Tuesday, September 28, 2021

व्यंग्य - धनुष के बेजोड़ तीरंदाज लतीफ़ घोंघी


       (आलेख : स्वराज करुण )
जिनके व्यंग्य धनुष के नुकीले तीरों ने देश और दुनिया की तमाम तरह की सामाजिक ,आर्थिक विसंगतियों को अपना निशाना बनाया , जिनके व्यंग्य बाण  समय -समय पर  मीठी छुरी की तरह चलकर , हँसी -हँसी में ही लगभग 50 वर्षों तक  भारत के भयानक टाइप भाग्य विधाताओं को घायल करते रहे , हिन्दी व्यंग्य साहित्य के ऐसे बेजोड़  तीरंदाज स्वर्गीय लतीफ़ घोंघी का  आज जन्म दिन है। उन्हें विनम्र नमन । 
     व्यंग्य लेखन की उनकी अपनी एक विशेष शैली थी । वह व्यंग्य के तीर हास्य की चाशनी में डुबोकर चलाया करते थे।  हमारे आस -पास  होने वाली   दिन -प्रतिदिन की घटनाएं और देश -दुनिया के खलनायक जैसे लोग उनके व्यंग्य बाणों की जद में रहा करते थे। 
  लतीफ़ साहब  आधुनिक हिन्दी साहित्य की व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर थे । उन्होंने  महासमुन्द जैसे छोटे कस्बाई शहर में रहकर अपनी सुदीर्घ   साहित्य साधना के जरिए देश -विदेश के हिन्दी संसार में छत्तीसगढ़ का नाम रौशन किया ।  लतीफ़ साहब ने  हिन्दी साहित्य के अनमोल ख़ज़ाने को अपनी एक  बढ़कर एक व्यंग्य रचनाओं के मूल्यवान रत्नों  से समृद्ध बनाया। आज उनका जन्म दिन है।  उन्हें विनम्र नमन ।
                     
    महासमुन्द उनका गृह नगर था।  इसी नगर के पास ग्राम बेलसोंडा में 28 सितम्बर 1935 को उनका जन्म हुआ था। निधन 24 मई 2005 को महासमुन्द में हुआ।   लगभग आधी शताब्दी के  उनके लेखकीय जीवन में विभिन्न  पत्र -पत्रिकाओं में बड़ी संख्या में उनकी रचनाएं नियमित रूप से छपती रहीं।  । देश के अनेक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थानों से उनके 35 से अधिक व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हुए। इनमें - तिकोने चेहरे (वर्ष 1964),  उड़ते उल्लू के पंख (1968), मृतक से क्षमा याचना सहित (वर्ष 1974), बीमार न होने का दुःख (वर्ष 1977), संकटलाल ज़िंदाबाद (वर्ष 1978),  बुद्धिमानों से बचिए (वर्ष 1988) और मंत्री हो जाने का सपना (वर्ष 1994) भी उल्लेखनीय हैं।  
   मुस्कुराहटों के साथ तिलमिलाहटें उनकी व्यंग्य रचनाओं की विशेषता थी ,जो  किसी भी बेहतरीन व्यंग्य रचना की सफलता के लिए अनिवार्य है । जिसे पढ़कर पाठकों को हँसी तो आए लेकिन व्यवस्था जनित विसंगतियों पर गुस्सा भी आए और  तरह -तरह की विवशताओं में कैद ,परेशान ,हलाकान इंसानों का चित्रण देखकर मन करुणा से भर उठे। वही असली व्यंग्य है। इस मायने में लतीफ़ घोंघी राष्ट्रीय स्तर के  एक कामयाब और शानदार व्यंग्यकार थे।
    वह पेशे से वकील थे ,लेकिन जीवन के पूर्वार्ध में उन्होंने आजीविका के लिए कई काम सीखे ,कई व्यवसाय किए । दर्जी का काम भी किया। सरकारी प्राथमिक स्कूल में अध्यापक की नौकरी की। बाद के वर्षों में वकालत की पढ़ाई करने के बाद अधिवक्ता के रूप में महासमुन्द कोर्ट में प्रेक्टिस करने लगे। साहित्य के अलावा संगीत में भी उनकी गहरी दिलचस्पी थी। गायन ,वादन के शौकीन थे। व्यंग्य लेखक के रूप में उनकी एक बड़ी ख़ासियत यह थी कि वह अपनी किसी भी व्यंग्य रचना की कोई भी कॉपी पहले किसी कागज या रजिस्टर या डायरी में अलग से लिखकर नहीं रखते थे।  उसे  एक ही बार में ,एक ही स्ट्रोक में अपने छोटे-से पोर्टेबल टाइपराइटर पर टाइप कर लेते थे और छपने के लिए भेज देते थे।
   देश के विभिन्न  विश्वविद्यालयों में  उनके व्यंग्य साहित्य पर कई  शोधार्थियों को पी-एच.डी. की उपाधि मिल  चुकी है। छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी ने भी उनके चयनित व्यंग्य लेखों का संकलन प्रकाशित किया है।   आलेख -स्वराज करुण

Saturday, September 25, 2021

माता कौशल्या के जीवन पर पहला उपन्यास : कोशल नंदिनी

पुस्तक चर्चा 
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कोशल नंदिनी : आत्मकथा शैली में 
माता कौशल्या के जीवन पर पहला उपन्यास 
       (आलेख : स्वराज करुण )  
प्राचीन महाकाव्यों के प्रसिद्ध पात्रों पर उपन्यास लेखन किसी भी साहित्यकार के लिए एक चुनौतीपूर्ण और जोख़िम भरा कार्य होता है।चुनौतीपूर्ण इसलिए कि लेखक को उन पात्रों से जुड़े पौराणिक प्रसंगों और तथ्यों का बहुत गहराई से अध्ययन करना पड़ता है। इतना ही नहीं ,बल्कि उसे उन पात्रों की मानसिकता को , उनके भीतर की मानसिक उथल -पुथल को या कह लीजिए कि उनके   मनोविज्ञान को गंभीरता से समझना पड़ता है। घटनाओं से ताल्लुक रखने वाले इलाकों के तत्कालीन भूगोल और वहाँ की तत्कालीन समाज व्यवस्था और संस्कृति की भी जानकारी रखनी पड़ती है।  लिखते समय कथानक से जुड़े तमाम चरित्रों को अपने चिन्तन के साँचे में ढालकर उन्हें अपने भीतर जीना भी पड़ता है। तभी तो उन पात्रों से सम्बंधित घटनाओं को ,उनकी बातचीत को ,उनके संवादों को वह जीवंत रूप में अच्छी  तरह प्रस्तुत कर पाता है। 

 पौराणिक उपन्यासों के लेखक : 
 शिवशंकर पटनायक 
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    पौराणिक उपन्यास लेखन जोख़िम भरा इसलिए भी होता है कि तथ्य और प्रसंग अगर त्रुटिपूर्ण हुए तो लेखक को आलोचना का पात्र बनना पड़ता है।  इन सभी कसौटियों पर देखें तो छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले में पिथौरा जैसे छोटे कस्बे के निवासी शिवशंकर पटनायक एक कामयाब उपन्यासकार हैं ,जो लगभग 78 वर्ष की उम्र में भी उत्साह के साथ साहित्य के लिए समर्पित होकर कहानी ,उपन्यास और निबंध जैसी विधाओं में लगातार सृजनरत हैं। 

पटनायक जी ने  रामायण और  महाभारत जैसे प्राचीन भारतीय महाकाव्यों  के अनेक  चर्चित चरित्रों पर कई उपन्यासों की रचना की है ,जिन्हें हिन्दी के  साहित्यिक अभिरुचि सम्पन्न पाठकों का अच्छा प्रतिसाद मिला है।  इनमें (1) भीष्म प्रश्नों की शर -शैय्या पर (2) कालजयी कर्ण ((3) एकलव्य आदि उल्लेखनीय हैं।  रामायण और महाभारत की प्रसिद्ध महिलाओं की जीवन यात्रा को भी उन्होंने अपने उपन्यासों का विषय बनाया है। उनका एक उपन्यास ' आत्माहुति ' माता कैकेयी के जीवन पर आधारित है। अहल्या ,तारा ,मंदोदरी , कुन्ती और द्रौपदी पर केन्द्रित उनके उपन्यास 'आदर्श नारियां ' शीर्षक से दो भागों में प्रकाशित हुए हैं।शिवशंकर पटनायक इसके पहले अपने पौराणिक उपन्यासों की श्रृंखला में दुर्योधन की पत्नी भानुमति पर एक उपन्यास 'नागफ़नी पर खिला गुलाब ' लिख चुके हैं। 
     
    माता कौशल्या की आत्म -कथा : कोशल नंदिनी 
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       इसी तारतम्य में रामायण के महानायक  प्रभु श्रीराम की माता कौशल्या की जीवन -गाथा पर आधारित उनका उपन्यास 'कोशल-नंदिनी 'भी हाल ही में प्रकाशित हुआ है , जो हमारे प्राचीन इतिहास में 'कोसल ' और ' दक्षिण कोसल' के नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि पर आधारित है। यह अंचल दंडकारण्य के नाम से भी प्रसिद्ध रहा है। कई विद्वानों ने इस अंचल को माता कौशल्या का मायका और भगवान श्रीराम का ननिहाल माना है। इस नाते छत्तीसगढ़ की जनता से प्रभु श्रीराम का 'मामा -भांचा ' का रिश्ता बनता है और यही कारण है कि यहाँ भानजे के चरणस्पर्श की परम्परा है। माता कौशल्या दक्षिण कोसल के महाराजा भानुवंत और महारानी सुबाला की पुत्री थीं। महानदी के किनारे श्रीपुर (वर्तमान सिरपुर ) को महाराज भानुवंत की राजधानी माना जाता है।
               
              उपन्यास की पृष्ठभूमि छत्तीसगढ़
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   शिवशंकर पटनायक रचित  'कोशल नंदिनी ' माता कौशल्या के जीवन पर आत्मकथा के रूप में हिन्दी में पहला उपन्यास है ,जिसकी पृष्ठभूमि तत्कालीन कोसल या दक्षिण कोसल है और छत्तीसगढ़ जिसका अभिन्न अंग रहा है। अपने उपन्यासों में पात्रों को फ्लैशबैक में ले जाकर उनके ही माध्यम से घटनाओं का वर्णन करना शिव शंकर पटनायक की लेखकीय विशेषता है। वह कहानीकार भी हैं और यही खूबी उनकी कहानियों में भी होती है।
उपन्यास' कोशल नंदिनी' की शुरुआत होती है रावण वध के बाद अवधपुरी (अयोध्या)में बने उत्साह और उत्सव के वातावरण से और समापन होता है श्रीराम के वनगमन के करुणामय प्रसंग के साथ। हालांकि दोनों घटनाओं में वनगमन पहले होना था ,लेकिन उपन्यास ने अपनी चिर-परिचित फ्लैशबैक शैली में शुरुआत की है ,जिसमें माता कौशल्या अवधपुर के राजप्रासाद में मनाए जा रहे उत्सव का वर्णन करती हैं और श्रीराम के वनगमन को वह माता कैकेयी की आत्माहुति कहकर अपनी 'आत्म-कथा ' को विराम देती हैं। 
        
      शिवाहा पर्वत और चित्रोत्पला महानदी 
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     उपन्यास के सभी प्रसंग पाठकों में कौतुहल जाग्रत करते हैं । लेखक ने दक्षिण कोसल के प्राचीन स्थलों को भी रेखांकित किया है, जो पाठकों के ज्ञानवर्धन की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है। जैसे -- वर्तमान सिहावा पर्वत उन दिनों 'शिवाहा 'कहलाता था ,जो चित्रोत्पला महानदी का उदगम भी है। भगवान श्रीराम की बहन का नाम शांता था। वह विकलांग थीं ,लेकिन अपने गहन अध्ययन और कठोर परिश्रम से उन्होंने विकलांगता को पराजित कर दिया था।
       
       कौशल्या जन्म की कहानी और 
       राजीव लोचन मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा
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 माता कौशल्या का एक नाम ' अपराजिता' भी है। वह अपनी माता सुबाला से अपने जन्म की कहानी जानना चाहती हैं। सुबाला उन्हें बताती हैं कि संतान प्राप्ति के लिए उन्होंने और महाराज भानुवंत ने भगवान शिव की आराधना की । वह प्रकट हुए । उन्होंने उनसे भगवान विष्णु की पूजा करने और चित्रोत्पला के संगम पर उनका मंदिर स्थापित करने की सलाह दी और कहा कि मुझमें और भगवान श्रीकांत (विष्णु)में कोई अंतर नहीं है। उन्होंने भानुवंत और सुबाला को इस मंदिर की स्थापना के साथ ही ऋषि लोमश के साथ संतान कामेष्टि यज्ञ करवाने के लिए भी कहा। महारानी सुबाला अपराजिता यानी कौशल्या को बताती हैं -"-मंदिर निर्माण में सभी ने अभूतपूर्व सहयोग दिया। चित्रोत्पला महानदी के संगम पर  जहाँ दो अन्य सहायक नदियाँ आकर मिलती हैं ,स्थापत्य कला से पूर्ण भगवान राजीव लोचन का मंदिर निर्मित हो गया। ऋषि लोमश का सम्पूर्ण समय निरीक्षण ,अवलोकन  तथा पर्यवेक्षण में व्यतीत हुआ। स्वामी जब कभी आकस्मिक रूप से वहाँ पहुँचते ,ऋषि लोमश से अवश्य मिलते।भगवान राजीव लोचन के मंदिर के भव्य शिलान्यास के साथ निर्माण कार्य प्रारंभ हो गया तथाअप्रत्याशित समयावधि में पूर्ण हो गया।आर्यावर्त के लगभग मध्य में स्वर्ण रेखा नर्मदाजी से चित्रोत्पला महानदी के उदगम स्थल शिवाहा पर्वत से आगे तक विस्तृत कोसल राज्य के प्रायःसभी ऋषि यथा --कश्यप , अत्रि ,लोमश , श्रृंगी , मुचकुंद ,अंगिरा ,सरभंग के अतिरिक्त वशिष्ठ ,विश्वामित्र ,गौतम ,अगस्त्य तथा महेन्द्र गिरि से  परशुराम ऋषि भी भगवान राजीवलोचन की प्राण -प्रतिष्ठा के समय उपस्थित हो गए थे। ऋषियों ने महाराज को आशीष तथा शुभकामनाएं देकर विदा ली। इसके पांचवें दिन ऋषि लोमश ने राजीव लोचन मंदिर प्रांगण में ही संतान कामेष्टि यज्ञ प्रारंभ कर दिया। 
     
 कोसल की पावन धरा पर जन्म मेरा सौभाग्य
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    उपरोक्त वर्णन से  स्पष्ट होता है कि चित्रोत्पला महानदी और दो अन्य नदियों (पैरी और सोंढूर )का यह संगम स्थल छत्तीसगढ़ का वर्तमान तीर्थ  राजिम है ,जहाँ दक्षिण कोसल के महाराजा भानुवंत ने लोमश ऋषि की देखरेख में विष्णु मंदिर के रूप में राजीव लोचन मंदिर का निर्माण करवाया था। उपन्यास में माता सुबाला अपनी पुत्री अपराजिता (कौशल्या)को बताती हैं कि यज्ञ के फलस्वरूप भगवान लक्ष्मीनारायण ने स्वप्न में महाराज भानुवंत को संतान प्राप्ति का वरदान दिया और आगे चलकर पुत्री अपराजिता का जन्म हुआ। अपने जन्म की कथा सुनकर वह कहती है --"वास्तव में यह मेरा सौभाग्य था कि कोसल की पावन धरा पर मैंने जन्म लिया।"
          
           प्रजा हितैषी राजा -महाराजा
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  उपन्यास के महत्वपूर्ण घटनाचक्र में एक ज्ञानवर्धक प्रसंग रामायण काल के राजाओं के प्रजा हितैषी स्वभाव को भी प्रकट करता है ,जो देश की चार प्रमुख नदियों के अवतरण का भी प्रसंग है। माता कौशल्या ने यह कथा ऋषि कश्यप से सुनी थी। उपन्यास में कौशल्या के।माध्यम से लेखक ने इसका वर्णन किया है। 
    यह महाराज चित्रवंत की कथा है ,जिन्होंने कोसल राज्य की प्रजा के आग्रह पर राज्य में गंगा की तरह एक जीवनदायिनी नदी की आवश्यकता को देखते हुए वन में रहकर अनेक वर्षों तक मातागंगा की कठोर तपस्या की। माता गंगा प्रकट होती हैं और उनसे वरदान मांगने के लिए कहती हैं। इस पर महाराज चित्रवंत उनसे प्रजा हित में कोसल राज्य में आने का आग्रह करते हैं।लेकिन वह अपनी विवशता बताकर कहती हैं -- "मैं तुम्हारी भावनाओं की सराहना करती हूँ,किन्तु विवश हूँ।भगवान विष्णु के चरणों से निकलकर त्रिलोचन भगवान आशुतोष महादेव की जटा पर बंधी हूँ। सर्व कल्याण ही तुम्हारा लक्ष्य है।अतः ,पुत्र , तुम हताश न होकर सदाशिव महादेव को संतुष्ट करो।"
        
        देश की चार प्रमुख नदियों का अवतरण 
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   महाराज चित्रवंत तनिक भी निराश हुए बिना भगवान शिव की तपस्या में लीन हो गए। महादेव प्रकट हुए और उन्होंने चित्रवंत से वरदान मांगने कहा। उनके यह कहने पर कि आप तो अंतर्यामी हैं ,आप मेरे हॄदय की पीड़ा को जानते हैं , भगवान महादेव मुस्कान सहित कहते हैं -- "भगीरथ ने अपने पूर्वजों अर्थात महाराज सागर के 60 हजार पुत्रों के मोक्ष के लिए धरती पर गंगा का अवतरण कराया था ,किन्तु तुम तो अपनी प्रजा तथा दक्षिणवासी वनवासियों के जीवन ,जल तथा मोक्ष के लिए देवी गंगा का प्राकट्य चाह रहे हो।यह काम -विकार रहित लोक -कल्याण के लिए कामना है।इस पर्वत अंचल तथा दक्षिण  के  वनवासी ,सभी मेरे अनन्य भक्त हैं अतः पुत्र चित्रवंत ! यह पर्वत मेरे नाम के अनुरूप शिवाहा के नाम से विख्यात होगा । इसके कुण्ड से देवी गंगा पूर्व दिशा की ओर चित्रोत्पला के नाम से , तथा कोसल राजधानी की उत्तरी सीमा में स्थित विन्ध्य से स्वर्ण -रेखा नर्मदा जी के रूप में पश्चिम दिशा में प्रवाहित होंगी। " महाराज चित्रवंत ने उनसे दक्षिण के वनवासियों के बारे में भी विचार करने का आग्रह किया। इस पर भगवान शिव बोले --मैं तुम्हारी व्यापक तथा सार्थक भावना को जनता हूँ पुत्र ! निश्चिंत रहो ।देवी गंगा दक्षिण में मातृत्व की प्रतिमूर्ति की तरह गोदावरी के नाम से प्रवाहित होंगी। पुत्र ! उत्तर में गंगा , दक्षिण में गोदावरी , पूर्व में चित्रोत्पला और पश्चिम में स्वर्ण -रेखा नर्मदा , आर्यावर्त में चारों दिशाओं में गंगा प्रवाहित होंगी ।"
          कोसल राज्य की सीमाएं 
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     लेखक ने उपन्यास में तत्कालीन कोसल राज्य की भौगोलिक सीमाओं का भी उल्लेख किया है । अयोध्या से माता कौशल्या अपने पुत्र( बालक)  राम को लेकर मायके यानी कोसल प्रदेश जा रही हैं ,जिसकी सीमा विन्ध्य पर्वत के तट से , स्वर्ण -रेखा नर्मदा जी से चित्रोत्पला महानदी के तट पर स्थित श्रीपुर तक कोसल प्रजा ने जिस प्रकार राम का स्वागत किया ,वह वर्णनातीत था ।
        कथाओं और उप -कथाओं का ताना -बाना
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   माता कौशल्या की आत्मकथा के रूप में  उपन्यास का ताना -बाना कई प्राचीन कथाओं और उप -कथाओं के अटूट धागों से बुना गया है। इसके लगभग सभी प्रमुख पात्रों को लोकहितैषी चिन्तन करते हुए भी दिखाया गया है। एक स्थान पर कौशल्या अपनी माता से कहती हैं -- सर्व कल्याण के लिए निजत्व का मूल्य ही कहाँ होता है माता ?  
         प्रजा वत्सल महाराज 
        चित्रवंत का कठोर संकल्प 
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    कोसल की प्रजा जब तत्कालीन महाराज चित्रवंत से जीवन यापन तथा धार्मिक अनुष्ठान के साथ मोक्ष के लिए कोसल को भी गंगा की तरह एक जीवन दायिनी नदी की आवश्यकता बताती है ,तब वह प्रजा की कामना का आदर करते हुए कहते हैं --"  उस राजा का जीवन ही धिक्कार युक्त है ,जो अपनी प्रजा की इच्छा की पूर्ति न कर सके। जल ही तो जीवन है। इस दृष्टि से प्रजा ने जीवन की मांग की है। राजत्व का सिद्धांत है , राजा का प्रथम दायित्व है कि वह प्रजा के जीवन की रक्षा करे।" यह कहकर चित्रवंत ऋषियों की उपस्थिति में  संकल्प लेते हैं -- मैं चित्रवंत पिता स्वर्णवंत, प्रपिता हरिवंत आप समस्त महान ऋषियों की शपथ लेता हूँ कि यदि मेरी अगाध आस्था महाकाल महा मृत्युंजय महादेव पर समग्र रूप से हो तथा तनिक भी त्रुटि ना हो ,तो मैं माँ गंगा को कोसल में ही नहीं , अपितु दक्षिण आर्यावर्त में भी आने को विनम्रता तथा भक्ति से  बाध्य कर दूंगा और यदि ऐसा न कर सका,तब जीवन लेकर कोसल (श्रीपुर) नहीं लौटूंगा।" महाराज चित्रवंत अपने अल्पायु पुत्र कृपावंत  को राज गद्दी सौंपकर सघन वन की ओर तापस वेश धारण कर प्रस्थान कर जाते हैं। यह प्रसंग इस बात का प्रमाण है कि  तत्कालीन समय के अनेक   राजा और महाराजा अपनी प्रजा के प्रति अपने  सामाजिक उत्तरदायित्व कितनी गंभीरता  से महसूस करते थे। 
        
        प्रणम्य हैं कोसल के वनवासी 
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     कोसल राज्य की नैसर्गिक ,सामाजिक ,सांस्कृतिक विशेषताओं और विशेष रूप से यहाँ की जनजातीय संस्कृति का भी लेखक ने वर्णन किया है। माता सुबाला अपने पति भानुवंत से कहती हैं --"स्वामी ! ये वनवासी ही तो वास्तव में प्रणम्य हैं। निष्काम तथा निष्पाप जीवन जीने की कला में अप्रतिम तथा मृत्युभय की छाया से दूर ,जीवंतता के लिए अनुकरणीय तथा प्रशंसनीय। " 
इसके बाद वह पुत्री अपराजिता (कौशल्या) को सम्बोधित करते हुए वनवासियों की प्रशंसा में कहती हैं -- "पुत्री अपराजिता! इनके कारण ही कोसल अद्वितीय है। वन ,खनिज , बहुमूल्य धातु तथा अन्य राजकीय सम्पदा के अघोषित राज रक्षक हैं ,जिनमें राज मुद्रा या अन्य अनुग्रह प्राप्त करने की तनिक भी लालसा नहीं है।"
महाराज भानुवंत भी सहमति व्यक्त करते हुए कहते हैं --"ये मात्र राज रक्षक नहीं , अपितु राज -सैनिक भी हैं ,जिन्होंने कोसल को दिया ही है, निरंतर देते भी हैं ,किन्तु कुछ प्राप्त करने की तनिक भी कामना नहीं करते ।"
                 उपन्यासकार का कथन 
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     उपन्यास के प्रारंभ में लेखक ने 'अनौपचारिक दो शब्द ' शीर्षक से अपनी भूमिका में लिखा है --" वास्तव में यह मेरे लिए एक चुनौती की तरह था।  समस्त रामायणों में श्रीराम कथा को ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है। माता कौशल्या अत्यन्त ही महत्वपूर्ण पात्र हैं ,किन्तु उनसे सम्बंधित सभी घटनाएं और चरित्र चित्रण श्रीराम के ही चतुर्दिक घूमते हैं। उनका पृथक अस्तित्व है ही नहीं। साहित्य में कौशल्या के संबंध में अध्ययन सामग्री का नितांत अभाव है।साहित्यकार किसी राज्य विशेष का ही नहीं ,अपितु लोक हित में यथार्थ का प्रतिनिधित्व करता है। अतः उपन्यास में वर्णित तथ्य लगभग प्रामाणिक हैं।हाँ , कथानक के विस्तार के लिए मर्यादित कल्पना का प्रयोग तो किया गया है ,किन्तु कथा की मौलिकता को तनिक भी प्रभावित करने का प्रयास नहीं किया गया है।"उपन्यासकार का यह भी विचार है कि आध्यात्मिक या पौराणिक पात्रों को लेकर उपन्यास लिखना दुष्कर कार्य है ,क्योंकि जन -आस्था के प्रति सचेत रहना अति आवश्यक होता है। ।
            पाठकीय अभिमत 
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     एक पाठक की हैसियत से मेरा यह मानना है कि अगर प्रूफ की गलतियों को सुधार कर पढ़ा जाए तो  'कोशल नंदिनी' माता कौशल्या की धारा प्रवाह आत्म -कथा के रूप में  सचमुच एक अदभुत उपन्यास है।  उपन्यासकार का परिश्रम सराहनीय है।
 उन्होंने भावनाओं के आवेग में बहते हुए , किसी उफनती नदी के प्रवाह जैसी भाषा में इसकी रचना की है ,लेकिन मात्र डेढ़ सौ पृष्ठों के इस उपन्यास में  लगभग  हर पन्ने पर प्रूफ की गलतियां नदी के इस प्रवाह को बाधित करती प्रतीत होती हैं।  आशा है कि अगले संस्करण में इन त्रुटियों को सुधार लिया जाएगा। बहरहाल , माता कौशल्या की इस  आत्म कथा में पौराणिक कहानियों और लघुकथाओं की एक ऐसी नेटवर्किंग है ,जिसका  सम्मोहन  पाठकों में कथानक के अंत तक उत्सुकता बनाए  रखता है। 
   आलेख  -- स्वराज करुण

Tuesday, September 14, 2021

राजभाषा के 72 साल :आज भी वही सवाल ?

राजभाषा के 72 साल :आज भी वही सवाल ?

        (लेखक : स्वराज करुण)

  हमारे  अनेक विद्वान साहित्यकारों और महान  नेताओं ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में महिमामण्डित किया है। उन्होंने इसे राष्ट्रीय एकता की भाषा भी कहा है ।   उनके विचारों से हम  सहमत भी हैं । हमने  15 अगस्त  2021 को अपनी आजादी के 74 साल पूरे कर लिए और  हिन्दी को राजभाषा का संवैधानिक दर्जा मिलने के 72 साल भी आज 14 सितम्बर 2021 को पूरे हो गए। लेकिन राष्ट्रभाषा और राजभाषा को लेकर आज भी कई सवाल जस के तस बने हुए हैं। उनके जवाबों का हम सबको   इंतज़ार है।
   
 सहज -सरल सम्पर्क भाषा की जरूरत 
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  किसी भी राष्ट्र को अपने  नागरिकों के लिए एक ऐसी सहज -सरल सम्पर्क  भाषा की ज़रूरत होती है जिसके माध्यम से लोग दिन - प्रतिदिन एक - दूसरे से  बात -व्यवहार कर सकें । निश्चित रूप से 'हिन्दी' में यह गुण  स्वाभाविक रूप से है और यही उसकी ताकत भी है ,जो देश को एकता के सूत्र में  बाँधकर रखती है । आज़ादी के आंदोलन में और उसके बाद भी हमने हिन्दी की इस ताकत को महसूस किया है ।हिन्दी के प्रचलन को बढ़ावा देकर राष्ट्रीय एकता को सशक्त बनाने में रेडियो ,टीव्ही और पत्र -पत्रिकाओं सहित इंटरनेट आधारित सोशल मीडिया की भी उल्लेखनीय भूमिका है। लेकिन  लगता है कि जाने -अनजाने हिन्दी की यह ताकत कमज़ोर हो रही है । यह चिन्ता और चिन्तन का विषय है ।
आज़ादी के लगभग दो साल बाद  हमारी संविधान सभा ने 14 सितम्बर 1949 को उसे भारत की 'राजभाषा' यानी सरकारी काम -काज की भाषा का दर्जा दिया था। इस ऐतिहासिक दिन को यादगार बनाए रखने के लिए देश में हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है ।
लेकिन अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव और  समय - समय पर दक्षिण के राज्यों में   हिन्दी विरोध को देखकर चिन्ता होती है ।  त्रिभाषी फार्मूले को भी दक्षिण के लोग  नहीं मानते । इस पर उनके साथ सार्थक संवाद की ज़रूरत है ।
  
  सीखें ज़्यादा से ज़्यादा भाषाएं
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  वास्तव में किसी भी देश अथवा किसी भी राज्य की भाषा सीखने में कोई बुराई नहीं है । लोग अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार दुनिया की अधिक से अधिक भाषाओं को पढ़ें  और सीखें  तो इससे अच्छी बात भला और क्या हो सकती है ?सुदूर बंगाल के एक गाँव में 12 अगस्त 1877 को जन्मे और परिवार के साथ  रायपुर (छत्तीसगढ़)आकर पले-बढ़े हरिनाथ डे आगे चलकर सिर्फ़ 34 साल की आयु में पहुँचते तक  हिन्दी ,बांग्ला सहित देश -विदेश की 36 भाषाओं के आधिकारिक विद्वान बन गए। दुर्भाग्य से 30 अगस्त 1911 को  उनका निधन हो गया। रायपुर के बूढ़ापारा स्थित डे भवन में  उनके नाम पर लगे  संगमरमर के शिलालेख में उन सभी 36 भाषाओं की सूची अंकित है , जिनका ज्ञान हरिनाथ ने अर्जित किया था। उनकी प्राथमिक और मिडिल स्कूल की पढ़ाई रायपुर में हुई थी।  भारत के तमाम प्रान्तों के लोग और विशेष रूप से स्कूल -कॉलेजों के विद्यार्थी एक -दूसरे के राज्यों में प्रचलित भाषाओं को सीखें तो इससे हमारी राष्ट्रीय एकता और भी मजबूत होगी । हमारे देश की कई  महान विभूतियों के बारे में कहा भी जाता है कि वे अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे । लेकिन अपने देश के लोगों से वो अपने ही देश की भाषा में संवाद करते थे । 
    
 महात्मा गांधी के विचार 
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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'मेरे सपनों का भारत' में राष्ट्रभाषा के लिए कुछ  प्रमुख लक्षणों  का उल्लेख किया था । उनके अनुसार (1)वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी चाहिए, (2) उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक , आर्थिक और राजनीतिक काम-काज हो सकना चाहिए ,(3) उस भाषा को भारत के ज़्यादातर लोग बोलते हों ,(4)वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान हो और (5) उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या कुछ समय तक रहने वाली स्थिति पर जोर न दिया जाय ।गांधीजी इन लक्षणों का जिक्र करते हुए लिखा था कि अंग्रेजी भाषा में इनमें से एक भी लक्षण है और ये पांच लक्षण रखने में हिन्दी से होड़ करने वाली  और कोई भाषा नहीं है । "
 
आज़ादी का अमृत महोत्सव और हमारी हिन्दी
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  हमारी आज़ादी के 75 वर्ष अगले साल यानी 15 अगस्त 2022 को पूर्ण हो जाएंगे और देश अपनी विकास यात्रा के 76 वें साल में प्रवेश करेगा। आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ को 'अमृत महोत्सव'  के रूप में मनाने का सिलसिला अभी से शुरू हो गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 12 मार्च 2021 को महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम से अमृत महोत्सव के आयोजनों का औपचारिक शुभारंभ किया। यह दिन स्वतंत्रता संग्राम के दौरान साबरमती आश्रम से गांधीजी के नेतृत्व में 12 मार्च 1930 को  शुरू हुए नमक सत्याग्रह और दांडी मार्च की याद दिलाने वाला एक ऐतिहासिक दिन है। इसी वजह से आज़ादी के अमृत महोत्सव के शुभारंभ के लिए इस दिन और स्थान का चयन किया गया।  अमृत महोत्सव वर्ष में राजभाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी की दशा और दिशा पर और उसके क्रमिक ऐतिहासिक विकास पर चिन्तन -मनन और भी ज़्यादा जरूरी हो जाता है।

साहित्य और भाषाओं से जुड़े सवाल 
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किसी भी भाषा से जुड़े सवालों को आम तौर पर उसके साहित्य से जोड़ कर देखा जाता है। ऐसा इसलिए भी ,क्योंकि साहित्य ही भाषाओं को समृद्ध बनाता है और इसमें साहित्यकारों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भारत में प्रचलित हर भाषा के अनमोल ख़ज़ाने को  उसके साहित्यकारों ने अपनी कलम से समृद्ध किया है। 

हिन्दी का गौरवपूर्ण इतिहास
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हिन्दी भाषा के साहित्य का भी  अपना एक गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ,जिनका जन्म 9 सितम्बर 1850 को वाराणसी में और निधन6 जनवरी 1885 को वाराणसी ही हुआ था , वह  महज  34 वर्ष की अपनी जीवन यात्रा में  कविता ,नाटक ,उपन्यास और व्यंग्य लेखन के जरिए हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि का कीर्तिमान  बनाकर अपनी अमिट छाप छोड़ गए। उन्होंने भाषाओं  के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा था कि स्वयं की भाषा ही सभी तरह उन्नतियों की जड़ स्वयं की भाषा की उन्नति में निहित है ,जिसके ज्ञान के बिना हॄदय की पीड़ा नहीं मिटती। वहीं अंग्रेजी पढ़ के हम सभी गुणों को हासिल कर भी लें ,पर अपनी भाषा का ज्ञान नहीं होने पर हम दीन यानी ग़रीब के ग़रीब ही रह जाएंगे । अपनी इन्हीं भावनाओं को व्यक्त करते हुए भारतेन्दु कहते हैं --

 "निज भाषा उन्नति अहै 
सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा ज्ञान बिन 
मिटत न हिय को शूल ।।
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि 
सब गुन होत प्रवीन ।
पै निज भाषा ज्ञान बिन
रहत दीन के दीन ।।"

हमारे देश में  भारतेन्दु हरिश्चंद्र से लेकर वर्तमान में भी  हिन्दी साहित्य की यह  परम्परा निरंतर विकसित होती चली आयी है ,जो   छत्तीसगढ़ में भी  पुष्पित और पल्लवित हुई है। यहाँ के हिन्दी सेवी साहित्यकारों ने इस परम्परा को अपनी -अपनी शैली में खूब विकसित किया है।

छत्तीसगढ़ में जन्मी 
हिन्दी की पहली कहानी 
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विद्वानों के अनुसार सौ साल से भी कुछ अधिक पहले हिन्दी की पहली कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी ' छत्तीसगढ़ की धरती पर लिखी गयी थी ,जिसके लेखक थे पंडित माधवराव सप्रे । 
  
 हिन्दी पत्रकारिता की  बुनियाद
   छत्तीसगढ़ -मित्र के 121 साल
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सप्रे जी ने ही  आज से 121 साल पहले वर्ष 1900 में यहाँ के पेंड्रा जैसे बेहद पिछड़े वनवासी बहुल क्षेत्र से मासिक पत्रिका 'छत्तीसगढ़ मित्र ' का सम्पादन करते हुए यहाँ पत्रकारिता की बुनियाद रखी थी। उनके सहयोगी थे पंडित रामराव चिंचोलकर । इस पत्रिका के प्रोपराइटर थे प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वामन बलिराम लाखे। रायपुर के एक प्रिंटिंग प्रेस से इसकी छपाई होती थी। आर्थिक कठिनाइयों के कारण 'छत्तीसगढ़ मित्र' का प्रकाशन मात्र तीन वर्ष तक हो पाया। दिसम्बर 1902 में 36 वें अंक के बाद इसका प्रकाशन बंद करना पड़ा।  सप्रे जी का जन्म 19 जून 1871 को वर्तमान मध्यप्रदेश के ग्राम पथरिया (जिला - दमोह) में हुआ था। उनका निधन 23 अप्रैल 1926 को रायपुर में हुआ। जीवन पर्यंत उनका कर्मक्षेत्र मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ ही रहा।
  
 गीता -रहस्य का हिन्दी अनुवाद
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हरि ठाकुर ने अपनी पुस्तक 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' में लिखा है --"वर्ष 1915 में सप्रे जी ने  लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के महान और वृहद ग्रंथ  'गीता रहस्य ' का  हिन्दी में प्रामाणिक अनुवाद प्रस्तुत किया। उनके अनुवाद और भाषा की तिलक जी ने भूरि -भूरि प्रशंसा की थी।इस ग्रंथ के हिन्दी अनुवाद ने स्वाधीनता संग्राम के सत्याग्रहियों का वर्षों मार्ग दर्शन किया।"हरि ठाकुर आगे लिखते हैं -- सप्रेजी ने लगभग 16 ग्रंथ लिखे,जिनमें उनके मौलिक और अनुवादित ग्रंथों की संख्या भी शामिल है।उन्होंने सैकड़ों लेख लिखे ,जो तत्कालीन पत्र -पत्रिकाओं में छपते रहे।"
 अंग्रेजी हुकूमत के उस दौर में सप्रे जी ने 'छत्तीसगढ़ मित्र ' के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना के विकास और विस्तार में यथाशक्ति अपना भरपूर योगदान दिया।  कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जन संचार विश्वविद्यालय रायपुर ने  'छत्तीसगढ़ मित्र' के इन सभी 36 अंकों को फिर से छपवाकर संरक्षित किया है। विश्वविद्यालय ने इनका पुनर्मुद्रण वर्ष 2008 ,2009 और 2010 में करवाया है। राजधानी रायपुर में कई दशकों से संचालित सप्रे स्कूल पंडित माधवराव सप्रे के महान व्यक्तित्व और कृतित्व की याद दिलाता है। उनके नाम पर छत्तीसगढ़ सरकार ने पंडित माधव राव सप्रे राष्ट्रीय रचनात्मकता सम्मान की भी स्थापना की है। 
 हिन्दी भाषा और साहित्य को ज़्यादा से ज़्यादा अमीर  बनाने में अपनी रचनाओं के अनमोल रत्नों से छत्तीसगढ़ के जिन साहित्य मनीषियों ने अपना योगदान दिया ,उनमें डॉ.पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी , डॉ. बलदेव प्रसाद मिश्र ,गजानन माधव मुक्तिबोध , पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय ,मुकुटधर पाण्डेय , ठाकुर प्यारेलाल सिंह , डॉ. खूबचंद बघेल , हरि ठाकुर ,केयूर भूषण और  लाला जगदलपुरी,नारायणलाल परमार , त्रिभुवन  पाण्डेय और विश्वेन्द्र ठाकुर , जैसे अनेकानेक तपस्वी साहित्य साधकों की भूमिकाओं को कभी भुलाया नहीं जा सकता। 
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 बख्शी जी : सरस्वती के यशस्वी सम्पादक 
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वर्तमान राजनांदगांव जिले के    खैरागढ़ में 27 मई 1894 को जन्मे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी का निधन रायपुर में 28 दिसम्बर 1971 को हुआ। उन्हें वर्ष 1920 से 1956 तक यानी 36 वर्षों में चार अलग -अलग कालखण्डों में इलाहाबाद की प्रसिद्ध पत्रिका 'सरस्वती' के  सम्पादकीय दायित्व का गौरव मिला। वह हिन्दी जगत में सरस्वती के यशस्वी सम्पादक के रूप में प्रसिद्ध हुए।छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा उनके सम्मान में बख्शी सृजन पीठ की स्थापना की गयी है।

  छायावाद के प्रवर्तक मुकुटधर पाण्डेय 
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 रायगढ़ जिले के    पंडित मुकुटधर पाण्डेय को हिन्दी काव्य में छायावाद का प्रवर्तक माना जाता है। भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 1976 में पद्मश्री अलंकरण से सम्मानित किया था।  उनका जन्म 30 सितम्बर 1895 को रायगढ़ के पास तत्कालीन बिलासपुर जिले में महानदी के किनारे ग्राम बालपुर में और निधन 6 नवम्बर 1989 को रायगढ़ में हुआ। 
   
पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी
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बिलासपुर के स्वर्गीय पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी भी हिन्दी और छत्तीसगढ़ी दोनों ही भाषाओं के प्रतिष्ठित लेखक और कवि थे। पत्रकार के रूप में उन्होंने हिन्दी पत्र -पत्रिकाओं के माध्यम से कई दशकों तक समाज सेवा करते हुए अपनी लेखनी से राष्ट्रभाषा को भी समृद्ध बनाया। भारत सरकार ने वर्ष 2018 में उन्हें पद्मश्री अलंकरण से नवाजा। 
    छत्तीसगढ़ के अधिकांश साहित्य साधकों ने हिन्दी के साथ -साथ छत्तीसगढ़ी और अन्य आंचलिक लोक भाषाओं में भी साहित्य सृजन किया है। हिन्दी के विकास में उनका योगदान प्रणम्य है। 
 रचनाकारों की   लम्बी  फेहरिस्त
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हिन्दी साहित्य को अधिक से अधिक अमीर बनाने में छत्तीसगढ़  में सरस्वती के जिन उपासकों ने वर्षों तक कठिन लेखकीय साधना की है , उनके नामों और उनकी रचनाओं की एक लम्बी फेहरिस्त है ,जिनका सम्पूर्ण उल्लेख किसी एक आलेख में संभव नहीं है। फिर भी मेरी कोशिश है कि उनमें से कुछ रचनाकारों की चर्चा इसमें हो जाए। 
     पंडित सुन्दरलाल शर्मा 
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स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में यहाँ के कवियों और लेखकों ने भी अपनी रचनाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना जगाने का सराहनीय कार्य किया।राजिम में 21 दिसम्बर 1881 को जन्मे पंडित सुन्दरलाल शर्मा आज़ादी के आंदोलन के कर्मठ सिपाही और नेतृत्वकर्ता होने के अलावा एक अच्छे कवि नाट्य लेखक और समाज सुधारक भी थे। उनका निधन 28 दिसम्बर 1940 को हुआ। उन्होंने चार नाटकों और दो उपन्यासों सहित लगभग बीस पुस्तकें लिखीं। उनके छत्तीसगढ़ी खण्ड काव्य 'दान लीला 'का प्रकाशन 10 मार्च 1906 को हुआ था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान वर्ष 1922 में जब उन्हें एक वर्ष की सजा हुई ,तब उन्होंने केन्द्रीय जेल रायपुर में रहते हुए 'कृष्ण जन्म स्थान 'नामक हस्तलिखित पत्रिका का सम्पादन और प्रकाशन शुरू किया था ,जिसमें आज़ादी के आंदोलन के साथ हास्य -व्यंग्य और धार्मिक तथा राजनीतिक सामग्री भी  छपती थीं और  जेल की आंतरिक घटनाओं का भी 8उल्लेख होता था। उन्होंने राजिम से 'श्री राजिम प्रेम पीयूष' और 'दुलरुआ'  नामक पत्रिका भी निकाली। छत्तीसगढ़ सरकार ने बिलासपुर में उनके सम्मान में एक मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना की है ,जो विगत 15 वर्षों से सफलतापूर्वक संचालित हो रहा है । 
राजनांदगांव के कुंजबिहारी चौबे ने भी स्वतंत्रता संग्राम में अपनी कविताओं के साथ सक्रिय भागीदारी निभाई। रायपुर जिले के  डॉ.खूबचंद बघेल समाज सुधारक ,किसान नेता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने के साथ -साथ प्रखर विचारक और हिन्दी तथा छत्तीसगढ़ी के अच्छे  साहित्यकार भी थे। 
राजनांदगांव के कुंजबिहारी चौबे ने अपने क्रांतिकारी तेवर की कविताओं से स्वतंत्रता आंदोलन की भावनाओं को स्वर दिया। उनकी चयनित रचनाओं का संकलन प्रभा-पुस्तक माला, इंडियन प्रेस जबलपुर द्वारा प्रकाशित किया गया था। 
 
गांधी मीमांसा के रचनाकार  
पंडित रामदयाल तिवारी 
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रायपुर के पंडित रामदयाल तिवारी को सिर्फ 50 वर्ष की आयु मिली ,लेकिन उन्होंने इस अल्प समय की अपनी जीवन यात्रा में राष्ट्र पिता महात्मा गांधी पर केन्द्रित लगभग 800-पृष्ठों का महाग्रंथ 'गांधी -मीमांसा ' लिखकर इतिहास रच दिया। यह महान कृति गांधीजी के जीवन दर्शन की रचनात्मक समालोचना  है। रामदयाल तिवारी का जन्म 23 अगस्त 1892 को रायपुर में हुआ था और वहीं 21 अगस्त 1942 को उनका निधन हो गया। उन्होंने लिखा था --" राष्ट्र अपना मुख साहित्य के दर्पण में देखता है।साहित्य राष्ट्र के दिल का खज़ाना है।" छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर स्थित आर  डी.तिवारी शासकीय हायर सेकेंडरी स्कूल पंडित रामदयाल तिवारी के नाम पर विगत कई दशकों से संचालित हो रहा  है।
    
 दंडकारण्य के साहित्य महर्षि 
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   अपनी रचनाओं के माध्यम से हिन्दी भाषा और साहित्य की सेवा करने वाले समर्पित साहित्यकारों में जगदलपुर (बस्तर )के लाला जगदलपुरी ने 93 साल की अपनी जीवन यात्रा के 77 साल साहित्य सृजन में लगा दिए। बस्तर को दंडकारण्य के नाम से भी जाना जाता है। लालाजी इस वनवासी अंचल के इतिहास ,  लोक साहित्य और लोक संस्कृति के भी अध्येता  थे। उन्हें दंडकारण्य का साहित्य महर्षि भी कहा जा सकता है।  मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा प्रकाशित    उनकी पुस्तक 'बस्तर -इतिहास एवं संस्कृति'  अपने-आप में एक महत्वपूर्ण शोध -ग्रंथ है। उनका जन्म जगदलपुर में 17 दिसम्बर 1920 को हुआ था। जगदलपुर में ही 14 अगस्त 2014 को उनका निधन हो गया। उन्होंने हिन्दी के साथ -साथ छत्तीसगढ़ी और बस्तर की लोकभाषा हल्बी और भतरी में भी भरपूर लिखा। जगदलपुर के शासकीय जिला ग्रंथालय का नामकरण उनके जन्म दिन 17 दिसम्बर 2020 को समारोहपूर्वक उनके नाम पर किया गया ।
    
  यशस्वी कवि -लेखक हरि ठाकुर 
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छत्तीसगढ़ के हिन्दी साहित्यकारों में स्वर्गीय हरि ठाकुर का नाम भी प्रथम पंक्ति में लिया जाता है। उनका जन्म 16 अगस्त 1927 को रायपुर में हुआ और निधन नई दिल्ली के एक अस्पताल में   3 दिसम्बर 2001 को । यशस्वी कवि ,लेखक और पत्रकार स्वर्गीय हरि ठाकुर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और श्रमिक नेता ठाकुर प्यारेलाल सिंह के सुपुत्र थे।  हरि ठाकुर ने अपने सहयोगी कवियों के साथ मिलकर वर्ष 1956 में एक सहयोगी काव्य संग्रह -' नये स्वर ' का प्रकाशन किया। इसके अलावा बाद के वर्षों में हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में उनकी अनेक पुस्तकें छपीं ,जिनमें कविता संग्रह लोहे का नगर   (1967), छत्तीसगढ़ी गीत अउ कवित्व(1968) और गीतों के शिलालेख (1969), सुरता के चंदन (1979) और पौरुष :नये संदर्भ (1980)भी शामिल हैं।  उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा 'उनके मरणोपरांत वर्ष 2003 में प्रकाशित हुआ। यह महाग्रंथ छत्तीसगढ़ पर केन्द्रित उनके शोध आलेखों का संकलन है । छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास सहित स्वतंत्रता संग्राम ,साहित्य और कला -संस्कृति से जुड़ी महान विभूतियों के जीवन परिचय को भी उन्होंने अपने इस विशाल ग्रंथ में शामिल किया है। इस पुस्तक का सम्पादन इतिहासकार डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर और साहित्यकार देवीप्रसाद वर्मा(बच्चू जांजगीरी)ने किया है। स्वर्गीय हरि ठाकुर के जन्म दिन 16 अगस्त 2003 को इसका प्रकाशन हुआ।समाजवादी विचारधारा के  हरि ठाकुर स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भी थे और उन्होंने 1955 में गोवा मुक्ति आंदोलन में भी हिस्सा लिया था।उन्हें वर्ष 1992 में छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के लिए गठित सर्वदलीय मंच का संयोजक भी बनाया गया था। वह वर्ष 1970 के दशक में बनी दूसरी छत्तीसगढ़ी फ़िल्म 'घर -द्वार' के गीतकार भी थे। इस फ़िल्म में उनके लिखे सभी गीत काफी लोकप्रिय हुए।
साहित्य के माध्यम से हिन्दी भाषा और साहित्य के भंडार को भरपूर बनाने में अपना योगदान देने वाले रचनाकारों में रायगढ़ के जनकवि आनन्दी सहाय शुक्ल ,बंदे अली फातमी और मुस्तफा हुसैन मुश्फिक की लेखनी की अपनी रंगत थी।
   
पंडित चिरंजीव दास 
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 रायगढ़ के ही पंडित चिरंजीव दास ने महाकवि कालिदास के संस्कृत महाकाव्य 'मेघदूत' और 'रघुवंश 'सहित कई  अन्य प्राचीन संस्कृत कवियों की काव्य  पुस्तकों का हिन्दी मे पद्यानुवाद किया। वह ओड़िया ,छत्तीसगढ़ी ,अंग्रेजी और हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान थे।
    
कहानी ,उपन्यास और व्यंग्य 
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 कहानी ,उपन्यास और व्यंग्य भी हिन्दी गद्य लेखन की प्रमुख विधाएं हैं।  पंडित माधव राव सप्रे रचित हिन्दी की पहली कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी ' का जिक्र इस आलेख में पहले ही किया जा चुका है। प्रदेश के अन्य हिन्दी कहानीकारों में खैरागढ़ के स्वर्गीय  पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी ,राजनांदगांव के  स्वर्गीय गजानन माधव मुक्तिबोध , बिलासपुर के स्वर्गीय श्रीकांत वर्मा , जगदलपुर के स्वर्गीय गुलशेर खां 'शानी 'सहित रायपुर के विनोद कुमार शुक्ल ,जगदलपुर की स्वर्गीय मेहरुन्निसा परवेज,भिलाई नगर के परदेशीराम वर्मा और विनोद मिश्र ,दुर्ग के स्वर्गीय  विश्वेश्वर ,खैरागढ़ के डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव ,राजिम के स्वर्गीय पुरुषोत्तम अनासक्त ,धमतरी के स्वर्गीय नारायण लाल परमार और स्वर्गीय त्रिभुवन पाण्डेय ,रायपुर के स्वर्गीय देवीप्रसाद वर्मा और स्वर्गीय विभु कुमार ,बिलासपुर की जया जादवानी ,वहीं के सतीश जायसवाल और पिथौरा (जिला -महासमुंद)के शिवशंकर पटनायक भी उल्लेखनीय हैं।इनमें से कई लेखक अच्छे उपन्यासकार भी हैं। उपन्यास ,यात्रा वृत्तांत और आत्मकथा लेखन में बिलासपुर के द्वारिका प्रसाद अग्रवाल का नाम भी पिछले कुछ वर्षों में तेजी से उभरा है। वहीं के डॉ.विनय कुमार पाठक पिछले करीब 50 वर्षों से छत्तीसगढ़ी के साथ -साथ हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाने में लगे हुए हैं।  रायपुर जिले के अभनपुर निवासी पर्यटन ब्लॉगर ललित शर्मा ने अपने  उपन्यास 'जनरल बोगी -ए ट्रेवलर्स लव स्टोरी ' के माध्मय से हिन्दी उपन्यासों की दुनिया में प्रवेश किया है। उन्होंने छत्तीसगढ़ के ऐतिहासिक स्थल सिरपुर (जिला -महासमुंद) और रामगढ़ (जिला -सरगुजा )पर दो पुस्तकें लिखी हैं ,जो क्रमशः 'सैलानी की नज़र में सिरपुर ' और 'सरगुजा का रामगढ़ " के नाम से काफी चर्चित हुई हैं।

 छत्तीसगढ़ की हिन्दी कथा -यात्रा 
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वरिष्ठ लेखक और पत्रकार रमेश नैयर के सम्पादन में छत्तीसगढ़ के 17 हिन्दी कहानीकारों की कहानियों का संग्रह 'कथा यात्रा' शीर्षक से ग्रंथ अकादमी दिल्ली ने वर्ष 2003 में प्रकाशित किया। इसकी भूमिका में नैयर जी ने छत्तीसगढ़ की हिन्दी कहानी परम्परा का विस्तार से उल्लेख किया है।
महासमुंद के स्वर्गीय  लतीफ़ घोंघी ,वहीं के ईश्वर शर्मा ,बागबाहरा के स्वर्गीय गजेन्द्र तिवारी , रायगढ़ के कस्तूरी दिनेश दुर्ग के विनोद  साव और ऋषभ जैन और रायपुर के अख़्तर अली आदि व्यंग्य विधा के जाने -माने हस्ताक्षर हैं। लघु कथा लेखन में रायपुर के स्वर्गीय डॉ. राजेन्द्र सोनी और महासमुंद के महेश राजा सहित कई प्रतिष्ठित नाम शामिल हैं। 

काव्य गगन के कुछ और सितारे
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हिन्दी कविता के आकाश में छत्तीसगढ़ के  चमकदार सितारों में रायपुर के स्वर्गीय डॉ. नरेंद्र देव वर्मा ,स्वर्गीय ललित सुरजन और स्वर्गीय लक्ष्मण मस्तुरिया,  राजिम के स्वर्गीय पवन दीवान और स्वर्गीय कृष्णा रंजन , दुर्ग के स्वर्गीय कोदूराम दलित  रघुवीर अग्रवाल पथिक और  विमल कुमार पाठक , पिथौरा के स्वर्गीय मधु धान्धी और स्वर्गीय अनिरुद्ध भोई , बसना के स्वर्गीय विष्णु शरण ,धमतरी के स्वर्गीय मुकीम भारती को भी बहुत आदर और सम्मान के साथ याद किया जाता है।रायपुर के रामेश्वर वैष्णव और दुर्ग के पंडित दानेश्वर शर्मा हिन्दी और छत्तीसगढ़ी ,दोनों ही भाषाओं के जाने -माने  गीतकार हैं। अम्बिकापुर (सरगुजा )के शायर श्याम कश्यप 'बेचैन ' को गज़लों की दुनिया में बेहतरीन पहचान मिल रही है तो कोरबा के डॉ. माणिक विश्वकर्मा नवरंग  हिन्दी नवगीत लेखन में अग्रणी हैं। रायपुर के गिरीश पंकज कवि ,, कहानीकार ,व्यंग्यकार और उपन्यासकार के रूप में स्थापित हैं। जांजगीर के सतीश कुमार सिंह ,जगदलपुर के विजय सिंह , रामानुजगंज के पीयूष कुमार और बागबाहरा (जिला -महासमुंद)के रजत कृष्ण हिन्दी नयी कविता के  सक्रिय और सुपरिचित हस्ताक्षर हैं। 
         हिन्दी की वर्तमान स्थिति पर विचार करते समय हमें इस तथ्य को भी ध्यान में रखना चाहिए कि हमारे इन मनीषियों ने पूरे देश को एकता के सूत्र में बाँध कर रखने के लिए समय -समय पर हिन्दी के महत्व को खास तौर पर रेखांकित किया था । 
 
हिन्दी दिवस : यादगार दिन 
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 स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में हिन्दी ने ही पूरे देश को भावनात्मक रूप से संगठित किया । उस दौर में हिन्दी के  कवियों ,कहानीकारों, लेखकों और पत्रकारों ने अपनी लेखनी से देश की चारों दिशाओं में राष्ट्रीय चेतना का विस्तार किया । संभवतः यही कारण है कि आज़ादी के बाद देश के सभी राज्यों से आए हमारे महान नेताओं ने संविधान सभा में गहन विचार -मंथन के उपरांत हिन्दी  को भारत की राजभाषा बनाने का प्रस्ताव पारित किया । वह 14 सितम्बर 1949 का यादगार दिन था । इस ऐतिहासिक घटना की याद में देश के सभी केन्द्रीय कार्यालयों , सार्वजनिक ,उपक्रमों और राष्ट्रीयकृत बैंकों में  राजभाषा पखवाड़े के साथ  14 सितम्बर को हिन्दी दिवस अवसर पर  तमाम तरह के कार्यक्रम  होते हैं  । कई दफ़्तरों में यह पखवाड़ा एक सितम्बर से 14 सितम्बर तक मनाया जाता है । हिन्दी दिवस के दिन इसका समापन होता है ,वहीं कई कार्यालयों में हिन्दी दिवस यानी 14 सितम्बर से इसकी शुरुआत होती है । इस दौरान  प्रतियोगिताएं और विचार गोष्ठियां भी होती हैं । लेकिन हिन्दी पखवाड़ा और हिन्दी दिवस खत्म होते ही सब कुछ पुराने ढर्रे पर चलने लगता है  । 
       
      विचारणीय सवाल 
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      विचारणीय सवाल यह है कि हिन्दी को 72 साल पहले  राजभाषा का दर्जा तो मिल गया ,लेकिन वह  आखिर कब देश की सर्वोच्च अदालत सहित  राज्यों के  उच्च न्यायालयों और केन्द्रीय मंत्रालयों के सरकारी काम-काज की भाषा बनेगी ? स्वतंत्र भारत के इतिहास में 14 सितम्बर 1949  वह यादगार दिन है जब हमारी संविधान सभा ने हिन्दी को भारत की राजभाषा का दर्जा दिया था . इसके लिए  संविधान में धारा 343 से 351 तक राजभाषा के बारे में ज़रूरी प्रावधान किए  गए .
 
 राजभाषा अधिनियम
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अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी से हम पन्द्रह अगस्त 1947 को आज़ाद हुए और  26 जनवरी 1950 को देश में हमारा अपना संविधान लागू हुआ ,जिसमे भाषाई प्रावधानों के तहत अनुच्छेद 343 से 351तक  के प्रावधान भी लागू हो गए .इसके बावजूद केन्द्र सरकार के अधिकांश  मंत्रालयों से राज्यों को जारी होने वाले अधिकांश पत्र -परिपत्र प्रतिवेदन आज भी केवल अंग्रेजी में होते हैं ,जिसे समझना गैर-अंग्रेजी वालों के लिए काफी मुश्किल होता है ,जबकि राजभाषा अधिनियम 1963 के अनुसार केन्द्र सरकार के विभिन्न साधारण आदेशों , अधिसूचनाओं और सरकारी प्रतिवेदनों ,नियमों आदि में अंग्रेजी के साथ -साथ हिन्दी का भी प्रयोग अनिवार्य किया गया है.इसके बाद भी ऐसे सरकारी दस्तावेजों में हिन्दी का अता-पता नहीं रहता .केन्द्र  से  जिस राज्य को ऐसा कोई सरकारी पत्र या प्रतिवेदन भेजा जा रहा है , वह उस राज्य की स्थानीय भाषा में भी अनुवादित होकर जाना चाहिए । लेकिन होता ये है कि  नईदिल्ली से राज्यों को जो  पत्र -परिपत्र  अंग्रेजी में मिलते हैं ,उन्हें मंत्रालयों के  सम्बन्धित विभाग के अधिकारी सिर्फ़ एक अग्रेषण पत्र  लगाकर और उसमें  'आवश्यक कार्रवाई हेतु ' और  "कृत कार्रवाई से अवगत करावें ' लिखकर  निचले कार्यालयों को भेज देते हैं । 
    सरकारी पत्र व्यवहार में हिन्दी
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    दरअसल हिन्दी भाषी राज्यों के मंत्रालयों और सरकारी कार्यालयों में अंग्रेजी जानने -समझने वाले अफसरों और कर्मचारियों की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है । इसलिए उन्हें उन पत्रों में प्राप्त दिशा -निर्देशों के अनुरूप आगे की कार्रवाई में कठिनाई होती है ।ऐसे में उनके निराकरण में स्वाभाविक रूप से विलम्ब होता ही है । केन्द्र की ओर से राज्यों के साथ सरकारी पत्र - व्यवहार अगर  राजभाषा हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं में हो तो यह समस्या काफी हद तक कम हो सकती है ।
 
हिन्दी कब बनेगी न्याय की भाषा ? 
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    सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के तमाम फैसले भी अंग्रेजी में लिखे जाते है ,जिन्हें अधिकाँश ऐसे आवेदक समझ ही नहीं पाते,जिनके बारे में फैसला होता है . ये अदालतें फैसला चाहे जो भी दें ,लेकिन राजभाषा हिन्दी में तो दें ,ताकि मुकदमे से जुड़े पक्षकार उसे आसानी से समझ सकें. अगर उन्हें अंग्रेजी में फैसला लिखना ज़रूरी लगता है तो उसके साथ उसका हिन्दी अनुवाद भी दें . गैर हिन्दी भाषी राज्यों में वहाँ की स्थानीय भाषा में फैसलों का अनुवाद उपलब्ध कराया जाना चाहिए .

छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय का सराहनीय निर्णय 
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इस मामले में अब तक की मेरी जानकारी के अनुसार छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ,बिलासपुर ने अपनी वेबसाइट में अदालती सूचनाओं के साथ - साथ फैसलों का हिन्दी अनुवाद भी देना शुरू कर दिया है ,जो निश्चित रूप से सराहनीय और स्वागत योग्य है । 
       
 भारत सरकार का  राजभाषा विभाग 
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       यह अच्छी बात है कि भारत सरकार ने जून 1975  में राजभाषा से सम्बन्धित संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों पर अमल सुनिश्चित करने के लिए राजभाषा विभाग का गठन किया है ,जिसके माध्यम से हिन्दी को बढ़ावा देने के प्रयास भी किये जा रहे हैं । वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग भी कार्यरत है  लेकिन इस दिशा में और भी ज्यादा ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है । वैसे आधुनिक युग में कम्प्यूटर और इंटरनेट पर देवनागरी लिपि का प्रयोग भी हिन्दी को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने में काफी मददगार साबित हो रहा है । 
     कुछ निराशा भी होती है 
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   लेकिन यह देखकर निराशा होती है कि हिन्दी दिवस के बड़े -बड़े आयोजनों में हिन्दी की पैरवी करने वाले अधिकाँश ऐसे लोग होते हैं जो अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम के स्कूलों में पढाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं ।  दुकानों और बाजारों में लेन -देन के समय हिन्दी में बातचीत करने वाले कथित उच्च वर्गीय ग्राहकों को बड़े -बड़े होटलों में आयोजित सरकारी अथवा कार्पोरेटी बैठकों और सम्मेलनों में अंग्रेजी में बोलते -बतियाते देखा जा सकता है । 
  अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में 'हिन्दी दिवस ' मनाया नहीं जाता ,वहाँ 'हिन्दी -डे ' सेलिब्रेट ' किया जाता है । शहरों में  चारों तरफ़ नज़र दौड़ाने पर अधिकांश दुकानों ,होटलों  व्यावसायिक प्रतिष्ठानों और निजी स्कूल -कॉलेजों के अंग्रेजी नाम वाले बोर्ड देखने को मिलते हैं । उन्हें देखने पर लगता है कि हमारी हिन्दी दम तोड़ रही है । हिन्दी माध्यम के स्कूलों में भी आगन्तुकों के स्वागत में बच्चे ' नमस्ते ' नहीं बोलकर 'गुड मॉर्निंग सर' अथवा ' गुड मॉर्निंग मैडम ' कहकर अभिवादन करते हैं । उन्हें ऐसा ही  सिखाया जा रहा है । कुछ एक अपवादों को छोड़कर देखें तो अधिकांश भारतीय परिवारों में  माता -पिता 'मम्मी -डैडी ' कहलाने लगे हैं ।चाचा -चाची और मामा -मामी जैसे आत्मीय सम्बोधन 'अंकल -आँटी ' में तब्दील हो गए हैं । पाठ्य पुस्तकों से देवनागरी के अंक गायब होते जा रहे हैं । उनमें पृष्ठ संख्या भी अंग्रेजी अंकों में छपी होती है । कई  स्कूली बच्चे भारतीय अथवा हिन्दी महीनों और सप्ताह के दिनों के नाम नहीं बोल पाते जबकि अंग्रेजी महीनों और दिनों के नाम धाराप्रवाह बोल देते हैं।   भारतीय बच्चे अगर फटाफट अंग्रेजी बोलें तो माता - पिता और अध्यापक गर्व से फूले नहीं समाते ! हिन्दी अच्छे से बोलना और लिखना श्रेष्ठि वर्ग में पिछड़ेपन की निशानी मानी जाती है ।  हिंदुस्तानी नागरिक अगर अंग्रेजी ठीक से न बोल पाए ,न लिख पाए तो हम हिंदुस्तानी लोग ही उसका मज़ाक उड़ाने लगते हैं ,जबकि कोई अंग्रेज अगर टूटी -फूटी हिन्दी बोले तो भी हम उसे सम्मान की दृष्टि से देखते हैं । विरोध अंग्रेजी भाषा का नहीं ,बल्कि हम  भारतीयों को शिंकजे में ले चुकी अंग्रेजी मानसिकता का है । हमें अंग्रेजियत की इस मानसिकता से उबरना होगा ।
  लेकिन जब आम जनता से हिन्दी में बात करने वाले कई बड़े-बड़े नेताओं को संसद में अंग्रेजी में बोलते देखा और सुना जा सकता है तो निराशा होती गया । क्या कोई बता सकता है कि ऐसे भारतीयों  से भारत की राजभाषा के रूप में बेचारी हिन्दी आखिर उम्मीद करे भी तो क्या ?

      - स्वराज करुण

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और ब्लॉगर हैं )