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नदियाँ रेगिस्तान हो गयी
पार कहीं भी नांव नहीं है .
नदियाँ रेगिस्तान हो गयी
पार कहीं भी नांव नहीं है .
कोयल की खामोशी देखो
कौए की कांव-कांव नहीं है .
गोधूली की धूल कहाँ अब ,
धूल भरे कहीं पाँव नहीं हैं .
दूध-दही की बात न पूछो
दारू का अभाव नहीं है .
बात-बात पे होते झगड़े
बोल-चाल बर्ताव नहीं है .
लोक -गीत अब नहीं हवा में
चौपालों में अलाव नहीं है.
कहाँ बजे कान्हा की बंशी ,
गोकुल जैसा गाँव नहीं है .
गौरैया भी गायब घर से
आँगन में सदभाव नहीं है .
कब लौटेंगे दिन वो पुराने ,
जिनमें कोई टकराव नहीं है .
स्वराज्य करुण
बात-बात पे होते झगड़े
ReplyDeleteबोल-चाल बर्ताव नहीं है .
बिलकुल सही कहा। समय के साथ साथ सब कुछ बदल रहा है।
सुन्दर गज़ल। बधाई।
लाजवाब...प्रशंशा के लिए उपयुक्त कद्दावर शब्द कहीं से मिल गए तो दुबारा आता हूँ...अभी मेरी डिक्शनरी के सारे शब्द तो बौने लग रहे हैं...
ReplyDeleteaap ke har words mai chhatisgarh ka dard hai.
ReplyDeleteवाह भाई साहब आज तो आपने उम्दा गजल के माध्यम से गांव परिक्रमा द्वारा गंभीर विषय को उठाया है।
ReplyDeleteवास्तव में आधुनिकता की आंधी में हमारी संस्कृति और प्रकृति से बहुत कुछ गायब होता जा रहा है।
हमें इस ओर अवश्य ही ध्यान दे्ना होगा
नहीं तो फ़िर पनघट गीत नहीं लिखे जाएंगे।
कहाँ बजे कान्हा की बंशी,
ReplyDeleteगोकुल जैसा गाँव नहीं है।
गौरैया भी गायब घर से,
आँगन में सदभाव नहीं है।
वाह, स्वराज जी, बहुत ही भावनापूरित गजल लिखी है आपने।...बधाई।
टिप्पणियों के लिए आप सबका बहुत-बहुत आभार .
ReplyDeleteकहाँ बजे कान्हा की बंशी ,
ReplyDeleteगोकुल जैसा गाँव नहीं है .
गौरैया भी गायब घर से
आँगन में सदभाव नहीं है .
कब लौटेंगे दिन वो पुराने ,
जिनमें कोई टकराव नहीं है
बहुत सुन्दर भाव ...पर अब वो आँगन कहाँ ?
पनघट -पीपल छाँव नहीं है
ReplyDeleteप्यार भरा कोई भाव नही है .
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नदियाँ रेगिस्तान हो गयी
पार कहीं भी नांव नहीं है .
कोयल की खामोशी देखो
कौए की कांव-कांव नहीं है .
गोधूली की धूल कहाँ अब ,
धूल भरे कहीं पाँव नहीं हैं .
किस किस पंक्ति की प्रशंसा करूं हर पंक्ति बेजोड भाव प्रदर्शन कर रही है…………………बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति।
बात-बात पे होते झगड़े
ReplyDeleteबोल-चाल बर्ताव नहीं है .
लोक -गीत अब नहीं हवा में
चौपालों में अलाव नहीं है.
कितने सुन्दर भाव है रचना के ....काश ! वो दिन फिर लौट आएं
6.5/10
ReplyDeleteसुन्दर-सहज-सरल गज़ल पाठक का दिल जीतने में सक्षम है
बदलते समय-समाज को बहुत खूबसूरती से बयां किया है.
टकराव न रहे हों, ऐसे भी दिन थे क्या कभी. अगर रहें हों तो जीवन बेमजा ही रहा होगा.
ReplyDeleteअब कहाँ वो दिन रहे ... अब तो गाँव आदि में भी वैसा अपनापन देखने को नहीं मिलता ... बहुत खूबसूरत रचना ....
ReplyDeleteजीवन की पल पल परिवर्तित होती छटा की सच्चाईयों की खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
राहुल सिंह साहब से सहमत !
ReplyDeleteइस कविता को आज पढ़ पाया हूँ ,बड़ी अच्छी लगी .लगता है आप कविता-माला तैयार कर रहें है .शुभकामनाएं !
ReplyDeleteइस कविता को आज पढ़ पाया हूँ ,बड़ी अच्छी लगी .लगता है आप कविता-माला तैयार कर रहें है .शुभकामनाएं !
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