चलिए , ज़रा घूम आएं आज हम अपने गाँव का साप्ताहिक बाज़ार , जहां ताजी हरी-भरी सब्जियों से लेकर बच्चों के खेल-खिलौने और हमारी माताओं और बहन-बेटियों के लिए सजने-संवरने के मनिहारी सामान कहीं खुले आकाश के नीचे , तो कहीं किसी टपरेनुमा छाँव में हमारा इंतज़ार कर रहे हैं . जहां साफ़ दिलों से होते किसी भी लेन-देन में सरलता, तरलता और निर्मलता की छुअन साफ़ महसूस की जा सकती है. उन्नीस-बीस के कुछ अंतर के साथ ये साप्ताहिक हाट-बाज़ार हमारे ग्रामीण भारत की पुरानी पहचान को आज भी कायम रखे हुए हैं. बाजू के किसी कस्बेनुमा शहर से किराए की मिनी -ट्रकों में या खुद की सायकल-मोटर सायकल में , आकर किसी पेड़ के नीचे बिना किसी ताम-झाम के ज़मीन पर सामान रख कर बैठ जाते हैं छोटे दुकानदार, फेरी वाले और बन जाता है गाँव का बाज़ार .
वास्तव में गाँव का बाज़ार हमारी संस्कृति है, लेकिन वह आज के शहरी शॉपिंग-मॉलों की घुटन भरी बाजारू संस्कृति नहीं है. सप्ताह के किसी एक निश्चित दिन लगने वाले ये हाट-बाज़ार अपनी परिधि के कई गाँवों के लोगों के लिए सामाजिक-सम्बन्धों के मज़बूत सेतु की तरह होते हैं . संचार क्रान्ति की सुनामी में बह कर आज मोबाईल -फोन भले ही गाँवों में भी पहुँच गया हो, लेकिन एक-दूसरे का हाल-चाल लेना हो , तो एक-दूजे से मिले बिना वह अधूरा लगता है और इस अधूरेपन को दूर करने के लिए आज भी इन हाट-बाज़ारों से अच्छा मेल-जोल का और कोई माध्यम नहीं है. स्थानीय छोटे सरकारी कर्मचारी हों , या गाँव के दूसरे वाशिंदे . अपने घर की रसोई में हफ्ते भर के लिए साग-सब्जियों का बंदोबस्त करना हो, तो हफ्ते में एक दिन बाज़ार-परिक्रमा ज़रूरी है . छत्तीसगढ़ के गाँवों में लगने वाले साप्ताहिक हाट-बाज़ारों में भी ग्रामीण-भारत की जीती-जागती तस्वीरें आसानी से देखी जा सकती हैं .
तालाब-संस्कृति का प्रदेश : छत्तीसगढ़
हमारे गाँव
साप्ताहिक बाज़ार : ताज़ी सब्जियों की बहार
हल्दी,मिर्च-मसाला : सब मिलेगा
तेल, कंघी और दूसरे फैंसी आयटम के लिए
मोल-भाव करती महिलाएं
मोटर-सायकलों ,या चौपहिया मोटर गाड़ियों में रेडीमेड कपड़े , साबुन , तेल , और दूसरे फैंसी सामान बेचने आया कोई छोटा व्यापारी हो या बैल-गाड़ियों में या कांवरों में सब्जी-भाजी लेकर पहुंचा कोई किसान , या फिर बर्फ के मीठे ,रंगीन गोले और बच्चों के रंगीन खिलौने बेचने सायकल पर आया कोई फेरी वाला, वहाँ सबको गाँव की धूल-भरी पावन माटी से जुडकर ही व्यापार करना है, ग्राहक हो या दुकानदार , सबको ज़मीन से जुडकर ही लेन-देन करना है. एक तरफ ताजी हरी सब्जियों की बहार , तो दूसरी ओर किसी छोटे से तिरपाल की छत तान कर बनाए गए एक दिवसीय होटल में छनते गर्मागर्म भजिए की मनभावन महक , कहीं किसी पेड़ के नीचे सिलाई -मशीन लेकर बैठे दर्जी महाराज से अपने नए-पुराने कपड़ों की सिलाई के बारे में होती चर्चा-परिचर्चा हो , या चूड़ी -बिंदिया और आयना-कंघी के लिए दुकानदारों से माताओं-बहनों और बहु-बेटियों की जिज्ञासा भरी लंबी पूछताछ और मोल-भाव के लिए होती मीठी नोक-झोंक ! हफ्ते में एक दिन ही सही , बेहद सहज मानवीय मनोभावों की ऐसी अनोखी झलक भला और कहाँ देखने को मिलती है ? मानव-जीवन से तेजी से विलुप्त हो रही सामूहिक चेतना आत्मीयता से परिपूर्ण हलचल के साथ हमारे इन साप्ताहिक हाट-बाज़ारों में आज भी कायम है .
स्थानीय जन-जीवन में सामाजिक- -सांस्कृतिक रिश्तों के ताने-बाने को और आंचलिकता की मीठी गर्माहट को साफ़ -सुथरी खुली हवा में महसूस करना हो, तो बेहद सादगी से लगते इन बाज़ारों को देखें, लेकिन महज़ ग्राहक बनकर नहीं , बल्कि वहाँ ज़मीन पर पसरा लगा कर बैठे समारू, मंगलू , बुधारू ,गुरुवारू और इतवारी से घुल-मिलकर , उन्हें अपना बना कर -उनके गाँव-घर और उनकी खेती-बाड़ी का हाल-चाल पूछकर .
गाँव का बाज़ार भारतीय जीवन शैली का एक अहम हिस्सा है . वह हमारी जिंदगी के साथ लगातार चलने वाला धारावाहिक किस्सा है. लेकिन क्या इसमें सब कुछ ठीक चल रहा है ? क्या इस धारावाहिक में कोई नया खतरनाक मोड़ आने वाला है ? इन दिनों रह-रह कर एक खबर लगभग हर दो-तीन माह के अंतराल से मीडिया में आती है कि अगले तीस-चालीस वर्षों में भारत सहित दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी शहरों में रहने लगेगी, अगर शहरी प्रशासकों और विशेषज्ञों का यह आंकलन सच है , तो इसका मतलब साफ़ है कि तब तक हमारे आधे गाँव मानचित्र से मिट चुके होंगे ,फिर उसके आगे के वर्षों में और क्या होगा ? यह पढ़कर , सुनकर और अंदाजा लगा कर ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. जब गाँव नहीं रहेंगे , तो कहाँ रहेगी वहाँ रहने वाली हमारी भारतीय आत्मा ? हमारी संस्कृति के प्रतीक इन साप्ताहिक हाट-बाज़ारों का क्या होगा ? जब ये ही नहीं रहेंगे , तो कहाँ रहेंगी वो प्यार और मनुहार की बातें , अपने गाँव-घर, समाज और परिवार की बातें , खेत- खलिहान की बातें और अपने हिन्दुस्तान की बातें ?
स्वराज्य करुण
वास्तव में गाँव का बाज़ार हमारी संस्कृति है, लेकिन वह आज के शहरी शॉपिंग-मॉलों की घुटन भरी बाजारू संस्कृति नहीं है. सप्ताह के किसी एक निश्चित दिन लगने वाले ये हाट-बाज़ार अपनी परिधि के कई गाँवों के लोगों के लिए सामाजिक-सम्बन्धों के मज़बूत सेतु की तरह होते हैं . संचार क्रान्ति की सुनामी में बह कर आज मोबाईल -फोन भले ही गाँवों में भी पहुँच गया हो, लेकिन एक-दूसरे का हाल-चाल लेना हो , तो एक-दूजे से मिले बिना वह अधूरा लगता है और इस अधूरेपन को दूर करने के लिए आज भी इन हाट-बाज़ारों से अच्छा मेल-जोल का और कोई माध्यम नहीं है. स्थानीय छोटे सरकारी कर्मचारी हों , या गाँव के दूसरे वाशिंदे . अपने घर की रसोई में हफ्ते भर के लिए साग-सब्जियों का बंदोबस्त करना हो, तो हफ्ते में एक दिन बाज़ार-परिक्रमा ज़रूरी है . छत्तीसगढ़ के गाँवों में लगने वाले साप्ताहिक हाट-बाज़ारों में भी ग्रामीण-भारत की जीती-जागती तस्वीरें आसानी से देखी जा सकती हैं .
तालाब-संस्कृति का प्रदेश : छत्तीसगढ़
हमारे गाँव
साप्ताहिक बाज़ार : ताज़ी सब्जियों की बहार
हल्दी,मिर्च-मसाला : सब मिलेगा
तेल, कंघी और दूसरे फैंसी आयटम के लिए
मोल-भाव करती महिलाएं
मोटर-सायकलों ,या चौपहिया मोटर गाड़ियों में रेडीमेड कपड़े , साबुन , तेल , और दूसरे फैंसी सामान बेचने आया कोई छोटा व्यापारी हो या बैल-गाड़ियों में या कांवरों में सब्जी-भाजी लेकर पहुंचा कोई किसान , या फिर बर्फ के मीठे ,रंगीन गोले और बच्चों के रंगीन खिलौने बेचने सायकल पर आया कोई फेरी वाला, वहाँ सबको गाँव की धूल-भरी पावन माटी से जुडकर ही व्यापार करना है, ग्राहक हो या दुकानदार , सबको ज़मीन से जुडकर ही लेन-देन करना है. एक तरफ ताजी हरी सब्जियों की बहार , तो दूसरी ओर किसी छोटे से तिरपाल की छत तान कर बनाए गए एक दिवसीय होटल में छनते गर्मागर्म भजिए की मनभावन महक , कहीं किसी पेड़ के नीचे सिलाई -मशीन लेकर बैठे दर्जी महाराज से अपने नए-पुराने कपड़ों की सिलाई के बारे में होती चर्चा-परिचर्चा हो , या चूड़ी -बिंदिया और आयना-कंघी के लिए दुकानदारों से माताओं-बहनों और बहु-बेटियों की जिज्ञासा भरी लंबी पूछताछ और मोल-भाव के लिए होती मीठी नोक-झोंक ! हफ्ते में एक दिन ही सही , बेहद सहज मानवीय मनोभावों की ऐसी अनोखी झलक भला और कहाँ देखने को मिलती है ? मानव-जीवन से तेजी से विलुप्त हो रही सामूहिक चेतना आत्मीयता से परिपूर्ण हलचल के साथ हमारे इन साप्ताहिक हाट-बाज़ारों में आज भी कायम है .
पेड़ के नीचे दर्जी हर हफ्ते आता है , फटे-पुराने कपड़े भी खुशी से सिल जाता है. |
गाँव का बाज़ार भारतीय जीवन शैली का एक अहम हिस्सा है . वह हमारी जिंदगी के साथ लगातार चलने वाला धारावाहिक किस्सा है. लेकिन क्या इसमें सब कुछ ठीक चल रहा है ? क्या इस धारावाहिक में कोई नया खतरनाक मोड़ आने वाला है ? इन दिनों रह-रह कर एक खबर लगभग हर दो-तीन माह के अंतराल से मीडिया में आती है कि अगले तीस-चालीस वर्षों में भारत सहित दुनिया की आधी से ज्यादा आबादी शहरों में रहने लगेगी, अगर शहरी प्रशासकों और विशेषज्ञों का यह आंकलन सच है , तो इसका मतलब साफ़ है कि तब तक हमारे आधे गाँव मानचित्र से मिट चुके होंगे ,फिर उसके आगे के वर्षों में और क्या होगा ? यह पढ़कर , सुनकर और अंदाजा लगा कर ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं. जब गाँव नहीं रहेंगे , तो कहाँ रहेगी वहाँ रहने वाली हमारी भारतीय आत्मा ? हमारी संस्कृति के प्रतीक इन साप्ताहिक हाट-बाज़ारों का क्या होगा ? जब ये ही नहीं रहेंगे , तो कहाँ रहेंगी वो प्यार और मनुहार की बातें , अपने गाँव-घर, समाज और परिवार की बातें , खेत- खलिहान की बातें और अपने हिन्दुस्तान की बातें ?
स्वराज्य करुण
bahut jankari bhari v hame hami se jodti post .aabhar .
ReplyDeleteबाज़ार का आकर्षण हमें सहज में अनावश्यक चीजों की तरफ भी खींच लेता है ...जीवन से जुडी पोस्ट
ReplyDelete@तब तक हमारे आधे गाँव मानचित्र से मिट चुके होंगे ,
ReplyDeleteतब गाँव में मॉल खुलेंगे. मोंटेक की कृपा से.
तेल कंघी से लेकर महुआ तक मॉल में मिलगा.
बुधियारिन दाई की हंडिया और पसरा वहीँ दिखाई देगा.
जब गाँव नहीं रहेंगे , तो कहाँ रहेगी वहाँ रहने वाली हमारी भारतीय आत्मा| एक धधकता सवाल है आज सबके सामने और ज़रा शहरी विकास मंत्रालय के ताजा रिपोर्ट के हवाले से भी देखा जाए कि शहरीकरण का प्रतिशत साठ से भी ऊपर जा पहुचा है| गाँव गड़प मतलब कंक्रीट के जंगल का फैलाव ...बिजली पानी की मारामारी .संक्रामक रोगों का फैलाव और चौपाल संस्कृति के चौपट होने का मतलब अपराध में बढ़ोतरी और शुद्ध हवा का संकट .. और क्या करेंगे आप इस तरह के "विकसित" भारत का जिसमे गाँव ही नहीं होंगे|
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