- स्वराज्य करुण
समुद्री तूफ़ान की तरह
इस बहते हुए समय की
तेज रफ्तार
तेज रफ्तार
जिंदगी से डरता हूँ मै /
चाहता हूँ जिंदगी बहती रहे -
गंगा.यमुना ,महानदी और
गोदावरी की तरह
मंथर गति से ,
वासन्ती हवाओं की तरह
आहिस्ता-आहिस्ता /
खिले हों गुलमोहर
उसके बागीचे में,
गूंजते हों कोयल के मधुर गीत
उसकी अमराई में ,
प्यार का खुशनुमा एहसास हो
उसकी परछाई में /
हँसता-खेलता हो
देश और दुनिया का भविष्य
जिसकी गोद में ,
कुछ ऐसा हो यह जीवन /
लेकिन कुछ भी तो नहीं है ऐसा,
उम्र की सीढ़ियों पर
बचपन की नादान
मुस्कुराहटों का
देखते ही देखते
तब्दील हो जाना -
माथे पर चिंता की
गहरी लकीरों में,
भीतर तक भयभीत कर जाता है /
डरता हूँ -समय के
महासागर से संवेदनाओं की
लहरों के मिटते
अस्तित्व को देख /
सुनकर जिनकी दर्द भरी पुकार
हम नहीं पहुँच पाते उन तक
मदद के लिए /
सोच कर भी लगता है डर-
आज के खिले हुए फूलों की
मुस्कान क्यों नहीं रहती
कायम कल तक ?
घर के आँगन में
गौरैय्ये की तरह
गौरैय्ये की तरह
थिरकता ,चहकता नन्हा बच्चा
खेल के मैदान से
देखते ही देखते
जाने कब पहुंचा
दिया जाता है-
जिंदगी के मैदान में -
एक महायुद्ध के लिए ?
देख कर जीवन का
ह्रदय विहीन बेरहम संघर्ष
डरता हूँ मै /
अगर अनिवार्य है संघर्ष तो
चाहता हूँ -
संघर्ष में भी हो संवेदना /
महसूस करे हर कोई -
इसमें व्यर्थ बहते लहू के रंग की
भावनाओं को
जिसकी नहीं होती कोई जात ,
जिसका नहीं होता कोई मज़हब ,
लहू तो सिर्फ लहू है ,
हर इंसान के शरीर में वह रहता है
और भीतर ही भीतर
पवित्र नदियों की तरह बहता है /
- स्वराज्य करुण
सुंदर कविता के लिए आभार
ReplyDeleteएकरंग लहू, मानों पवित्र नदियां, जीवन-रेखा.
ReplyDeleteसुन्दर कविता !
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