स्वराज्य करुण
इन दरख्तों में परिंदों के कदम नहीं है
बताओ ज़रा आज हमें ऐसी कोई दुनिया
इंसान पर जहां ज़ुल्म-ओ -सितम नहीं है !
सब देख के भी जाने क्यों रोता नहीं है दिल ,
इन दरख्तों में परिंदों के कदम नहीं है
पांवों में हवाओं के छम-छम नहीं है !
न जाने कब से बंद है भौंरों का गीत गाना,
खामोश हैं ज़ज्बात कोई सरगम नहीं है !
संग्राम में सच के लिए वो हो गया घायल ,
मन का दर्द मिटाए कोई मरहम नहीं है ,
पतझर के झरे पत्ते कह रहे हैं चीख कर
मधुवन में मधुमास का मौसम नहीं है !
है कौन कहो मुजरिम इस मंज़र के वास्ते ,
कह देंगे सभी शान से कि हम नहीं है !
सियासत के बाज़ार में क्या खूब तमाशा ,
ग्राहक भी यहाँ किसी से कोई कम नहीं हैं !
लुट जाए अगर सामने वतन की आबरू
फिर भी किसी को आज कोई गम नहीं है !
बताओ ज़रा आज हमें ऐसी कोई दुनिया
इंसान पर जहां ज़ुल्म-ओ -सितम नहीं है !
सब देख के भी जाने क्यों रोता नहीं है दिल ,
क्यों तेरी-मेरी आँखें भी पुरनम नहीं हैं !
इतिहास वक्त का यहाँ लिखे भी कहो कौन ,
अब किसी की लेखनी में कोई दम नहीं है. !
स्वराज्य करुण
सियासत के बाज़ार में क्या खूब तमाशा ,
ReplyDeleteग्राहक भी यहाँ किसी से कोई कम नहीं हैं !
लुट जाए अगर सामने वतन की आबरू
फिर भी किसी को आज कोई गम नहीं है !
इस बेहतरीन रचना के लिए बधाई ।
'दम' न होना दिलासा है या चुनौती. बहरहाल, तीन एकदम अलग मूड एक साथ हैं, जिसमें शुरुआत वाला बेहतरीन है.
ReplyDeleteफिर भी किसी को आज कोई गम नहीं है !सच ही है...मगर क्या देश उनका नहीं है?
ReplyDeleteहै कौन कहो मुजरिम इस मंज़र के वास्ते ,
ReplyDeleteकह देंगे सभी शान से कि हम नहीं है !
सियासत के बाज़ार में क्या खूब तमाशा ,
ग्राहक भी यहाँ किसी से कोई कम नहीं हैं !
आज के हालत को खूबसूरती से ब्याँ किया है आखिरी शेर भी दिल को छू गया। बधाई सुन्दर गज़ल के लिये।
भाई साहब,
ReplyDeleteशेर बब्बर शेर होते जा रहे हैं।
कलम की धार भी तेज है।
सुंदर गजल के लिए आभार
सुन्दर !
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