ज़माने की नब्ज़ को टटोल कर देख लिया ,
कहीं भी ज़रा -सी धड़कन नहीं है !
खेतों में दूर तक फ़ैली है खामोशी
हरियाली खो गयी जानी किन घोंसलों में,
अपने ही कदमों का भरोसा जब नहीं
कैसे यकीन करें रास्तों के हौसलों में !
अँधेरे की भुजाओं में कैद हुई रोशनी ,
आज-कल सुबह कहीं जागरण नहीं है !
इतनी जल्दी कैसे कमीज़ पुरानी हुई
नयी कमीज़ की तलाश में देखो आत्मा ,
तस्वीर अपने जीवन की बदल नहीं पाए हम,
कर रहे हैं अपनी उम्मीद का भी खात्मा !
जल रहे हैं गाँव-शहर ,भयभीत भाग रहे सब ,
हाल चाल पूछने का वातावरण नहीं है !
चल रहा है सपनों के कत्ल का सिलसिला
इक-दूजे को ढकेल बढ़ रही है दुनिया ,
हमसफर के पांवों में बांधकर जंजीर आज
उन्नति के शिखरों पर चढ़ रही है दुनिया !
मिट गए हैं भगदड़ में सूरज के चरण-चिन्ह ,
पथ-विहीन पृथ्वी पर कोई किरण नहीं है !
- स्वराज्य करुण
भगदड़ में मिट गए सूरज के चरण-चिह्न, क्या खूब है.
ReplyDeleteवाह भाई साहब, कई सुंदर बिंब बन पड़े हैं।
पैमाने में व्यग्र होते सोडे के बुलबुले!
chal raha sapnon ke katl ka silsila---vyavastha par chot karti sarthak kavita.shubhkamnaye.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर गीत ..
ReplyDeleteबेहतरीन शब्द रचना ।
ReplyDeleteयही तो हाल है आज।
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