देश भर के अखबारों में ,खास तौर पर हिन्दी के अखबारों में उस दिन दो सुर्खियाँ ऐसी थीं , जिन्हें एक-दूसरे से मिला कर देखने ,पढ़ने और सोचने-समझने की ज़रूरत है. इनमे से एक खबर दिल्ली में हुए कॉमन वेल्थ खेलों के आयोजन से जुड़े आर्थिक अपराधों की जांच के लिए नामी -गिरामी ठेकेदारों के घरों और दफ्तरों में आयकर विभाग द्वारा मारे गए छापों के बारे में है , जिसमे बताया गया है कि लगभग सौ ठिकानों पर दी गयी दबिश में आयकर वालों ने अरबों रूपयों के अघोषित और अवैध लेन-देन का पता लगाया है ,जबकि दूसरी खबर यह है कि दिल्ली में सोलह करोड़ रूपए कीमत की एक सबसे तेज रफ़्तार कार 'बुगाती-वेरोन' लॉन्च की गयी , जो इस वक्त दुनिया की सबसे ज्यादा तेज गति की और सबसे महंगी कार है और जो प्रति घंटे अधिकतम चार सौ सात किलोमीटर की रफ़्तार से दौड़ सकती है. भारत में कौन लोग हैं ,जो इसे खरीदेंगें और इसमें घूम -घूम कर देश की सड़कों पर मौज-मस्ती करेंगें ? मुझे लगता है कि अगर इस सवाल का जवाब हमने खोज लिया ,तो समझ लो कि अखबार की दोनों सुर्ख़ियों के बीच के अघोषित रिश्तों के रहस्य को भी हमने पहचान लिया . केन्द्र सरकार की ही एक कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा प्रति दिन सिर्फ बीस रूपए में गुजारा करने को मजबूर है , महंगाई आसमान छू रही है , वहीं आयकर और आर्थिक अपराध जांच एजेंसियों के एक-एक छापे में करोड़ों रूपयों का अघोषित खजाना बरामद हो रहा है. निश्चित ही यह रूपया उन लोगों के बाप-दादों का नहीं है ,जिनके ठिकानों में इसका पता चल रहा है . यह अदृश्य चोरी और अदृश्य डकैती से अर्जित धन है. यह देश की गरीब जनता का ही धन है , जिसे बड़ी सफाई से लूटा जा रहा है . .इस चोरी और डकैती में सरकारी अधिकारियों से लेकर हर सफेदपोश शामिल है जिन लोगों के घरों में यह अनुपातहीन संपत्ति मिल रही है , उसे सरकार ज़ब्त क्यों नहीं कर लेती ? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि देश के हर नागरिक के लिए नगद और चल-अचल संपत्ति रखने की एक सीमा तय कर दी जाए और इस लक्ष्मण -रेखा को लांघने वालों की अतिरिक्त संपत्ति सरकार जनता के पक्ष में ज़ब्त कर ले और उसे देश के विकास और गरीबों की भलाई के कामों पर खर्च करे ? लेकिन यह करेगा कौन ? अगर कोई ऐसा कदम उठाने जाए तो क्या वह कभी सोलह करोड़ रूपए की कार खरीद पाएगा ? इसलिए मेरी यह सोच कोरी कल्पना के सिवाय और कुछ भी नहीं ! बहरहाल मै सोच रहा हूँ कि उन लोगों को किस उपाधि से सम्मानित करूं ,जिनके घरों और व्यापारिक ठिकानों से अरबों-खरबों रूपयों का जखीरा तरह-तरह के छापों में निकल रहा है ? इस बेशुमार और बेहिसाब दौलत को छुपाकर रखने का आखिर राज क्या था और क्या है ? अगर आप जानते हों , तो ज़रूर बताएं ! क्या आप भी उन्हें किसी खास उपाधि से विभूषित करना चाहेंगे ? अगर आपका जवाब हाँ में है , तो क्या बताएंगे कि आपकी ओर से उन्हें दी जाने वाली उपाधि क्या होगी ? क्या आप ऐसे महान लोगों का किसी चौक-चौराहे पर 'नागरिक-अभिनन्दन ' भी नहीं करना चाहेंगे ?
स्वराज्य करुण
Friday, October 29, 2010
Thursday, October 28, 2010
(कविता ) हार गए दलित और जीत गया दबंग !
अब नज़र आती नहीं ताल में तरंग ,
मदहोशी के आलम में सभी हैं मतंग !
अजब तेरी दुनिया के गजब रंग-ढंग ,
रोना और हंसना भी चले संग -संग !
सच हुआ नीलाम अब कहाँ सत्संग ,
देख कर नज़ारा हम तो रह गए दंग !
हत्यारा भी सम्मानित हुआ देखिए ,
डोर से कट गयी उम्मीद की पतंग !
न्याय और अन्याय में यह कैसी जंग,
हार गए दलित और जीत गया दबंग !
नीति और नीयत की बात मत करो ,
जब कभी आए कोई ऐसा प्रसंग !
- स्वराज्य करुण
मदहोशी के आलम में सभी हैं मतंग !
अजब तेरी दुनिया के गजब रंग-ढंग ,
रोना और हंसना भी चले संग -संग !
सच हुआ नीलाम अब कहाँ सत्संग ,
देख कर नज़ारा हम तो रह गए दंग !
हत्यारा भी सम्मानित हुआ देखिए ,
डोर से कट गयी उम्मीद की पतंग !
न्याय और अन्याय में यह कैसी जंग,
हार गए दलित और जीत गया दबंग !
नीति और नीयत की बात मत करो ,
जब कभी आए कोई ऐसा प्रसंग !
- स्वराज्य करुण
Tuesday, October 26, 2010
(व्यंग्य कविता ) लाख टके का सवाल !
कमाल है ,धमाल है
लाख टके का सवाल है .
कौन यहाँ दानी और कौन
दलाल है !
भ्रष्टाचार के खिलाफ
देश भर में बरती जा रही
सतर्कता का ये हाल है ,
सतर्कता अधिकारी भी
मालामाल है !
लूट-खसोट के इस
बाज़ार में ,
जिसकी है जितनी ताकत
उसके बटोरने के लिए
उतना ही भरपूर माल है !
चतुर-सुजान बन रहे
रातों-रात अमीर ,
बाकी सब कंगाल हैं !
दोस्तों ! आखिर ये
किसकी चाल है ?
भेड़िये के बदन में
भेड़ की खाल है !
किसी के घर बरस रहा
सोने का सावन ,
कहीं भयानक अकाल है !
स्वराज्य करुण
लाख टके का सवाल है .
कौन यहाँ दानी और कौन
दलाल है !
भ्रष्टाचार के खिलाफ
देश भर में बरती जा रही
सतर्कता का ये हाल है ,
सतर्कता अधिकारी भी
मालामाल है !
लूट-खसोट के इस
बाज़ार में ,
जिसकी है जितनी ताकत
उसके बटोरने के लिए
उतना ही भरपूर माल है !
चतुर-सुजान बन रहे
रातों-रात अमीर ,
बाकी सब कंगाल हैं !
दोस्तों ! आखिर ये
किसकी चाल है ?
भेड़िये के बदन में
भेड़ की खाल है !
किसी के घर बरस रहा
सोने का सावन ,
कहीं भयानक अकाल है !
स्वराज्य करुण
Sunday, October 24, 2010
माटी का जय गान और धरती का जयकारा
स्वराज्य करुण
अपने देश ,अपनी धरती ,अपनी माटी ,, अपनी नदी अपने पंछी अपने पर्वत ,अपने जंगल , अपने खेत, अपने खलिहान ,अपने गांव और अपने लोगों की कोमल भावनाओं को शब्द और आवाज़ देने वालों को समाज अपने दिल में बसा लेता है. फिर चाहे वे कवि हों ,या गायक. अपनी रचनाओं में, अपनी आवाज़ में , मानव मन की संवेदनाओं को, लोगों के दुःख-सुख को जगह देने वाले शब्द-शिल्पी और स्वर-साधक ही कला-संस्कृति के जरिए किसी भी राज्य और देश की पहचान बनाते हैं. अगर किसी कवि में शब्दों के मोतियों के साथ वाणी का माधुर्य भी हो ,तो उसका शिल्प और सृजन नदियों के संगम की तरह और भी पावन हो जाता है. लक्ष्मण मस्तुरिया की गिनती भी ऐसे सर्वोत्तम शब्द-शिल्पियों में होती है ,जो पिछले करीब चार दशकों से जारी अपनी काव्य -यात्रा में छत्तीसगढ़ के दिल की धड़कनों को छत्तीसगढ़ के दिल की भाषा 'छत्तीसगढ़ी' में आवाज़ देकर सही मायने में कवि-धर्म का बखूबी पालन कर रहे हैं . उन्होंने अपने गीतों को मंच और रंग-मंच के साथ -साथ संगीत से भी जोड़ा है.अपनी भौगोलिक और सांस्कृतिक खूबियों से ही कोई भी अंचल देर-सबेर एक राज्य का आकार लेता है , धरती के भूगोल को राज्य और देश के रूप पहचान दिलाने में साहित्य, कला और संस्कृति से जुड़े कवियों, कलाकारों और शिल्पकारों की बहुत बड़ी भूमिका होती है. आज अगर छत्तीसगढ़ पिछले दस वर्षों से भारत के छब्बीसवें राज्य के रूप में पहचाना जा रहा है ,तो उसमे बहुत बड़ा योगदान लक्ष्मण मस्तुरिया जैसे लोक-प्रिय कवियों का भी है ,जिन्होंने राज्य-निर्माण के भी लगभग तीस बरस पहले कवि-सम्मेलनों और सांस्कृतिक -मंचों पर छत्तीसगढ़ की माटी का जय-गान करऔर धरती का जयकारा लगा कर जनता को उसकी आंचलिक-अस्मिता और आंतरिक शक्ति का अहसास दिलाया . लक्ष्मण जैसे श्रेष्ठ रचनाकार के गीतों की चर्चा करने का एक अपना सुख है ,पर इन गीतों की मिठास तो केवल उन्हें सुनकर ही महसूस की जा सकती है .
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के मस्तुरी की माटी में सात जून १९४९ को जन्मे लक्ष्मण महज बाईस साल की उम्र में प्रसिद्ध सांस्कृतिक-संस्था 'चंदैनी गोंदा ' के मुख्य गायक बन चुके थे .रामचंद्र देशमुख इसके संस्थापक थे . उन्होंने छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक-पहचान को और आंचलिक-स्वाभिमान को देश और दुनिया के सामने लाने के लिए लोक-कलाकारों और कवियों को एक छत के नीचे लाकर दुर्ग जिले के अपने गाँव बघेरा में इसकी बुनियाद रखी ,जहां सात नवम्बर १९७१ को अंचल के दूर -दूर से आए हजारों लोगों के बीच इसका पहला प्रदर्शन हुआ. छत्तीसगढ़ के खेत-खलिहान और मजूर-किसान के जीवन-संघर्ष को गीतों भरी मार्मिक कहानी के रूप में , एक सुंदर और ह्रदय स्पर्शी गीत-नाट्य के रूप में प्रस्तुत करते हुए 'चंदैनी गोंदा' ने यहाँ की जनता के दिलों में बरसों-बरस राज किया .गणेश-उत्सव और दुर्गोत्सव जैसे सार्वजनिक आयोजनों में गाँवों और शहरों में जहां भी इसका प्रदर्शन होता , हजारों की संख्या में जन-सैलाब उमड़ जाता. नारायणलाल परमार ने 'चंदैनी गोंदा ' पर अपने एक आलेख में इसके एक प्रस्तुतिकरण की उदघोषणा का सन्दर्भ देकर लिखा है कि यह प्रतीकात्मक रूप से कृषक -जीवन का ही चित्रण है.गेंदे के फूल दो प्रकार के होते हैं .बड़ा गोंदा सिर्फ श्रृंगार के काम आता है , जबकि छोटे आकार के गेंदे को छत्तीसगढ़ी में 'चंदैनी गोंदा ' कहा जाता है ,जो देवी की पूजा में अर्पित किया जाता है.देखा जाय तो गेंदे के फूलों का यह पौधा छत्तीसगढ़ के गाँवों में हर घर के आँगन की शान होता है .
तो इसी चंदैनी गोंदा को प्रतीक बना कर छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक जागरण की एक नयी यात्रा की शुरुआत हुई. जिसके सुंदर और मनभावन गीतों में से अनेक सुमधुर गीत अकेले लक्ष्मण मस्तुरिया ने लिखे थे. चंदैनी गोंदा के शीर्षक गीत के रचनाकार थे रविशंकर शुक्ला .उनके अलावा स्वर्गीय कोदूराम 'दलित' , स्वर्गीय रामरतन सारथी और स्वर्गीय प्यारेलाल गुप्त सहित द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र' , नारायण लाल परमार ,पवन दीवान ,भगवती लाल सेन , हेमनाथ यदु ,रामेश्वर वैष्णव ,मुकुंद कौशल, विनय पाठक ,राम कैलाश तिवारी, और चतुर्भुज देवांगन जैसे जाने-माने कवियों की रचनाएँ भी 'चंदैनी गोंदा ' के मंचों पर गूंजा करती थी.मंच के संगीत निदेशक थे खुमान साव .ग्राम बघेरा में दाऊ रामचंद्र देशमुख का विशाल बाड़ा छत्तीसगढ़ के नए-पुराने कवियों और लोक-जीवन में रचे-बसे ग्रामीण-कलाकारों का तीर्थ बन चुका था . अपनी कला यात्रा के उस प्राम्भिक दौर को याद करते हुए लक्ष्मण मस्तुरिया बताते है - देशमुख जी स्वयं एक महान कला-पारखी थे .उन्होंने छत्तीसगढ़ के घुमंतू 'देवार' समुदाय के सहज-सरल लोक-कलाकारों को भी 'चंदैनी गोंदा' से जोड़ा . देवार कबीले के अनेक सदस्य बंदरों का नाच दिखा कर कुछ पैसे कमा लिया करते थे .देशमुख जी उन्हें 'चंदैनी गोंदा ' के ज़रिए कुछ स्थायित्व देना चाहते थे. उन्होंने उनकी नाचने-गाने की पारम्परिक कला को वर्ष १९७४-७५ में 'देवार -डेरा ' के नाम से संस्था बना कर एक नयी पहचान दिलाई . देशमुख जी के निर्देश पर लक्ष्मण ने इन 'देवारों ' के बहुत से निरर्थक शब्दों वाले पारम्परिक गीतों को परिमार्जित किया. ऐसा लगता है कि दाऊ रामचंद्र देशमुख ने ग्राम बघेरा और वहां के अपने घर-आँगन को छत्तीसगढ़ी-रंगमंच का एक ऐसा स्टूडियो बना दिया था, जहाँ कवियों और कलाकारों की प्रतिभा को उड़ान के लिए नए पंख मिले .लक्ष्मण मस्तुरिया ने' चंदैनी-गोंदा 'के लिए लगभग डेढ़ सौ गीत लिखे .मंच पर इनमे से चालीस-पचास गीतों का उपयोग होता रहा .
सांस्कृतिक जागरण के इस मंच ने कवि लक्ष्मण मस्तुरिया को माटी की महक और मानवीय संवेदनाओं से भरपूर उनके गीतों के ज़रिए उन्हें छत्तीसगढ़ में आवाज की दुनिया का नायक भी बना दिया . धरती की धड़कनों से जुड़े उनके इन छत्तीसगढ़ी गानों को जनता ने हाथों -हाथ लिया . आकाशवाणी के रायपुर केन्द्र से जब उनके सुमधुर स्वरों में इन गीतों का संगीतमय प्रसारण होने लगा ,तो ये गीत लोगों की जुबान पर चढ़कर जन-गीत बन गए. उनका यह गीत आज भी छत्तीसगढ़ की माटी में रचे-बसे हर इंसान को सामूहिकता की भावना में बाँध लेता है और लोग इन पंक्तियों को अनायास गुनगुनाने लगते हैं -
मोर संग चलव रे, मोर संग चलव जी ,
ओ गिरे -थके हपटे मन, अऊ परे-डरे मनखे मन ,
मोर संग चलव रे ,मोर संग चलव जी .
अमरैया कस जुड छाँव म मोर संग बईठ जुडालव ,
पानी पी लव मै सागर अवं,दुःख-पीरा बिसरा लव .
नवा जोत लव ,नवा गाँव बर , रस्ता नवां गढव रे !
लक्ष्मण का यह गीत वास्तव में समाज के गिरे-थके , ठोकर खाए , भयभीत लोगों को अपने साथ चलने , आम्र-कुञ्ज की छाँव में बैठ कर शीतलता का अहसास करने , अपनी भावनाओं के सागर से पानी पीकर दुःख-पीरा को भूला देने .और एक नए गाँव के निर्माण के लिए आशा की नयी ज्योति लेकर नया रास्ता गढ़ने का आव्हान करता है. अपने इसी गीत में लक्ष्मण जनता को यह भी संदेश देते हैं-
महानदी मै, अरपा-पैरी ,तन-मन धो फरियालव ,
कहाँ जाहू बड दूर हे गंगा, पापी इहाँ तरव रे ,
मोर संग चलव रे , मोर संग चलव जी !
इस गीत में शब्द ज़रूर लक्ष्मण के हैं , लेकिन भावनाएं छत्तीसगढ़ महतारी की हैं , जो अपनी धरती की संतानों से कह रही है कि मैं ही महानदी ,और मैं ही अरपा और पैरी नदी हूँ , गंगा तो बहुत दूर है , इसलिए पापियों ,तुम यहीं तर जाओ . धरती माता की वंदना का उनका एक खूबसूरत छत्तीसगढ़ी गीत उन्हीं की आवाज में काफी लोकप्रिय हुआ था ,जिसकी कुछ पंक्तियाँ देखें -
मंय बंदत हौं दिन-रात वो ,मोर धरती मईया,
जय होवय तोर, मोर छईयां ,भुइंया जय होवय तोर .
राजा-परजा ,देवी-देवता तोर कोरा म आइन ,
जईसन सेवा करिन तोर वो तईसन फल ल पाइन.
तोर महिमा कतक बखानौ ओ मोर धरती मईया ,
जय होवय तोर , मोर छईयां भुइयां , जय होवय तोर !
अर्थात -हे धरती माता ! मै दिन-रात तेरी वन्दना करता हूँ . हे मुझे शीतल छाया देने वाली भूमि ! तेरी जय हो !राजा-प्रजा , देवी-देवता , तेरी गोद में आए और जैसी सेवा की , वैसा ही फल पाया . हे धरती माता ! तेरी महिमा का मैं कितना बखान करूं !
अपनी धरती से गहरी आत्मीयता का रिश्ता रखने वाला एक सच्चा कवि ही सच्चे दिल से मन को छू लेने वाली ऐसी पंक्तियों के साथ धरती का जय-गान लिख सकता है . अगर आप छत्तीसगढ़ के किसी गाँव की सड़क पर या फिर खेतों या जंगलों की पगडंडियों पर .बैल-गाड़ी से या नहीं तो सायकल से जा रहे हों , या आपकी कार किसी सड़क पर कुछ देर के लिए किसी भी कारण से रुक गयी हो , चांदनी रात हो और दूर किसी गाँव से लाऊडस्पीकर गूंजता यह मीठा -सा नगमा आपके कानों तक पहुंचे , तो मुझे लगता है कि आपको एक अलग ही तरह की अनुभूति होगी ----
पता दे जा रे , पता ले जा रे गाड़ी वाला ,
तोर नाम के , तोर गाँव के ,तोर काम के , पता दे जा
का तोर गाँव के पार सिवाना ,
डाक-खाना के पता का,
नाम का थाना -कछेरी के तोरे ,
पारा मुहल्ला ,जघा का !
शायद नायिका को अपने गाँव से गुजरते गाड़ी वाले से भावनात्मक लगाव हो गया है .तभी तो वह उससे उसके गाँव, डाक-घर थाना क्षेत्र , कचहरी , पारा-मुहल्ला और जगह का नाम पूछ रही है और मनुहार भी कर रही है कि जाते-जाते वह अपना पता दे जाए और यहाँ का याने कि नायिका का पता लेता जाए . . इस गीत में प्रेम का एक गहरा दर्शन भी है .कैसे यह इन पंक्तियों में देखें और महसूस करें -
मया नई चिन्हें देसी-बिदेसी ,
मया के मोल न तोल,
जात-बिजात न जाने रे मया ,
मया मयारू के बोल
काया माया के सब नाच नचावै,
मया के एक नज़रिया.
नायिका कहती है-प्रेम किसी देशी -विदेशी को नहीं पहचानता . प्रेम का कोई मोल-तोल नहीं होता .प्रेम जात-बिजात को भी नहीं जानता . वह सिर्फ मया याने कि प्रेम की बोली को ही समझता है.आज से करीब पच्चीस साल पहले कविता वासनिक की खनकती आवाज़ में लक्ष्मण के इस गीत का ग्रामोफोन रिकार्ड निकला तो यह शादी-ब्याह से लेकर हर निजी और सार्वजानिक समारोहों में गूंजने लगा . लोग इसे गुनगुनाने के लिए अनायास ही मजबूर हो जाते थे . माघ -फागुन के रसभीने वासंती मौसम पर उनका यह गीत एक अलग ही अंदाज़ में आज भी लोगों के दिलो-दिमाग पर छा जाता है-
मन डोले रे मांघ फगुनवा ,
रस घोले रे मांघ फगुनवा .
राजा बरोबर लगे मौरे आमा ,
रानी सही परसा फुलवा ,
रस घोले रे मांघ ,फगुनवा,
मन डोले रे मांघ फगुनवा
माघ महीने के आख़िरी दिनों में फागुन के वासंती क़दमों की धीमी-धीमी आहट के बीच आम के मौर की भीनी-भीनी महक और पलाश के पेड़ों पर खिलते सुर्ख लाल फूलों से भला किसका मन नहीं डोलेगा ? तभी तो हमारे कवि को यह समय जीवन में रस घोलने का मौसम लगता है. डालियों पर नन्हें -नन्हें फूलों याने कि मौरों से सजा-धजा आम का पेड़ राजा की तरह और परसा याने कि पलाश का वृक्ष किसी रानी की तरह लगने लगा है. यह आकाशवाणी के रायपुर केन्द्र से प्रसारित होनेवाले सर्वाधिक लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी गीतों में शुमार है .लगभग पैंतीस साल पहले १९७५ के आस-पास जब यह रेडियो पर आया ,तो हर सुनने वाला सुनता ही रह गया. लक्ष्मण छत्तीसगढ़ के उन गिने -चुने कवियों में हैं ,जिन्हें नयी दिल्ली में गणतंत्र दिवस के राष्ट्रीय समारोह के मौके पर लाल किले के मंच से काव्य-पाठ करने का अवसर मिला है . लक्ष्मण को यह गौरव आज से छत्तीस वर्ष पहले १९७४ में छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध शायर मुकीम भारती के साथ मिल चुका था . वहां २० जनवरी १९७४ को आयोजित काव्य-संध्या में उन्हें गोपाल दास 'नीरज', बालकवि बैरागी , रमानाथ अवस्थी , डॉ रविन्द्र भ्रमर ,इन्द्रजीत सिंह 'तुलसी' ,निर्भय हाथरसी और रामवतार त्यागी जैसे लोकप्रिय कवियों के साथ आमंत्रित किया गया था . उस यादगार काव्य-संध्या की आयोजन समिति की उपाध्यक्ष रह चुकी श्रीमती शीला दीक्षित आज दिल्ली की मुख्यमंत्री हैं .छत्तीसगढ़ में सांस्कृतिक जागरण के ऐतिहासिक रंगमंच 'चंदैनी गोंदा' से आकाशवाणी , दूरदर्शन और कवि सम्मेलनों के मंच से होते हुए लक्ष्मण छत्तीसगढ़ी फिल्मों में भी गीत लिख रहे हैं.राज्य-निर्माण के आस-पास बनी'मोर छईयां भुइयां ' और हाल ही में आयी 'मोर संग चलव' के तो शीर्षक ही लक्ष्मण के दो लोकप्रिय गीतों की सराही गयी पंक्तियों पर आधारित है . उन्होंने 'भोला छत्तीस गढिया', 'पिंजरा के मैना ' 'पुन्नी के चन्दा ' और'मय के बंधना ' में भी गाने लिखे हैं .लक्ष्मण के गीतों को सुरों में सजा कर ग्रामोफोन के जमाने में करीब चालीस रिकार्ड्स भी बाजार में आए और खूब लोकप्रिय भी हुए . उनके गीतों पर आधारित सैकड़ों कैसेट्स और ऑडियो तथा वीडियो सी .डी .संगीत के बाज़ार में हाथों-हाथ लिए गए हैं .
उनकी ७७ छत्तीसगढ़ी कविताओं का संग्रह 'मोर संग चलव ' वर्ष २००३ में , इकसठ छत्तीसगढ़ी निबन्धों का संग्रह 'माटी कहे कुम्हार से' वर्ष २००८ में और इकहत्तर हिन्दी कविताओं का संकलन 'सिर्फ सत्य के लिए ' भी वर्ष २००८ में प्रकाशित हो चुका है इसके पहले छत्तीसगढ़ के महान क्रांतिकारी अमर शहीद वीर नारायण सिंह की जीवन-गाथा पर आधारित उनकी एक लम्बी कविता 'सोनाखान के आगी ' भी पुस्तक रूप में आ चुकी है . .बहरहाल , छत्तीसगढ़ में साहित्य, कला और संस्कृति के मैदान में पिछले करीब चालीस वर्षों से नाबाद रहकर एक लंबी पारी खेल रहे लक्ष्मण के खाते में तरह -तरह की सफलताओं के साथ-साथ सम्मानों की भी एक लंबी फेहरिस्त भी है .दुष्यंत कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय ,भोपाल द्वारा मार्च २००८ में आयोजित अलंकरण समारोह में जिन तीन प्रसिद्ध कवियों को मध्यप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल श्री बलराम जाखड ने सम्मानित किया , उनमे लक्ष्मण मस्तुरिया भी थे , जिन्हें आंचलिक रचनाकार सम्मान से नवाजा गया . उनके अलावा प्रसिद्ध शायर निदा फाज़ली को दुष्यंत अलंकरण और साहित्यकार प्रेमशंकर रघुवंशी को सुदीर्घ साधना सम्मान से अलंकृत किया गया .अपने गृह राज्य छत्तीसगढ़ में भी लक्ष्मण को अनेक अवसरों पर अनेक संस्थाओं ने सम्मानित किया है , जिनमे रामचंद्र देशमुख बहुमत सम्मान (दुर्ग)और सृजन सम्मान (रायपुर ),भी शामिल है.हमारे समय के वरिष्ठ साहित्यकार रायगढ़ निवासी डॉ. बलदेव कहते हैं- 'लक्ष्मण मस्तुरिया के गीत चिर युवा छत्तीसगढिया के गीत हैं. अल्हड जवानी , उमंग , उत्साह , साहस, आस्था , आशा, विश्वास , स्वाभिमान , उत्कट प्रेम , सर्वस्व समर्पण की भावना , विरह-वेदना और पुनर्मिलन की छटपटाहट की सहजतम अभिव्यक्ति उनके गीतों की विशेषता है . उनके गीतों की लोकप्रियता का रहस्य सिर्फ गले की मिठास और पावरफुल इलेक्ट्रानिक वाद्य-यंत्र नहीं है . ये तो सफलता के महज ऊपरी रहस्य हैं , असली रहस्य है उनके गीतों में कथ्य की नवीनता , रूप-विधान और भाव-सौंदर्य .' लक्ष्मण मस्तुरिया का लेखन लगातार जारी है. अपनी माटी का जय गान करने वाले लक्ष्मण , सृजन और श्रृंगार गीतों से मानव -मन में जीवन का आनंद -रस घोलने वाले लक्ष्मण बरसों-बरस इसी तरह लिखते रहें और हम जैसे अपने अनुज-सम दोस्तों के बीच हमेशा आते-जाते मुस्कुराते दिखते रहें. लक्ष्मण मस्तुरिया जैसे श्रेष्ठ कवि और गायक छत्तीसगढ़ की अनमोल सांस्कृतिक धरोहर हैं उन्हें प्यार से और नजाकत से सहेज कर , संभाल कर रखना हमारा फ़र्ज़ है.
स्वराज्य करुण
अपने देश ,अपनी धरती ,अपनी माटी ,, अपनी नदी अपने पंछी अपने पर्वत ,अपने जंगल , अपने खेत, अपने खलिहान ,अपने गांव और अपने लोगों की कोमल भावनाओं को शब्द और आवाज़ देने वालों को समाज अपने दिल में बसा लेता है. फिर चाहे वे कवि हों ,या गायक. अपनी रचनाओं में, अपनी आवाज़ में , मानव मन की संवेदनाओं को, लोगों के दुःख-सुख को जगह देने वाले शब्द-शिल्पी और स्वर-साधक ही कला-संस्कृति के जरिए किसी भी राज्य और देश की पहचान बनाते हैं. अगर किसी कवि में शब्दों के मोतियों के साथ वाणी का माधुर्य भी हो ,तो उसका शिल्प और सृजन नदियों के संगम की तरह और भी पावन हो जाता है. लक्ष्मण मस्तुरिया की गिनती भी ऐसे सर्वोत्तम शब्द-शिल्पियों में होती है ,जो पिछले करीब चार दशकों से जारी अपनी काव्य -यात्रा में छत्तीसगढ़ के दिल की धड़कनों को छत्तीसगढ़ के दिल की भाषा 'छत्तीसगढ़ी' में आवाज़ देकर सही मायने में कवि-धर्म का बखूबी पालन कर रहे हैं . उन्होंने अपने गीतों को मंच और रंग-मंच के साथ -साथ संगीत से भी जोड़ा है.अपनी भौगोलिक और सांस्कृतिक खूबियों से ही कोई भी अंचल देर-सबेर एक राज्य का आकार लेता है , धरती के भूगोल को राज्य और देश के रूप पहचान दिलाने में साहित्य, कला और संस्कृति से जुड़े कवियों, कलाकारों और शिल्पकारों की बहुत बड़ी भूमिका होती है. आज अगर छत्तीसगढ़ पिछले दस वर्षों से भारत के छब्बीसवें राज्य के रूप में पहचाना जा रहा है ,तो उसमे बहुत बड़ा योगदान लक्ष्मण मस्तुरिया जैसे लोक-प्रिय कवियों का भी है ,जिन्होंने राज्य-निर्माण के भी लगभग तीस बरस पहले कवि-सम्मेलनों और सांस्कृतिक -मंचों पर छत्तीसगढ़ की माटी का जय-गान करऔर धरती का जयकारा लगा कर जनता को उसकी आंचलिक-अस्मिता और आंतरिक शक्ति का अहसास दिलाया . लक्ष्मण जैसे श्रेष्ठ रचनाकार के गीतों की चर्चा करने का एक अपना सुख है ,पर इन गीतों की मिठास तो केवल उन्हें सुनकर ही महसूस की जा सकती है .
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के मस्तुरी की माटी में सात जून १९४९ को जन्मे लक्ष्मण महज बाईस साल की उम्र में प्रसिद्ध सांस्कृतिक-संस्था 'चंदैनी गोंदा ' के मुख्य गायक बन चुके थे .रामचंद्र देशमुख इसके संस्थापक थे . उन्होंने छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक-पहचान को और आंचलिक-स्वाभिमान को देश और दुनिया के सामने लाने के लिए लोक-कलाकारों और कवियों को एक छत के नीचे लाकर दुर्ग जिले के अपने गाँव बघेरा में इसकी बुनियाद रखी ,जहां सात नवम्बर १९७१ को अंचल के दूर -दूर से आए हजारों लोगों के बीच इसका पहला प्रदर्शन हुआ. छत्तीसगढ़ के खेत-खलिहान और मजूर-किसान के जीवन-संघर्ष को गीतों भरी मार्मिक कहानी के रूप में , एक सुंदर और ह्रदय स्पर्शी गीत-नाट्य के रूप में प्रस्तुत करते हुए 'चंदैनी गोंदा' ने यहाँ की जनता के दिलों में बरसों-बरस राज किया .गणेश-उत्सव और दुर्गोत्सव जैसे सार्वजनिक आयोजनों में गाँवों और शहरों में जहां भी इसका प्रदर्शन होता , हजारों की संख्या में जन-सैलाब उमड़ जाता. नारायणलाल परमार ने 'चंदैनी गोंदा ' पर अपने एक आलेख में इसके एक प्रस्तुतिकरण की उदघोषणा का सन्दर्भ देकर लिखा है कि यह प्रतीकात्मक रूप से कृषक -जीवन का ही चित्रण है.गेंदे के फूल दो प्रकार के होते हैं .बड़ा गोंदा सिर्फ श्रृंगार के काम आता है , जबकि छोटे आकार के गेंदे को छत्तीसगढ़ी में 'चंदैनी गोंदा ' कहा जाता है ,जो देवी की पूजा में अर्पित किया जाता है.देखा जाय तो गेंदे के फूलों का यह पौधा छत्तीसगढ़ के गाँवों में हर घर के आँगन की शान होता है .
तो इसी चंदैनी गोंदा को प्रतीक बना कर छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक जागरण की एक नयी यात्रा की शुरुआत हुई. जिसके सुंदर और मनभावन गीतों में से अनेक सुमधुर गीत अकेले लक्ष्मण मस्तुरिया ने लिखे थे. चंदैनी गोंदा के शीर्षक गीत के रचनाकार थे रविशंकर शुक्ला .उनके अलावा स्वर्गीय कोदूराम 'दलित' , स्वर्गीय रामरतन सारथी और स्वर्गीय प्यारेलाल गुप्त सहित द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र' , नारायण लाल परमार ,पवन दीवान ,भगवती लाल सेन , हेमनाथ यदु ,रामेश्वर वैष्णव ,मुकुंद कौशल, विनय पाठक ,राम कैलाश तिवारी, और चतुर्भुज देवांगन जैसे जाने-माने कवियों की रचनाएँ भी 'चंदैनी गोंदा ' के मंचों पर गूंजा करती थी.मंच के संगीत निदेशक थे खुमान साव .ग्राम बघेरा में दाऊ रामचंद्र देशमुख का विशाल बाड़ा छत्तीसगढ़ के नए-पुराने कवियों और लोक-जीवन में रचे-बसे ग्रामीण-कलाकारों का तीर्थ बन चुका था . अपनी कला यात्रा के उस प्राम्भिक दौर को याद करते हुए लक्ष्मण मस्तुरिया बताते है - देशमुख जी स्वयं एक महान कला-पारखी थे .उन्होंने छत्तीसगढ़ के घुमंतू 'देवार' समुदाय के सहज-सरल लोक-कलाकारों को भी 'चंदैनी गोंदा' से जोड़ा . देवार कबीले के अनेक सदस्य बंदरों का नाच दिखा कर कुछ पैसे कमा लिया करते थे .देशमुख जी उन्हें 'चंदैनी गोंदा ' के ज़रिए कुछ स्थायित्व देना चाहते थे. उन्होंने उनकी नाचने-गाने की पारम्परिक कला को वर्ष १९७४-७५ में 'देवार -डेरा ' के नाम से संस्था बना कर एक नयी पहचान दिलाई . देशमुख जी के निर्देश पर लक्ष्मण ने इन 'देवारों ' के बहुत से निरर्थक शब्दों वाले पारम्परिक गीतों को परिमार्जित किया. ऐसा लगता है कि दाऊ रामचंद्र देशमुख ने ग्राम बघेरा और वहां के अपने घर-आँगन को छत्तीसगढ़ी-रंगमंच का एक ऐसा स्टूडियो बना दिया था, जहाँ कवियों और कलाकारों की प्रतिभा को उड़ान के लिए नए पंख मिले .लक्ष्मण मस्तुरिया ने' चंदैनी-गोंदा 'के लिए लगभग डेढ़ सौ गीत लिखे .मंच पर इनमे से चालीस-पचास गीतों का उपयोग होता रहा .
सांस्कृतिक जागरण के इस मंच ने कवि लक्ष्मण मस्तुरिया को माटी की महक और मानवीय संवेदनाओं से भरपूर उनके गीतों के ज़रिए उन्हें छत्तीसगढ़ में आवाज की दुनिया का नायक भी बना दिया . धरती की धड़कनों से जुड़े उनके इन छत्तीसगढ़ी गानों को जनता ने हाथों -हाथ लिया . आकाशवाणी के रायपुर केन्द्र से जब उनके सुमधुर स्वरों में इन गीतों का संगीतमय प्रसारण होने लगा ,तो ये गीत लोगों की जुबान पर चढ़कर जन-गीत बन गए. उनका यह गीत आज भी छत्तीसगढ़ की माटी में रचे-बसे हर इंसान को सामूहिकता की भावना में बाँध लेता है और लोग इन पंक्तियों को अनायास गुनगुनाने लगते हैं -
मोर संग चलव रे, मोर संग चलव जी ,
ओ गिरे -थके हपटे मन, अऊ परे-डरे मनखे मन ,
मोर संग चलव रे ,मोर संग चलव जी .
अमरैया कस जुड छाँव म मोर संग बईठ जुडालव ,
पानी पी लव मै सागर अवं,दुःख-पीरा बिसरा लव .
नवा जोत लव ,नवा गाँव बर , रस्ता नवां गढव रे !
लक्ष्मण का यह गीत वास्तव में समाज के गिरे-थके , ठोकर खाए , भयभीत लोगों को अपने साथ चलने , आम्र-कुञ्ज की छाँव में बैठ कर शीतलता का अहसास करने , अपनी भावनाओं के सागर से पानी पीकर दुःख-पीरा को भूला देने .और एक नए गाँव के निर्माण के लिए आशा की नयी ज्योति लेकर नया रास्ता गढ़ने का आव्हान करता है. अपने इसी गीत में लक्ष्मण जनता को यह भी संदेश देते हैं-
महानदी मै, अरपा-पैरी ,तन-मन धो फरियालव ,
कहाँ जाहू बड दूर हे गंगा, पापी इहाँ तरव रे ,
मोर संग चलव रे , मोर संग चलव जी !
इस गीत में शब्द ज़रूर लक्ष्मण के हैं , लेकिन भावनाएं छत्तीसगढ़ महतारी की हैं , जो अपनी धरती की संतानों से कह रही है कि मैं ही महानदी ,और मैं ही अरपा और पैरी नदी हूँ , गंगा तो बहुत दूर है , इसलिए पापियों ,तुम यहीं तर जाओ . धरती माता की वंदना का उनका एक खूबसूरत छत्तीसगढ़ी गीत उन्हीं की आवाज में काफी लोकप्रिय हुआ था ,जिसकी कुछ पंक्तियाँ देखें -
मंय बंदत हौं दिन-रात वो ,मोर धरती मईया,
जय होवय तोर, मोर छईयां ,भुइंया जय होवय तोर .
राजा-परजा ,देवी-देवता तोर कोरा म आइन ,
जईसन सेवा करिन तोर वो तईसन फल ल पाइन.
तोर महिमा कतक बखानौ ओ मोर धरती मईया ,
जय होवय तोर , मोर छईयां भुइयां , जय होवय तोर !
अर्थात -हे धरती माता ! मै दिन-रात तेरी वन्दना करता हूँ . हे मुझे शीतल छाया देने वाली भूमि ! तेरी जय हो !राजा-प्रजा , देवी-देवता , तेरी गोद में आए और जैसी सेवा की , वैसा ही फल पाया . हे धरती माता ! तेरी महिमा का मैं कितना बखान करूं !
अपनी धरती से गहरी आत्मीयता का रिश्ता रखने वाला एक सच्चा कवि ही सच्चे दिल से मन को छू लेने वाली ऐसी पंक्तियों के साथ धरती का जय-गान लिख सकता है . अगर आप छत्तीसगढ़ के किसी गाँव की सड़क पर या फिर खेतों या जंगलों की पगडंडियों पर .बैल-गाड़ी से या नहीं तो सायकल से जा रहे हों , या आपकी कार किसी सड़क पर कुछ देर के लिए किसी भी कारण से रुक गयी हो , चांदनी रात हो और दूर किसी गाँव से लाऊडस्पीकर गूंजता यह मीठा -सा नगमा आपके कानों तक पहुंचे , तो मुझे लगता है कि आपको एक अलग ही तरह की अनुभूति होगी ----
पता दे जा रे , पता ले जा रे गाड़ी वाला ,
तोर नाम के , तोर गाँव के ,तोर काम के , पता दे जा
का तोर गाँव के पार सिवाना ,
डाक-खाना के पता का,
नाम का थाना -कछेरी के तोरे ,
पारा मुहल्ला ,जघा का !
शायद नायिका को अपने गाँव से गुजरते गाड़ी वाले से भावनात्मक लगाव हो गया है .तभी तो वह उससे उसके गाँव, डाक-घर थाना क्षेत्र , कचहरी , पारा-मुहल्ला और जगह का नाम पूछ रही है और मनुहार भी कर रही है कि जाते-जाते वह अपना पता दे जाए और यहाँ का याने कि नायिका का पता लेता जाए . . इस गीत में प्रेम का एक गहरा दर्शन भी है .कैसे यह इन पंक्तियों में देखें और महसूस करें -
मया नई चिन्हें देसी-बिदेसी ,
मया के मोल न तोल,
जात-बिजात न जाने रे मया ,
मया मयारू के बोल
काया माया के सब नाच नचावै,
मया के एक नज़रिया.
नायिका कहती है-प्रेम किसी देशी -विदेशी को नहीं पहचानता . प्रेम का कोई मोल-तोल नहीं होता .प्रेम जात-बिजात को भी नहीं जानता . वह सिर्फ मया याने कि प्रेम की बोली को ही समझता है.आज से करीब पच्चीस साल पहले कविता वासनिक की खनकती आवाज़ में लक्ष्मण के इस गीत का ग्रामोफोन रिकार्ड निकला तो यह शादी-ब्याह से लेकर हर निजी और सार्वजानिक समारोहों में गूंजने लगा . लोग इसे गुनगुनाने के लिए अनायास ही मजबूर हो जाते थे . माघ -फागुन के रसभीने वासंती मौसम पर उनका यह गीत एक अलग ही अंदाज़ में आज भी लोगों के दिलो-दिमाग पर छा जाता है-
मन डोले रे मांघ फगुनवा ,
रस घोले रे मांघ फगुनवा .
राजा बरोबर लगे मौरे आमा ,
रानी सही परसा फुलवा ,
रस घोले रे मांघ ,फगुनवा,
मन डोले रे मांघ फगुनवा
माघ महीने के आख़िरी दिनों में फागुन के वासंती क़दमों की धीमी-धीमी आहट के बीच आम के मौर की भीनी-भीनी महक और पलाश के पेड़ों पर खिलते सुर्ख लाल फूलों से भला किसका मन नहीं डोलेगा ? तभी तो हमारे कवि को यह समय जीवन में रस घोलने का मौसम लगता है. डालियों पर नन्हें -नन्हें फूलों याने कि मौरों से सजा-धजा आम का पेड़ राजा की तरह और परसा याने कि पलाश का वृक्ष किसी रानी की तरह लगने लगा है. यह आकाशवाणी के रायपुर केन्द्र से प्रसारित होनेवाले सर्वाधिक लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी गीतों में शुमार है .लगभग पैंतीस साल पहले १९७५ के आस-पास जब यह रेडियो पर आया ,तो हर सुनने वाला सुनता ही रह गया. लक्ष्मण छत्तीसगढ़ के उन गिने -चुने कवियों में हैं ,जिन्हें नयी दिल्ली में गणतंत्र दिवस के राष्ट्रीय समारोह के मौके पर लाल किले के मंच से काव्य-पाठ करने का अवसर मिला है . लक्ष्मण को यह गौरव आज से छत्तीस वर्ष पहले १९७४ में छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध शायर मुकीम भारती के साथ मिल चुका था . वहां २० जनवरी १९७४ को आयोजित काव्य-संध्या में उन्हें गोपाल दास 'नीरज', बालकवि बैरागी , रमानाथ अवस्थी , डॉ रविन्द्र भ्रमर ,इन्द्रजीत सिंह 'तुलसी' ,निर्भय हाथरसी और रामवतार त्यागी जैसे लोकप्रिय कवियों के साथ आमंत्रित किया गया था . उस यादगार काव्य-संध्या की आयोजन समिति की उपाध्यक्ष रह चुकी श्रीमती शीला दीक्षित आज दिल्ली की मुख्यमंत्री हैं .छत्तीसगढ़ में सांस्कृतिक जागरण के ऐतिहासिक रंगमंच 'चंदैनी गोंदा' से आकाशवाणी , दूरदर्शन और कवि सम्मेलनों के मंच से होते हुए लक्ष्मण छत्तीसगढ़ी फिल्मों में भी गीत लिख रहे हैं.राज्य-निर्माण के आस-पास बनी'मोर छईयां भुइयां ' और हाल ही में आयी 'मोर संग चलव' के तो शीर्षक ही लक्ष्मण के दो लोकप्रिय गीतों की सराही गयी पंक्तियों पर आधारित है . उन्होंने 'भोला छत्तीस गढिया', 'पिंजरा के मैना ' 'पुन्नी के चन्दा ' और'मय के बंधना ' में भी गाने लिखे हैं .लक्ष्मण के गीतों को सुरों में सजा कर ग्रामोफोन के जमाने में करीब चालीस रिकार्ड्स भी बाजार में आए और खूब लोकप्रिय भी हुए . उनके गीतों पर आधारित सैकड़ों कैसेट्स और ऑडियो तथा वीडियो सी .डी .संगीत के बाज़ार में हाथों-हाथ लिए गए हैं .
उनकी ७७ छत्तीसगढ़ी कविताओं का संग्रह 'मोर संग चलव ' वर्ष २००३ में , इकसठ छत्तीसगढ़ी निबन्धों का संग्रह 'माटी कहे कुम्हार से' वर्ष २००८ में और इकहत्तर हिन्दी कविताओं का संकलन 'सिर्फ सत्य के लिए ' भी वर्ष २००८ में प्रकाशित हो चुका है इसके पहले छत्तीसगढ़ के महान क्रांतिकारी अमर शहीद वीर नारायण सिंह की जीवन-गाथा पर आधारित उनकी एक लम्बी कविता 'सोनाखान के आगी ' भी पुस्तक रूप में आ चुकी है . .बहरहाल , छत्तीसगढ़ में साहित्य, कला और संस्कृति के मैदान में पिछले करीब चालीस वर्षों से नाबाद रहकर एक लंबी पारी खेल रहे लक्ष्मण के खाते में तरह -तरह की सफलताओं के साथ-साथ सम्मानों की भी एक लंबी फेहरिस्त भी है .दुष्यंत कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय ,भोपाल द्वारा मार्च २००८ में आयोजित अलंकरण समारोह में जिन तीन प्रसिद्ध कवियों को मध्यप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल श्री बलराम जाखड ने सम्मानित किया , उनमे लक्ष्मण मस्तुरिया भी थे , जिन्हें आंचलिक रचनाकार सम्मान से नवाजा गया . उनके अलावा प्रसिद्ध शायर निदा फाज़ली को दुष्यंत अलंकरण और साहित्यकार प्रेमशंकर रघुवंशी को सुदीर्घ साधना सम्मान से अलंकृत किया गया .अपने गृह राज्य छत्तीसगढ़ में भी लक्ष्मण को अनेक अवसरों पर अनेक संस्थाओं ने सम्मानित किया है , जिनमे रामचंद्र देशमुख बहुमत सम्मान (दुर्ग)और सृजन सम्मान (रायपुर ),भी शामिल है.हमारे समय के वरिष्ठ साहित्यकार रायगढ़ निवासी डॉ. बलदेव कहते हैं- 'लक्ष्मण मस्तुरिया के गीत चिर युवा छत्तीसगढिया के गीत हैं. अल्हड जवानी , उमंग , उत्साह , साहस, आस्था , आशा, विश्वास , स्वाभिमान , उत्कट प्रेम , सर्वस्व समर्पण की भावना , विरह-वेदना और पुनर्मिलन की छटपटाहट की सहजतम अभिव्यक्ति उनके गीतों की विशेषता है . उनके गीतों की लोकप्रियता का रहस्य सिर्फ गले की मिठास और पावरफुल इलेक्ट्रानिक वाद्य-यंत्र नहीं है . ये तो सफलता के महज ऊपरी रहस्य हैं , असली रहस्य है उनके गीतों में कथ्य की नवीनता , रूप-विधान और भाव-सौंदर्य .' लक्ष्मण मस्तुरिया का लेखन लगातार जारी है. अपनी माटी का जय गान करने वाले लक्ष्मण , सृजन और श्रृंगार गीतों से मानव -मन में जीवन का आनंद -रस घोलने वाले लक्ष्मण बरसों-बरस इसी तरह लिखते रहें और हम जैसे अपने अनुज-सम दोस्तों के बीच हमेशा आते-जाते मुस्कुराते दिखते रहें. लक्ष्मण मस्तुरिया जैसे श्रेष्ठ कवि और गायक छत्तीसगढ़ की अनमोल सांस्कृतिक धरोहर हैं उन्हें प्यार से और नजाकत से सहेज कर , संभाल कर रखना हमारा फ़र्ज़ है.
स्वराज्य करुण
Thursday, October 21, 2010
(व्यंग्य ) बेचारा बेजुबान बकरा !
तरह-तरह के घोटालों में फंसे-धंसे अधिकाँश महान लोग अक्सर अखबारों में यह कहते हुए पाए जाते हैं कि उन्हें व्यर्थ ही 'बलि का बकरा ' बनाया जा रहा है . आज भी एक महान आत्मा का ऐसा ही एक बयान नयी दिल्ली से निकल कर बेमौसम बादलों की तरह देश भर के अखबारों में सुर्खियाँ बन छाया हुआ है कि खेलों के तथाकथित महा-कुम्भ में हुए नाना प्रकार के १०००८ कुंडीय महा-यज्ञ में हवन -पूजन के सामानों की खरीदी और आपूर्ति में अगर कोई भूल-चूक हुई है तो इसमें उनका कोई हाथ नहीं है और उनका नाम इसमें घसीट कर उन्हें 'बलि का बकरा ' बनाया जा रहा है . मेरे जैसे आम आदमी को उनके इस बयान से कोई लेना-देना नहीं है ,पर ऐसे महापुरुषों के श्रीमुख से 'बलि का बकरा ' जैसे शब्द सुन कर बेचारे बकरे पर तरस ज़रूर आता है . इसके अलावा मन के आकाश में यह विचार भी उभरता है बलि के नाम पर सिर्फ बेजुबान बकरा ही क्यों किसी भी मूक प्राणी का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए .वैसे भी बलि प्रथा अमानवीय है और आज के ज़माने में इसे अच्छा नहीं माना जाता .भारत के कई राज्यों में इस पर कानूनी प्रतिबंध भी है लेकिन कहावत के रूप में इस्तेमाल धड़ल्ले से जारी है .यही कारण है कि घपलों-घोटालों के मामलों में बलि के लिए लोग बकरे को नहीं , बल्कि इंसान को खोजते हैं और मौका मिलते उसे शब्दों की बाजीगरी में 'बकरा ' बना देते हैं ? बकरा तो एक बेजुबान प्राणी है . फिर सवाल यह भी है कि घोटालों के आरोपों में घिरने पर कोई इंसान 'बलि का बकरा ' ही क्यों बनता है, 'बलि का इंसान ' क्यों नहीं ? इंसान अपनी चमड़ी बचाने के लिए यह कह कर आसानी से अपना दामन झाड़ लेता है ,या झाड़ने की कोशिश करता है कि उसे 'बलि का बकरा ' बनाया जा रहा है .उसका विरोधी यह सुनकर या पढ़ कर कह सकता है कि ठीक है , ठीक है , देखते हैं 'बकरे की अम्मा ' कब तक खैर मनाएगी ? बलि के नाम इंसानों की ऐसी बदजुबानी ? मै सोचता हूँ कि यह सुन कर बकरा आखिर क्या सोचता होगा ? बद्जुबानों के बीच बेचारा बेजुबान बकरा ...!
स्वराज्य करुण
स्वराज्य करुण
Monday, October 18, 2010
(गीत) कॉमन वेल्थ का वंदे मातरम !
खेल ख़तम ,पैसा भी हजम,
,ठगे -ठगे से रह गए हम ,
वन्दे मातरम ,वन्दे मातरम !
कॉमन वेल्थ के नाम कैसी
लूट मचाई डाकुओं ने ,
बेरहमी से देश को काटा ,
बेईमानी के चाकुओं ने !
कर लो जो भी करना इनका,
देखें किसमे कितना दम ,
वन्दे मातरम,वन्दे मातरम !
चार शब्द के थीम सॉन्ग पर
पांच करोड़ का दाम लगाया ,
नहीं चला तो माफी माँगी ,
फिर भी रूपए नहीं लौटाया !
देखो ये कितना बेशरम ,
खेल ख़तम, पैसा भी हजम ,
वन्दे मातरम, वन्दे मातरम !
अफसर-नेता खाली करके ,
चले गए सब अलमारी ,
बचे-खुचे भी चले जा रहे ,
चुपके से चलेंगे कलमाड़ी !
वतन लुट गया, किसको गम ,
खेल ख़तम, पैसा भी हजम
वन्दे मातरम, वन्दे मातरम ,
स्वराज्य करुण
,ठगे -ठगे से रह गए हम ,
वन्दे मातरम ,वन्दे मातरम !
कॉमन वेल्थ के नाम कैसी
लूट मचाई डाकुओं ने ,
बेरहमी से देश को काटा ,
बेईमानी के चाकुओं ने !
कर लो जो भी करना इनका,
देखें किसमे कितना दम ,
वन्दे मातरम,वन्दे मातरम !
चार शब्द के थीम सॉन्ग पर
पांच करोड़ का दाम लगाया ,
नहीं चला तो माफी माँगी ,
फिर भी रूपए नहीं लौटाया !
देखो ये कितना बेशरम ,
खेल ख़तम, पैसा भी हजम ,
वन्दे मातरम, वन्दे मातरम !
अफसर-नेता खाली करके ,
चले गए सब अलमारी ,
बचे-खुचे भी चले जा रहे ,
चुपके से चलेंगे कलमाड़ी !
वतन लुट गया, किसको गम ,
खेल ख़तम, पैसा भी हजम
वन्दे मातरम, वन्दे मातरम ,
स्वराज्य करुण
Sunday, October 17, 2010
(गीत) नज़रबंद है सच की सीता !
पता नहीं फिर कब आएगा सावन मेरे देश में ,
अब तो चारों ओर घूमते रावण मेरे देश में !
नज़रबंद है सच की सीता ,
अशोक वृक्ष की छाँव में ,
प्रलोभनों की इस मंडी में
सब कुछ तो है दांव में !
ताश-महल के आँगन परियां बावन मेरे देश में ,
अब तो चारों ओर घूमते रावण मेरे देश में !
दांये देखा बेकारी का ,
बांये देखा मक्कारी का,
आगे देखा रंगदारी का ,
पीछे देखा गद्दारी का !
जाने कितने वेश बनाए मन-भावन मेरे देश में ,
अब तो चारों ओर घूमते रावण मेरे देश में !
सुबह कहाँ है , शाम कहाँ है ,
मर्यादा का राम कहाँ है ,
नगर-नगर सोने की लंका ,
हरे-भरे अब ग्राम कहाँ हैं !
लालच के दस्यु का चेहरा लुभावन मेरे देश में ,
अब तो चारों ओर घूमते रावण मेरे देश में !
स्वराज्य करुण
अब तो चारों ओर घूमते रावण मेरे देश में !
नज़रबंद है सच की सीता ,
अशोक वृक्ष की छाँव में ,
प्रलोभनों की इस मंडी में
सब कुछ तो है दांव में !
ताश-महल के आँगन परियां बावन मेरे देश में ,
अब तो चारों ओर घूमते रावण मेरे देश में !
दांये देखा बेकारी का ,
बांये देखा मक्कारी का,
आगे देखा रंगदारी का ,
पीछे देखा गद्दारी का !
जाने कितने वेश बनाए मन-भावन मेरे देश में ,
अब तो चारों ओर घूमते रावण मेरे देश में !
सुबह कहाँ है , शाम कहाँ है ,
मर्यादा का राम कहाँ है ,
नगर-नगर सोने की लंका ,
हरे-भरे अब ग्राम कहाँ हैं !
लालच के दस्यु का चेहरा लुभावन मेरे देश में ,
अब तो चारों ओर घूमते रावण मेरे देश में !
स्वराज्य करुण
Friday, October 15, 2010
(गीत ) जी-भर कॉमन वेल्थ मनाया !
हेल्थ बनाया , वेल्थ बनाया ,जी-भर कॉमन वेल्थ मनाया .
बेईमानों के गुप्त बैंक में जनता का धन खूब समाया !
झुग्गीवासी सब नर-नारी
हुए लापता कहाँ भिखारी ,
राज-पथों पर रास रचाएं
नेता-अफसर भरकम-भारी !
अपनी-अपनी जेबें भरकर जब जी चाहा जाम टकराया ,
हेल्थ बनाया ,वेल्थ बनाया ,जी-भर कॉमन वेल्थ मनाया
ऐसे-ऐसे खेल- खिलाड़ी ,
जनता समझ न पाए बिचारी,
लूट -मार का हुआ तमाशा ,
मालामाल हुआ व्यापारी !
चार रूपए के चम्मच पर भी चार हजार का बिल जो बनाया ,
हेल्थ बनाया ,वेल्थ बनाया ,जी-भर कॉमन वेल्थ मनाया !
कॉमन मतलब साझेदारी
मिल गयी सबको हिस्सेदारी ,
नए सजेंगे बाग-बंगले,
नयी नवेली होगी गाड़ी !
महारानी के राजमुकुट पर भारत माँ का ताज गंवाया
हेल्थ बनाया ,वेल्थ बनाया , जी -भर कॉमन वेल्थ मनाया !
जाने किनके हैं ये बंदे
उलटे-पुल्टे इनके धंधे .
देख कर भी अनदेखे हैं
आँखों वाले प्रहरी अंधे !
छल-कपट से भरे जगत में यह सब लक्ष्मी जी की माया ,
हेल्थ बनाया ,वेल्थ बनाया ,जी -भर कॉमन वेल्थ मनाया !
अरबों -खरबों लूट ले गए
फिर भी उनका कुछ न बिगड़ा,
सब हैं अपने लोग वहां जब
फिर काहे का झंझट -झगडा !
दोनों हाथों में है लड्डू , चाहे दांया हो या बांया
हेल्थ बनाया , वेल्थ बनाया , जी-भर कॉमन वेल्थ मनाया !
स्वराज्य करुण
16/10/10
बेईमानों के गुप्त बैंक में जनता का धन खूब समाया !
झुग्गीवासी सब नर-नारी
हुए लापता कहाँ भिखारी ,
राज-पथों पर रास रचाएं
नेता-अफसर भरकम-भारी !
अपनी-अपनी जेबें भरकर जब जी चाहा जाम टकराया ,
हेल्थ बनाया ,वेल्थ बनाया ,जी-भर कॉमन वेल्थ मनाया
ऐसे-ऐसे खेल- खिलाड़ी ,
जनता समझ न पाए बिचारी,
लूट -मार का हुआ तमाशा ,
मालामाल हुआ व्यापारी !
चार रूपए के चम्मच पर भी चार हजार का बिल जो बनाया ,
हेल्थ बनाया ,वेल्थ बनाया ,जी-भर कॉमन वेल्थ मनाया !
कॉमन मतलब साझेदारी
मिल गयी सबको हिस्सेदारी ,
नए सजेंगे बाग-बंगले,
नयी नवेली होगी गाड़ी !
महारानी के राजमुकुट पर भारत माँ का ताज गंवाया
हेल्थ बनाया ,वेल्थ बनाया , जी -भर कॉमन वेल्थ मनाया !
जाने किनके हैं ये बंदे
उलटे-पुल्टे इनके धंधे .
देख कर भी अनदेखे हैं
आँखों वाले प्रहरी अंधे !
छल-कपट से भरे जगत में यह सब लक्ष्मी जी की माया ,
हेल्थ बनाया ,वेल्थ बनाया ,जी -भर कॉमन वेल्थ मनाया !
अरबों -खरबों लूट ले गए
फिर भी उनका कुछ न बिगड़ा,
सब हैं अपने लोग वहां जब
फिर काहे का झंझट -झगडा !
दोनों हाथों में है लड्डू , चाहे दांया हो या बांया
हेल्थ बनाया , वेल्थ बनाया , जी-भर कॉमन वेल्थ मनाया !
16/10/10
(गीत) काँटों की सेज पर !
एक -दूसरे की मदद के हैं मोहताज़ हम ,
कितने असहाय से लग रहे हैं आज हम !
घूम रहे अरमान सभी
सपनों के आस-पास ,
काँटों की सेज पर
सोया है मधुमास !
तरस गए सुनने को प्यार की आवाज़ हम ,
कितने असहाय से लग रहे हैं आज हम !
सड़कों पर जिंदगी का
रोज-रोज घिसटना ,
रोशनी के दायरे का
लगातार सिमटना !
उनके रास-रंग पर करें कैसे नाज़ हम,
कितने असहाय से लग रहे हैं आज हम !
धरती के बेटे हम,
माँ का है प्यार कहाँ ,
आकाशी आवरण में
रूप का श्रृंगार कहाँ !
रोटी के लिए बिकी हुई लोक-लाज हम,
कितने असहाय से लग रहे हैं आज हम !
कितने असहाय से लग रहे हैं आज हम !
घूम रहे अरमान सभी
सपनों के आस-पास ,
काँटों की सेज पर
सोया है मधुमास !
तरस गए सुनने को प्यार की आवाज़ हम ,
कितने असहाय से लग रहे हैं आज हम !
सड़कों पर जिंदगी का
रोज-रोज घिसटना ,
रोशनी के दायरे का
लगातार सिमटना !
उनके रास-रंग पर करें कैसे नाज़ हम,
कितने असहाय से लग रहे हैं आज हम !
धरती के बेटे हम,
माँ का है प्यार कहाँ ,
आकाशी आवरण में
रूप का श्रृंगार कहाँ !
रोटी के लिए बिकी हुई लोक-लाज हम,
कितने असहाय से लग रहे हैं आज हम !
यहाँ तो हर इन्साफ का मंदिर . !
जीवन का मकसद खो गया उन्मादों की भीड़ में ,
दिशाहीन हो गए हैं सपने संवादों की भीड़ में !
स्याह -सुरंगों में गायब सूरज आखिर कब आएगा ,
हर बार हम तो छले गए है वादों की भीड़ में !
खेत-खेत और जंगल-जंगल जिसे खोजने आए हैं ,
सावन का वो सरगम गायब सूखे भादों की भीड़ में !
बीते दिन की बात करोगे तो कोई शुभ-लाभ न होगा ,
इसीलिए अब और न उलझो तुम यादों की भीड़ में !
हुए हैं तुम पे ज़ुल्म कई पर किसे कहोगे अपनी कहानी ,
यहाँ तो हर इन्साफ का मंदिर अपराधों की भीड़ में !
खोई मंजिल को पाने की अगर चाहना बाकी है ,
तो फिर तुम अब और न भटको फरियादों की भीड़ में !
स्वराज्य करुण
दिशाहीन हो गए हैं सपने संवादों की भीड़ में !
स्याह -सुरंगों में गायब सूरज आखिर कब आएगा ,
हर बार हम तो छले गए है वादों की भीड़ में !
खेत-खेत और जंगल-जंगल जिसे खोजने आए हैं ,
सावन का वो सरगम गायब सूखे भादों की भीड़ में !
बीते दिन की बात करोगे तो कोई शुभ-लाभ न होगा ,
इसीलिए अब और न उलझो तुम यादों की भीड़ में !
हुए हैं तुम पे ज़ुल्म कई पर किसे कहोगे अपनी कहानी ,
यहाँ तो हर इन्साफ का मंदिर अपराधों की भीड़ में !
खोई मंजिल को पाने की अगर चाहना बाकी है ,
तो फिर तुम अब और न भटको फरियादों की भीड़ में !
स्वराज्य करुण
Tuesday, October 12, 2010
संस्कृत भाषा पर जर्मन हमले का अंदेशा ?
अखबार में खबर है कि भारत सरकार ने केन्द्रीय विद्यालयों को संस्कृत के स्थान पर जर्मन भाषा पढ़ने के इच्छुक बच्चों की सूची तैयार करने का आदेश दिया है . खबर पर सच्चाई की मुहर एक केन्द्रीय विद्यालय के उप-प्राचार्य के उस वक्तव्य से भी लग जाती है ,जो इसी समाचार के साथ है ,जिसमे उन्होंने बताया है कि उनकेयहाँ केन्द्रीय विद्यालय संगठन का एक परिपत्र आया है कि ऐसे विद्यार्थियों की सूची तैयार की जाए , जो संस्कृत के बदले जर्मन भाषा सीखना चाहते हैं . यह खबर भारतीय भाषाओं को देश की अनमोल धरोहर समझने वाले किसी भी भारतीय को व्यथित और विचलित कर सकती है . विविधता में एकता वाली हमारी संस्कृति में संस्कृत भाषा आज प्रचलन में कम होने के बाद भी समस्त भारतीय भाषाओं की माता के रूप में जन-मानस में मान्यता प्राप्त है. इंसान को तरह-तरह की बीमारियों से बचाने के लिए हजारों वर्षों से जिस आयुर्वेद चिकित्सा प्रणाली का इस्तेमाल हो रहा है , वह स्वयं संस्कृत भाषा के महान ग्रन्थ 'अथर्व वेद ' पर आधारित है. अथर्व वेद का एक उप-वेद है आयुर्वेद .स्वयं आज के आधुनिक आयुर्वेद चिकित्सकों का कहना है कि संस्कृत भाषा को उपेक्षित करने पर इस महान चिकित्सा -पद्धति की पढ़ाई को भी नुकसान पहुंचेगा . क्या हम यह भूल जाएं कि महाकवि वाल्मीकि द्वारा रचित 'रामायण' और वेद व्यास रचित 'महाभारत ' जैसे लोकप्रिय महाकाव्य संस्कृत भाषा में है. कर्म-योगी भगवान श्री कृष्ण ने दुनिया को जिस 'भगवत गीता ' का ज्ञान दिया , वह भी संस्कृत में है , समाज को नैतिक मूल्यों की शिक्षा देने वाली पंचतंत्र की कहानियां हमारी इसी मूल्यवान भाषा में है . समय के प्रवाह में , संरक्षण के अभाव और प्रोत्साहन की कमी के चलते इसका चलन कम हो जाने का मतलब यह तो नहीं होना चाहिए कि कभी इस देश की एक महान भाषा रह चुकी संस्कृत को हम दोयम दर्जे में रखकर अपनी नयी पीढ़ी को उससे विमुख होने के लिए प्रोत्साहित करें ! राष्ट्र-भाषा हिन्दी के साथ-साथ हमारी तमाम भारतीय भाषाओं में हर तरह के ज्ञान-विज्ञान का अनमोल खजाना है , जिसे छोड़ कर आज हम उन अंग्रेजों की भाषा के गुलाम बने हुए हैं , जिन्होंने हमारे देश को लगभग डेढ़ सौ साल तक गुलाम बना कर रखा और आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों पर तरह-तरह के अत्याचार किए .वैसे यह ज़रूर है कि इंसान को अधिक से अधिक भाषाओं का ज्ञान अर्जित करना चाहिए , कहते हैं कि देश की आज़ादी के महान योद्धा और आज़ाद हिंद फौज के सस्थापक नेताजी सुभाष बोस को एक सौ आठ भाषाओं का ज्ञान था. एक भारतीय होने के नाते हम अपने दिल पर हाथ रख कर सोचें कि हमे अपने देश के २८ राज्यों में प्रचलित कितनी स्थानीय भाषाओं का सामान्य ज्ञान है ?जब हम हिन्दी , पंजाबी , गुजराती , मराठी . तमिल, ओड़िया बंगाली , असमिया जैसी अनेकानेक भारतीय भाषाओं में से दो-चार भाषाओं को भी ठीक से समझ और बोल नहीं पाते , तब अपने देश के विद्यालयों में (केन्द्रीय विद्यालयों के सन्दर्भ में )जर्मन भाषा की पढ़ाई करवाने का प्रयास कहाँ तक जायज कहा सकता है ,इस पर गंभीरता से विचार करने की ज़रुरत है . अंग्रेजों के जाने के साठ साल बाद भी अंग्रेज़ी का भूत हमारा पीछा नहीं छोड़ रहा है और अब केन्द्रीय विद्यालयों के जरिए जर्मन भाषा की घुसपैठ होने जा रही है .हमारी संस्कृत भाषा और हमारी भारतीय संस्कृति वैसे भी अंग्रेजियत के हमले से कराह रही है , अब उस पर जर्मन भाषा के हमले का अंदेशा सर उठाने लगा है .विदेशी नागरिकों की घुसपैठ रोकने का तो क़ानून है , यह सबको मालूम है लेकिन विदेशी भाषाओं की घुसपैठ रोकने के किसी क़ानून की आपको जानकारी हो तो मुझे कृपया ज़रूर बताएं , ताकि मेरे सामान्य ज्ञान के छोटे से भण्डार में कुछ इजाफा हो सके .
स्वराज्य करुण
१२/१० /२००९
स्वराज्य करुण
१२/१० /२००९
Monday, October 11, 2010
देश -धर्म का नाता है !
गौ माता , गायत्री माता और माँ गंगा की पावन भारत -भूमि पर , खास तौर से शहरी क्षेत्रों में हमारा भारतीय समाज गौ माता और गौ वंश की कैसी सेवा कर रहा है , यह देखने के लिए हमें तस्वीर के दोनों पहलुओं को देखना होगा. एक तरफ अपने ज़िंदा रहने के लिए कचरे के ढेर पर चारे की तलाश करते इन बेजुबान चौपायों को देख कर आसानी से महसूस किया जा सकता है कि ज्यादातर लोग गौ पालन के पवित्र कार्य को कितनी लापरवाही से लेते हैं , वहीं दूसरी तरफ कुछ सेवा भावी गौ शालाओं में गौ वंश की बेहतर देख-भाल को देख कर लगता है कि देश और दुनिया में मानवता अभी ज़िंदा है. खेती में हमारे मददगार गौ वंश की महिमा को किसानों से बेहतर भला कौन समझ सकता है , इसलिए गाँवों में तो उनकी बेहतर देख-भाल हो जाती है,जहां उनके लिए कुदरती तौर पर भी चारे-पानी की पर्याप्त व्यवस्था रहती है , लेकिन आम तौर पर शहरों में लोग अपने घरों में जगह नहीं होने के बाद भी दूध के लिए और कुछ आर्थिक लाभ के लिए गौ पालन की लालसा संभाल नहीं पाते . ऐसे लोग गौ माता को घर में लाकर ,गलियों और सड़कों में उसे अपने हाल पर भटकने के लिए छोड़ देते हैं.यह देख कर भी पीड़ा होती है कि कभी सोने की चिड़िया कहलाने वाले जिस देश में दूध की नदिया बहा करती थी , आज वहां के शहरों में गौ शालाओं से ज्यादा मधुशालाओं का बोलबाला है .
.अपने शहर की एक दीवार पर उस दिन अचानक मेरी निगाह पड़ी तो मानो एक झटका सा लगा . दीवार पर किसी ने अपनी गौ-भक्ति जताने के लिए एक नारा लिखवाया है- 'गौ माता तेरा वैभव अमर रहे' और उसी जगह पर मोहल्ले भर के कूड़े और घूरे के अम्बार में गौ माताएं अपनी बछियों के साथ अपने लिए खाना ढूंढ रही है .जहां पौलिथिन जैसी न जाने कितनी तरह की घातक वस्तुएं बिखरी पड़ी थी . मै सोचने लगा -कितने अनैतिक हैं वे लोग, जो अपने घर का कचरा सार्वजनिक सड़क और चौराहों पर लापरवाही से फेंक जाते हैं . फिर ऐसी जगह पर गौ वंश को चारा तलाशते देख सोचने लगा -अगर हैसियत नहीं है तो गाय पालने का शौक ही क्यों पालते हैं लोग ? बचपन से लेकर जवानी तक और शायद जीवन का सफ़र ख़त्म होने तक हम यह जोशीला नारा सुनते और लगाते रहेंगे -'देश-धर्म का नाता है :गाय हमारी माता है ' लेकिन माता से अपने नाते को कैसे निभाएंगे , शायद इस बारे में सोचने की फ़ुरसत हम लोगों में से बहुतों को नहीं है .
यह तस्वीर भी कुछ कहती है
आज के समय में तेजी से बढ़ती आबादी और जंगल की आग जैसे फैलते शहरों में व्यक्तिगत रूप से गौ पालन काफी मुश्किल होता जा रहा है , ऐसे में अगर किसी को निजी तौर पर गौ सेवा की इच्छा हो तो वह सार्वजनिक गौ शालाओं से जुड़ कर भी यह काम कर सकता है . छत्तीसगढ़ में ऐसी कई संस्थाएं बेहतर काम कर रही हैं . राजनांदगांव की पिंजरापोल गौ शाला पिछले एक सौ छह वर्षों से इस पुनीत कार्य में लगी हुई है .उसकी स्थापना वर्ष १९०४ में हुई थी . राजधानी रायपुर में श्री महाबीर गौ शाला का संचालन पिछले करीब नब्बे साल से किया जा रहा है. इसकी स्थापना सन १९२० में की गई थी. इसकी एक शाखा रायपुर से लगभग ४० किलोमीटर पर ग्राम तर्रा में है. रायपुर और तर्रा को मिलाकर संस्था के पास आज करीब आठ सौ जानवर हैं . इनमे से २२५ पशु तर्रा की शाखा में हैं. दोनों जगह गौ वंश की अच्छी सेवा-टहल होती है. संस्था में लगभग एक हजार सहयोगी आजीवन और संरक्षक दानदाता सदस्य के रूप में शामिल हैं. तर्रा की शाखा में संस्था के पास करीब पच्चीस एकड़ जमीन भी है , जिस पर दोनों जगहों के पशुओं के लिए हरे चारे की खेती की जाती है. हालांकि संस्था के प्रतिनिधियों का कहना है कि दोनों गौ शालाओं में पशुओं की बढ़ती संख्या को देखें तो चारा उगाने के लिए उन्हें आज कम से कम एक सौ एकड़ जमीन चाहिए. पन्द्रह साल पहले संस्था के लिए सिर्फ छत्तीस हजार रूपए एकड़ के भाव से भूमि खरीदी गयी थी , लेकिन जमीन का रेट आज उस इलाके में प्रति एकड़ पच्चीस लाख रूपए के आस-पास है, निश्चित रूप से यह एक बड़ी चुनौती है, इसके बावजूद गौ सेवा का यह कार्य उनके द्वारा समर्पित भाव से किया जा रहा है . कई लोग घरों में जगह की कमी या और किसी कारण से अपने गौ वंशीय पशुओं को संस्था में छोड़ जाते हैं. उनकी भी पूरी देख-भाल वहां होती है.प्रति जानवर एक निर्धारित राशि संस्था को देकर लोग अपनी गायों को यहाँ रख जाते हैं. यह राशि पशुओं की खुराक के लिए होती है,इसलिए इसे 'खुराकी' कहा जाता है. रायपुर के मौदहापारा में श्री महावीर गौ शाला के मुख्य परिसर में गाय बैलों के रहने की व्यवस्था तेरह बड़े शेडों में की गयी है . प्रत्येक शेड में उनके लिए चारा-पानी की अच्छी व्यवस्था है . उन्हें बाकायदा नहलाया -धुलाया जाता है. धार्मिक आस्था से जुड़े कई लोग गोपाष्टमी , जन्माष्टमी ,गोवर्धन पूजा अथवा अन्य किसी विशेष प्रसंग में वहां आकर गायों को रोटी , खीर-पूड़ी और लड्डू-पेड़ा भी खिला जाते हैं. परिसर में बायो-गैस सयंत्र भी लगाया गया है.
गौ शाला से प्रति दिन निकलने वाला गोबर इस सयंत्र में इस्तेमाल कर इसके ज़रिए रसोई-गैस तैयार की जाती है . संस्था को सरकारी अनुदान भी मिलता है .श्री महाबीर गौ शाला छत्तीसगढ़ की उन बयालीस गौ शालाओं में से है , जिनका पंजीयन प्रदेश सरकार द्वारा गठित राज्य गौ सेवा आयोग ने किया है . आयोग द्वारा वर्ष २००८-०९ तक पंजीकृत गौ शालाओं को तीन करोड़ १३ लाख रूपए का अनुदान भी दिया जा चुका है.एक सबसे महत्वपूर्ण बात यह है दस वर्ष पहले बना छत्तीसगढ़ देश का पहला ऐसा राज्य है , जहाँ गौवंशीय पशुओं सहित भैंस वंशीय पशुओं के वध पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है. मुख्य मंत्री डा, रमनसिंह की सरकार ने वर्ष २००४ में ही छत्तीसगढ़ कृषक पशु परिरक्षण अधिनियम लागू कर दुधारू पशुओं की रक्षा के लिए अपनी वचनबद्धता को स्पष्ट कर दिया था. उन्होंने नगरीय निकायों को गोकुल नगर जैसी महत्वपूर्ण योजना दी है. शहरों की घनी बसाहट में चल रही दूध-डेयरियों कोइस योजना के ज़रिए शहर के बाहर सुव्यवस्थित रूप से गौ शालाओं की तर्ज़ पर बसाया जा रहा है .खेती के लिए किसानों को सिर्फ तीन प्रतिशत सालाना ब्याज पर ऋण -सुविधा देने के बाद अब छत्तीसगढ़ सरकार डेयरी व्यवसाय के लिए गौ-पालकों को भी इतनी ही किफायती ब्याजं पर क़र्ज़ दे रही है. रमन सरकार राज्य में कामधेनु विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए भी पुरजोर कोशिश में है.धमतरी जिले के कुरूद निवासी पत्रकार श्री कृपाराम यादव ने अपने साप्ताहिक समाचार पत्र 'छत्तीसगढ़ उदय' की ओर से वर्ष २००९ में गोपाष्टमी पर्व पर प्रकाशित स्मारिका 'गो सेवा सन्देश' में गो वंश और गौ माता के वरदानों के बारे में बहुत ज्ञानवर्धक और उपयोगी सामग्री दी है . कहने का मतलब यह कि समाज में गौ माता की सेवा को गंभीरता से लेने वाले लोग भी हैं.छत्तीसगढ़ में बयालीस पंजीकृत गौ शालाएं भी इसका उदाहरण हैं .जबकि दूसरी तरफ कई ऐसे लोग भी हैं, जो गौ-पालन जैसे पुनीत कार्य को बहुत हलके ढंग से लेते हैं. ऐसे लोग घर में गाय लाकर कुछ दिनों बाद उसे सड़कों पर विचरण के लिए बेसहारा छोड़ देते हैं. अपनी भूख मिटाने के लिए वे कचरे के ढेर पर चारा ढूंढती हैं और अनजाने में पौलिथिन, प्लास्टिक . रद्दी कागज़ और फटे-पुराने कपड़े के टुकड़े और लोहे कील सहित न जाने कितने प्रकार की प्राणघातक चीजें अपने पेट में डाल लेती है. इससे कई बार उनकी असामयिक मौतें भी हो जाती है.
मानव -जीवन पर गौ माता के असंख्य उपकार हैं.पौराणिक मान्यता है कि गौ माता के सम्पूर्ण शरीर में देवी-देवताओं का निवास होता है.देखा और सोचा जाए तो वास्तव में जो दे ,वही देवी और वही देवता .गौ माता हमें कितना कुछ देती है और जब तक जीवित रहती है , कुछ न कुछ देती ही रहती है .इसलिए यह मान्यता यूं ही नहीं बन गयी .मनुष्य पर उसके अनेकानेक वरदानों को देख कर ही लगता है कि समाज में यह सहज भाव से प्रचलित हो गयी. शिशु-अवस्था में माँ का दूध और बचपन में गौ माता का दूध पी कर हम एक स्वस्थ शरीर प्राप्त करते हैं. गौ माता के बछड़े बैल बनकर खेती में किसान के सहयोगी बनते है. गो मूत्र से बन रही औषधियां मधुमेह ,पीलिया और कैंसर जैसी जटिल बीमारियों के इलाज में काफी उपयोगी साबित हो रही हैं.गो मूत्र और गोबर से रोगाणुनाशक फिनायल बन रही है , खेतों में फसलों को कीड़ों से बचाने के लिए गो मूत्र से तैयार कीटनाशक भी काफी अच्छा असर दिखाता है . यह रासायनिक कीट नाशकों के मुकाबले मानव शरीर के लिए ज़रा भी नुकसानदायक नहीं है. मच्छर भगाने के लिए हम आम तौर पर हानिकारक रसायन वाले क्वायल्स का इस्तेमाल करते हैं ,जबकि गो मूत्र और कुछ अन्य वनस्पतियों के मिश्रण से तैयार क्वायल्स मच्छरों को हमसे दूर भगा देते हैं और रासायनिक दुष्प्रभावों से मुक्त होने के कारण हानिकारक भी नहीं होते.वैसे भी गोबर और गो मूत्र से हमारे उपयोग के लिए बनने वाली कोई भी वस्तु हानिकारक नहीं होती . कुटीर उद्योग के रूप में इनका उत्पादन किया जा सकता है .गाय के गोबर से बायो गैस संयंत्र में रसोई गैस के साथ-साथ बिजली बनाने का प्रयोग काफी कामयाब रहा है. गोबर के कंडों को जला कर बनाया गया दन्त-मंजन दाँतों और मुंह के रोगों की रोक-थाम में मददगार होता है. ऐसी महान गौ माता और ऐसे महान गौ वंश की रक्षा के लिए हम नहीं तो आखिर कौन आगे आएगा ? क्या हमारा भारतीय समाज यह भूल गया कि यही वह देश है ,जहाँ योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं आम जनता के साथ गौ पालन कर गौ वंश के संरक्षण का आदर्श स्थापित किया था . यही वजह है कि उन्हें गोपाल , गोविन्द और गोवर्धन के नाम से भी संबोधित किया जाता है . हमारी कृषि-प्रधान और ऋषि-प्रधान संस्कृति में और हमारे सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में गौ माता और गौ वंश की महिमा हजारों-हजार वर्षों से गूँज रही है ? क्या उसकी इस महिमा की रक्षा हमारी नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है ?
स्वराज्य करुण
.अपने शहर की एक दीवार पर उस दिन अचानक मेरी निगाह पड़ी तो मानो एक झटका सा लगा . दीवार पर किसी ने अपनी गौ-भक्ति जताने के लिए एक नारा लिखवाया है- 'गौ माता तेरा वैभव अमर रहे' और उसी जगह पर मोहल्ले भर के कूड़े और घूरे के अम्बार में गौ माताएं अपनी बछियों के साथ अपने लिए खाना ढूंढ रही है .जहां पौलिथिन जैसी न जाने कितनी तरह की घातक वस्तुएं बिखरी पड़ी थी . मै सोचने लगा -कितने अनैतिक हैं वे लोग, जो अपने घर का कचरा सार्वजनिक सड़क और चौराहों पर लापरवाही से फेंक जाते हैं . फिर ऐसी जगह पर गौ वंश को चारा तलाशते देख सोचने लगा -अगर हैसियत नहीं है तो गाय पालने का शौक ही क्यों पालते हैं लोग ? बचपन से लेकर जवानी तक और शायद जीवन का सफ़र ख़त्म होने तक हम यह जोशीला नारा सुनते और लगाते रहेंगे -'देश-धर्म का नाता है :गाय हमारी माता है ' लेकिन माता से अपने नाते को कैसे निभाएंगे , शायद इस बारे में सोचने की फ़ुरसत हम लोगों में से बहुतों को नहीं है .
यह तस्वीर भी कुछ कहती है
आज के समय में तेजी से बढ़ती आबादी और जंगल की आग जैसे फैलते शहरों में व्यक्तिगत रूप से गौ पालन काफी मुश्किल होता जा रहा है , ऐसे में अगर किसी को निजी तौर पर गौ सेवा की इच्छा हो तो वह सार्वजनिक गौ शालाओं से जुड़ कर भी यह काम कर सकता है . छत्तीसगढ़ में ऐसी कई संस्थाएं बेहतर काम कर रही हैं . राजनांदगांव की पिंजरापोल गौ शाला पिछले एक सौ छह वर्षों से इस पुनीत कार्य में लगी हुई है .उसकी स्थापना वर्ष १९०४ में हुई थी . राजधानी रायपुर में श्री महाबीर गौ शाला का संचालन पिछले करीब नब्बे साल से किया जा रहा है. इसकी स्थापना सन १९२० में की गई थी. इसकी एक शाखा रायपुर से लगभग ४० किलोमीटर पर ग्राम तर्रा में है. रायपुर और तर्रा को मिलाकर संस्था के पास आज करीब आठ सौ जानवर हैं . इनमे से २२५ पशु तर्रा की शाखा में हैं. दोनों जगह गौ वंश की अच्छी सेवा-टहल होती है. संस्था में लगभग एक हजार सहयोगी आजीवन और संरक्षक दानदाता सदस्य के रूप में शामिल हैं. तर्रा की शाखा में संस्था के पास करीब पच्चीस एकड़ जमीन भी है , जिस पर दोनों जगहों के पशुओं के लिए हरे चारे की खेती की जाती है. हालांकि संस्था के प्रतिनिधियों का कहना है कि दोनों गौ शालाओं में पशुओं की बढ़ती संख्या को देखें तो चारा उगाने के लिए उन्हें आज कम से कम एक सौ एकड़ जमीन चाहिए. पन्द्रह साल पहले संस्था के लिए सिर्फ छत्तीस हजार रूपए एकड़ के भाव से भूमि खरीदी गयी थी , लेकिन जमीन का रेट आज उस इलाके में प्रति एकड़ पच्चीस लाख रूपए के आस-पास है, निश्चित रूप से यह एक बड़ी चुनौती है, इसके बावजूद गौ सेवा का यह कार्य उनके द्वारा समर्पित भाव से किया जा रहा है . कई लोग घरों में जगह की कमी या और किसी कारण से अपने गौ वंशीय पशुओं को संस्था में छोड़ जाते हैं. उनकी भी पूरी देख-भाल वहां होती है.प्रति जानवर एक निर्धारित राशि संस्था को देकर लोग अपनी गायों को यहाँ रख जाते हैं. यह राशि पशुओं की खुराक के लिए होती है,इसलिए इसे 'खुराकी' कहा जाता है. रायपुर के मौदहापारा में श्री महावीर गौ शाला के मुख्य परिसर में गाय बैलों के रहने की व्यवस्था तेरह बड़े शेडों में की गयी है . प्रत्येक शेड में उनके लिए चारा-पानी की अच्छी व्यवस्था है . उन्हें बाकायदा नहलाया -धुलाया जाता है. धार्मिक आस्था से जुड़े कई लोग गोपाष्टमी , जन्माष्टमी ,गोवर्धन पूजा अथवा अन्य किसी विशेष प्रसंग में वहां आकर गायों को रोटी , खीर-पूड़ी और लड्डू-पेड़ा भी खिला जाते हैं. परिसर में बायो-गैस सयंत्र भी लगाया गया है.
तस्वीर का दूसरा पहलू ; गौ शाला में बेहतर जीवन |
देवी-देवताओं का निवास : गौ माता का शरीर |
स्वराज्य करुण
Saturday, October 9, 2010
(गीत ) कौन उठाए खतरे बोलो !
कौन उठाए खतरे बोलो ,कौन सहे आतंक ,
नन्हीं चिड़ियों को मारे है बिच्छुओं ने डंक !
खुली हवाओं पर लगा है
साजिशों का पहरा ,
संगीनों से इस चमन का
ज़ख्म हुआ है गहरा !
सूरज के माथे पर जाने यह कैसा कलंक ,
नन्हीं चिड़ियों को मारे है बिच्छुओं ने डंक !
शहर झूमता मदहोशी में
गाँव भी बेहोश ,
किस पर डालें जिम्मेदारी
किसका है यह दोष !
कोई बजाये ढपली अपनी ,कोई बजाये शंख ,
नन्हीं चिड़ियों को मारे है बिच्छुओं ने डंक 1
आज़ादी भी कैद हो गयी
बर्बादी के जाल में ,
चोर-लुटेरे खूब खेलते
अपने शॉपिंग-मॉल में !
राजाओं की मौज-मस्ती देख रहा है रंक ,
नन्हीं चिड़ियों को मारे है बिच्छुओं ने डंक !
बेचैनी में आम जनता
दिल में लेकर आग ,
फिर भी उनके रंग -महल में
हर मौसम में फाग !
जिनके सपनों में लूट का व्यापार चले निः शंक,
नन्हीं चिड़ियों को मारे है बिच्छुओं ने डंक !
स्वराज्य करुण
नन्हीं चिड़ियों को मारे है बिच्छुओं ने डंक !
खुली हवाओं पर लगा है
साजिशों का पहरा ,
संगीनों से इस चमन का
ज़ख्म हुआ है गहरा !
सूरज के माथे पर जाने यह कैसा कलंक ,
नन्हीं चिड़ियों को मारे है बिच्छुओं ने डंक !
शहर झूमता मदहोशी में
गाँव भी बेहोश ,
किस पर डालें जिम्मेदारी
किसका है यह दोष !
कोई बजाये ढपली अपनी ,कोई बजाये शंख ,
नन्हीं चिड़ियों को मारे है बिच्छुओं ने डंक 1
आज़ादी भी कैद हो गयी
बर्बादी के जाल में ,
चोर-लुटेरे खूब खेलते
अपने शॉपिंग-मॉल में !
राजाओं की मौज-मस्ती देख रहा है रंक ,
नन्हीं चिड़ियों को मारे है बिच्छुओं ने डंक !
बेचैनी में आम जनता
दिल में लेकर आग ,
फिर भी उनके रंग -महल में
हर मौसम में फाग !
जिनके सपनों में लूट का व्यापार चले निः शंक,
नन्हीं चिड़ियों को मारे है बिच्छुओं ने डंक !
स्वराज्य करुण
Thursday, October 7, 2010
(गीत) बीच धार में !
ठहरी-ठहरी नदिया लगती , गहरा-गहरा पानी ,
डूब रही है बीच धार में युग की नयी जवानी !
कहाँ है ममता के फूलों के
किसी चमन -सा हिरदय हमारा
जीवन की यात्रा में राह से
हुआ नहीं परिचय हमारा !
हर मुकाम पर दिशा भूलने वाले हम सैलानी ,
डूब रही है बीच धार में युग की नयी जवानी !
प्रवचन बहुत सुना हमने पर
प्रवंचना से मुक्त हुए क्या ,
उपदेशों की प्रयोगशाला से
अब तक संयुक्त हुए क्या !
जब भी अवसर आया अपनी रक्षा की ही ठानी ,
डूब रही है बीच धार में युग की नयी जवानी !
स्वराज्य करुण
डूब रही है बीच धार में युग की नयी जवानी !
कहाँ है ममता के फूलों के
किसी चमन -सा हिरदय हमारा
जीवन की यात्रा में राह से
हुआ नहीं परिचय हमारा !
हर मुकाम पर दिशा भूलने वाले हम सैलानी ,
डूब रही है बीच धार में युग की नयी जवानी !
प्रवचन बहुत सुना हमने पर
प्रवंचना से मुक्त हुए क्या ,
उपदेशों की प्रयोगशाला से
अब तक संयुक्त हुए क्या !
जब भी अवसर आया अपनी रक्षा की ही ठानी ,
डूब रही है बीच धार में युग की नयी जवानी !
स्वराज्य करुण
अपनी जड़ों से दूर आसमान होता है !
इंसानियत को समझे वो इंसान होता है ,
फिर भी न जाने क्यों नादान होता है !
जिंदगी गुजरती है हर पल ज़मीन पर
अपनी जड़ों से दूर आसमान होता है !
दो दिन के लिए आया है जाने कहाँ से वो ,
सब जान कर भी राह से अनजान होता है !
ईमान -धरम से भी हैं जीने के बहुत मौके ,
जाने क्यों दिल उसका बेईमान होता है !
साधू की तरह पाया जिस आदमी को हमने ,
देखा तो उसके भीतर भी शैतान होता है !
कभी चलता है धीमे-धीमे सुबह की हवाओं -सा
कभी आग की नदी में क्यों तूफ़ान होता है !
स्वराज्य करुण
फिर भी न जाने क्यों नादान होता है !
जिंदगी गुजरती है हर पल ज़मीन पर
अपनी जड़ों से दूर आसमान होता है !
दो दिन के लिए आया है जाने कहाँ से वो ,
सब जान कर भी राह से अनजान होता है !
ईमान -धरम से भी हैं जीने के बहुत मौके ,
जाने क्यों दिल उसका बेईमान होता है !
साधू की तरह पाया जिस आदमी को हमने ,
देखा तो उसके भीतर भी शैतान होता है !
कभी चलता है धीमे-धीमे सुबह की हवाओं -सा
कभी आग की नदी में क्यों तूफ़ान होता है !
स्वराज्य करुण
Tuesday, October 5, 2010
नदी के सम्मान में नत-मस्तक मंदिर !
.वास्तव में परोपकार तो कोई नदियों से सीखे .हर किसी की प्यास बुझाने वाली नदियाँ अपना पानी खुद नहीं पीतीं . वे अपने पानी से इंसान, जानवर और पेड़-पौधों सहित सम्पूर्ण जीव-जगत में प्राणों का संचार कर दुनिया में चहल-पहल बनाए रखती हैं.ऐसे में किसी नदी के इस उपकार के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए कोई मंदिर अगर पिछले नौ सौ वर्षों से नत-मस्तक खड़ा हो , तो देखकर भला किसे आश्चर्य नहीं होगा ? आश्चर्य इसलिए कि आज की दुनिया में ऐसा नज़ारा दुर्लभ है . आज का इंसान किसी के एहसान का क्या प्रतिफल देता है , इसे हर कोई देख रहा है . वह एहसान करने वाले के लिए सम्मान प्रकट करना तो दूर ,उसे धन्यवाद देना तक भूल जाता है ,लेकिन उड़ीसा के पश्चिमांचल में महानदी के किनारे ग्राम हुमा में 'वक्र मंदिर' के नाम से प्रसिद्ध बाबा विमलेश्वर के मंदिर को देख कर ऐसा लगता है मानो यह इस नदी के लिए आदर भाव के साथ हर मौसम में शीश झुकाए अपनी ओर से आज की दुनिया को यह सन्देश दे रहा है कि इंसान को नदियों का एहसान कभी नहीं भूलना चाहिए . शायद आप भी मेरे साथ वहां ज़रूर चलना चाहेंगे , लेकिन इसके पहले हम अपने सफ़र की शुरुआत करेंगे नदी के उदगम से और महसूस करेंगे इसके दोनों किनारों पर छत्तीसगढ़ और उत्कल राज्य में इसकी जल -धाराओं के साथ प्रवाहित अनेकानेक सांस्कृतिक धाराओं की गरिमा और महिमा को .
हमारी महान भारतीय संस्कृति में अधिकाँश तीर्थ नदियों के किनारे विकसित ,पुष्पित और पल्लवित हुए हैं.गंगा-यमुना- सरस्वती से लेकर महानदी , नर्मदा , क्षिप्रा , और कृष्णा -कावेरी-गोदावरी तक देश में नदियों के किनारे-किनारे तीर्थों की एक लंबी कतार पुष्प-मालाओं और दीप-मालिकाओं की तरह भारत-माता के मान-चित्र को सैकड़ों-हजारों वर्षों से सुशोभित करती आ रही हैं.भारतीय इतिहास और संस्कृति की पावन जल-धाराएं भी इन्हीं नदियों के पवित्र आँचल से निकल कर दूर-दूर तक फैलती चली गयी है. भारतीय राज्य छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की जीवन-रेखा है महानदी,जो छत्तीसगढ़ के सिहावा पर्वत से निकल कर उड़ीसा में कटक के नज़दीक बंगाल की खाड़ी में अपनी लगभग आठ सौ पच्यासी किलोमीटर लंबी यात्रा को पूर्ण-विराम देती है. कई सहायक नदियाँ भी महानदी में समाहित होकर उसका हमसफ़र बन जाती हैं .महानदी का एक प्राचीन नाम चित्रोत्पला भी है . नदियों के देश भारत में दूसरी नदियों की तरह महानदी के दोनों किनारों पर भी धार्मिक-आस्था और ऐतिहासिक-सांस्कृतिक महत्व के अनेक दर्शनीय स्थान हैं,जहाँ हमारे इतिहास और हमारी परम्पराओं का गौरव बढ़ाने वाले पूजा-अनुष्ठानों और मेले-ठेलों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही एक लंबी श्रृंखला है .
छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के सिहावा में इस नदी की उदगम भूमि रामायण-काल के महान तपस्वी श्रृंगी -ऋषि की तपो-भूमि के रूप में लाखों लोगों की आस्था का केन्द्र है .इसी जिले में इस नदी पर निर्मित विशाल गंगरेल बाँध राज्य के लाखों किसानों के खेतों की प्यास बुझाने का एक बहुत बड़ा संसाधन है. सिहावा से आगे चलें तो रायपुर जिले में धार्मिक-नगरी राजिम में महानदी अपनी दो सहायक नदियों-पैरी और सोंढूर के साथ त्रिवेणी संगम बनाती है , जहाँ आठवीं-नवमी शताब्दी में निर्मित भगवान श्री ,राजीवलोचन और कुलेश्वर महादेव के प्रसिद्ध मंदिर हैं . छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह की सरकार ने यहाँ माघ-पूर्णिमा के पन्द्रह-दिवसीय वार्षिक मेले को पिछले कुछ वर्षों में अपने बेहतर प्रबंधन के ज़रिए 'राजिम-कुम्भ ' के नाम से एक नयी पहचान दिलाई है , जिससे यह परम्परागत मेला अब देश भर के लाखों श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र बन गया है .अब तो इसे देश का पांचवां कुम्भ भी कहा जाने लगा है .राजिम से आगे निकलें तो करीब १५ किलोमीटर पर महाप्रभु वल्लभाचार्य के जन्म-स्थान के नाम से प्रसिद्ध चम्पारण्य है , जहाँ पंद्रहवीं सदी में जन्मे महाप्रभु ने वैष्णव सम्प्रदाय को जन-जन तक पहुंचाने का ऐतिहासिक कार्य किया. यहाँ उनके पवित्र मंदिर की अपनी महिमा है. वहां से आगे जाएँ तो पुराण-प्रसिद्ध दानवीर राजा मोरध्वज की नगरी के नाम से मशहूर आरंग मिलेगा , जहाँ ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में निर्मित जैन सम्प्रदाय का मंदिर भांड-देवल इतिहास और पुरातत्व के नज़रिए से भी काफी महत्व रखता है . आरंग से आगे महानदी महासमुंद जिले में दाखिल होती है .इस जिले में दक्षिण कोशल के नाम से प्रसिद्ध प्राचीन छत्तीसगढ़ की राजधानी सिरपुर है , जो अपने ऐतिहासिक स्मारकों की वजह से शैव, वैष्णव और बौद्ध संस्कृतियों का त्रिवेणी संगम माना जाता है और जहाँ पांचवीं से दसवीं सदी के बोलते इतिहास के रूप में खड़े लक्ष्मण मंदिर , गंधेश्वर मंदिर और बौद्ध स्मारक लोगों के आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं . सिरपुर और आस-पास के कुछ किलोमीटर के दायरे में शैव, वैष्णव और बौद्ध प्रतिमाओं सहित जैन-प्रतिमाएं भी उत्खनन में मिली हैं . इसी महानदी के किनारे रायपुर जिले में तुरतुरिया को 'रामायण' के महाकवि महर्षि वाल्मिकी की तपोभूमि और गिरौदपुरी को अठारहवीं सदी के महान समाज सुधारक और सतनाम पंथ के प्रवर्तक संत गुरु घासीदास की जन्म स्थली और तपोभूमि होने का गौरव प्राप्त है . वहाँ से थोड़ा आगे चले जाएँ तो महानदी जांजगीर -चाम्पा जिले के प्रसिद्ध तीर्थ शिवरीनारायण में शिवनाथ और जोंक नदियों के पवित्र संगमसे जुडती है. माघ-पूर्णिमा पर शिवरीनारायण में लगने वाले वार्षिक मेले का भी छत्तीसगढ़ के जन-जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है .महानदी शिवरीनारायण से चंद्रपुर आती है , जहाँ मांड नदी केसाथ इसके संगम तट पर देवी चंद्रहासिनी और नाथल दाई के प्राचीन मंदिर हैं. चंद्रपुर से होकर रायगढ़ जिले में प्रवाहित होते हुए महानदी उत्कल प्रदेश ( उड़ीसा) में प्रवेश करती है , जहाँ सम्बलपुर के पास इस पर १९५७ में निर्मित विश्व-विख्यात हीराकुद बाँध के चार हजार ८०० मीटर के दायरे में यह अपनी अपार , अथाह और विशाल जल-राशि से किसी महासागर का नज़ारा पेश करती है. . हीराकुद बाँध भारतीय इजीनियरिंग की एक शानदार मिसाल है, जिसका शिलान्यास देश की आज़ादी के महज आठ महीने बाद १२ अप्रेल १९४८ को हमारे प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था. लगभग नौ साल में निर्माण पूरा हुआ और नेहरूजी ने ही १३ जनवरी १९५७ को इसका लोकार्पण भी किया. करीब ७४३ वर्ग किलोमीटर के जल-विस्तार वाले इस बाँध से उड़ीसा में किसानों के तीन लाख ९० हजार एकड़ खेतों को पानी मिलता है और ३२७ मेगावाट बिजली पैदा होती है . हीराकुद से आगे देखें तो महानदी का आँचल रेतीला नहीं बल्कि पथरीला हो जाता है .सम्बलपुर में इस नदी के किनारे माँ समलेश्वरी का प्राचीन मंदिर पश्चिम उड़ीसा के प्रमुख आस्था केन्द्रों में से एक है . वहां से महानदी आगे सोनपुर की तरफ निकल पडती है . हीराकुद से करीब ४५ किलोमीटर और सम्बलपुर से २५ किलोमीटर पर हुमा-धुमा के नाम से मशहूर ग्राम हुमा में इसके तट पर बाबा विमलेश्वर महादेव का लगभग नौ सौ साल पुराना मंदिर अपनी विशेष निर्माण शैली की के कारण वक्र-मंदिर के नाम से दूर-दूर तक प्रसिद्ध है. आम तौर पर सभी मंदिर और भवन सीधे तन कर खड़े होते हैं लेकिन वहां न केवल बाबा विमलेश्वर का मुख्य मंदिर बल्कि उसी परिसर में स्थित दो छोटे शिव-मंदिर भी कुछ वक्राकार झुके हुए नज़र आते हैं . बाबा विमलेश्वर के मंदिर के गर्भ गृह के प्रवेश द्वार की चौखट भी कुछ तिरछापन लिए हुए है.पीसा की झुकती हुई नज़र आती मीनार तो मैंने नहीं देखी लेकिन अपनी महानदी के पावन तट पर झुकी हुई संरचना वाले इस मंदिर को देख कर उसकी याद ज़रूर आ गयी.बाबा विमलेश्वर महादेव की महिमा तो अपरम्पार है ही , मंदिर के तिरछेपन या झुकी हुई मुद्रा के कारण ही उनके इस मंदिर को 'वक्र-मंदिर' के नाम से ख्याति मिली है .यह सचमुच आश्चर्य का विषय है कि नौ सौ साल से यह मंदिर इसी तरह शान से खडा है और बड़ी शालीनता से जीवनदायिनी माँ महानदी के प्रति झुक कर अपना सम्मान प्रकट कर रहा है .
पुजारी श्री भवानी सेनापति ने चर्चा के दौरान मुझे बताया कि सन १११९ में जगन्नाथ पुरी के राजा अनंग भीम देव ने बाबा विमलेश्वर के मंदिर का निर्माण करवाया था . अपने निर्माण काल से ही यह मंदिर इसी तरह झुका हुआ नज़र आता है . भारत सरकार ने ऐतिहासिक स्मारक संरक्षण अधिनियम १९५६ के तहत इसे संरक्षित स्मारक घोषित किया है . मंदिर के पीछे कल-कल बहती महानदी का अपना एक अदभुत सौंदर्य और अनोखा आकर्षण है नदी के आँचल में कई बड़े शिलाखंड हैं , जिनके बीच से होकर पानी का प्रवाह लगातार जारी रहता है . यहाँ का एक और अनोखा आकर्षण बन जाती हैं वे मछलियाँ जो तीर्थ-यात्रियों द्वारा घाट पर उन्हें चारा देने पर झुण्ड के झुण्ड झपटने का प्रयास करती नज़र आती है. उन्हें यहाँ पूर्ण संरक्षण प्राप्त है. कोई भी इन मछलियों को मारने की हिमाकत नहीं कर सकता . सैकड़ों साल पहले एक मछुआरे ने ऐसा दुस्साहस किया और किसी मछली को काटने की कोशिश की तो वह पत्थर की मूर्ति में बदल गया . वह मूर्ति आज भी वहां मौजूद है . यह भी बताया जाता है कि ज्यादा बारिश होने पर महानदी जब उफान पर होती है ,तो मंदिर के गर्भ-गृह में बनी सुरंग के रास्ते एक बड़ी मछली अक्सर गर्भ-गृह में पहुँच जाती है और स्थिति सामान्य होने पर उसी सुरंग के रास्ते लौट भी जाती है. बहरहाल महानदी के शांत-शीतल तट पर नदी को प्रणाम करने की मुद्रा में झुके हुए इस मंदिर को देख कर मन में सहज ही यह सवाल जाग उठता है कि हम इंसान भी नदियों का एहसान मान कर कुछ देर के लिए ही सही , क्या कभी उनके आगे नत-मस्तक होंगे ? जब एक मंदिर नौ सौ वर्षो से नदी के सम्मान में माथ नवाए खड़ा है ,तो क्या हम इंसान अपने आस-पास की किसी नदी को महज नौ मिनट या नौ सेकेण्ड भी इतना आदर नहीं दे सकते ? लेकिन हम एहसान-फरामोशों को तो फिलहाल अपनी नदियों के अमृत जैसे पानी को ज़हरीला करने से फुरसत नहीं है ! फिर भी ग्राम हुमा का यह नत-मस्तक 'वक्र मंदिर' बारम्बार हमारे भीतर के सोए हुए इंसान को झकझोरने की कोशिश कर रहा है. देखें ! कब जागती है हमारी इंसानियत !
स्वराज्य करुण
पश्चिम उड़ीसा में महानदी के तट पर 'वक्र-मंदिर' और गर्भ-गृह , ग्राम हुमा |
छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के सिहावा में इस नदी की उदगम भूमि रामायण-काल के महान तपस्वी श्रृंगी -ऋषि की तपो-भूमि के रूप में लाखों लोगों की आस्था का केन्द्र है .इसी जिले में इस नदी पर निर्मित विशाल गंगरेल बाँध राज्य के लाखों किसानों के खेतों की प्यास बुझाने का एक बहुत बड़ा संसाधन है. सिहावा से आगे चलें तो रायपुर जिले में धार्मिक-नगरी राजिम में महानदी अपनी दो सहायक नदियों-पैरी और सोंढूर के साथ त्रिवेणी संगम बनाती है , जहाँ आठवीं-नवमी शताब्दी में निर्मित भगवान श्री ,राजीवलोचन और कुलेश्वर महादेव के प्रसिद्ध मंदिर हैं . छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह की सरकार ने यहाँ माघ-पूर्णिमा के पन्द्रह-दिवसीय वार्षिक मेले को पिछले कुछ वर्षों में अपने बेहतर प्रबंधन के ज़रिए 'राजिम-कुम्भ ' के नाम से एक नयी पहचान दिलाई है , जिससे यह परम्परागत मेला अब देश भर के लाखों श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र बन गया है .अब तो इसे देश का पांचवां कुम्भ भी कहा जाने लगा है .राजिम से आगे निकलें तो करीब १५ किलोमीटर पर महाप्रभु वल्लभाचार्य के जन्म-स्थान के नाम से प्रसिद्ध चम्पारण्य है , जहाँ पंद्रहवीं सदी में जन्मे महाप्रभु ने वैष्णव सम्प्रदाय को जन-जन तक पहुंचाने का ऐतिहासिक कार्य किया. यहाँ उनके पवित्र मंदिर की अपनी महिमा है. वहां से आगे जाएँ तो पुराण-प्रसिद्ध दानवीर राजा मोरध्वज की नगरी के नाम से मशहूर आरंग मिलेगा , जहाँ ग्यारहवीं-बारहवीं सदी में निर्मित जैन सम्प्रदाय का मंदिर भांड-देवल इतिहास और पुरातत्व के नज़रिए से भी काफी महत्व रखता है . आरंग से आगे महानदी महासमुंद जिले में दाखिल होती है .इस जिले में दक्षिण कोशल के नाम से प्रसिद्ध प्राचीन छत्तीसगढ़ की राजधानी सिरपुर है , जो अपने ऐतिहासिक स्मारकों की वजह से शैव, वैष्णव और बौद्ध संस्कृतियों का त्रिवेणी संगम माना जाता है और जहाँ पांचवीं से दसवीं सदी के बोलते इतिहास के रूप में खड़े लक्ष्मण मंदिर , गंधेश्वर मंदिर और बौद्ध स्मारक लोगों के आकर्षण का केंद्र बने हुए हैं . सिरपुर और आस-पास के कुछ किलोमीटर के दायरे में शैव, वैष्णव और बौद्ध प्रतिमाओं सहित जैन-प्रतिमाएं भी उत्खनन में मिली हैं . इसी महानदी के किनारे रायपुर जिले में तुरतुरिया को 'रामायण' के महाकवि महर्षि वाल्मिकी की तपोभूमि और गिरौदपुरी को अठारहवीं सदी के महान समाज सुधारक और सतनाम पंथ के प्रवर्तक संत गुरु घासीदास की जन्म स्थली और तपोभूमि होने का गौरव प्राप्त है . वहाँ से थोड़ा आगे चले जाएँ तो महानदी जांजगीर -चाम्पा जिले के प्रसिद्ध तीर्थ शिवरीनारायण में शिवनाथ और जोंक नदियों के पवित्र संगमसे जुडती है. माघ-पूर्णिमा पर शिवरीनारायण में लगने वाले वार्षिक मेले का भी छत्तीसगढ़ के जन-जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है .महानदी शिवरीनारायण से चंद्रपुर आती है , जहाँ मांड नदी केसाथ इसके संगम तट पर देवी चंद्रहासिनी और नाथल दाई के प्राचीन मंदिर हैं. चंद्रपुर से होकर रायगढ़ जिले में प्रवाहित होते हुए महानदी उत्कल प्रदेश ( उड़ीसा) में प्रवेश करती है , जहाँ सम्बलपुर के पास इस पर १९५७ में निर्मित विश्व-विख्यात हीराकुद बाँध के चार हजार ८०० मीटर के दायरे में यह अपनी अपार , अथाह और विशाल जल-राशि से किसी महासागर का नज़ारा पेश करती है. . हीराकुद बाँध भारतीय इजीनियरिंग की एक शानदार मिसाल है, जिसका शिलान्यास देश की आज़ादी के महज आठ महीने बाद १२ अप्रेल १९४८ को हमारे प्रथम प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था. लगभग नौ साल में निर्माण पूरा हुआ और नेहरूजी ने ही १३ जनवरी १९५७ को इसका लोकार्पण भी किया. करीब ७४३ वर्ग किलोमीटर के जल-विस्तार वाले इस बाँध से उड़ीसा में किसानों के तीन लाख ९० हजार एकड़ खेतों को पानी मिलता है और ३२७ मेगावाट बिजली पैदा होती है . हीराकुद से आगे देखें तो महानदी का आँचल रेतीला नहीं बल्कि पथरीला हो जाता है .सम्बलपुर में इस नदी के किनारे माँ समलेश्वरी का प्राचीन मंदिर पश्चिम उड़ीसा के प्रमुख आस्था केन्द्रों में से एक है . वहां से महानदी आगे सोनपुर की तरफ निकल पडती है . हीराकुद से करीब ४५ किलोमीटर और सम्बलपुर से २५ किलोमीटर पर हुमा-धुमा के नाम से मशहूर ग्राम हुमा में इसके तट पर बाबा विमलेश्वर महादेव का लगभग नौ सौ साल पुराना मंदिर अपनी विशेष निर्माण शैली की के कारण वक्र-मंदिर के नाम से दूर-दूर तक प्रसिद्ध है. आम तौर पर सभी मंदिर और भवन सीधे तन कर खड़े होते हैं लेकिन वहां न केवल बाबा विमलेश्वर का मुख्य मंदिर बल्कि उसी परिसर में स्थित दो छोटे शिव-मंदिर भी कुछ वक्राकार झुके हुए नज़र आते हैं . बाबा विमलेश्वर के मंदिर के गर्भ गृह के प्रवेश द्वार की चौखट भी कुछ तिरछापन लिए हुए है.पीसा की झुकती हुई नज़र आती मीनार तो मैंने नहीं देखी लेकिन अपनी महानदी के पावन तट पर झुकी हुई संरचना वाले इस मंदिर को देख कर उसकी याद ज़रूर आ गयी.बाबा विमलेश्वर महादेव की महिमा तो अपरम्पार है ही , मंदिर के तिरछेपन या झुकी हुई मुद्रा के कारण ही उनके इस मंदिर को 'वक्र-मंदिर' के नाम से ख्याति मिली है .यह सचमुच आश्चर्य का विषय है कि नौ सौ साल से यह मंदिर इसी तरह शान से खडा है और बड़ी शालीनता से जीवनदायिनी माँ महानदी के प्रति झुक कर अपना सम्मान प्रकट कर रहा है .
हुमा के वक्र-मंदिर के पीछे महानदी |
स्वराज्य करुण
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