ऋतुओं के राजा वसंत के आगमन और रंग पर्व होली की दस्तक के साथ ही देश के कुछ इलाकों के सघन-विरल जंगलों में इन दिनों तोते की गहरे लाल रंग की चोंच जैसे फूलों से लदे पलाश अथवा टेसू के पेड़ बरबस ही लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींच रहे हैं. भले ही पर्यावरण संकट की भयंकर सुनामी के बीच भारत के जंगलों में पलाश की बहार केवल कुछ गिने-चुने इलाकों में ही बिखरती क्यों न हो , लेकिन वह जहां भी है , उसकी आन-बान और शान आज भी पूरे दम-ख़म के साथ कायम है. हमारे ग्रामीण -जीवन से भी पलाश का गहरा और पुराना आत्मीय रिश्ता है. छत्तीसगढ़ी भाषा में तो पलाश को 'परसा ' अथवा 'पलसा' के नाम से भी जाना -पहचाना जाता है. परसापाली , परसाडीह, परसकोल , परसवानी और परसाडिपा जैसे नामों के कई गाँव छत्तीसगढ़ -महतारी के आंचल में रचे-बसे हैं , जिनके नामकरण के इतिहास के पन्नों को पलटें तो मालूम होगा कि इन गाँवों के आस-पास किसी ज़माने में पलाश के वृक्ष काफी संख्या में हुआ करते थे. तब शायद ऋतु-राज वसंत की अगवानी के लिए जंगल इन्ही पलाश के वृक्षों को स्वागत-द्वार की भूमिका में खड़ा करता रहा होगा.
याद कीजिए इस मौसम के उन हल्की गर्माहट भरे दिनों को, जब जीप-टैक्सियों ,रेलगाड़ियों और बसों के सफ़र में तेजी से पीछे छूटते जंगलों में पलाश के सुर्ख-लाल दहकते फूलों से सजे-धजे पेड़ों को देख कर दिल में एक खुशनुमा अहसास जगा करता था. सफ़र तो हम और आप आज भी किया करते हैं , लेकिन ज्यादातर रास्तों में पलाश की तलाश करती आँखें उस दिलकश नज़ारे को देखने तरस जाती हैं .जनसंख्या बढ़ रही है, मोटर-वाहनों की संख्या बढ़ रही है, यातायात के बढ़ते दबाव के चलते सड़कें दिन-दूनी रात चौगुनी रफ़्तार से चौड़ी होती जा रही हैं , गाँव अब शहरीकरण की चपेट में आते जा रहे हैं, तब इतनी अफरा -तफरी से भरे तूफ़ान में पलाश अपना वजूद भला कब तक कायम रख पाएगा ? ज़ाहिर है कि अब वह लगातार अकेला होता जा रहा है. एक प्रमुख राष्ट्रीय राज मार्ग के किनारे मैंने उस दिन पलाश को तन्हा खड़े देखा. मानो वह पुराने हसीन वक्त को याद करते हुए अपने परिवार के बिछुड़े सदस्यों का इंतज़ार कर रहा हो, जो कभी उसके साथ यहीं आस-पास बहुत शान से रहा करते थे,लेकिन बढ़ती आबादी और बढते विकास की बेरहम आंधी से जंगलों की तबाही का जो सैलाब आया , वे उसकी गिरफ्त में आकर इस राह से गायब हो गए.फिर भी किसी-किसी इलाके में उसका परिवार आज भी वसंत के स्वागत में पलक-पांवड़े बिछाए नज़र आता है,जहां अपने खिलते फूलों के यौवन पर वह इतराता और इठलाता दिखाई देता है. पलाश के सौन्दर्य -वर्णन की हर कोशिश उसके आभा -मंडल के आगे फीकी हो जाती है . लगता है -उसकी सुन्दरता सिर्फ महसूस करने के लिए है, वर्णन करने के लिए नहीं . वैसे भी उसके नख-शिख वर्णन की शक्ति शब्दों में है भी कहाँ ? कहीं-कहीं तो पलाश के कुछ पेड़ों पर उसके सिर से पैरों तक केवल फूल ही फूल नज़र आते हैं . तब लगता है जैसे प्रकृति ने लाल रंग की चूनर पहना कर किसी दुल्हन का श्रृंगार किया हो. गर्मियों की तेज धूप के पतझरी माहौल में जब अधिकाँश पेड़-पौधों से हरियाली कुछ समय के लिए ओझल हो जाती है, उन्हीं दिनों , उन्हीं वीरान से लगते वृक्षों के बीच पलाश अपने लाल-नारंगी दहकते फूलों के साथ जंगल में अपनी निराली शोभा से प्राणी-जगत को एक अनोखा अनुभव देता है. .कहते हैं-संस्कृत के महाकवि कालिदास ने वसंत-ऋतु में हवा के झोंकों से हिलती-डुलती पलाश की टहनियों की तुलना जंगल की ज्वालाओं से की है.
आयुर्वेद में पलाश की कई खूबियाँ गिनाई गयी हैं .आम तौर पर इस वृक्ष के पाँचों अंग -जड़,तना , फूल. फल और बीज कई हर्बल औषधियां बनाने के काम आते हैं. पलाश के बड़े पत्तों का इस्तेमाल दोना-पत्तल बनाने में भी होता है. माघ की बिदाई के दिनों में पलाश की वीरान शाखों पर काले रंग की इसकी कलियाँ आने लगती हैं और फागुन में सम्पूर्ण वृक्ष लाल -नारंगी रंग के फूलों का परिधान पहन कर वसंत और होली के आगमन का संकेत देने लगता है .उसकी इस आकर्षक रूप-सज्जा से लगता है -जैसे रंगों के इन्द्रधनुषी त्यौहार का सबसे खास मेहमान भी यह पलाश ही तो है. आज से कुछ वर्ष पहले तक पलाश के फूलों को उबाल कर उसके गहरे लाल रंग के पानी से होली में रंग खेला जाता था.यह हर्बल रंग नुकसान दायक भी नहीं होता था. उन दिनों हमारे गाँवों और शायद शहरों के आस-पास भी पलाश के पेड़ काफी तादाद में हुआ करते थे .वह हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न अंग था. इंसानी आबादी बढ़ रही है और पलाश की आबादी कम हो रही है , लेकिन उसका सामाजिक-सांस्कृतिक महत्व कभी कम नहीं हो सकता . अब तो उसका आर्थिक महत्व भी सामने आ रहा है .
कुछ इलाकों में पलाश के पेड़ों पर लाख (गोंद) की खेती भी हो रही है. लाख-कृमि पालन कहीं-कहीं ग्रामीणों के लिए फायदे का धंधा साबित हो रहा है .लाख का इस्तेमाल चूडियों और दूसरे कई तरह के सौंदर्य प्रसाधनों और कई अन्य ज़रूरी सामानों के उत्पादन में भी किया जाता है. .पलाश की इन तमाम खूबियों को जान-पहचान कर भी क्या हम उसे अतीत का किस्सा बन जाने दें ? क्या हमें एक बार फिर उसे अपने जीवन का, अपने गाँव का , अपने घर-परिवार का और अपने लगातार विरल होते जा रहे जंगलों का हिस्सा नहीं बना लेना चाहिए ?
कुछ इलाकों में पलाश के पेड़ों पर लाख (गोंद) की खेती भी हो रही है. लाख-कृमि पालन कहीं-कहीं ग्रामीणों के लिए फायदे का धंधा साबित हो रहा है .लाख का इस्तेमाल चूडियों और दूसरे कई तरह के सौंदर्य प्रसाधनों और कई अन्य ज़रूरी सामानों के उत्पादन में भी किया जाता है. .पलाश की इन तमाम खूबियों को जान-पहचान कर भी क्या हम उसे अतीत का किस्सा बन जाने दें ? क्या हमें एक बार फिर उसे अपने जीवन का, अपने गाँव का , अपने घर-परिवार का और अपने लगातार विरल होते जा रहे जंगलों का हिस्सा नहीं बना लेना चाहिए ?
- स्वराज्य करुण
बहुत अच्छी जानकारी है। कोशिश करते हैं पलाश का कहीं पौधा मिले तो लगायें।मगर न जाने ऐसे कितने पेड पौधे अलोप हो रहे हैं। धन्यवाद।
ReplyDeletesunder jankari ke liye aapka aabhar
ReplyDeletehum ne bhi 2 baar plash ke rango se holi kheli he
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (10-3-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
palaashee badhaaee
ReplyDeletesaarthak lekh
बहुत सुन्दर जानकारी के लिए धन्यवाद|
ReplyDeletebahtu hi sundar/ mehetvpurn bat kahi aapne
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