के फिर क्यों जाएँ अपनी जगह को छोड़ कर , इस धरती के फूल हैं , इसी धरती में झड़ेंगे ।" यह कविता अपनी धरती के प्रति मनुष्य के मोह की सहज ,लेकिन भावुक अभिव्यक्ति है।संग्रह में एक छोटी -सी कविता है 'मया म ' यानी प्यार में। मूल छत्तीसगढ़ी में देखिए - "तैं कुँवा ले पानी नइ, मोला हेर लेथस , तैं ढेंकी म धान नइ, मोला कूट देथस, तैं जाँता म दार नइ, मोला दर देथस । तैं चूँदी म फूल नइ, मोला खोंच लेथस । का-का होवत रथे मया म अमारी के फूल ह सुरुज म बदल जाथे।" एकान्त ने इसका हिंदी अनुवाद किया है ,वह भी बहुत मोहक है " तुम कुँआ से पानी नहीं मुझे निकालती हो , तुम ढेंकी में धान नहीं , मुझे कूटती हो , तुम चक्की में दाल नहीं , मुझे पीसती हो , तुम वेणी में फूल नहीं, मुझे खोंसती हो , क्या -क्या होता रहता है प्यार में , अमारी का फूल सूर्य में बदल जाता है।" यह कविता ग्राम्य जीवन में प्यार की निर्मल ,निश्छल अभिव्यक्ति के साथ हमें गाँवों की हमारी विलुप्तप्राय कुँआ संस्कृति और अनाज कूटने की ढेंकी संस्कृति की भी याद दिलाती है। हैण्डपम्पों और नलकूपों के इस आधुनिक युग में गाँवों में भी कुँआ लगभग अदृश्य हो गया है।साथ ही अदृश्य हो गयी है कुँओं के आसपास होने वाली चहल -पहल। ठीक उसी तरह गाँवों के घरों में अलसुबह महिलाओं द्वारा ढेंकी में अनाज कूटने की आवाज़ भी अब कहीं गुम हो गयी है ,क्योंकि उनका स्थान गाँवों में स्थानीय स्तर पर या आस- पास धान कूटने की हॉलर मशीनों ने ले लिया है। संग्रह की शीर्षक -कविता 'अँजोर' हमें उस युग की याद दिलाती है ,जब घरों में रात के समय कंदील(लालटेन)और अंगीठी की रौशनी से काम चलाया जाता था। उस दौर में भी गाँव के सम्पन्न व्यक्ति के घर में रात भर कंदील की रौशनी हुआ करती थी। यानी वह भी आर्थिक विषमता का दौर था। कवि एकान्त की कलम ने उस माहौल का छत्तीसगढ़ी में शब्द चित्र कुछ इस तरह खींचा है - "हमर गाँव म तीन कोरी छानी एक कोरी घर म कंडील बरथे। दू कोरी घर म अंगेठा के अँजोर , माटी तेल बर नइ हे पइसा कोनहो -कोनहो घर म बरथे कुसुम अउ टोरी तेल के दियना , गौंटिया के घर रात भर बरथे कंडील, उज्जर काँच के उज्जर अँजोर । बन म फेंकारी मारथे कोलिहा , दूरिहा ले दिखथे अँधियार म गौंटिया के घर के अँजोर। गौंटिया के घर म उगे हे चंदा हमर कर नइ हे कोनहो तारा ।" कवि की कलम से ही 'उजाला'शीर्षक से इसका हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह हुआ है - "हमारे गाँव मे हैं साठ घर , बीस घरों में जलती है लालटेन , चालीस घरों में अँगीठी का उजाला, मिट्टी तेल के लिए नहीं है पैसा किसी-किसी घर में जलता है कुसुम और टोरी के तेल का दीया । साहूकार के घर में रातभर जलती है लालटेन, उजले काँच की उजली रौशनी , जंगल में उतरता है अंधकार पहाड़ में हुँआ-हुँआ करते हैं सियार दूर से दिखता है अँधेरे में साहूकार के घर का उजाला । साहूकार के घर में उगा है चंद्रमा हमारे पास कोई तारा नहीं।" हालाँकि इस आधुनिक युग में गाँवों तक बिजली पहुँच जाने से लालटेन अब इक्का -दुक्का ही नज़र आते हैं। ग़रीबों के कच्चे मकानों में भी बिजली के बल्ब जलते हैं। लेकिन एक वह भी दौर था ,जब रात में अपने घरों से अँधेरा दूर करने के लिए ग़रीबों को कितनी जद्दोजहद करनी पड़ती थी ,उसका चित्रण इस कविता में है। संग्रह की अपनी छत्तीसगढ़ी कविताओं में एकान्त छत्तीसगढ़ के जन -जीवन से और यहाँ की जनभावनाओं से जितने घुलमिल गए हैं ,वहीं इनका हिंदी अनुवाद करते हुए भी वे अपने छत्तीसगढ़िया अहसास के साथ उतने ही एकाकार नज़र आते हैं।कोई भी कवि स्वभाव से ही भावुक और संवेदनशील होता है। एकान्त श्रीवास्तव की इन कविताओं में भी अपनी धरती से जुड़ी भावुकता और संवेदनशीलता बहुत गहराई से रची -बसी है। -स्वराज करुण

Thursday, May 30, 2024

(आलेख) हिन्दी पत्रकारिता की जन्म -भूमि है बंग -भूमि ;

(आज 30 मई हिन्दी पत्रकारिता दिवस ) आलेख- स्वराज्यं करुण समय के प्रवाह में तरह -तरह की चुनौतियों से भरे सफ़र के 198 साल पूरे करने के बाद आज हिन्दी पत्रकारिता अपने 199 वें पड़ाव की ओर बढ़ने लगी है। आज ( 30 मई )का दिन हमारे देश की हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में एक यादगार दिवस के रूप में दर्ज है। इसी दिन सन 1826 को देश के प्रथम हिन्दी समाचार पत्र 'उदन्त मार्तण्ड ' का प्रकाशन बंगाल की राजधानी कोलकाता से शुरू हुआ था। यह दिन हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाया जाता है। 'उदन्त मार्तण्ड' प्रत्येक मंगलवार को छपने वाला साप्ताहिक अख़बार था। भारत की विविधतापूर्ण सांस्कृतिक एकता का यह भी एक बड़ा उदाहरण है कि यहाँ हिन्दी पत्रकारिता की जन्म भूमि होने का गौरव बंग -भूमि ,अर्थात बांग्लाभाषी राज्य (बंगाल ) को मिला । हिन्दी भाषी राज्य वर्तमान उत्तरप्रदेश के कानपुर से आए वकील पण्डित युगल किशोर शुक्ल ने वहाँ इसकी बुनियाद रखी । उन्होंने कोलकाता के कोलूटोला स्थित 37 ,अमरतल्ला लेन से 'उदन्त मार्तण्ड' का प्रकाशन प्रारंभ किया।
नारद जयंती के दिन आया उदन्त मार्तण्ड यानी उगता हुआ सूरज ************ वह नारद जयंती का दिन था। हम भारतीय लोग अपने पौराणिक आख्यानों के अनुसार देवर्षि नारद को दुनिया का पहला पत्रकार मानते हैं ,जो देवताओं और दानवों के बीच एक दूसरे के समाचार पहुँचाया करते थे। इसीलिए शायद पण्डित शुक्ल ने नारद जयंती को शुभ अवसर मानकर उस दिन ' उदन्त मार्तण्ड ' का प्रकाशन प्रारंभ किया ।इस शीर्षक का आशय उगते हुए सूर्य से है । हालांकि तरह -तरह की कठिनाइयों ,विशेष रूप से आर्थिक समस्याओं के कारण लगभग डेढ़ साल बाद इसका प्रकाशन बन्द हो गया ,लेकिन देश के प्रथम हिन्दी अख़बार के रूप में 'उदन्त मार्तण्ड' का नाम इतिहास में अमिट अक्षरों में दर्ज हो गया । यह साप्ताहिक अख़बार था। इसका अंतिम अंक 4 दिसम्बर 1827 को प्रकाशित हुआ था । प्रथम अंक की 500 प्रतियाँ छपी थीं। कुल 79 अंक प्रकाशित हुए थे। वह हिन्दी भाषा के विकास का शैशव काल था ,जिसकी गहरी छाप 'उदन्त मार्तण्ड ' के अंकों में मिलती थी।भारतीय प्रिंट मीडिया के इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना को याद करने के लिए हर साल 30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। सभी पाठकों और पत्रकार साथियों को हिन्दी पत्रकारिता दिवस की बधाई और शुभकामनाएँ । हिन्दी भाषा के विकास में 'उदन्त मार्तण्ड' की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन दिनों कोलकाता से अंग्रेजी ,पारसी और बांग्ला में कई समाचार पत्र छपते थे। हिन्दी का कोई अख़बार नहीं था। ऐसे में पण्डित युगल किशोर मिश्र ने 'उदन्त मार्तण्ड ' का प्रकाशन प्रारंभ कर हिन्दी भाषियों की एक बड़ी ज़रूरत को पूरा करने का प्रयास किया। उन्होंने प्रवेशांक के सम्पादकीय में अपने इस मंतव्य को स्पष्ट कर दिया था। पत्रकारिता और प्रिंटिंग टेक्नॉलॉजी *********************** पत्रकारिता और प्रिंटिंग टेक्नॉलॉजी का एक -दूसरे के साथ अटूट रिश्ता है। इसलिए आज के दिन हमें देश और दुनिया में मुद्रण तकनीक की विकास यात्रा को भी ज़रूर याद करना चाहिए। पंद्रहवीं शताब्दी में यूरोप में मुद्रण तकनीक के विकास से मनुष्य को अपने विचारों को छपे हुए शब्दों में देखने और प्रकाशित करने का एक नया माध्यम मिल गया। कालांतर में यह तकनीक दुनिया के अन्य देशों में भी पहुँच गयी। इसके जरिए विभिन्न प्रकार की पुस्तकों के अलावा पत्र -पत्रिकाओं के प्रकाशन का सिलसिला भी शुरू हो गया। वह दौर हैण्ड कम्पोजिंग का था। अलग -अलग भाषाओं की लिपियों के टाइप यानी अक्षर साँचे में ढलने लगे ,जिन्हें पांडुलिपियों को देख कर कम्पोजिटर अपने हाथों से शब्दों के रूप में जमाया करते थे ,जिन्हें गैली बनाकर,प्रूफ रीडिंग के बाद ट्रेडल मशीनों में छापा जाता था। बाद में सिलेंडर मशीनें भी आयीं । बीसवीं सदी में कम्प्यूटरों के आने से छपाई कार्य बहुत आसान हो गया है। इक्कीसवीं सदी में तो कम्प्यूटर तकनीक का विकास और भी आगे पहुँच गया है। आधुनिक संचार क्रांति के इस दौर में अब तो लोग मोबाइल फोन या स्मार्ट फोन पर ही अपनी भावनाएँ स्वयं कम्पोज कर लेते हैं। इंटरनेट और उस पर आधारित सोशल मीडिया के विभिन्न तकनीकी माध्यमों से सूचनाओं ,समाचारों और विचारों का आदान-प्रदान हथेली में रखे मोबाइल फोन के जरिए बड़ी सरलता से होने लगा है। हैण्ड कम्पोजिंग वाले प्रिंटिंग प्रेस लगभग विलुप्त हो चुके हैं और ज़माना अब ऑफसेट प्रिंटिंग और कलर प्रिंटिंग का है। अब तो कम्प्यूटर आधारित छपाई की अत्याधुनिक मशीनें भी आ चुकी हैं । लेकिन हमें कुछ पल के लिए इतिहास के उस दौर की भी कल्पना ज़रूर करनी चाहिए ,जब किसी पुस्तक या पत्र -पत्रिका की छपाई के लिए तकनीकी दृष्टि से कितनी दिक्कतें हुआ करती थीं ! बहरहाल लगभग चार -पाँच शताब्दियों तक मनुष्य ने इन्हीं दिक्कतों के बीच ज्ञान -विज्ञान , साहित्य ,कला और संस्कृति से जुड़ी हजारों पुस्तकें लिखीं और छापीं , अख़बार भी निकाले। भारत में उस ज़माने की प्रिंटिंग टेक्नॉलॉजी के अनुरूप पहला प्रिंटिंग प्रेस पुर्तगालियों ने गोवा में सन 1556 में लगाया था । वहाँ सेंट पॉल कॉलेज में इसकी स्थापना की गयी थी। बताया जाता है कि इसका उपयोग ईसाई पादरियों द्वारा धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन के लिए किया जाता था। इसके ठीक 127 साल बाद 1684 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में अपने कार्यालयीन उपयोग के लिए प्रिंटिंग प्रेस की शुरूआत की। भारत का पहला अंग्रेजी अख़बार भी बंग -भूमि से ******************************* यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि हिन्दी पत्रकारिता की जन्म भूमि कोलकाता से ही भारत का पहला समाचार पत्र अंग्रेजी भाषा में 29 जनवरी 1780 को प्रकाशित हुआ था। इसके सम्पादक और प्रकाशक थे जेम्स ऑगस्ट हिक्की । यह साप्ताहिक अख़बार द हिक्कीज गजट केलकेटा जर्नल एडवरटाइजर के नाम से छपता था । पत्रकारिता का मार्ग उस ज़माने में भी काँटों से भरा हुआ था। हिक्की साहब एक सजग पत्रकार थे। उन्होंने अपने अख़बार के शीर्षक के नीचे लिखवा रखा था-- A Weekly Political and Commercial Paper ,Open for all ,but Influenced by none. (यह एक राजनीतिक और वाणिज्यिक साप्ताहिक पेपर है ,जो सबके लिए खुला हुआ है ,लेकिन किसी के भी प्रभाव में नहीं है) । लेकिन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स , सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश , ईस्ट इंडिया कम्पनी और अंग्रेज अधिकारियों की कारगुजारियों के ख़िलाफ़ खुलकर ख़बरें छापने के कारण उन्हें उनका कोपभाजन बनना पड़ा । यहाँ तक कि हेस्टिंग्स ने उन पर मानहानि का मुकदमा चलाया । हिक्की साहब को 9 माह की जेल हो गयी ,लेकिन जेल में रहते हुए भी जब उन्होंने अख़बार छापना जारी रखा तो मुख्य न्यायाधीश के आदेश पर उनके प्रेस को सील कर दिया गया । हिक्कीज गज़ट का छपना बंद हो गया। बताया जाता है कि हिक्की साहब की खबरों का असर ब्रिटिश संसद पर भी हुआ। इन ख़बरों को गंभीरता से लेकर वारेन हेस्टिंग्स और मुख्य न्यायाधीश के ख़िलाफ़ पार्लियामेंट में महाभियोग लाया गया था । वैसे कुछ जानकारों का यह भी कहना है कि भारत में पहला अंग्रेजी समाचार पत्र ईस्ट इंडिया कम्पनी के पूर्व अधिकारी विलियम बॉल्ट्स ने वर्ष 1776 में शुरू किया था ,जिसमें कम्पनी और ब्रिटिश सरकार की खबरें प्रकाशित की जाती थी , शायद यह ईस्ट इंडिया कम्पनी का मुखपत्र रहा होगा ,लेकिन वैचारिक रूप से भारत में पहला स्वतंत्र अंग्रेजी अख़बार प्रकाशित करने का श्रेय जेम्स ऑगस्ट हिक्की को दिया जाता है। वर्ष 1780 में इसके प्रकाशन के 46 साल बाद भारत में हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत 'उदन्त मार्तण्ड ' के माध्यम से हुई । भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में उस दौर में देश की विभिन्न भाषाओं के कई समाचार पत्रों का उल्लेख मिलता है।राजा राम मोहन राय जैसे महान समाज सुधारक ने वर्ष 1819 में बांग्ला भाषा के प्रथम समाचार पत्र 'संवाद कौमुदी ' का प्रकाशन प्रारंभ किया था। भारत का पहला हिन्दी दैनिक छपा था 170 साल पहले ***************** बंग -भूमि कोलकाता को हिन्दी के प्रथम साप्ताहिक (उदन्त मार्तण्ड ) के अलावा भारत के प्रथम हिन्दी दैनिक के प्रकाशन का भी श्रेय मिलता है । उदन्त मार्तण्ड के प्रकाशन के 28 साल बाद वर्ष 1854 में दैनिक 'समाचार सुधावर्षण' की शुरूआत हुई ,जो हिन्दी और बांग्ला भाषाओं में छपता था। इस द्विभाषी दैनिक के सम्पादक थे श्याम सुंदर सेन। वर्ष 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 'समाचार सुधावर्षण ' ने भी राष्ट्रीय चेतना के विकास में अपनी अहम भूमिका निभाई। अख़बार ने आज़ादी के योद्धाओं का खुलकर समर्थन किया। फलस्वरूप सम्पादक श्याम सुंदर सेन को अंग्रेज हुकूमत की नाराजगी झेलनी पड़ी । उन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर मुकदमा चलाया गया ,लेकिन वे अदालत से निर्दोष बरी हो गए। हमारे स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दी सहित विभिन्न भाषायी समाचार पत्रों का ऐतिहासिक योगदान रहा है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र , लोकमान्य पण्डित बालगंगाधर तिलक , महात्मा गांधी ,पण्डित जवाहरलाल नेहरू , गणेश शंकर विद्यार्थी और पण्डित माखन लाल चतुर्वेदी जैसे अनेक दिग्गज सेनानियों ने समाचार पत्र -पत्रिकाओं के प्रकाशन और सम्पादन के जरिए जनता में विदेशी दासता के ख़िलाफ़ लड़ने का हौसला जगाया । छत्तीसगढ़ में 124 साल पुरानी है पत्रकारिता की परम्परा ****************** छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं था। यहाँ हिन्दी पत्रकारिता की परम्परा 124 साल पुरानी है ,जो निरन्तर विकसित हो रही है। संसाधनों की दृष्टि से उस ज़माने में यह बेहद पिछड़ा इलाका था ,लेकिन इसके बावज़ूद चुनौतियों का सामना करते हुए जनवरी 1900 में इस अंचल के प्रथम समाचार पत्र 'छत्तीसगढ़-मित्र ' का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। दिग्गज साहित्यकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पण्डित माधवराव सप्रे इसके सम्पादक और रामराव चिंचोलकर उनके सहयोगी थे। प्रकाशक थे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पण्डित वामन राव लाखे। यह समाचार पत्र रायपुर से छपता और पेंड्रा से प्रकाशित होता था। सप्रे जी उन दिनों पेंड्रा में वहाँ के राजकुमार के अंग्रेजी शिक्षक थे।वह पेंड्रा से ही इस पत्रिका का सम्पादन करते थे। उनकी लिखी कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी ' को हिन्दी की पहली मौलिक कहानी माना जाता है। उन्होंने' छत्तीसगढ़ मित्र ' के माध्यम से सामाजिक सुधारों से जुड़े विषयों के साथ -साथ छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय चेतना के विकास में भी अपना उल्लेखनीय योगदान दिया। लेकिन आर्थिक समस्याओं के कारण 'छत्तीसगढ़ मित्र ' का प्रकाशन तीन साल बाद दिसम्बर 1902 में बंद करना पड़ गया। देश 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हुआ । गुलामी के दिनों में आज़ादी की लड़ाई में भारतीय पत्रकारिता भी एक मिशन भावना से अपना योगदान दे रही थी। आज़ादी के बाद उसकी यह भूमिका और भी चुनौतीपूर्ण हो गयी है। उसे एक तरफ स्वतंत्र भारत की जन भावनाओं को ,जनता की आशाओं ,आकांक्षाओं और समस्याओं को स्वर देना है तो दूसरी तरफ एक आज़ाद मुल्क की विकास यात्रा की उपलब्धियों को भी जनता तक पहुँचाना है। हिन्दी पत्रकारिता भी अपनी इस दोहरी जिम्मेदारी का बख़ूबी निर्वहन कर रही है। अत्याधुनिक संचार सुविधाओं से अब छत्तीसगढ़ सहित देश के सभी राज्यों में जिला मुख्यालयों और तहसील मुख्यालयों से भी समाचार पत्र प्रकाशित होने लगे हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन केंद्रों के अलावा कई प्राइवेट टेलीविजन न्यूज चैनल भी पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे हैं। छत्तीसगढ़ में पण्डित माधव राव सप्रे द्वारा 124 साल पहले विकसित हिन्दी पत्रकारिता की गौरवशाली परम्परा को बाद के दशकों में दिग्गज लेखक , पत्रकार हुए ,जिन्होंने सप्रे जी द्वारा विकसित हिन्दी पत्रकारिता की परम्परा को अपने चिन्तन ,मनन ,लेखन और परिश्रम से विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं के जरिए ख़ूब आगे बढ़ाया।इनमें रायपुर के पण्डित रविशंकर शुक्ल, पण्डित स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी, केशव प्रसाद वर्मा , ठाकुर प्यारेलाल सिंह ,हरि ठाकुर, मायाराम सुरजन , रमेश नैयर, गोविन्दलाल वोरा , मधुकर खेर , कुमार साहू ,ललित सुरजन , प्रभाकर चौबे , राजनारायण मिश्र , अकलतरा (जिला -जांजगीर -चाम्पा )के बैरिस्टर ठाकुर छेदीलाल ,राजनांदगांव के पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी , गजानन माधव मुक्तिबोध और शरद कोठारी , जगदलपुर (बस्तर)के तुषार कांति बोस और लाला जगदलपुरी , जांजगीर के कुलदीप सहाय ,बिलासपुर के यदुनन्दन प्रसाद श्रीवास्तव और पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी, दुर्ग के चन्दूलाल चन्द्राकर , रायगढ़ के किशोरी मोहन त्रिपाठी और गुरुदेव काश्यप सहित कई बड़े नाम शामिल हैं। समाचार पत्रों का संग्रहालय ******************* हिन्दी सहित भारतीय पत्रकारिता के समग्र इतिहास को संरक्षित करने का एक ऐतिहासिक कार्य भोपाल में 'माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय के जरिए किया गया है। वरिष्ठ पत्रकार विजयदत्त श्रीधर के प्रयासों से इसकी स्थापना लगभग 40 वर्ष पहले 19 जून 1984 को सप्रे जी की जयंती के दिन हुई थी । यह देश में समाचार पत्र -पत्रिकाओं का अपने किस्म का पहला संग्रहालय है ,जहाँ विभिन्न भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों के प्रथम अंकों से लेकर उनकी अनेक दुर्लभ प्रतियों को सुव्यवस्थित रूप से प्रदर्शित किया गया है। छत्तीसगढ़ के प्रथम पत्रकार पण्डित माधवराव सप्रे की याद में समाचार पत्रों का यह संग्रहालय मध्यप्रदेश में सफलतापूर्वक संचालित हो रहा है। गंभीर पत्रकारिता के अध्येताओं और शोधकर्ताओं के लिए एक बड़े अध्ययन केन्द्र के रूप में आज पूरे देश में इस संग्रहालय की अपनी एक विशेष पहचान है। ---स्वराज करुण

Friday, November 24, 2023

(आलेख) हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती ! लेखक -स्वराज्य करुण

(आलेख - स्वराज्य करुण ) यह पुरानी कहावत भी है और आज के दौर में हमें यह मानकर भी चलना चाहिए कि जिस तरह हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती ,ठीक उसी तरह ज़रूरी नहीं कि इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया और मीडिया के विभिन्न मंचों पर आ रही हर बात खरे सोने की तरह सच हो , जब तक कि उसमें कोई ठोस प्रमाण या ठोस तथ्य न हो। हर नई तकनीक के अच्छे-बुरे दोनों पहलू होते हैं । उसका उपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी। लेकिन जैसा कि समाचारों में देखा , सुना और पढ़ा जा रहा है ,इंटरनेट आधारित ए .आई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस या कृत्रिम बौद्धिकता) , चैट जीपीटी और अब डीप फेक नामक नई तकनीक ने दुनिया के करोड़ों सोशल मीडिया यूजर्स के सामने एक नया संकट खड़ा कर दिया है। सदुपयोग के बजाय इन नये संचार उपकरणों के दुरुपयोग की चर्चा अधिक हो रही है। कहा जा रहा है कि ये नवीन तकनीकी उपकरण सोशल मीडिया और परम्परागत मीडिया के साथ -साथ मानव समाज में भी विश्वसनीयता का संकट पैदा कर सकते हैं। ताज़ातरीन चर्चा डीप फेक की है। इन नई तकनीकों में प्रशिक्षित कोई भी इंसान इनके जरिए समाज को भ्रमित कर सकता है। इन नवीन तकनीकों के क्या -क्या फायदे हो सकते हैं , यह स्पष्ट नहीं है ,हो सकता है कि कुछ फायदे भी हों , लेकिन इनसे हो रहे या होने वाले नुकसान की काफी चर्चा मीडिया में हो रही है। सोशल मीडिया के कुछ प्लेटफॉर्म्स में वायरल होने वाले फर्जी वीडियो की जाँच के लिए फैक्ट फाइंडिंग तकनीक भी उपलब्ध है ,लेकिन जब तक उस फर्जी वीडियो की वास्तविकता का पता लगता है ,तब तक काफी देर हो चुकी होती है और फर्जी बातें दूर तक पहुँच कर साधारण मनुष्यों को गुमराह कर सकती हैं। मैंने देखा तो नहीं है ,लेकिन सुना है कि ए. आई. तकनीक के द्वारा आपके मुखारविन्द से वह सब कुछ कहलवाया जा सकता है ,जो आपने कभी कहा ही नहीं था। यानी इसके जरिए अफवाहें भी फैलाई जा सकती हैं। इसी तरह आप लेखक या कवि हों या न हों , लेकिन चैट जीपीटी के जरिए आप किसी भी विषय पर स्वयं के नाम से लेख या कहानी लिखवा सकते हैं ,पत्रकार हों या न हों , अपने लिए अपने नाम से समाचार लिखवा सकते हैं कविताओं का सृजन कर सकते हैं । यानी फर्जी लेखक,पत्रकार और फर्जी कवि बन कर प्रसिद्ध हो सकते हैं। यह देश और दुनिया में साहित्य और पत्रकारिता के लिए भी एक बड़ा संकट बन सकता है। ए. आई .तकनीक से कुछ टीव्ही चैनलों में न्यूज रीडिंग भी की गयी है। हालांकि उसमें कुछ गलत नहीं था । अब तक तो कम्प्यूटर पर फोटोशॉप साफ्टवेयर के जरिए किसी का सिर किसी के धड़ से जोड़ा जा सकता था ,लोग फोटो शॉप के जरिए कई तरह के फर्जी फोटो भी तैयार कर लेते थे और शायद करते भी हैं , फर्जी वीडियो भी वायरल होते रहते हैं , लेकिन अब डीप फेक में तो कोई भी किसी के भी वीडियो का गलत इस्तेमाल कर सकता है। या फर्जी वीडियो बना सकता है।हाल ही में एक फर्जी वीडियो वायरल हुआ ,जिसमें माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को गरबा नृत्य करते हुए दिखाया गया।स्वयं प्रधानमंत्री ने इसका जिक्र करते हुए एक बैठक में लोगों को डीप फेक तकनीक से सावधान किया। यह अच्छी बात है कि भारत सरकार ने डीप फेक के खतरों को गंभीरता से संज्ञान में लिया है। नई दिल्ली में कल केन्द्रीय इलेक्ट्रॉनिक्स एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री श्री अश्विनी वैष्णव की अध्यक्षता में आयोजित एक उच्च स्तरीय बैठक में डीप फेक वीडियो अपलोड करने वालों और इसके प्लेटफॉर्म बनाने वालों पर जुर्माना लगाने का निर्णय लिया गया। मंत्री जी ने डीप फेक को लोकतंत्र के लिए भी एक बड़ा ख़तरा बताया । इस बैठक में सभी प्रमुख इंटरनेट मीडिया संस्थानों के प्रमुख प्रतिनिधियों सहित कई तकनीकी विशेषज्ञ और शिक्षाविद भी शामिल हुए। बैठक में डीप फेक के खतरों से निपटने के लिए दस दिनों के भीतर एक स्पष्ट कार्ययोजना बनाने का भी निर्णय लिया गया।-स्वराज्य करुण

Tuesday, November 7, 2023

(गीत) मेहनत की मुस्कान -स्वराज्य करुण

मेहनत की मुस्कान b> सांध्य दैनिक 'छत्तीसगढ़' की साप्ताहिक पत्रिका ' इतवारी अख़बार' में 20 नवम्बर 2011 को प्रकाशित।

Sunday, November 5, 2023

(आलेख) यह देखकर हम जैसे मामूली लोग हैरान हैं !

यह देखकर दुनिया के हम जैसे मामूली लोग हैरान हैं कि हमास और इजरायल के बीच यह निर्मम लड़ाई आख़िर हो क्यों रही है ?इक्कीसवीं सदी में आकर उच्च शिक्षा ग्रहण करने वालों के दिमागों पर इस तरह के पागलपन का ग्रहण क्यों लग गया है? उनकी शिक्षा -दीक्षा पर संदेह होने लगता है। क्या उन्होंने मानवता को बर्बाद करने की शिक्षा हासिल की है ?
टीव्ही चैनलों में आ रहे भयावह दृश्य हर इंसान को विचलित कर रहे हैं। कहीं अस्पतालों पर बम बरसाए जा रहे हैं तो कहीं स्कूलों और शरणार्थी शिविरों पर हमले हो रहे हैं। क्यों इतनी मारकाट मची हुई है ? दोनों पक्षों की बमबारी में हजारों मासूम बच्चे और निरीह नागरिक मारे जा रहे हैं। बस्तियाँ तबाह हो रही हैं। जिन लोगों ने लाखों रूपये खर्च कर कई मंज़िल ऊँची इमारतों में अपने सपनों का आशियाना ख़रीदा था , वे इमारतें भी ज़मींदोज़ हो रही हैं। लोगों के सपनों का आशियाना उजड़ रहा है। बमों के बारूदी धुएँ से दुनिया का वायुमंडल भी प्रदूषित हो रहा है। मानवता कराह रही है। इस निर्मम युद्ध की ख़बरों ने रूस-यूक्रेन युद्ध के समाचारों को भी पीछे ढकेल दिया है।युद्ध चाहे कहीं भी हो रहा हो , उसमें जीत किसी की नहीं होती , हजारों लाखों लोगों की लाशों पर सिर्फ़ मानवता की हार होती है। इसलिए चाहे हमास-इजरायल की लड़ाई हो ,या रूस-यूक्रेन युद्ध , ये हिंसक संघर्ष तत्काल बंद होने चाहिए। इन युद्धों को रोकने में संयुक्त राष्ट्रसंघ की ढुलमुल नीति पूरी दुनिया को निराश कर रही है! - स्वराज करुण

Wednesday, October 18, 2023

(आलेख) इतने भजन ,इतने पूजन ,इतनी प्रार्थनाएँ , सब व्यर्थ

इतने भजन ,इतने पूजन ,इतनी प्रार्थनाएँ, इंसानी बर्बरता के आगे कोई काम न आए। क्या वे लाखों लोग अपने बचाव के लिए अपने -अपने अज्ञात ,अदृश्य ईश्वर से प्रार्थना नहीं कर रहे होंगे , जो हमास और इजरायल के बीच 12 दिनों से जारी विनाशकारी युद्ध में फँसे हुए हैं ? सब व्यर्थ गया। गजा के एक अस्पताल पर बमबारी जहाँ लज्जाजनक है ,वहीं इसके फलस्वरूप अस्पताल में 500 मौतों की ख़बर बेहद पीड़ादायक । ऐसा भी कहा जा रहा है कि इस घिनौने हमले में मरने वालों और घायलों की संख्या और भी बढ़ सकती है।
मनुष्य बीमार पड़ने पर अपने स्वास्थ्य के लिए ,अपनी प्राण रक्षा के लिए अस्पतालों की शरण लेता है, लेकिन अगर किसी अस्पताल पर ही बमबारी हो तो इंसान आख़िर जाए तो जाए कहाँ ? क्या इस क्रूरतम हमले में डॉक्टर्स ,नर्स और अस्पताल के अन्य कर्मचारी भी मरे या घायल नहीं हुए होंगे ,जो वहाँ मरीजों की सेवा के लिए तैनात थे? यह बमबारी चाहे जिसने भी की हो , वह इंसान तो हो ही नहीं सकता। उसकी हैवानियत की सबको एक स्वर से निन्दा करनी चाहिए ।हमास और इजरायल दोनों एक -दूसरे पर इस शर्मनाक करतूत का आरोप लगा रहे हैं । कौन सही है और कौन गलत , यह तय कर पाना वहाँ चल रही भयानक हिंसा और प्रतिहिंसा के माहौल में बहुत कठिन हो गया है। यह ख़ूनी लड़ाई हर हालत में रुकनी चाहिए। अस्पताल में हुई सैकड़ों मौतों के लिए दोनों पक्षों को सार्वजनिक रूप से पश्चाताप करना चाहिए ,क्योंकि अगर वे युद्ध नहीं करते तो ऐसा क्यों होता ? -स्वराज्य करुण

Wednesday, October 11, 2023

(आलेख) बंद क्यों नहीं होती ऐसी ख़ूनी लड़ाइयाँ ? लेखक -स्वराज्य करुण

आख़िर संयुक्त राष्ट्रसंघ की क्या ड्यूटी है? (आलेख -स्वराज्य करुण) यूक्रेन पर लगभग डेढ़ साल पहले शुरू हुए रूसी आक्रमण की आग अभी बुझी भी नहीं है और उधर इज़राइल और फिलिस्तीन के बीच युद्ध शुरू हो गया है। युद्ध चाहे यूक्रेन और रूस का हो या इज़रायल और फिलिस्तीन के बीच , इन्हें तत्काल रोका जाना चाहिए। बेरहमी और पागलपन से भरी इन लड़ाइयों में अब तक इन देशों के सैकड़ों निरीह नागरिकों की मौत हो चुकी है , हजारों लोग घायल हुए हैं। युद्ध के बदहवास माहौल में मृतकों और घायलों के सही-सही आंकड़े तत्काल नहीं मिल पाते है। शायद ये आंकड़े अब तक मिली संख्याओं से अधिक होंगे।संयुक्त राष्ट्र संघ को तुरंत हस्तक्षेप करना चाहिए। आख़िर संयुक्त राष्ट्र संघ की क्या ड्यूटी है? उसके बड़े-बड़े दिग्गज पदाधिकारियों को आख़िर लाखों डॉलर की तनख्वाहें और सुख-सुविधाएँ आख़िर किस काम के लिए मिलती हैं ? दुनिया के तमाम देशों ने मिलकर यह संगठन बनाया किसलिए है?
किन्हीं दो देशों की खूनी लड़ाई का खामियाज़ा उन देशों के उन हजारों-लाखों लोगों को भुगतना पड़ता है ,जिनकी कोई गलती नहीं होती ,जिनका उन लड़ाइयों से कोई लेना -देना नहीं रहता। वो अपनी और अपने परिवारों की ज़िन्दगी की गाड़ी खींचने के लिए रोजी-रोटी की ज़द्दोज़हद में लगे रहते हैं। लेकिन युद्ध की आग उनकी घर-गृहस्थी को उजाड़कर रख देती है , उन्हें और उनके मासूम बच्चों , माताओं ,बहनों और बुजुर्गों सहित घर के दूसरे सदस्यों को भी जलाकर राख कर देती है।लेकिन उन राष्ट्रों के प्रमुख शासक अपने-अपने सिंहासनों की सुरक्षा के लिए , अपने -अपने अहंकार की तुष्टि के लिए अपने -अपने नागरिकों में युद्धोन्माद की लहर पैदा करके, उन्हें मानवता का दुश्मन बना देते हैं और खुद अपने-अपने महलों में हमेशा महफूज़ बने रहते हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान वर्ष 1945 में दो जापानी शहरों हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिकी परमाणु बमों के हमलों में लाखों नागरिक मारे गए।उसकी एक अलग दर्दनाक कहानी है। यह कड़वी सच्चाई है कि दुनिया का इतिहास राष्ट्रों के बीच हुई और हो रही लड़ाइयों से बहते बेगुनाहों के ख़ून से भी लिखा गया है और लिखा जा रहा है। अगर दुनिया पढ़े-लिखे ,सुशिक्षित लोगों की है , अगर दुनिया में शिक्षा और साक्षरता बढ़ चुकी है , तो ऐसी लड़ाइयाँ बंद होनी चाहिए। वैसे ये बात तो है कि अनपढ़ लोग इस प्रकार के पागलपन से अक्सर दूर रहते हैं ,लेकिन पागल किस्म के लोग उन्हें भी पागलपन का शिकार बनाकर युद्ध की आग में झोंक देते हैं। युद्ध से और किसी को कोई फायदा हो या न हो ,लेकिन अस्त्र-शस्त्रों के निर्माता और व्यापारी हमेशा फ़ायदे में रहते हैं। ये लड़ाइयाँ हथियारों के सौदागरों को लाखों ,करोड़ो और अरबो रुपयों के मुनाफ़े का बाज़ार मुहैय्या करवाती हैं। दुनिया भर के हथियार-उद्योग इन्हीं निर्मम लड़ाइयों के दम पर फलते-फूलते रहते हैं। विगत तीन दशकों में हमारी दुनिया में कई युद्ध हुए हैं। वर्ष 1990 में खाड़ी युद्ध , वर्ष 2001 में अफ़ग़ानिस्तान पर , फिर 2003 में इराक पर अमेरिकी हमलों का खौफ़नाक मंज़र दुनिया देख चुकी है। सीरिया से भी युद्ध की ख़बरें गाहेबगाहे आती रहती हैं। कुछ साल पहले अज़रबैजान-आर्मेनिया की खूनी ज़ंग में भी मानव जीवन की भारी तबाही हो चुकी है । दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से युद्ध के विनाशकारी पागलपन की ख़बरें मिलती ही रहती हैं। ऐसी लड़ाइयाँ बंद होनी चाहिए। दुनिया के तमाम देशों को अपनी जनता के लिए बेहतर शिक्षा के साथ बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं पर , आवागमन के बेहतर संसाधनों के विकास पर ध्यान देना चाहिए। अपनी ऊर्जा साहित्य ,कला और संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन पर लगानी चाहिए। अगर ये दुनिया सचमुच पढ़े-लिखों की है तो उसे सभी देशों के बीच परस्पर शांति और मैत्री के लिए काम करना चाहिए। संयुक्त राष्ट्रसंघ का गठन भी इसी उद्देश्य से किया गया था। लेकिन लगता है कि वह इस बात को भूल चुका है। उसे याद दिलाना ज़रूरी है। आलेख -स्वराज्य करुण फोटो -इंटरनेट से साभार