आंचलिक साहित्य के शोधकर्ताओं की मानें तो पाण्डेय बंशीधर शर्मा रचित 'हीरू के कहिनी' . छत्तीसगढी भाषा का पहला उपन्यास है. इसका प्रथम प्रकाशन सन् 1926 में हुआ था .दूसरा संस्करण 74 साल बाद सन् 2000 में छत्तीसगढ़ के जिला मुख्यालय रायगढ़ में प्रकाशित हुआ . यानी आज (सन 2014 से ) 88 साल पहले महानदी के आँचल में लिखा गया था छत्तीसगढ़ की जन-भाषा में पहला उपन्यास .यही वह समय था जब देश में स्वतंत्रता आंदोलन के जरिये राष्ट्रीय चेतना का विकास हो रहा था .
यही वह समय था जब देश भर में विभिन्न राज्यों की आंचलिक भाषाओं में राष्ट्रीय जागरण की रचनाएँ लिखी और छापी जा रही थी और हिन्दी सहित तमाम भारतीय भाषाओं का भी उत्थान हो रहा था . इतिहास के ऐसे निर्णायक दौर में छत्तीसगढ़ में यहाँ की जन-भाषा में साहित्य सृजन करने वाले माँ सरस्वती के पुजारियों में पाण्डेय बंशीधर शर्मा भी अग्रणी थे . उन्होंने 'हीरू के कहिनी ' के माध्यम से छत्तीसगढ़ के तत्कालीन ग्रामीण जन-जीवन का जीवंत चित्रण किया है., गरीबों के जीवन -संघर्ष को अभिव्यक्ति दी है और यह भी बताने का प्रयास किया है कि राजा (शासक ) और जनता के बीच कैसे रिश्ते होने चाहिए.
उपन्यासकार के पारिवारिक सदस्य और वरिष्ठ साहित्यकार श्री ईश्वर शरण पाण्डेय ने इसका सम्पादन किया है. यह दूसरे संस्करण का मुखपृष्ठ है .पाण्डेय बंशीधर शर्मा छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध इतिहासकार स्वर्गीय श्री लोचन प्रसाद पाण्डेय और प्रसिद्ध कवि स्वर्गीय श्री मुकुटधर पाण्डेय के मंझले भाई थे. पाण्डेय परिवार के लोग महानदी के तटवर्ती ग्राम बालपुर के निवासी थे . बंशीधर जी के उपन्यास के प्रकाशक श्री राजू पाण्डेय ने अपने प्रकाशकीय वक्तव्य में लिखा है -उपन्यास के नायक हीरू का चरित्र छत्तीसगढ़ अंचल के निवासियों का प्रतिनिधि चरित्र है .धनी -निर्धन . शिक्षित -अशिक्षित , परम्परावादी और प्रगतिशील , सभी प्रकार के पात्र उपन्यास में मौजूद हैं .उपन्यास का कथानक हीरू की कष्टपूर्ण और दुःखमय बाल्यावस्था से उसके सफल और प्रतिष्ठापूर्ण यौवन तक फैला हुआ है .उपन्यास बहुरंगी ग्रामीण जीवन की समग्रता को समेटे है .अंग्रेजों द्वारा किया जा रहा शोषण , आम जनता में व्याप्त असंतोष . जन जागरण के प्रयास और स्वाधीनता आंदोलन की ऊहापोह वायु की भांति पूरे उपन्यास में फैली है
मेरे विचार से 'हीरू के कहिनी ' भारतीय साहित्य की एक अनमोल धरोहर है .छत्तीसगढी भाषा का पहला उपन्यास होने की वजह से यह हमारे लिए और भी ज्यादा मूल्यवान सम्पत्ति है,जिसे सहेजकर और संजोकर सुरक्षित रखना हम सबकी नैतिक जिम्मेदारी है. राजू पाण्डेय ने अपने सीमित संसाधनों से स्थानीय स्तर पर इसे प्रकाशित कर जनता के सामने लाने का सराहनीय प्रयास किया. जरूरत इस बात की है कि सरकार और समाज दोनों मिलकर ऐसी दुर्लभ साहित्यिक रचनाओं को संरक्षित करे ,ताकि आने वाली पीढ़ियों को मालूम तो हो कि देश -दुनिया और समाज को सही दिशा देने के लिए उनके पूर्वज प्रेरक विचारों का कितना अनमोल खजाना उन्हें सौंप गए हैं .(स्वराज्य करुण )
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (09-11-2014) को "स्थापना दिवस उत्तराखण्ड का इतिहास" (चर्चा मंच-1792) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
चर्चा मंच में स्थान देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय शास्त्री जी .उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस की आपको और वहाँ के सभी ब्लॉगर मित्रों को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं
Deleteपाण्डेय बंशीधर शर्मा द्वारा रचित छत्तीसगढी भाषा में पहला उपन्यास' हीरू के कहिनी' के बारे में सार्थक प्रस्तुति .. निश्चित ही ऐसे धरोहर को सहेजने के लिए सार्थक पहल की है आपने ... बहुत अच्छा लगा ....
ReplyDeleteपाण्डेय बंशीधर शर्मा द्वारा रचित छत्तीसगढी भाषा में पहला उपन्यास' हीरू के कहिनी' के बारे में सार्थक प्रस्तुति .. निश्चित ही ऐसे धरोहर को सहेजने के लिए सार्थक पहल की है आपने ... बहुत अच्छा लगा ....
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