Sunday, September 29, 2019

(आलेख ) विदेशी मदिरा के स्वदेशी ग्राहक !

                         - स्वराज करुण 
भारत में आजकल दूध -दही की दुकानों से ज्यादा भीड़ शराब की दुकानों में उमड़ती नज़र आती है ।वह भी विदेशी शराब की दुकानों में !  अब 'स्वदेशी शराब ' को कोई नहीं पूछता !  खैर , वैसे भी शराब चाहे विदेशी हो या स्वदेशी ,वैध हो या अवैध , किसी भी दृष्टि से स्वास्थ्य के लिए लाभदायक तो है नहीं ।
   शारीरिक हानि के साथ -साथ सामाजिक प्रदूषण फैलाने में भी शराब और शराबियों का बहुत बड़ा आपराधिक योगदान होता है । आम तौर पर शराबखोरी को जायज ठहराने के लिए  लोग 'वैध ' और 'अवैध ' मदिरा में फ़र्क करते हैं ,जबकि  जो चीज मनुष्य के लिए प्राणघातक है ,पारिवारिक - सामाजिक -सांस्कृतिक पर्यावरण के लिए नुकसान दायक है , उसे वैध -अवैध के रूप में अलग -अलग परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए । ज़हर तो ज़हर होता है  । उसे चाहे 'वैध 'तरीके से पिया जाए या ' अवैध ' तरीके से ,  दोनों ही स्थितियों में वह प्राणघातक होता है ।उसमें  'कानूनी ज़हर' और 'गैरकानूनी ज़हर '  कहकर  भेद नहीं किया जा सकता।  (स्वराज करुण )यह गोवंश के रक्षक कृष्ण -कन्हैय्या  का देश है ,जहाँ उनके ज़माने में दूध की नदियाँ बहा करती थीं । यानी दूध -दही का भरपूर उत्पादन होता था ।  लोग उसे पीकर स्वस्थ और बलवान हुआ करते थे ।
   वैसे  आज भी देखा जाए तो हमारे यहाँ दूध -दही की कोई कमी नहीं है ,लेकिन भोगवादी और बाज़ारवादी आधुनिक जीवन शैली के आकर्षण में बंधकर भारतीय मनुष्य तेजी से शराबखोरी की घिनौनी आदत का शिकार बन रहा है । (स्वराज करुण )हमारे भारतीय समाज में कुछ एक अपवादों को छोड़कर देखें तो आज  शराबखोरी को प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जा रहा है ।  हराम की कमाई से  बने अमीरों और नवधनाढ्य लोगों के घरों में उनके प्राइवेट  ' मिनी बार ' बने हुए हैं,जहाँ परिवार के सदस्य भी आधुनिकता के नाम पर  खुलकर मदिरा पान करते हैं । (स्वराज करुण) दूसरी तरफ  चाहे नौकरीपेशा वेतनभोगी कर्मचारी हो या दिहाड़ी मज़दूर , समाज के हर वर्ग के अधिकांश लोग अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा मदिराखोरी में नष्ट कर रहे हैं ,जबकि जितना रुपया वह शराब खरीदने में ख़र्च करते हैं ,उससे कहीं कम कीमत में वह स्वयं के लिए और परिवार के लिए पर्याप्त मात्रा में दूध -दही ,घी जैसे स्वास्थ्यवर्धक पदार्थ ख़रीद सकते हैं । लेकिन शराबियों को अपने घर -परिवार या बालबच्चों की चिन्ता कहाँ होती है ।
    हिन्दी -उर्दू के प्रसिद्ध लेखक मुंशी प्रेमचंद की एक मशहूर कहानी 'कफ़न' अगर आपने पढ़ी हो तो उसमें बाप -बेटे घीसू और माधव के चरित्र को याद कीजिए ,जो घर में प्रसव वेदना से कराहती बहू के इलाज के नाम पर गाँव वालों से चंदा इकठ्ठा करते हैं और उन पैसों को अपनी शराबखोरी में उड़ा देते हैं । तब तक उनकी झोपड़ी में बहू तड़फ -तड़फ कर दम तोड़ देती है । कालजयी कथाकार द्वारा यह कहानी लगभग नौ दशक पहले लिखी गयी थी । इससे पता चलता है कि यह समस्या बहुत पुरानी है । शराब का नशा जहाँ गरीबों को और भी गरीब बना देता है और उनमें अच्छे -बुरे की समझ को नष्ट कर देता है ,वहीं यह पैसे वालों को भी धीरे -धीरे बर्बाद करके ख़ाक में मिला देता है । मुझे अपने बचपन की स्कूली किताब  'बालभारती ' में पढ़ी आनन्दराव जमींदार की कहानी की धुँधली -सी याद आ रही है । यह शराब की लत के कारण आनन्दराव की आर्थिक तबाही की एक मार्मिक कहानी है । लेखक का नाम याद नहीं ,लेकिन उन्होंने कहानी के माध्यम से समाज को इस नशे से दूर रहने की नसीहत दी है ।
          लगता है कि पहले की तुलना में यह समस्या आज  और भी ज़्यादा बढ़ गयी है । भारत में शराबखोरी एक गंभीर सामाजिक बीमारी का रूप धारण करती जा रही है । क्या शहर और क्या गाँव , देश का कोई भी इलाका इस बीमारी से अछूता नहीं रह गया है ।इसकी वज़ह से समाज में हिंसा ,हत्या , आत्महत्या , बलात्कार जैसे घिनौनी घटनाओं में वृद्धि हो रही है । राह चलती माताओं -बहनों ,बहु -बेटियों से छेड़छाड़ की घटनाएं बढ़ रही हैं ।शराब पीकर वाहन चलाने वाले जहाँ स्वयं गंभीर सड़क हादसों का शिकार होकर प्राण गंवा रहे हैं ,वहीं उनके लड़खड़ाते वाहनों की चपेट में आकर दूसरे भी आकस्मिक रूप से मौत का शिकार बन रहे हैं ।(स्वराज करुण) शराबखोरी  एक राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है । इसके निराकरण के लिए पूरे देश में हर प्रकार की शराब के उत्पादन और विक्रय पर ठोस प्रतिबंध लगाना समय की मांग है ।शराब और शराबखोरी को महिमामण्डित करने वाले विज्ञापनों और 'झूम बराबर झूम शराबी' या ' नशा शराब में होता तो नाचती बोतल' जैसे  फिल्मी गानों पर  भी प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए ,जो किसी न किसी रूप में लोगों को शराब पीने के लिए उकसाते हुए प्रतीत होते हैं ।
     सिर्फ़ मदिरा की बोतलों पर  'शराब स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ' छापकर वैधानिक चेतावनी की खानापूर्ति कर देना पर्याप्त नहीं है ।इससे यह समस्या हल नहीं होने वाली । इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर ईमानदारी से  व्यापक जन जागरण अभियान चलाने की ज़रूरत है । यह अकेले किसी एक सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं ,बल्कि समाज के उन जागरूक नागरिकों की भी ज़िम्मेदारी है जो स्वयं इस नशे से दूर रहते हैं । भले ही उनकी संख्या कुछ कम होगी ,लेकिन अगर वो चाहें तो इस अभियान में लेखकों ,कलाकारों डॉक्टरों आदि को जोड़ सकते हैं ।   नशे के दुष्परिणामों के बारे में डॉक्टरों के व्याख्यान आयोजित कर सकते हैं । मीडिया में उनके लेख और इंटरव्यू प्रकाशित और प्रसारित करवा सकते हैं ।नुक्कड़ नाटक ,गीत -संगीत के माध्यम से भी लोगों में जागरूकता  बढ़ाने की कोशिश की जा सकती है । अगर शराब की दुकानें खुली हैं तो खुली रहने दें। कोई किसी को जोर-जबरदस्ती तो उन दुकानों की ओर नहीं ढकेलता और ज़बरन शराब ख़रीदने और पीने के लिए मजबूर नहीं करता  । लोग  उन मदिरालयों की तरफ जाएं  ही मत और शराब खरीदें  ही मत और पियें ही मत । फिर देखिए , कैसे बन्द नहीं होगा मदिरा का कारोबार । लेकिन इसके लिए सामाजिक -चेतना का विस्तार आवश्यक है ।
  आज से मात्र डेढ़ -दो दशक पहले जब योग गुरु बाबा रामदेव ने अपने योग शिविरों में पेप्सी और कोकाकोला जैसे कोल्ड -ड्रिंक्स  ' के विषैले परिणामों को  टॉयलेट क्लिनर  ' के नाम से प्रचारित किया और 'ठण्डा मतलब टॉयलेट क्लिनर का  'नारा बुलन्द किया तो देखते ही देखते करोड़ों भारतीयों ने ज़हरीले मीठे पानी  की इन बोतलों को खरीदना बन्द कर दिया और कुछ ही महीनों में इनकी  बिक्री बुरी तरह से घट गयी । उन दिनों कोई इक्का -दुक्का इन्हें खरीदता भी था तो लोग उनको आश्चर्य से देखते थे । आज भी दुकानों में इन  शीतल पेयों  की ग्राहकी बढ़ नहीं पायी है। शराब का असर तो किसी भी ब्रांडेड विदेशी शीतल पेय के मुकाबले अत्यधिक तेज़ाबी होता है ।  हमें बाबा रामदेव जैसी कोई शख्सियत चाहिए जो जनता को दिलचस्प तरीके से यह समझा सके कि शराब चाहे देशी हो या विदेशी , आख़िर वह भी एक प्रकार का "टॉयलेट क्लिनर ' ही तो है !
        -स्वराज करुण

(कविता ) ढूंढो अब कोई राह अनजानी !

                 -स्वराज करुण  
तरह -तरह के ज्ञानियों
की भीड़ जहाँ
एक अकेला
मैं अज्ञानी !
किसम -किसम के
ज्ञान की बातें सुन -सुन कर
होती हैरानी !
किसकी बातों में सच्चाई ,
कौन यहाँ पर  झूठा ?
 पहन मुखौटा ज्ञान  का
उन सबने जमकर  लूटा !
जिनको हमने समझा अब तक
दानवीर महादानी !
वो बेच रहे जंगल की हरियाली,
और नदियों का पानी !
जिनके जयकारे लगाकर
भक्तों का महारैला ,
लूट की दौलत घर ले जाए
भर -भर अपना थैला !
माल -ए -मुफ़्त
दिल -ए-बेरहम वालों
की ये  कहानी !
दिल कहता है - ढूंढो
अब कोई  राह अनजानी !

         -स्वराज करुण

Saturday, September 28, 2019

(आलेख )दक्षिण कोसल में लघु पत्रिका आंदोलन : एक वो भी ज़माना था !



                      -स्वराज करुण 
  आधुनिक हिन्दी साहित्य की विकाश यात्रा में  लघु पत्रिका आंदोलन का भी एक नया पड़ाव आया था । देश के हिन्दी जगत में मुख्य धारा की पत्रिकाओं से इतर यह एक अलग तरह की साहित्यिक धारा थी ।  भारतीय इतिहास में दक्षिण कोसल के नाम से प्रसिद्ध   छत्तीसगढ़ में इस नयी साहित्यिक धारा की शुरुआत  हिन्दी मासिक 'छत्तीसगढ़ -मित्र ' से मानी जा सकती है ,जिसका प्रकाशन साहित्य मनीषी माधवराव सप्रे और पण्डित रामराव चिंचोलकर द्वारा वर्ष 1900 ईस्वी में पेण्ड्रा (जिला -बिलासपुर ) से प्रारंभ किया गया था । इसके प्रकाशक थे वामन बलिराम लाखे ,जिनके नाम पर रायपुर में एक सरकारी हायरसेकंडरी स्कूल के साथ -साथ लाखेनगर भी है । यहाँ सप्रे जी के नाम पर माधवराव सप्रे शासकीय उच्चतर माध्यमिक स्कूल भी दशकों से चल रहा है । मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में माधवराव सप्रे स्मृति समाचार पत्र संग्रहालय का संचालन वरिष्ठ पत्रकार विजयदत्त श्रीधर द्वारा विगत 35 वर्षों से  किया जा रहा है ।
    बहरहाल , हम लघु पत्रिका आंदोलन की चर्चा कर रहे थे । भारतीय इतिहास में बीसवीं सदी के उस  प्रारंभिक दौर में स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीय तथा सामाजिक पुनर्जागरण की लहर चल रही थी। उन्हीं दिनों 29 वर्षीय  सप्रे जी ने अपने दोनों सहयोगियों -पण्डित रामराव चिंचोलकर और वामन बलिराम लाखे के साथ 'छत्तीसगढ़ मित्र ' की शुरुआत करके छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता की भी बुनियाद रखी ।  इस पत्रिका की छपाई रायपुर के क़य्यूमी प्रिंटिंग प्रेस में   होती थी । इसका पहला  अंक जनवरी 1900 में प्रकाशित हुआ ,लेकिन आर्थिक दिक्कतों के कारण उन्हें सिर्फ़ तीन साल में ही (दिसम्बर 1902 में )  इसका प्रकाशन रोकना पड़ गया । साहित्यिक पत्र -पत्रिकाओं के प्रति समाज के सम्पन्न और समर्थ वर्ग में उपेक्षा की भावना उन दिनों भी हुआ करती थी ।  सप्रे जी इस पत्रिका के व्यवस्थापक भी थे । उन्होंने 'छत्तीसगढ़ मित्र ' के पाँच अंकों के प्रकाशन के बाद छठवें अंक में 'ग्राहकों को सूचना' शीर्षक से लिखा था --
  -"आज पांच महीने से 'छत्तीसगढ़ मित्र 'आपकी सेवा कर रहा है ।यह काम सर्वथैव द्रव्य द्वारा साध्य है ।हमने अपने कई मित्रों को इस आशा से पुस्तकें भेजीं कि वे इसको निज कार्य समझ अवश्य सहाय होंगे। पर अब खेदपूर्वक लिखना पड़ा कि हमारी सब आशा  निरर्थक हुई । कई लोगों ने तो यह कहकर अंक लौटा दिया कि हमारे पास और भी दूसरे पत्र आया करते हैं -हमें फुरसत नहीं है ; और कई लोगों ने यह कहकर कि यह तो मासिक पुस्तक है,समाचार पत्र होता तो लेते । इसी तरह कुछ न कुछ बहाना बनाकर किसी ने पहिला ,किसी ने दूसरा ,किसी ने तीसरा और चौथा अंक वापस कर दिया है ।जिन लोगो ने मित्र को आश्रय देने के भय से अंक लौटा दिये  हैं ,उनसे हमारा कुछ भी कहना नहीं है। पर जिन महानुभावों के पास से एक भी अंक लौट कर नहीं आया उनसे हमारी यही विनती है कि आप कृपापूर्वक 'मित्र'  की न्योछावर शीघ्र भेज दीजिए ।हम आशा करते हैं कि छत्तीसगढ़ विभाग के राजा ,महाराजा ,श्रीमान, जमींदार तथा सर्वसाधारण लोग और अन्यान्य प्रदेशों के सभ्य महोदय ,जिनके पास "छत्तीसगढ़ मित्र " भेजा गया है , शीघ्र ही अपनी -अपनी उदारता प्रगट कर हमें द्रव्य की सहायता देवेंगे ।उनके सत्कार्य से 'मित्र' को अपना कर्त्तव्य कर्म करने के लिए द्विगुणित अधिक उत्साह प्राप्त होगा ।आप तो स्वयं विचारवान हैं। आपके लिये इतनी ही सूचना बहुत है ।"
   ग्राहकों के नाम सप्रे जी की इस अपील का बहुत ज़्यादा असर नहीं हुआ और  36 अंकों के बाद 'छत्तीसगढ़ मित्र " का प्रकाशन बन्द करने के अलावा उनके सामने और कोई उपाय भी नहीं था।  उनकी इस सूचनात्मक अपील से यह भी पता चलता है कि साहित्यिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों से प्रकाशित होने वाली  लघु पत्रिकाओं को अपना  अस्तित्व बनाए रखने के लिए आर्थिक मोर्चे पर हमेशा  संघर्ष करना पड़ता है ।  आज से एक शताब्दी पहले की साहित्यिक पत्रकारिता में यह  संघर्ष  और भी अधिक चुनौतीपूर्ण हुआ करता था  । इस दृष्टि से अगर हम सप्रे जी को छत्तीसगढ़ में लघु पत्रिका आंदोलन का जनक मान लें तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी ,जिन्होंने आर्थिक संकटों का सामना करते हुए तीन साल तक ' छत्तीसगढ़ मित्र ' का प्रकाशन जारी रखा ।
 पण्डित माधवराव सप्रे के पौत्र डॉ. अशोक सप्रे के अनुसार 'छत्तीसगढ़ मित्र 'हिन्दी साहित्य और समालोचना की मासिक पत्रिका थी। इसके सभी 36 अंक हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता की अनमोल ऐतिहासिक धरोहर हैं ।इसके अप्रैल 1901 के अंक में छपी सप्रे जी की कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी ' हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी के रूप में स्थापित हो चुकी है ।
 यह तो हुई 119 साल पहले की उस ऐतिहासिक घटना की बात ,जिसने लघु पत्रिका के रूप में ही सही ,लेकिन छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का एक ऐसा पौधा रोपा जो आज एक विशाल वृक्ष का रूप धारण कर  चुका है । इसके बावज़ूद इतिहास के उतार -चढ़ाव से भरे दौर में एक ऐसा समय भी आया ,जब अभिव्यक्ति की छटपटाहट ने देश भर के आँचलिक साहित्यकारों को लघु पत्रिकाओं के  सम्पादन और प्रकाशन के लिए प्रेरित किया । आज की तरह वो सूचना प्रौद्योगिकी और उससे उपजे ' सोशल मीडिया'  का कोई क्रांतिकारी दौर तो नहीं था। उन दिनों सूचनाओं और विचारों के आदान -प्रदान के लिए न तो इंटरनेट था ,न फेसबुक ,न ब्लॉग ,न इंस्टाग्राम और न ही वाट्सएप जैसा कोई अत्याधुनिक औजार ,जिन्हें हम आज के युग में 'सोशल मीडिया 'कहते हैं ।
  अख़बारों और बड़ी पत्रिकाओं की हमेशा अपनी सीमाएं होती हैं । कवियों और लेखकों की संख्या को देखते हुए आज की तरह उन दिनों भी उनमें  सभी रचनाकारों को हर साहित्यिक अंक में  स्थान दे पाना व्यावहारिक दृष्टि से संभव भी नहीं हो पाता था । इसके अलावा कोई रचना अपनी गुणवत्ता में किसी बड़े अख़बार या किसी नामचीन पत्रिका के सम्पादक की कसौटी पर फिट न बैठे तो उसका भी प्रकाशन मुमकिन नहीं होता था । आज भी कमोबेश वही स्थिति है ।
  लिहाजा  उन दिनों  देश के लगभग सभी राज्यों में  स्थानीय कवियों ,कहानीकारों ,लघु कथाकारों और अन्य विधाओं के रचनाकारों ने  संगठित होकर और विभिन्न नामों से साहित्य समितियाँ बनाकर उनके बैनर पर इन  पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू कर दिया था   ।  मेरे विचार से इन लघु पत्रिकाओं को हम उस दौर का 'सोशल मीडिया ' भी कह सकते हैं ।  इनमें से अधिकांश लघु पत्रिकाएं फुलस्केप कागजों पर साइक्लोस्टाइल मशीनों से छापी  जाती थीं ।  आम तौर पर ये पत्रिकाएं अनियतकालीन हुआ करती थीं ।  याने कि प्रकाशन की कोई निश्चित अवधि नहीं होती थी । फिर भी साल में तीन -चार अंक छाप लिए जाते थे । किसी -किसी पत्रिका के एक वर्ष में छह अंक भी निकल जाते थे ।  सब कुछ साधन -सुविधाओं पर निर्भर करता था । छपाई के लिए स्टेंसिल का इस्तेमाल होता था । यह बीसवीं सदी के सातवें -आठवें दशक का एक साहित्यिक आंदोलन था ।(स्वराज करुण )इन लघु पत्रिकाओं ने देश भर के ,विशेष रूप से हिन्दी प्रदेशों के नये -पुराने साहित्यकारों के बीच संवाद - सेतु बनाने का भी काम किया । इससे साहित्य को लेकर समाज और रचनाकारों के बीच परस्पर विचार -विनिमय का मार्ग भी प्रशस्त हुआ ।
  तत्कालीन समय में छोटी जगहों के स्थानीय साहित्यकारों ने स्वयं की अभिव्यक्ति के लिए परस्पर सहयोग से लघु पत्रिकाओं के रूप में स्वयं का सामूहिक मंच तैयार किया । छत्तीसगढ़ भी इस आंदोलन से अछूता नहीं था ।  राजिम से सन्त कवि  पवन दीवान 'अंतरिक्ष  ' नामक साइक्लोस्टाइल्ड लघु पत्रिका निकालते थे । वहीं से कृष्ण रंजन जी 'बिम्ब' नामक पत्रिका का सम्पादन और प्रकाशन करते थे । शायद 'बिम्ब ', की छपाई प्रिंटिंग मशीन पर होती थी ।  महासमुन्द से विश्वनाथ योगी 'सन्तुलन ' नामक लघु पत्रिका का सम्पादन करते थे । अम्बिकापुर (सरगुजा )के विजय गुप्त   प्रिंटिंग मशीन पर 'साम्य' नामक पत्रिका निकालते थे ।
   उन्हीं दिनों पिथौरा  के स्थानीय साहित्यकारों द्वारा चिन्तन साहित्य समिति का गठन किया गया था । यह वर्ष 1972 -73 की बात है । समिति के तत्वावधान में 'चिन्तन' नामक साइक्लोस्टाइल्ड लघु पत्रिका प्रकाशित की जाती थी ,जिसके सम्पादक शंकर चंद्राकर हुआ करते थे। इस आलेख का लेखक यानी कि मैं (स्वराज करुण ) उन दिनों हाई स्कूल का विद्यार्थी था और अपने शिक्षक श्री शंकर चन्द्राकर के निर्देश पर  साइकिल में घूम -घूम कर गाँव के प्रबुद्धजनों के  घरों तक 'चिन्तन' के अंक पहुँचाया करता था ।  लिखने का शौक परवान चढ़ रहा था । मेरी अनगढ़ कविताओं  को चन्द्राकर जी सुधार कर उसमें प्रकाशित कर देते थे ।
  मैंने अपनी स्मृतियों को खंगालकर कुछ लघु पत्रिकाओं का उल्लेख किया है। यह सिर्फ एक बानगी है । उस दौर में छत्तीसगढ़ का शायद ही कोई ऐसा इलाका शेष रह गया होगा ,जहाँ से किसी साहित्यिक लघु पत्रिका का प्रकाशन न हुआ हो । मित्रों को अगर वो नाम याद आ रहे हों तो कृपया ज़रूर उल्लेख करें ।  मैं और मेरे  साथी कुंवर रविन्द्र और विदोष द्विवेदी उन दिनों हायर सेकेंडरी कक्षाओं में पढ़ते थे । साहित्य के कीटाणु हमारे दिमाग  पर भी अतिक्रमण कर चुके थे । हम लोगों ने वर्ष 1974 में एक साइक्लोस्टाइल्ड लघु पत्रिका 'समर्पण ' नाम से निकाली । आर्थिक संकट की वज़ह से इसका पहला अंक ही अंतिम अंक साबित हुआ। अप्रैल 1977 में हमारे अंचल के वरिष्ठ कवि मधु धान्धी के निधन के बाद उनकी स्मृति में साहित्य समिति का गठन किया गया  ,जिसके बैनर पर हम लोगों ने 'प्रोत्साहन ' शीर्षक से साइक्लोस्टाइल्ड लघु पत्रिका की शुरुआत की ।  इसका प्रथम अंक अगस्त - सितम्बर 1977 में  प्रकाशित हुआ ।हम लोगों ने'नये रचनाकारों की प्रतिनिधि पत्रिका ' के रूप में  इसका प्रकाशन शुरू किया था , लेकिन साधनहीनता और कुछ अन्य दिक्कतों के कारण मात्र दो अंकों के बाद प्रकाशन भी बन्द करना पड़ा ।  कॉलेज की पढ़ाई ,  नौकरी -चाकरी और  रोजगार -व्यवसाय  के चक्कर में सब साथी इधर -उधर व्यस्त हो गए ,कुछ लोग गाँव छोड़कर अन्यत्र चले गए  और साहित्य समिति भी विघटित हो गयी ।
  आज से लगभग बीस वर्ष पहले तक साइक्लोस्टाइल मशीनें सरकारी दफ्तरों में भी हुआ करती थी  ।सरकारी आदेशों ,परिपत्रों और अन्य ज़रूरी अभिलेखों को स्टेंसिल पर टाइप करके  आवश्यक संख्या में उनकी प्रतिलिपियाँ तैयार कर ली जाती थी । (स्वराज करुण )कम्प्यूटर क्रांति के आने पर अब साइक्लोस्टाइल मशीन और पुरानी पद्धति के टाइपराइटर हाशिये पर चले गए हैं ,लेकिन उनका भी कभी एक जलवेदार ज़माना था ।
  हम चर्चा कर रहे थे लघु पत्रिकाओं के आंदोलन की । इनके प्रकाशन के लिए  स्टेंसिल पर सुवाच्य और सुडौल अक्षरों में रचनाओं को लिखकर साइक्लोस्टाइल मशीन पर उसकी सौ , दो सौ या उससे कुछ अधिक प्रतियां निकाली जाती थीं । एक पेज के लिए एक स्टेंसिल का इस्तेमाल होता था । उस पर लिखने के लिए सुन्दर  हैंडराइटिंग वालों की बड़ी मांग होती थी । वो लोग भी सौजन्यता वश सहयोग कर देते थे । कई लघु पत्रिकाओं के सम्पादक स्वयं अपने हाथों से स्टेंसिल काटा करते थे । कई बार कविताओं और लघु कथाओं  आदि को स्टेंसिल पर टाईप भी कर लिया जाता था।  छपाई आदि का खर्चा साहित्यकार आपस में चंदा करके वहन कर लेते थे । कुछ  स्थानीय साहित्य प्रेमियों का भी सहयोग मिल जाता था । मूल्य के स्थान पर सहयोग राशि लिखकर ' जो दे उसका भी भला और जो न दे उसका भी भला ' की तर्ज़ पर पत्रिका के अंक वितरित किए जाते थे । कुल मिलाकर रचनात्मक अभिव्यक्ति इसका मुख्य उद्देश्य होता था ।
कुछ लघु पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ किसी हैंड कम्पोजिंग वाले प्रिंटिंग प्रेस से छपवा लिए जाते थे और भीतरी पन्ने साइक्लोस्टाइल मशीन से छापकर स्टेपलर से उनकी 'बाइंडिंग' कर ली जाती थी । फिर उन्हें रचनाकारों को बुकपोस्ट से भेजा जाता था । स्थानीय रचनाकार और प्रबुद्ध जन भी उन्हें बड़ी दिलचस्पी से पढ़ते थे ।  हमारे गाँव से मधु धान्धी स्मृति साहित्य एवं सांस्कृतिक समिति द्वारा प्रकाशित लघु पत्रिका 'प्रोत्साहन ' के प्रवेशांक का मुखपृष्ठ और वरिष्ठजनों के शुभकामना संदेशों वाला भीतर का एक पन्ना यहाँ प्रस्तुत है ।  दोनों पृष्ठ प्रिंटिंग मशीन से छपवाए गए थे ,जबकि भीतर के अन्य पृष्ठों को टाइपराइटर पर स्टेंसिल काटकर साइक्लोस्टाइल मशीन से छापा गया था । इसमें छत्तीसगढ़ के छत्तीस रचनाकारों की कविताओं का संकलन था । इनमें से कुछ मित्र शायद फेसबुक पर भी होंगे ,जैसे बिल्हा के Kedar Dubey ,जो उन दिनों केदारनाथ दुबे 'कोमल ' के नाम से लिखा करते थे । इसी तरह  Mahesh Parmar Parimal, Ranjeet Bhattacharya, Virendra Namdeo, गणेश सोनी 'प्रतीक',  Bihari Dubey आदि फेसबुक पर सक्रिय हैं ।  सूरज राही ,   देवेन्द्र कुमार साव (Drdhirendrasao Sao के बड़े भाई ),   शेषदेव भोई और मनजीत कोमल 'सन्यासी ' का निधन हो चुका है । उन्हें विनम्र नमन ।  शेष रचनाकार साथी कहीं न कहीं सक्रिय और सकुशल होंगे ,ऐसी आशा है । उन सबके प्रति हार्दिक  शुभकामनाएं ।
      कम्प्यूटर युग के आगमन के साथ ही अब तो  प्रिंटिंग टैक्नॉलॉजी में क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया है ।  इसलिए साहित्यिक लघु पत्रिकाओं का प्रकाशन भी आसानी से हो सकता है ,लेकिन कुछ एक अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अब अधिकांश रचनाकारों में वैसा जोश और जज़्बा नहीं दिखाई देता जो  उस दौर में हुआ करता था।  कारण चाहे जो भी हो , इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत की हिन्दी पट्टी के  दूर दराज गाँवों ,  कस्बों और छोटे शहरों  में  साहित्यिक ज़मीन तैयार करने और वहाँ की दबी -छुपी  प्रतिभाओं को प्रोत्साहित करने में लघु पत्रिका आंदोलन की एक यादगार और ऐतिहासिक  भूमिका थी । हिन्दी के साथ -साथ आँचलिक बोलियों और भाषाओं के रचनाकारों को भी इस आंदोलन से  अभिव्यक्ति का एक नया मंच मिला ।

      -स्वराज करुण

Wednesday, September 25, 2019

(लघु कथा ) खौफ़नाक मंज़र ...!

                                              -स्वराज करुण 
   शहर से लम्बे अरसे बाद गाँव पहुंचे रामलाल गायकवाड़ अपनी आप-बीती कुछ यूं सुना रहे थे - मुम्बई महानगर के अपने दफ्तर की एक चयन समिति का मै भी सदस्य था .
    बेरोजगारी का खौफनाक मंजर देख कर मुझे दहशत होने लगी . चपरासी के दस पदों के लिए लगभग सात सौ आवेदकों का इंटरव्यू चल रहा था. कई एम्. .ए ,बी. ए. एम्.कॉम. एम् एस-सी. इंजीनियरिंग और पॉलिटेक्निक डिग्री, डिप्लोमा धारक भी कतार में लगे हुए थे ,लेकिन उन्होंने अपनी उच्च शैक्षणिक योग्यता को छुपाकर न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता (कक्षा पांचवीं )के आधार पर आवेदन किया था और उस आधार पर इंटरव्यू में बुला लिए गए थे . चयन समिति के हम चार सदस्य जब प्रत्येक आवेदक की बोल चाल और उनके पहनावे के आधार पर जैसे-जैसे उनकी शिक्षा के बारे में पूछताछ करते थे ,यह खुलासा होता जाता था . अधिकाँश के चेहरों पर बेबसी झलकती थी. बीच-बीच में चयन समिति के अध्यक्ष यानी मेरे वरिष्ठ सहकर्मी के पास कई प्रभावशाली लोगों के फोन भी आते रहते थे .
    ऊंची सिफारिश वालों की सूची इतनी लम्बी हो गयी कि सभी दस पोस्ट अग्रिम रूप से बुक हो गए .अब जो भी इंटरव्यू चल रहा था ,वह सिर्फ दिखावे के लिए था . हमे उन बेचारे बेरोजगारों का इंटरव्यू लेना पड़ रहा था ,जिनका चयन होना ही नहीं था. यह सिर्फ एक औपचारिकता थी . मेरे दफ्तर के कुछ कर्मचारियों के नाते-रिश्तेदार भी इंटरव्यू के लिए कतार में लगे हुए थे .दफ्तर के ऐसे कर्मचारियों को मुझसे यह उम्मीद थी कि इंटरव्यू में मै उनके किसी रिश्तेदार का भला कर दूंगा .कुछ जान-पहचान वालों ने भी ऐसा ही कुछ सोचकर मुझसे आग्रह  किया था , गाँव से भी संदेशा आया था , लेकिन अफ़सोस कि मै उनमे से किसी  की भी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाया .
   चयन समिति के तीन अन्य सदस्यों की भी कमोबेश यही हालत थी. जिनका चयन होना था ,हो गया ,लेकिन मैं किसी का पक्ष लेकर किसी का भला नहीं कर पाया .रामलाल ने पूछा -क्या मैंने सही किया ? मेरे पास उनके इस सवाल का कोई जवाब नहीं था .( स्वराज करुण )
                          

Sunday, September 15, 2019

(आलेख ) रंग क्षितिज पर स्वर्गीय सूरज 'राही '


         
(वर्ष 1980 का एक  संस्मरणात्मक आलेख : स्वराज करुण)

कला के उपवन में कुछ ऐसी भी कलियाँ होती हैं जो खिलने से पहले ही नियति के क्रूर हाथों द्वारा तोड़ ली जाती हैं ।कुछ ऐसी संभावनाएँ भी होती हैं जो समाज के लिए रोशनी की मीनार साबित हो सकती थीं ,पर समय के सागर में वे असमय ही विलीन हो जाती हैं। ऐसी ही महकती कलियों और संभावनाओं  में स्वर्गीय सूरज 'राही' भी शामिल किए जाएंगे ।
  आज से  लगभग एक दशक पूर्व यहाँ (पिथौरा में ) देहली नेशनल ड्रामा पार्टी का आगमन हुआ था ।इस सुप्रसिद्ध व्यावसायिक नाट्य संस्था के प्रमुख कलाकारों में सूरज ' राही' और उनके माता -पिता भी शामिल थे ।पिता श्री मोहम्मद यासीन और माता श्रीमती सरोजा देवी लगभग 20 वर्षों तक इस नाट्य संस्था से सम्बद्ध रहे ।दोनों ही कुशल रंगकर्मी हैं ।इस प्रकार सूरज ' राही ' (पारिवारिक नाम सैय्यद मंसूर अली ) की अभिनय कला     उनको पारिवारिक देन कही जा सकती है। इस ड्रामा पार्टी के सामाजिक नाटकों तथा फिल्मी नाट्य रूपांतरणों में अभिनय , गायन और निर्देशन में प्रमुख भूमिका सूरज राही की ही रहती थी । पार्टी द्वारा खेले गए हिन्दी व उर्दू  के कई सामाजिक ,धार्मिक तथा ऐतिहासिक नाटक आज भी यहाँ याद किए जाते हैं । कुछ दिनों बाद यह पार्टी तो अगले पड़ाव के लिए चल पड़ी लेकिन पिथौरा की मोहक देहाती आबोहवा ने इसके कुछ कलाकारों का मन मोह लिया और वे यहीं के निवासी बन गए । राही के माता -पिता भी सपरिवार यहाँ बस गए । पिता श्री यासीन सम्प्रति यहाँ के मौलवी हैं ।
     छत्तीसगढ़ की लोकप्रिय नाचा मण्डलियों में मचेवा का नाचा भी एक है ।यहाँ बसने के बाद 'राही" शीघ्र ही इस नाचा से सम्बद्ध हो गए । एक मंजे हुए कलाकार की प्रतिभा और उनके अनुभव का लाभ लोक कलाकारों को मिला और मचेवा का नाचा प्रसिद्धि के शिखर की ओर बढ़ने लगा । नाचा में प्रचलित परम्परागत प्रहसनों को सूरज ने आधुनिक सन्दर्भों से जोड़ा ।लोक नाटकों की परम्परागत धारा को उन्होंने एक नयी दिशा दी । उनके निर्देशन में सामाजिक तथा राष्ट्रीय समस्याओं पर आधारित लोक नाटकों का प्रभावशाली मंचन किया जाने लगा ।वे स्वयं नाटकों के प्लॉट तैयार करते और गीत और संगीत का माधुर्य घोलकर दर्शकों का मन मोह लेते। उनके द्वारा तैयार छत्तीसगढ़ी नाटकों में 'छोटे -बड़े मंडल" जहाँ समाज में व्याप्त आर्थिक विषमताओं पर प्रहार करता है , वहीं ' कोर्ट मैरिज ' विवाह की रूढ़ मान्यताओं पर वार करने से नहीं चूकता ।लोक नाटक 'किसान " में एक किसान - विधवा के जीवन संघर्ष का जीवन्त चित्रण हुआ है ,वहीं 'दहीवाली' में पतिव्रता नारी का अपने पथभ्रष्ट पति को  सही रास्ते पर लाने की घटना को सजीव अभिव्यक्ति मिली है। मचेवा नाचा के कलाकारों ने सूरज 'राही' के निर्देशन में इन नाटकों से काफी लोकप्रियता अर्जित की । लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि यह नाचा प्रायः वर्ष भर कहीं न कहीं कार्यक्रमों में व्यस्त रहता ।न केवल छत्तीसगढ़ , वरन सीमावर्ती प्रांत महाराष्ट्र और उड़ीसा में भी इसने छत्तीसगढ़ की कला और संस्कृति का गौरवशाली प्रदर्शन किया ।कुछ वर्षों पूर्व इस्पात नगरी भिलाई में आयोजित लोक कला महोत्सव में भी इसे काफ़ी प्रशंसा मिली ।राही ने कुछ अन्य नाचा मंडलियों को भी अपना रचनात्मक सहयोग दिया ।
       शायद ही किसी वर्ष  वे अपने गृह - ग्राम पिथौरा में दो माह से  अधिक समय लगातार रहे हों ! नाचा के साथ वे सुदूर गाँवों ,कस्बों और शहरों के दौरे पर रहते । वर्ष का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने लोक नाटकों के लिए समर्पित कर दिया था । जब भी उन्हें समय मिलता ,वे अपने गृह -ग्राम पिथौरा के शौकिया कलाकारों का मार्गदर्शन और उत्साहवर्धन करने में सबसे आगे रहते । नवोदितों के लिए उनके मन में अपार स्नेह था ।स्थानीय किशोरों और नवयुवकों की 'पिथौरा संगीत समिति ' की स्थापना में उनका अविस्मरणीय योगदान रहा । यहाँ 'ताज मटका पार्टी ' की स्थापना भी उन्होंने ही की । मटकों में बंधे घुंघुरुओ की ध्वनि गीत -गज़लों और कव्वालियों की मिठास में दुगुनी वृध्दि कर देती है ।सन 1977 -78 में स्थापित इन दोनों संस्थाओं के शौकिया कलाकारों को सूरज 'राही " ने समर्पित भाव से प्रशिक्षण दिया । वे एक सुयोग्य संगीतज्ञ भी थे । स्थानीय कलाकारों की ये दोनों संस्थाएं आज भी उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की याद दिलाती हैं ।
      चार अगस्त 1947 को कलकत्ते में नेशनल ड्रामा पार्टी के शिविर में जन्मे सूरज 'राही ' की कला यात्रा 28 फरवरी 1980 को यादों के अमिट निशान छोड़कर अचानक समाप्त हो गयी ।नाचा का कार्यक्रम प्रस्तुत करने वे अपने साथियों सहित जा रहे थे कि बागबाहरा के  पास जीप दुर्घटना में घायल हो गए । कई दिनों तक डी. के.अस्पताल रायपुर में इलाज चला ,पर अंततः नियति ने उन्हें हमसे छीन लिया ।इलाज के दौरान ही उनका निधन हो गया । मंच पर  थिरकते पैर थम गए , हवाओं में गीत और संगीत का माधुर्य घोलती आवाज़ थम गयी ,हज़ार - हज़ार दिलों पर छा जाने वाला अभिनेता मौत के  अँधेरे में खो गया । रंग क्षितिज पर तेजी से उभरता एक 'सूरज ' अचानक डूब गया ,छोड़कर अँधेरी रातों के लिए यादों के सितारे ।
      -स्वराज करुण
( मेरा यह आलेख  साप्ताहिक 'चिन्तक ' दुर्ग के दीपावली विशेषांक 1980 में प्रकाशित  )

Saturday, September 14, 2019

(आलेख ) राजभाषा के 70 साल : आज भी वही सवाल ?

                                        - स्वराज करुण 
  स्वतंत्र भारत के हमारे अनेक विद्वान साहित्यकारों और महान  नेताओं ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में महिमामण्डित किया है। उन्होंने इसे राष्ट्रीय एकता की भाषा भी कहा है ।   उनके विचारों से हम  सहमत भी हैं ।
    किसी भी राष्ट्र को अपने  नागरिकों के लिए एक ऐसी सहज -सरल सम्पर्क  भाषा की ज़रूरत होती है जिसके माध्यम से लोग दिन - प्रतिदिन एक - दूसरे से  बात -व्यवहार कर सकें । निश्चित रूप से 'हिन्दी' में यह गुण  स्वाभाविक रूप से है और यही उसकी ताकत भी है ,जो देश को एकता के सूत्र में  बाँधकर रखती है । आज़ादी के आंदोलन में और उसके बाद भी हमने हिन्दी की इस ताकत को महसूस किया है ,लेकिन लगता है कि जाने -अनजाने हिन्दी की यह ताकत कमज़ोर हो रही है । उसे स्वतंत्र भारत की राजभाषा का दर्जा मिले 70 साल हो गए ,लेकिन राष्ट्रभाषा के रूप में उसके विकास का सवाल आज भी जस का तस है । समय - समय पर दक्षिण के राज्यों का  हिन्दी विरोध इसका ज्वलंत उदाहरण है । त्रिभाषी फार्मूले को भी वो नहीं मानते । इस पर उनके साथ सार्थक संवाद की ज़रूरत है ।
   केन्द्रीय कार्यालयों ,उपक्रमों और राष्ट्रीयकृत बैंकों में  राजभाषा पखवाड़े के साथ  14 सितम्बर को हिन्दी दिवस अवसर पर  तमाम तरह के कार्यक्रम  हो रहे हैं  । कई दफ़्तरों में यह पखवाड़ा एक सितम्बर से 14 सितम्बर तक मनाया जाता है । हिन्दी दिवस के दिन इसका समापन होता है ,वहीं कई कार्यालयों में हिन्दी दिवस यानी 14 सितम्बर से हिन्दी पखवाड़े से इसकी शुरुआत होती है । इस दौरान  प्रतियोगिताएं और विचार गोष्ठियां भी होती हैं । लेकिन हिन्दी पखवाड़ा और हिन्दी दिवस खत्म होते ही सब कुछ पुराने ढर्रे पर चलने लगता है  ।
      विचारणीय सवाल यह है कि हिन्दी को 70 साल पहले  राजभाषा का दर्जा तो मिल गया ,लेकिन वह  आखिर कब देश की सर्वोच्च अदालत सहित  राज्यों के  उच्च न्यायालयों और केन्द्रीय मंत्रालयों के सरकारी काम-काज की भाषा बनेगी ? स्वतंत्र भारत के इतिहास में १४ सितम्बर १९४९ वह यादगार दिन है जब हमारी संविधान सभा ने हिन्दी को भारत की राजभाषा का दर्जा दिया था . इसके लिए  संविधान में धारा ३४३ से ३५१ तक राजभाषा के बारे में ज़रूरी प्रावधान किए  गए .
     अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी से हम पन्द्रह अगस्त १९४७ को आज़ाद हुए और  २६ जनवरी १९५० को देश में हमारा अपना संविधान लागू हुआ ,जिसमे भाषाई प्रावधानों के तहत अनुच्छेद ३४३ से ३५१ के प्रावधान भी लागू हो गए .इसके बावजूद केन्द्र सरकार के अधिकाँश मंत्रालयों से राज्यों को जारी होने वाले अधिकांश पत्र -परिपत्र प्रतिवेदन आज भी केवल अंग्रेजी में होते हैं ,जिसे समझना गैर-अंग्रेजी वालों के लिए काफी मुश्किल होता है ,जबकि राजभाषा अधिनियम १९६३ के अनुसार केन्द्र सरकार के विभिन्न साधारण आदेशों , अधिसूचनाओं और सरकारी प्रतिवेदनों ,नियमों आदि में अंग्रेजी के साथ -साथ हिन्दी का भी प्रयोग अनिवार्य किया गया है.इसके बाद भी ऐसे सरकारी दस्तावेजों में हिन्दी का अता-पता नहीं रहता .केन्द्र  से  जिस राज्य को ऐसा कोई सरकारी पत्र या प्रतिवेदन भेजा जा रहा है , वह उस राज्य की स्थानीय भाषा में भी अनुदित होकर जाना चाहिए । लेकिन होता ये है कि  नईदिल्ली से राज्यों को जो  पत्र -परिपत्र  अंग्रेजी में मिलते हैं ,उन्हें मंत्रालयों के  सम्बन्धित विभाग के अधिकारी सिर्फ़ एक अग्रेषण पत्र  लगाकर और उसमें  'आवश्यक कार्रवाई हेतु ' और  "कृत कार्रवाई से अवगत करावें ' लिखकर  निचले कार्यालयों को भेज देते हैं ।
     दरअसल हिन्दी भाषी राज्यों के मंत्रालयों और सरकारी कार्यालयों में अंग्रेजी जानने -समझने वाले अफसरों और कर्मचारियों की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है । इसलिए उन्हें उन पत्रों में प्राप्त दिशा -निर्देशों के अनुरूप आगे की कार्रवाई में कठिनाई होती है ।ऐसे में उनके निराकरण में स्वाभाविक रूप से विलम्ब होता ही है । केन्द्र की ओर से राज्यों के साथ सरकारी पत्र - व्यवहार अगर  राजभाषा हिन्दी और प्रादेशिक भाषाओं में हो तो यह समस्या काफी हद तक कम हो सकती है ।
    सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के तमाम फैसले भी अंग्रेजी में लिखे जाते है ,जिन्हें अधिकाँश ऐसे आवेदक समझ ही नहीं पाते,जिनके बारे में फैसला होता है . ये अदालतें फैसला चाहे जो भी दें ,लेकिन राजभाषा हिन्दी में तो दें ,ताकि मुकदमे से जुड़े पक्षकार उसे आसानी से समझ सकें. अगर उन्हें अंग्रेजी में फैसला लिखना ज़रूरी लगता है तो उसके साथ उसका हिन्दी अनुवाद भी दें . गैर हिन्दी भाषी राज्यों में वहाँ की स्थानीय भाषा में फैसलों का अनुवाद उपलब्ध कराया जाना चाहिए .इस मामले में अब तक की मेरी जानकारी के अनुसार छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ,बिलासपुर ने अपनी वेबसाइट में अदालती सूचनाओं के साथ - साथ फैसलों का हिन्दी अनुवाद भी देना शुरू कर दिया है ,जो निश्चित रूप से सराहनीय और स्वागत योग्य है ।
       यह अच्छी बात है कि भारत सरकार ने जून १९७५ में राजभाषा से सम्बन्धित संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों पर अमल सुनिश्चित करने के लिए राजभाषा विभाग का गठन किया है ,जिसके माध्यम से हिन्दी को बढ़ावा देने के प्रयास भी किये जा रहे हैं । वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दावली आयोग भी कार्यरत है  लेकिन इस दिशा में और भी ज्यादा ठोस कदम उठाने की ज़रूरत है । वैसे आधुनिक युग में कम्प्यूटर और इंटरनेट पर देवनागरी लिपि का प्रयोग हिन्दी को विश्व स्तर पर पहचान दिलाने में काफी मददगार साबित हो रहा है ।
  लेकिन यह देखकर निराशा होती है कि हिन्दी दिवस के बड़े -बड़े आयोजनों में हिन्दी की पैरवी करने वाले अधिकाँश ऐसे लोग होते हैं जो अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम के स्कूलों में पढाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं ।  दुकानों और बाजारों में लेन -देन के समय हिन्दी में बातचीत करने वाले कथित उच्च वर्गीय ग्राहकों को बड़े -बड़े होटलों में आयोजित सरकारी अथवा कार्पोरेटी बैठकों और सम्मेलनों में अंग्रेजी में बोलते -बतियाते देखा जा सकता है । अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में 'हिन्दी दिवस ' मनाया नहीं जाता ,वहाँ 'हिन्दी -डे ' सेलिब्रेट ' किया जाता है । शहरों में  चारों तरफ़ नज़र दौड़ाने पर अधिकांश दुकानों ,होटलों  व्यावसायिक प्रतिष्ठानों और निजी स्कूल -कॉलेजों के अंग्रेजी नाम वाले बोर्ड देखने को मिलते हैं । उन्हें देखने पर लगता है कि हमारी हिन्दी दम तोड़ रही है । हिन्दी माध्यम के स्कूलों में भी आगन्तुकों के स्वागत में बच्चे ' नमस्ते ' नहीं बोलकर 'गुड मॉर्निंग सर' उठा गुड मॉर्निंग मैडम " कहकर अभिवादन करते हैं । उन्हें ऐसा ही  सिखाया जा रहा है ।  पाठ्य पुस्तकों से देवनागरी के अंक गायब होते जा रहे हैं । उनमें पृष्ठ संख्या भी अंग्रेजी अंकों में छपी होती है । कई  स्कूली बच्चे भारतीय अथवा हिन्दी महीनों और सप्ताह के दिनों के नाम नहीं बोल पाते जबकि अंग्रेजी महीनों और दिनों के नाम धाराप्रवाह बोल देते हैं।   भारतीय बच्चे अगर फटाफट अंग्रेजी बोलें तो माता - पिता और अध्यापक गर्व से फूले नहीं समाते ! हिन्दी अच्छे से बोलना और लिखना श्रेष्ठि वर्ग में पिछड़ेपन की निशानी मानी जाती है । 
कई अख़बारों और टीव्ही चैनलों में अत्यधिक अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी के प्रयोग को देखकर भी निराशा होती है ।
 आम जनता से हिन्दी में बात करने वाले कई बड़े-बड़े नेताओं को संसद में अंग्रेजी में बोलते देखा और सुना जा सकता है . क्या कोई बता सकता है- ऐसे भारतीयों  से भारत की राजभाषा के रूप में बेचारी हिन्दी आखिर उम्मीद करे भी तो क्या ?
      - स्वराज करुण

Monday, September 9, 2019

(आलेख) छत्तीसगढ़ी संस्कृति का प्रतिनिधि : मचेवा का ' नाचा '

                                 - स्वराज करुण 
   एक वो भी ज़माना था ,जब हमारे देश के  हर प्रदेश की लोक संस्कृतियों  की  रंग -बिरंगी  दुनिया अपने गाँव या कस्बे की स्थानीय सरहदों तक सीमित रहा करती थी ,लेकिन नये ज़माने  की नयी संचार तकनीक ने उसे 'लोकल ' से 'ग्लोबल' बना दिया है । फ़ोटोग्राफ़ी ,वीडियोग्राफ़ी ,  सिनेमा , रेडियो , टेलीविजन,  इंटरनेट ,  मोबाइल फोन जैसे जनसंचार के अत्याधुनिक संसाधनों  से हमारी आँचलिक  प्रतिभाओं को विश्व रंगमंच पर पहचान और प्रतिष्ठा मिलने लगी है।
      छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति को भी नये दौर के इन नये संचार संसाधनों का भरपूर लाभ मिल रहा है । इंटरनेट आधारित यूट्यूब में तो यहाँ के लोक रंगमंचों की रंगारंग नाट्य प्रस्तुतियों की भरमार है । यहाँ के ग्रामीण क्षेत्रों में  अलग -अलग नामों से कई नाट्य अथवा नाचा मण्डलियां  ख़ूब सक्रिय हैं ,जो विभिन्न सामाजिक विषयों पर छत्तीसगढ़ी भाषा में तरह -तरह के गम्मतों  (प्रहसनों ) का मंचन करती हैं ।
                   
         लगभग  चार दशक पहले  छत्तीसगढ़ में अत्याधुनिक संचार माध्यमों का आज की तरह विस्तार नहीं हुआ था ,  लेकिन उस दौर में भी यहाँ मचेवा का  नाचा काफी लोकप्रिय था ,जिस पर मेरा एक आलेख रायपुर के तत्कालीन दैनिक 'युगधर्म' के 10 नवम्बर 1977 के दीपावली पूर्ति अंक में प्रकाशित हुआ था । इस नाट्य मण्डली की मंचीय प्रस्तुतियों का कोई फोटो दुर्भाग्यवश मेरे पास नहीं है।  उस वक्त भी नहीं था । लिहाजा सम्पादक महोदय ने बगैर फोटो के ही  उदारतापूर्वक मेरा यह आलेख प्रमुखता से  प्रकाशित कर दिया । शीर्षक भी यथावत है । सौभाग्य से इसकी क्लिपिंग मेरे पास अब तक सुरक्षित है ।हालांकि  समय के प्रवाह में कागज़ कुछ पीले और अक्षर कुछ धुंधले ज़रूर  पड़ गए हैं ,फिर भी इसे यथासंभव जस का तस उतारने की कोशिश मैंने की है ।
      सिर्फ़ आलेख की सजावट के लिए एक प्रतीकात्मक फोटो   इंटरनेट से  साभार लिया है ,जो ग्राम कचांदुर ,(जिला -बालोद ) की  'तुलसी के माला '  नामक छत्तीसगढ़ी नाचा मण्डली की मंचीय प्रस्तुति का है। बहरहाल ,आप मचेवा के नाचा के बारे में यह आलेख पढ़ें ।
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          छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक इतिहास की पृष्ठ भूमि मुख्यतः यहाँ का ग्रामीण जनजीवन ही है ।यहाँ की ग्रामीण संस्कृति में लोकनाटकों का प्रारंभ से ही बड़ा महत्व रहा है । छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक सौम्यता के दर्शन यहाँ के देहातों की नाट्य मण्डलियों के सीधे -सादे ,आडम्बरहीन परन्तु रोचक कार्यक्रमों में होते हैं ।ये नाट्य मण्डलियां लोक -जीवन पर आधारित नाटकों के साथ लोक -नृत्यों का  प्रदर्शन भी करती हैं ।लोक नृत्य ,जिसे आँचलिक बोली में 'नाचा कहा जाता है, नाट्य मण्डलियों के प्रदर्शन का प्रमुख अंग है ।अतः ग्रामीण अँचलों में ये नाट्य -मण्डलियां 'नाचा पार्टी ' के नाम से ही जानी जाती हैं ।
इन नाट्य या नाचा मण्डलियों में से एक है -मचेवा की नाचा मण्डली ।मचेवा महासमुन्द के समीप एक छोटा सा गाँव है ।आज से लगभग पन्द्रह -सोलह वर्ष पूर्व इसी गाँव के एक युवक श्री रामसिंह ठाकुर ने इस नाट्य -मण्डली की नींव डाली थी ।तब से लेकर आज तक छत्तीसगढ़ के छोटे -बड़े सभी गांवों और कस्बों में यह मण्डली अपने कार्यक्रमों का प्रदर्शन करती आ रही है ।
  तीन वर्ष पूर्व सन 1974 में इस्पात नगरी भिलाई के सिविक सेंटर में मचेवा नाचा पार्टी ने छत्तीसगढ़ की ग्रामीण कला और संस्कृति का गौरवशाली ,प्रशंसनीय प्रदर्शन किया था ।साथ ही पिछले वर्ष इस मण्डली के प्रमुख अभिनेता ,नाटककार तथा निर्देशक श्री सूरज 'राही ' ने इस्पात नगरी भिलाई में ही आयोजित " छत्तीसगढ़ी लोक कला सम्मेलन ' में अपनी मण्डली का प्रतिनिधित्व किया था । मचेवा नाचा पार्टी (नाट्य मण्डली )  ने न केवल छत्तीसगढ़ , वरन इस अंचल की सीमाओं को लाँघ कर पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र के गोंदिया शहर व उसके आस -पास के गाँवों में भी छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति के प्रतीक नाटकों और लोक नृत्यों का प्रदर्शन किया है और ख्याति अर्जित की है । इस मण्डली द्वारा सामाजिक तथा राष्ट्रीय समस्याओं पर आधारित , लोक शैली में आबद्ध अनेक नाटकों का लोक भाषा में प्रभावशाली मंचन किया जाता है ।इनमें एक  प्रमुख नाटक है 'छोटे - बड़े मण्डल' । समाज में व्याप्त आर्थिक विषमताओं तथा वर्ग -भेद की समस्याओं पर आधारित इस लोक नाटक में ग्रामीण प्रेमी युगल द्वारा शहर में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत सामाजिक रूढ़ियों को तोड़कर 'कोर्ट मैरिज'  जैसी  आधुनिक प्रक्रिया के द्वारा परिणय सूत्र में बंधने की घटना का जीवंत चित्रण हुआ है ।प्रेमी युगल का परिणय समाज में व्याप्त कुरीतियों को मिटाने तथा अमीरी और ग़रीबी की खाई को पाटने के उद्देश्यों को लेकर सम्पन्न होता है । यद्यपि 'कोर्ट मैरिज " जैसी आधुनिक घटना (जो मुख्यतः शहरी संस्कृति का प्रतीक है ),का ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित नाटक में समावेश हुआ है ,परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि छत्तीसगढ़ के लोक नाटक अपने ग्रामीण परिवेश का त्याग कर रहे हैं ।'छोटे - बड़े  मण्डल ' में वस्तुतः ग्रामीण युवा वर्ग पर शहरी मानसिकता के प्रभाव का चित्रण हुआ है ,जिसे नकारा नहीं जा सकता ।
       इसी प्रकार इस नाट्य मण्डली के 'किसान ' नामक नाटक में जहाँ एक किसान की असहाय विधवा के व्यथा भरे जीवन का मर्मस्पर्शी चित्रण है ,वहीं 'दही वाली ' नामक नाटक में एक पतिव्रता नारी द्वारा अपने पथभ्रष्ट पति को सही रास्ते पर लाने हेतु किए गये सफल प्रयासों को रोचक अभिव्यक्ति प्रदान की गयी है ।
इन तीनों नाटकों को मचेवा नाचा मण्डली के ही युवा अभिनेता श्री सूरज 'राही" ने लिखा है और इनका निर्देशन भी किया है। उल्लेखनीय है कि श्री सूरज "राही' छत्तीसगढ़ी के कुशल नाटककार होने के अलावा उर्दू के उभरते हुए शायर भी हैं ।मचेवा नाचा मण्डली की एक विशेषता यह है कि इसके सभी कलाकार छत्तीसगढ़ के विभिन्न गाँवों के निवासी हैं । किसी स्थान से कार्यक्रम हेतु आमंत्रण मिलने पर सभी कलाकारों को मण्डली के प्रमुख श्री रामसिंह ठाकुर मचेवा से सूचना भिजवा देते हैं तथा सूचना मिलने पर सभी कलाकार मचेवा (जो मण्डली का प्रमुख केन्द्र है )में एक होकर कार्यक्रम स्थल हेतु रवाना होते हैं ।
    " जब आपके कलाकार बाकी दिनों में अपने -अपने गाँवों में अपने व्यवसायों से सम्बद्ध होते हैं ,तब अचानक किसी कार्यक्रम की  सूचना मिलने पर क्या उन्हें रिहर्सल हेतु  पर्याप्त समय मिल पाता है ? मेरी इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए श्री सूरज 'राही' कहते हैं -बिखराव का हमारे नाटकों के मंचन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । परन्तु ऐसी बात भी नहीं है कि हमें रिहर्सल नहीं करना पड़ता ।जब हमारी पार्टी कार्यक्रमों के प्रदर्शन हेतु दौरे पर निकलती है ,तब बीच में दो -तीन दिनों का अंतराल मिलने पर हम ख़ूब  रिहर्सल करते हैं ।नये नाटकों का रिहर्सल भी इसी दौरान हो जाता है । स्त्री की भूमिका भी पुरुष पात्र ही करते हैं ।
  मचेवा नाचा मण्डली के अन्य कलाकारों में ग्राम बेलसोंडा के गंगाराम , महासमुन्द के जीवनलाल , मोंगरापाली के राधेलाल , खरोरा के सर्वश्री गुलाबदास मानिकपुरी और किसुन देवांगन , सोनभट्टा के मेहरू सेन , तथा मचेवा के सर्वश्री माखन देवांगन , चैतराम यादव , डेरहा राम ठाकुर तथा रामसिंह ठाकुर हैं । खरोरा के युवा मूर्तिकार तथा चित्रकार श्री गुलाबदास मानिकपुरी मचेवा नाचा पार्टी के प्रमुख संगीतकार हैं ।ये सभी कलाकार प्रायः गाँवों के खेतिहर मजदूर वर्ग से हैं ।इस प्रकार यह नाट्य मण्डली छत्तीसगढ़ के विभिन्न गाँवों के प्रतिनिधि लोक कलाकारों का अत्यंत सादगीपूर्ण सांस्कृतिक संगम स्थल है ।यह इस अंचल के गाँवों के मध्य सौहार्द्रपूर्ण एकता का भी प्रतीक है। इन कलाकारों में प्रतिभा है ,जिसका मूल्यांकन शहरों के अत्याधुनिक चेहरों की भीड़ में न होकर छल -कपट से दूर वनाच्छादित गाँवों की प्यारी - प्यारी धरती पर भोले -भाले चेहरों द्वारा रात्रि के अंतिम प्रहर तक होता रहता है ।
    लोक नाट्य हमारी लोक संस्कृति का प्रमुख अंग है । यद्यपि आधुनिक शहरी सभ्यता के आक्रमण के प्रभाव से ये भी अब अछूते नहीं रहे ,तथापि उनमें प्रतिध्वनित होने वाली ग्रामीण संस्कृति की आँचलिक स्वर लहरी अब भी समाप्त नहीं हुई है ,कभी समाप्त भी नहीं होगी ।ग्राम्य धरातल पर अंकुरित होने वाले लोकगीत , गाँव की सामाजिक समस्याओं पर आधारित नाटक तथा सामाजिक विषमताओं पर व्यंग्यात्मक प्रहार करने वाले प्रहसन , हास्य - व्यंग्य से भरपूर गम्मत , छत्तीसगढ़ की गौरवशाली ग्रामीण कला -संस्कृति को संरक्षण देने में पूर्णतः सक्षम हैं । इस दृष्टि से यह कहना भी गलत न होगा कि लोक नाट्य तथा  'नाचा' छत्तीसगढ़ के गाँवों की मेहनतकश जनता के सांस्कृतिक प्रतिनिधि हैं ।
                   - स्वराज करुण

Friday, September 6, 2019

(आलेख ) विलुप्त हो रही एक पर्यावरण हितैषी परम्परा !

                                     - स्वराज करुण 
   प्राकृतिक दोना - पत्तलों की पर्यावरण हितैषी परम्परा तेजी से  विलुप्त होती जा रही है । पहले इन्हें पेड़ों के हरे  पत्तों से और अपने  हाथों से बनाया जाता था । सत्यनारायण की कथा का प्रसाद और विवाह आदि समारोहों में नाश्ता और भोजन इनमें परोसा जाता था । 
        उपयोग के बाद लोग इन प्राकृतिक दोना - पत्तलों को किसी एक जगह पर एकत्रित करके रख देते थे या किसी गड्ढे में डाल देते थे ,जहाँ ये मिट्टी में घुल जाते थे । अगर जानवर भी इन पत्तों को खा लें तो उनको कोई नुकसान नहीं होता था । लेकिन अब प्राकृतिक दोना -पत्तल गाँवों से भी गायब होते जा रहे हैं ।

 विभिन्न कारणों से जंगलों का कम होते जाना भी इसका प्रमुख कारण है । पहले  वनों में साल ,सरई ,परसा आदि के वृक्ष काफी संख्या में होते थे ,जिनके पत्तों से  दोना -पत्तल बनाया जाता था । लोगों के घरों के आँगन में या पीछे बाड़ियों में पर्याप्त जगह होती थी ,जहाँ कुँओं के आस -पास केले के भी पौधे लगाए जाते थे ।  बड़े होने पर केले के पत्ते भी भोजन परोसने के काम आते थे ।
                       

     दोना -पत्तल   बनाने की मशीनें आ गयी हैं ,जिनमें मोटे कागजों पर प्लास्टिक ,  पॉलीथिन या कृत्रिम सिल्वर की बारीक परतें चढ़ाकर इन्हें बनाया जा रहा है ,जो स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक हैं । उपयोग के बाद लोग  इन्हें लापरवाही से इधर -उधर फेंक देते हैं। मिट्टी में घुलनशील नहीं होने के कारण ये जमीन में खुले पड़े रहते हैं ।  इससे मिट्टी प्रदूषित होती है और इनमें बचे हुए या  चिपके रह गए  जूठन के सड़ने पर वातावरण में असहनीय  बदबू फैलती है । पर्यावरण भी  दूषित होता है । इस प्रकार के  प्लास्टिक या कृत्रिम सिल्वर कोटेड आधुनिक दोना -पत्तलों को अगर कोई जानवर खा ले तो उसकी मौत भी हो सकती है । 
     दोना -पत्तल बनाने की इन मशीनों की कीमत ज्यादा नहीं होती । इसलिए कोई भी व्यक्ति इस कुटीर उद्योग की स्थापना कर सकता है । स्वरोजगार की दृष्टि से इसमें कोई  बुराई नहीं ,बशर्ते  दोना -पत्तल प्राकृतिक पत्तों से तैयार किए जाएं ।
        -स्वराज करुण
(फोटो : इंटरनेट से साभार )

Monday, September 2, 2019

(आलेख ) अनुकम्पन : रायगढ़ कथक पर बनी पहली फ़िल्म

                       - स्वराज करुण 
    छत्तीसगढ़ की तत्कालीन रायगढ़ रियासत के महान संगीतज्ञ राजा चक्रधर सिंह की स्मृति में इस वर्ष  2 सितम्बर को रायगढ़ में 35 वें अखिल भारतीय चक्रधर नृत्य एवम संगीत समारोह का शुभारंभ होने जा रहा है । दरअसल 2 सितम्बर को गणेश चतुर्थी है और इसी दिन 19 अगस्त 1905 को रायगढ़ में चक्रधर सिंह का जन्म हुआ था । उनका निधन रायगढ़ में ही   7 अक्टूबर 1947 को हुआ।       

  उनके सम्मान में हर साल गणेश चतुर्थी के दिन  राज्य शासन और जिला प्रशासन द्वारा जन सहयोग से   दस दिनों के इस  राष्ट्रीय समारोह का आयोजन विगत 34 वर्षों से किया जा रहा  है । प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल कल 2 सितम्बर को इस आयोजन का शुभारंभ करेंगे ।
     राजा चक्रधर सिंह न सिर्फ़ कला रसिक , बल्कि एक महान कला मर्मज्ञ और नृत्य गुरु भी थे । उन्होंने पारम्परिक छत्तीसगढ़ी लोक नाट्य 'नाचा' के कलाकारों को लेकर उन्हें अपने सानिध्य में रखा और इन गुमनाम और अल्पज्ञात कलाकारों को शास्त्रीय नृत्य कथक का कठोर प्रशिक्षण दिया और दिलाया ,फिर इन्हीं कलाकारों को लेकर उन्होंने कथक नृत्य की रायगढ़ शैली का प्रवर्तन किया । वास्तव में राजा चक्रधर सिंह को  समय - समय पर 'नाचा' कलाकारों के मंचन को देखकर उनके पैरों की थिरकन में कथक नृत्य का अमिट प्रभाव नज़र  आया , तो उन्होंने इन लोक कलाकारों की प्रतिभा को सँवारा और रायगढ़ घराने के नाम से कथक की एक अलग भाव -धारा विकसित कर दी ।
   उनके सानिध्य में प्रशिक्षित कई कथक नर्तकों ने आगे चलकर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि प्राप्त की ,जिनमें नृत्याचार्य बर्मन लाल , कार्तिक राम ,कल्याणदास  फिरतूदास वैष्णव  और रामलाल आदि उल्लेखनीय हैं ।  राजा चक्रधर सिंह ने नृत्य और संगीत पर कई ग्रन्थ लिखे ,जिनमें ' नर्तम -सर्वस्वम ' और 'तलतोय निधि' भी शामिल हैं ।  उनका लिखा  'बैरागढ़िया राजकुमार' नाटक भी  काफी चर्चित और लोकप्रिय रहा है ।
    रायगढ़ घराने के शास्त्रीय नृत्य कथक के विकास में  राजा चक्रधर सिंह के योगदान पर  वर्ष 1993 में एक घण्टे के एक वृत्तचित्र 'अनुकम्पन ' का निर्माण कोलकाता की सुश्री वलाका घोष द्वारा श्री नीलोत्पल मजूमदार के निर्देशन में किया गया था । रायगढ़ घराने के कथक नृत्य पर यह पहली डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म थी । सेल्यूलाइड पर 16 एमएम की इस  डॉक्यूमेंट्री  को भारत सरकार ने वर्ष 1993 के सर्वश्रेष्ठ सांस्कृतिक वृत्त चित्र की श्रेणी में राष्ट्रपति के रजत कमल एवार्ड से सम्मानित किया था । इस फ़िल्म में नृत्याचार्य बर्मन लाल , राजा साहब के ग्रन्थों को विशेष प्रकार के कीमती कागजों पर अपने हाथों से सुडौल अक्षरों में  लिपिबद्ध करने वाले चिंतामणि कश्यप और राजा चक्रधर सिंह के सुपुत्र भानुप्रताप सिंह के दिलचस्प साक्षात्कार  हैं ,वहीं छत्तीसगढ़ी नाचा के वरिष्ठ कलाकारों के गायन वादन सहित  रायगढ़ कथक की नृत्यांगना सुश्री वासन्ती वैष्णव , बाल कलाकार शरद वैष्णव और संगीता नामदेव की भी  नृत्य प्रस्तुतियों को भी इसमें शामिल किया गया है ।
       जनवरी 1994 में कोलकाता में केन्द्र सरकार द्वारा आयोजित भारत के 24 वें  अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म महोत्सव के दौरान वहाँ के गोर्की सदन में यह फ़िल्म भी प्रदर्शित की गयी थी ।   मुझे भी वरिष्ठ साहित्यकार ,बिलासपुर निवासी पण्डित श्यामलाल चतुर्वेदी, रायगढ़ घराने की नयी पीढ़ी की  कथक नृत्यांगना सुश्री वासन्ती वैष्णव और तबला वादक श्री सुनील वैष्णव के साथ इस फ़िल्म समारोह में शामिल होने और  'अनुकम्पन ' के प्रदर्शन का साक्षी बनने का सौभाग्य मिला था ।
    दरअसल रायगढ़ कथक पर बनी इस पहली डॉक्यूमेंट्री में मेरा भी एक छोटा -सा योगदान था ,वो यह कि निर्माता ,निर्देशक के आग्रह पर मैंने  इसकी पटकथा का हिन्दी रूपांतर करते हुए नेपथ्य से उसकी एंकरिंग भी की थी।  वर्ष 1994 में यह डॉक्यूमेंट्री दूरदर्शन के राष्ट्रीय नेटवर्क पर भी प्रसारित की गयी थी ।
     शायद  वो वर्ष  1996 का चक्रधर समारोह था ,जब आयोजन समिति की ओर से  रायगढ़ के गोपी टॉकीज  में  'अनुकम्पन ' का प्रदर्शन किया गया था ,जिसे देर तक गूँजती  करतल ध्वनि के साथ दर्शकों का  उत्साहजनक प्रतिसाद मिला था । जन्म जयंती पर राजा चक्रधर सिंह को शत -शत नमन और उनकी स्मृति में 2 सितम्बर 2019 से शुरू हो रहे अखिल भारतीय  चक्रधर समारोह की सफलता के लिए मेरी ओर से भी हार्दिक शुभेच्छाएँ । राजा साहब की अतुलनीय और अनुकरणीय कला साधना को यादगार बनाए रखने के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने राज्य अलंकरण  'चक्रधर सम्मान' की भी स्थापना की है ,जो वर्ष 2001 से हर साल राज्योत्सव के मौके पर  संगीत और कला के क्षेत्र में एक चयनित कला साधक को  प्रदान किया जाता है ।
         -स्वराज करुण