स्वराज्य करुण
ये विकास का विष है या लालच का ज़हर है ,
दुनिया की आब-ओ-हवा में सुनामी का कहर है !
आया था किसी दौर में तबाही का जो आलम ,
कहते हैं लोग उससे भी कहीं भयानक मंज़र है !
उस मुल्क की तरक्की पे किसकी नज़र लगी ,
छा गयी जहां हर तरफ विनाश की लहर है !
परमाणु से भला क्यों बना रहे हो बिजली ,
अम्बर के देश जब तलक सूरज का घर है !
इंसान कभी बन भी न सका इंसान की तरह ,
जंगल-पहाड़ ,झील-नदी जिसके हमसफर हैं !
चाहते हो अगर दुनिया की इक लंबी ज़िंदगी ,
निहत्थे ही चलो दोस्त , अमन की राह निडर है !
- स्वराज्य करुण
सम-सामयिक सुंदर गजल है भाई साहब
ReplyDeleteनिहत्थे चलना ठीक नही है,
कुकुर खेदने के लिए तो एक लाठी रखनी ही पड़ेगी।:)
चाहते हो अगर वाकई दुनिया की लंबी ज़िंदगी ,
ReplyDeleteनिहत्थे ही चलो दोस्त , अमन की राह निडर है !
बहुत सुन्दर सन्देश है इन पँक्तियों मे मगर मानव कब मानता है। प्रकृ्ति से लोहा लेने को आतुर मौत के सामान बनाये जा रहा है। खूबसूरत गज़ल के लिये बधाई।
samsamyik gajal ke liye bahut bahut badhai.japan ki parmanu se banai ja rahi bijali v bhukamp awm sunami ke kahar par najar rakhte hue bhavishya ki chinta ko ingit kar rahi hai.sunder rachana hai.
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुति !
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