Friday, November 1, 2024

छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य ;कितना पुराना है इतिहास? आलेख --- स्वराज्य करुण

छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य ;कितना पुराना है इतिहास? *तथ्यों और तर्कों के आईने में तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें ( आज एक नवम्बर को छत्तीसगढ़ राज्य स्थापना दिवस पर विशेष .यह आलेख स्थापना दिवस के एक दिन पहले 31 अक्टूबर 2022 को दैनिक 'चैनल इंडिया 'में प्रकाशित हुआ था) भारत के प्रत्येक राज्य और वहाँ के प्रत्येक अंचल की अपनी भाषाएँ ,अपनी बोलियाँ ,अपना साहित्य ,अपना संगीत और अपनी संस्कृति होती है । ये रंग -बिरंगी विविधताएँ ही भारत की राष्ट्रीय पहचान है ,जो इस देश को एकता के मज़बूत बंधनों में बांध कर रखती है। छत्तीसगढ़ भी एक ऐसा भारतीय राज्य है , जो अपनी भाषा ,अपने साहित्य और अपनी विविधतापूर्ण लोक संस्कृति से सुसज्जित और समृद्ध है। भाषाओं और बोलियों का भी अपना एक प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष साहित्यिक और सांस्कृतिक इतिहास होता है। छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य का भी अपना एक समृद्ध इतिहास है ,लेकिन यह इतिहास कितना पुराना है, इसे जानने और समझने के लिए मेरे विचार से प्रदेश के तीन विद्वान लेखकों की महत्वपूर्ण पुस्तकों का अध्ययन बहुत ज़रूरी हो जाता है , जो लगभग आधी सदी पहले लिखी गयी थीं । पहली पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास' हिंदी भाषा में डॉ. नरेंद्र देव वर्मा की महत्वपूर्ण कृतियों में शामिल एक मूल्यवान धरोहर है। हिंदी में दूसरी पुस्तक है श्री नंदकिशोर तिवारी द्वारा लिखी गयी 'छत्तीसगढ़ी साहित्य ,दशा और दिशा तथा तीसरी किताब है डॉ. विनय कुमार पाठक द्वारा रचित 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार' जो शीर्षक से ही स्पष्ट है कि सरल छत्तीसगढ़ी में लिखी गयी है। तीनों लेखकों ने अपनी इन पुस्तकों में छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के क्रमिक विकास पर गहन अध्ययन प्रस्तुत किया है। उन्होंने विषय प्रवर्तन , विश्लेषण और प्रस्तुतिकरण बहुत परिश्रम के साथ अपने -अपने तरीके से किया है। तीनों के अपने -अपने तर्क हैं और संकलित तथ्यों को देखने का अपना -अपना नज़रिया है। लेकिन यह तय है कि तीनों किताबों में प्रस्तुत तथ्यों और तर्को के आईने में छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के इतिहास को उसकी प्राचीनता के अलग -अलग रंगों के साथ बड़ी खूबसूरती से उभारा गया है। किसी भी राज्य ,देश और वहाँ के साहित्यिक -सांस्कृतिक इतिहास को लेकर विद्वानों में अलग -अलग अभिमतों का होना कोई नयी बात नहीं है। ऐसा होना बहुत स्वाभाविक है। ये मत -विभिन्नताएँ इन पुस्तकों में भी झलकती हैं। श्री तिवारी और डॉ. पाठक ने अपनी पुस्तकों में उल्लेखित कुछ तथ्यों में डॉ. नरेंद्र देव वर्मा का भी संदर्भ दिया है। लेकिन दोनों ही डॉ. वर्मा के कुछ तथ्यों से सहमत नज़र नहीं आते। डॉ. वर्मा और डॉ. पाठक अपनी पुस्तकों में छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के इतिहास को एक हज़ार साल से ज्यादा पुराना मानते हैं । उनकी यह मान्यता छत्तीसगढ़ी के मौखिक और लिखित साहित्य को लेकर है। डॉ. वर्मा और डॉ. पाठक के दृष्टिकोण से कबीरपंथ के संत धरम दास छत्तीसगढ़ी भाषा के (लिखित साहित्य) के प्रथम कवि थे जबकि श्री नंदकिशोर तिवारी ऐसा नहीं मानते। उनका कहना है कि सन 1472 में बांधो गढ़ (विंध्यप्रदेश) में जन्मे संत धरमदास छत्तीसगढ़ के कवर्धा आकर कबीरपीठ की स्थापना की थी ,लेकिन उनके पदों में बघेली और अवधी का प्रभाव है ,छत्तीसगढ़ी का नहीं। मेरे विचार से तीनों विद्वानों की राय चाहे जो भी हो ,लेकिन इसमें दो राय नहीं कि उनकी तीनों पुस्तकें छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य की प्राचीनता का गंभीर और व्यापक विश्लेषण करती हैं । उनका यह विश्लेषण मुख्य रूप से मध्यवर्ती छत्तीसगढ़ में प्रचलित भाषा और उसके साहित्य पर केन्द्रित है। छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास **************** डॉ. नरेंद्र देव वर्मा हिंदी साहित्य और भाषा विज्ञान में एम.ए. होने के साथ इन विषयों में पी-एच.डी. भी थे। उनकी पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास' एक शोध -प्रबंध है। उन्होंने 1973 में पण्डित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर में पी-एच.डी. की उपाधि के लिए भाषा वैज्ञानिक अध्ययन के आधार पर इसे लिखा था। पुस्तक के रूप में इसे छत्तीसगढ़ राज्य हिंदी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 2009 में प्रकाशित किया गया। यह पुस्तक लगभग 380 पृष्ठों की है।अपने इस शोध-प्रबंध में डॉ. वर्मा ने अनेक प्रसिद्ध भाषाविज्ञानियों को संदर्भित करते हुए पूर्वी हिंदी समूह के अंतर्गत जहाँ अवधी और बघेली के साथ छत्तीसगढ़ी की तुलना की है ,वहीं छत्तीसगढ़ी भाषा का वर्गीकरण करते हुए उन्होनें यहाँ प्रचलित आंचलिक बोलियों का भी व्याकरणिक अध्ययन प्रस्तुत किया है। पूर्वी हिंदी क्षेत्र की प्रमुख भाषा ****************** डॉ. वर्मा छत्तीसगढ़ी ,अवधी और बघेली के तुलनात्मक अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि छत्तीसगढ़ी पूर्वी हिंदी क्षेत्र की एक प्रमुख भाषा है । उन्होंने यह शोध -प्रबंध 32 अध्यायों में लिखा है। इनमें छत्तीसगढ़ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि छत्तीसगढ़ी का विकास ,छत्तीसगढ़ की बोलियाँ, छत्तीसगढ़ी का शब्द -समूह ,छत्तीसगढ़ी विषयक साहित्य , छत्तीसगढ़ी के स्वर , स्वर-परिवर्तन, छत्तीसगढ़ी स्वरों की उतपत्ति ,व्यंजन -परिवर्तन, छत्तीसगढ़ी व्यंजनों की उतपत्ति ,संज्ञा की रचना ,समास ,कारक-रचना जैसे अध्याय शामिल हैं ,जो छत्तीसगढ़ी भाषा , व्याकरण और साहित्य से जुड़े तथ्यों पर क्रमबद्ध रौशनी डालते हैं। डॉ. वर्मा लिखते कि छत्तीसगढ़ी से उनका तात्पर्य रायपुर ,बिलासपुर और दुर्ग में बोली जाने वाली छत्तीसगढ़ी से है ।रायपुर और बिलासपुर की छत्तीसगढ़ी में उच्चारण एवं कतिपय शब्द-प्रयोगों का ही भेद है। उन्होंने छत्तीसगढ़ी के अलावा प्रदेश में प्रचलित खल्ताही,सरगुजिहा, लरिया,सदरी कोरवा ,बैगानी, बिंझवारी ,कलंगा ,भूलिया, बस्तरी(हल्बी) बोलियों की भी व्याकरणिक विवेचना की है। नवीं-दसवीं शताब्दी में हुआ था छत्तीसगढ़ी और अवधी का जन्म ********* अध्याय -5 में डॉ. नरेंद्र देव वर्मा लिखते हैं - छत्तीसगढ़ी और अवधी ,दोनों का जन्म अर्ध -मागधी के गर्भ से आज से लगभग 1156 वर्ष पूर्व नवीं- दसवीं शताब्दी में हुआ था।इस एक सहस्त्र वर्ष के सुदीर्घ अंतराल में छत्तीसगढ़ी और अवधी पर अन्य भाषाओं के प्रभाव भी पड़े तथा इनका स्वरूप पर्याप्त परिवर्तित हो गया। डॉ. वर्मा ने छत्तीसगढ़ी साहित्य के इतिहास को तीन चरणों में विभाजित किया है -(1) गाथा युग : 1000 से 1500 ईस्वी (2)भक्ति युग : 1500 से 1900 ईस्वी और आधुनिक युग :1900 ईस्वी से आज तक। उन्होंने भक्ति युग के प्रमुख कवियों में संत धरम दास और सतनाम पंथ के प्रवर्तक संत गुरु घासीदास जी की कुछ रचनाओं का भी उल्लेख किया है। इसी अध्याय में डॉ. वर्मा ने आधुनिक युग के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी कविता और गद्य साहित्य के विकास की भी चर्चा की है। हीरालाल काव्योपाध्याय थे छत्तीसगढ़ी के प्रथम कथा -लेखक *********** पुस्तक के 5वें अध्याय में गद्य-खण्ड के अंतर्गत डॉ. नरेंद्र देव वर्मा ने अनेक प्रमुख साहित्यकारों की छत्तीसगढ़ी कहानियों ,उपन्यासों और नाटकों का भी उल्लेख किया है। गद्य साहित्य के अंतर्गत डॉ. वर्मा लिखते हैं -" छत्तीसगढ़ी गद्य का सक्रिय इतिहास हीरालाल काव्योपाध्याय द्वारा लिखित छत्तीसगढ़ी व्याकरण से प्रारंभ होता है,जिसे सन 1890 में जार्ज ए. ग्रियर्सन ने सम्पादित और अनूदित कर कलकत्ता के बैप्टिस्ट मिशन प्रेस से छपवाया। "डॉ. वर्मा के अनुसार -- "छत्तीसगढ़ी में हीरालाल काव्योपाध्याय ने ही सर्वप्रथम कथा -लेखन का श्रीगणेश किया था।उनके व्याकरण -ग्रंथ में 'श्रीराम की कथा ',ढोला की कहानी' और 'चंदैनी की कहानी 'निबद्ध है । काव्योपाध्याय के इस ग्रंथ ने छत्तीसगढ़ी गद्य के इतिहास का ही सूत्रपात नहीं किया, प्रत्युत छत्तीसगढ़ी कथा का भी पौरोहित्य किया ,तथा छत्तीसगढ़ी नाटक के आरंभ के सूत्र भी उक्त पुस्तक के संवादों में छिपे हुए हैं।" उपन्यासकार और कवि भी थे डॉ. नरेंद्र देव वर्मा ************** छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. नरेंद्र देव वर्मा का जन्म महाराष्ट्र के वर्धा में 4 नवम्बर 1939 को और निधन 8 सितम्बर 1979 को गृहनगर रायपुर (छत्तीसगढ़) में हुआ। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण परिवेश पर केन्द्रित उनका उपन्यास 'सुबह की तलाश ' 1970 के दशक में राष्ट्रीय स्तर पर काफी चर्चित रहा। उनकी लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी रचना 'अरपा पैरी के धार ..महानदी हे अपार' को छत्तीसगढ़ सरकार ने 'राज्य गीत' का दर्जा देकर सम्मानित किया है । डॉ. वर्मा छत्तीसगढ़ के साहित्यिक भण्डार को अपनी रचनाओं की अनमोल धरोहर से समृद्ध करते हुए मात्र 40 वर्ष की अल्पायु में ही इस भौतिक संसार से चले गए। छत्तीसगढ़ी साहित्य के इतिहास को हिंदी में समझने के लिए डॉ. वर्मा द्वारा लिखित 'छत्तीसगढ़ी साहित्य का उद्विकास ' एक ज्ञानवर्धक पुस्तक है। छत्तीसगढ़ी साहित्य : दशा और दिशा *********** छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के उत्थान के लिए समर्पित बिलासपुर निवासी श्री नंदकिशोर तिवारी ने भी अपनी पुस्तक में छत्तीसगढ़ी काव्य -साहित्य की विकास यात्रा को प्रथम ,द्वितीय और तृतीय उन्मेष में वर्गीकृत करते हुए अपना सारगर्भित विश्लेषण प्रस्तुत किया है। लेकिन वह डॉ. नरेंद्र देव वर्मा द्वारा छत्तीसगढ़ी साहित्य के इतिहास के काल निर्धारण से सहमत नहीं लगते। श्री तिवारी ने 215 पृष्ठों की अपनी इस पुस्तक की शुरुआत 'छत्तीसगढ़ी काव्य साहित्य :प्रथम उन्मेष ' शीर्षक से की है। हम इसे पुस्तक का पहला अध्याय कह सकते हैं। उन्होंने इसमें लिखा है कि छत्तीसगढ़ में देर से आयी मातृभाषा प्रेम के नवजागरण की चेतना ने कई भूलें की। उनके अनुसार पहली भूल थी - डॉ. नरेंद्र देव वर्मा ने छत्तीसगढ़ी साहित्य का हिंदी की तर्ज पर गाथा युग -विक्रम संवत 1000 से 1500,भक्ति युग विक्रम संवत 1500 से 1900 और आधुनिक युग 1900 से आज तक में विभाजित किया है।इस विभाजन काल की रचनाओं में छत्तीसगढ़ी लोक - गाथाओं को शामिल किया गया । संवत 1100 से 1500 तक छत्तीसगढ़ी में अनेक गाथाओं की रचना हुई ,जिनमें प्रेम तथा वीरता का अपूर्व विन्यास हुआ है।यद्यपि इन गाथाओं की लिपिबद्ध परम्परा नहीं रही है तथा ये पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से अभिरक्षित होती आयी हैं। श्री तिवारी लिखते हैं --तर्क किया जा सकता है कि हिंदी साहित्य के इतिहास में भी लोक -गाथाओं को शामिल किया गया है । इस तरह तर्क करने वालों को समझना चाहिए कि हिंदी 'रासो' काव्य की अपनी परम्परा थी। 'रासो' राज दरबारों से जन -दरबार में आए।इस परम्परा की सभी रचनाओं के साथ लेखक का नाम जुड़ा है। वे लोक-कंठ से निः सृत न होकर कवियों की लेखनी से निःसृत हुईं और लोक -कंठ में समा गयीं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि वाचिक परम्परा में निःसृत लोक -गाथाओं को लिखित शिष्ट साहित्य की परम्परा में कैसे परिगणित किया जा सकता है? और कंठ-दर-कंठ गूँजते व गायक की मानसिकता ,स्थान आदि के प्रभाव से नित -नित परिवर्तित होते किस रूप को हम साहित्य में मान्यता देंगे?हमें शिष्ट-साहित्य और लोक- साहित्य में उनकी मर्यादा और परम्परा को समझना होगा। छत्तीसगढ़ी कविता के विकास को श्री तिवारी ने ' छत्तीसगढ़ का काव्य साहित्य 'के अंतर्गत क्रमशः प्रथम ,द्वितीय और तृतीय उन्मेष में वर्गीकृत किया है ।अपनी इस पुस्तक में श्री तिवारी ने छत्तीसगढ़ी भाषा के उपन्यास ,कहानी और नाट्य लेखन सहित महिलाओं के लेखन और छत्तीसगढ़ी के अनुवाद साहित्य की भी चर्चा की है। श्री नंदकिशोर तिवारी का जन्म 19 जून 1941 को बिलासपुर में हुआ था। हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त श्री तिवारी सम्प्रति अपने गृहनगर बिलासपुर में विगत कई वर्षों से 'छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर'नामक त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ी साहित्य और साहित्यकारों पर केन्द्रित उनकी कई पुस्तकें छप चुकी हैं । इनमें 'छत्तीसगढ़ी साहित्य का ऐतिहासिक अध्ययन' भी शामिल है।उन्होंने पण्डित मुकुटधर पाण्डेय और हरि ठाकुर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर पुस्तकें लिखी हैं ,वहीं डॉ. नरेंद्र देव वर्मा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित एक पुस्तक का सम्पादन भी किया है। उनके सम्पादन में पण्डित लोचन प्रसाद पाण्डेय के पुरातात्विक लेखों का एक प्रामाणिक संग्रह 'कौशल -कौमुदी ' शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। श्री तिवारी की पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी साहित्य :दशा और दिशा' वैभव प्रकाशन रायपुर द्वारा वर्ष 2006 में प्रकाशित की गयी थी। छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार *********************** डॉ. विनय कुमार पाठक की पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार' लगभग 106 पृष्ठों की 17 सेंटीमीटर लम्बी और 11 सेंटीमीटर चौड़ी यह पुस्तक आकार में छोटी जरूर है ,लेकिन प्रकार में यह हमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल की याद दिलाती है ,जिन्हें हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन के लिए भी याद किया जाता है। उनकी एक पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार' का पहला संस्करण वर्ष 1971 में प्रकाशित हुआ था। प्रयास प्रकाशन बिलासपुर द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के क्रमिक विकास का एक ऐतिहासिक दस्तावेज है । छपते ही उन दिनों आंचलिक साहित्यकारों और साहित्य प्रेमियों के बीच इसकी मांग इतनी बढ़ी कि दूसरा और तीसरा संस्करण भी छपवाना पड़ा। दूसरा संस्करण 1975 में और तीसरा वर्ष 1977 में प्रकाशित हुआ था। पुस्तक का तीसरा संस्करण उन्होंने मुझे 18 अगस्त 1977 को भेंट किया था ,जब वह आरंग के शासकीय महाविद्यालय में प्राध्यापक थे।वहाँ रहते हुए उन्होंने स्थानीय कवियों की रचनाओं का एक छोटा संकलन 'आरंग के कवि ' शीर्षक से सम्पादित और प्रकाशित किया था। बिलासपुर में 11 जून 1946 को जन्मे डॉ. पाठक छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के अध्यक्ष रह चुके हैं। वह हिन्दी और भाषा-विज्ञान में पी-एच . डी. तथा ङी. लिट् की उपाधियाँ प्राप्त वरिष्ठ साहित्यकार हैं। इन दिनों वह अपने जन्म स्थान और गृहनगर बिलासपुर में साहित्य साधना और समाज-सेवा में लगे हुए हैं। उनके शोध -ग्रंथों में 'छत्तीसगढ़ी साहित्य का सांस्कृतिक अनुशीलन ' और छत्तीसगढ़ी में प्रयुक्त परिनिष्ठित हिंदी और इतर भाषाओं के शब्दों में अर्थ -परिवर्तन' भी उल्लेखनीय हैं। डॉ. पाठक ने अपनी पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार' में छत्तीसगढ़ी साहित्य के क्रमबद्ध विकास को अलग -अलग कालखण्डों में रेखांकित किया है। आत्माभिव्यक्ति के तहत डॉ. पाठक ने लिखा है कि इस कृति में स्पष्ट रूप से दो खण्ड हैं, जिसमें पहला खण्ड साहित्य का है और दूसरा साहित्यकारों का। वह लिखते हैं --"कई झन बिदवान मन छत्तीसगढ़ी साहित्य ल आज ले दू-तीन सौ बरिस तक मान के ओखर कीमत आंकथे। मय उन बिदवान सो पूछना चाहूं के अतेक पोठ अउ जुन्ना भाषा के साहित्य का अतेक नवा होही ? ए बात आने आए के हम ला छपे या लिखे हुए साहित्य नइ मिलै,तभो एखर लोक साहित्य ल देख के अनताज (अंदाज ) तो लगाए जा सकत हे के वो कोन जुग के लेखनी आय ! छत्तीसगढ़ी के कतकोन कवि मरगें ,मेटागें ,फेर अपन फक्कड़ अउ सिधवा सुभाव के कारन ,छपास ले दूरिया रहे के कारन रचना संग अपन नांव नइ गोबिन। उनकर कविता ,उनकर गीत आज मनखे -मनखे के मुंहूं ले सुने जा सकत हे। उनकर कविता म कतका जोम हे ,एला जनैयेच मन जानहीं।" शब्द सांख्यिकी नियम से हुआ काल निर्धारण ************** डॉ. पाठक ने लिखा है कि शब्द सांख्यिकी का नियम लगाकर ,युग के प्रभाव और उसकी प्रवृत्ति को देखकर कविता लेखन के समय का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। 'डॉ. नरेंद्र देव वर्मा' ने शब्द सांख्यिकी नियम लगा कर बताया है कि पूर्वी हिन्दी (अवधी)से छत्तीसगढ़ी 1080 साल पहले नवमी -दसवीं शताब्दी में अलग हो चुकी थी । पुस्तक में डॉ. वर्मा को संदर्भित करते हुए छत्तीसगढ़ी साहित्य के विकास का काल निर्धारण भी किया है,जो इस प्रकार है -- मौखिक परम्परा (प्राचीन साहित्य )--आदिकाल (1000 से 1500वि) -- चारण काल (1000 से 1200 वि)-- वीरगाथा काल (1200 से 1500 तक ),फिर मध्यकाल(1500 से 1900 वि),फिर लिखित परम्परा यानी आधुनिक साहित्य (1900 से आज तक )फिर आधुनिक काल में भी प्रथम उन्मेष (1900 से 1955 तक )और द्वितीय उन्मेष (1955 से आज तक )। आदिकाल के संदर्भ में डॉ. विनय पाठक लिखते हैं --इतिहास के पन्ना ल उल्टाये ले गम मिलथे के 10 वीं शताब्दी ले 12वीं शताब्दी तक हैहयवंशी राजा मन के कोनो किसिम के लड़ाई अउ बैर भाव नइ रिहिस।उनकर आपुस म मया भाव अउ सुमता दिखथे। ए बीच बीरगाथा के रचना होना ठीक नई जान परै।ओ बखत के राजा मन के राज म रहत कवि मन के जउन राजा के बीरता ,गुनानवाद मिलथे (भले राजा के नांव नइ मिलै)।ओ अधार ले एला चारण काल कहि सकत हन । बारहवीं शताब्दी के छेवर-छेवर मा इन मन ल कतको जुद्ध करना परिस ।ये तरह 12 वीं शताब्दी के छेवर -छेवर ले 1500 तक बीर गाथा काल मान सकत हन।ये ही बीच बीरता ,लड़ाई ,जुद्ध के बरनन होइस हे, एमा दू मत नइये। डॉ. पाठक वर्ष 1000 से 1500 तक को आदिकाल या वीरगाथा काल के रूप में स्थापित किए जाने के डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के विचार को आधा ठीक और आधा गलत मानते हैं। उन्होंने आगे लिखा है --"गाथा बिसेस के प्रवृति होय के कारण ये जुग ल गाथा युग घलो कहे जा सकत हे।एमा मिलत प्रेमोख्यान गाथा म अहिमन रानी ,केवला रानी असन अबड़ कन गाथा अउ धार्मिक गाथा म पंडवानी, फूलबासन ,असन कई एक ठो गाथा ल ए जुग के रचना कहे अउ माने जा सकत हे। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ह 1000 ले 1500 तक के जुग ल आदिकाल या बीरगाथा काल कहे हे ,जउन ह आधा ठीक अउ आधा गलत साबित होथे। " छत्तीसगढ़ी के प्रथम कवि धरम दास ************ आगे डॉ. पाठक ने छत्तीसगढ़ी साहित्य के विकास क्रम में मध्यकाल और आधुनिक साहित्य से जुड़े तथ्यों की चर्चा की है। उन्होंने मध्यकालीन साहित्य में भक्ति धारा के प्रवाहित होने के प्रसंग में लिखा है कि संत कबीरदास के शिष्य धरम दास को छत्तीसगढ़ी का पहला कवि माना जा सकता है। डॉ. पाठक लिखते हैं -- "राजनीति के हेरफेर अउ चढ़ाव -उतार के कारन समाज म रूढ़ि ,अंधविश्वास के नार बगरे के कारन ,मध्यकाल म लोगन के हिरदे ले भक्ति के धारा तरल रउहन बोहाये लागिस।वइसे तो इहां कतको भक्त अउ संत कवि होगे हें ,फेर उंकर परमान नइ मिल सके के कारन उनकर चरचा करना ठीक नोहय।कबीरदास के पंथ ल मनैया कवि मन के अतका परचार-परसार होय के कारन इहां कबीरपंथ के रचना अबड़ मिलथे। एही पंथ के रद्दा म रेंगइया कबीरदास के पट्ट चेला धरम दास ल छत्तीसगढ़ी के पहिली कवि माने जा सकत हे।घासीदास के पंथ के परचार के संग संग कतको रचना मिलथे ,जउन हर ये जुग के साहित्य के मण्डल ल भरथे। " छत्तीसगढ़ी में कहानी ,उपन्यास ,नाटक और एकांकी ,निबंध और समीक्षात्मक लेख भी खूब लिखे गए हैं। अनुवाद कार्य भी खूब हुआ है। पुस्तक की शुरुआत डॉ. पाठक ने 'छत्तीसगढ़ी साहित्य' के अंतर्गत गद्य साहित्य से करते हुए यहाँ के गद्य साहित्य की इन सभी विधाओं के प्रमुख लेखकों और उनकी कृतियों का उल्लेख किया है। डॉ. पाठक के अनुसार कुछ विद्वान छत्तीसगढ़ी गद्य का सबसे पहला नमूना दंतेवाड़ा के शिलालेख को बताते हैं ,जबकि यह मैथिली के रंग में रंगा हुआ है। आरंग का शिलालेख छत्तीसगढ़ी गद्य का पहला नमूना ************ अपनी इस पुस्तक में डॉ. पाठक ने लिखा है कि आरंग में मिले सन 1724 के शिलालेख को छत्तीसगढ़ी गद्य लेखन का पहला नमूना माना जा सकता है।इसका ठोस कारण ये है कि यह (आरंग)निमगा (शुद्ध )छत्तीसगढ़ी की जगह है और यह कलचुरि राजा अमर सिंह का शिलालेख है। सन 1890 में हीरालाल काव्योपाध्याय का 'छत्तीसगढ़ी व्याकरण ' छपकर आया ,जिसमें ढोला की कहानी और रामायण की कथा भी छपी है ,जिनकी भाषा मुहावरेदार और काव्यात्मक है।अनुवादों के प्रसंग में डॉ. पाठक ने एक दिलचस्प जानकारी दी है कि सन 1918 में पंडित शुकलाल प्रसाद पाण्डेय ने शेक्सपियर के लिखे 'कॉमेडी ऑफ एरर्स ' का अनुवाद 'पुरू झुरु' शीर्षक से किया था । पंडित मुकुटधर पाण्डेय ने कालिदास के 'मेघदूत' का छत्तीसगढ़ी अनुवाद करके एक बड़ा काम किया है।डॉ. पाठक की पुस्तक में 'छत्तीसगढ़ी साहित्य म नवा बिहान 'शीर्षक ' के अंतर्गत प्रमुख कवियों की कविताओं का भी जिक्र किया गया है। लिखित परम्परा की शुरुआत **************** छत्तीसगढ़ी साहित्य में आधुनिक काल की चर्चा प्रारंभ करते हुए अपनी इस पुस्तक में डॉ. पाठक कहते हैं-"कोनो बोली ह तब तक भाषा के रूप नइ ले लेवै ,जब तक ओखर लिखित परम्परा नइ होवै।" इसी कड़ी में उन्होंने आधुनिक काल के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी के लिखित साहित्य के प्रथम और द्वितीय उन्मेष पर प्रकाश डाला है। प्रथम उन्मेष में उन्होंने सन 1916 के आस -पास राजिम के पंडित सुन्दरलाल शर्मा रचित 'छत्तीसगढ़ी दानलीला 'सहित आगे के वर्षों में प्रकाशित कई साहित्यकारों की कृतियों की जानकारी दी है। सुराज मिले के पाछू नवा-नवा प्रयोग ***************** डॉ. पाठक ने पुस्तक में द्वितीय उन्मेष के अंतर्गत लिखा है - --"सुराज मिले के पाछू हिन्दी के जमों उप -भाषा अउ बोली डहर लोगन के धियान गिस।ओमा रचना लिखे के ,ओमा सोध करेके ,ओमा समाचार पत्र अउ पत्रिका निकारे के काम धड़ाधड़ सुरू होगे। छत्तीसगढ़ी म ए बीच जतका प्रकाशन होइस ,साहित्य म जतका नवा -नवा प्रयोग होइस ,ओखर ले छत्तीसगढ़ी के रूप बने लागिस,संवरे लागिस।अउ आज छत्तीसगढ़ी ह आने रूप म हमार आघू हावै। छत्तीसगढ़ी डहर लोगन के जउन रद्दी रूख रहिस ,टरकाऊ बानी रहिस ,अब सिराय लागिस। छत्तीसगढ़ी साहित्य ह अब मेला -ठेला ले उतरके लाइब्रेरी ,पुस्तक दुकान अउ ए .एच. व्हीलर इहां आगे। लाउडस्पीकर म रेंक के बेंचई ले उठके रेडियो, सिनेमा अउ कवि सम्मेलन तक हबरगे।गंवैहा मन के चरचा ले असकिटिया के 'काफी हाउस' अउ 'साहित्यिक गोष्ठी ' के रूप म ठउर जमा लिस। लोगन के सुवाद बदलगे, छत्तीसगढ़ के भाग पलटगे। " उन्होंने 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार' में 'द्वितीय उन्मेष' के तहत वर्ष 1950 से 1970 के दशक में प्रकाशित छत्तीसगढ़ी के अनेक कवियों के कविता -संग्रहों का उल्लेख करते हुए यह भी लिखा है कि वर्ष 1955 से एक वर्ष तक छपी और मुक्तिदूत द्वारा सम्पादित 'छत्तीसगढ़ी' मासिक पत्रिका ने एक अंक छत्तीसगढ़ी कविताओं का भी प्रकाशित किया था ,जिसमें 21 कवियों की रचनाएँ शामिल थीं। डॉ. पाठक ने' द्वितीय उन्मेष ' में छत्तीसगढ़ी भाषा के अनेक कवियों की चर्चा की है। साथ ही उन्होंने इनमें से 25 प्रमुख कवियों के काव्य गुणों का उल्लेख करते हुए उनकी एक -एक रचना भी प्रस्तुत की है । छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य की विकास यात्रा ने इतिहास के दुर्गम पथ पर चलते हुए अपने हर पड़ाव पर छत्तीसगढ़ का गौरव बढ़ाया है। इसका श्रेय उन सभी ज्ञात ,अल्प ज्ञात और अज्ञात कवियों और लेखकों को दिया जाना चाहिए ,जिनकी रचनाओं ने देश के साहित्यिक मानचित्र पर इस प्रदेश का नाम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित किया है।

Sunday, September 8, 2024

(पुस्तक- चर्चा ) माटी-महतारी से जुड़ी कविताएँ

एकान्त श्रीवास्तव का कविता -संग्रह 'अँजोर' ****** आलेख - स्वराज करुण **** छत्तीसगढ़ी नई कविताओं के हिंदी अनुवाद सहित एकान्त श्रीवास्तव का नया संग्रह 'अँजोर' अपने शीर्षक के अनुरूप कविता की दुनिया में नई रौशनी लेकर आया है। संग्रह में 42 छत्तीसगढ़ी कविताओं के साथ -साथ उनके हिन्दी अनुवाद भी दिए गए हैं। यानी एक पृष्ठ पर छत्तीसगढ़ी तो दूसरे पृष्ठ पर उसका हिंदी अनुवाद। देखा जाए तो यह उनका एक नया प्रयोग है।इन छत्तीसगढ़ी नई कविताओं का हिंदी अनुवाद भी स्वयं कवि एकान्त श्रीवास्तव ने किया है। हिंदी की सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका 'वागर्थ ' के नौ साल तक सम्पादक रहे एकान्त छत्तीसगढ़ में ही जन्मे और पले-बढ़े हैं। राजिम के पास ग्राम कोमा में उनका बचपन बीता। आगे चलकर वह भारत सरकार के राजभाषा विभाग में अधिकारी बने । फरवरी 2024 में सेवानिवृत्त हो चुके हैं। अभी दिल्ली में रहते हैं। हिंदी जगत के प्रसिद्ध कवि होने के साथ -साथ वह कहानीकार और समीक्षक भी हैं। छत्तीसगढ़ी भाषा में आधुनिक शैली की अतुकांत कविताएँ लिखने वालों की संख्या काफी कम है । ऐसे में एकान्त श्रीवास्तव की ये कविताएँ अनायास पाठकों का ध्यान आकर्षित करती हैं ,जो हमारी माटी-महतारी से जुड़ी हुई हैं।
प्रकाशन संस्थान ,नईदिल्ली द्वारा पिछले वर्ष 2023 में प्रकाशित उनका यह संग्रह 'अँजोर' 168 पृष्ठों का है, जिसे उन्होंने उन्हीं के शब्दों में कवि त्रिलोचन (शास्त्री ) की अवधी में रचित काव्य -कृति 'अमोला' को और छत्तीसगढ़ की मिट्टी ,जिसका नाम कन्हार है और इसके सीधे-सच्चे रहवासियों को और कोरोना काल में खो गए तमाम प्रियजनों और कवि -लेखक बंधुओं को याद करते हुए समर्पित किया है। चूंकि एकान्त छत्तीसगढ़ में जन्मे और यहाँ के ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े हैं , इसलिए उनके इस संग्रह में छत्तीसगढ़ के गाँवों की और यहाँ के लोकजीवन की सोंधी महक महसूस की जा सकती है। संग्रह में 'मनुख के गीत गाओ ' शीर्षक से 21 पृष्ठों की भूमिका जयप्रकाश ने लिखी है, जिसमें उन्होंने एकान्त की इन कविताओं के बारे में विस्तार से प्रकाश डाला है। कवि एकांत 'इन कविताओं के बारे में' शीर्षक अपने आत्मकथ्य में कहते हैं -"इनमें झाँक रहा गाँव एक भूला-बिसरा गाँव है ,जो अब आधा ही बचा है।कला या कविता उस आधे खो गये गाँव की खोज का ही रचनात्मक प्रयत्न है। उस गाँव और उस जीवन के साथ मूल्य भी पीछे छूट गये हैं,जो जीवन और सभ्यता के प्रत्येक समय आधार स्तंभ हैं।इस तरह परम्परा अधुनातन होती है । भारतीय संस्कृति के 'अग्राह्य' को त्यागकर ग्राह्य को स्वीकार करना ही कविता और समाज का धर्म है ।" कवि एकान्त के शब्दों में -"हिंदी की बड़ी कविता बोली की कविता है । " संग्रह में एकान्त की पहली छत्तीसगढ़ी कविता 'पियास ' (प्यास) का एक अंश देखिए - "फूल के रस ल फुलचुहकी पीथे /आँसू ल पीथे महतारी , मइनसे के लहू ल टोनही चुहकथे / गौंटिया ह पी थे गरीब के पछीना । कोन पानी ल पियँव के /माढ़ जाए मोरो पियास , कोन रद्दा जाँव / तैं मोला बता दे , कोन गाँव ,कही दे संगवारी । कुँवार के घाम म देहे करियागे /भुंजागे सब्बो बन -कांदी, अंतस के दोना म मया के पानी / एक घुटका पी लेतेंव त तर जातेंव । कवि ने वर्ष 2002 की अपनी इस कविता की इन पंक्तियों का हिंदी अनुवाद इस तरह किया है - "फूल के रस को फूलचुहकी पीती है , आँसू को पीती है माँ , जादूगरनी पीती है मानुष का रक्त , साहूकार पीता है गरीब का पसीना । कौन -सा जल पियूँ कि बुझ जाए मेरी भी प्यास , किस रास्ते जाऊँ कौन -सा गाँव ? मुझे तुम बता दो ओ संगी मेरे । कुँवार की धूप में काली पड़ गयी काया, जल गई घास और जंगल , तर जाता यदि एक घूँट पी लेता , हॄदय के दोने में प्रेम का जल ।" संग्रह 'अँजोर ' की कविताओं में हमारी ग्राम्य संस्कृति के साथ छत्तीसगढ़ के गाँवों की ज़िन्दगी जीवंत हो उठी है। इसमें एक छत्तीसगढ़ी कविता है 'मड़ई ' , यह किसी मड़ई की चहल -पहल के बीच खाली जेब घूमते ग्रामीण की सहज -सरल अभिव्यक्ति है ,जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं - "मड़ई म सकलाए हें गाँव भर के मइनखे, आए हें आन गाँव ले घलो , भंडार के गाँव अउ रकसहूँ के गाँव, उत्ती के गाँव अउ बुड़ती के गाँव, जुरे हें सब दिसा ले। कोदो के पाना ल चबाए हों अइसे, जानो, मानो खाए हों पान , लाली -लाली रचे हे मुँहु, मड़ई म घूमथौं अउ अइसे मेछराथंव कोनहो पार नइ पाही के एक्को ठन पइसा नइ हे खिसा म।" कवि ने इन पंक्तियों का हिंदी अनुवाद किया है- "मेले में एकत्र हुए हैं गाँव भर के लोग , आए हैं दूसरे गाँवों से भी , उत्तर के गाँव और दक्षिण के गाँव, पूरब के गाँव और पश्चिम के गाँव, एकत्र हुए हैं यहाँ सब दिशाओं से । कोदो की पत्तियों को चबाया है इस तरह , जैसे मैंने खाया है पान लाल -लाल रचे हैं होंठ , मेले में घूमता इतरा रहा ऐसे किसी को पता नहीं चलेगा कि एक भी पैसा नहीं जेब में।" संग्रह में 'भुंइया के फूल' शीर्षक कविता की प्रारंभिक पंक्तियों में एक छत्तीसगढ़िया मनुष्य की अभिव्यक्ति को महसूस कीजिए - खर नइ हे पानी खारून के , करू नइ हे जाम चंदना -चमसूर के ,फेर काबर जाबो ठंइया ला छोड़ के , इही भूँइया के फूल हन , इही भूँइया म झर बो। " एकांत ने अपनी इस रचना का हिंदी अनुवाद इस तरह किया है - "खारा नहीं है पानी 'खारून 'का , कड़ुए नहीं हैं अमरूद चंदना -चमसूर के फिर क्यों जाएँ अपनी जगह को छोड़ कर , इस धरती के फूल हैं , इसी धरती में झड़ेंगे ।" यह कविता अपनी धरती के प्रति मनुष्य के मोह की सहज ,लेकिन भावुक अभिव्यक्ति है।संग्रह में एक छोटी -सी कविता है 'मया म ' यानी प्यार में। मूल छत्तीसगढ़ी में देखिए - "तैं कुँवा ले पानी नइ, मोला हेर लेथस , तैं ढेंकी म धान नइ, मोला कूट देथस, तैं जाँता म दार नइ, मोला दर देथस । तैं चूँदी म फूल नइ, मोला खोंच लेथस । का-का होवत रथे मया म अमारी के फूल ह सुरुज म बदल जाथे।" एकान्त ने इसका हिंदी अनुवाद किया है ,वह भी बहुत मोहक है " तुम कुँआ से पानी नहीं मुझे निकालती हो , तुम ढेंकी में धान नहीं , मुझे कूटती हो , तुम चक्की में दाल नहीं , मुझे पीसती हो , तुम वेणी में फूल नहीं, मुझे खोंसती हो , क्या -क्या होता रहता है प्यार में , अमारी का फूल सूर्य में बदल जाता है।" यह कविता ग्राम्य जीवन में प्यार की निर्मल ,निश्छल अभिव्यक्ति के साथ हमें गाँवों की हमारी विलुप्तप्राय कुँआ संस्कृति और अनाज कूटने की ढेंकी संस्कृति की भी याद दिलाती है। हैण्डपम्पों और नलकूपों के इस आधुनिक युग में गाँवों में भी कुँआ लगभग अदृश्य हो गया है।साथ ही अदृश्य हो गयी है कुँओं के आसपास होने वाली चहल -पहल। ठीक उसी तरह गाँवों के घरों में अलसुबह महिलाओं द्वारा ढेंकी में अनाज कूटने की आवाज़ भी अब कहीं गुम हो गयी है ,क्योंकि उनका स्थान गाँवों में स्थानीय स्तर पर या आस- पास धान कूटने की हॉलर मशीनों ने ले लिया है। संग्रह की शीर्षक -कविता 'अँजोर' हमें उस युग की याद दिलाती है ,जब घरों में रात के समय कंदील(लालटेन)और अंगीठी की रौशनी से काम चलाया जाता था। उस दौर में भी गाँव के सम्पन्न व्यक्ति के घर में रात भर कंदील की रौशनी हुआ करती थी। यानी वह भी आर्थिक विषमता का दौर था। कवि एकान्त की कलम ने उस माहौल का छत्तीसगढ़ी में शब्द चित्र कुछ इस तरह खींचा है - "हमर गाँव म तीन कोरी छानी एक कोरी घर म कंडील बरथे। दू कोरी घर म अंगेठा के अँजोर , माटी तेल बर नइ हे पइसा कोनहो -कोनहो घर म बरथे कुसुम अउ टोरी तेल के दियना , गौंटिया के घर रात भर बरथे कंडील, उज्जर काँच के उज्जर अँजोर । बन म फेंकारी मारथे कोलिहा , दूरिहा ले दिखथे अँधियार म गौंटिया के घर के अँजोर। गौंटिया के घर म उगे हे चंदा हमर कर नइ हे कोनहो तारा ।" कवि की कलम से ही 'उजाला'शीर्षक से इसका हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह हुआ है - "हमारे गाँव मे हैं साठ घर , बीस घरों में जलती है लालटेन , चालीस घरों में अँगीठी का उजाला, मिट्टी तेल के लिए नहीं है पैसा किसी-किसी घर में जलता है कुसुम और टोरी के तेल का दीया । साहूकार के घर में रातभर जलती है लालटेन, उजले काँच की उजली रौशनी , जंगल में उतरता है अंधकार पहाड़ में हुँआ-हुँआ करते हैं सियार दूर से दिखता है अँधेरे में साहूकार के घर का उजाला । साहूकार के घर में उगा है चंद्रमा हमारे पास कोई तारा नहीं।" हालाँकि इस आधुनिक युग में गाँवों तक बिजली पहुँच जाने से लालटेन अब इक्का -दुक्का ही नज़र आते हैं। ग़रीबों के कच्चे मकानों में भी बिजली के बल्ब जलते हैं। लेकिन एक वह भी दौर था ,जब रात में अपने घरों से अँधेरा दूर करने के लिए ग़रीबों को कितनी जद्दोजहद करनी पड़ती थी ,उसका चित्रण इस कविता में है। संग्रह की अपनी छत्तीसगढ़ी कविताओं में एकान्त छत्तीसगढ़ के जन -जीवन से और यहाँ की जनभावनाओं से जितने घुलमिल गए हैं ,वहीं इनका हिंदी अनुवाद करते हुए भी वे अपने छत्तीसगढ़िया अहसास के साथ उतने ही एकाकार नज़र आते हैं।कोई भी कवि स्वभाव से ही भावुक और संवेदनशील होता है। एकान्त श्रीवास्तव की इन कविताओं में भी अपनी धरती से जुड़ी भावुकता और संवेदनशीलता बहुत गहराई से रची -बसी है। -स्वराज करुण

Thursday, May 30, 2024

(आलेख) हिन्दी पत्रकारिता की जन्म -भूमि है बंग -भूमि ;

(आज 30 मई हिन्दी पत्रकारिता दिवस ) आलेख- स्वराज्यं करुण समय के प्रवाह में तरह -तरह की चुनौतियों से भरे सफ़र के 198 साल पूरे करने के बाद आज हिन्दी पत्रकारिता अपने 199 वें पड़ाव की ओर बढ़ने लगी है। आज ( 30 मई )का दिन हमारे देश की हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में एक यादगार दिवस के रूप में दर्ज है। इसी दिन सन 1826 को देश के प्रथम हिन्दी समाचार पत्र 'उदन्त मार्तण्ड ' का प्रकाशन बंगाल की राजधानी कोलकाता से शुरू हुआ था। यह दिन हिन्दी पत्रकारिता दिवस के रूप में मनाया जाता है। 'उदन्त मार्तण्ड' प्रत्येक मंगलवार को छपने वाला साप्ताहिक अख़बार था। भारत की विविधतापूर्ण सांस्कृतिक एकता का यह भी एक बड़ा उदाहरण है कि यहाँ हिन्दी पत्रकारिता की जन्म भूमि होने का गौरव बंग -भूमि ,अर्थात बांग्लाभाषी राज्य (बंगाल ) को मिला । हिन्दी भाषी राज्य वर्तमान उत्तरप्रदेश के कानपुर से आए वकील पण्डित युगल किशोर शुक्ल ने वहाँ इसकी बुनियाद रखी । उन्होंने कोलकाता के कोलूटोला स्थित 37 ,अमरतल्ला लेन से 'उदन्त मार्तण्ड' का प्रकाशन प्रारंभ किया।
नारद जयंती के दिन आया उदन्त मार्तण्ड यानी उगता हुआ सूरज ************ वह नारद जयंती का दिन था। हम भारतीय लोग अपने पौराणिक आख्यानों के अनुसार देवर्षि नारद को दुनिया का पहला पत्रकार मानते हैं ,जो देवताओं और दानवों के बीच एक दूसरे के समाचार पहुँचाया करते थे। इसीलिए शायद पण्डित शुक्ल ने नारद जयंती को शुभ अवसर मानकर उस दिन ' उदन्त मार्तण्ड ' का प्रकाशन प्रारंभ किया ।इस शीर्षक का आशय उगते हुए सूर्य से है । हालांकि तरह -तरह की कठिनाइयों ,विशेष रूप से आर्थिक समस्याओं के कारण लगभग डेढ़ साल बाद इसका प्रकाशन बन्द हो गया ,लेकिन देश के प्रथम हिन्दी अख़बार के रूप में 'उदन्त मार्तण्ड' का नाम इतिहास में अमिट अक्षरों में दर्ज हो गया । यह साप्ताहिक अख़बार था। इसका अंतिम अंक 4 दिसम्बर 1827 को प्रकाशित हुआ था । प्रथम अंक की 500 प्रतियाँ छपी थीं। कुल 79 अंक प्रकाशित हुए थे। वह हिन्दी भाषा के विकास का शैशव काल था ,जिसकी गहरी छाप 'उदन्त मार्तण्ड ' के अंकों में मिलती थी।भारतीय प्रिंट मीडिया के इतिहास की इस महत्वपूर्ण घटना को याद करने के लिए हर साल 30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है। सभी पाठकों और पत्रकार साथियों को हिन्दी पत्रकारिता दिवस की बधाई और शुभकामनाएँ । हिन्दी भाषा के विकास में 'उदन्त मार्तण्ड' की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन दिनों कोलकाता से अंग्रेजी ,पारसी और बांग्ला में कई समाचार पत्र छपते थे। हिन्दी का कोई अख़बार नहीं था। ऐसे में पण्डित युगल किशोर मिश्र ने 'उदन्त मार्तण्ड ' का प्रकाशन प्रारंभ कर हिन्दी भाषियों की एक बड़ी ज़रूरत को पूरा करने का प्रयास किया। उन्होंने प्रवेशांक के सम्पादकीय में अपने इस मंतव्य को स्पष्ट कर दिया था। पत्रकारिता और प्रिंटिंग टेक्नॉलॉजी *********************** पत्रकारिता और प्रिंटिंग टेक्नॉलॉजी का एक -दूसरे के साथ अटूट रिश्ता है। इसलिए आज के दिन हमें देश और दुनिया में मुद्रण तकनीक की विकास यात्रा को भी ज़रूर याद करना चाहिए। पंद्रहवीं शताब्दी में यूरोप में मुद्रण तकनीक के विकास से मनुष्य को अपने विचारों को छपे हुए शब्दों में देखने और प्रकाशित करने का एक नया माध्यम मिल गया। कालांतर में यह तकनीक दुनिया के अन्य देशों में भी पहुँच गयी। इसके जरिए विभिन्न प्रकार की पुस्तकों के अलावा पत्र -पत्रिकाओं के प्रकाशन का सिलसिला भी शुरू हो गया। वह दौर हैण्ड कम्पोजिंग का था। अलग -अलग भाषाओं की लिपियों के टाइप यानी अक्षर साँचे में ढलने लगे ,जिन्हें पांडुलिपियों को देख कर कम्पोजिटर अपने हाथों से शब्दों के रूप में जमाया करते थे ,जिन्हें गैली बनाकर,प्रूफ रीडिंग के बाद ट्रेडल मशीनों में छापा जाता था। बाद में सिलेंडर मशीनें भी आयीं । बीसवीं सदी में कम्प्यूटरों के आने से छपाई कार्य बहुत आसान हो गया है। इक्कीसवीं सदी में तो कम्प्यूटर तकनीक का विकास और भी आगे पहुँच गया है। आधुनिक संचार क्रांति के इस दौर में अब तो लोग मोबाइल फोन या स्मार्ट फोन पर ही अपनी भावनाएँ स्वयं कम्पोज कर लेते हैं। इंटरनेट और उस पर आधारित सोशल मीडिया के विभिन्न तकनीकी माध्यमों से सूचनाओं ,समाचारों और विचारों का आदान-प्रदान हथेली में रखे मोबाइल फोन के जरिए बड़ी सरलता से होने लगा है। हैण्ड कम्पोजिंग वाले प्रिंटिंग प्रेस लगभग विलुप्त हो चुके हैं और ज़माना अब ऑफसेट प्रिंटिंग और कलर प्रिंटिंग का है। अब तो कम्प्यूटर आधारित छपाई की अत्याधुनिक मशीनें भी आ चुकी हैं । लेकिन हमें कुछ पल के लिए इतिहास के उस दौर की भी कल्पना ज़रूर करनी चाहिए ,जब किसी पुस्तक या पत्र -पत्रिका की छपाई के लिए तकनीकी दृष्टि से कितनी दिक्कतें हुआ करती थीं ! बहरहाल लगभग चार -पाँच शताब्दियों तक मनुष्य ने इन्हीं दिक्कतों के बीच ज्ञान -विज्ञान , साहित्य ,कला और संस्कृति से जुड़ी हजारों पुस्तकें लिखीं और छापीं , अख़बार भी निकाले। भारत में उस ज़माने की प्रिंटिंग टेक्नॉलॉजी के अनुरूप पहला प्रिंटिंग प्रेस पुर्तगालियों ने गोवा में सन 1556 में लगाया था । वहाँ सेंट पॉल कॉलेज में इसकी स्थापना की गयी थी। बताया जाता है कि इसका उपयोग ईसाई पादरियों द्वारा धार्मिक पुस्तकों के प्रकाशन के लिए किया जाता था। इसके ठीक 127 साल बाद 1684 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में अपने कार्यालयीन उपयोग के लिए प्रिंटिंग प्रेस की शुरूआत की। भारत का पहला अंग्रेजी अख़बार भी बंग -भूमि से ******************************* यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि हिन्दी पत्रकारिता की जन्म भूमि कोलकाता से ही भारत का पहला समाचार पत्र अंग्रेजी भाषा में 29 जनवरी 1780 को प्रकाशित हुआ था। इसके सम्पादक और प्रकाशक थे जेम्स ऑगस्ट हिक्की । यह साप्ताहिक अख़बार द हिक्कीज गजट केलकेटा जर्नल एडवरटाइजर के नाम से छपता था । पत्रकारिता का मार्ग उस ज़माने में भी काँटों से भरा हुआ था। हिक्की साहब एक सजग पत्रकार थे। उन्होंने अपने अख़बार के शीर्षक के नीचे लिखवा रखा था-- A Weekly Political and Commercial Paper ,Open for all ,but Influenced by none. (यह एक राजनीतिक और वाणिज्यिक साप्ताहिक पेपर है ,जो सबके लिए खुला हुआ है ,लेकिन किसी के भी प्रभाव में नहीं है) । लेकिन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स , सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश , ईस्ट इंडिया कम्पनी और अंग्रेज अधिकारियों की कारगुजारियों के ख़िलाफ़ खुलकर ख़बरें छापने के कारण उन्हें उनका कोपभाजन बनना पड़ा । यहाँ तक कि हेस्टिंग्स ने उन पर मानहानि का मुकदमा चलाया । हिक्की साहब को 9 माह की जेल हो गयी ,लेकिन जेल में रहते हुए भी जब उन्होंने अख़बार छापना जारी रखा तो मुख्य न्यायाधीश के आदेश पर उनके प्रेस को सील कर दिया गया । हिक्कीज गज़ट का छपना बंद हो गया। बताया जाता है कि हिक्की साहब की खबरों का असर ब्रिटिश संसद पर भी हुआ। इन ख़बरों को गंभीरता से लेकर वारेन हेस्टिंग्स और मुख्य न्यायाधीश के ख़िलाफ़ पार्लियामेंट में महाभियोग लाया गया था । वैसे कुछ जानकारों का यह भी कहना है कि भारत में पहला अंग्रेजी समाचार पत्र ईस्ट इंडिया कम्पनी के पूर्व अधिकारी विलियम बॉल्ट्स ने वर्ष 1776 में शुरू किया था ,जिसमें कम्पनी और ब्रिटिश सरकार की खबरें प्रकाशित की जाती थी , शायद यह ईस्ट इंडिया कम्पनी का मुखपत्र रहा होगा ,लेकिन वैचारिक रूप से भारत में पहला स्वतंत्र अंग्रेजी अख़बार प्रकाशित करने का श्रेय जेम्स ऑगस्ट हिक्की को दिया जाता है। वर्ष 1780 में इसके प्रकाशन के 46 साल बाद भारत में हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत 'उदन्त मार्तण्ड ' के माध्यम से हुई । भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में उस दौर में देश की विभिन्न भाषाओं के कई समाचार पत्रों का उल्लेख मिलता है।राजा राम मोहन राय जैसे महान समाज सुधारक ने वर्ष 1819 में बांग्ला भाषा के प्रथम समाचार पत्र 'संवाद कौमुदी ' का प्रकाशन प्रारंभ किया था। भारत का पहला हिन्दी दैनिक छपा था 170 साल पहले ***************** बंग -भूमि कोलकाता को हिन्दी के प्रथम साप्ताहिक (उदन्त मार्तण्ड ) के अलावा भारत के प्रथम हिन्दी दैनिक के प्रकाशन का भी श्रेय मिलता है । उदन्त मार्तण्ड के प्रकाशन के 28 साल बाद वर्ष 1854 में दैनिक 'समाचार सुधावर्षण' की शुरूआत हुई ,जो हिन्दी और बांग्ला भाषाओं में छपता था। इस द्विभाषी दैनिक के सम्पादक थे श्याम सुंदर सेन। वर्ष 1857 के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान 'समाचार सुधावर्षण ' ने भी राष्ट्रीय चेतना के विकास में अपनी अहम भूमिका निभाई। अख़बार ने आज़ादी के योद्धाओं का खुलकर समर्थन किया। फलस्वरूप सम्पादक श्याम सुंदर सेन को अंग्रेज हुकूमत की नाराजगी झेलनी पड़ी । उन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर मुकदमा चलाया गया ,लेकिन वे अदालत से निर्दोष बरी हो गए। हमारे स्वतंत्रता संग्राम में हिन्दी सहित विभिन्न भाषायी समाचार पत्रों का ऐतिहासिक योगदान रहा है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र , लोकमान्य पण्डित बालगंगाधर तिलक , महात्मा गांधी ,पण्डित जवाहरलाल नेहरू , गणेश शंकर विद्यार्थी और पण्डित माखन लाल चतुर्वेदी जैसे अनेक दिग्गज सेनानियों ने समाचार पत्र -पत्रिकाओं के प्रकाशन और सम्पादन के जरिए जनता में विदेशी दासता के ख़िलाफ़ लड़ने का हौसला जगाया । छत्तीसगढ़ में 124 साल पुरानी है पत्रकारिता की परम्परा ****************** छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं था। यहाँ हिन्दी पत्रकारिता की परम्परा 124 साल पुरानी है ,जो निरन्तर विकसित हो रही है। संसाधनों की दृष्टि से उस ज़माने में यह बेहद पिछड़ा इलाका था ,लेकिन इसके बावज़ूद चुनौतियों का सामना करते हुए जनवरी 1900 में इस अंचल के प्रथम समाचार पत्र 'छत्तीसगढ़-मित्र ' का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। दिग्गज साहित्यकार और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पण्डित माधवराव सप्रे इसके सम्पादक और रामराव चिंचोलकर उनके सहयोगी थे। प्रकाशक थे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पण्डित वामन राव लाखे। यह समाचार पत्र रायपुर से छपता और पेंड्रा से प्रकाशित होता था। सप्रे जी उन दिनों पेंड्रा में वहाँ के राजकुमार के अंग्रेजी शिक्षक थे।वह पेंड्रा से ही इस पत्रिका का सम्पादन करते थे। उनकी लिखी कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी ' को हिन्दी की पहली मौलिक कहानी माना जाता है। उन्होंने' छत्तीसगढ़ मित्र ' के माध्यम से सामाजिक सुधारों से जुड़े विषयों के साथ -साथ छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय चेतना के विकास में भी अपना उल्लेखनीय योगदान दिया। लेकिन आर्थिक समस्याओं के कारण 'छत्तीसगढ़ मित्र ' का प्रकाशन तीन साल बाद दिसम्बर 1902 में बंद करना पड़ गया। देश 15 अगस्त 1947 को आज़ाद हुआ । गुलामी के दिनों में आज़ादी की लड़ाई में भारतीय पत्रकारिता भी एक मिशन भावना से अपना योगदान दे रही थी। आज़ादी के बाद उसकी यह भूमिका और भी चुनौतीपूर्ण हो गयी है। उसे एक तरफ स्वतंत्र भारत की जन भावनाओं को ,जनता की आशाओं ,आकांक्षाओं और समस्याओं को स्वर देना है तो दूसरी तरफ एक आज़ाद मुल्क की विकास यात्रा की उपलब्धियों को भी जनता तक पहुँचाना है। हिन्दी पत्रकारिता भी अपनी इस दोहरी जिम्मेदारी का बख़ूबी निर्वहन कर रही है। अत्याधुनिक संचार सुविधाओं से अब छत्तीसगढ़ सहित देश के सभी राज्यों में जिला मुख्यालयों और तहसील मुख्यालयों से भी समाचार पत्र प्रकाशित होने लगे हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन केंद्रों के अलावा कई प्राइवेट टेलीविजन न्यूज चैनल भी पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे हैं। छत्तीसगढ़ में पण्डित माधव राव सप्रे द्वारा 124 साल पहले विकसित हिन्दी पत्रकारिता की गौरवशाली परम्परा को बाद के दशकों में दिग्गज लेखक , पत्रकार हुए ,जिन्होंने सप्रे जी द्वारा विकसित हिन्दी पत्रकारिता की परम्परा को अपने चिन्तन ,मनन ,लेखन और परिश्रम से विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं के जरिए ख़ूब आगे बढ़ाया।इनमें रायपुर के पण्डित रविशंकर शुक्ल, पण्डित स्वराज्य प्रसाद त्रिवेदी, केशव प्रसाद वर्मा , ठाकुर प्यारेलाल सिंह ,हरि ठाकुर, मायाराम सुरजन , रमेश नैयर, गोविन्दलाल वोरा , मधुकर खेर , कुमार साहू ,ललित सुरजन , प्रभाकर चौबे , राजनारायण मिश्र , अकलतरा (जिला -जांजगीर -चाम्पा )के बैरिस्टर ठाकुर छेदीलाल ,राजनांदगांव के पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी , गजानन माधव मुक्तिबोध और शरद कोठारी , जगदलपुर (बस्तर)के तुषार कांति बोस और लाला जगदलपुरी , जांजगीर के कुलदीप सहाय ,बिलासपुर के यदुनन्दन प्रसाद श्रीवास्तव और पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी, दुर्ग के चन्दूलाल चन्द्राकर , रायगढ़ के किशोरी मोहन त्रिपाठी और गुरुदेव काश्यप सहित कई बड़े नाम शामिल हैं। समाचार पत्रों का संग्रहालय ******************* हिन्दी सहित भारतीय पत्रकारिता के समग्र इतिहास को संरक्षित करने का एक ऐतिहासिक कार्य भोपाल में 'माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय के जरिए किया गया है। वरिष्ठ पत्रकार विजयदत्त श्रीधर के प्रयासों से इसकी स्थापना लगभग 40 वर्ष पहले 19 जून 1984 को सप्रे जी की जयंती के दिन हुई थी । यह देश में समाचार पत्र -पत्रिकाओं का अपने किस्म का पहला संग्रहालय है ,जहाँ विभिन्न भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों के प्रथम अंकों से लेकर उनकी अनेक दुर्लभ प्रतियों को सुव्यवस्थित रूप से प्रदर्शित किया गया है। छत्तीसगढ़ के प्रथम पत्रकार पण्डित माधवराव सप्रे की याद में समाचार पत्रों का यह संग्रहालय मध्यप्रदेश में सफलतापूर्वक संचालित हो रहा है। गंभीर पत्रकारिता के अध्येताओं और शोधकर्ताओं के लिए एक बड़े अध्ययन केन्द्र के रूप में आज पूरे देश में इस संग्रहालय की अपनी एक विशेष पहचान है। ---स्वराज करुण