हम तो चलते जाएंगे नया सवेरा होने तक !
पर्वत -पत्थर आएँगे ही
बहती नदियों के पथ पर ,
लेकिन हम गतिमान रहेंगे
अपने संकल्पों के रथ पर !
रात भले कितनी ही लम्बी क्यों न हो ,
हम नहीं जाएंगे निंदिया के नरम बिछौने तक !
कितनी दूर चले हैं साथी
देखो ज़रा तुम पीछे मुड़ कर ,
गुज़र गयी कितनी ही सदियाँ
इस लम्बे सफर से जुड़ कर !
उत्साह जागने और अलस के सोने तक ,
हम तो चलते जाएंगे नया सवेरा होने तक !
धर्म -जाति की ऊंची-नीची
दीवारों को तोड़ चलें ,
इक-दूजे से मानवता का
आओ नाता जोड़ चलें !
समता के धागे में ममता के मोती पिरोने तक ,
हम तो चलते जाएंगे नया सवेरा होने तक !
स्वराज्य करुण
bahut achha likha hai aapne.....prernadayee
ReplyDeleteवाह .. बहुत खूब !!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
ReplyDeleteमानव धर्म सर्वोत्तम धर्म
ReplyDeleteसुंदर गीत
धर्म -जाति की ऊंची-नीची
ReplyDeleteदीवारों को तोड़ चलें ,
बहुत सुन्दर भावों को लिए अच्छा गीत
हम तो चलते जायेंगे नया सवेरा होने तक...|
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना |
वाह ! बेहद उम्दा संदेश देती रचना……………बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDeleteसुन्दर भाव ,सुन्दर गीत.
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी रचना...बधाई।
ReplyDeleteसमता के धागे वाली बात जम रही है ,आशावाद जीवित रहे !
ReplyDeleteधर्म -जाति की ऊंची-नीची
ReplyDeleteदीवारों को तोड़ चलें ,
इक-दूजे से मानवता का
आओ नाता जोड़ चलें !
यह केवल गीत नहीं , सन्देश भी है .
वाह कितने सुन्दर भाव !!
ReplyDeleteबहुत सकारात्मक और सशक्त प्रस्तुति पर बधाई