जयंती 31जुलाई 2022 पर विशेष
(आलेख : स्वराज्य करुण )
साहित्य के क्षितिज पर एक चमकदार सितारे के रूप में प्रेमचंद का उदय इतिहास के एक ऐसे दौर में हुआ ,जब भारत में स्वतंत्रता संग्राम की लहर चल रही थी और अंग्रेजों की औपनिवेशिक गुलामी से आज़ादी के लिए जनता में राजनीतिक चेतना का विकास हो रहा था। राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के उस दौर में 'कलम के सिपाही ' के रूप में प्रेमचंद का योगदान आज के कलमकारों के लिए भी प्रेरणादायक है। उनका जन्म 31 जुलाई 1880 को उत्तरप्रदेश के ग्राम लमही में और निधन 8 अक्टूबर 1936 को वाराणसी में हुआ। मात्र 56 साल की अपनी जीवन यात्रा में वह उर्दू और हिन्दी साहित्य जगत को अपनी रचनाओं का विशाल खज़ाना सौंपकर इस भौतिक संसार से चले गए ,लेकिन अपनी कहानियों ,अपने उपन्यासों और निबंधों में देश ,दुनिया और समाज से जुड़े अपने मानवतावादी चिन्तन की अनमोल धरोहर के रूप में वह आज भी साहित्य प्रेमियों के दिलों में रचे -बसे हैं।
साहित्य केवल मनोरंजन और
विलासिता की वस्तु नहीं
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उन्होंने समाज और व्यक्ति को प्रभावित करने वाले सुलगते सवालों को अपने लेखन का विषय बनाया। कुछ एक अपवादों को छोड़कर देखें तो आधुनिक हिन्दी साहित्य का वह प्रारंभिक दौर रहस्य-रोमांच और रोमांटिक किस्से कहानियों और उपन्यासों का था। प्रेमचंद ने इस परम्परा को कल्पना लोक से बाहर निकालकर जन -सरोकारों से जोड़ा। लखनऊ में वर्ष 1936 में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के प्रथम अधिवेशन में अपने लिखित और लम्बे अध्यक्षीय भाषण में साहित्य के उद्देश्य पर प्रेमचंद ने जो विचार प्रकट किए थे ,उनकी प्रासंगिकता 86 साल का लम्बा समय बीत जाने के बावज़ूद आज भी बनी हुई है। उन्होंने कहा था -- "हम साहित्य को केवल मनोरंजन और विलासिता की वस्तु नहीं समझते। हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा , जिसमें उच्च चिन्तन हो ,स्वाधीनता का भाव हो ,सौन्दर्य का सार हो ,सृजन की आत्मा हो ,जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो,जो हममें गति ,संघर्ष और बेचैनी पैदा करे,सुलाये नहीं ,क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है । साहित्यकार बहुधा अपने देश काल से प्रभावित होता है।जब कोई लहर देश में उठती है तो साहित्यकार के लिए उससे अविचलित रहना असंभव हो जाता है और उसकी विशाल आत्मा अपने देश -बन्धुओं के कष्टों से विकल हो उठती है और इस तीव्र विकलता में वह रो उठता है,पर उसके रुदन में भी व्यापकता होती है।वह स्वदेश का होकर भी सार्वभौमिक रहता है। साहित्य का सम्बन्ध बुद्धि से उतना नहीं ,जितना भावों से है।बुद्धि के लिए दर्शन है ,विज्ञान है ,नीति है। भावों के लिए कविता है ,उपन्यास है ,गद्य -काव्य है।"
दोहरी गुलामी के दौर में प्रेमचंद का लेखन
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प्रेमचंद उस दौर के साहित्यकार थे ,जब देश दोहरी गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। एक तरफ़ साम्राज्यवादी इंग्लैंड की सरकार और दूसरी तरफ देशी राजे - रजवाड़ों का सामंतवादी रियासती प्रशासन। यानी साम्राज्यवाद और सामंतवाद के दो पाटों के बीच भारत की जनता आज़ादी और लोकतंत्र के लिए छटपटा रही थी। ऐसे नाज़ुक दौर में विदेशी हुकूमत और देशी सामंतों को व्यवस्था के ख़िलाफ़ किसी भी तरह का लेखन बेहद नागवार लगता था। फिर भी प्रेमचंद ने अपने समय की इस दोहरी गुलामी की परवाह न करते हुए हिम्मत के साथ बहुत खुलकर लिखा और खूब लिखा। हालांकि इसका अंज़ाम भी उन्हें भुगतना पड़ा ,लेकिन अपनी जनता और ज़मीन से जुड़े साहित्यकार ऐसे अंज़ामों से जूझने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। प्रेमचंद उन्हीं रचनाकारों में से थे।
ब्रिटिश हुकूमत ने ज़ब्त कर
लिया पहला कहानी संग्रह
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भारतीय समाज के मेहनतकश किसानों ,मज़दूरों ,दलितों और शोषितों के दुःख-दर्द को और उनकी भावनाओं को अपनी कलम से वाणी देने वाले , आम जनता के साहित्यकार थे। उन्होंने उन्होंने जन -सामान्य के लिए सहज ,सरल भाषा में जीवन की समस्याओं पर गंभीरता से विचार करने वाली रचनाएँ लिखीं। साहित्य प्रेमियों ने उन्हें 'कहानी सम्राट ' 'उपन्यास सम्राट' और 'कलम का सिपाही ' जैसे सम्मानजनक विशेषणों से नवाज़ा। शुरुआत उन्होंने उर्दू साहित्य से की। ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ , हमारे महान स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उर्दू में उनका पहला कहानी संग्रह सोज़ -ए-वतन (यानी देश का दर्द ) जब छपकर आया तब वर्ष 1907 में अंग्रेज सरकार ने इसे ज़ब्त कर लिया। पुस्तक पर पाबंदी लगा दी और उसकी तमाम पार्टियों को आग के हवाले करवा दिया। इस संग्रह में पाँच कहानियाँ थीं -- दुनिया का सबसे अनमोल रतन ,शेख़ मख़मूर ,यही मेरा वतन है ,शोक का पुरस्कार और सांसारिक प्रेम। तब तक प्रेमचंद उर्दू में नवाबराय के नाम से लिखा करते थे। इस घटना के बाद वह 'प्रेमचंद' बने और आजीवन इसी नाम से साहित्य सृजन करते रहे। हिन्दी में उनकी प्रमुख रचनाओं में सेवासदन , गोदान ,कर्मभूमि ,प्रेमाश्रम , निर्मला ,गबन ,रंगभूमि , कायाकल्प जैसे 15 कालजयी उपन्यास और कफ़न,ईदगाह , मंत्र ,खुदाई फौजदार, बड़े भाई साहब ,नमक का दरोगा ,मंदिर और मस्ज़िद , ठाकुर का कुआँ ,सदगति , बाबाजी का भोग , गरीब की हाय तथा पूस की रात जैसी तीन सौ से ज़्यादा कहानियाँ शामिल हैं। उनका पहला उपन्यास था 'सेवासदन', जो 1918 में छपा था। अंतिम प्रकाशित उपन्यास 'गोदान ' 1936 में आया ,जबकि 'मंगलसूत्र' नामक उपन्यास अधूरा रह गया।
उपन्यास 'गोदान ' पर बनी थी फ़िल्म
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प्रेमचंद का उपन्यास 'गोदान तत्कालीन भारतीय समाज में कर्ज के बोझ से दबे ' होरी जैसे ग़रीब किसानों के जीवन संघर्षों का एक कारुणिक दस्तावेज है । वहीं ' निर्मला ' दहेज के अभाव में बेमेल विवाह की त्रासदी झेलती भारतीय नारी की जीवन गाथा है ,जबकि 'रंगभूमि' उपन्यास में प्रेमचंद उन दिनों के रसूखदार अमीरों के विरुद्ध एक नेत्रहीन भिखारी (सूरदास)के अहिंसक संघर्ष का जीवंत चित्रण करते हैं। उनके उपन्यास 'गोदान ' पर वर्ष 1963 में हिन्दी में फीचर फ़िल्म भी रिलीज हुई थी , जिसकी पटकथा भी स्वयं प्रेमचंद ने लिखी थी।त्रिलोक जेटली इस फ़िल्म के निर्माता और निर्देशक थे। इसमें राजकुमार ,महमूद ,शशिकला,, कामिनी कौशल ,टुनटुन,शुभा खोटे और मदनपुरी जैसे कई प्रसिद्ध कलाकारों ने किरदार निभाया था। संगीत पण्डित रविशंकर का था और गीतकार थे बॉलीवुड में 'अंजान' के नाम से मशहूर लालजी पाण्डेय। इस फ़िल्म में उनका लिखा एक गीत 'चली आज गोरी पिया की नगरिया' बहुत लोकप्रिय हुआ था।
नाटक और निबंध लेखक भी थे प्रेमचंद
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प्रेमचंद ने कृषि प्रधान भारतीय समाज में कुरीतियों की वजह से कर्ज के बोझ से दबे किसानों की समस्याओं को अपने नाटक 'संग्राम ' में रेखांकित किया है। यह नाटक वर्ष 1923 में प्रकाशित हुआ था।उनके लिखे दो अन्य नाटक कर्बला(1924) और प्रेम की वेदी (वर्ष 1933) भी काफी चर्चित हुए थे। प्रेमचंद के चर्चित निबंधों में महाजनी सभ्यता , साम्प्रदायिकता और संस्कृति ,पुराना ज़माना -नया ज़माना , हिन्दी -उर्दू एकता , स्वराज के फायदे और जीवन में साहित्य का स्थान भी उल्लेखनीय है। चाहे उपन्यास हो या कहानी ,निबंध हों या नाटक ,प्रेमचंद के साहित्य में समाज का कोई भी वर्ग और मानव जीवन का कोई भी पहलू अछूता नहीं रह गया है। उन्होंने अपनी कई रचनाओं के माध्यम से भारतीय समाज में साम्प्रदायिक सौहार्द्र की भावना को जन -जन तक पहुँचाने का प्रयास किया । अपने निबंध 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति ' की शुरुआत वह इन शब्दों में करते हैं --"साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है।इसलिए वह उस गधे की भाँति, जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रौब जमाता फिरता था ,संस्कृति की खोल ओढ़कर आती है।" प्रेमचंद वास्तव में एक दूरदर्शी लेखक थे।उन्होंने समाज में आ रहे बदलावों को देखकर सटीक अनुमान लगा लिया था कि आने वाला समय कैसा होगा !
पुराना ज़माना : नया ज़माना
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वह अपने निबंध 'पुराना ज़माना : नया ज़माना में लिखते हैं --" आने वाला ज़माना अब जनता का है और वह लोग पछताएंगे ,जो ज़माने के साथ कदम -से - कदम मिलाकर न चलेंगे । "अपने इसी निबंध में वह उस दौर में भारतीय किसानों की दुर्दशा से चिंतित होकर कहते हैं -- क्या यह शर्म की बात नहीं कि जिस देश में नब्बे प्रतिशत आबादी किसानों की हो , उस देश में कोई किसान सभा ,कोई किसानों की भलाई का आंदोलन ,कोई खेती का विद्यालय, किसानों की भलाई का कोई व्यवस्थित प्रयत्न न हो। प्रेमचंद वर्ष 1917की सोवियत रूस की जनक्रांति से काफी प्रभावित थे। उन्होंने अपने निबंध पुराना ज़माना :नया ज़माना' में लिखा था -- आने वाला ज़माना अब किसानों और मज़दूरों का है। दुनिया की रफ़्तार इसका साफ सबूत दे रही है।हिन्दुस्तान इस हवा से बेअसर नहीं रह सकता।शायद जल्द ही हम जनता को केवल मुखर ही नहीं ,अपने अधिकारों की मांग करने वाले के रूप में देखेंगे और तब वह आपकी किस्मत की मालिक होगी "
जरा सोचिए , क्या आज इक्कीसवीं सदी के आज़ाद और लोकतांत्रिक भारत के किसानों में अपने अधिकारों को लेकर आई जागृति , संसद और विधानसभाओं के निर्वाचनों में उनकी निर्णायक भूमिका और केन्द्र तथा राज्य सरकारों के द्वारा संचालित विभिन्न किसान हितैषी योजनाओं से यह साबित नहीं होता कि प्रेमचंद के लेखन में अपने समय से बहुत आगे का चिन्तन था ?
विसंगतियों और विषमताओं पर साधा निशाना
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वह अपने उपन्यास 'कर्मभूमि' के एक प्रमुख पात्र के माध्यम से उन दिनों के समाज में व्याप्त विसंगतियों और विषमताओं को भी निशाना बनाते हैं। प्रेमचंद लिखते हैं --"धर्म का काम संसार में मेल और एकता पैदा करना है। यहाँ धर्म ने विभिन्नता औऱ द्वेष पैदा कर दिया है।क्यों खान-पान में ,रस्म -रिवाज़ में धर्म अपनी टांग अड़ाता है। मैं चोरी करूं ,धोखा दूँ, धर्म मुझे अलग नहीं कर सकता ।अछूत के हाथ का पानी पी लूँ ,धर्म छूमंतर हो गया ! अच्छा धर्म है। हम धर्म के बाहर किसी से आत्मा का संबंध भी नहीं कर सकते ! आत्मा को भी धर्म ने बांध रखा है। प्रेम को भी जकड़ रखा है।यह धर्म नहीं ,धर्म का कलंक है।" आगे उनका पात्र कहता है --"जिसके पास जितनी बड़ी डिग्री है ,उसका स्वार्थ भी उतना ही बढ़ा हुआ है। मानो लोभ और स्वार्थ ही विद्वता का लक्षण है।" प्रेमचंद इस उपन्यास में उन लोगों पर भी करारा प्रहार करते हैं ,जिन्हें अनैतिक तरीकों से धनार्जन करने में अपनी शान समझते हैं।प्रेमचंद का पात्र इसमें कहता है --तुम कहोगे हमने बुद्धि बल से धन कमाया है । क्यों न उसका उपभोग करें? लेकिन इस बुद्धि का नाम स्वार्थ -बुद्धि है।और जब समाज का संचालन स्वार्थ -बुद्धि के हाथ में आ जाता है ,न्याय -बुद्धि गद्दी से उतार दी जाती है ,तो समझ लो कि समाज में कोई विप्लव होने वाला है।गर्मी बढ़ रही है तो तुरंत ही आंधी आती है। मानवता हमेशा कुचली नहीं जा सकती। समता जीवन का तत्व है। यही एक दशा है,जो समाज को स्थिर रख सकती है।थोड़े -से धनवानों को हरगिज़ यह अधिकार नहीं है कि वे जनता को ईश्वर प्रदत्त वायु और प्रकाश का अपहरण करें। "
प्रेमचंद की पत्रकारिता
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प्रेमचंद एक सजग पत्रकार भी थे। स्वतंत्र पत्रकारिता की शुरुआत उन्होंने वर्ष 1903 में की। उस दौरान उन्होंने 'स्वदेश ' और 'मर्यादा ' नामक पत्रों में कई रिपोतार्ज लिखे, सम-सामयिक विषयों पर विचारोत्तेजक लेख लिखे , जन मानस को प्रभावित करने वाली टिप्पणियाँ लिखीं। उर्दू अख़बार 'ज़माना ' में उनका नियमित स्तंभ 'रफ़्तार-ए व-ज़माना ' भी काफी चर्चित हुआ करता था। लम्बे अरसे तक स्वतंत्र पत्रकारिता के बाद उन्होंने वर्ष 1933-34 में साप्ताहिक 'जागरण 'और 1930 से 1936 तक मासिक पत्रिका 'हंस ' का सम्पादन किया। उन्होंने आज़ादी के आंदोलन के उस दौर में अपने पत्रकारीय लेखन को आम जनता में राष्ट्रीय चेतना के विकास का माध्यम बनाया। उन्होंने अपनी लेखनी से ब्रिटिश हुकूमत की जन विरोधी नीतियों की कटु आलोचनाएँ की। फलस्वरूप सरकार की पैनी निगाह उन पर और उनके पत्रों पर हमेशा बनी रहती थी। दोनों अख़बारों को कई बार प्रशासन की नाराज़गी झेलनी पड़ी।
मासिक ' हंस ' के प्रकाशन पर लगी थी रोक
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मासिक 'हंस' के जून -जुलाई 1936 के अंकों में सेठ गोविन्ददास रचित नाटक 'स्वातंत्र्य' के प्रकाशन पर आपत्ति करते हुए अंग्रेज - प्रशासन ने प्रेमचंद की इस पत्रिका को बंद करवा दिया। पत्रिका पाँच महीने तक बंद रही। उस ज़माने में एक हजार रुपए की जमानत भरने के बाद उसका प्रकाशन शुरू हो पाया। इस घटना से व्यथित होकर उन्होंने साप्ताहिक 'जागरण ' के 12 दिसम्बर 1932 के अंक में लिखा था --"ऐसे वातावरण में ,जबकि हर सम्पादक के सिर पर तलवार लटक रही हो ,राष्ट्र का सच्चा राजनीतिक विकास नहीं हो सकता।" लेकिन इसके बाद भी ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति के लिए जन -जागृति की दिशा में प्रेमचंद का लेखन लगातार चलता रहा।
देश को आज़ादी मिलने के मात्र ग्यारह साल पहले अपने साहित्य और क्रांतिकारी विचारों की अनमोल धरोहर समाज को सौंपकर प्रेमचंद 1936 में दुनिया छोड़ गए। लेकिन उनके विचारों की धड़कन और उनकी संवेदनाओं का स्पंदन उनकी कालजयी रचनाओं में हम आज भी महसूस कर सकते हैं। उनके साहित्य ने भारतीय समाज को हमेशा जोड़ने का प्रयास किया। उन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से जनता को एकता ,मैत्री , शांति , सामाजिक समानता और मानवता का संदेश दिया।
- स्वराज्य करुण
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