स्वराज्य करुण
दिन भर तोड़ते रहे पत्थर
जिंदगी भर तोड़ते रहे पहाड़ !
फिर भी न बन सकी राह ,
फिर भी न आ सकी बहार !
दिन भर बहाते रहे पसीना ,
जिंदगी भर पीते रहे आँसू ,
फिर भी न आ सकी रौशनी -
तंग और अँधेरे सीलन भरे कमरों में !
दिन भर करते रहे फ़िक्र ,
उम्र भर किया इंतज़ार ,
एक दिन जल उठेगा
यातनाओं का यह शहर ,
एक दिन खिल उठेगा सपनों का गाँव !
दिन भर सोचता रहा -
एक पूरी जिंदगी के बारे में ,
जिंदगी भर सोचता रहा -
एक पूरे दिन के बारे में !
सुबह से बिन बुलाए
मेहमान की तरह घर में
घुसती गरीबी .
क़र्ज़ की बीमारी और
बीमारियों का क़र्ज़ !
आखिर क्यों दिन भर
एक पूरी जिंदगी की फ़िक्र
करने के बावजूद -एक पूरी जिंदगी
दिन भर की फ़िक्र नहीं कर पाती ?
स्वराज्य करुण
ek hakikat
ReplyDeletebahut sunder
aabhar
देश की गरीब जनता की हकीकत सुन्दर शब्दों मे ब्याँ की है। शुभकामनाये़
ReplyDeleteयथार्थ बयाँ कर दिया…………सुन्दर रचना।
ReplyDeleteआखिर क्यों दिन भर
ReplyDeleteएक पूरी जिंदगी की फ़िक्र
करने के बावजूद -एक पूरी जिंदगी
दिन भर की फ़िक्र नहीं कर पाती ?
जीवन की सच्चाई है .
आख़िरी लाइनें तो जैसे एक झन्नाटेदार थप्पड़ मार गईं हों !
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