Friday, March 18, 2011

एक परिवार : इकतालीस भाषाएँ !


                                                                                                              - स्वराज्य करुण
 एक परिवार और उसकी इकतालीस   भाषाएँ ,सब में अनोखा ताल-मेल और सबके बीच अनोखा मेल-जोल ? कहीं देखा है आपने ऐसे किसी  आदर्श  परिवार को ?  अगर नहीं  तो आईये, हम आपको लिए चलते हैं उस परिवार में , लेकिन सबसे पहले   आईये  कुछ देर अपने देश की परिक्रमा  कर लें ! हम  देख ही रहे है -भारतीय संस्कृति एक विशाल बागीचे की तरह है,   जो  एक तरफ  नदियों , पहाड़ों  और जंगलों के सुरम्य प्राकृतिक परिवेश से सुसज्जित है, वहीं ,  दूसरी तरफ विभिन्न  रीति-रिवाजों, भाषाओं और बोलियों के रंग-बिरंगे फूल सांस्कृतिक दृष्टि से इसे और भी ज्यादा मोहक स्वरुप प्रदान करते हैं.
      हमारे यहाँ कहावत भी है- कोस -कोस में पानी बदले , चार कोस में बानी. याने कि एक कोस अर्थात करीब दो किलोमीटर पर यहाँ पानी का स्वाद बदल जाता है और हर आठ किलोमीटर पर बानी,  बोले तो लोगों की बोलने की शैली या फिर बोली बदल जाती है. अगर हमारा कोई हरियाणवी भाई हाल-हाल में  मध्यप्रदेश या छत्तीसगढ़ आकर हिन्दी बोले , तो तुरंत पहचान लिया जाएगा कि भाई साहब हरियाणा से आए हैं .अमृतसर या चंडीगढ़ की तरफ से आने वाले  पंजाब दा पुत्तर की बोली से भी हर कहीं उसकी पहचान हो जाती है. हमारे दक्षिण भारतीय भाई-बहनों की हिन्दी का एक अलग अंदाज़ होता है. उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम , हर तरफ के हम भारतीयों की हिन्दी बोलने की शैली अलग-अलग होती है और हर किसी के बोल-चाल के लहजे की अपनी एक अलग ख़ूबसूरती होती है. उनके अपने प्रदेशो की भाषाओं का भी एक अलग ही सौंदर्य होता है. मानव-जीवन में भाषा और बोली विचारों और भावनाओं के आदान-प्रदान का ज़रिया मात्र हैं . सच्चाई तो यह है कि असली भाषा प्रेम की और असली बोली भी प्रेम की  होती है. फिर भी अपनी बात कहने के लिए इंसान की जुबान  पर  किसी न किसी भाषा या बोली का  होना स्वाभाविक रूप से ज़रूरी है, जो मानव-समाज को मजबूती से बाँध कर रखती है. 

                                              
  जैसे हमारे संविधान में राज-भाषा का दर्ज़ा प्राप्त राष्ट्र-भाषा हिन्दी सम्पूर्ण भारत की संपर्क भाषा है , ठीक उसी   तरह  देश के हर राज्य की  स्थानीय संपर्क भाषा के साथ प्रत्येक राज्य में कई आंचलिक बोलियां भी स्थानीय जन-जीवन में प्रचलित हैं .तकरीबन एक लाख छत्तीस हज़ार वर्ग किलोमीटर के दायरे में बसे छत्तीसगढ़ में मुख्य स्थानीय संपर्क भाषा  छत्तीसगढ़ी है ,लेकिन यह जान कर आश्चर्य होगा कि भारत के मानचित्र पर दस वर्ष पहले देश के छब्बीसवें राज्य के रूप में उभरे दो करोड से अधिक आबादी वाले छत्तीसगढ़ के सहज-सरल जन-जीवन में चालीस प्रकार की बोलियां भी  प्रचलित हैं. ये सभी छत्तीसगढ़ी भाषा परिवार की बोलियां हैं .  इस परिवार में छत्तीसगढ़ी मुख्य भाषा है और ये बोलियाँ उसकी सहयात्री .इन बोलियों को भी अगर उप-भाषा मान लें  तो छत्तीसगढ़ एक ऐसे विशाल संयुक्त  परिवार के रूप में पहचाना जाएगा  जहां एक साथ इकतालिस  भाषाएँ प्रचलन में हैं . छत्तीसगढ़ी भाषा इन सबके बीच एक सेतु की भूमिका में है .
    राज्य  के  सांस्कृतिक शहर बिलासपुर से विगत बारह वर्षों से छत्तीसगढ़ी भाषा में प्रकाशित हो रही त्रैमासिक पत्रिका ' छत्तीसगढी -लोकाक्षर ' के 51 वे अंक (अक्टूबर-दिसंबर 2011) में पृष्ठ 80 पर  इन सभी बोलियों की सूची दीपमालिकाओं से सुसज्जित कर प्रस्तुत की गयी है . छत्तीसगढ़ी भाषा परिवार की सदस्य के रूप में प्रचलित  बोलियों के इस रंग-बिरंगे संसार में  शामिल हैं-  कवर्धाई , कान्केरी, खैरागढ़ी, गोरो, गौरिया, डेंगचगहा , देवरिया (देवार), धमदी , नान्दगारी, पारधी, बहेलिया, बिलासपुरी , बैगानी , रतनपुरी, रायपुरी, सिकारी, कमारी, खाल्हाटी , पनकी , मराठी, नागवंसी पंडो  , सदरी , सरगुजिहा , कलंगा , कलेजिया, चमारी, बिन्झवारी, भूलिया, लरिया, अडकुरी , चंदारी , जोगी, धाकड , बस्तरी (बस्तरिया ), मिरगानी, महरी (मुहारी ), हल्बी, भतरी और गोंडी .
  भू-मंडलीकरण के इस खतरनाक दौर में ,जहां   साम्राज्यवादी मंसूबों के लिए अँग्रेजी हर देश के जन-जीवन पर तेजी से हावी हो रही है, और तमाम भाषा -वैज्ञानिक  दुनिया की अनेकानेक भाषाओं और बोलियों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं और कह भी रहे हैं कि विश्व की बहुत सी भाषाएँ और  बोलियाँ अगले  कुछ दशकों में विलुप्त हो जाएँगी , तो उनकी इस चेतावनी को गंभीरता से लिया जाना चाहिए  . ऐसे नाज़ुक समय में हमें अपनी भाषाओं और बोलियों के संरक्षण के लिए तुरंत तैयार होने की ज़रुरत है . स्थानीय भाषाओं और बोलियों में साहित्य-सृजन को बढ़ावा देकर इस दिशा में बहुत कुछ किया जा सकता है . पत्रिका के सम्पादक डॉ. नंदकिशोर तिवारी ने 51  वें अंक के सम्पादकीय में लिखा है - छत्तीसगढ़ी भाषा   परिवार कहने पर इसमें वे सभी भाषाएँ आ जाती हैं , जिनका उपयोग क्षेत्र-विशेष के लोग एक-दूजे से  अपना सुख-दुःख बांटने के लिए रोजाना संवाद की भाषा के रूप में करते हैं. आपस के संवाद की यही भाषाएँ सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ की संपर्क-भाषा याने कि छत्तीसगढ़ी को खाद और पानी देने का काम करती हैं. उन्होंने आगे लिखा है कि भाषा ऐसी होनी चाहिए , जिसमे  उसके अर्थ या उसके भाव  दूसरी भाषा के जानकार तक उतनी तो पहुँच ही जाए ,जितनी उसे ज़रुरत है.   डॉ. तिवारी ने  सम्पादकीय में  इन सभी बोलियों की लिपि के लिए  हिन्दी की तरह 'देवनागरी 'लिपि को स्वीकार करने की सलाह दी है. उन्होंने इसमें भारत सरकार को देश की तमाम       लोक-भाषाओं के विकास के लिए 'भारतीय लोक-भाषा साहित्य अकादमी    बनाने का सुझाव दिया है. 
      'छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर ' के इक्यावन्वे अंक के लोकार्पण के मौके पर डॉ.नंदकिशोर तिवारी ने एक संगोष्ठी का भी आयोजन किया था , जिसका विषय था-'छत्तीसगढ़ी परिवार की भाषाएँ : विकास और साझेदारी ' . इस अवसर पर छत्तीसगढ़ी सहित राज्य की इन सभी चालीस बोलियों के सम्मान में ज्योति कलश के साथ-साथ दीपमालिकाओं की सजावट भी वहां की गयी थी. मुख्य मंत्री डॉ.रमण सिंह की सरकार ने वर्ष 2007   में छत्तीसगढ़ी को 'राज-भाषा ' का दर्ज़ा देने का ऐतिहासिक  निर्णय लेकर उसके समग्र विकास के लिए छत्तीसगढ़ी राज-भाषा आयोग का भी गठन किया है. सरकार का यह कदम निश्चित रूप से काफी महत्वपूर्ण है .छत्तीसगढ़ को अलग राज्य की पहचान और छत्तीसगढ़ी को राज-भाषा की प्रतिष्ठा मिलने से 'छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर 'जैसी पत्रिकाओं की महिमा भी काफी बढ़ गयी है.
   राज्य निर्माण के लिए साहित्य के माध्यम से वातावरण बनाने में यहाँ के कवियों और लेखकों के साथ-साथ 'छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर' जैसी गंभीर साहित्यिक पत्रिकाओं ने भी अपनी रचनात्मक भूमिका निभायी है, जिसे याद रखने की ज़रुरत है. राज्य निर्माण को अभी दस वर्ष पूरे हुए हैं , जबकि इस पत्रिका का  प्रकाशन  बारह वर्षों से लगातार हो रहा है  .  पत्रिका के बारे में अधिक जानकारी के लिए --लोकाक्षर-प्रकाशन , विप्र सहकारी मुद्रणालय , नेहरू चौक , बिलासपुर (छत्तीसगढ़ ) के पते पर डॉ. तिवारी से  संपर्क किया जा सकता है. .महंगाई के इस कठिन दौर में व्यावसायिकता से ऊपर उठकर विशुद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रकाशन वास्तव में चुनौती और जोखिम भरा कार्य है. डॉ.तिवारी  छत्तीसगढ़ी भाषा और बोलियों के व्यापक हित में इस चुनौती को स्वीकार कर पिछले बारह साल से यह जोखिम उठा रहे हैं .यह वाकई बहुत बड़ी बात है. 

                                                                                                              स्वराज्य करुण            

7 comments:

  1. भाषाओं के प्रचार प्रसार मे पत्रिकाओं का सहयोग नकारा नही जा सकता। बहुत अच्छी जानकारी। धन्यवाद।ापको सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनायें।

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  2. बहुत ज्ञानवर्धक आलेख..होली की हार्दिक शुभकामनायें!

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  3. भारत के सभी प्रदेशों में इसी तरह का सम्पर्क भाषा परिवार है, यह हमें आपस में जोड़ता है।
    तिवारी जी का कार्य अनुकरणीय है और इतिहास में एक मील के पत्थर बनकर दर्ज होगा।

    आभार

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  4. good writeup
    holi ki aapko aur aapke paathko ko hardik shubhkamnaen

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  5. नन्‍द किशोर तिवारी जी का हमेशा की तरह महत्‍वपूर्ण कार्य और आपका शानदार मूल्‍यांकन, ढेरों-ढेर बधाईयां.

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  6. टिप्पणियों के लिए धन्यवाद सहित आप सबको रंग-पर्व होली की बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनाएं .

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  7. सुन्दर आलेख !

    रंगपर्व की शुभकामनाएं !

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