Thursday, November 18, 2021

कहाँ है ग़रीब जनता का इतिहास ?

    (आलेख : स्वराज करुण )
 क्या इतिहास सिर्फ़ वंश परम्परा से चले आए  राजे -महाराजाओं का होना चाहिए ? आम जनता का  इतिहास आख़िर कब लिखा जाएगा ?  कहाँ है गरीबों  के जीवन संघर्षों का इतिहास ? एक अदद कच्चे -पक्के मकान , दो वक्त के भोजन और तन ढँकने के लिए कुछ कपड़ों के जुगाड़ में लगे साधारण लोगों का इतिहास कहाँ है ? 
  पुराने राजाओं , महाराजाओं ,बादशाहों , शहंशाहों की शौर्य गाथाएं भी बड़ी अज़ीब लगती हैं । उनकी लड़ाइयों के कारण भी बड़े हास्यास्पद हुआ करते थे । जैसे -उनमें से किसी  के कानों में अगर किसी  दूसरे राज्य के राजा ,महाराजा की बेटी के अप्रतिम  सौंदर्य की सूचना पहुँच जाए तो  वह पहले तो उस राजा अथवा  महाराजा को खबर भिजवाता था कि अपनी सुन्दर कन्या से मेरी शादी करवा दो ,या फिर युद्ध के लिए तैयार रहो ।  ऐसे अधिकांश मामलों में आक्रमण होना तय रहता था ! 
  अपनी   व्यक्तिगत मनोकामना की पूर्ति और आत्म संतुष्टि के लिए राजा अथवा महाराजा   हजारों सैनिकों को युद्ध की आग में झोंक देता था ।  बचाव पक्ष भी हमले का प्रतिरोध करता था । भयानक संघर्ष होता था ।
 बड़ी संख्या में दोनों पक्षों के सैनिक  बेमौत मारे जाते थे । ये सैनिक गरीब परिवारों के होते थे । अपने मालिक याने कि राजा ,महाराजा के क्षुद्र स्वार्थ की बलिवेदी पर जो अपने मूल्यवान जीवन की आहुति दे देते थे । उनके परिवार बेसहारा हो जाते थे ।
     अच्छा हुआ जो राजाओं ,महाराजाओं और बादशाहों ,शहंशाहों का ज़माना चला गया ,वर्ना उनकी शादियों के नाम पर  कितने ही गरीब और गुमनाम सैनिकों की बलि चढ़ती रहती ।
    जुए के खेल ने  महाभारत करवा दिया । वह भी एक राजघराने के पारिवारिक झगड़े की वजह से हुआ , जिसमें असंख्य गरीब सैनिक मारे गए ।   छोटे - छोटे राज्यों के विस्तार के लिए भी राजाओं के बीच उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के कारण  बड़ी - बड़ी लड़ाइयां हो जाती थी । उनमें मरने  वाले सैनिक राजभक्त कहलाते थे ,  उनकी राजभक्ति के कारण उनके बच्चे अनाथ हो जाते थे । लेकिन इतिहास की इबारतों  में तो  ऐसे ही स्वार्थी  राजाओं और सम्राटों की कथित ' वीर गाथाओं'   का बोलबाला है । उनमें  महिलाओं की वजह से हुए युद्धों  और शिकार कथाओं के प्रसंग तो मिलते हैं ,लेकिन    जनकल्याण का कोई उदाहरण नहीं मिलता  । 
    लगता है - हमारे इतिहास के पन्ने राजे - रजवाड़ों की   बेकार की लड़ाइयों में  मारे गए गरीब  सैनिकों के खून से रंगे हुए हैं ।
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Wednesday, November 17, 2021

एक मरते हुए तालाब की कहानी

 (आलेख : स्वराज करुण)
आज मैं बहुत दुःख के साथ आप लोगों को एक मरते हुए तालाब की कहानी बताने जा रहा हूँ ,जो सामाजिक उपेक्षा और प्रदूषण की वजह से  अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है।आप कह सकते हैं कि जब देश की राजधानी दिल्ली में भारत की सांस्कृतिक नदी यमुना भयानक प्रदूषण का शिकार हो चुकी है , तब ऐसे में वहाँ से हजारों किलोमीटर दूर किसी तालाब की फ़िक्र  कौन करे ?आख़िर  गंगा मैया भी तो प्रदूषण का दर्द झेल रही है । 
      लेकिन अगर हमें अपना जीवन बचाना है तो  अपने देश की नदियों के साथ -साथ  तालाबों का जीवन बचाने के बारे में भी सोचना तो पड़ेगा । गाँवों और शहरों में तालाबों को कभी जन -जीवन का जरूरी हिस्सा माना जाता था। लेकिन अब कई जगहों में उनके अस्तित्व पर ही संकट मंडराने लगा है। कारण यह है कि आधुनिक जीवन शैली का तो विस्तार हो रहा है ,लेकिन जन -चेतना विलुप्त हो रही है। सामाजिक ज़िम्मेदारी की भावना ख़त्म होती जा रही है।

       विशेष रूप से कस्बों और शहरों की अपनी बसाहटों का हर दिन का कचरा और गंदा पानी डाल -डाल कर मनुष्य अपने तालाबों का अस्तित्व मिटाता जा रहा है। छत्तीसगढ़ का  तहसील मुख्यालय पिथौरा कभी एक छोटा गाँव हुआ करता था , बढ़ती आबादी के।कारण अब यह नगर पंचायत है। हो सकता है कि कल यह नगर पालिका बन जाए।  साफ पानी की जरूरत तो उस समय भी सबको होगी। 
   यहाँ कभी लाखागढ़ का तालाब ग्रामीणों की निस्तारी का प्रमुख जरिया था । लाखागढ़ अब एक अलग ग्राम पंचायत है।वर्षों पहले  इस तालाब के किनारे खूब रौनक रहती थी। लाखागढ़ और पिथौरा बस्ती के लोग इसकी पचरी पर आते ,इत्मीनान से बैठते ,एक दूसरे का हालचाल पूछते ,बतियाते  और इसके स्वच्छ जल में डुबकियाँ लगाकर नहाने के बाद अपनी दिनचर्या शुरू करते। 
                           
     इसके  किनारे कभी मुम्बई -कोलकाता राष्ट्रीय राजमार्ग गुजरता था ,जो अब फोर लेन बन जाने के बाद यहाँ से शिफ़्ट होकर  कस्बे के बाहर चला गया है।  जब राष्ट्रीय राजमार्ग इधर होता था ,तब अन्तर्राज्यीय माल परिवहन में लगी बड़ी -बड़ी ट्रकों के ड्राइवर और खलासी भी इस सरोवर के किनारे कुछ देर बैठकर ,नहाकर अपनी थकान मिटाते और अगले पड़ाव के लिए चल पड़ते थे। इसके उत्तर और दक्षिण ,दोनों किनारों पर खूब चहल -पहल रहती थी।चिन्ता की बात है कि  अब तो इसका अस्तित्व भी विभाजित हो गया है।
    स्थानीय लोग बताते हैं कि ग्राम पंचायत लाखागढ़ के किसी पूर्व सरपंच ने कुछ साल पहले तालाब को दो टुकड़ों में बँटवा दिया। एक हिस्सा लाखागढ़ की तरफ और दूसरा पिथौरा की तरफ। तालाब विभाजन का कोई ठोस कारण कोई नहीं जानता अब यह अपने  सुनहरे दिनों को याद करते हुए अपनी बदहाली और बदकिस्मती पर आँसू बहा रहा है।  प्रदूषण की संक्रामक बीमारी ने इसे अपने शिकंजे में जकड़ लिया है। इसके प्राण  बचाने के लिए  सही उपचार की जरूरत है। 
   सामूहिक श्रमदान इसका एक अच्छा इलाज हो सकता है । सब मिलकर इसकी सफाई कर सकते हैं। इसके किनारों पर अनुपयोगी  प्लास्टिक ,पॉलिथीन और घरों का कूड़ा कचरा डालना बन्द हो , सार्वजनिक नालियों का गंदा पानी इसमें डालना बन्द किया जाए और इसके किनारों पर उगे झाड़ -झंखाड़ और  इसके पानी में फैली जलकुंभियों को जड़ सहित  हटाया जाए ,तब कहीं इसके सुनहरे दिन वापस आ सकते हैं। 
    लेकिन आर्थिक सभ्यता के इस दौर में जब श्रमदान की परम्परा ही समाज से विलुप्त होती जा रही है । तब किसी तालाब के अस्तित्व को विलुप्त होने से भला कौन रोक सकता है ? फिर भी कुछ जाग्रत लोग पहल करें तो बात बन सकती है।  - स्वराज करुण 
(दोनों तस्वीरें : मेरे मोबाइल की आँखों से )

Thursday, November 4, 2021

आधुनिक दानवीर और उसके परम भक्त सुदामा की कथा

               (स्वराज करुण  )
मित्रों  ! आइए ,आज दीवाली के दिन मैं आपको आधुनिक महाभारत के आधुनिक दानवीर और उसके मातहत ,परम भक्त  सुदामा की कथा सुनाता हूँ। वैसे यह कथा ज़्यादा लम्बी नहीं है। इसलिए कृपया धैर्यपूर्वक सुनिए ।
    हस्तिनापुर में दानवीर नामक एक राजकीय पदाधिकारी हुआ करता था। नाम उसका दानवीर जरूर था ,लेकिन काम उसके नाम के बिल्कुल विपरीत था। वह खुद कभी दान -दक्षिणा  नहीं देता था ,बल्कि अपना काम करवाने के लिए आने वाले ही उसे दान -दक्षिणा चढ़ाया करते थे ,तब कहीं उनका काम हो पाता था। यहाँ तक कि उसके मातहत भी अपने काम के लिए उसे दक्षिणा चढ़ाया करते थे। तो 
  एक दिन दानवीर का एक मातहत परम भक्त सुदामा  अपने किसी अटके हुए काम के सिलसिले में उसे  निर्धारित दक्षिणा चढ़ाने पहुँचा । उस दिन दीपावली थी। दानवीर के आलीशान बंगले में भी दीपोत्सव की रंग -बिरंगी तैयारियां चल रही थी।  मातहत को देखते ही दानवीर की बाँछे खिल गयीं। उसने प्रेमपूर्वक उससे कहा --"आओ सुदामा ,आओ !  मैं आज तुम्हें ही याद कर रहा था। "  इतना कहकर उसने सुदामा के हाथों में  रखे प्लास्टिक के थैले को कनखियों से देखा। फिर उससे पूछा -"कहो सुदामा ! कैसे आना हुआ। " इस पर सुदामा ने सकुचाते हुए अपने महीनों से अटके काम के बारे में बताया और कहा - "महाराज! ज्यादा तो नहीं सिर्फ़ 10 हजार रुपये दक्षिणा के लिए किसी से उधार लेकर  लाया हूँ।" इतना कहकर सुदामा ने दानवीर के श्रीचरणों में दक्षिणा की राशि अर्पित कर दी। तब दानवीर ने उसे गले लगाते हुए कहा - " सुदामा !  तुम्हारा काम अब हो गया समझो। बेफिक्र होकर घर चले जाओ। " सुदामा वहाँ से निकल गया। जैसे ही वह दानवीर के बंगले के बाहर पहुँचा ,संतरी ने  दौड़कर उससे कहा --" सर जी ! आपको महाराज याद कर रहे हैं। "  
   सुदामा मुड़कर फिर दानवीर के 'हुज़ूर '  में पहुँचा ,जहाँ वह उसके दिए हुए 10 हजार रुपयों को गिनकर रहा था। पूरा गिन चुकने के बाद उसने नोटों के उस बंडल से एक हजार रुपए निकाले  और सुदामा को प्यार से डाँटते हुए कहा -- "अरे भाई , क्या तुम अपने बीवी ,बच्चों के साथ दीवाली नहीं मनाओगे ?अगर पूरे 10 हजार मुझे दे दोगे तो उनके लिए आज त्यौहार के दिन मिठाईयां  और पटाखे कैसे खरीदोगे ? इसलिए रखो ये एक हजार रुपए और जाओ ,अपने परिवार के साथ दीवाली मनाओ। "  इतना कहकर दानवीर ने सुदामा के हाथों में एक हजार रुपए रख दिए और उसके  कंधों पर हाथ रखकर स्नेह जताया। दानवीर की इस सदाशयता से गदगद होकर सुदामा अपने गाँव लौट गया। इधर दानवीर अपनी बीवी से कह रहा था --चलो , आज दीवाली के दिन 9000 हजार रुपए की आवक तो हुई। उधर सुदामा गाँव पहुँचकर अपने बीवी -बच्चों के सामने साहब की इस   'उदारता 'का बखान किए जा  रहा था । 
    (डिस्क्लेमर  :    दोस्तों ! इस लघु कथा से डीजल ,पेट्रोल की कीमतों में आज की गयी  मामूली कटौती का कोई संबंध नहीं है ,वैसे आप अपने हिसाब से संबंध जोड़ भी सकते हैं ।)--स्वराज करुण