Monday, August 15, 2022

(आलेख) कई गंभीर सवाल छोड़ गई एक साहित्यकार की मौत


   (आलेख : स्वराज करुण)

रक्षाबंधन के दिन सड़क हादसे में घायल होने और दो दिन बाद , स्वतंत्रता दिवस के एक दिन पहले इस भौतिक संसार को छोड़ जाने वाले छत्तीसगढ़ के पिथौरा निवासी साहित्यकार ,हम सबके प्रिय भाई शिवानन्द मोहंती की आकस्मिक मौत हमारे लिए  कई  गंभीर सवाल छोड़ गई है ।आज  देश की आज़ादी की 75 वीं सालगिरह  के  मौके पर  सजग , संवेदनशील और देशभक्त नागरिक होने के नाते हम सबको इन सवालों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए ,क्योंकि ईश्वर न करे ,लेकिन ज़िन्दगी के सफ़र में  किसी भी मोड़ पर  ऐसे हादसे हममें से किसी के भी साथ ,किसी भी समय हो सकते हैं।  इसलिए हमें शिवानन्द के शोक संतप्त परिवार  के दर्द को अपना दर्द  समझकर इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करनी चाहिए।  

     पहला  तो यह कि आज़ादी के 75 वर्ष बीत जाने के बाद भी देश के सरकारी अस्पतालों में आपातकालीन चिकित्सा सेवाएँ इतनी चाक चौबंद क्यों नहीं हो पाई हैं कि गंभीर रूप से घायल मरीजों को वहीं भर्ती करके उनका  इलाज तत्काल शुरू किया जा सके? क्यों  उन सरकारी अस्पतालों में वेंटिलेटर लगे हुए एम्बूलेंस उपलब्ध नहीं रहते  ,ताकि अगर किसी गंभीर  मरीज को किसी बड़े अस्पताल के लिए 'रेफर' किया जा रहा हो तो रास्ते मे उसे साँस लेने में दिक्कत न हो ?  त्यौहारों के दिन भी  उन अस्पतालों में डॉक्टरों और नर्सों की अलग -अलग पालियों में आपातकालीन ड्यूटी का प्रावधान तो है ,लेकिन क्यों वो लोग समय पर उपलब्ध नहीं रहते और छोटे कस्बों ,छोटे शहरों में तो उन्हें किसी मेडिकल इमरजेंसी के दौरान घरों से बुलवाना पड़ता है ? क्यों उन अस्पतालों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं रहती कि अत्यधिक खून बह रहा हो तो उसे तत्काल रोका जा सके ?

      भाई शिवानन्द को सरकारी अस्पताल से जिस स्थानीय प्राइवेट अस्पताल में ले जाया गया , वहाँ उनका रक्तस्त्राव तो किसी तरह बंद कर दिया गया ,लेकिन उनके पास भी वेंटिलेटर युक्त एम्बूलेंस नहीं था ,तो उस निजी अस्पताल वालों ने सौ किलोमीटर दूर रायपुर शहर के एक बड़े प्राइवेट अस्पताल को फोन करके एम्बूलेंस बुलवाया । आने जाने में करीब चार घंटे लग गए। तब तक मरीज बेहोशी की हालत में एक एक साँस के तड़पते हुए  मौत से संघर्ष करता रहा। किसी तरह रात लगभग 7.30 बजे उस बड़े अस्पताल में पहुँचने पर सीटी स्कैन हुआ ,जिसकी रिपोर्ट दिखाकर एक डॉक्टर ने कहा कि मरीज के बचने की संभावना सिर्फ़ एक प्रतिशत है। वह ब्रेन डेड हो चुके हैं।।लेकिन उन्हें भर्ती करने के अगले दिन एक सर्जन ने यह कहते हुए कि उनके मस्तिष्क का  ऑपरेशन कर दिया कि हालत करीब पाँच प्रतिशत ठीक लग रही है । ऑपरेशन के बाद उन्हें आइसीयू में रखा गया ,जिसका एक दिन का किराया 30 हजार से 35 हजार बताया गया। दवाइयों का खर्च अलग ,जिसे मरीज के परिजनों को ही वहन करना पड़ा  । तो फिर ये 30 --35 हजार रुपए की प्रतिदिन की  बिलिंग किसलिए ? मरीजों के परिजनों से जो दवाइयां उसी अस्पताल के परिसर में संचालित मेडिकल स्टोर से ख़रीदवाई जाती है , उन दवाइयों को आईसीयू में ले जाने   के बाद उनका क्या उपयोग होता है ,इसे परिजन नहीं जान पाते। साहित्यकार शिवानन्द के इलाज के मामले में उस प्राइवेट अस्पताल के रवैये को देखकर मैं सोचने लगा कि पता नहीं कब ,कहाँ, किसने और क्यों डॉक्टरों को 'धरती का भगवान' कह दिया ? 

                                                                


                                                             दिवंगत साहित्यकार शिवानन्द मोहंती 

         भारत सरकार और राज्य सरकार ने देश के प्रत्येक नागरिक को पाँच लाख रुपए तक निःशुल्क इलाज की सुविधा देने के लिए आयुष्मान योजना और मुख्यमंत्री चिकित्सा सहायता आरोग्य  की शुरुआत की है ,जिनमें नागरिकों को हेल्थ कार्ड जारी किए जाते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि मानवता की दृष्टि से यह एक सराहनीय  जनकल्याणकारी व्यवस्था है। दोनों योजनाओं में आम  जनता के लिए  निजी अस्पतालों को  अधिकतम पाँच लाख रुपए के चिकित्सा खर्च की गारंटी केन्द्र और राज्य सरकारें दे रही हैं।  लेकिन कई प्राइवेट अस्पताल इन सरकारी योजनाओं के कार्ड  स्वीकार ही नहीं करते । यानी वो सरकार द्वारा दी जा रही गारंटी को ही खारिज़ कर रहे हैं। जब उन्हें चिकित्सा व्यय भुगतान की गारंटी सरकार दे रही है ,तब इलाज करने में इतना हीलाहवाला क्यों ?

        शिवानन्द जिस प्राइवेट अस्पताल में भर्ती थे ,उनके परिजनों ने वहाँ के प्रबंधन से  बारम्बार निवेदन किया कि इलाज का खर्च इस हेल्थ  कार्ड से ले लिया जाए ,लेकिन इनकार कर दिया गया। प्रबंधन का कहना था कि इन योजनाओं में सरकार ने इलाज के लिए जो पैकेज तय किया है ,वह हमारे अस्पताल की निर्धारित राशियों से मेल नही खाता। लगातार दो दिनों की ज़द्दोज़हद का अंततः कोई परिणाम नहीं निकला । सिर्फ इतना हुआ कि उस प्राइवेट अस्पताल के निदेशक से कुछ रियायत देने का आग्रह करने पर उन्होंने अपनी ओर से जितनी राशि की छूट दी ,वह उनकी  कुल बिलिंग को देखें तो ऊँट के मुँह में जीरे के बराबर थी। एक सामान्य मध्यम और निम्नमध्यवर्गीय परिवार के लिए उस प्राइवेट अस्पताल की भारी भरकम बिलिंग एक असहनीय आर्थिक उत्पीड़न झेलने के अलावा और कुछ भी नहीं ।नाम मात्र की यह छूट भी सरकारी हेल्थ कार्ड के आधार पर नहीं थी। सवाल यह उठता है कि नागरिकों को सरकारों की ओर से प्रदत्त हेल्थ कार्ड का क्या कोई महत्व नहीं है ? 

   आप कह सकते हैं कि मरीज़ की मौत के बाद इन सब सवालों का कोई मतलब नहीं रह जाता। लेकिन मुझे लगता है कि जब तक हमारे देश की चिकित्सा व्यवस्था में  सुधार नहीं होगा , ये सवाल हमेशा हमारा और आपका पीछा करते रहेंगे ,ये सवाल हमेशा उठते रहेंगे ,उठाये जाते रहेंगे ताकि फिर किसी शिवानन्द या  उनके परिवार के लिए  ऐसी दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों का सामना करने की नौबत न आए। साहित्यकार शिवानन्द मोहंती की मौत दिनोदिन संवेदनहीन होती जा रही  हमारी स्वास्थ्य सेवाओं की निर्ममता का जीता जागता उदाहरण है।

      - स्वराज करुण

Friday, August 12, 2022

(आलेख) छत्तीसगढ़ में पले -बढ़े छत्तीस भाषाओं के ज्ञाता

 सिर्फ 34 साल की जीवन यात्रा में 

 बने दुनिया के महान भाषा वैज्ञानिक

 (आज  हरिनाथ डे की जयंती  )

       आलेख : स्वराज करुण 

सिर्फ़ 34 साल की उम्र में 36 भाषाओं का ज्ञाता बनना कोई मामूली बात नहीं है। संसार में अत्यधिक विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न ऐसे विद्वान गिने -चुने ही होते हैं । यहां तक कि ऐसी महान प्रतिभाओं का बारे में बहुत कम ही सुनने और पढ़ने को मिलता है। छत्तीसगढ़ की माटी में ,रायपुर की धरती पर पले-बढ़े हरिनाथ डे भी दुनिया की उन्हीं विलक्षण प्रतिभाओं   में से थे । उनकी जीवन यात्रा सिर्फ 34 साल की रही ,लेकिन जुनून की हद तक भाषाएँ सीखने की दीवानगी ने उन्हें विश्व के महानतम भाषाविदों की प्रथम पंक्ति में प्रतिष्ठित कर दिया। आज 12 अगस्त को उनका जन्म दिवस है। उन्हें विनम्र नमन । राजधानी रायपुर के बूढ़ापारा स्थित उनके पैतृक मकान के बाहर की दीवार  पर संगमरमर की शिलापट्टिका में उन सभी 36 भाषाओं की सूची अंकित है ,जिन्हें उन्होंने स्वाध्याय से सीखा । न सिर्फ सीखा ,बल्कि उनमें से कई भाषाओं में लेख लिखे और अनुवाद कार्य भी किया। जिन देशों में वह कभी गए नहीं ,वहाँ की भाषाओं में भी उन्होंने  दक्षता हासिल की ,जो वाकई आश्चर्यजनक है !  छत्तीसगढ़ की  राजधानी रायपुर को अनेक महान विभूतियों की जन्म और कर्मभूमि होने का  गौरव प्राप्त है । प्रसिद्ध साहित्यकार स्वर्गीय हरि ठाकुर ने अपने ग्रन्थ 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' में इन विभूतियों की महान उपलब्धियों से सुसज्जित जीवन यात्रा का विस्तृत वर्णन किया है । इसमें हरिनाथ जी के बारे में भी उन्होंने विस्तार से  लिखा है।  


                                           


  उल्लेखनीय है कि महान दार्शनिक और समाज सुधारक स्वामी विवेकानन्द ने अपने बाल्यकाल के दो स्वर्णिम वर्ष यहाँ बिताए थे । उन्हीं की तरह   विलक्षण प्रतिभा के धनी हरिनाथ डे ने भी अपनी किशोरावस्था के कुछ साल रायपुर में गुज़ारे । हरिनाथ के पिता श्री भूतनाथ डे रायपुर के प्रतिष्ठित वकील और म्युनिसिपल कमेटी के उपाध्यक्ष रह चुके थे । उन्हें अंग्रेज सरकार से राय बहादुर की पदवी मिली थी। वह स्थानीय बूढ़ापारा के निवासी थे। स्वामी विवेकानंद के पिता विश्वनाथ जी रायपुर प्रवास के दौरान कुछ महीने भूतनाथ डे के घर रुके थे। विश्वनाथ जी यहाँ स्वास्थ्य लाभ के लिए आए थे।

   जन्म बंगाल में ,प्राथमिक और मिडिल स्कूल की शिक्षा छत्तीसगढ़ में 

 वकील भूतनाथ डे के सुयोग्य सुपुत्र  हरिनाथ का  जन्म तो बंगाल के एक गाँव आरिया दाबा स्थित अपने ननिहाल में  12 अगस्त 1877 को हुआ था ।  वह पंद्रह अगस्त 1911 को मोतीझीरा की बीमारी से पीड़ित हुए और 30 अगस्त 1911 को उनका निधन हो गया ।बालक हरिनाथ को अधिक से अधिक भाषाएं सीखने की प्रेरणा शायद अपनी माता एलोकेशी से मिली थी ,जो  हिन्दी ,बांग्ला , मराठी और अंग्रेजी भाषाओं की जानकार थीं।

        अपने पिता के साथ आए थे छत्तीसगढ़

  हरिनाथ  अपने वकील पिता राय बहादुर श्री भूतनाथ डे के पास छत्तीसगढ़ के रायपुर आने के बाद यहाँ उनकी प्राथमिक शिक्षा मिशन स्कूल में  और मिडिल स्कूल की पढ़ाई गवर्नमेंट हाई स्कूल  में हुई। इस हाई स्कूल को हम आज स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जयनारायण पांडेय के नाम पर प्रोफेसर जे.एन.पांडेय शासकीय बहुउद्देश्यीय उच्चतर माध्यमिक शाला के रूप में   जानते हैं । रायपुर में हरिनाथ ने  मिडिल स्कूल की शिक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की । उन्हें छात्रवृत्ति भी मिली । हरि ठाकुर बताते हैं कि हरिनाथ यहाँ एक ईसाई संगठन के सम्पर्क में आए और उन्होंने बाइबल का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया। 

     इसी दरम्यान उन्होंने लैटिन भाषा का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया । उनकी गिनती इस भाषा के विद्वानों में होने लगी । रायपुर में  मिडिल तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए हरिनाथ  कलकत्ता चले गए।,जहाँ सेंट जेवियर कॉलेज में दाख़िला लिया और  वर्ष 1892 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से इंटरमीडिएट की परीक्षा में  प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए । उन्होंने अंग्रेजी और लैटिन भाषाओं में प्रावीण्यता भी दिखाई । उस वर्ष कलकत्ता विश्वविद्यालय में इंटरमीडिएट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले वह इकलौते विद्यार्थी थे । उन्हें छात्रवृत्ति मिली । 

     लैटिन भाषा में प्रथम श्रेणी में एम .ए.

      स्वर्ण पदक से हुए सम्मानित 

       उन्होंने कलकत्ता के ही प्रेसिडेंसी कॉलेज में एडमिशन लिया और वर्ष 1896 में वहाँ  परीक्षा उत्तीर्ण कर प्रथम श्रेणी में ग्रेजुएट हुए ।  उच्च शिक्षा के लिए केम्ब्रिज  भेजने उनका चयन किया गया । वर्ष 1896 में ही हरिनाथ ने स्वाध्यायी छात्र के रूप में लैटिन भाषा में प्रथम श्रेणी में एम. ए.किया । इस उपलब्धि के लिए उन्हें स्वर्ण पदक से सम्मानित किया गया । 

      इटैलियन कवि की रचनाओं पर शोध 

    वर्ष 1897 में उन्होंने इटैलियन कवि दांते की कविताओं पर शोध पत्र प्रस्तुत किया । हरिनाथ ने इंग्लैंड में भी पढ़ाई के दौरान अपनी अदभुत प्रतिभा का प्रदर्शन किया ।क्राइस्ट कॉलेज कैम्ब्रिज में अध्ययन करते हुए उन्होंने प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में ग्रीक भाषा में एम.ए.की परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली । 

 आई.सी.एस .में भी कामयाबी 

लेकिन उच्च प्रशासनिक पद अस्वीकार 

 वर्ष 1900 में वह क्राइस्ट कॉलेज से स्नातक हुए । उसी वर्ष उन्होंने इंडियन सिविल सर्विस (आई .सी एस.) की परीक्षा में भी कामयाबी हासिल की ,लेकिन ब्रिटिश सरकार के  उच्च प्रशासनिक पद की पेशकश को उन्होंने स्वीकार नहीं किया । उन्हें  कलकत्ता के प्रेसीडेन्सी कॉलेज में प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति दी गयी . वहां से वर्ष 1905 में उन्होंने स्वाध्याय से संस्कृत ,अरबी और ओडिया भाषाओं में परीक्षाएं उत्तीर्ण की । इस पर उन्हें तीन हजार रूपए का पुरस्कार मिला । सन 1906 में वह हुगली कॉलेज के प्राचार्य के पद पर नियुक्त हुए । प्राचार्य के पद पर कार्य करते हुए उन्होंने स्वाध्याय से पाली भाषा में भी एम.ए. कर लिया । 


                                          


कई भाषाओं में दक्षता 

 हिन्दी और  बंगला के ज्ञाता तो वह थे ही , उन्होंने  स्वाध्याय से पाली ,संस्कृत ,तिब्बती अरबी ,ओड़िया  ,भाषाओं के साथ -साथ ग्रीक ,स्पेनिश ,लैटिन तिब्बती ,चीनी ,हिब्रू , फारसी ,रूसी ,तुर्की , रुमानियन,रूसी  पोर्तुगीज ,इटैलियन ,स्पेनिश, एंग्लो-सेक्शन , जर्मन, फ्रेंच , डच  आदि कई भाषाओं में  भी दक्षता हासिल की और  कई भाषाओं की साहित्यिक रचनाओं का  अंग्रेजी  ,बांग्ला  आदि भाषाओं में  अनुवाद भी किया । उन्हें  कई अन्य भारतीय और एशियाई भाषाओं में दक्षता हासिल थी। 

       भाषाएं सीखने की दीवानगी 

      स्वर्गीय श्री हरि ठाकुर के अनुसार -हरिनाथ डे जितने बड़े भाषा शास्त्री थे ,भाषाविद् थे ,विभिन्न भाषाओं के साहित्य के जानकार थे ,उतने ही बड़े चिन्तक और धुरंधर लेखक भी थे । हरिनाथ जी में  भाषाएँ सीखने की दीवानगी थी।  किसी भी भाषा को सीखने में उन्हें कुछ महीनों से अधिक समय नहीं लगता था । जिन भाषाओं को उन्होंने सीखा , उनके साहित्य का गहन अध्ययन भी उन्होंने किया । अपने संक्षिप्त जीवन काल में उन्होंने 50 से भी अधिक कृतियों का सफलतापूर्वक सृजन कर अपनी अदभुत लेखन क्षमता और दक्षता का परिचय दिया । 

 आनंद मठ और वंदेमातरम का

 लैटिन और अंग्रेजी में अनुवाद किया 

  महान भाषा शास्त्री हरिनाथ डे ने   बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के कालजयी बांग्ला उपन्यास 'आनन्द मठ ' और उनकी लोकप्रिय कविता 'वंदेमातरम' का अंग्रेजी और लैटिन भाषाओं में अनुवाद किया था,जो वर्ष 1906 में प्रकाशित हुआ । पाणिनि और बुद्ध घोष पर उनकी व्याख्यात्मक समीक्षा भी वर्ष 1906 में छपी। 

उन्होंने अंग्रेजों द्वारा किए गए बौद्ध ग्रंथों के त्रुटिपूर्ण अनुवादों को जहाँ संशोधन सहित प्रस्तुत किया ,वहीं महाकवि कालिदास के संस्कृत महाकाव्य ' अभिज्ञान शाकुंतलम ' के दो खण्डों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। 


                                              


बहुत लम्बी है  हरिनाथ जी की रचनाओं की सूची 

 हरिनाथ जी की मौलिक और अनुवादित कृतियों की एक लम्बी सूची है। स्वर्गीय हरि ठाकुर ने 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' में उनके जीवन परिचय के साथ  इन कृतियों का  भी उल्लेख किया है। ठाकुर साहब द्वारा  दी गयी सूची के एक हिस्से की फोटोकॉपी   मैंने  इस पोस्ट में संलग्न की  है , जिसके अवलोकन से हरिनाथ जी की विलक्षण प्रतिभा का परिचय मिलता है। 

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Wednesday, August 10, 2022

(आलेख) विजयी विश्व तिरंगा प्यारा -- कीर्ति शेष श्यामलाल गुप्त 'पार्षद की अमर रचना


आलेख : स्वराज करुण

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  घर -घर तिरंगा फहराने के जोश और जुनून में कहीं हम उस कवि को भूल न जाएँ ,जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ,आज से लगभग सौ साल पहले हमारे  तिरंगे की शान में एक ऐसा गीत लिखा था ,जो देखते ही देखते आज़ादी के लाखों -करोड़ों दीवानों का प्रेरणास्त्रोत बन गया।  इस गीत में  भारत के परचम  को सदैव ऊँचा उठाए रखने का संकल्प प्रकट होता है ,  जिसकी भावनाओं में हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान की अनुगूंज  स्पष्ट  सुनी जा सकती है , जिसके ओजस्वी शब्दों से  हमारे राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन में देशभक्ति का सैलाब उमड़ने लगा था , आज 10 अगस्त को आम जनता के उसी कालजयी गीत के रचनाकार श्यामलाल गुप्त 'पार्षद ' की पुण्यतिथि है। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि । 


                                        


 हम याद कर रहे हैं उनकी लोकप्रिय रचना 'विजयी विश्व तिरंगा प्यारा -झण्डा ऊँचा रहे हमारा ' की उस प्रतिध्वनि को  जो  हर साल 15अगस्त को स्वतंत्रता दिवस पर और 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर  देश के कोने -कोने में समवेत स्वरों में गूंज उठती  है । कहना गलत नहीं होगा कि 'पार्षद' जी वास्तव में हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान के गीतकार थे। उनकी यह अमर रचना इस प्रकार है --

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा।

सदा शक्ति सरसाने वाला, प्रेम सुधा बरसाने वाला,

वीरों को हरषाने वाला, मातृभूमि का तन-मन सारा।।

झंडा ऊँचा रहे हमारा .....।

स्वतंत्रता के भीषण रण में, लखकर बढ़े जोश क्षण-क्षण में,

कांपे शत्रु देखकर मन में, मिट जाए भय संकट सारा।।

झंडा ऊँचा रहे हमारा .....।

इस झंडे के नीचे निर्भय, लें स्वराज्य यह अविचल निश्चय,

बोलें भारत माता की जय, स्वतंत्रता हो ध्येय हमारा।। 

झंडा ऊँचा रहे हमारा ....।

आओ ,प्यारे वीरों आओ ,एक साथ सब मिलकर गाओ, 

प्यारा भारत देश हमारा।। 

झंडा ऊँचा रहे हमारा ....।

इसकी शान न जाने पाए, चाहे जान भले ही जाए,

विश्व-विजय करके दिखलाएं, तब होवे प्रण पूर्ण हमारा।। 

विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा।

श्यामलाल पार्षद जी का  जन्म 9 सितम्बर 1896 को कानपुर में हुआ था ।निधन 10अगस्त 1977  को हुआ । भारत सरकार ने उन्हें 1969 में पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित किया था ।  उनके सम्मान में  भारतीय डाक विभाग ने 4 मार्च 1997 को प्रथम दिवस विशेष आवरण भी जारी किया था । उनकी याद में डाक टिकट भी जारी किया गया था। पार्षद जी ने अपने सुदीर्घ सार्वजनिक जीवन में अध्यापक ,स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ,समाज सेवी और पत्रकार के रूप में भी अपनी सार्थक भूमिकाओं का निर्वहन किया । वह  मानस मर्मज्ञ और रामायणी भी थे । उनकी लोकप्रिय रचना -'झण्डा ऊँचा रहे हमारा ' का पहली बार सामूहिक गायन जलियांवाला बाग दिवस पर 13 अप्रैल 1924 को पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में फूलबाग ,कानपुर में हुआ था । 

  आठ बार में छह साल  जेल में रहे 

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    महात्मा गांधी  के आव्हान पर जब देश भर में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ असहयोग आंदोलन चल रहा था ,तब पार्षदजी ने उसमें सक्रिय रूप से हिस्सा लिया ।इसके फलस्वरूप  उन्हें  रानी अशोधर के महल से 21 अगस्त 1921 को गिरफ्तार किया गया। जिला कलेक्टर ने  उन्हें दुर्दान्त क्रान्तिकारी घोषित करते हुए  केन्द्रीय जेल  आगरा भेज दिया । वर्ष  1924 में पार्षदजी ने  एक असामाजिक व्यक्ति पर व्यंग्य रचना की । इस वज़ह से   उन पर 500 रुपये का जुर्माना हुआ। वर्ष  1930 में नमक आन्दोलन में शामिल होने पर उन्हें फिर  गिरफ्तार किया गया और वह  कानपुर जेल में रखे गये। पार्षदजी  स्वतन्त्रता संग्राम में लगातार सक्रिय भागीदारी निभाते  हुए  1932 में तथा 1942 में भूमिगत भी  रहे। वर्ष  1944 में  फिर एक बार  गिरफ्तार हुए । उन्हें जेल भेज दिया गया ।।इस प्रकार  आठ बार में वह कुल छह साल तक स्वतंत्रता संग्राम के राजनैतिक बन्दी के रूप में जेल में रहे । 

आज़ादी  के  बाद देश की हालत को देखकर  वह बहुत दुःखी रहते थे ।  उन्होंने 12 मार्च 1972  को लखनऊ स्थित 'कात्यायनी ' कार्यालय में एक भेंटवार्ता में अपना दर्द कुछ इस तरह व्यक्त किया था -

देख गतिविधि देश की 

मैं मौन मन में रो रहा हूँ ।

आज चिन्तित हो रहा हूँ ।।

बोलना जिनको न आता  

आज वही अब बोलते हैं ,

रस नहीं बस देश के 

उत्थान में विष घोलते हैं ।

सर्वदा गीदड़ रहे अब 

सिंह बनकर डोलते हैं 

कालिमा अपनी छिपाएं ,

दूसरों की खोलते हैं ।।

देख उनका व्यक्तिक्रम मैं,

आज साहस खो रहा हूँ,

आज चिन्तित हो रहा हूँ ।।

  आज़ादी के आंदोलन के दिनों में पार्षदजी  ,   प्रखर पत्रकार और स्वतंत्रता संग्रामी गणेश शंकर विद्यार्थी और प्रताप नारायण मिश्र के अभिन्न  सहयोगी थे । उनके सानिध्य में उन्होंने अध्यापन और पुस्तकालय संचालन का काम किया और पत्रकारिता भी की । 

  - स्वराज करुण

Tuesday, August 9, 2022

(आलेख) वह ऐतिहासिक तस्वीर जो 'बहुरूपियों' को बारम्बार देती है चुनौती !

  (आलेख :  स्वराज करुण)

समय सबसे बड़ा इतिहासकार है। वह हमेशा गतिमान रहता है और हर तरह की घटनाओं को इतिहास के पन्नों में दर्ज करता रहता है। आज  9 अगस्त का दिन भी हमारे देश के इतिहास में दो यादगार घटनाओं के रूप में अमिट अक्षरों में दर्ज है। इन  दो बड़ी घटनाओं  से ही हमाराभारत की आज़ादी के लिए हमारे पूर्वजों का   महान संघर्ष एक निर्णायक दौर में पहुँचा । भारत छोड़ो आंदोलन  की 80 वीं और काकोरी विद्रोह की 97 वीं वर्षगाँठ के इस मौके पर आइए , हम अपने महान योद्धाओं के  इन दोनों देशभक्तिपूर्ण प्रसंगों को दिल की गहराइयों से याद करें।

      राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने 8 अगस्त को मुम्बई के गोवालिया टैंक मैदान में लाखों लोगों की एक विशाल सभा को जब अपने अधनंगे बदन से सम्बोधित करते हुए अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ 'भारत छोड़ो आंदोलन' का मंत्र फूँका तो न सिर्फ़ मुम्बई ,बल्कि सम्पूर्ण भारत की जनता में राष्ट्रीय चेतना की लहर दौड़ गई। यह अवसर था अखिल भारतीय कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन का। गांधी जी के आव्हान पर दूसरे दिन 9 अगस्त से देश भर में अहिंसक सत्याग्रह और धरना प्रदर्शनों का सिलसिला चल पड़ा ,इसके साथ ही आज़ादी के दीवानों की गिरफ्तारियों का दौर भी शुरू हो गया। लेकिन 5 साल बाद अंततः 15 अगस्त 1947 को देश आज़ाद हुआ। 


                                                        


                                             एक सच्चे लोक -नेता की सादगीपूर्ण तस्वीर 

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     गांधीजी की यह तस्वीर आज के उन बहुरूपिया नेताओं को आइना दिखाती है ,जो जन सेवा के नाम पर सिर्फ़ और सिर्फ़ रुपिया कमाने को ही अपना लक्ष्य मानकर चलते हैं और तरह -तरह के रंग -बिरंगे कीमती परिधानों में , तरह -तरह का रूप धारण कर  अपने चारों ओर पहरेदारों  की कड़ी और सशस्त्र सुरक्षा लगाकर जनता के बीच आते - जाते हैं और लच्छेदार भाषण देते हैं। लेकिन बिना किसी तामझाम के , महात्मा गांधी की यह 80 साल पुरानी तस्वीर भारत के  एक सबसे सहज सरल जन -नेता की छवि उभारती है । उनकी यह सहज -सरल तस्वीर एक सच्चे लोक -नेता का प्रतिबिम्ब है । यह ऐतिहासिक तस्वीर मौन रहकर भी आज के नेताओं को बारम्बार चुनौती देती है कि वे भी जनता के बीच इसी तरह सादगी से जाकर दिखाएं और स्वयं को लोगों का सच्चा मित्र और हितैषी साबित करें। वर्ष 1947 में 15 अगस्त को जब देश आज़ादी की नई सुबह देख रहा था ,तब उस दिन महात्मा गांधी अपने इसी दुबले पतले अधनंगे बदन के साथ बंगाल के नोवाखाली की सड़कों पर दंगाइयों की हिंसक भीड़ में खड़े होकर शांति और अहिंसा का पैगाम दे रहे थे। यह आज के उन नेताओं के लिए एक नसीहत है ,जो दंगे रुकवाने के लिए नहीं ,बल्कि दंगे भड़काने के लिए जाने जाते हैं। 

                            देश भर में 60 हजार गिरफ़्तार ,940 शहीद 

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    भारत छोड़ो आंदोलन के शुरू होते ही  गाँधीजी और सरोजिनी नायडू को यरवदा (पुणे) के आगा खां पैलेस में और डॉ .राजेन्द्र प्रसाद को पटना के बांकीपुर जेल में नज़रबंद कर दिया गया । लालबहादुर शास्त्री को 19 अगस्त 1942 को गिरफ़्तार किया गया । लगभग एक साल तक चले इस ऐतिहासिक आंदोलन में शासकीय अभिलेखों के अनुसार 940 लोग शहीद ,1630 घायल हुए ।अंग्रेज सरकार के डीआरआई कानून के तहत देश भर में 18 हज़ार  स्वतंत्रता सेनानियों को नज़रबंद किया गया और 60 हज़ार सेनानी गिरफ्तार किए गए ।

                                      काकोरी सशस्त्र विद्रोह 

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      भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास हमें यह भी याद दिलाता है कि 9 अगस्त  को अंग्रेजी शासन के विरुद्ध  महान क्रांतिकारी शहीद रामप्रसाद विस्मिल के नेतृत्व में हुए काकोरी सशस्त्र विद्रोह  का भी स्मृति दिवस है । हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ के  क्रांतिकारियों ने 9 अगस्त 1925 को  लखनऊ जिले के काकोरी रेल्वे स्टेशन से छूटी सहारनपुर -लखनऊ पैसेंजर ट्रेन को जंजीर खींचकर रोका और उसमें रखा हुआ ब्रिटिश सरकार का खजाना लूट लिया । रामप्रसाद बिस्मिल की अगुआई में  अशफाकउल्ला खान और चन्द्रशेखर आज़ाद सहित कई  क्रांतिकारियों ने इस घटना को अंजाम दिया था । 

                                क्रांतिकारियों पर मुकदमा 

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     घटना के बाद अंग्रेज सरकार ने हिंदुस्तान प्रजातांत्रिक संघ के 40 सदस्यों पर सम्राट के खिलाफ़ युद्ध छेड़ने (राजद्रोह ) ,सरकारी ख़ज़ाने को लूटने और यात्रियों की हत्या  जैसे गंभीर आरोप लगाकर देश भर से उन्हें गिरफ़्तार कर लिया ।  उन पर  मुकदमा चलाया  गया।  बिस्मिल और उनके 8 साथी शाहजहांपुर से , शचीन्द्रनाथ सान्याल और राजेंद्र लाहिड़ी  सहित 5 सेनानी बंगाल से और अशफाक उल्ला खान दिल्ली से गिरफ़्तार हुए ।

                          फाँसी और कालेपानी की सजा 

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      वैसे शचीन्द्रनाथ और राजेंद्र लाहिड़ी दक्षिणेश्वर बमविस्फोट मामले में पहले से ही गिरफ्तार चल रहे थे । उन पर काकोरी षडयंत्र केस का भी आरोप दर्ज हुआ । मन्मथनाथ गुप्त और उनके 5 साथियों को बनारस में पकड़ा गया । मुकदमा चला और रामप्रसाद बिस्मिल ,अशफाकउल्ला खान और ठाकुर रोशन सिंह को  फाँसी की सजा हुई और कम से कम 16 क्रांतिकारियों को चार वर्ष से लेकर आजीवन कैद (कालेपानी ) की सजा दी गयी । 

                          मेरा रंग दे बसंती चोला 

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    काकोरी सशस्त्र विद्रोह  में मुख्य रूप से 10 क्रांतिकारी शामिल थे । इनमें से चन्द्रशेखर आज़ाद सहित 5 को फ़रार घोषित किया  गया । काकोरी प्रकरण  में गिरफ़्तार रामप्रसाद बिस्मिल ने लखनऊ  जेल में रहते हुए प्रसिद्ध गीत  'मेरा रंग दे बसंती चोला ' की रचना की । दरअसल उनके मुकदमें  के दिन वसन्त पंचमी थी । गिरफ़्तार क्रांतिकारियों ने तय किया कि वे पीली टोपी पहनकर और हाथ में  पीला रूमाल लेकर गीत गाते हुए कोर्ट जाएंगे । उन्होंने बिस्मिल जी से इसके लिए गीत लिखने का अनुरोध किया । उनके लिखे गीत में बाद में क्रांतिकारी भगतसिंह ने कुछ पंक्तियाँ जोड़ी । उन दिनों भगतसिंह लाहौर जेल में बन्द थे ।

                          सरफ़रोशी की तमन्ना 

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उन्हीं दिनों इन क्रांतिकारियों के बीच पटना (अज़ीमाबाद) के प्रसिद्ध शायर विस्मिल अज़ीमाबादी की रचना बहुत पसंद की जाती थी --

 " सरफ़रोशी की तम्मना अब हमारे दिल में है दे

  देखना है जोर कितना बाजुए क़ातिल में है ।"

  जेल में बंद रामप्रसाद बिस्मिल सहित उनके अन्य क्रांतिकारी साथी भी इसे  गाया  और गुनगुनाया करते थे । यह रचना उनके दिलों में आज़ादी की लड़ाई के लिए और भी ज़्यादा जोश भरा करती थी।

  आलेख      -- स्वराज करुण

Wednesday, August 3, 2022

(आलेख) चारुचंद्र की चंचल किरणें ....

 आज महाकवि मैथिलीशरण गुप्त की जयंती पर विशेष 

          (आलेख - स्वराज करुण)

अपनी एक से बढ़कर एक अनमोल रचनाओं से हिन्दी साहित्य के संसार को सजाने ,संवारने वाले   महाकवि मैथिलीशरण गुप्त की आज जयंती है।उन्हें विनम्र नमन । राष्ट्र -प्रेम  से परिपूर्ण उनकी रचनाओं से प्रभावित होकर  राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उन्हें 'राष्ट्रकवि ' का सम्मानजनक सम्बोधन दिया था । स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में गुप्त जी ने  अपनी रचनाओं से जनता में देशप्रेम और राष्ट्रीय चेतना जगाने का ऐतिहासिक कार्य किया । 

                                                  



भारत -भूमि की महिमा गाते हुए वह कहते हैं --

सम्पूर्ण देशों से अधिक ,

किस देश का उत्कर्ष है ,

उसका कि जो ऋषि भूमि है ,

वह कौन , भारत वर्ष है  

गुप्तजी  द्वारा रचित खंड-काव्य 'पंचवटी' की इन पंक्तियों में शब्दालंकार की आकर्षक अनुगूंज को भला कौन भूल सकता है ,जिसमें उन्होंने कल्पना की है कि भगवान श्रीराम  वनवास के दौरान उनकी  पर्ण कुटि  के आस - पास का  रात्रिकालीन प्राकृतिक परिवेश कितना सुंदर रहा होगा ?   उनकी यह कल्पना शक्ति पाठकों को सम्मोहित कर लेती है -- 

चारुचंद्र की चंचल किरणें ,

खेल रही हैं जल-थल में ,

स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है

अवनि और अम्बर तल में !

 उनकी एक कविता का यह अंश हमें संदेश देता है कि जीवन-संघर्ष में मनुष्य को कभी निराश नहीं होना चाहिए। उनका संदेश बहुत स्पष्ट है --

नर हो न निराश करो मन को ,

कुछ काम करो ,कुछ काम करो ,

जग में रह के निज नाम करो !

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो ,

समझो ,जिसमें यह व्यर्थ न हो !

 तत्कालीन भारतीय समाज में   नारी जीवन की कारुणिक परिस्थितियों को उन्होंने 'यशोधरा ' में कुछ इस तरह अपनी वाणी देकर जन-मानस को झकझोरने का प्रयास किया -

अबला जीवन हाय 

तुम्हारी यही कहानी ,

आँचल में है दूध और 

आँखों में पानी !

 मैंने और शायद आपमें से बहुत -से मित्रों ने स्कूली जीवन में गुप्त जी की इन रचनाओं को कई बार पढ़ा और उनकी भावनाओं को हॄदय की गहराइयों से महसूस भी किया है । मैथिलीशरण गुप्त जी का जन्म 3 अगस्त 1886 को उत्तरप्रदेश में  झांसी के पास चिरगांव में हुआ था । उन्होंने घर पर ही संस्कृत ,हिन्दी और बांग्ला भाषाओं का गहन अध्यययन किया ।   राष्ट्रकवि ने हिन्दी साहित्य को अपनी अनेक कालजयी रचनाओं से समृद्ध किया ,जिनमें महाकाव्य 'भारत-भारती' और 'साकेत'  भी शामिल हैं .भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 1953 में 'पदम् -विभूषण ' और वर्ष 1954 में 'पदम्-भूषण' के राष्ट्रीय अलंकारों से सम्मानित किया था ।  मैथिली शरण गुप्त वर्ष 1952 से 64 तक राज्य सभा के सदस्य भी रहे । आजादी के आन्दोलन में भी उनका उल्लेखनीय योगदान  रहा । वर्ष 1941 में व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौरान उन्हें गिरफ्तार किया गया था । उनका निधन 12 दिसम्बर 1964 को हुआ । भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया था।

     आलेख  --स्वराज करुण

(आलेख )इंसानी ज़िन्दगी के तरह -तरह के रंगों से सजे शकील बदायूंनी के तराने

शकील साहब के  जन्म दिन 3 अगस्त पर विशेष 

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(आलेख : स्वराज करुण)

फ़िल्मी गीतों को   साहित्यिक रंगों से रंगकर उन्हें लाखों -करोड़ों होठों की गुनगुनाहट बना देने वाले लोकप्रिय गीतकार शकील बदायूंनी का  आज  जन्म दिन है । वह आज अगर हमारे बीच होते तो 106 साल के हो चुके होते। उनके लिखे गीत सत्तर -पचहत्तर साल गुज़र जाने के बावज़ूद आज भी मधुर भावनाओं के साथ अपनी ताज़गी बनाए हुए हैं।   


                                                       


 जनता की ज़ुबान पर वर्षों तक रचे -बसे उनके तरानों में मानवीय संवेदनाओं की अनुगूंज  साफ़ सुनी जा सकती है।
चाहे  वर्ष 1947 में आई फ़िल्म 'दर्द' में  -'

"अफ़साना लिख रही हूँ ,दिले बेकरार का '" जैसा गीत हो या 

1952 की फ़िल्म 'बैजू बावरा ' का भजन 

"मन तड़पत हरि दर्शन को आज " 

या फिर वर्ष 1962 में आई 'सन ऑफ इंडिया' में 

" नन्हा मुन्ना राही हूँ -देश का सिपाही हूँ 

बोलो मेरे संग ,जय हिन्द ...जय हिन्द "

जैसा  राष्ट्रभक्ति पूर्ण बाल गीत , शकील साहब की शायरी में इंसानी ज़िन्दगी के कई के रंग देखे जा सकते हैं। जैसे  वर्ष  1951 में आई 'दीदार' फ़िल्म के लिए लिखा उनका गीत -

"बचपन के दिन भुला न देना ,

आज हँसे ,कल रुला न देना " 

       और 

वर्ष 1955 की फ़िल्म 'उड़न खटोला' का गाना -'

"ओ दूर के मुसाफ़िर ,हमको भी साथ ले ले ,

 हम रह गए अकेले "


इन गीतों को गुनगुनाते हुए हर किसी का मन आज भी भावुक हो जाता है। उन्होंने 'मदर इंडिया ' ,मुगल -ए -आज़म ' और चौदहवीं का चांद 'सहित कई फिल्मों के लिए गाने लिखे। उनके अधिकांश गीतों को जहाँ नौशाद जैसे महान संगीतकार ने अपनी मधुर धुनों से सजाया ,वहीं मोहम्मद रफ़ी और मन्ना डे सहित अनेक नामचीन पार्श्व गायक -गायिकाओं ने अपनी आवाज़ से उनमें सम्मोहन की मिठास घोलकर जन -जन तक पहुँचाया ।

    शकील साहब का जन्म 3 अगस्त 1916 को उत्तरप्रदेश के बदायूं में हुआ था। शिक्षा लखनऊ में हुई। वहाँ मशहूर शायर जिया उल कादरी से शायरी की बारीकियां समझीं ।फिर  नौकरी के लिए 1942 में दिल्ली आ गए। शकील साहब को आपूर्ति अधिकारी के पद पर नियुक्ति मिली ।नौकरी के साथ -साथ शायरी भी चलती रही। फिल्मों में किस्मत आजमाने वर्ष 1946 में नौकरी छोड़कर मुम्बई आ गए।बॉलीवुड में उनके गीतों को हाथों -हाथ लिया गया । वह तीन बार फ़िल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित हुए। उनका निधन 20 अप्रैल 1970 को मुम्बई में  हुआ। भारत सरकार ने उनके सम्मान में वर्ष 2013 में डाकटिकट जारी किया। वह भारतीय सिनेमा का शताब्दी वर्ष था।

     शकील साहब आज अगर हमारे बीच होते तो 104 बरस के हो चुके होते । भले ही आज वो हमारे बीच नहीं हैं ,लेकिन अपने लिखे  गीतों और गज़लों में  वह इस दुनिया को सैकड़ों वर्षों तक अपने होने का एहसास दिलाते रहेंगे। विनम्र श्रद्धांजलि।

आलेख : स्वराज करुण