- स्वराज करुण
प्राकृतिक दोना - पत्तलों की पर्यावरण हितैषी परम्परा तेजी से विलुप्त होती जा रही है । पहले इन्हें पेड़ों के हरे पत्तों से और अपने हाथों से बनाया जाता था । सत्यनारायण की कथा का प्रसाद और विवाह आदि समारोहों में नाश्ता और भोजन इनमें परोसा जाता था ।
उपयोग के बाद लोग इन प्राकृतिक दोना - पत्तलों को किसी एक जगह पर एकत्रित करके रख देते थे या किसी गड्ढे में डाल देते थे ,जहाँ ये मिट्टी में घुल जाते थे । अगर जानवर भी इन पत्तों को खा लें तो उनको कोई नुकसान नहीं होता था । लेकिन अब प्राकृतिक दोना -पत्तल गाँवों से भी गायब होते जा रहे हैं ।
विभिन्न कारणों से जंगलों का कम होते जाना भी इसका प्रमुख कारण है । पहले वनों में साल ,सरई ,परसा आदि के वृक्ष काफी संख्या में होते थे ,जिनके पत्तों से दोना -पत्तल बनाया जाता था । लोगों के घरों के आँगन में या पीछे बाड़ियों में पर्याप्त जगह होती थी ,जहाँ कुँओं के आस -पास केले के भी पौधे लगाए जाते थे । बड़े होने पर केले के पत्ते भी भोजन परोसने के काम आते थे ।
दोना -पत्तल बनाने की मशीनें आ गयी हैं ,जिनमें मोटे कागजों पर प्लास्टिक , पॉलीथिन या कृत्रिम सिल्वर की बारीक परतें चढ़ाकर इन्हें बनाया जा रहा है ,जो स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक हैं । उपयोग के बाद लोग इन्हें लापरवाही से इधर -उधर फेंक देते हैं। मिट्टी में घुलनशील नहीं होने के कारण ये जमीन में खुले पड़े रहते हैं । इससे मिट्टी प्रदूषित होती है और इनमें बचे हुए या चिपके रह गए जूठन के सड़ने पर वातावरण में असहनीय बदबू फैलती है । पर्यावरण भी दूषित होता है । इस प्रकार के प्लास्टिक या कृत्रिम सिल्वर कोटेड आधुनिक दोना -पत्तलों को अगर कोई जानवर खा ले तो उसकी मौत भी हो सकती है ।
दोना -पत्तल बनाने की इन मशीनों की कीमत ज्यादा नहीं होती । इसलिए कोई भी व्यक्ति इस कुटीर उद्योग की स्थापना कर सकता है । स्वरोजगार की दृष्टि से इसमें कोई बुराई नहीं ,बशर्ते दोना -पत्तल प्राकृतिक पत्तों से तैयार किए जाएं ।
-स्वराज करुण
(फोटो : इंटरनेट से साभार )
प्राकृतिक दोना - पत्तलों की पर्यावरण हितैषी परम्परा तेजी से विलुप्त होती जा रही है । पहले इन्हें पेड़ों के हरे पत्तों से और अपने हाथों से बनाया जाता था । सत्यनारायण की कथा का प्रसाद और विवाह आदि समारोहों में नाश्ता और भोजन इनमें परोसा जाता था ।
उपयोग के बाद लोग इन प्राकृतिक दोना - पत्तलों को किसी एक जगह पर एकत्रित करके रख देते थे या किसी गड्ढे में डाल देते थे ,जहाँ ये मिट्टी में घुल जाते थे । अगर जानवर भी इन पत्तों को खा लें तो उनको कोई नुकसान नहीं होता था । लेकिन अब प्राकृतिक दोना -पत्तल गाँवों से भी गायब होते जा रहे हैं ।
विभिन्न कारणों से जंगलों का कम होते जाना भी इसका प्रमुख कारण है । पहले वनों में साल ,सरई ,परसा आदि के वृक्ष काफी संख्या में होते थे ,जिनके पत्तों से दोना -पत्तल बनाया जाता था । लोगों के घरों के आँगन में या पीछे बाड़ियों में पर्याप्त जगह होती थी ,जहाँ कुँओं के आस -पास केले के भी पौधे लगाए जाते थे । बड़े होने पर केले के पत्ते भी भोजन परोसने के काम आते थे ।
दोना -पत्तल बनाने की मशीनें आ गयी हैं ,जिनमें मोटे कागजों पर प्लास्टिक , पॉलीथिन या कृत्रिम सिल्वर की बारीक परतें चढ़ाकर इन्हें बनाया जा रहा है ,जो स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक हैं । उपयोग के बाद लोग इन्हें लापरवाही से इधर -उधर फेंक देते हैं। मिट्टी में घुलनशील नहीं होने के कारण ये जमीन में खुले पड़े रहते हैं । इससे मिट्टी प्रदूषित होती है और इनमें बचे हुए या चिपके रह गए जूठन के सड़ने पर वातावरण में असहनीय बदबू फैलती है । पर्यावरण भी दूषित होता है । इस प्रकार के प्लास्टिक या कृत्रिम सिल्वर कोटेड आधुनिक दोना -पत्तलों को अगर कोई जानवर खा ले तो उसकी मौत भी हो सकती है ।
दोना -पत्तल बनाने की इन मशीनों की कीमत ज्यादा नहीं होती । इसलिए कोई भी व्यक्ति इस कुटीर उद्योग की स्थापना कर सकता है । स्वरोजगार की दृष्टि से इसमें कोई बुराई नहीं ,बशर्ते दोना -पत्तल प्राकृतिक पत्तों से तैयार किए जाएं ।
-स्वराज करुण
(फोटो : इंटरनेट से साभार )
No comments:
Post a Comment