(जयंती 19 जून पर विशेष )
सच्चाई की धार पर चलने वाली पत्रकारिता का रास्ता हमेशा से ही काफी चुनौतीपूर्ण रहा है। देश और समाज की भलाई के लिए उच्च आदर्शो के साथ किसी पत्र – पत्रिका के सम्पादन और प्रकाशन में कितनी दिक्कतें आती हैं, इसे पण्डित माधवराव सप्रे जैसे मनीषी पत्रकार की संघर्षपूर्ण जीवन यात्रा से समझा जा सकता है। उन्होंने 122 साल पहले वर्ष सन 1900 में छत्तीसगढ़ के पेण्ड्रा (जिला -बिलासपुर) जैसे छोटे कस्बे में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के रूप में इस प्रदेश के लिए पत्रकारिता की बुनियाद रखी, जिसे हम यहाँ निरंतर विकसित हो रही पत्रकारिता की गंगोत्री भी कह सकते हैं। वह छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता के युग प्रवर्तक थे। इस प्रदेश की पत्रकारिता का युग सप्रेजी से शुरू होता है। वह अपने दौर के बड़े साहित्यकार भी थे। इसलिए उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में साहित्य और पत्रकारिता का अनोखा समन्वय देखा जा सकता है।
आम तौर पर दैनिक अख़बारों में समाचारों की प्रधानता होती है, जबकि साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक, त्रैमासिक कालखंडों में प्रकाश्य अथवा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं को वैचारिक प्रकाशन माना जाता है। इनमें चिन्तन प्रधान लेखों, कहानियों, कविताओं आदि से परिपूर्ण साहित्यिक रचनाओं का भी समावेश रहता है। इस दृष्टि से हम ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ को एक वैचारिक और साहित्यिक पत्रिका भी मान सकते हैं और सप्रे जी को एक साहित्यिक पत्रकार। उनके द्वारा रचित ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिन्दी की पहली कहानी होने का गौरव प्राप्त है।जीवन यात्रा
सप्रे जी का जन्म मध्यप्रदेश के ग्राम पथरिया (जिला -दमोह)में 19 जून 1871 को और निधन 23 अप्रैल 1926 को छत्तीसगढ़ की वर्तमान राजधानी रायपुर में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मिडिल स्कूल तक बिलासपुर में और एंट्रेंस (हाई स्कूल ) तक रायपुर में हुई। उच्च शिक्षा उन्होंने कॉलेज शिक्षा जबलपुर, ग्वालियर और नागपुर में प्राप्त की। नागपुर के हिस्लाप कॉलेज से बी.ए. उत्तीर्ण होने के बाद वह 1899 में पेण्ड्रा में स्थानीय राजकुमार के शिक्षक बने। बीसवीं सदी के उस प्रारंभिक दौर में भारत में स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीय तथा सामाजिक पुनर्जागरण की लहर चल रही थी। उन्हीं दिनों 29 वर्षीय सप्रे जी ने पेण्ड्रा से ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का सम्पादन करते हुए छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता की भी बुनियाद रखी। सप्रे जी के साथ पण्डित रामराव चिंचोलकर भी इसके सम्पादक थे। रामराव जी उनके मित्र और सहपाठी थे। इसका पहला अंक जनवरी 1900 में प्रकाशित हुआ था। सप्रे जी पत्रिका के व्यवस्थापक भी थे। वह इस पत्रिका को ‘पुस्तक’ कहा करते थे। पत्रिका का मुद्रण रायपुर और नागपुर के प्रिंटिंग प्रेसों में कराया जाता था।
हिन्दी भाषा की उन्नति और विद्यार्थियों की सहायता का उद्देश्य
उन्होंने प्रथम अंक में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ की चौदह सूत्रीय नियमावली भी प्रकाशित की थी, जिसमें पत्रिका प्रकाशन के उद्देश्यों को स्पष्ट किया गया था। नियमावली के कुछ बिन्दुओं को देखिए -(1) यह मासिक पुस्तक शुद्ध, सरल हिन्दी भाषा में हर महीने की आखिरी तारीख़ को, जिले रायपुर, मध्यप्रदेश से प्रसिद्ध होती है। (2)राज्य प्रकरण तथा वादग्रस्त धर्म विषयों को छोड़कर, साहित्य तथा शास्त्र के विषयों का इसमें समावेश किया जाएगा। (3)छत्तीसगढ़ विभाग में विद्या की वृद्धि करने के लिये, विद्यार्थियों को द्रव्य की सहायता पहुँचाने के लिये और हिन्दी भाषा की उन्नति के लिये, यथमति, यथाशक्ति तन, मन, धन से प्रयत्न करना-यही इस पुस्तक के प्रकाशकों का मूल उद्देश्य है। (4)उपरोक्त उद्देश्य सिद्ध करने हेतु छत्तीसगढ़ के विद्यार्थियों को स्कालरशिप दी जायेगी दी जायेगी और ग्रंथकारों को द्रव्य द्वारा उत्तेजन दिया जायेगा। इस विषय के खुलासेवार नियम अभी बन रहे हैं। ग्राहकों तथा आश्रयदाताओं का उत्साह देखकर प्रथम वर्ष के अनुभव के पश्चात प्रकट किये जावेंगे। सम्प्रति इस पुस्तक का अग्रिम (अगाऊ) वार्षिक मूल्य डाक महसूल सहित केवल डेढ़ रुपया ही नियत किया गया है। बिंदु (6)- राजा, महाराजा, श्रीमान जमींदारों से उनके सम्मानार्थ 5 रूपये वार्षिक मूल्य। (7)सभा, पुस्तकालय और विद्यार्थियों से अग्रिम वार्षिक मूल्य केवल सवा रुपया और (8) -छत्तीसगढ़ विभाग के सब हिन्दी पाठशालाओं के अध्यापक तथा छात्र वर्गों से केवल एक रूपया वार्षिक मूल्य।
इन बिंदुओं के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन हिन्दी भाषा की उन्नति और छत्तीसगढ़ विभाग यानी तत्कालीन छत्तीसगढ़ अंचल (वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य) में साहित्य और विशेष रूप से शिक्षा के प्रसार का एक पवित्र ध्येय लेकर प्रारंभ किया गया था। लेकिन आर्थिक कठिनाइयों के कारण सिर्फ़ 36 अंक प्रकाशित हो पाए और तीन साल में (दिसम्बर 1902 में) प्रकाशन बंद करना पड़ गया। सप्रेजी तथा उनके सहयोगियों के अनेक रचनात्मक सपने अधूरे रह गए।
साहित्यिक पत्रिकाओं के प्रति समाज में उन दिनों भी थी उदासीनता
साहित्यिक पत्र -पत्रिकाओं के प्रति समाज के सम्पन्न और समर्थ वर्ग में उदासीनता उन दिनों भी हुआ करती थी। कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जन संचार विश्वविद्यालय रायपुर ने वर्ष 2010 में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के प्रथम वर्ष 1900 में छपे 12 अंकों का संकलन एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया था। इसमें पत्रिका के प्रत्येक अंक में छपे लेख आदि विस्तार से यथावत दिये गए हैं। परिशिष्ट में ‘ग्राहकों को सूचना’ शीर्षक से व्यवस्थापक यानी सप्रे जी का एक पत्र भी छपा है। ग्राहकों के नाम इस सूचना में उन्होंने लिखा था –
-“आज पांच महीने से ‘छत्तीसगढ़ मित्र ‘आपकी सेवा कर रहा है। यह काम सर्वथैव द्रव्य द्वारा साध्य है। हमने अपने कई मित्रों को इस आशा से पुस्तकें भेजीं कि वे इसको निज कार्य समझ अवश्य सहाय होंगे। पर अब खेदपूर्वक लिखना पड़ा कि हमारी सब आशा निरर्थक हुई। कई लोगों ने तो यह कहकर अंक लौटा दिया कि हमारे पास और भी दूसरे पत्र आया करते हैं -हमें फुरसत नहीं है और कई लोगों ने यह कहकर कि यह तो मासिक पुस्तक है, समाचार पत्र होता तो लेते। इसी तरह कुछ न कुछ बहाना बनाकर किसी ने पहिला, किसी ने दूसरा, किसी ने तीसरा और चौथा अंक वापस कर दिया है। जिन लोगो ने मित्र को आश्रय देने के भय से अंक लौटा दिये हैं, उनसे हमारा कुछ भी कहना नहीं है। पर जिन महानुभावों के पास से एक भी अंक लौट कर नहीं आया उनसे हमारी यही विनती है कि आप कृपापूर्वक ‘मित्र’ की न्योछावर शीघ्र भेज दीजिए। हम आशा करते हैं कि छत्तीसगढ़ विभाग के राजा, महाराजा, श्रीमान, जमींदार तथा सर्वसाधारण लोग और अन्यान्य प्रदेशों के सभ्य महोदय, जिनके पास “छत्तीसगढ़ मित्र ” भेजा गया है, शीघ्र ही अपनी-अपनी उदारता प्रगट कर हमें द्रव्य की सहायता देवेंगे। उनके सत्कार्य से ‘मित्र’ को अपना कर्त्तव्य कर्म करने के लिए द्विगुणित अधिक उत्साह प्राप्त होगा ।आप तो स्वयं विचारवान हैं। आपके लिये इतनी ही सूचना बहुत है ।”
सप्रे जी की इस अपील का बहुत ज़्यादा असर नहीं हुआ और ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन बन्द करने के अलावा उनके सामने और कोई उपाय भी नहीं था। उनकी इस सूचनात्मक अपील से यह भी पता चलता है कि साहित्यिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों से प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिकाओं को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए आर्थिक मोर्चे पर हमेशा संघर्ष करना पड़ता है । आज से एक शताब्दी पहले की साहित्यिक पत्रकारिता में यह संघर्ष और भी अधिक चुनौतीपूर्ण हुआ करता था।
ऐसा था हमारा ‘छत्तीसगढ़ मित्र’
‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के प्रत्येक अंक में सामाजिक, शैक्षणिक और साहित्यिक विषयों पर विद्वानों के लेख आदि प्रकाशित किए जाते थे। प्रेरक प्रसंगों का भी समावेश होता था। विभिन्न सामाजिक आयोजनों और समाज में घटित घटनाओं के संक्षिप्त समाचार भी छापे जाते थे। प्रथम अंक जनवरी 1900 में रायपुर में 16 तारीख़ को आयोजित कायस्थ सभा के प्रथम वार्षिकोत्सव का समाचार भी छपा हैl पत्रिका के इस प्रवेशांक में अंक में ‘आत्म परिचय’ के अंतर्गत पत्रिका प्रकाशन के उद्देश्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इसके अलावा ‘भाषा में ग्रंथ लेखन की आवश्यकता’ शीर्षक एक आलेख में तत्कालीन समाज में हिन्दी भाषा में ग्रंथों (पुस्तकों ) की कमी होने पर चिन्ता प्रकट की गई है। प्रेस के मैनेजर गफ़्फ़ार साहिब के बीमार हो जाने के कारण मार्च-अप्रैल 1900 का अंक संयुक्तांक के रूप में प्रकाशित करना पड़ा था। इसकी सूचना भी प्रकाशित की गई है। पत्रिका में ‘सुभाषित रत्न’ शीर्षक से संस्कृत ग्रंथों के श्लोक उनके हिन्दी अनुवाद के साथ प्रकाशित किए जाते थे, वहीं ‘प्रेरित पत्र’ के अंतर्गत पाठकों के पत्र भी छापे जाते थे। देश के विभिन्न राज्यों में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ की ख्याति पहुँची तो अनेक पुस्तकें और पत्रिकाएँ भी इसमें समीक्षा और चर्चा के लिए आने लगीं। उनका उल्लेख ‘पुस्तक प्राप्ति’ कॉलम में किया जाता था। इसी तरह ‘प्रेरित पत्र’ स्तंभ में सम्पादक के नाम विभिन्न विषयों पर पाठकों से आने वाले पत्र प्रकाशित किए जाते थे, इस डिस्क्लेमर के साथ कि ‘पत्र प्रेरकों के मत के लिए सम्पादक जवाबदार नहीं है ।
सौ साल पहले भी शहर में होती थी पेयजल समस्या
जुलाई 1900 के अंक में रायपुर के किन्हीं सतपाल जी का पत्र छपा है। उन्होंने 25 जुलाई 1900 के अपने इस पत्र में जहाँ रायपुर में ‘सरस्वती भुवन’ पुस्तकालय के लिए शुभ मुहूर्त किए जाने की जानकारी दी है, वहीं शहर की पेयजल समस्या का भी उल्लेख किया है। वे लिखते हैं –“खेद की बात है कि करीब एक महीने से अधिक दिन हो गये, शहर के सब नल बन्द रहते हैं। सिर्फ़ शाम सबेरे दो घंटे पानी मिलता है। कई नलों में बहुत देरी से सबेरे पानी आता है। इस आपत्ति से धर्मिष्ठ लोगों के प्रातः स्नान में विघ्न हुआ। बेचारे पथिक लोग दोपहर के समय नलों को ऐंठते रह जाते हैं। पानी नहीं मिलता।”
रसीले समाचारों की मांग करते थे पाठक
हालांकि पत्रिका घाटे में चल रही थी, फिर भी सप्रे जी के कुशल सम्पादन में यह पत्रिका इतनी लोकप्रिय हो गई थी कि पाठकगण इसे साप्ताहिक बनाने की मांग करने लगे। कुछ पाठक पत्रिका की विषय वस्तु से सहमत नहीं थे और इसमें रसीले समाचारों की मांग करते थे। मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 1996 में प्रकाशित पुस्तक ‘माधवराव सप्रे :व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ में लेखक संतोष कुमार शुक्ल ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के सम्पादक को मिले एक पाठक के मज़ेदार पत्र का उल्लेख किया है। यह पत्र ‘छत्तीसगढ़ी’ नामक किसी पाठक ने व्यंग्यात्मक लहज़े में लिखा था। शुक्ल जी के अनुसार सप्रेजी की साहित्य, भाषा और पत्रकारिता के प्रति मौलिक आस्था थी। वे यह समझे थे कि छत्तीसगढ़ क्षेत्र से साहित्यिक पत्र निकालकर जीवित रखना आसान न होगा। फिर भी उन्होंने ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के स्वरूप में परिवर्तन नहीं किया। उन्हें सुझावात्मक अनेक पत्र भी प्राप्त हो रहे थे।
अजी, एडिटर साहेब, सुन लीजिये, हमारी सलाह बहुत अच्छी है ….
शुक्ल जी की उपरोक्त पुस्तक के अनुसार एक छत्तीसगढ़ निवासी ने तो बड़ा कड़ा पत्र लिखा –” अब जो हो, हम साफ कहते हैं कि हमें तुम्हारे पत्र की चाह नहीं है। डेढ़ रूपये मुफ़्त में देना पड़ता है। हाँ, अगर आप हमारी सलाह सुनें तो अलबत्ते हम आपके ग्राहक हो सकते है और कई जुटा भी दे सकते हैं। सलाह और कुछ नहीं है। बस यही है कि आप अपने पत्र को साप्ताहिक कर दीजिए, शिक्षा और साहित्य की शुष्क बातों को छोड़कर मसालेदार लड़ाई की ख़बरें सुनाइए, रसीले समाचारों से पत्र का कलेवर पूर्ण कीजिए, समस्यापूर्ति के दस, पांच कालम भर दीजिए, विविध रसयुक्त, श्रृंगार रस प्रधान, अद्भुत घटनामय ऊट पटांग उपन्यासों की भरमार रखिए और बात -बात में सम्पादकों से लड़ते रहिये। यदि यह न हो सके तो राज्य प्रकरण में हाथ डालिए, वर्तमान राज्य प्रबन्ध विषयक तीव्र लेख लिखिये, गवर्मेन्ट पर खूब टीका कीजिये, सरकारी प्रत्येक कार्य में दोष दिखलाइये, किसी मान्य व्यक्ति पर कुछ आक्षेप लाइए, किसी सभ्य पुरुष की मानहानि कीजिये और अपने देश भाइयों में राजद्रोह नहीं, राजभक्ति फैलाइये। यदि यह भी न हो सके तो आर्य धर्म का आंदोलन मचाइये और घर में फूट का बीज बो समाज को अस्त-व्यस्त कर दीजिए। जब तक आप हमारी यह सलाह न सुनेंगे, आपको छत्तीसगढ़ मित्र के बदौलत हर साल नुकसानी ही सहनी पड़ेगी। अजी, एडिटर साहेब, सुन लीजिये, हमारी सलाह बहुत अच्छी है। उसके अनुसार चलोगे तो पैसा भी कमाओगे और नाम भी मिलाओगे। नहीं तो हम सच कह देते हैं कि आपके पत्र को हम नहीं चाहते।….” आपका एक छत्तीसगढ़ी”
घाटे के बावज़ूद प्रकाशन जारी रखने का संकल्प
शुक्ल जी की पुस्तक ‘ माधवराव सप्रे : व्यक्तित्व एवं कृतित्व’ के अनुसार ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के प्रथम वर्ष के अंकों मुद्रण कार्य के लिए कय्यूमी प्रेस रायपुर को 499 रूपये 8 आने का भुगतान किया गया था। दूसरे वर्ष में मुद्रण कार्य देशसेवक प्रेस नागपुर में कराया गया था और कुल 474 रूपये6 आने खर्च हुआ था, जो प्रथम वर्ष की अपेक्षा कम था, लेकिन पहले वर्ष 175 रूपये 12 आने घाटा हुआ था, जो दूसरे वर्ष में घटकर 118 रूपये 9 आने हो गया। इससे प्रकाशक और सम्पादकों को काफी आशा बंधी थी कि यदि तीसरे वर्ष भी सभी का पूरा -पूरा सहयोग मिलता गया तथा परिश्रम की रफ़्तार कम नहीं हुई तो तीसरे वर्ष घाटा न होगा। यद्यपि सम्पादकों को ज्ञात था कि तीसरा वर्ष कड़ी परीक्षा का होगा ।इसलिए सम्पादकों ने वर्ष 1901 का वार्षिक आय -व्यय का लेखा प्रस्तुत करते हुए लिखा था कि ‘मित्र’ के निकलने के पहिले ही हमने सोच लिया था कि हमें घटी के सिवाय कुछ लाभ न होगा, परंतु छत्तीसगढ़ में विद्या की वृद्धि, स्वदेश में ज्ञान का प्रसार, नागरी की उन्नति और हिन्दी साहित्य में सत्य समालोचना द्वारा सत्य विचार की जागृति करने के हेतु जिस समय हमने ‘मित्र’ को जन्म दिया, उसी समय हमने यह भी दृढ़ संकल्प कर लिया था कि इस कार्य में चाहे जैसी हानि और कठिनाई सहनी पड़े, पर हम तीन वर्ष तक इसे अवश्य चलावेंगे। हमारे संकल्पानुसार परमात्मा की कृपा से दो वर्ष बीत गये और हमारे दुर्भाग्य से दोनों वर्ष हमें घाटा ही उठाना पड़ा। अब यह तीसरा वर्ष है। देखना चाहिये कि इसका क्या परिणाम होता है? यदि इस वर्ष भी ऐसी ही घटी उठानी पड़ी तो समझ लीजिये कि आपके प्रिय ‘मित्र’ को सौ वर्ष पूरे हो चुके और फिर, बड़े दुःख से लिखना पड़ता है कि यही इसकी आयु का अन्तिम वर्ष भी होगा !!!.
हालांकि ‘मित्र’ में छपे इस मार्मिक पत्र को पढ़कर कुछ पाठकों ने मदद की पेशकश भी की, लेकिन शायद वह पर्याप्त नहीं थी और इसी वजह से’ छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन तीन साल से ज़्यादा हो न सका।
लगी थी ‘राजद्रोह ‘ की धारा : हुए थे गिरफ़्तार
सप्रे जी ने ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ का प्रकाशन बंद होने के बाद नागपुर में राष्ट्रीय चेतना सम्पन्न प्रबुद्धजनों के सहयोग से ‘हिन्दी केसरी ‘ नामक साप्ताहिक पत्र के सम्पादन और प्रकाशन का दायित्व संभाला। इसका पहला अंक 13 अप्रैल 1907 को छपा। यह साप्ताहिक दरअसल महान स्वतंत्रता सेनानी लोकमान्य पण्डित बालगंगाधर तिलक के मराठी साप्ताहिक ‘केसरी’ में छपने वाले विचारों को हिन्दी भाषी इलाकों में जन -जन तक पहुँचाने के लिए शुरू किया गया था। इसमें अंग्रेज हुकूमत की जन विरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ के ख़िलाफ़ कई विचारोत्तेजक लेख छपते थे। वर्ष 1908 में प्रकाशित चार आलेखों को लेकर ब्रिटिश प्रशासन ने सप्रेजी के ख़िलाफ़ राजद्रोह का आरोप लगाकर भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (ए) के तहत उन्हें गिरफ्तार कर लिया। कुछ महीनों के बाद उन्हें रिहा किया गया। उनके साथ एक अन्य समाचार पत्र ‘देश सेवक ‘ के सम्पादक कोल्हटकर जी भी इसी धारा के तहत गिरफ्तार हुए थे।
मराठी ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद
पण्डित माधवराव सप्रे हिन्दी, मराठी और अंग्रेजी भाषाओं के विद्वान थे। उन्होंने लोकमान्य पण्डित बालगंगाधर तिलक द्वारा मराठी में रचित ग्रंथ ‘गीता रहस्य ‘(श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य अथवा कर्मयोग शास्त्र)का हिन्दी में अनुवाद किया था, जो सन 1916 में प्रकाशित हुआ। मूल ग्रंथ मराठी में सन 1915 में छपा था। उल्लेखनीय है कि तिलक जी ने 900 पृष्ठों के इस महान ग्रंथ की रचना स्वतंत्रता संग्राम के दौरान मंडाले (म्यांमार) की जेल में कारावास की अवधि में 2 नवम्बर 1910 से 30 मार्च 1911 के बीच (सिर्फ़ 5 माह में) की थी। सप्रे जी ने चिन्तामणि विनायक वैद्य के लिखे ‘महाभारत के उपसंहार’ नामक ग्रंथ का भी हिन्दी अनुवाद किया था, जो ‘महाभारत -मीमांसा’ शीर्षक से वर्ष 1920 में प्रकाशित हुआ था। सप्रे जी द्वारा अनुवादित कृतियों में समर्थ श्री रामदास के मराठी ग्रंथ ‘दासबोध ‘ का हिन्दी अनुवाद भी उल्लेखनीय है। उन्होंने नागपुर से वर्ष 1906 में मासिक’ हिन्दी ग्रंथमाला’ का प्रकाशन भी प्रारंभ किया था। पत्रकार के अलावा एक बड़े साहित्यकार के रूप में भी सप्रेजी का हिन्दी जगत में बहुत सम्मान था। देहरादून में वर्ष 1924 में 9 नवम्बर से 11 नवम्बर तक आयोजित हिन्दी साहित्य सम्मेलन का पन्द्रहवां अधिवेशन उनकी अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ था।
उन्होंने दी जागृति की ज्योति
पुस्तक ‘माधवराव सप्रे : व्यक्तित्व एवं कृतित्व ‘ में ‘अपनी बात’ के अंतर्गत संतोष कुमार शुक्ल ने लिखा है -“सप्रेजी ने स्वयं को गढ़ा था। उन्होंने भारतीय चिंतन को अपनी परिपूर्णता में पहचाना था और उसे आम आदमी तक पहुँचाने के लिए जो माध्यम चुने, वे थे साहित्य और पत्रकारिता। इसके लिए भी उन्होंने जो पथ चुना, वह मूक सेवा का था। उसे उन्होंने आत्मीय स्वर दिया, ऐसी जागृति की ज्योति दी, जिसके प्रकाश में उसने चेतना पाई, मुखर होकर अपनी भाषा में अपने भाव व्यक्त करने की शक्ति पाई। वे केवल 55 वर्ष जिए, पर उनका प्रत्येक दिन उद्देश्यपूर्ण रहा।”
वाकई, किसी विद्वान ने क्या ख़ूब कहा है — ज़िंदगी लम्बी नहीं, बड़ी होनी चाहिए। आयु की दृष्टि से सप्रे जी की 55 वर्ष की छोटी -सी जीवन यात्रा उपलब्धियों के लिहाज़ से वाकई बहुत बड़ी और गौरवपूर्ण थी। हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता को उनकी ऐतिहासिक देन हमेशा यादगार बनी रहेगी।
आलेख-स्वराज्य करुण