- स्वराज्य करुण
रोते हैं नज़ारे , ये नज़र क्या करे ,
गमों से भरा ये शहर क्या करे !
कश्ती जो डूबी इन्सानियत की
किनारे ही बेवफा ,लहर क्या करे !
ये बदहवास भाग-दौड अपने लिए ,
अपने में उलझी हर डगर क्या करें !
किसी को किसी की फिकर नहीं है ,
रिश्तों में घुल गया ज़हर क्या करें !
दिल के कमरों में है जब तक अन्धेरा,
अँधेरे में कैद अपना घर क्या करे !
बेतहाशा भागने का नाम ज़िंदगी
मंजिल से अनजान ये सफर क्या करे !
खुले -आम ख़्वाबों का कत्ल हो रहा ,
कातिल हैं सब के सब निडर क्या करें !
- स्वराज्य करुण
रोते हैं नज़ारे , ये नज़र क्या करे ,
गमों से भरा ये शहर क्या करे !
कश्ती जो डूबी इन्सानियत की
किनारे ही बेवफा ,लहर क्या करे !
ये बदहवास भाग-दौड अपने लिए ,
अपने में उलझी हर डगर क्या करें !
किसी को किसी की फिकर नहीं है ,
रिश्तों में घुल गया ज़हर क्या करें !
दिल के कमरों में है जब तक अन्धेरा,
अँधेरे में कैद अपना घर क्या करे !
बेतहाशा भागने का नाम ज़िंदगी
मंजिल से अनजान ये सफर क्या करे !
खुले -आम ख़्वाबों का कत्ल हो रहा ,
कातिल हैं सब के सब निडर क्या करें !
- स्वराज्य करुण
खुले -आम ख़्वाबों का कत्ल हो रहा ,
ReplyDeleteकातिल हैं सब के सब निडर क्या करें !
आज के हालत को दर्शाती बहुत अच्छी रचना
@किसी को किसी की फिकर नहीं है ,
ReplyDeleteरिश्तों में घुल गया ज़हर क्या करें !
रिश्तों के टूटने का दर्द वो क्या जानें,
जिन्हो्ने रिश्तों को कभी जी के नहीं देखा।
ये बदहवास भाग-दौड अपने लिए ,
ReplyDeleteअपने में उलझी हर डगर क्या करें !
किसी को किसी की फिकर नहीं है ,
रिश्तों में घुल गया ज़हर क्या करें !
बहुत अच्छी लगी पूरी गज़ल लेकिन ये दो शेर दिल को छू गये। शुभकामनायें।
मैं ज़रूरी काम में व्यस्त थी इसलिए पिछले कुछ महीनों से ब्लॉग पर नियमित रूप से नहीं आ सकी!
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत गज़ल लिखा है आपने ! उम्दा प्रस्तुती!
very nice post visit my blog plz
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सामयिक सन्दर्भों पर बहुत अच्छी ग़ज़ल है आपकी .
ReplyDeleteकश्ती जो डूबी इन्सानियत की
ReplyDeleteकिनारे ही बेवफा ,लहर क्या करे !
बहुत ही सार्थक और सुन्दर गज़ल..
बेतहाशा भागने का नाम है ज़िंदगी
ReplyDeleteमंजिल से अनजान ये सफर क्या करे
बहुत सुन्दर गज़ल