Thursday, August 29, 2019

(व्यंग्य) माटी -पुत्र , डामर -पुत्र या सीमेंट -पुत्र ?

                             - स्वराज करुण            
   क्या शब्द अपनी भावनाओं को खो चुके हैं ?  कुछ दशक पहले तक  अगर किसी मंच से किसी को 'माटी पुत्र ' या 'माटी के लाल' कहकर संबोधित किया जाता था ,तो ये शब्द  श्रोताओं की संवेदनाओं को छू जाते थे ,लेकिन आज के समय में  इन भावनात्मक शब्दों से किसी की तारीफ की जाए तो सुनने वालों को हँसी आती है  और उन पर इन लफ्जों का  कोई असर नहीं होता ,बल्कि ये लफ्ज़ महज लफ्फाजी की तरह लगते हैं ..
       इसकी एक ख़ास वजह मेरे ख़याल से ये है कि आज इस धरती पर माटी खत्म होती जा रही है  माटी की छाती पर सीमेंट और डामर की मोटी-पतली चादरें बिछ रही हैं .समय के भारी-भरकम पांवों से माटी की ममता को रौंदा जा रहा है ! खेतों में भी सीमेंट-कांक्रीट के जंगल खड़े हो रहे हैं .माटी के घड़ों और माटी के बर्तनों  का स्थान क्रमशः वाटर-कूलरों और स्टेनलेस स्टील के घड़ोंऔर बर्तनों  ने ले लिया है . हम लोग बचपन में गाँवों की धूल-माटी में ही पले-बढ़े हैं ,लेकिन आज के बच्चे तो सीमेंट -कांक्रीट की बस्तियों में बड़े हो रहे हैं . माटी की ममता उन्हें छू भी नहीं पा रही है .हर तरफ सीमेंट की या डामर की सडकें , हर तरफ सीमेंट कांक्रीट के मकान !             पहले मिट्टी के मकानों में गोबर से लिपा-पुता माटी का ही आँगन होता था !  ये मकानऔर  आंगन प्राकृतिक रूप से  काफी सुकून देते थे.  अब सीमेंट के मकानों में होता है सीमेंट का आँगन ,जो गर्मियों में अपनी आंच से तन-मन को झुलसाने लगता है     . 
        तो अब माटी है कहाँ ? किसी इंसान को 'माटी पुत्र' या 'माटी पुत्री' या 'माटी के लाल' कहना तो दूर ,उसे 'माटी का पुतला' या 'माटी की पुतली' भी कहना उचित नहीं होगा . मेरे विचार से तो अगर किसी के दिल में किसी शख्स के लिए कुछ ज्यादा ही श्रद्धा या भक्ति हो तो वह उसे  सीमेंट-पुत्र ,सीमेंट-पुत्री ,डामर पुत्र , डामर-पुत्री , सीमेंट के लाल या डामर के लाल कहकर सम्बोधित और सम्मानित कर सकता है !
                             --   स्वराज करुण

Saturday, August 24, 2019

(आलेख ) ये कहानी है दीये की और तूफ़ान की ..!

                                   - स्वराज करुण 
आधुनिकता की आँधी और मशीनीकरण के तूफान  में कई परम्परागत व्यवसाय तेजी से विलुप्त हो रहे हैं । दीये और तूफान की इस कहानी में दीया बुझता हुआ नजर आ  रहा है । जैसे कुम्हारों का माटी शिल्प , चर्मकारों का चर्म शिल्प ,  हाथकरघा बुनकरी और  दर्जियों की  सिलाई कला । सरकारों के तमाम अच्छे प्रयासों के बावजूद इन शिल्प कलाओं में  दक्ष  हुनरमंद हाथों की रचनाओं को बेहतर बाज़ार नहीं मिल पा रहा है । 
        जैसे - मिट्टी के कुल्हड़ों का स्कोप अब नहीं के बराबर रह गया है । उनके बदले प्लास्टिक के कप और गिलास खूब चल रहे हैं ,जिन्हें इस्तेमाल करने के बाद  लोग इधर -उधर लापरवाही से फेंक देते हैं ,जो नालियों के जाम होने और प्रदूषण का कारण बनते हैं ।ऐसे में अगर ट्रेनों में कुल्हड़ का चलन बन्द हो जाए तो  रही -सही कसर भी नहीं रह जाएगी ।
       मिट्टी के कुल्हड़ तो पर्यावरण हितैषी होते हैं ।   ट्रेनों में ,शादी -ब्याह में , दफ्तरों में , चाय ठेलों और होटलों में , जलसों और सभाओं में उनका चलन बढ़ाया जाए तो कुम्हारों को  साल भर काम मिलता रहेगा और प्लास्टिक प्रदूषण भी कम होने लगेगा । कुम्हारों के इस पारम्परिक शिल्प को  बचाने का मेरे विचार से एक ही उपाय है कि इन हुनरमंद हाथों से बने मिट्टी के कुल्हड़ों को बढ़ावा दिया जाए । 
      कुछ साल पहले तक आप अपने घर में  महीने भर  संकलित दैनिक अखबारों के अनुपयोगी  बंडल पड़ोस की किराना दुकान वाले के पास पांच -छह रुपएकिलो के हिसाब से बेच देते थे ,जिनमें दुकानदार जीरा ,धनिया ,मेथी आदि चिल्हर वस्तुओं की पुड़िया बनाकर बेच लेते थे । अखबारों को पढ़ने के बाद वह कागज  इस तरह उपयोग में आ जाता था ।  किराना दुकानों में कागज के ठोंगे का चलन था । प्लास्टिक के कैरीबैग नहीं थे  ,जो आज धरती की परत को पर्यावरण की दृष्टि से गंभीर नुकसान पहुंचा रहे हैं ।     
       दोना पत्तल तो अब भी बनते और बिकते हैं ,उनके लिए मशीनें आ गयी हैं , लेकिन उन्हें चमकदार ,टिकाऊ और आकर्षक बनाने के लिए उन पर प्लास्टिक या पॉलीथिन की हल्की परत चढ़ाकर उन्हें प्रति सैकड़ा के हिसाब से बेचा जाता है । शादियों के रिसेप्शन में लोग उनमें भोजन करते हैं और उसके बाद उन्हें फेंक दिया जाता है ।  ऐसे प्लास्टिक आवरण वाले  दोना पत्तलों की वजह से  परम्परागत दोना पत्तल बनाने वाले ग्रामीणों की अब कोई पूछ -परख नहीं होती ।
   चर्मकार अपने हाथों से  जो जूते बनाते हैं  ,उन्हें अगर वे अपनी गुमटीनुमा दुकानों में सौ -दो सौ रूपए में बेचते हैं तो शहरी दुकानदार  उसी तरह के जूते उन्हीं से बनवाकर और उन पर ब्रांडेड कम्पनी का लेबल लगाकर  ऊंची दुकानों में काँच के शो -केस में सजाकर 500 से 1500 रुपए तक  या उससे भी ज्यादा कीमत का लेबल लगाकर बेचा रहे हैं । 
           अगर किसी सरकारी योजना में गरीबों को जूते वितरित किए जा रहे हों तो उनकी खरीदी इन परम्परागत चर्मशिल्पियों से या उनकी सहकारी समितियों से  की जा सकती है । इससे इन शिल्पियों  को साल भर रोजगार की गारन्टी रहेगी ।  अकेले सरकार नहीं बल्कि समाज को भी इस बारे में सोचने की जरूरत है । सरकारों ने समय -समय पर  हाथकरघा बुनकरों को बाज़ार दिलाने की सराहनीय पहल की है । जैसे - हर सरकारी दफ्तर के लिए यह अनिवार्य किया गया है कि वे अपने कार्यालय के  पर्दे , टेबिल क्लॉथ आदि  के लिए जरूरी कपड़े हाथकरघा बुनकरों की सहकारी समितियों से खरीदें ।   इस नियम का गंभीरता से पालन होना चाहिए ।  स्कूली बच्चों की  गणवेश सिलाई का काम  महिलाओं के स्वसहायता समूहों को दिया जा सकता है । यह भी एक अच्छी पहल होगी  । इससे  महिलाएं  दर्जी के काम में दक्ष होकर आत्म निर्भर बनेंगी । बच्चों के लिए स्कूली गणवेश की सरकारी खरीदी से इन समूहों   को  अच्छा बाज़ार और व्यवसाय मिलेगा । देश में छोटे -छोटे व्यवसायों में युवाओं के अल्पकालीन  प्रशिक्षण के लिए कौशल उन्नयन  की जो  योजनाएं चल रही हैं ,उनमें ऐसे परम्परागत व्यवसायों को अधिक से अधिक संख्या में जोड़ा जाना चाहिए । नागरिकों को भी चाहिए वे अपने घरेलू उपयोग के लिए जरूरी सामानों की खरीदी परम्परागत शिल्पकारों से या उनकी सहकारी समितियों की दुकानों से करें ।  खादी ग्रामोद्योग की दुकानों में  या एम्पोरियमों में ऐसे सामान खूब मिलते हैं ,लेकिन नये ज़माने की चमक -दमक वाले विज्ञापनों का मायाजाल फैलाने की कला उन्हें  नहीं मालूम ,इस वजह से  उन्हें हमेशा  ग्राहकों का इंतज़ार रहता है ।
    मुझे अभी जितना ख़्याल आया ,मैंने लिख दिया ।  इस विषय पर  चर्चा -परिचर्चा के और भी कई बिन्दु , और भी कई पहलू हो सकते हैं ,जिन पर  मित्रगण अगर चाहें तो विमर्श को  आगे बढ़ा सकते हैं ।
          -   स्वराज करुण

Tuesday, August 20, 2019

(आलेख) हीराकुद बाँध और अँधेरे में गाँधी मीनार की स्वर्णिम रौनक !

                         - स्वराज करुण
छत्तीसगढ़ और ओड़िशा राज्यों की जीवन -रेखा महानदी पर ओड़िशा के जिला मुख्यालय सम्बलपुर के पास है  दुनिया के  सबसे लम्बे  बाँधों में से एक हीराकुद जलाशय  ।  यूं तो इस बीच पारिवारिक यात्राओं में सम्बलपुर कई बार  आता -जाता रहा ,लेकिन वहाँ से हीराकुद महज़ 15 किलोमीटर होने के बावज़ूद समय की कमी के कारण हर यात्रा में  ' चलो अगली बार देखेंगे' ,सोचकर हम  घर लौट आए ।
     इस बार करीब 8 साल बाद उस दिन मुझे दूसरी बार सपरिवार इसे देखने का मौका मिला ,हालांकि समय की कमी के कारण पूरा नहीं देख पाए । अस्ताचलगामी सूरज की सिन्दूरी आभा के बीच मेरे मोबाइल कैमरे की आंखों में  विहंगम दृश्यों की कुछ तस्वीरें आ ही गयीं । यह विशाल बाँध हमारे देश की एक अनमोल धरोहर है ।
                     
      सिंचाई और बिजली उत्पादन के उद्देश्य से इसका निर्माण  वर्ष 1947 में स्वतंत्रता के  तत्काल बाद 1948 में शुरू हुआ और करीब एक  दशक बाद वर्ष 1957 में   पूर्ण कर  लिया गया  । मिट्टी और कांक्रीट से बने इस बाँध के तटबंध की लम्बाई 4801 मीटर यानी चार किलोमीटर और 801 मीटर है ,जबकि तटबंध सहित  इसकी कुल लम्बाई 26 किलोमीटर और ऊँचाई 61 मीटर  है । जानकारों के अनुसार यह एशिया महाद्वीप की सबसे बड़ी मानव निर्मित झील है । इसकी जलग्रहण क्षमता 810करोड़ घन मीटर है । बाँध के तटबंध के कारण 743 किलोमीटर की एक मानव निर्मित झील बन गयी है ।   
     बाँध में दो जलविद्युत परियोजनाएं चिपलिमा के नज़दीक स्थित हैं ,जिनकी कुल क्षमता 307 .5 मेगावाट है । इस परियोजना से सार्वजनिक क्षेत्र के राउरकेला इस्पात संयंत्र को भी बिजली दी जाती है ।  परियोजना का जलग्रहण क्षेत्र 83 हज़ार 400 वर्ग किलोमीटर है । इस बाँध से किसानों को खरीफ़ में एक लाख 56 हज़ार हेक्टेयर  और रबी मौसम में एक लाख 08हज़ार हेक्टेयर के रकबे में फसलों के लिए पानी मिलता है ।बाँध के जल विद्युत गृहों से निकलने वाले पानी से करीब 4 लाख 36 हज़ार हेक्टेयर खेतों को पानी मिल सकता है । हाल के कुछ वर्षों में यहाँ पर्यटकों के लिए दो ऊँचे मीनार भी बनाए गए हैं -राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के नाम पर गाँधी मीनार और आज़ाद भारत के प्रथम प्रधान मंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू के नाम पर नेहरू मीनार।। उस दिन  सपरिवार वहाँ हमारे पहुँचने तक शाम हो गयी थी और टिकट काउंटर बन्द होने में कुछ ही मिनट बाकी थे । काउंटर वाले ने चिल्ला कर कहा -जल्दी कीजिए । गेट बन्द होने वाला है ।  हमने आनन -फानन में टिकट करवाया और गाड़ी में सर्पाकार  पहाड़ी रास्ते से  होकर  गाँधी मीनार तक पहुँच गए । कई पर्यटक पहले से वहाँ मौजूद थे ।
     मीनार की चक्करदार सीढ़ियों से ऊपर पहुँचकर सूर्यास्त का दृश्य भी  मैंने  अपने मोबाइल कैमरे में दर्ज कर लिया । फिर जैसे ही नीचे आए ,मीनार का गेट बन्द करने की सीटी बज गयी ।  वहाँ से उतर कर पहाड़ी के नीचे टैक्सी स्टैण्ड पर चाय पान और  भुट्टे आदि के ठेलों में आकर सबने हल्का नाश्ता किया और घर वापसी की शुरुआत हुई । इस बीच मैंने पहाड़ी के नीचे से ही मीनार की फोटो मोबाइल से खींच ली ।
       
 
शाम ढल चुकी थी । पहाड़ी पर अँधेरा छा  गया था,  लेकिन महात्मा गाँधी के सत्य और अहिंसा के मूल्यवान विचारों की तरह हीराकुद का  गाँधी मीनार उस वक्त बिजली की स्वर्णिम रौशनी की रौनक  में सोने जैसा  दमक  रहा था ।
      - स्वराज करुण

Friday, August 16, 2019

(स्मृति आलेख ) क्या -क्या नहीं थे हरि ठाकुर ?

                                     - स्वराज करुण 
व्यक्तित्व एक ,लेकिन कृतित्व अनेक ।  स्वर्गीय हरि ठाकुर के संदर्भ में यह बात बिल्कुल सटीक  बैठती है । सोच रहा हूँ -आज उनकी जयंती पर हम उन्हें किस रूप में याद करें ? क्या -क्या नहीं थे वह ?
      हिन्दी और छत्तीसगढ़ी भाषाओं के  एक ऐसे कवि थे  ,जिनकी कविताओं में और जिनके गीतों में  अन्याय और शोषण की जंजीरों से माटी -महतारी  की मुक्ति की बेचैन अभिव्यक्ति मिलती है । वह एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी , इतिहासकार , पत्रकार , लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आंदोलन के अग्रणी नेता भी थे । छत्तीसगढ़ के इतिहास और यहाँ की कला -संस्कृति , बोली और भाषा का उन्होंने गहन अध्ययन करते हुए कई गंभीर आलेख भी लिखे ।  छत्तीसगढ़ में  वर्ष 1857 के  अमर शहीद वीर नारायण सिंह सहित यहाँ की अनेक  महान विभूतियों की प्रेरणादायी जीवन गाथा उनकी लेखनी से जनता के सामने आयी ।
     उनका जन्म 16 अगस्त 1927 को रायपुर में हुआ था । उनके पिता स्वर्गीय प्यारेलाल सिंह ठाकुर   एक महान श्रमिक नेता ,आज़ादी के आंदोलन के महान योद्धा , सहकारिता आंदोलन के कर्मठ नेता , पत्रकार , विधायक और रायपुर नगरपालिका के तीन बार निर्वाचित अध्यक्ष रह चुके थे ।  स्वर्गीय हरि नारायण सिंह ठाकुर (हरि ठाकुर ) को देश और समाज के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा अपने क्रांतिकारी पिता जी से विरासत में मिली थी।  हरि ठाकुर का निधन तीन दिसम्बर 2001 को हुआ ।  ।   
अपने इस आलेख के साथ मैं स्वर्गीय डॉ. राजेन्द्र सोनी द्वारा सम्पादित साहित्यिक पत्रिका 'पहचान -यात्रा ' के   जून 2002 के 'हरि ठाकुर विशेषांक ' का मुखपृष्ठ भी प्रस्तुत कर रहा हूँ ,जिसमें उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर साहित्यकारों और पत्रकारों के आलेख शामिल हैं ।  इसी विशेषांक में छत्तीसगढ़ी भाषा मे  हरि ठाकुर द्वारा रचित दो नाटक भी प्रकाशित किए गए हैं ।इनमें से एक नाटक का  शीर्षक है ' पर बुधिया ' ।दूसरा नाटक स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में छत्तीसगढ़ में हुए  'तमोरा सत्याग्रह'  पर आधारित है ।
     उनके देहावसान  के अगले  दिन राजधानी रायपुर के मारवाड़ी श्मशान घाट में सैकड़ों लोगों ने अश्रुपूरित नेत्रों से उन्हें अंतिम बिदाई दी । उसी दिन छत्तीसगढ़ विधान सभा की बैठक  में उन्हें विशेष रूप से श्रद्धाजंलि दी गयी ।  तबके अध्यक्ष स्वर्गीय श्री राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल ने निधन उल्लेख करते हुए सदन में उनका जीवन परिचय प्रस्तुत किया । तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री अजीत जोगी और तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष श्री नन्द कुमार साय समेत अनेक सदस्यों ने स्वर्गीय श्री हरि ठाकुर की  संघर्षपूर्ण और गौरवपूर्ण जीवन यात्रा पर प्रकाश डाला । उन सभी के वक्तव्य भी इस विशेषांक में संकलित हैं। श्री अजीत जोगी ने सदन में शोक उदगार कुछ इन शब्दों में व्यक्त किए थे -

 "माननीय अध्यक्ष महोदय , आज प्रातः 10 बजे जब कंचन की काया को चंदन की चिता पर लिटाकर अग्नि दी गयी ,तो उस चिता के सामने खड़ा मैं स्वर्गीय हरि ठाकुर को प्रणाम करते हुए यह याद कर रहा था  कि उनके रूप में मानो एक युग का अंत हो गया  , पटाक्षेप हो गया ।एक ऐसे छत्तीसगढ़ के सपूत को हमने खोया ,जो एक साथ न जाने क्या -क्या था ? कवि था ,साहित्यकार था ,इतिहासकार था और छत्तीसगढ़ के संदर्भ में ,छत्तीसगढ़ के  इतिहास के संदर्भ में ,छत्तीसगढ़ के गौरवशाली रत्नों के संदर्भ में एक चलते फिरते ग्रन्थ थे । लिविंग इनसाइक्लोपीडिया थे ,यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी ।...श्री हरि ठाकुर ने छत्तीसगढ़ की अस्मिता से हम  छत्तीसगढ़ियों को अवगत कराया । मेरा अनेक संदर्भो में उनके साथ सम्पर्क रहा ,सानिध्य रहा ।  मुझे याद आ रहा है एक दिन मैंने दुःखी होकर उनसे पूछा था -" छत्तीसगढ़ के इतने आंदोलन चलते हैं ।आप सबमें शामिल हो जाते हैं । आप वास्तव में हैं किसके साथ ? उन्होंने जवाब दिया - " मैं तो छत्तीसगढ़ राज्य बनाने वाले के साथ हूँ। कोई भी आंदोलन चलाएगा ...हरि ठाकुर उसके साथ रहेगा,तब तक साथ रहेगा ,जब तक छत्तीसगढ़ राज्य नहीं बन जाता ।"

         साहित्यिक पत्रिका 'पहचान यात्रा ' के इस विशेषांक में  छत्तीसगढ़ी भाषा के क्रमिक विकाश पर भी स्वर्गीय श्री  हरि ठाकुर का एक आलेख शामिल है ,जिसका शीर्षक है  'छत्तीसगढ़ी का प्राचीन नाम कोसली या महाकोसली ?' उनके निधन के बाद रायपुर में गठित हरि ठाकुर स्मारक संस्थान ने   छत्तीसगढ़ के इतिहास और राज्य की संस्कृति तथा महान विभूतियों से जुड़े उनके विभिन्न आलेखों का एक वृहद संकलन 'छत्तीसगढ़ गौरव गाथा ' शीर्षक से प्रकाशित किया । यह विशाल ग्रन्थ उनके जन्म दिन 16 अगस्त 2003 को प्रकाशित हुआ । ग्रन्थ का सम्पादन डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर, डॉ. देवीप्रसाद वर्मा 'बच्चू जाजगीरी ' और आशीष सिंह ने किया है ।
     हरि ठाकुर सन १९४२ में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ गांधीजी के आव्हान पर असहयोग आन्दोलन में भी शामिल हुए . देश की आज़ादी के बाद वर्ष १९५५ में उन्होंने गोवा मुक्ति आन्दोलन में हिस्सा लिया .इसके पहले वह  विनोबाजी के सर्वोदय और भूदान आन्दोलन से जुड़े और १९५४ में  उन्होंने नागपुर से  प्रकाशित भूदान आन्दोलन की पत्रिका '  साम्य  योग ' का सम्पादन किया .उन्होंने वर्ष १९६५ में छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की .
       रायपुर में उन्होंने वर्ष १९६७ में अपने  पिताजी के साप्ताहिक समाचार पत्र 'राष्ट्रबन्धु' के प्रकाशन और सम्पादन का दायित्व संभाला .नब्बे के दशक में वह  छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण आन्दोलन के लिए सर्वदलीय मंच के  संयोजक रहे . एक नवम्बर २००० को छत्तीसगढ़ राज्य बना ,लेकिन अफ़सोस कि वह अपने सपनों के छत्तीसगढ़ को एक राज्य के रूप में विकसित होते ज्यादा समय तक नहीं देख पाए और राज्य बनने के सिर्फ लगभग तेरह  महीने  में ३ दिसम्बर  २००१ को उनका देहावसान हो गया . अगले दिन चार दिसम्बर को  छत्तीसगढ़ विधान सभा के  शीत कालीन सत्र पक्ष-विपक्ष के सभी सदस्यों ने  शोक-प्रकट करते हुए उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि दी .
        स्वर्गीय हरि ठाकुर  छत्तीसगढ़ की पुरानी और नयी ,दोनों ही पीढ़ियों के बीच सामान रूप से लोकप्रिय साहित्यकार थे वर्ष १९९५ में उनकी प्रेरणा से रायपुर में नये-पुराने लेखकों और कवियों ने मिलकर साहित्यिक संस्था 'सृजन सम्मान ' का गठन किया . उन्हें इस संस्था का अध्यक्ष बनाया गया था  . छत्तीसगढ़ के इतिहास , साहित्य और यहाँ  की कला -संस्कृति का उन्होंने गहरा अध्ययन किया था  । वर्ष १९७० -७२ में बनी दूसरी छत्तीसगढ़ी फिल्म 'घर-द्वार ' में लिखे उनके  के गीतों को  अपार लोकप्रियता मिली .इनमें से  मोहम्मद रफ़ी की दिलकश आवाज़ में  एक गीत ' गोंदा फुलगे मोरे राजा ' तो आज भी कई लोगों की जुबान पर है.
  हरि ठाकुर के  हिन्दी  कविता संग्रहों में 'लोहे का नगर ' और  नये विश्वास के बादल ' छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रहों में 'सुरता के चन्दन '   हिन्दी शोध-ग्रन्थों  में 'छत्तीसगढ़  राज्य का प्रारंभिक  इतिहास' ,  'उत्तर कोसल बनाम दक्षिण कोसल' विशेष रूप  से उल्लेखनीय हैं .उन्होंने   अपनी  कविताओं  में हमेशा आम जनता के दुःख-दर्द  को अभिव्यक्ति दी । उन्होंने गीत विधा के साथ -साथ अतुकांत कविताएँ भी लिखीं । अपनी कविताओं के माध्यम से उन्होंने  देश की  सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों पर तीखे प्रहार  किए . बानगी  देखिये -

नदी वही है ,नाव वही है
लेकिन वह मल्लाह नहीं है ।
धन बटोरने की चिन्ता में ,
जनहित की परवाह नहीं है ।।
       
  वस्तुतः स्वर्गीय हरि ठाकुर का सुदीर्घ साहित्यिक और सार्वजनिक जीवन उन हजारों , लाखों लोगों के लिए प्रेरणा का प्रकाश पुंज है ,जो अपने देश और अपनी धरती के लिए कुछ करना चाहते हैं । वरना यह मनुष्य देह भी क्या है ,जो जन्म लेकर यूँ ही निरुद्देश्य मर -खप जाती है ,लेकिन जिन लोगों के जीवन का पथ उतार -चढ़ाव से  भरे दुर्गम पर्वतों से  होकर गुजरता है और जिनकी जीवन यात्रा उस पथरीले पथ पर मानवता के कल्याण का मकसद लेकर चलती है , वो  इतिहास बनाकर  लोगों के दिलों में हरि ठाकुर की तरह हमेशा के लिए यादगार बनकर रच -बस जाते हैं ।
  - स्वराज करुण

Thursday, August 15, 2019

(आलेख )प्राइवेट बनाम सरकारी : शिक्षा में किसका पलड़ा भारी ?

                                -- स्वराज करुण 
 अगर कोई पूछे कि सरकारी और प्राइवेट शिक्षा संस्थानों में पढ़ाई और रिजल्ट के मामले में  किसका पलड़ा भारी है तो मुझ जैसे अधिकतर लोग सरकारी संस्थाओं के पक्ष में होंगे । लेकिन आज की स्थिति में समाज का मानसिक झुकाव सिर्फ़ 'शो-बाजी'  के कारण प्राइवेट संस्थाओं की ओर बढ़ता जा रहा है ,जो हमारी नयी और भावी पीढ़ियों के लिए घातक हो सकता है ।
     गंभीरता से विचार करें और देखें तो मालूम होगा कि देश के उच्च और सर्वोच्च  पदों पर आसीन 99 प्रतिशत  वर्तमान और भूतपूर्व महानुभावों ने अपनी प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा सरकारी स्कूलों और सरकारी कॉलेजों में हासिल की है ,जिनमें राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों सहित बड़ी संख्या में केंद्रीय मंत्री , राज्यों के मुख्यमंत्री और मंत्रीगण ,सांसद और विधायकगण , कई प्रसिद्ध वैज्ञानिक ,शिक्षाविद , प्रसिद्ध डॉक्टर और इंजीनियर ,  साहित्यकार ,कलाकार आदि शामिल हैं । प्रशासनिक सेवाओं के उच्च पदस्थ अधिकारियों में से भी कम से कम 90 प्रतिशत अफसरों की प्रारंभिक शिक्षा सरकारी स्कूलों में हुई है ।
      वहीं दूसरी तरफ़ हम देखते हैं कि प्राइवेट शिक्षा संस्थानों ने देश को अब तक  कोई उल्लेखनीय प्रतिभाएं नहीं दी हैं । इसके बावज़ूद  हमारे यहाँ प्राइवेट स्कूल -कॉलेजों ,कोचिंग संस्थाओं और प्राइवेट विश्वविद्यालयों की मनमानी विज्ञापन बाजी से  समाज में उनका भ्रामक आकर्षण बढ़ता जा रहा है ,जो गहरी  चिन्ता और चिन्तन का विषय  बन गया है !  उनमें से अधिकांश तो कई बड़े -बड़े करोड़पति और अरबपति रसूखदारों के संस्थान होते हैं और कई तो ऐसी संस्थाएं खोलकर शिक्षा की दुकान चलाते हुए करोड़पति और अरबपति बन जाते हैं ।
    प्राइवेट स्कूल -कॉलेजों और निजी विश्वविद्यालयों के नाम भी या तो अंग्रेजीनुमा होते हैं या फिर उनका नामकरण ऐसा लगता है मानो उनके  मालिकों के नाम या  सरनेम पर हुआ है । इससे उन संस्थाओं के प्रति आम जनता और विद्यार्थियों में आत्मीयता की भावना नहीं होती , जबकि सरकारी शिक्षण संस्थाओं के नाम प्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों , अमर शहीदों और  अन्य कई महान विभूतियों और दानदाताओं के नाम पर रखे जाते हैं , ताकि विद्यार्थी उनसे प्रेरणा ग्रहण कर सकें।
                अगर स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता पर विचार करें तो सरकारी स्कूलों में जितने प्रशिक्षित अध्यापक होते हैं ,उतने प्राइवेट में कहाँ होते हैं ?  कई राज्यों के सरकारी स्कूलों में बच्चों को  मध्यान्ह भोजन और  गणवेश के साथ -साथ पाठ्य पुस्तकें भी मुफ़्त मिलती हैं ,जबकि प्राइवेट स्कूलों में नहीं । बोर्ड परीक्षाओं की मेरिट सूची में  भी सरकारी स्कूलों के बच्चों का पलड़ा भारी रहता है ,जबकि प्राइवेट स्कूलों के इने गिने बच्चे ही मेरिट में आते हैं । यही स्थिति विश्वविद्यालयों की मेरिट सूचियों में भी देखी जा सकती है ।
   दरअसल प्राइवेट स्कूल -  कॉलेजों में  सितारा होटलनुमा भवनों और उसी तरह की  होटलनुमा सुविधाओं के अलावा कुछ  रहता भी नहीं । जैसे -एयरकंडीशनरों से सुसज्जित क्लास रूम , जलपानगृह और एसी वाले डायनिंग हॉल ,  स्कूल बसों की सुविधाएं आदि । फीस भी उनकी काफी तगड़ी होती है ।  इनके झूठे  ग्लैमर के मायाजाल में फँसकर  पैसे वाले अभिभावक  तो अपने बच्चों को वहाँ दाखिल करवा लेते हैं ,जबकि गरीब,मध्यम और निम्न मध्यम वर्गीय अभिभावकों और उनके बच्चों में हीन भावना पैदा होती  है  । 
     हमने सुना है कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में ऐसी विसंगतियों को दूर करने का अच्छा प्रयास किया है । यह भी बताया जाता है कि दिल्ली सरकार ने शासकीय स्कूलों को निजी क्षेत्र के स्कूलों की तरह शानदार भवनों और शैक्षणिक उपकरणों की भी व्यवस्था की है ।
       सरकारी क्षेत्र में  जवाहर नवोदय विद्यालयों को ' रोल मॉडल'  के रूप लिया जा सकता है ,लेकिन ये मात्र अपवाद हैं । काश कि सभी सरकारी स्कूल सुविधाओं के मामले में निजी क्षेत्र के सितारा होटल जैसे स्कूलों की तरह न सही ,कम से कम  जवाहर नवोदय विद्यालयों जैसे तो  हो जाएं ।
       -- स्वराज करुण

((ग़ज़ल ) आज़ादी ...?

सभी मित्रों को आज़ादी के महापर्व और रक्षाबन्धन  की हार्दिक शुभेच्छाएँ ।   स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर 36 साल पहले दैनिक ' देशबन्धु ' में प्रकाशित मेरी एक रचना । कृपया इसे देश की तत्कालीन सामाजिक -आर्थिक परिस्थितियों के  परिप्रेक्ष्य में देखें और पढ़ें । निश्चित रूप से इन 36 वर्षों में परिस्थितियाँ काफी कुछ बदली हैं और पहले की तुलना में लोगों के जीवन स्तर में भी सुधार आया है । इसके बावज़ूद  विकास की तीव्र गति वाली दौड़ में करोड़ों लोग पीछे रह गए हैं । देश के कई कोनों में  आर्थिक विषमताओं  का अँधेरा आज भी कायम है ।उन्हीं विषमताओं के अँधकार से घिरे लोगों के दर्द को अभिव्यक्त करने की कोशिश  है मेरी यह रचना ।

Tuesday, August 13, 2019

(आलेख) चाँदनी को है रौशनी का इंतज़ार !


                              - स्वराज करुण
  जिस चिकने -चौड़े  राष्ट्रीय राजमार्ग पर चमचमाती मोटर गाडियाँ तूफ़ानी रफ़्तार से दिन - रात  भागती -दौड़ती रहती हैं ,उसके ठीक  एक किनारे पर कभी -भी आ धमकने वाले हादसों से बेपरवाह  कुछ गरीब परिवार झोपड़ियाँ बनाकर मेहनत -मज़दूरी करते हुए  किसी तरह गुज़र - बसर कर रहे हैं ।  इन्हीं में से एक है चाँदनी का परिवार । वह छत्तीसगढ़ के  घुमन्तू देवार समुदाय की है ।
      नाम चाँदनी ,लेकिन घर में भी और जीवन में भी अँधेरा  ही अँधेरा । उसे इंतज़ार है -विकाश की उस रौशनी का ,जो  उसके परिवार को   छोटा ही सही   लेकिन एक पक्का मकान दिलवा दे ,जिसमें बिजली की भी  रौशनी हो ,पानी की उचित व्यवस्था हो । चाँदनी की तरह ज्योति भी अपने परिवार के लिए वर्षो से यह सपना देख रही है । यहाँ पर देवार समुदाय के अलावा  कुछ अन्य समुदायों के गरीब परिवार भी  झुग्गी बनाकर वर्षों से बसे हुए हैं । इन सबका सपना है कि उनका अपना एक मकान हो ।
       देवार परिवारों के पुरुष अपनी सायकलों के कैरियर के दोनों ओर प्लास्टिक की बड़ी - बड़ी थैलियाँ बाँधकर शहर में दिन भर टिन -टप्पर और दूसरी तरह के कबाड़ ,प्लास्टिक की पन्नी आदि बीनते हैं और कबाड़ियों के पास बेचकर कुछ कमाई कर लेते हैं । ऐसा करके ये लोग शहर की साफ़ -सफ़ाई में भी अप्रत्यक्ष रूप से ही सही ,मददगार तो साबित हो रहे हैं । कुछ पुरुष पेंटर और मोटर मिस्त्री भी हैं । इस झोपड़ -पट्टी में लगभग चालीस -पचास परिवारों का बसेरा है । कुछ के मकान कच्चे और कुछ  अधपके हैं । कुछ घरों में बिजली का कनेक्शन है तो कुछ में नहीं ।  निस्तारी सुविधा का कोई ठिकाना नहीं ।
     चाँदनी की  छोटी -सी झोपड़ी में बिजली कनेक्शन का तो सवाल ही नहीं उठता ।जहाँ पैर फैलाकर सोना या फिर कुछ आराम से बैठ पाना हमारे - आपके लिए मुमकिन नहीं ,उसी झोपड़ी में चाँदनी अपने पति बुधारू और बच्चों के साथ रहती है । अगर भारी बरसात हुई तो बहुत तकलीफ़ हो जाती है । झोपड़ी में पानी भर जाता है ।तब  ये लोग बाजू में नगर निगम के शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के बरामदे में शरण लेते हैं ।
    चाँदनी बताती हैं -  बरसात की रातें  तो उस परछी में किसी तरह कट जाती हैं ,लेकिन सुबह होते ही जब  कॉम्प्लेक्स की दुकानों के शटर उठाए जाते हैं ,तब दुकानदार उन्हें डपट कर भगा देते हैं । इस कॉम्प्लेक्स में मोटर मैकेनिक और ऑटोपार्ट्स बेचने वालों की छोटी -छोटी दुकानें हैं ।  अपनी दुकान के चबूतरे या बरामदे में किसी परिवार को आश्रय देने पर कारोबार में रुकावट आती है ।इसलिए उन्हें  वहाँ से हटाना उनकी  मज़बूरी है।
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    श्रमजीवी गरीबों की यह झुग्गी बस्ती रायपुर नगर निगम के मठपुरैना वार्ड में सरकारी स्कूलों के बगल में ही है ,लेकिन यहाँ के अधिकांश बच्चे स्कूल नहीं जाते ।  मेरी मुलाकात जिन दस -पन्द्रह बच्चों से हुई ,उनमें  दो भाई - बहन राहुल और सानिया नेताम भी थे ।  राहुल सातवीं और सानिया पाँचवी कक्षा में है । दोनों की तमन्ना इंजीनियर बनने की है। उनके पिता श्यामलाल नेताम किसी मोटर गैरेज में काम करते हैं । बातचीत में सानिया काफी होशियार लगी । उसने बताया कि चौथी कक्षा वह प्रथम श्रेणी याने कि  ए -ग्रेड में पास हुई है ।  स्कूल में दोपहर का भोजन मिलता है । एक पुस्तक स्कूल से मिली है बाकी किताबें हमने दुकान से खरीदी है ।
    यह पूछने पर कि उसके अगल-बगल की झुग्गियों में रहने वाले बहुत - से बच्चे स्कूल क्यों नहीं जाते ,सानिया कहती है -इन्हें कितना भी समझाओ ,पढ़ने में इनका मन लगता ही नहीं । दिन भर स्कूल के पास ही खेलते -टहलते रहते हैं ।  इनके माता -पिता भी ध्यान नहीं देते ।सानिया का एक कमरे का   घर हालांकि कुछ कच्चा है लेकिन दूसरों से कुछ ठीक है ,फिर भी उसके बताए अनुसार बरसात में छत टपकती है  और कमरे में पानी भर जाने पर रात भर जागना पड़ता है । सानिया यह भी बताती है कि इस बस्ती को ' डेरा पारा ' बोला जाता है । यह नाम 'देवार डेरा'   के कारण पड़ा है ।
  सानिया के पास खड़ी एक नन्हीं -सी बच्ची वर्षा पहली कक्षा में है ।  उसके सपनों के बारे में पूछने पर मुस्कुराते हुए बोली -बड़ी होकर मैं पुलिस बनूंगी। तीसरी कक्षा की रुखसाना भी पुलिस बनना चाहती है ।वर्षा के पिता समारू नेताम भी कचरा बीनने का काम करते हैं । गोली का ग्यारह साल का बेटा करण और दुकालू का दस साल का बेटा नियम स्कूल नहीं जाते । मेरे ख़्याल से अगर अध्यापक गण इस झुग्गी बस्ती में नियमित रूप से आकर बच्चों के अभिभावकों को समझाएं तो सभी बच्चे स्कूल जाने लगेंगे ।  शिक्षकों को उनसे सम्पर्क करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए ,क्योंकि गरीबों की यह बस्ती उनके स्कूल से बमुश्किल 50 कदम पर  है ।  बशर्ते अध्यापक इसे अपनी एक नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी मानकर ऐसा करें ।
     झोपड़ पट्टी की महिलाओं ने बताया कि  वहाँ निवास कर रहे  परिवारों में से कुछ के राशन कार्ड हैं ,वोटर कार्ड और  आधार कार्ड भी बन गए हैं। इन्हें सरकारी आवास योजना का लाभ मिल जाए तो ये इस बदतर स्थिति से उबर सकते हैं ।  कई महिलाओं ने बताया कि एक बार तहसील ऑफिस से कोई अधिकारी आए थे ।उन्होंने  पट्टे के लिए  फार्म भी भरवाया था ,लेकिन अब तक  कुछ नहीं हुआ ।
      -स्वराज करुण

Monday, August 12, 2019

(आलेख ) गौमाता को मिलना चाहिए ' राष्ट्रीय पशु ' का दर्जा

                           -स्वराज करुण 
            हमें अत्यंत शांत ,शालीन , सौम्य और अहिंसक 'गौमाता'को राष्ट्रीय पशु घोषित करना चाहिए । अभी तो हमारे यहाँ बेहद बेरहम और खूँखार जानवर बाघ को राष्ट्रीय पशु का दर्जा प्राप्त है ।  इस हिंसक जानवर को यह सम्मान वर्ष 1973 से मिला हुआ है । इसके पीछे बाघ को विलुप्तप्राय वन्य जीव मानकर उसके संरक्षण की दलील दी जाती है ।  जहाँ तक संरक्षण का सवाल है ,आप उसे जंगलों  में, अभयारण्यों में  संरक्षण देते रहिए ।
     
    लेकिन जो पशु हमें दूध ,घी ,दही ,मही जैसे पौष्टिक द्रव्यों से उत्तम स्वास्थ्य और ऊर्जा प्रदान करे , जिसकी सन्तान के रूप में बैल हमारी खेती के काम आते हों और इन सब कारणों  से हमारे देश में हजारों साल से गौमाता के रूप में जिसकी पूजा होती चली आ रही है  , आम जन मानस में जिसकी छवि एक माता के रूप में है , जिसके बारे में हमने अपने बचपन की स्कूली किताबों में पढ़ा है कि 'गाय  हमारी माता है ' क्या उस  गौ माता' को राष्ट्रीय पशु का दर्जा नहीं मिलना चाहिए ?  अगर नहीं तो क्यों ? कोई ठोस कारण तो बताए ?
        मेरे खयाल से गौमाता को राष्ट्रीय पशु घोषित कर हमें उसके संरक्षण के लिए हर संभव कदम उठाना चाहिए । अगर सरकारी तौर पर गौ माता को राष्ट्रीय पशु के रूप में मान्यता मिल जाए तो उसे  कचरे के ढेर पर प्लास्टिक ,पॉलीथिन और इस प्रकार के नुकसानदायक पदार्थों को खाने से बचाया जा सकेगा । उसके लिए चारे -पानी की उचित व्यवस्था हो सकेगी ।
     चूंकि तब वह राष्ट्रीय पशु होगी ,इसलिए  उसके संरक्षण के भी ठीक वैसे ही कठोर  कानूनी  प्रावधान  होंगे ,जैसे  वर्तमान में 'बाघ ' के लिए है । इससे गोवंश का भी समुचित संरक्षण और संवर्धन हो सकेगा । गोवंश के गोबर से जैविक खाद बनेगी ,जिससे खेतों की उर्वरकता बढ़ेगी और  शुद्ध अनाज पैदा होगा । रसोईघरों के लिए बायोगैस मिलेगी और  गोमूत्र से पर्याप्त मात्रा में स्वास्थ्यवर्धक औषधियाँ बनायी जा सकेंगी ।
          -स्वराज करुण
(फोटो : इंटरनेट से साभार )
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