- स्वराज्य करुण
कातिलों के हाथों कैदी बन गया पहाड़ ,
हरेली का चीर-हरण कर रहा है कौन ?
डरे हुए पंछियों का
उड़ना दुश्वार हुआ ,
सपनों का घर उनका
आज तार-तार हुआ !
पेड़ों के हत्यारे घूम रहे झूम-झूम ,
गाँवों से शहरों तक हवाएं भी मौन !
सूख गए जल-प्रपात
नदियाँ वीरान हुईं
पनघट की वादियाँ भी
आज सुनसान हुईं !
जान कर भी सब कुछ अनजान बन गए ,
ये दोहरा आचरण कर रहा है कौन ?
ये दोहरा आचरण कर रहा है कौन ?
गाँव में अब कोई
तालाब नहीं है
आँखों में प्यार का
सैलाब नहीं है !
जिंदगी की राह में हमसफ़र हैं मुश्किलें,
मंजिलों का अपहरण कर रहा है कौन ?
खेतों में उग आए
पत्थरों के जंगल
घरों के भीतर हैं
बेघरों के जंगल !
धरती से अम्बर तक ज़हरीला मौसम,
दूषित यह वातावरण कर रहा है कौन ?
स्वराज्य करुण
पर्यावरणीय चिंता स्वाभाविक है !
ReplyDeleteजाने-अनजाने हम सभी इस सवाल के घेरे में हैं.
ReplyDeleteएक जागरूक नागरिक को अपने अन्दर झाँकने के लिए प्रेरित करती कविता लाजवाब है
ReplyDeleteझकझोरने वाली रचना सोचने को मजबूर करती है।
ReplyDeleteबसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं।