कल तक थे हरे-हरे , आज हुए सुनहरे ,
लहराए शान से , क्यों किसी से डरें !
पसीने की बूंदों से
बनी हैं ये बालियाँ
उम्मीद से भरती हैं
हर किसी की थालियाँ !
रात के सफर में थको मत इस तरह ,
रोशनी के इंतज़ार में न रहो खड़े !
हवाओं में सपनों का
गूंजे सरगम
फिर किसी की आँखें भी
क्यों होंगी नम !
झूम उठी मस्ती में कलियों की महफ़िल
पेड़ों के होठों से गीतों के फूल झरें !
खेत हैं सजे-धजे
धानी-परिधान में ,
पंछियों की चहक सुनो ,
सुबह की मुस्कान में !
कुदरत का कलाकार मौसम की तूलिका से
हर दिन,हर पल यहाँ नए -नए रंग भरे !
ये अपनी धरती सच ,
धान का सागर है,
दूर-दूर तक फैले
प्रेम के आखर हैं !
दिन हो या रात , सब इसके ही आंगन हो ,
इसकी ही गोद में हम रोज जिएं और मरें !
स्वराज्य करुण
सुन्दर अभिव्यक्ति ....धान के खेत लहलहा गए आँखों के सामने
ReplyDeleteये अपनी धरती सच ,
ReplyDeleteधान का सागर है,
दूर-दूर तक फैले
प्रेम के आखर हैं !
शानदार मौसमी गीत ,बधाई .
कार्तिक पूर्णिमा एवं प्रकाश उत्सव की आपको बहुत बहुत बधाई
अशोक जी की टिप्पणी हमारी भी मानिये !
ReplyDeleteदिन हो या रात , सब इसके ही आंगन हो , इसकी ही गोद में हम रोज जिएं और मरें !
ReplyDeletebahut badiya sir