हिन्दी साहित्य के विशाल संसार में नवोदित कवि अरविन्द की पहली काव्य-पुस्तक 'माँ ने कहा था ' निर्मल भाव-पंक्तियों के रूप में चार-चार पंखुड़ियों वाले 273 फूलों की एक ऐसी माला बन कर आयी है ,जिसके हर फूल में हर इंसान माँ की ममता और महिमा की खुशबू को मन ही मन महसूस कर सकता है. पुस्तक में अरविन्द इस लघु खंड-काव्य की पृष्ठ-भूमि पर महाभारत के अनुशासन-पर्व के एक श्लोक से 'अपनी बात ' शुरू करते हैं. उन्होंने इस श्लोक का भावार्थ बताते हुए लिखा है - ' मनुष्य जिस व्यवहार से पिता को प्रसन्न करता है ,भगवान प्रजापति प्रसन्न होते हैं . जिस बर्ताव से वह माता को संतुष्ट करता है , उससे पृथ्वी देवी की भी पूजा हो जाती है .
इस काव्य पुस्तक से यह भी आसानी से अनुभव किया जा सकता है कि युवा कवि अरविन्द के जीवन पर उनकी ममतामयी माँ के व्यक्तित्व का गहरा प्रभाव है .उनका यह कहना भी वास्तव में महत्वपूर्ण है कि गर्भावस्था से ही इंसान का अपनी माँ से संवाद प्रारम्भ हो जाता है और जीवन-मृत्यु से परे ये संवाद महासागर की तरह अंतहीन होते हैं. अरविन्द के इन विचारों से और उनकी इस काव्य मालिका के प्रथम पुष्प से महाभारत के अभिमन्यु की याद भी ताजा हो जाती है . आप भी महसूस कीजिए --
पहली बार सुना मै माँ को
था सोया जब माँ के अंदर ,
आज भी सुनता हूं मै स्वर को ,
आज भी हूं मै माँ के अंदर !
अरविन्द 'अपनी बात 'में यह भी कहते हैं कि माँ की कही -अनकही बातों को गद्य अथवा पद्य रूप देना कठिन ही नहीं ,बल्कि असम्भव है . कवि के ही शब्दों में -- 'उस अंतहीन सागर को टुकड़ों में ही सही , समेटने का दुस्साहस कर रहा हूं . नारी जननी होती है और जननी की आराधना से बढ़ कर कोई धर्म नहीं होता . कवि अरविन्द ने अपने सृजन में अपनी माता से मन ही मन संवाद करते हुए मानव-कल्याण की भावनाओं को भी स्वर दिया है . उनकी इस लंबी काव्य रचना की हर पंक्ति में व्यक्ति और समाज के लिए कोई न कोई प्रेरणा दायक सन्देश ज़रूर मिलता है .ज़रा इन पंक्तियों को देखें--
हर प्राणी में दया भाव हो
बहे प्रेम की निश्छल धारा ,
हो स्वतंत्र पशु और पक्षी भी
मानव धर्म करे जग सारा !
(134 )
जैसी है बाईबिल की मरियम
वैसी ही रामायण की सीता ,
गांधी बुद्ध वही कहते हैं
जैसा कहती कृष्ण की गीता !
(143)
हमारी महान भारतीय संस्कृति में न सिर्फ जननी को, बल्कि जिस पवित्र भूमि पर हम जन्म लेते हैं , उसे भी 'माता' के रूप में सम्मान दिया जाता है. हमारे लिए भारत-भूमि 'भारत माता ' है. हमारे यहाँ तो 'जननी -जन्म भूमि' को स्वर्ग से भी महान माना गया है . हम लोग अपनी पवित्र नदियों को और गायों को भी उनके महान उपकारों के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए माता कह कर पुकारते हैं. अपने इस लघु खंड काव्य में कवि ने माता के महिमा गायन के साथ-साथ उसे धरती माता के रूप में भी देखा है . वह आज की दुनिया में हो रहे बेतरतीब और बेरहम औद्योगिक विकास की वज़ह से धरती के बदलते-बिगड़ते पर्यावरण को लेकर भी चिंतित है --
हरे-भरे वृक्षों की हत्या
उनकी लाशों पर महल बनाए ,
लालची होकर ,कर शिकार
अपने घरों में ज्योति जलाए !
(117)
उद्योगों की झड़ी लगा दी
हुई हमारी जलवायु प्रदूषित ,
मैली हुई प्रकृति निर्मला
होते थे जिससे हम पोषित !
(118)
देखा मैंने माँ के मुख पर
बदल रही पृथ्वी की सूरत ,
सूख चुकी सरिता की धारा
विशालकाय सागर की मूरत !
(122 )
मेरे ख़याल से अरविन्द की यह पहली कविता -पुस्तक जहां मानव-जीवन के दार्शनिक-भावों को सहज-सरल शब्दों में पाठकों के सामने रखने का एक सार्थक प्रयास है , वहीं माँ की महिमा के माध्यम से कवि ने राज-धर्म, समाज-धर्म और मानव-धर्म के मर्म को भी छूने की कोशिश की है . मैकेनिकल इंजीनियरिंग में तीन वर्षीय डिप्लोमा और स्नातक डिग्री धारक अरविन्द जी दक्षिण-पूर्व मध्य रेलवे ,बिलासपुर(छत्तीसगढ़ ) में भण्डार -नियंत्रक कार्यालय में डिपो वस्तु अधीक्षक के पद पर कार्यरत हैं.साहित्य में उनकी दिलचस्पी और इस काव्य-पुस्तक में उनकी लेखनी से निकले मनोभावों से लगता है कि एक मैकेनिकल इंजीनियर के रूप में मशीनों के साथ-साथ मानव-मन की बारीकियों को भी उन्होंने बेहतर पहचाना है . भाई अरविन्द कुमार झा ग्राम/पोस्ट -हरिपुर बख्शी टोला, जिला -मधुबनी (बिहार ) के स्थायी निवासी हैं . ब्लॉग-जगत में भी वे सक्रिय हैं . उनका ब्लॉग है- krantidut.blogspot.com प्रथम पुस्तक के प्रकाशन पर उन्हें बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं .हिन्दी ब्लॉग-जगत के जाने-माने लेखक भाई ललित शर्मा को बहुत-बहुत धन्यवाद ,जिनके सौजन्य से मुझे मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण यह पुस्तक पढ़ने को मिली और कवि अरविन्द की काव्य-प्रतिभा से परिचय का अवसर मिला .
स्वराज्य करुण