- स्वराज करुण
भारत में आजकल दूध -दही की दुकानों से ज्यादा भीड़ शराब की दुकानों में उमड़ती नज़र आती है ।वह भी विदेशी शराब की दुकानों में ! अब 'स्वदेशी शराब ' को कोई नहीं पूछता ! खैर , वैसे भी शराब चाहे विदेशी हो या स्वदेशी ,वैध हो या अवैध , किसी भी दृष्टि से स्वास्थ्य के लिए लाभदायक तो है नहीं ।
शारीरिक हानि के साथ -साथ सामाजिक प्रदूषण फैलाने में भी शराब और शराबियों का बहुत बड़ा आपराधिक योगदान होता है । आम तौर पर शराबखोरी को जायज ठहराने के लिए लोग 'वैध ' और 'अवैध ' मदिरा में फ़र्क करते हैं ,जबकि जो चीज मनुष्य के लिए प्राणघातक है ,पारिवारिक - सामाजिक -सांस्कृतिक पर्यावरण के लिए नुकसान दायक है , उसे वैध -अवैध के रूप में अलग -अलग परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए । ज़हर तो ज़हर होता है । उसे चाहे 'वैध 'तरीके से पिया जाए या ' अवैध ' तरीके से , दोनों ही स्थितियों में वह प्राणघातक होता है ।उसमें 'कानूनी ज़हर' और 'गैरकानूनी ज़हर ' कहकर भेद नहीं किया जा सकता। (स्वराज करुण )यह गोवंश के रक्षक कृष्ण -कन्हैय्या का देश है ,जहाँ उनके ज़माने में दूध की नदियाँ बहा करती थीं । यानी दूध -दही का भरपूर उत्पादन होता था । लोग उसे पीकर स्वस्थ और बलवान हुआ करते थे ।
वैसे आज भी देखा जाए तो हमारे यहाँ दूध -दही की कोई कमी नहीं है ,लेकिन भोगवादी और बाज़ारवादी आधुनिक जीवन शैली के आकर्षण में बंधकर भारतीय मनुष्य तेजी से शराबखोरी की घिनौनी आदत का शिकार बन रहा है । (स्वराज करुण )हमारे भारतीय समाज में कुछ एक अपवादों को छोड़कर देखें तो आज शराबखोरी को प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जा रहा है । हराम की कमाई से बने अमीरों और नवधनाढ्य लोगों के घरों में उनके प्राइवेट ' मिनी बार ' बने हुए हैं,जहाँ परिवार के सदस्य भी आधुनिकता के नाम पर खुलकर मदिरा पान करते हैं । (स्वराज करुण) दूसरी तरफ चाहे नौकरीपेशा वेतनभोगी कर्मचारी हो या दिहाड़ी मज़दूर , समाज के हर वर्ग के अधिकांश लोग अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा मदिराखोरी में नष्ट कर रहे हैं ,जबकि जितना रुपया वह शराब खरीदने में ख़र्च करते हैं ,उससे कहीं कम कीमत में वह स्वयं के लिए और परिवार के लिए पर्याप्त मात्रा में दूध -दही ,घी जैसे स्वास्थ्यवर्धक पदार्थ ख़रीद सकते हैं । लेकिन शराबियों को अपने घर -परिवार या बालबच्चों की चिन्ता कहाँ होती है ।
हिन्दी -उर्दू के प्रसिद्ध लेखक मुंशी प्रेमचंद की एक मशहूर कहानी 'कफ़न' अगर आपने पढ़ी हो तो उसमें बाप -बेटे घीसू और माधव के चरित्र को याद कीजिए ,जो घर में प्रसव वेदना से कराहती बहू के इलाज के नाम पर गाँव वालों से चंदा इकठ्ठा करते हैं और उन पैसों को अपनी शराबखोरी में उड़ा देते हैं । तब तक उनकी झोपड़ी में बहू तड़फ -तड़फ कर दम तोड़ देती है । कालजयी कथाकार द्वारा यह कहानी लगभग नौ दशक पहले लिखी गयी थी । इससे पता चलता है कि यह समस्या बहुत पुरानी है । शराब का नशा जहाँ गरीबों को और भी गरीब बना देता है और उनमें अच्छे -बुरे की समझ को नष्ट कर देता है ,वहीं यह पैसे वालों को भी धीरे -धीरे बर्बाद करके ख़ाक में मिला देता है । मुझे अपने बचपन की स्कूली किताब 'बालभारती ' में पढ़ी आनन्दराव जमींदार की कहानी की धुँधली -सी याद आ रही है । यह शराब की लत के कारण आनन्दराव की आर्थिक तबाही की एक मार्मिक कहानी है । लेखक का नाम याद नहीं ,लेकिन उन्होंने कहानी के माध्यम से समाज को इस नशे से दूर रहने की नसीहत दी है ।
लगता है कि पहले की तुलना में यह समस्या आज और भी ज़्यादा बढ़ गयी है । भारत में शराबखोरी एक गंभीर सामाजिक बीमारी का रूप धारण करती जा रही है । क्या शहर और क्या गाँव , देश का कोई भी इलाका इस बीमारी से अछूता नहीं रह गया है ।इसकी वज़ह से समाज में हिंसा ,हत्या , आत्महत्या , बलात्कार जैसे घिनौनी घटनाओं में वृद्धि हो रही है । राह चलती माताओं -बहनों ,बहु -बेटियों से छेड़छाड़ की घटनाएं बढ़ रही हैं ।शराब पीकर वाहन चलाने वाले जहाँ स्वयं गंभीर सड़क हादसों का शिकार होकर प्राण गंवा रहे हैं ,वहीं उनके लड़खड़ाते वाहनों की चपेट में आकर दूसरे भी आकस्मिक रूप से मौत का शिकार बन रहे हैं ।(स्वराज करुण) शराबखोरी एक राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है । इसके निराकरण के लिए पूरे देश में हर प्रकार की शराब के उत्पादन और विक्रय पर ठोस प्रतिबंध लगाना समय की मांग है ।शराब और शराबखोरी को महिमामण्डित करने वाले विज्ञापनों और 'झूम बराबर झूम शराबी' या ' नशा शराब में होता तो नाचती बोतल' जैसे फिल्मी गानों पर भी प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए ,जो किसी न किसी रूप में लोगों को शराब पीने के लिए उकसाते हुए प्रतीत होते हैं ।
सिर्फ़ मदिरा की बोतलों पर 'शराब स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ' छापकर वैधानिक चेतावनी की खानापूर्ति कर देना पर्याप्त नहीं है ।इससे यह समस्या हल नहीं होने वाली । इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर ईमानदारी से व्यापक जन जागरण अभियान चलाने की ज़रूरत है । यह अकेले किसी एक सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं ,बल्कि समाज के उन जागरूक नागरिकों की भी ज़िम्मेदारी है जो स्वयं इस नशे से दूर रहते हैं । भले ही उनकी संख्या कुछ कम होगी ,लेकिन अगर वो चाहें तो इस अभियान में लेखकों ,कलाकारों डॉक्टरों आदि को जोड़ सकते हैं । नशे के दुष्परिणामों के बारे में डॉक्टरों के व्याख्यान आयोजित कर सकते हैं । मीडिया में उनके लेख और इंटरव्यू प्रकाशित और प्रसारित करवा सकते हैं ।नुक्कड़ नाटक ,गीत -संगीत के माध्यम से भी लोगों में जागरूकता बढ़ाने की कोशिश की जा सकती है । अगर शराब की दुकानें खुली हैं तो खुली रहने दें। कोई किसी को जोर-जबरदस्ती तो उन दुकानों की ओर नहीं ढकेलता और ज़बरन शराब ख़रीदने और पीने के लिए मजबूर नहीं करता । लोग उन मदिरालयों की तरफ जाएं ही मत और शराब खरीदें ही मत और पियें ही मत । फिर देखिए , कैसे बन्द नहीं होगा मदिरा का कारोबार । लेकिन इसके लिए सामाजिक -चेतना का विस्तार आवश्यक है ।
आज से मात्र डेढ़ -दो दशक पहले जब योग गुरु बाबा रामदेव ने अपने योग शिविरों में पेप्सी और कोकाकोला जैसे कोल्ड -ड्रिंक्स ' के विषैले परिणामों को टॉयलेट क्लिनर ' के नाम से प्रचारित किया और 'ठण्डा मतलब टॉयलेट क्लिनर का 'नारा बुलन्द किया तो देखते ही देखते करोड़ों भारतीयों ने ज़हरीले मीठे पानी की इन बोतलों को खरीदना बन्द कर दिया और कुछ ही महीनों में इनकी बिक्री बुरी तरह से घट गयी । उन दिनों कोई इक्का -दुक्का इन्हें खरीदता भी था तो लोग उनको आश्चर्य से देखते थे । आज भी दुकानों में इन शीतल पेयों की ग्राहकी बढ़ नहीं पायी है। शराब का असर तो किसी भी ब्रांडेड विदेशी शीतल पेय के मुकाबले अत्यधिक तेज़ाबी होता है । हमें बाबा रामदेव जैसी कोई शख्सियत चाहिए जो जनता को दिलचस्प तरीके से यह समझा सके कि शराब चाहे देशी हो या विदेशी , आख़िर वह भी एक प्रकार का "टॉयलेट क्लिनर ' ही तो है !
-स्वराज करुण
भारत में आजकल दूध -दही की दुकानों से ज्यादा भीड़ शराब की दुकानों में उमड़ती नज़र आती है ।वह भी विदेशी शराब की दुकानों में ! अब 'स्वदेशी शराब ' को कोई नहीं पूछता ! खैर , वैसे भी शराब चाहे विदेशी हो या स्वदेशी ,वैध हो या अवैध , किसी भी दृष्टि से स्वास्थ्य के लिए लाभदायक तो है नहीं ।
शारीरिक हानि के साथ -साथ सामाजिक प्रदूषण फैलाने में भी शराब और शराबियों का बहुत बड़ा आपराधिक योगदान होता है । आम तौर पर शराबखोरी को जायज ठहराने के लिए लोग 'वैध ' और 'अवैध ' मदिरा में फ़र्क करते हैं ,जबकि जो चीज मनुष्य के लिए प्राणघातक है ,पारिवारिक - सामाजिक -सांस्कृतिक पर्यावरण के लिए नुकसान दायक है , उसे वैध -अवैध के रूप में अलग -अलग परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए । ज़हर तो ज़हर होता है । उसे चाहे 'वैध 'तरीके से पिया जाए या ' अवैध ' तरीके से , दोनों ही स्थितियों में वह प्राणघातक होता है ।उसमें 'कानूनी ज़हर' और 'गैरकानूनी ज़हर ' कहकर भेद नहीं किया जा सकता। (स्वराज करुण )यह गोवंश के रक्षक कृष्ण -कन्हैय्या का देश है ,जहाँ उनके ज़माने में दूध की नदियाँ बहा करती थीं । यानी दूध -दही का भरपूर उत्पादन होता था । लोग उसे पीकर स्वस्थ और बलवान हुआ करते थे ।
वैसे आज भी देखा जाए तो हमारे यहाँ दूध -दही की कोई कमी नहीं है ,लेकिन भोगवादी और बाज़ारवादी आधुनिक जीवन शैली के आकर्षण में बंधकर भारतीय मनुष्य तेजी से शराबखोरी की घिनौनी आदत का शिकार बन रहा है । (स्वराज करुण )हमारे भारतीय समाज में कुछ एक अपवादों को छोड़कर देखें तो आज शराबखोरी को प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जा रहा है । हराम की कमाई से बने अमीरों और नवधनाढ्य लोगों के घरों में उनके प्राइवेट ' मिनी बार ' बने हुए हैं,जहाँ परिवार के सदस्य भी आधुनिकता के नाम पर खुलकर मदिरा पान करते हैं । (स्वराज करुण) दूसरी तरफ चाहे नौकरीपेशा वेतनभोगी कर्मचारी हो या दिहाड़ी मज़दूर , समाज के हर वर्ग के अधिकांश लोग अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा मदिराखोरी में नष्ट कर रहे हैं ,जबकि जितना रुपया वह शराब खरीदने में ख़र्च करते हैं ,उससे कहीं कम कीमत में वह स्वयं के लिए और परिवार के लिए पर्याप्त मात्रा में दूध -दही ,घी जैसे स्वास्थ्यवर्धक पदार्थ ख़रीद सकते हैं । लेकिन शराबियों को अपने घर -परिवार या बालबच्चों की चिन्ता कहाँ होती है ।
हिन्दी -उर्दू के प्रसिद्ध लेखक मुंशी प्रेमचंद की एक मशहूर कहानी 'कफ़न' अगर आपने पढ़ी हो तो उसमें बाप -बेटे घीसू और माधव के चरित्र को याद कीजिए ,जो घर में प्रसव वेदना से कराहती बहू के इलाज के नाम पर गाँव वालों से चंदा इकठ्ठा करते हैं और उन पैसों को अपनी शराबखोरी में उड़ा देते हैं । तब तक उनकी झोपड़ी में बहू तड़फ -तड़फ कर दम तोड़ देती है । कालजयी कथाकार द्वारा यह कहानी लगभग नौ दशक पहले लिखी गयी थी । इससे पता चलता है कि यह समस्या बहुत पुरानी है । शराब का नशा जहाँ गरीबों को और भी गरीब बना देता है और उनमें अच्छे -बुरे की समझ को नष्ट कर देता है ,वहीं यह पैसे वालों को भी धीरे -धीरे बर्बाद करके ख़ाक में मिला देता है । मुझे अपने बचपन की स्कूली किताब 'बालभारती ' में पढ़ी आनन्दराव जमींदार की कहानी की धुँधली -सी याद आ रही है । यह शराब की लत के कारण आनन्दराव की आर्थिक तबाही की एक मार्मिक कहानी है । लेखक का नाम याद नहीं ,लेकिन उन्होंने कहानी के माध्यम से समाज को इस नशे से दूर रहने की नसीहत दी है ।
लगता है कि पहले की तुलना में यह समस्या आज और भी ज़्यादा बढ़ गयी है । भारत में शराबखोरी एक गंभीर सामाजिक बीमारी का रूप धारण करती जा रही है । क्या शहर और क्या गाँव , देश का कोई भी इलाका इस बीमारी से अछूता नहीं रह गया है ।इसकी वज़ह से समाज में हिंसा ,हत्या , आत्महत्या , बलात्कार जैसे घिनौनी घटनाओं में वृद्धि हो रही है । राह चलती माताओं -बहनों ,बहु -बेटियों से छेड़छाड़ की घटनाएं बढ़ रही हैं ।शराब पीकर वाहन चलाने वाले जहाँ स्वयं गंभीर सड़क हादसों का शिकार होकर प्राण गंवा रहे हैं ,वहीं उनके लड़खड़ाते वाहनों की चपेट में आकर दूसरे भी आकस्मिक रूप से मौत का शिकार बन रहे हैं ।(स्वराज करुण) शराबखोरी एक राष्ट्रीय समस्या बन चुकी है । इसके निराकरण के लिए पूरे देश में हर प्रकार की शराब के उत्पादन और विक्रय पर ठोस प्रतिबंध लगाना समय की मांग है ।शराब और शराबखोरी को महिमामण्डित करने वाले विज्ञापनों और 'झूम बराबर झूम शराबी' या ' नशा शराब में होता तो नाचती बोतल' जैसे फिल्मी गानों पर भी प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए ,जो किसी न किसी रूप में लोगों को शराब पीने के लिए उकसाते हुए प्रतीत होते हैं ।
सिर्फ़ मदिरा की बोतलों पर 'शराब स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ' छापकर वैधानिक चेतावनी की खानापूर्ति कर देना पर्याप्त नहीं है ।इससे यह समस्या हल नहीं होने वाली । इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर ईमानदारी से व्यापक जन जागरण अभियान चलाने की ज़रूरत है । यह अकेले किसी एक सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं ,बल्कि समाज के उन जागरूक नागरिकों की भी ज़िम्मेदारी है जो स्वयं इस नशे से दूर रहते हैं । भले ही उनकी संख्या कुछ कम होगी ,लेकिन अगर वो चाहें तो इस अभियान में लेखकों ,कलाकारों डॉक्टरों आदि को जोड़ सकते हैं । नशे के दुष्परिणामों के बारे में डॉक्टरों के व्याख्यान आयोजित कर सकते हैं । मीडिया में उनके लेख और इंटरव्यू प्रकाशित और प्रसारित करवा सकते हैं ।नुक्कड़ नाटक ,गीत -संगीत के माध्यम से भी लोगों में जागरूकता बढ़ाने की कोशिश की जा सकती है । अगर शराब की दुकानें खुली हैं तो खुली रहने दें। कोई किसी को जोर-जबरदस्ती तो उन दुकानों की ओर नहीं ढकेलता और ज़बरन शराब ख़रीदने और पीने के लिए मजबूर नहीं करता । लोग उन मदिरालयों की तरफ जाएं ही मत और शराब खरीदें ही मत और पियें ही मत । फिर देखिए , कैसे बन्द नहीं होगा मदिरा का कारोबार । लेकिन इसके लिए सामाजिक -चेतना का विस्तार आवश्यक है ।
आज से मात्र डेढ़ -दो दशक पहले जब योग गुरु बाबा रामदेव ने अपने योग शिविरों में पेप्सी और कोकाकोला जैसे कोल्ड -ड्रिंक्स ' के विषैले परिणामों को टॉयलेट क्लिनर ' के नाम से प्रचारित किया और 'ठण्डा मतलब टॉयलेट क्लिनर का 'नारा बुलन्द किया तो देखते ही देखते करोड़ों भारतीयों ने ज़हरीले मीठे पानी की इन बोतलों को खरीदना बन्द कर दिया और कुछ ही महीनों में इनकी बिक्री बुरी तरह से घट गयी । उन दिनों कोई इक्का -दुक्का इन्हें खरीदता भी था तो लोग उनको आश्चर्य से देखते थे । आज भी दुकानों में इन शीतल पेयों की ग्राहकी बढ़ नहीं पायी है। शराब का असर तो किसी भी ब्रांडेड विदेशी शीतल पेय के मुकाबले अत्यधिक तेज़ाबी होता है । हमें बाबा रामदेव जैसी कोई शख्सियत चाहिए जो जनता को दिलचस्प तरीके से यह समझा सके कि शराब चाहे देशी हो या विदेशी , आख़िर वह भी एक प्रकार का "टॉयलेट क्लिनर ' ही तो है !
-स्वराज करुण
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (01-10-2019) को "तपे पीड़ा के पाँव" (चर्चा अंक- 3475) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'