Wednesday, November 2, 2022

(आलेख) छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य : कितना पुराना है इतिहास ? - स्वराज्य करुण

      तथ्यों और तर्कों के आईने में तीन महत्वपूर्ण पुस्तकें 

                 (आलेख - स्वराज्य करुण)

भारत के प्रत्येक राज्य और वहाँ के प्रत्येक अंचल की अपनी भाषाएँ ,अपनी बोलियाँ ,अपना साहित्य ,अपना संगीत और अपनी संस्कृति होती है । ये रंग -बिरंगी विविधताएँ ही भारत की राष्ट्रीय पहचान है ,जो इस देश को एकता के मज़बूत बंधनों में बांध कर रखती है। छत्तीसगढ़ भी एक ऐसा भारतीय राज्य है , जो अपनी भाषा ,अपने साहित्य और अपनी विविधतापूर्ण लोक संस्कृति से सुसज्जित और समृद्ध है। भाषाओं और बोलियों का भी अपना एक प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष साहित्यिक और  सांस्कृतिक इतिहास होता है।  छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य का भी अपना एक समृद्ध इतिहास है ,लेकिन यह इतिहास कितना पुराना है, इसे जानने और समझने के लिए मेरे विचार से प्रदेश के तीन विद्वान लेखकों की महत्वपूर्ण पुस्तकों  का अध्ययन बहुत ज़रूरी हो जाता है  ।

 पहली पुस्तक  'छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास' हिंदी भाषा में डॉ. नरेंद्र देव वर्मा की अनेक महत्वपूर्ण  कृतियों में शामिल  एक मूल्यवान धरोहर है। हिंदी में दूसरी पुस्तक है श्री नंदकिशोर तिवारी द्वारा लिखी गयी 'छत्तीसगढ़ी साहित्य ,दशा और दिशा तथा तीसरी किताब है डॉ. विनय कुमार पाठक  की छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार' जो शीर्षक से ही स्पष्ट है कि  सरल छत्तीसगढ़ी में लिखी गयी है। तीनों  लेखकों ने अपनी इन  पुस्तकों में छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य  के क्रमिक विकास पर गहन अध्ययन प्रस्तुत किया है। उन्होंने  विषय प्रवर्तन , विश्लेषण और प्रस्तुतिकरण बहुत परिश्रम के साथ अपने -अपने तरीके से किया है।  तीनों के अपने -अपने तर्क हैं और संकलित तथ्यों को देखने का अपना -अपना नज़रिया है।  लेकिन यह तय है कि तीनों किताबों में प्रस्तुत  तथ्यों और तर्को के आईने में  छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के इतिहास को  उसकी  प्राचीनता के अलग -अलग रंगों के साथ  बड़ी खूबसूरती से उभारा गया है। किसी भी राज्य ,देश और वहाँ के साहित्यिक -सांस्कृतिक इतिहास को लेकर विद्वानों में अलग -अलग अभिमतों का होना कोई नयी बात नहीं है। ऐसा होना बहुत स्वाभाविक है। ये मत -विभिन्नताएँ इन पुस्तकों में भी झलकती हैं।


                                                


श्री तिवारी और डॉ. पाठक ने अपनी पुस्तकों में उल्लेखित कुछ तथ्यों में डॉ. नरेंद्र देव वर्मा का भी संदर्भ दिया है। लेकिन दोनों ही डॉ. वर्मा के कुछ तथ्यों से सहमत नज़र नहीं आते।  डॉ. वर्मा और डॉ. पाठक अपनी पुस्तकों में छत्तीसगढ़ी भाषा और  साहित्य के इतिहास को एक हज़ार साल से ज्यादा पुराना मानते हैं । उनकी यह मान्यता छत्तीसगढ़ी के मौखिक और लिखित साहित्य को लेकर है। डॉ. वर्मा और डॉ. पाठक  के दृष्टिकोण से कबीरपंथ के संत धरम दास  छत्तीसगढ़ी भाषा के लिखित साहित्य के  प्रथम  कवि थे जबकि श्री नंदकिशोर तिवारी ऐसा नहीं मानते। उनका कहना है कि सन 1472 में बांधो गढ़ (विंध्यप्रदेश) में जन्मे  संत धरमदास  छत्तीसगढ़ के कवर्धा आकर कबीरपीठ की स्थापना की थी ,लेकिन उनके पदों में बघेली और अवधी का प्रभाव है ,छत्तीसगढ़ी का नहीं।

                                        छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास

        डॉ.  नरेंद्र देव वर्मा हिंदी साहित्य और भाषा विज्ञान में एम.ए. होने  के साथ इन  विषयों में पी-एच.डी. भी थे। उनकी  पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी भाषा का उद्विकास'  एक शोध -प्रबंध है। उन्होंने 1973  में पण्डित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय रायपुर में पी-एच.डी. की उपाधि के लिए   भाषा वैज्ञानिक अध्ययन  के आधार पर इसे लिखा था।  पुस्तक के रूप में इसे छत्तीसगढ़ राज्य हिंदी ग्रंथ अकादमी द्वारा वर्ष 2009 में प्रकाशित किया गया। यह पुस्तक लगभग 380 पृष्ठों की है।अपने इस शोध-प्रबंध में डॉ. वर्मा ने अनेक प्रसिद्ध भाषाविज्ञानियों को संदर्भित करते हुए पूर्वी हिंदी समूह के अंतर्गत जहाँ अवधी और बघेली के साथ छत्तीसगढ़ी की तुलना की है ,वहीं छत्तीसगढ़ी भाषा का वर्गीकरण करते हुए उन्होनें  यहाँ प्रचलित आंचलिक बोलियों का भी  व्याकरणिक अध्ययन प्रस्तुत किया है।

                             पूर्वी हिंदी क्षेत्र की प्रमुख भाषा है छत्तीसगढ़ी

      डॉ. वर्मा छत्तीसगढ़ी ,अवधी और बघेली के तुलनात्मक अध्ययन के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि छत्तीसगढ़ी पूर्वी हिंदी क्षेत्र की एक प्रमुख भाषा है । उन्होंने यह शोध -प्रबंध 32 अध्यायों में लिखा  है। इनमें   छत्तीसगढ़ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि  छत्तीसगढ़ी का विकास ,छत्तीसगढ़ की बोलियाँ, छत्तीसगढ़ी का शब्द -समूह ,छत्तीसगढ़ी विषयक साहित्य , छत्तीसगढ़ी के स्वर , स्वर-परिवर्तन, छत्तीसगढ़ी स्वरों की उतपत्ति ,व्यंजन -परिवर्तन, छत्तीसगढ़ी व्यंजनों की उतपत्ति ,संज्ञा की रचना ,समास ,कारक-रचना जैसे अध्याय  शामिल हैं ,जो छत्तीसगढ़ी भाषा , व्याकरण और साहित्य से जुड़े तथ्यों पर क्रमबद्ध रौशनी डालते हैं। डॉ. वर्मा लिखते कि छत्तीसगढ़ी से उनका तात्पर्य रायपुर ,बिलासपुर और दुर्ग में बोली जाने वाली छत्तीसगढ़ी से है ।रायपुर और बिलासपुर की छत्तीसगढ़ी में उच्चारण एवं कतिपय शब्द-प्रयोगों का ही भेद है। उन्होंने छत्तीसगढ़ी के अलावा प्रदेश में प्रचलित खल्ताही,सरगुजिहा, लरिया,सदरी कोरवा ,बैगानी, बिंझवारी ,कलंगा ,भूलिया, बस्तरी(हल्बी) बोलियों की भी व्याकरणिक विवेचना की है।

                नवीं-दसवीं शताब्दी में हुआ था 

              छत्तीसगढ़ी और अवधी का जन्म 

        अध्याय -5 में डॉ. नरेंद्र देव वर्मा  लिखते हैं -  छत्तीसगढ़ी और अवधी ,दोनों का जन्म अर्ध -मागधी के गर्भ से आज से लगभग 1156 वर्ष पूर्व नवीं- दसवीं शताब्दी में हुआ था।इस एक सहस्त्र वर्ष के सुदीर्घ अंतराल में छत्तीसगढ़ी और अवधी पर अन्य भाषाओं के प्रभाव भी पड़े तथा इनका स्वरूप पर्याप्त परिवर्तित हो गया। डॉ. वर्मा ने छत्तीसगढ़ी साहित्य के इतिहास को तीन चरणों में विभाजित किया है -(1) गाथा युग : 1000 से 1500 ईस्वी (2)भक्ति युग : 1500 से 1900 ईस्वी और आधुनिक युग :1900 ईस्वी से आज तक। उन्होंने भक्ति युग के प्रमुख कवियों में संत धरम दास और सतनाम पंथ के प्रवर्तक संत गुरु घासीदास जी की कुछ रचनाओं का भी उल्लेख किया है। इसी अध्याय में डॉ. वर्मा ने  आधुनिक युग के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी कविता और गद्य साहित्य  के विकास की भी चर्चा की है। छत्तीसगढ़ी कविता के विकास को उन्होंने क्रमशः प्रथम ,द्वितीय और तृतीय उन्मेष में वर्गीकृत किया है ।

              हीरालाल काव्योपाध्याय थे छत्तीसगढ़ी के प्रथम कथा -लेखक

   पुस्तक के 5वें अध्याय में गद्य-खण्ड के अंतर्गत डॉ. नरेंद्र देव वर्मा ने अनेक प्रमुख  साहित्यकारों की छत्तीसगढ़ी कहानियों ,उपन्यासों और नाटकों का भी उल्लेख किया है। डॉ. वर्मा लिखते हैं -" छत्तीसगढ़ी गद्य का सक्रिय इतिहास हीरालाल काव्योपाध्याय द्वारा लिखित छत्तीसगढ़ी व्याकरण से प्रारंभ होता है,जिसे सन 1890 में जार्ज ए. ग्रियर्सन ने सम्पादित और अनूदित कर कलकत्ता के बैप्टिस्ट मिशन प्रेस से छपवाया। "डॉ. वर्मा के अनुसार -- "छत्तीसगढ़ी में हीरालाल काव्योपाध्याय ने ही सर्वप्रथम कथा -लेखन का श्रीगणेश किया था।उनके व्याकरण -ग्रंथ में 'श्रीराम की कथा ',ढोला की कहानी' और 'चंदैनी की कहानी 'निबद्ध है । काव्योपाध्याय के इस ग्रंथ ने छत्तीसगढ़ी गद्य के इतिहास का ही सूत्रपात नहीं किया, प्रत्युत छत्तीसगढ़ी कथा का भी पौरोहित्य किया ,तथा छत्तीसगढ़ी नाटक के आरंभ के सूत्र भी उक्त पुस्तक के संवादों में छिपे हुए हैं।"

                        उपन्यासकार और कवि भी थे डॉ. नरेंद्र देव वर्मा

   छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. नरेंद्र देव वर्मा का  जन्म महाराष्ट्र के वर्धा में 4 नवम्बर 1939 को और निधन 8 सितम्बर 1979 को गृहनगर रायपुर (छत्तीसगढ़) में हुआ।  छत्तीसगढ़ के ग्रामीण परिवेश पर केन्द्रित उनका उपन्यास 'सुबह की तलाश ' 1970 के दशक में राष्ट्रीय स्तर पर काफी चर्चित रहा। उनकी लोकप्रिय छत्तीसगढ़ी रचना 'अरपा पैरी के धार ..महानदी हे  अपार' को छत्तीसगढ़ सरकार ने 'राज्य गीत' का दर्जा देकर सम्मानित किया है । डॉ. वर्मा  छत्तीसगढ़ के    साहित्यिक भण्डार को अपनी रचनाओं की अनमोल धरोहर से समृद्ध करते हुए  मात्र 40 वर्ष की अल्पायु में ही इस भौतिक संसार से चले गए। छत्तीसगढ़ी साहित्य के इतिहास को हिंदी में समझने के लिए डॉ. वर्मा द्वारा लिखित  'छत्तीसगढ़ी साहित्य का उद्विकास ' एक ज्ञानवर्धक पुस्तक है।

                      छत्तीसगढ़ी साहित्य : दशा और दिशा      

       छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के उत्थान के लिए समर्पित बिलासपुर निवासी श्री नंदकिशोर तिवारी ने भी अपनी पुस्तक में छत्तीसगढ़ी काव्य -साहित्य की विकास यात्रा को प्रथम ,द्वितीय और तृतीय उन्मेष में वर्गीकृत करते हुए अपना सारगर्भित विश्लेषण प्रस्तुत किया है। लेकिन वह डॉ. नरेंद्र देव वर्मा द्वारा छत्तीसगढ़ी साहित्य के इतिहास के काल निर्धारण से सहमत नहीं लगते। श्री तिवारी ने 215 पृष्ठों की अपनी इस पुस्तक की शुरुआत 'छत्तीसगढ़ी काव्य साहित्य :प्रथम उन्मेष ' शीर्षक से की है।  हम इसे पुस्तक का पहला अध्याय कह सकते हैं। उन्होंने इसमें लिखा है कि छत्तीसगढ़ में देर से आयी  मातृभाषा प्रेम के नवजागरण की चेतना ने कई भूलें की। उनके अनुसार पहली भूल थी - डॉ. नरेंद्र देव वर्मा ने छत्तीसगढ़ी साहित्य का हिंदी की तर्ज पर गाथा युग -विक्रम संवत 1000 से 1500,भक्ति युग विक्रम संवत 1500 से 1900 और आधुनिक युग 1900 से आज तक में विभाजित किया है।इस विभाजन काल की रचनाओं में छत्तीसगढ़ी लोक - गाथाओं को शामिल किया गया । संवत 1100 से 1500 तक छत्तीसगढ़ी में अनेक गाथाओं की रचना हुई ,जिनमें प्रेम तथा वीरता का अपूर्व विन्यास हुआ है।यद्यपि इन गाथाओं की लिपिबद्ध परम्परा नहीं रही है तथा ये पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से अभिरक्षित होती आयी हैं। 

    श्री तिवारी लिखते हैं --तर्क किया जा सकता है कि हिंदी साहित्य के इतिहास में भी लोक -गाथाओं को शामिल किया गया है । इस तरह तर्क करने वालों को समझना चाहिए कि हिंदी 'रासो' काव्य की अपनी परम्परा थी। 'रासो' राज दरबारों से जन -दरबार में आए।इस परम्परा की सभी रचनाओं के साथ लेखक का नाम जुड़ा है। वे लोक-कंठ से निः सृत न होकर कवियों की लेखनी से निःसृत हुईं और लोक -कंठ में समा गयीं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि वाचिक परम्परा में निःसृत लोक -गाथाओं को लिखित शिष्ट साहित्य की परम्परा में कैसे परिगणित किया जा सकता है? और कंठ-दर-कंठ गूँजतेव,गायक की मानसिकता ,स्थान आदि के प्रभाव से नित -नित परिवर्तित होते किस रूप को हम साहित्य में मान्यता देंगे?हमें शिष्ट-साहित्य और लोक-  साहित्य में उनकी मर्यादा और परम्परा को समझना होगा। 

                 संत धरम दास नहीं थे छत्तीसगढ़ी के प्रथम कवि  ?

        श्री तिवारी के अनुसार दूसरी भूल यह थी कि छत्तीसगढ़ी साहित्य की प्राचीनता को प्रमाणित करने की अतिशय आकांक्षा ने संत धरम दास को छत्तीसगढ़ी का पहला कवि घोषित कर दिया।संत धरम दास का जन्म 1472 में बांधोगढ़(विंध्य प्रदेश) में हुआ था। वे कबीर के शिष्य थे। उन्होंने कवर्धा में कबीरपीठ की स्थापना की थी। उनके गाए भजनों को छत्तीसगढ़ी में लिखा भजन मान लिया गया। श्री तिवारी डॉ. नरेंद्र देव वर्मा के इस कथन से भी सहमत नहीं हैं कि संत धरम दास ने लोक -गीतों की सहज ,सरल शैली में निगूढ़तम दार्शनिक भावनाओं की अभिव्यक्ति की और छत्तीसगढ़ी भाषा की शक्तियों को आत्मसात करते हुए उसे उच्चतर भावनाओं के संवहन योग्य बनाया। 

     श्री तिवारी के अनुसार - "संत धरम दास के एक भी पद छत्तीसगढ़ी लोक-गीतों की शैली में नहीं हैं और न ही छत्तीसगढ़ी भाषा की शक्ति का परिचय कराते हैं। भाषा वैज्ञानिक मानते हैं कि अवधी और बघेली की सहोदरा छत्तीसगढ़ी है। तीनों भाषाएँ एक -दूसरे के बहुत नज़दीक हैं। यही कारण है कि संत धरम दास को छत्तीसगढ़ी का प्रथम कवि करार दिया गया और छत्तीसगढ़ी साहित्य को पन्द्रहवीं सदी तक खींच ले जाया गया । उन्होंने संत धरम दास की छह पंक्तियों के एक पद का उल्लेख किया है और लिखा है कि इस पद में प्रयुक्त मोहे,भै, परगै, धूर, पाछै, नैहर,पाही और बिनवै जैसे शब्दों के लिए छत्तीसगढ़ी में क्रमशः मोला/मोका, भइस, परगे, धुर्रा(कुधरा), पाछू ,आगू , मइके, ससुरार ,विनती का उपयोग होता है।ऐसे में इसे छत्तीसगढ़ी कविता कैसे माना जा सकता है? वस्तुतः यह देर से छत्तीसगढ़ में आए नवजागरण की चेतना का प्रतिफलन है।श्री तिवारी कहते हैं कि बाबू प्यारेलालजी गुप्त छत्तीसगढ़ी काव्य का प्रारंभिक उत्थान  रेवाराम बाबू के भजनों को मानते हैं ,लेकिन उल्लेखनीय है कि रेवाराम बाबू का 'गुटका' हिंदी के अनेक संत कवियों के पदों का संग्रह है। श्री तिवारी के अनुसार छत्तीसगढ़ी काव्य के प्रारंभिक उन्मेष काल की रचनाओं में निरंतरता का अभाव था ।

    श्री नंदकिशोर तिवारी का जन्म 19 जून 1941 को बिलासपुर में हुआ था। हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त श्री तिवारी सम्प्रति अपने गृहनगर बिलासपुर में विगत कई वर्षों से 'छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर'नामक त्रैमासिक पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं। छत्तीसगढ़ी साहित्य और साहित्यकारों पर उनकी कई पुस्तकें छप चुकी हैं । इनमें 'छत्तीसगढ़ी साहित्य का ऐतिहासिक अध्ययन' भी  शामिल है।उन्होंने पण्डित मुकुटधर पाण्डेय और हरि ठाकुर के व्यक्तित्व और कृतित्व पर पुस्तकें लिखी हैं ,वहीं  डॉ. नरेंद्र देव वर्मा के व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित एक पुस्तक का सम्पादन भी किया है।  उनके सम्पादन में पण्डित लोचन प्रसाद पाण्डेय के पुरातात्विक लेखों का एक प्रामाणिक संग्रह 'कौशल -कौमुदी ' शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। श्री तिवारी की पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी साहित्य :दशा और दिशा' वैभव प्रकाशन रायपुर द्वारा वर्ष 2006 में प्रकाशित की गयी थी।

                      छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार

   डॉ. विनय कुमार पाठक की   पुस्तक  'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार' लगभग 106 पृष्ठों की 17 सेंटीमीटर लम्बी और 11 सेंटीमीटर चौड़ी यह पुस्तक आकार में छोटी जरूर है ,लेकिन प्रकार में यह  हमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल की याद दिलाती है ,जिन्हें  हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन के लिए भी याद किया जाता है। उनकी एक पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार' का पहला संस्करण वर्ष 1971 में प्रकाशित हुआ था। प्रयास प्रकाशन बिलासपुर द्वारा प्रकाशित  यह पुस्तक छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य के क्रमिक विकास का एक ऐतिहासिक दस्तावेज है । छपते ही उन दिनों आंचलिक साहित्यकारों और साहित्य प्रेमियों के बीच इसकी मांग  इतनी बढ़ी कि दूसरा और तीसरा संस्करण भी छपवाना पड़ा। 

दूसरा संस्करण 1975 में और तीसरा वर्ष 1977 में प्रकाशित हुआ था।  पुस्तक का तीसरा संस्करण उन्होंने मुझे 18 अगस्त 1977 को भेंट किया था ,जब वह आरंग के शासकीय महाविद्यालय में प्राध्यापक थे।वहाँ रहते हुए उन्होंने स्थानीय कवियों की रचनाओं का एक छोटा संकलन 'आरंग के कवि ' शीर्षक से सम्पादित और प्रकाशित किया था।  

    बिलासपुर में 11 जून 1946 को जन्मे  डॉ. पाठक छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के अध्यक्ष  रह चुके हैं। वह  हिन्दी और भाषा-विज्ञान में पी-एच . डी. तथा ङी. लिट् की उपाधियाँ प्राप्त वरिष्ठ साहित्यकार हैं। इन दिनों वह अपने जन्म स्थान और गृहनगर बिलासपुर में साहित्य साधना और समाज-सेवा में लगे हुए हैं। उनके शोध -ग्रंथों में 'छत्तीसगढ़ी साहित्य का सांस्कृतिक अनुशीलन ' और छत्तीसगढ़ी में प्रयुक्त परिनिष्ठित हिंदी और इतर भाषाओं के शब्दों में अर्थ -परिवर्तन' भी उल्लेखनीय हैं।

   डॉ. पाठक ने अपनी  पुस्तक 'छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार' में  छत्तीसगढ़ी साहित्य के क्रमबद्ध विकास को अलग -अलग कालखण्डों में रेखांकित किया है।  आत्माभिव्यक्ति के तहत डॉ. पाठक ने लिखा है कि इस कृति में स्पष्ट रूप से दो खण्ड हैं, जिसमें पहला खण्ड साहित्य का है और दूसरा साहित्यकारों का।  वह लिखते हैं --"कई झन बिदवान मन छत्तीसगढ़ी साहित्य ल आज ले दू-तीन सौ बरिस तक मान के ओखर कीमत आंकथे। मय उन बिदवान सो पूछना चाहूं के अतेक पोठ अउ जुन्ना भाषा के साहित्य का अतेक नवा होही ? ए बात आने आए के हम ला छपे या लिखे हुए साहित्य नइ मिलै,तभो एखर लोक साहित्य ल देख के अनताज (अंदाज ) तो लगाए जा सकत हे के वो कोन जुग के लेखनी आय ! छत्तीसगढ़ी के कतकोन कवि मरगें ,मेटागें ,फेर अपन फक्कड़ अउ सिधवा सुभाव के कारन ,छपास ले दूरिया रहे के कारन रचना संग अपन नांव नइ गोबिन। उनकर कविता ,उनकर गीत आज मनखे -मनखे के मुंहूं ले सुने जा सकत हे। उनकर कविता म कतका जोम हे ,एला जनैयेच मन जानहीं।"

               शब्द सांख्यिकी नियम से हुआ  काल निर्धारण

      डॉ. पाठक ने लिखा है कि शब्द सांख्यिकी का नियम लगाकर ,युग के प्रभाव और उसकी प्रवृत्ति को देखकर कविता लेखन के समय का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। 'डॉ. नरेंद्र  देव वर्मा' ने शब्द सांख्यिकी नियम लगा कर बताया है कि पूर्वी हिन्दी (अवधी)से छत्तीसगढ़ी 1080 साल पहले नवमी -दसवीं शताब्दी में अलग हो चुकी थी । पुस्तक में डॉ. वर्मा को संदर्भित करते हुए  छत्तीसगढ़ी साहित्य के विकास का काल निर्धारण भी किया है,जो इस प्रकार है -- मौखिक परम्परा (प्राचीन साहित्य )--आदिकाल (1000 से 1500वि) -- चारण काल (1000 से 1200 वि)-- वीरगाथा काल (1200 से 1500 तक ),फिर मध्यकाल(1500 से 1900 वि),फिर लिखित परम्परा यानी आधुनिक साहित्य (1900 से आज तक )फिर आधुनिक काल में भी प्रथम उन्मेष (1900 से 1955 तक )और द्वितीय उन्मेष (1955 से आज तक )।

    आदिकाल के संदर्भ में डॉ. विनय पाठक लिखते हैं --इतिहास के पन्ना ल उल्टाये ले गम मिलथे के 10 वीं शताब्दी ले 12वीं शताब्दी तक हैहयवंशी राजा मन के कोनो किसिम के लड़ाई अउ बैर भाव नइ रिहिस।उनकर आपुस म मया भाव अउ सुमता दिखथे। ए बीच  बीरगाथा के रचना होना ठीक नई जान परै।ओ  बखत के राजा मन के राज म रहत कवि मन के जउन राजा के बीरता ,गुनानवाद मिलथे (भले राजा के नांव नइ मिलै)।ओ अधार ले एला चारण काल कहि सकत हन । बारहवीं  शताब्दी के छेवर-छेवर मा इन मन ल कतको जुद्ध करना परिस ।ये तरह 12 वीं शताब्दी के छेवर -छेवर ले 1500 तक बीर गाथा काल मान सकत हन।ये ही बीच बीरता ,लड़ाई ,जुद्ध के बरनन होइस हे, एमा दू मत नइये।

  डॉ. पाठक वर्ष 1000 से 1500 तक को आदिकाल या वीरगाथा काल के रूप में स्थापित किए जाने के डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा के विचार  को आधा ठीक और आधा गलत मानते हैं। उन्होंने आगे  लिखा है --"गाथा बिसेस के प्रवृति होय के कारण ये जुग ल गाथा युग घलो कहे जा  सकत हे।एमा मिलत प्रेमोख्यान गाथा म अहिमन रानी ,केवला रानी असन अबड़ कन गाथा अउ धार्मिक गाथा म पंडवानी, फूलबासन ,असन कई एक ठो गाथा ल ए जुग के रचना कहे अउ माने जा सकत हे। डॉ. नरेन्द्र देव वर्मा ह 1000 ले 1500 तक के जुग ल आदिकाल या बीरगाथा काल कहे हे ,जउन ह आधा ठीक अउ आधा गलत साबित होथे। "

                   छत्तीसगढ़ी के प्रथम कवि धरम दास !

  आगे डॉ. पाठक ने छत्तीसगढ़ी साहित्य के विकास क्रम में  मध्यकाल और आधुनिक साहित्य से जुड़े तथ्यों की चर्चा की है। उन्होंने मध्यकालीन साहित्य में  भक्ति धारा के प्रवाहित होने के  प्रसंग में लिखा है कि  संत कबीरदास के शिष्य धरम दास को छत्तीसगढ़ी का पहला कवि माना जा सकता है। डॉ. पाठक लिखते हैं -- "राजनीति के हेरफेर अउ  चढ़ाव -उतार के कारन समाज म रूढ़ि ,अंधविश्वास के नार बगरे के कारन ,मध्यकाल म लोगन के हिरदे ले भक्ति के धारा तरल रउहन बोहाये लागिस।वइसे तो इहां कतको भक्त अउ संत कवि होगे हें ,फेर उंकर परमान नइ मिल सके के कारन उनकर चरचा करना ठीक नोहय।कबीरदास के पंथ ल मनैया कवि मन के अतका परचार-परसार होय के कारन इहां कबीरपंथ के रचना अबड़ मिलथे। एही पंथ के रद्दा म रेंगइया कबीरदास के पट्ट चेला धरम दास ल छत्तीसगढ़ी के पहिली कवि माने जा सकत हे।घासीदास के पंथ के परचार के संग संग कतको रचना मिलथे ,जउन हर ये जुग के साहित्य के मण्डल ल भरथे। "

 छत्तीसगढ़ी में कहानी ,उपन्यास ,नाटक और एकांकी ,निबंध और समीक्षात्मक लेख भी खूब लिखे गए हैं। अनुवाद कार्य भी खूब हुआ है। पुस्तक की शुरुआत डॉ. पाठक ने 'छत्तीसगढ़ी साहित्य' के अंतर्गत गद्य साहित्य से करते हुए  यहाँ के गद्य साहित्य की इन सभी  विधाओं के प्रमुख  लेखकों और उनकी कृतियों का उल्लेख किया है। डॉ. पाठक के अनुसार   कुछ विद्वान  छत्तीसगढ़ी गद्य का सबसे पहला नमूना  दंतेवाड़ा के शिलालेख को बताते हैं ,जबकि यह मैथिली के रंग में रंगा हुआ है। 

                 आरंग का शिलालेख छत्तीसगढ़ी गद्य का पहला नमूना 

     अपनी इस पुस्तक में डॉ. पाठक ने लिखा है कि  आरंग में मिले सन 1724 के शिलालेख को छत्तीसगढ़ी गद्य लेखन का पहला नमूना माना जा सकता है।इसका ठोस कारण ये है कि यह (आरंग)निमगा (शुद्ध )छत्तीसगढ़ी की जगह है और यह कलचुरि राजा अमर सिंह का शिलालेख है। सन 1890 में हीरालाल काव्योपाध्याय का 'छत्तीसगढ़ी व्याकरण ' छपकर आया ,जिसमें ढोला की कहानी और रामायण की कथा भी छपी है ,जिनकी भाषा मुहावरेदार और काव्यात्मक है।अनुवादों के प्रसंग में डॉ. पाठक ने एक दिलचस्प जानकारी दी है कि सन 1918 में पंडित शुकलाल प्रसाद पाण्डेय ने शेक्सपियर के लिखे 'कॉमेडी ऑफ एरर्स ' का अनुवाद 'पुरू झुरु' शीर्षक से किया था । पंडित मुकुटधर पाण्डेय ने कालिदास के 'मेघदूत' का छत्तीसगढ़ी अनुवाद करके एक बड़ा काम किया है।डॉ. पाठक की पुस्तक में 'छत्तीसगढ़ी साहित्य म नवा बिहान 'शीर्षक ' के अंतर्गत प्रमुख कवियों की कविताओं का भी जिक्र किया गया है।

                              लिखित परम्परा की शुरुआत 

       छत्तीसगढ़ी साहित्य में आधुनिक काल की चर्चा प्रारंभ करते हुए अपनी इस पुस्तक में डॉ. पाठक कहते  हैं-"कोनो बोली ह तब तक भाषा के रूप नइ ले लेवै ,जब तक ओखर लिखित परम्परा नइ होवै।" इसी कड़ी में उन्होंने आधुनिक काल के अंतर्गत छत्तीसगढ़ी के लिखित साहित्य के प्रथम और द्वितीय उन्मेष पर प्रकाश डाला है। प्रथम उन्मेष में उन्होंने सन 1916 के आस -पास राजिम के पंडित सुन्दरलाल शर्मा रचित 'छत्तीसगढ़ी दानलीला 'सहित आगे के वर्षों में प्रकाशित कई साहित्यकारों की कृतियों की जानकारी दी है।

                            सुराज मिले के पाछू नवा-नवा प्रयोग 

    डॉ. पाठक ने पुस्तक में द्वितीय उन्मेष के अंतर्गत लिखा है  -  --"सुराज मिले के पाछू  हिन्दी के जमों उप -भाषा अउ बोली डहर लोगन के धियान गिस।ओमा रचना लिखे के ,ओमा सोध करेके ,ओमा समाचार पत्र अउ पत्रिका निकारे के काम धड़ाधड़ सुरू होगे। छत्तीसगढ़ी म ए बीच जतका प्रकाशन होइस ,साहित्य म जतका नवा -नवा प्रयोग होइस ,ओखर ले छत्तीसगढ़ी के रूप बने लागिस,संवरे लागिस।अउ आज छत्तीसगढ़ी ह आने रूप म हमार आघू हावै। छत्तीसगढ़ी डहर लोगन के जउन रद्दी रूख रहिस ,टरकाऊ बानी रहिस ,अब सिराय लागिस। छत्तीसगढ़ी साहित्य ह अब मेला -ठेला ले उतरके लाइब्रेरी ,पुस्तक दुकान अउ ए .एच. व्हीलर इहां आगे। लाउडस्पीकर म रेंक के बेंचई ले उठके रेडियो, सिनेमा अउ कवि सम्मेलन तक हबरगे।गंवैहा मन के चरचा ले असकिटिया के 'काफी हाउस' अउ 'साहित्यिक गोष्ठी ' के रूप म ठउर जमा लिस। लोगन के सुवाद बदलगे, छत्तीसगढ़ के भाग पलटगे। " 

      डॉ. पाठक ने छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ साहित्यकार' में 'द्वितीय उन्मेष' के तहत वर्ष 1950 से 1970 के दशक में प्रकाशित छत्तीसगढ़ी के अनेक कवियों के कविता -संग्रहों का उल्लेख करते हुए यह भी लिखा है कि वर्ष 1955 से एक वर्ष तक छपी और मुक्तिदूत द्वारा सम्पादित 'छत्तीसगढ़ी' मासिक पत्रिका ने एक अंक छत्तीसगढ़ी कविताओं का भी प्रकाशित किया था ,जिसमें 21 कवियों की रचनाएँ शामिल थीं।  'द्वितीय उन्मेष ' डॉ. पाठक ने अनेक कवियों   की चर्चा की है। साथ ही उन्होंने इनमें से 25 प्रमुख कवियों के काव्य गुणों का उल्लेख करते हुए उनकी एक -एक रचनाएँ भी प्रस्तुत की हैं। 

         इसमें दो राय नहीं कि   छत्तीसगढ़ी भाषा और साहित्य की विकास यात्रा ने इतिहास के दुर्गम पथ पर चलते हुए  अपने हर पड़ाव पर छत्तीसगढ़ का गौरव बढ़ाया है। इसका श्रेय  उन सभी ज्ञात ,अल्प ज्ञात और अज्ञात कवियों और लेखकों को दिया जाना चाहिए ,जिनकी  रचनाओं ने देश के साहित्यिक मानचित्र पर  इस प्रदेश का नाम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित किया है।

    आलेख  -- स्वराज्य करुण