- स्वराज करुण
बीती रात महात्मा गाँधी मेरे घर आए । मैंने उनका स्वागत करते हुए कहा - हे राष्ट्रपिता !मेरा सौभाग्य है कि आपकी चरण धूलि से मेरा घर पवित्र हुआ । आप इसी तरह बीच -बीच में कुछ समय निकाल कर भारत भ्रमण पर आ जाया करें । मुझे आशीर्वाद देते हुए उन्होंने कहा - " कृपा करके मुझे राष्ट्रपिता कहकर शर्मिंदा मत करो । राष्ट्र के बेटे -बेटियों को अब मेरी परवाह कहाँ ? आज़ादी मिलते ही इस धरती की संतानों ने एक -दूजे के ख़ून के प्यासे बनकर और अपने ही राष्ट्र को बेरहमी से दो टुकड़ों में काटकर अखण्ड भारत के सपने को धूल में मिला दिया ! "
गाँधीजी बोले -" बेटा स्वराज करुण ! अब इस देश में आकर मैं करूंगा भी क्या ? अच्छा हुआ जो मेरी हत्या कर दी गयी ,वरना हर तरफ गुण्डे -मवालियों , हत्यारों ,लुटेरों, लफंगों , बलात्कारियों और शराबियों की बढ़ती खौफनाक भीड़ और बेतहाशा बढ़ती बेरहम अमीरी के इस भयानक मंजर में आज मेरे लिए तनावग्रस्त होकर आत्महत्या का रास्ता ही मेरे लिए बाकी रह जाता ! इसलिए मैं अपने उस हत्यारे को धन्यवाद देना चाहता हूँ ,जिसने धरती पर मेरी आँखें हमेशा के लिए बन्द करवा दी ,वरना इस देश में आज का यह भयानक माहौल मुझे खुदकुशी के लिए मज़बूर कर देता । "
अपने चश्मे पर जमी धूल की हल्की-सी परत को खादी की धोती के कोने से पोछते हुए उन्होंने कहा-" सुनो ,स्वराज करुण ! जिस देश में सड़कों के किनारे भोजनालयों के बजाय मदिरालय खुले हुए हों , पाठशालाओं की जगह मधुशालाओं की संख्या बढ़ रही हो, मेरी तस्वीरों वाले सरकारी नोटों से रसूखदार बने लोग उन नोटों के जरिए धड़ल्ले से के किसम -किसम के अनैतिक कारोबार में लगे हों , जहाँ सुमधुर स्वदेशी भाषाओं के अलंकार की जगह विदेशी भाषा अंग्रेजी और अंग्रेजियत के अहंकार का बोलबाला हो , जिस देश में दूध के अमृतरस की जगह दारू की नदियाँ बह रही हों , खेतों में अनाज की जगह लोहे -लक्कड़ के कारखाने खुल रहे हों ,वहाँ भला किसी को मेरी क्या ज़रूरत ?
वो कह रहे थे - " यार स्वराज करुण ! जिस देश में लोग मन्दिर - मस्ज़िद के नाम पर मुकदमेबाजी से लेकर व्यर्थ की हिंसक बहसबाजी करते हुए मरने - मारने पर उतारू हों , जहाँ गौमाताओं को और गोवंश के निरीह दुधारू पशुओं को पौष्टिक चारे के बजाय प्लास्टिक जैसा ज़हर खाने को विवश किया जा रहा हो , जहाँ बीमारियों का इलाज करवाने के लिए गरीबों को अपना घर -आँगन तक बेचने के लिए बाध्य होना पड़ रहा हो ,उस देश को अब मेरी जरुरत ही कहाँ रह गयी है ? इसलिए अपने जन्मदिन पर 2 अक्टूबर को मैं अपने उस हत्यारे को धन्यवाद देना चाहूंगा ,जिसने मेरी आँखें हमेशा के लिए बन्द करवा दी और मुझे ऐसे डरावने मंजरों को देखने से बचा लिया । अच्छा ,स्वराज करुण ! अब मैं चलता हूँ !"
नींद खुली तो मैंने देखा - गाँधीजी तो मेरे घर से जा चुके थे ,लेकिन आस-पास ही नहीं , दूर -दूर तक भी वैसा ही माहौल था जिसका जिक्र उन्होंने स्वप्निल बातचीत के दौरान मुझसे किया था । मैं सोच रहा था - वह आज अगर हमारे बीच होते तो 150 साल के हो गए होते ,लेकिन उवास्तव में उन्हें अपनी मौत के लिए किसी सिरफ़िरे हत्यारे की जरूरत नहीं होती ।आज के दौर में अपने और हमारे आस -पास का माहौल देखकर वह खुद फाँसी लगाकर आत्महत्या कर चुके होते । निहत्थे गाँधी की किस्मत में किसी हथियारधारक हत्यारे के हाथों मरना लिखा हुआ था ।
-स्वराज करुण