- स्वराज्य करुण
मायूस मौसमों का ये ऐसा भी दौर है
समझा था जिसे अपना वो कोई और है !
किनारा न मिला तो हुई गुमशुदा कश्ती ,
जिंदगी की नाव का यहाँ न कोई ठौर है !
हमने कहा इंसान पर न ज़ुल्म करो तुम ,
हम पे ही चल गया आँधियों का जोर है !
तिनके की तरह बिखरा मंजिल का घरौंदा ,
तूफ़ान सितमगरों का भी क्या घनघोर है !
दो वक्त की रोटी के लिए दिन-रात लड़ाई ,
अपनों का ही खून बहता चारों ओर है !
ज़ुल्मों की आग से झुलसने लगी दुनिया ,
है चैन-ओ-अमन सब तरफ यही शोर है !
आँसू किसी के पोंछने की है किसे फुर्सत ,
बेरहम दिलों की कैसी ये भाग-दौड़ है !
हमने तो अपने दिल को बहलाया बार-बार
निगला है जिसे हर बार वो गमों का कौर है ! - स्वराज्य करुण
बेहतरीन ग़ज़ल के लिए बधाई ।
ReplyDeleteदो वक्त की रोटी के लिए दिन-रात लड़ाई ,
ReplyDeleteअपनों का ही खून बहता चारों ओर है !
उम्दा गजल के लिए आभार
ज़ुल्मों की आग से झुलसने लगी दुनिया ,
ReplyDeleteहै चैन-ओ-अमन सब तरफ यही शोर है !
आँसू किसी के पोंछने की है किसे फुर्सत ,
बेरहम दिलों की कैसी ये भाग-दौड़ है !
आज के हालत पर बेहतरीन अशार हैं। बधाई आपको।
badhaai sir ji
ReplyDeleteमायूस मौसमों का ये ऐसा भी दौर है
समझा था जिसे अपना वो कोई और है
behatrin ghazal aaj ke haalat ka satik chitran
aapki rachna dharmita bahut fast hai badhaai
'दो वक्त की रोटी के लिए दिन रात लड़ाई
ReplyDeleteअपनों का ही खून बहता चारों और है '
उम्दा शेर .....मानवीय संवेदना को सामाजिक सरोकार से जोडती रचना